मानवीय गरिमा का आख्यान : प्रियंवद की कहानियाँ
- लोङ्जम रोमी देवी

बीज शब्द : समकालीन,यथार्थ, आधुनिकता, सांप्रदायिकता, मानवीय गरिमा, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, इतिहासबोध, मनोजगत, विडंबना, विसंगति, इयत्ता, अस्मिता, निस्संगता, राजनैतिक, मौन, चेतना, परंपरा।
मूल आलेख : समकालीन हिंदी कहानीकारों में अपनी वैचारिकता एवं जीवन के प्रति सर्वथा अलग दृष्टि के कारण प्रियंवद विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।वे हिंदी के एकमात्र ऐसे कहानीकार हैं जिनकी कहानियों पर किसी दूसरे रचनाकार का प्रभाव लक्षित नहीं किया जा सकता है। उनकी कहानियाँ इस बात का साक्ष्य उपस्थित करती हैं कि वे लगातार कहानियों के लिए उपयुक्त विषय की खोज में संलग्न रहते हैं। प्रियंवद यह मानते हैं कि किसी भी लेखक को अपनी रचना के लिए निरंतर उद्यम करना पड़ता है और हर लेखक के पास उसका अपना एक भिक्षापात्र या कश्कोल होता है जो कभी खाली रहता है तो कभी भरा रहता है। यह अकारण नहीं है कि प्रियंवद की कहानियों के एक संग्रह का नाम ही है ‘कश्कोल’ यानी भिक्षापात्र। अपने संग्रह ‘कश्कोल’ की भूमिका में लेखक की रचना-प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए वे लिखते हैं ‘‘कश्कोल यानी भिक्षापात्र। किसी भी लेखक की रचनात्मकता का यह पात्र कभी भरता नहीं है। एक रचना के बाद दूसरी रचना के लिए एक भिक्षु की तरह वह निरंतर अपने रचनात्मक जगत में इस पात्र के साथ विचरण करता रहता है। रचनाएं उसे भरती हैं। वह फिर खाली होता है। इस भिक्षापात्र का खाली रहना ही लेखक के जीवन को अर्थ और गति देता है। इसका भर जाना यानी लेखक का अंत हो जाना।’’[1] प्रियंवद की संपूर्ण कहानियाँ ‘आईनाघर’ शीर्षक से संगृहीत हैं। प्रियंवद की पहली कहानी ‘बोसीदनी’ चर्चित पत्रिका ‘सारिका’ के जनवरी 1980 के अंक में प्रकशित हुई थी।प्रियंवद की यह कहानी एक प्रेम कहानी थी जिसने पाठकों के सामने प्रेम के एक नए स्वरूप को रखा।प्रियंवद समकालीन हिंदी कहानी के ऐसे अन्यतम कहानीकार हैं जिन्होंने अनेक यादगार प्रेम कहानियाँ पाठकों को दी हैं। ‘बोसीदनी’, ‘पलंग’, ‘अधेड़ औरत का प्रेम’, ‘कैक्टस की नावदेह’ और ‘एक अपवित्र पेड़’ प्रेम की संपूर्णता और उसकी विशिष्टता को प्रकाशित करने वाली सशक्त कहानियाँ हैं। प्रियंवद ने अपनी अनेक कहानियों में विवाहेतर प्रेम की स्थितियों को रेखांकित किया है। उनकी कहानियाँ यह सिद्ध करती हैं कि कई बार विवाहेतर अथवा ऐसे प्रेम संबंधों में जिन्हें सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती, वह अत्यंत गहरा और सांद्र होता है। ऐसे प्रेम में ऊष्मा अधिक होती है। ‘कैक्टस की नावदेह’ प्रियंवद की अत्यंत चर्चित कहानी है जिसमें प्रेम के एक अलग दर्शन को लक्षित किया जा सकता है। आत्मवाची शिल्प में रची गई यह कहानी वनि, म्रदिमा और लेखक के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। प्रियंवद की यह कहानी अत्यंत संवेदनशीलता के साथ न केवल प्रेम वरन् मानवीय जीवन के रागात्मक संबंधों को बखूबी उजागर करती है।इस कहानी के संदर्भ में कहानीकार और युवा आलोचक राकेश बिहारी लिखते हैं ‘‘प्रियंवद की कहानियों के स्त्री चरित्र कई बार कुछ ख़ास तरह की वर्जनाओं को तोड़ने के बाद अपराधबोध से भी ग्रस्त होते हैं।लेकिन एक स्त्री के प्रश्नों के उत्तर में कहानी के पुरुष पात्र का हाथ काँपना प्रियंवद की कहानियों में एक विरल उदाहरण है। प्रश्न और उसके उत्तर के क्रम में पात्र की देह-भाषा की बारीकियों में अंतर्निहित संवेदना की यह सूक्ष्म कोशिका ‘कैक्टस की नावदेह’ को एक खास कहानी बना देती है।’’[2] निस्संदेह प्रियंवद समकालीन हिंदी कहानी के एक मात्र ऐसे कहानीकार हैं जिनकी कहानियाँ प्रेम के विशिष्ट दर्शन को अभिव्यक्त करती हैं।
प्रियंवद की कहानियों में गहरा इतिहास-बोध विन्यस्त रहता हैलेकिन यहाँ हमेंयह ध्यान रखना होगा कि यह इतिहास-बोध अतीतोन्मुख न होते हुए समकालीन समय की आहटोंको सुनता है और इसकी दृष्टि भविष्य की ओर होती है। प्रियंवद अपनी कहानियों में प्रायः उस ‘लोकेल’ को चित्रित करते हैं जिनसे हिंदी का सामान्य पाठक अपरिचित है। समुद्र का कोई किनारा, निर्वासित-सा गेस्ट हाउस, शहर के बीच स्थित लाल गोदाम, पुरानी लाइब्रेरी, टूटा हुआ खंडहर और कोई बड़ा-सा चर्च प्रियंवद की कहानियों में ये सब दिखाई पड़ते हैं। इस संदर्भ मेंउनकी कहानी ‘लाल गोदाम का भूत’ की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-‘‘शहर की सबसे घनी बस्ती के बीच में यह एक बड़ा अहाता था, घनी बस्ती से मतलब यही कि छज्जों से मिले छज्जे, दरवाजों से मिली दरवाजों की दरारें सड़कों पर कूड़ों के ढेर।’’[3] प्रियंवद ऐसे कहानीकार हैं जिन्हें मानव मन की गहरी समझ है। उनकी कहानियाँ मानव मन के अनेक स्तरों से हमारा साक्षात्कार कराती हैं। मानव मन का एकांत, उसकी रहस्यमयता, मन की उदासी और मन के अंदर कहीं गहराई से धंसा हुआ वात्सल्य, समर्पण और प्रेम, मन का विराटत्व-ये सभी प्रियंवद की कहानियों में सुंदर ढंग से अनुस्यूत रहते हैं। प्रियंवद की कहानियाँ यह दिखाती हैं कि वस्तुतः यह मानव मन रूपी तहखाना ही है जहाँ हम बहुत कुछ संचित करते जाते हैं।‘‘मनुष्य के मन से अधिक विराट और रहस्यमय कुछ भी नहीं है। हम अपना कितना अंश अजनबियों की तरह मन के गहरे तहखाने में जीते हैं।’’[4] प्रियंवद की इन पंक्तियों में गहन दर्शन और चिंतन की विद्यमानता है। उनकी कहानियों पर यह आक्षेप भी लगाया जाता है कि वे हमें उदासी और निराशा की तरफ ले जाती हैं। अपने कहानी संग्रह ‘आईनाघर’ की भूमिका में वे लिखते हैं ‘‘कहानी लिखने से पहले एक गहरी उदासी में डूबना मेरे लिए बेहद जरूरी है। ऐसा होना मुश्किल से होता है इसलिए कहानी लिखना भी मेरे लिए हमेशा मुश्किल रहा है। ऐसा क्यों है?मैं नहीं जानता पर एक गहरी निस्संगता, विरक्ति, नीरवता जगत की मनुष्य-विरोधी स्थितियाँ, सामाजिक व राजनैतिक क्रूरताएँ और इनके विरुद्ध आक्रोश, असंतोष और मनुष्य के समर्थन में खड़े रहने की ज़िद जिन कहानियों में हैं, उन्होंने भी मूलतः इसी प्रक्रिया से जन्म लिया है।’’[5] इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रियंवद की कहानियों में जो उदासी है उसके अपने गहरे सामाजिक निहितार्थ हैं। दरअसल प्रियंवदबाहरी दुनिया की मानव विरोधी स्थितियों, क्रूरताओं, आक्रोश और असंतोष के प्रतिकारस्वरूप ही उदासी का आवरण ग्रहण करते हैं। वस्तुतः मौन रहकर भी प्रतिकार किया जा सकता है। प्रियंवद की अनेक कहानियाँ स्थितियों के प्रति मुखर हैं। प्रियंवद की वे कहानियाँ हमें सर्वाधिक प्रभावित करती है जो विवेचना प्रधान और वैचारिकता से पुष्ट हैं। इन कहानियों में ‘बूढ़ा काकुनफिर उदास है’, ‘बोधिवृक्ष’, ‘एक अपवित्र पेड़’, ‘लाल गोदाम का भूत’, ‘इतिवृत’, ‘मायागाथा’, ‘एक लेखक की एनाटॉमी’ आदि कहानियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
प्रियंवद हिंदी के एक ऐसे अग्रणी कथाकार हैं जो भविष्य की आहटों को बहुत जल्दी पहचान लेते हैं। प्रियंवद की कहानियाँ सूक्ष्मतापूर्वक भूमंडलीकरण और बाजारवाद के खतरों को उजागर करती हैं। विकास और प्रगति के नाम पर जो छद्म हमारे सामने प्रस्तुत किया जा रहा है, प्रियंवद की अनेक कहानियाँ उसे प्रकाशित करती हैं। प्रियंवद के कहानीकार रूप की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए राकेश बिहारी उचित ही लिखते हैं ‘‘प्रियंवद एक साहसी कथाकार हैं। विषय के चयन से लेकर उसके निर्वाह तक इनकी कहानियाँ न सिर्फ तमाम वर्जनाओं का निषेध करती हैं, बल्कि समाज और संबंधों के बने बनाए व्याकरणों की चौहद्दियों का अतिक्रमण करते हुये एक निर्बंध समाज की भूमिका भी प्रस्तावित करती हैं। गोकि प्रियंवद की कई कहानियाँ सांप्रदायिकता जैसे समकालीन राजनैतिक विषयों को भी बहुत सूक्ष्मता से विवेचित विश्लेषित करती हैं, लेकिन इनके द्वारा लिखी गईं प्रेम कहानियाँ इन्हे सम्पूर्ण हिंदी कथा साहित्य में एक विशिष्ट कथाकार होने का हक और सम्मान दोनों प्रदान करती हैं।’’[6] भूमंडलीकरण और बाजारवाद के प्रभाव को सूक्ष्मतापूर्वक उजागर करती हुई‘फ्लडलाइट’ उनकी एक ऐसी कहानी है जो तथाकथित विकास और प्रगति को आइना दिखाती है। इस कहानी के निहितार्थ बहुत गहरे हैं। कहानी यह दिखाती है कि तथाकथित विकास के नाम पर किसप्रकार प्रकृति और पर्यावरण को क्षति पहुँचाई जा रही हैं। यह कहानी कानपुर नगर को केंद्र में रखते हुए रची गई है। फ्लडलाइट का काम पूरा होने पर जब परीक्षण के लिए स्टेडियम के अंदर रोशनी जलाई जाती है तो पूरा स्टेडियम दुधिया रोशनी में नहा उठता हैं। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है जिसकी तरफ कहानी की पंक्तियाँ संकेत करती हैं ‘‘अचानक पेड़ों के ऊपर बैठी चिड़ियाँ चीखने लगीं बदहवास, बेचैन, वे पेड़ों से उड़ी, सारे पेड़ उन भागती हुई चिड़ियों के झुंड और चीखों से भर गए। वे स्टेडियम के ऊपर चारों तरफ नाच रहीं थी। इस अचानक पैदा हुई रोशनी ने उनका पूरा संतुलन बिगाड़ दिया था।’’[7] इस प्रकार यह कह सकते हैं कि ‘फ्लडलाइट’ कहानी कुशलतापूर्वक वर्तमान की विकास की अवधारणा को प्रश्नांकित करती है।
‘लाल गोदाम का भूत’ सांप्रदायिकता को केंद्र में रखते हुए रची गई प्रियंवद की अत्यंत सशक्त कहानी है। लाल गोदाम वस्तुतः प्रतीक है एक परंपरा का। समाज में जब भी कुछ अनचाहा या अनपेक्षित घटित होता है सबसे पहले टूटती है परंपराएँ। लाल गोदाम भी इन्हीं सांप्रदायिक शक्तियों की लड़ाई की भेंट चढ़ जाता है। कहानी के मुख्य चरित्र अगनू प्रतीक हैं उस भारतीय उदार और सर्वसमावेशी दृष्टि के जिसके लिए न कोई अपना है और न कोई पराया है। अंत में जब लाल गोदाम में आग लग जाती है तो वे कथावाचक से कहते हैं ‘‘मैंने बहुत सोचा। कहा जाऊँ? जमीन के ऐसे किस टुकड़े पर रहूँ जहाँ ये सब न होता हो वह कुछ देर रुके। सांस ली उन्होंने, कुर्ते की बाँह से होंठ पोंछ फिर बोले, ‘जहाँ सिर्फ किसी दरख्त, धूप, सपने की जाति और धर्म वाला होने से काम चल जाए। सोचा तो याद आया ऐसी एक जगह है अभी। मेरे गाँव के पास एक पुराना खंडहर है। वहाँ कोई नहीं जाता। सब कहते हैं वहाँ भूत रहते हैं।’’[8] प्रियंवद एक ऐसे बड़े विजन वाले कहानीकार हैं जिनके यहाँ किसी प्रकार का विभेद दिखाई नहीं पड़ता है। वैचारिक स्तर पर उनकी कहानियाँ अत्यंत सशक्त है। वे न केवल सूक्ष्म विवरणों के सहारे कहानी को सृजित करते है वरन् उनकी कहानियों का महत्त्व इस दृष्टि से बढ़ जाता है कि उनमें चिंतन और विचार तत्व की प्रधानता हैं।
‘बहुरूपिया’ कहानी वर्तमान समय में क्षरित हो रहे पठनीयता के संकट और इसके साथ ही साथ लुप्त हो रही पुस्तक संस्कृति पर प्रकाश डालती हैं। प्रियंवद की यह कहानी व्यापक अर्थों में हमारी संस्थाओं का जिस प्रकार अवमूल्यन हो रहा है, उस पर भी प्रकाश डालती है। कहानी का मुख्य चरित्र एक बूढ़ा व्यक्ति है जिसे पुस्तकों की गंध से प्रेम है। वह बहुत निष्ठा और समर्पण के साथ पुस्तकालय में अपने दायित्व का निर्वहन करता रहता है। एक दिन पुस्तकालय में दीमकों को देखकर वह चिंतित हो जाता है कि ये दीमकें किताबों को खा जाएंगी। इस संदर्भ में वह डी.एम से मिलता है और अनंतर स्थानीय एम.एल.ए जब पुस्तकालय का भ्रमण करते है तो बूढ़े का ह्रदय टूट जाता है। एम.एल.ए द्वारा कही गई पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं ‘‘कुछ नहीं..इस अनुदान को हम कहीं और दे सकते हैं। विधवाओं के आश्रम को.विकलांगों को..गरीबों के बच्चों की मुफ्त पढ़ाई को। बहुत काम हैं अभी सबमें पैसा चाहिए होता है .ये पढ़ने वाले समाज को, हमें क्या देते है?’’[9] इस कहानी के संदर्भ में प्रतिष्ठित कहानी आलोचक जयप्रकाश की पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं ‘‘एक नज़र में यह कहानी सत्तासीन वर्ग की क्रूरता और उसके नैतिक फूहड़पन का आख्यान जान पड़ती है। नौकरशाही की उदासीनता और शासकों की उपेक्षा के चलते ज्ञान और शिक्षा के केन्द्रों के विघटन, उनकी रक्षा के लिए सन्नध्द प्रयत्नों की व्यर्थता, सत्ता की असंवेदनशीलता और लक्ष्यहीनता, दीर्घकालीन सामाजिक हितों की अपेक्षा तात्कालिक स्वार्थ के लिए शक्ति के इस्तेमाल जैसे मुद्दों पर यह ध्यान खीचती है।’’[10] प्रियंवद ने अत्यंत सूक्ष्मता के साथ यह दिखाने की कोशिश की है कि कहाँ पहले के राजनेता अत्यंत अध्ययनशील और पुस्तकों के प्रति आदर भाव रखने वाले होते थे जबकि आज के नेताओं का पढ़ने लिखने से कोई लेना-देना नहीं बल्कि पुस्तक संस्कृति से उन्हें बड़ी घृणा है।
प्रियंवद की कहानियाँ इस दृष्टि से विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं कि उनमें उदात्त मानवीय मूल्य और चिंतन गहराई से अनुस्यूत हैं। कहानियों से गुजरते हुए जीवन के प्रति एक दार्शनिक दृष्टिकोण उनमें लक्षित किया जा सकता है। प्रियंवद की कहानियाँ पाठकों को बिना बोझिल किए हुए, उनका साक्षात्कार एक ऐसी दुनिया से कराती हैं जो वैचारिक रूप से अत्यधिक समृद्ध संसारहोता है।धर्म, समाज और व्यवस्था के प्रति एक अलग दृष्टिकोण प्रियंवद अपनी कहानियों में सृजित करते हैं। उनकी पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं ‘‘तुम्हारे ये धर्म, समाज और राज्य व्यवस्थाएँ, सब, जीवन को जहरीले दांतों से धीरे-धीरे कुतरती रहती है। और पता भी नहीं चलता कि कब एक संभावनाओं वाला जीवन नीला पड़ गया।’’[11] कहना न होगा कि प्रियंवद की यही वैचारिकता और दृष्टि उन्हें उनके समकालीन अन्य कहानीकारों से अलग करती हैं।जीवन, मृत्यु, अस्तित्व-अनस्तित्व, जय-पराजय जैसे दार्शनिक बिंदुओं पर भी प्रियंवद अलग दृष्टि रखते हैं।उनकी पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं ‘‘जीवन..मृत्यु..प्रेम..स्वप्न..जय..पराजय..पूरी सृष्टि, मनुष्य का पूरा इतिहास इन्हीं का हैं। सबकी अपनी-अपनी सत्ताएं है..अर्थ है..व्याप्ति है। किसको जीवन में कितना क्या मिलता है और क्यों..यह गहरा रहस्य है। अपरिभाषेय..अविवेचित।’’[12] प्रियंवद अंजुम शर्मा को दिए गए अपने एक साक्षात्कार में लेखक की ‘एनाटॉमी’ पर बात करते हुए उचित ही कहते हैं ‘‘एक लेखक की एनाटॉमी बहुत जटिल होती है, उसकी रचना प्रक्रिया के निर्माण में स्मृति, अतीत, परंपरा और आशाओं-आकांक्षाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती हैं। लेखक यातना भोगता है और उसकी रचना प्रक्रिया में इस यातना की गहरी और सार्थक भूमिका होती है।’’[13] निश्चय ही लेखक समाज की समस्याओं और विडंबनाओं का अनुभव जब वैयक्तिक स्तर पर करता है तब उसे गहरी यंत्रणा से गुजरना पड़ता है।
प्रियंवद अपनी कहानियों की रचना-प्रक्रिया पर बात करते हुए ममता सिंह और युनुस खान को दिए गए एक साक्षात्कार में कहते हैं कि ‘‘प्रकृति, स्मृति और अपने आसपास का जीवन उनकी कहानियों के निर्माण में सार्थक और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही उनके विपुल अध्ययन का भी उनके लेखन में योगदान है।’’[14] अतः प्रियंवद के संदर्भ में यह रेखांकित करने योग्य तथ्य है कि वे इतिहास, स्मृति, आकांक्षा, अनुभव और प्रकृति को किसी भी लेखक की रचना-प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण उपादान मानते हैं। प्रियंवद की कहानियाँ वस्तुतः ‘मानवीय गरिमा’ का आख्यान हैं।उनकी अधिकांश कहानियाँ मनुष्यता के पक्ष में खड़ी नजर आती हैं। उन्होंने कभी भी अपनी कहानियों में मनुष्य की गरिमा को गिरने नहीं दिया। उनके चरित्र उदार और विशाल हृदय वाले हैं। प्रियंवद के यहाँ जो प्रेम, सौंदर्य और उदासी है वस्तुतः वह इसी मनुष्यता को बचाने के लिए ही है। आईनाघर की भूमिका में प्रियंवद लिखते हैं ‘‘क्या कहानियों को लेकर कुछ महत्त्वाकांक्षा है मेरे अंदर? नहीं, बस छोटी-छोटी कुछ प्रार्थनाएं हैं। मैं मनुष्य की संपूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ा रह सकूँ।’’[15] उनके इस कथन के गहरे निहितार्थ हैं। वे मनुष्य की संपूर्ण इयत्ता के पक्षधर हैं। वे एक ऐसे समाज की आकांक्षा रखते हैं जहाँ प्रत्येक मनुष्य को विकास के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध हो और उसकी गरिमा अथवा कहा जाए उसकी अस्मिता को किसी भी प्रकार का संकट न हो। यह कहा जा सकता है कि प्रियंवद की कहानियाँ अस्मिताबोध की कहानियाँ हैं।
प्रियंवद अपनी जनवादी चेतना और यथार्थवादी दृष्टि के कारण अपने समय के दूसरे कहानीकारों से अलग हैं। उनकी कहानियाँ समकालीन सामाजिक जीवन की विसंगतियों को समग्रता में चित्रित करती हैं। उनकी कहानियाँ मानवीय मूल्यों एवं व्यक्ति मानस को केंद्र में रखते हुए आगे बढ़ती हैं। प्रियंवद के यहाँ यथार्थ के अनेक रूप देखने को मिलते हैं। प्रियंवद की कहानियाँ इस दृष्टि से भी अद्वितीय है कि उनकी भाषा काव्यात्मकता लिए हुए है। संप्रेषणीयता की दृष्टि से भी उनकी भाषा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रियंवद की अनेक कहानियाँ इस बात का सुंदर साक्ष्य उपस्थित करती हैं कि जीवन में सब कुछ सीधा और सरल ही नहीं होता वरन् जीवन की अपनी जटिलताएं हैं और व्यक्ति मानस अनवरत इन जटिलताओं से संघर्षरत रहता है। उनकी कहानियाँ कभी कभी हमें गहन उदासी की तरफ ले तो जाती हैं, किंतु हताशा और निराशा की ओर बिलकुल नहीं। प्रियंवद मनुष्य के जीवन की रागात्मकता के कुशल चितेरे हैं। प्रेम, समर्पण और सौंदर्य उनकी कहानियों का केंद्र-बिंदु है। उनकी कहानियाँ मानवीय गरिमा का सुंदर आख्यान इसलिए रच पाती हैं क्योंकि वहाँ प्रेम है, सौंदर्य है और आशाएँ-आकांक्षाएँ हैं। निस्संदेह प्रियंवद मनुष्य की महत्ता एवं मानवीय जीवन की उदात्तता एवं उसकी गरिमा को ऊँचाई पर प्रतिष्ठित करने वाले महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं।
संदर्भ :
[1]प्रियंवद:कश्कोल, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण 2015 ई., भूमिका से
[2]नीरज खरे (सं.):हिन्दी कहानी वाया आलोचना, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2022 ई., पृष्ठ 424
[3]प्रियंवद: आईनाघर भाग 2, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण 2008 ई., पृष्ठ 100
[4]प्रियंवद:आईनाघर भाग 1, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण 2008 ई.पृष्ठ 194
[5]प्रियंवद:आईनाघर भाग 1, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण 2008 ई., भूमिका से
[6]विजय राय (सं.):लमही, अक्तूबर-दिसंबर 2019, हमारा कथा-समय 2, पृष्ठ 144
[7]प्रियंवद:आईनाघर भाग 2, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण 2008 ई., पृष्ठ 62
[8]वही, पृष्ठ 113
[9]प्रियंवद:आईनाघर भाग 1, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण 2008 ई., पृष्ठ 239
[10]जयप्रकाश:कहानी की उपस्थिति, साहित्य भंडार इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 2015ई., पृष्ठ 95
[11]प्रियंवद:आईनाघर भाग 2, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण 2008 ई., पृष्ठ 181
[12]प्रियंवद:आईनाघर भाग 1, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण 2008 ई., पृष्ठ 282
[15]प्रियंवद:आईनाघर भाग 1, संवाद प्रकाशन, मेरठ, पहला संस्करण 2008 ई पृष्ठ 9
लोङ्जम रोमी देवी
थाङमैबंद हिजम दिवान लैकाइ, इंफाल मणिपुर (795004)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन : कुंतल भारद्वाज(जयपुर)
प्रियंवद की कहानियों की विशिष्टता को समग्रता में उजागर करता हुआ आलेख। सुचिंतित और मौलिक । डॉ एल . रोमी ने विस्तारपूर्वक और विभिन्न कहानियों से संदर्भ देते हुए प्रियंवद के कहानीकार रूप पर प्रकाश डाला है। प्रियंवद की कहानियां में निहित इतिहासबोध ,प्रेम और समकालीन समय की विविध विसंगतियों की गहन पड़ताल इस आलेख में की गई है। अपनी माटी टीम एवं लेखिका को बहुत बहुत बधाई । अखिलेश कुमार शंखधर ,प्रोफेसर एवं अध्यक्ष ,हिंदी विभाग ,मणिपुर विश्वविद्यालय,इंफाल्
जवाब देंहटाएंPriyamvad ki kahaniyon par suvichaarit aur mahatvapoorn aalekh. Lekhika ne vistarpoorvak aur sandarbh ke sath Priyamvad ki kahaniyon par likha hai. Maulik aur sampreshneeya bhasha mein likha gaya aalekh. Apnimaati Team aur lekhika ko bahut bahut badhai
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें