अभिशप्त समाज के सिनेमा की विसंगतियां, प्रतिरोध एवं संभावनाएँ
- कन्हैया त्रिपाठी
शोध सार : हिंदी सिनेमा के शताब्दी वर्ष के बाद शोषितों, वंचितों व उत्पीड़ितों का समाज यानी तथाकथित अभिशप्त समाज का इतिहास जानना व समझना ज़रूरी है। भारत में ‘जाति’ के प्रश्न व उनके अधिकारों की आवाज़ ‘सिनेमा’ से मुखर हो सकती थी लेकिन लम्बे वक्त तक इस वर्ग को ध्यान नहीं दिया गया। उनको केंद्र में रखकर जब सिनेमा बनने शुरू भी हुए तो उसके निहितार्थ कुछ और थे और कॉर्पोरेट ने जब से इसमें अपना बर्चस्व बनाया तो उनके लिए मुनाफा केंद्र में था। हिंदी सिनेमा के इतिहास में रीजनल फ़िल्में ज्यादा मुखरित हुईं लेकिन दुनिया में अब प्रतिरोध की चेतना में बदलाव आया है। डॉ. आंबेडकर की दृष्टि से भी आगे की सोच के साथ फिल्म निर्माता-निर्देशक प्रतिरोध रूप में खुद को खड़ा करने लगे हैं। लघु फिल्मों में भी यह बातें उभरकर आई हैं और ऑरिजिन जैसी फ़िल्में भी काफी समीक्षित हुईं और उसकी चर्चा हुई। इस प्रपत्र में इन सभी पहलुओं की बेबाक पड़ताल की गयी है। डॉ. आंबेडकर की अपनी उपस्थिति, सिनेमा, निर्माता-निर्देशक व प्रतिरोध की संस्कृति की उपस्थिति के मुद्दे को गहनता से देखा गया है। इस प्रपत्र में अभिशप्त समाज की विसंगतियों को समझने की कोशिश के साथ एपिक सिनेमा में भी स्थान हो, इसकी संस्तुति की गयी है।
बीज शब्द : अभिजात, अभिशप्त, कॉर्पोरेट, बर्चस्व, जाति, विसंगतियां, प्रतिरोध।
मूल आलेख : समाज, संस्कृति, सभ्यता व नई सोच पर ‘सिनेमा की संस्कृति’ अपना प्रभाव डालती है। दुनिया में सिनेमाई समाज इसीलिए ‘सेलीब्रेटी’ के रूप में अपनी पहचान बना पाया है। सिनेमा से जुड़ी विविध कहानियां, संवाद और उसकी निर्मिती निरंतर पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ रही है, लेकिन इसमें कही गयी कहानियां, फिल्मांकित दृश्य-श्रव्य सामग्री और संवेदनाओं का स्तर भी निरंतर बदलाव की ओर है। बाज़ार के दबाव ने सिनेमा को सदैव अपने अनुसार निर्माताओं और निर्देशकों को सोचने के लिए बाध्य किया। बदलाव यहाँ तक आया है कि पूंजीवाद का असली चेहरा सिनेमा जगत से भी देखने को मिला है। युद्ध और हथियारों की खरीद में निवेश के बरक्स, अगर सिनेमा में निवेश को देखा जाये, तो यह दोनों निवेश दिलचस्प हैं। सिनेमा ने सांस्कृतिक रूप से पूंजी का उपयोग करके समाज पर असर डाला है। युद्ध में निवेश हथियारों और रणनीतियों के लिए जो होते हैं, सीधे हिंसक व विद्रूप दिखते हैं। लेकिन दोनों में निवेश ‘मुनाफे’ या ‘बर्चस्व’ के लिए हो रहे हैं। इसमें पूंजीवादी मानसिकता काम करती है। बाज़ार व व्यापार के खिलाडी युद्धक हथियार और सांस्कृतिक हथियार को बहुत सोची-समझी रणनीति के साथ निवेश करके व्यवस्था, जनमानस और समय को प्रभावित करते हैं। हरीश एस. वानखेड़े ने लिखा है, “भारतीय सिनेमा (Indian Cinema) को अक्सर सामाजिक शिक्षा के उद्देश्य से दूर ही रखा जाता है। फिल्म निर्माता सिनेमा में मौजूद मनोरंजन को ऐसे रूप के तौर पर लेते हैं जहां दिमाग की जरूरत नहीं पड़ती, न कि सामाजिक जटिलताओं पर मूलभूत बदलाव लाने के लिए एक उद्देश्यपूर्ण जुड़ाव के तौर पर। उनके लिए दर्शक हिंसा, पुरुष प्रधान और अति भावनात्मक ड्रामा के ही उपभोक्ता हैं न कि आलोचनात्मक समूह।”1
जुनूनी सिनेमा निर्माता बहुत कम हैं जो मुद्दे को महत्व देकर अपने हो रहे घाटे को सहते हैं और सिनेमा में यथार्थ लाते हैं। कॉर्पोरेट घराने इसीलिए इन जुनूनी सिनेमा निर्माता व निर्देशकों के लिए निवेश कम करते हैं। समस्या प्रधान सिनेमा, विषयगत सिनेमा और मुद्दे आधारित सिनेमा के निर्माण में इसीलिए कठिनाइयाँ रही हैं। एपिक सिनेमा पर भी एक बार निवेश करने में निवेशक को संकोच नहीं होता लेकिन समस्याओं पर केन्द्रित सिनेमा में निवेश जब-जब हुए हैं, निवेशक बहुत बार सोचते-विचारते हैं और संसय व्यक्त करते हैं। अभिजात्य वर्ग के खिलाफ जो भी सिनेमा बने, उसकी चुनौतियों के बारे में निर्माता निर्देशक संसय व्यक्त किए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही है कि इस पूरे बिजिनेस में अभिजात्य के बरक्स जब-जब अभिशप्त समाज को लेकर सिनेमा बना तो इसके निर्माता या निर्देशक में से अभिशप्त समाज का कोई व्यक्ति नहीं रहा। इसकी पूरी निर्मिति में अभिजात्य-वर्ग अपने मुनाफे के लिए स्पेश तैयार किया। संवेदना के स्तर पर भले ही अभिशप्त वर्ग के मुद्दे चर्चा के केंद्र में गंभीर रूप से सम्मिलित हुए लेकिन इसको एक सहानुभूति-संवेदना का सिनेमा ही कहा जा सकता है। स्वानुभूति व सहानुभूति का एक बड़ा स्पेश यहाँ स्पष्ट दिखता है। डॉ. आंबेडकर बहुत सूक्ष्म विश्लेष्ण करते थे प्रगति का। उनका कहना था- मैं किसी समुदाय की प्रगति को महिलाओं की हासिल प्रगति के मापांक से मापता हूँ।2 अब यदि सिनेमाई समुदाय में अभिशप्त वर्ग का हस्तक्षेप ही नहीं हो, तो उसकी संवेदना के फिल्मांकन को वही स्वरूप नहीं ही मिल सकता है, जो उसे चाहिए।
वृत्तचित्रों का हस्तक्षेप -
आनंद पटवर्धन के जुनूनी वृत्तचित्र को स्मरण करें जिसमें वह विलास घोगरे, एक अछूत गायक व कवि की मुंबई पुलिस द्वारा बर्बर हत्या को केंद्र में रखकर कार्य किये हैं, निःसंदेह विश्लेषकों ने कहा है कि ‘जाति पर चल रहे अत्याचार’ की निंदा करते हुए, पटवर्धन ने एक ऐतिहासिक संगीत वृत्तचित्र बनाया है जिसमें असामान्य आत्मीयता और निर्विवाद शक्ति है।3 वृत्तचित्र बहुत कुछ कहते हैं। ‘दलित मुस्लिम ऑफ़ इण्डिया’ वृतचित्र का अवलोकन करें। वृत्तचित्र स्पष्ट बयां करते हैं और बहुत कुछ कहते हैं जाति व अभिशप्त समाज की गाथा को। यथा ‘दलित मुस्लिम ऑफ़ इण्डिया’ के माध्यम से समझें तो उसमें यह कहा जा रहा है कि दलित परंपरागत रूप से ऐसे काम करते रहे हैं जिन्हें धार्मिक रूप से अशुद्ध माना जाता है, जैसे कूड़ा उठाना, सड़क पर झाड़ू लगाना, शवों का दाह संस्कार और मानव अपशिष्ट का निपटान। चूँकि दलितों को अपने ही समुदायों में पूर्वाग्रह और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है, इसलिए कुछ लोग बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, सिख धर्म या इस्लाम में परिवर्तित होकर सामाजिक स्वीकृति पाने की कोशिश करते हैं...“जब भी मैं अपना परिचय देता हूं तो यह मुझे परेशान करता है। लोग मेरे उपनाम के बारे में पूछते हैं,” राकेश कहते हैं, जो धोबी जाति से आते हैं... राकेश ने इस्लाम धर्म अपना लिया है और अपना नाम बदलकर अली कनौजिया रख लिया है...“मैं उन्हें बताता हूं कि मेरा नाम राकेश है। वे पूछते हैं, 'राकेश क्या?' वे आम तौर पर किसी हिंदू के घर पर आपसे यह पूछते हैं,'' वह कहते हैं... लेकिन धर्म परिवर्तन केवल एक रास्ता नहीं है- पूर्वाग्रह अभी भी अन्य धर्मों में व्याप्त हैं। कई धर्मान्तरित लोगों को अपने परिवारों या जिस समुदाय में वे पैदा हुए थे, वहां से प्रतिरोध और यहां तक कि हिंसा का सामना करना पड़ता है और नया चुना गया विश्वास विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना कर सकता है- जैसे कि अली कनौजिया को अपने ही परिवार से सामना करना पड़ा।4 इस वृत्तचित्र में नफीस कहता था कि महारवारा के रूप में हमें संबोधित किया जाता है। इन्सान-इन्सान में बंटवारा।5 अनुराधा नागराज ने ‘कॉल मी प्रिया’ वृत्तचित्र की समीक्षा की है वह इस फिल्म के माध्यम से इस नतीजे पर पहुँचती हैं कि ‘कॉल मी प्रिया’ निचली जाति की लड़कियों के अधिकतम श्रम, उनके साथ भेदभाव और यौन-शोषण को रेखांकित करती है। इसमें भले ही सुखांत चीजें फिल्म में दिखाई गई हैं बाद में, लेकिन बकौल अनुराधा नागराज, "कॉल मी प्रिया" तमिलनाडु राज्य की एक युवा महिला की कहानी बताती है, जहां वैश्विक ब्रांडों के लिए कपास को धागे, कपड़े और कपड़े में बदलने के लिए 1,500 से अधिक कताई मिलों में लगभग 400,000 लोग कार्यरत हैं। श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कानूनों के बावजूद- मुख्य रूप से गरीब, निम्न जाति समुदायों की युवा महिलाएं - वे दिन में 12 घंटे या उससे अधिक काम करते हैं, और अक्सर धमकी, यौन टिप्पणियों और उत्पीड़न का सामना करते हैं।6
रुपहले पर्दे पर अभिशप्त समाज की उपस्थिति -
अभिशप्त समाज को लेकर फिल्मों का अपना इतिहास है। अभिशप्त समाज के प्रति सहानुभूति से जो मुद्दे अभिव्यक्त करने वाली फ़िल्में रही हैं उसमें अछूत कन्या (1938), अछूत (1940), सत्यकाम (1946), दो बीघा जमीन (1953), बूट पॉलिश (1954), सुजाता (1959), परख (1960), फूल और पत्थर (1960), गंगा जमुना (1961), बाबी (1973), अंकुर 1974 निशांत (1975) मंथन (1976), आक्रोश (1980) सद्गति (1981), दामुल (1985), भीम गर्जना (1989), धारावी (1991), बैंडिट क्वीन (1994) बवंडर (2000) लगान (2001), लज्जा (2001), मातृभूमि (2005), मोहनदास (2009), मांझी, सैराट, आरक्षण, आर्टिकल 15, काला जैसी फ़िल्में हैं। इतिहास में ऐसा कोई दलित वीर योद्धा नहीं मिलता जिस पर सिनेमा बनाने की कोशिश की गयी हो। हाँ, डॉ. आंबेडकर व पेरियार के अलावा रमाबाई पर फ़िल्में ज़रूर बनीं। आंबेडकर से जुड़ी फिल्मों का जब ज़िक्र होता है तो उसमें जोशी की कांबळे (2008), शूद्र- द राइजिंग (2012), अ जर्नी ऑफ सम्यक बुद्ध (2013) जय भीम (2021) जयंती (2021) का नाम गिनाया जा सकता है। श्रमशील लोगों के जीवन को व्यक्त करना कोई अभिशाप नहीं है लेकिन इनके सामाजिकी पर केन्द्रित फिल्मों के प्राप्य क्या हैं, ये प्रश्न हमेशा रहे हैं। शोषण, ऋणग्रस्तता जीवन का मनोविज्ञान, मजबूर जीवन जीने की बाध्यताएं, खेत खलिहान से निकलकर मुख्यधारा में शामिल होने व अपनी आवाज उठाने की जद्दोजहद, अभिशप्त स्त्री समाज का अंतस व उसके संघर्ष फिल्मों में दिखने की कोशिश क्यों आज भी अधूरी लगती है, प्रश्न यह है। भीम गर्जना (1990), बालक आंबेडकर (1991), डॉ. आंबेडकर (1992), युगपुरुष डॉ. बाबासाहब आंबेडकर (1993), डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर- द अनटोल्ड ट्रुथ (2000), डॉ. बी. आर. आंबेडकर (2005), पेरियार (2007), डेबू (2010), रमाबाई भिमराव आंबेडकर-रमाई (2010), बोले इंडिया जय भीम (2016) शरणं गच्छामि (2017) बाल भीमराव (2018) रमाई (2019), इसाबेल विल्करसन की अभूतपूर्व पुस्तक ‘कास्ट: द ओरिजिन्स ऑफ अवर डिसकंटेंट’ से प्रेरित ऑरिजिन (2024) ये ऐसी फ़िल्में हैं जिन्हें दुनिया भर में रिलीज होने के बाद यह महसूस किया गया कि ये अभिशप्त समाज की कथा-व्यथा हैं। रविकिरण शिंदे ने लिखा है, “ये देखना दिलचस्प है कि ये बदलाव दरअसल कैसे आया। अच्छे से लिखी गईं दलितों की कहानियों को मुख्यधारा के भारतीय सिनेमा में एक तरह से अछूत सा माना गया। लेकिन तमिल फिल्म उद्योग में बनी निरंतर अग्रणी फिल्मों ने खासकर पी. रंजीत की कबाली (2016), काला (2018) और पेरियेरम पेरुमल (2018)- जिसका उन्होंने निर्माण भी किया, उन सब पर बहुत जरूरी गहरा असर डाला, जो इस बदलाव को घटते देख रहे थे और वो भी, जिनमें सवर्ण फिल्म निर्माता भी शामिल थे, आहिस्ता-आहिस्ता बहती गंगा में हाथ धोने लगे।”7 रविकिरण शिंदे के इस कथ्य से ऐसा लगता है कि अभिजात्य व अभिशप्त वर्ग के व्यक्ति की व्यक्तिगत रूप से सिनेमा निर्माण में अभिरुचि क्या थी और बदलाव अब क्या दिखने लगा है।
मुख्यधारा के सिनेमा में उत्पीड़ितों की आवाज़ का अभाव -
अरविंद दास ने ‘हिंदी सिनेमा में दलित विमर्श’ नामक आलेख में लिखा है, “सवाल हिंदी सिनेमा के कर्ता-धर्ता से भी पूछा जाना चाहिए कि हिंदी समाज में जब राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर पिछले दशकों में उथल-पुथल चलता रहा वे दलितों के हक के सवालों से क्यों मुंह चुराते रहे? क्या बॉलीवुड के सारे विषय बाजार के साथ उनके रिश्ते से तय होते रहेंगे?”8 ख़ुशी गुप्ता भी जाति आधारित सिनेमा पर अपने अध्ययन से इस नतीजे पर पहुंचती हैं कि, “जाति मुख्यधारा की फ़िल्मी कहानियों के हाशिये पर रही है और फ़िल्मों में शायद ही कभी इसका सामना किया गया हो। ऐसी फ़िल्में कभी यह नहीं बतातीं कि नायक के उत्पीड़न का मुख्य कारण जाति व्यवस्था थी.... ‘लगान’ (2001) और ‘स्वदेश’ (2004) जैसी फ़िल्मों में दलित किरदार सिर्फ़ उच्च जाति के नायक को बेहतर दिखाने के लिए मौजूद होते हैं, जाति सिर्फ़ व्यापक योजना में एक अर्ध-स्थूल उप-कथानक के रूप में मौजूद होती है। उनकी जाति को ही समाज से उनके बहिष्कार, पतन और पराधीनता का कारण बताया गया है।9 वह आगे कहती हैं कि जब ‘मसान’ (2015) और ‘मांझी: द माउंटेन मैन’ (2015) जैसी फिल्में जाति के मुद्दों को उठाने का सक्रिय प्रयास करती हैं, तो जाति के इर्द-गिर्द सीमित वैकल्पिक कथाएं पेश करती हैं जैसे कि अंतर-जातीय संबंध, दलित पहचान का बोझ और जाति की जेल से बचने की उम्मीद। ये फिल्में दलित समुदाय के बजाय दलित व्यक्तियों को देखती हैं। इन फिल्मों में दलित स्पेस का कोई भाव नहीं दिखाया गया है। इसलिए, अभी भी सवाल उठने के कारण हैं कि मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में जाति की पहचान को सही मायने में दर्शाया गया है या नहीं।10 अरविंद दास यह कहते हैं कि यह सुखद है कि पिछले वर्षों में बॉलीवुड का कैमरा पेरिस, लंदन और न्यूयॉर्क से दूर बनारस, बरेली, वासेपुर की गलियों में घूमने लगा है। महानगरों में एक नया दर्शक वर्ग भी उभरा है, जो समकालीन मुद्दों और विमर्शों को पर्दे पर देखना चाहता है। ऐसे में सिनेमा में उच्च और मध्यम वर्ग से इतर दलितों-पिछड़ों की अस्मिता और संघर्ष पर भी निर्माता-निर्देशकों का फोकस बढ़ेगा।11 फिलहाल, डोलोरेस हेरेरो यूनिवर्सि डैड डी ज़ारागोज़ा ने अपने आलेख ‘एंटी कास्ट एस्थेटिक्स इन कंटेम्परेरी सिनेमा: द केस ऑफ असुरन में लिखा है दलित-निर्देशित फिल्मों को भारतीय फिल्मी परिदृश्य में प्रमुख बनने के लिए अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है। दलित सिनेमा का अंतिम लक्ष्य एक नए प्रकार का सामाजिक रूप से जागरूक सिनेमा बनना होना चाहिए जो वाणिज्यिक और कला सिनेमा में फैला हो और एक सशक्त नई मुख्यधारा की फिल्मी संस्कृति का हिस्सा हो।12 भारतीय सिनेमा के रीजनल अवदान फिलहाल ज्यादा प्रभावकारी माना गया लेकिन एक सार्थक बहस के लिए जो भारतीय वॉलीवुड प्रभाव जमा सकता था उसका अभाव आज खटक रहा है। अछूत कन्या से लेकर अब तक के सिनेमाई प्रभाव को सौंदर्यशास्त्र को समझने की कोशिश भी अभिशप्त समाज के विसंगतियों को दर्शाता है। उसे शायद खास महत्व नहीं दिया गया क्योंकि प्रभुत्ववादी अभिजात्य समाज उसके सौन्दर्यबोध को सिनेमा का हिस्सा बनाना ही नहीं चाहता हो।
अभिशप्त समाज के प्रतिरोध का अभाव -
इसीलिए यदि डोलोरेस हेरेरो यूनिवर्सिडैड डी ज़ारागोज़ा के आलेख ‘एंटी कास्ट एस्थेटिक्स इन कंटेम्परेरी सिनेमा: द केस ऑफ असुरन को जब पढ़ें तो उसमें जो मूल बात निकलकर आती है वह है कि, “जाति-विरोधी सौंदर्यशास्त्र के लगातार बढ़ते उपयोग ने मुख्यधारा के सिनेमा पर सवाल उठाया है और एक भावनात्मक अभिव्यंजक सौंदर्यशास्त्र के माध्यम से मीडिया को ही प्रभावित किया है जो राजनीतिक और काव्यात्मक दोनों है, जो नैतिक मुद्दों को सामने लाता है। असुरन जैसी दलित फिल्में वर्चस्ववादी जाति विशेषाधिकारों के खिलाफ एक अभूतपूर्व अभियान शुरू करने के लिए कला के पारंपरिक रूपों से अलग हो गई हैं। आधुनिक मीडिया ने भारतीय फिल्म उद्योग में दलितों की सिनेमाई उपस्थिति को मजबूत करते हुए पारंपरिक मानदंडों को चुनौती देने वाली नई शैलियों को विकसित करके फिल्म निर्माण के तंत्र को फिर से स्थापित किया है। दलित सिनेमा का अंतिम लक्ष्य एक नए प्रकार का सामाजिक रूप से जागरूक सिनेमा बनना होना चाहिए जो वाणिज्यिक और कला सिनेमाओं में फैला हो, जो एक नई मुख्यधारा की फिल्मी संस्कृति को सशक्त बनाने में योगदान दे।”13 अभिशप्त वर्ग के प्रतिरोध करने के साहस के अभाव में ऐसा लगता है कि ऐसे तर्क सामने आ रहे हैं। अभिशप्त समाज का अभिजात्य के समक्ष सिनेमाई हस्तक्षेप के जो प्रतिरोध हो सकते थे वह इसका एक कारण समझ आता है किन्तु जिस दौर में मुख्य सिनेमा अपने वैशिष्ट्य के साथ आगे बढ़ रहा था उस समय ऐसी कोई मांग या आन्दोलन भारतीय सिनेमा इतिहास में मिलता भी नहीं है। इस विसंगतियों को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता।
डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने स्वयं एक साक्षात्कार में कहा, “लोग मेरे बारे में जो भी सोचते हैं, मैं खुद को बहुत गंभीरता से लेता हूं। मुझे अक्सर सनकी करार दिया जाता है। मुझे परवाह नहीं है। मेरे जीवन में मनोरंजन का कोई स्थान नहीं है। आपको लगता है कि मैंने अपने पूरे जीवन में कितनी फिल्में देखी हैं? एक दर्जन से अधिक नहीं। क्या मुझे नहीं पता कि सौ अन्य लोग थे, जो मुझे अच्छा करते, अगर मैं उन्हें देखता? लेकिन मैंने खुद को उचित आनंद से वंचित कर दिया है।”14 डॉ. आंबेडकर जो कि सामाजिक आन्दोलन की लड़ाई लड़ रहे थे उन्हें सिनेमा के माध्यम से प्रतिरोध करना उचित नहीं लगा। संभवतः उन्होंने इसे ज्यादा महत्व नहीं दिया या वह अपने समाज से ज्यादा दु:खी थे। रिपोर्टर के शब्द, “यहाँ मैंने कहा, ‘क्या आपको नहीं लगता कि दलित वर्गों के उत्थान और मुक्ति के लिए आंदोलन की एक फिल्म, जो आज तक चली आ रही है, हमारे मध्य से अस्पृश्यता को दूर करने के लिए उत्कृष्ट प्रचार करेगी, अगर कोई आदर्शवादी और प्रगतिशील निर्माता ऐसा करता है?’ इस पर डॉ. आंबेडकर का ज़वाब आता है, ‘निश्चित रूप से ऐसा होगा। लेकिन हमारे समर्थक अभी तक केवल मनुष्यों की पौराणिक मूर्खताओं, विचित्रताओं और देवीकरण से बाहर नहीं निकले हैं।”15 डॉ. आंबेडकर के मन की आशंका भले ही शत-प्रतिशत संशय से भरी हो या सही हो, लेकिन वे जिस चीज को लेकर चिंतित थे, वह था समाज का पिछड़ापन और अशिक्षा। डॉ. आंबेडकर ने माना ऐसे पहलू पर विचार हो और वे भारतीय समाज में प्रतिरोध व जागरूकता को ही जिम्मेदार मानते हों, लेकिन सिनेमा का इतिहास तो अपनी शताब्दी पार कर चुका है। भारतीय सिनेमा में अभिशप्त समाज के जो गौरवशाली लोग थे जिनका ज़िक्र डॉ. आंबेडकर ने हू वेयर शुद्राज में किया है उसको लेकर आज भी दलित सिनेमा निर्माता-निर्देशक शांत हैं और उन्हें ढूँढ़कर उन पर सिनेमा बनाने से कतरा रहे हैं।
समय के साथ सोच से निकलती नई संभावनाएं -
दलित सिनेमा या अभिशप्त समाज पर केन्द्रित सिनेमा अब समय की मांग बन चुका है। इस पर केन्द्रित होना ही होगा। स्टोरीज ऑफ़ रेसिस्टेंस : फिल्म निर्माता ओमी आनंद और ज्योति निशा की प्रणीता थोरात की बातचीत में यह चिंता है कि जाति-आधारित गेटकीपिंग को कैसे तोड़ा जाए और फिल्म निर्माण और दस्तावेज़ीकरण के दलित और बहुजन विमर्श के निर्माण की दिशा में कैसे काम किया जाए? एक प्रश्न के उत्तर में यह बात निकलकर आती है कि मैं जानती हूँ कि संरचनात्मक पदानुक्रम को कैसे नष्ट किया जा सकता है। इसके लिए सामूहिक कार्य की आवश्यकता है। मुझे परवाह नहीं है कि आप कहाँ से आते हैं, यह आपके नियंत्रण में नहीं है, लेकिन मुझे इस बात की परवाह है कि आप किस नैतिकता को सामने लाते हैं और आप बातचीत के लिए कितने खुले हैं... दार्शनिक और व्यक्तिगत स्तर पर, मुझे परवाह नहीं है कि दुनिया क्या कर रही है। मैं देखना चाहती हूँ कि मैं क्या कर सकती हूँ। मैं बेहद आलोचनात्मक हूँ, सवाल पूछती हूँ, और गहराई से खोज करती हूँ; मुझे बारीकियों की जरूरत है। हम संभावनाओं से भरे हुए स्तरीय व्यक्तित्व हैं।16 अब डॉ. आंबेडकर बहुत पहले कह चुके थें कि "मेरे लिए फिल्मों पर बात करना एक अच्छा बदलाव है, लेकिन मुझे यकीन नहीं है कि मैं कुछ ऐसा कह पाऊंगा जो वाकई उपयोगी या सार्थक हो। मेरे विचार से, भारत में फिल्मों का एक विशेष महत्वपूर्ण कार्य है। हमारे लोग बहुत गंभीर हैं। वे नहीं जानते कि चीजों और खुद पर कैसे हंसा जाए और जीवन का आनंद कैसे लिया जाए। इस गंभीरता का मतलब है तंत्रिकाओं का एकाग्र होना और इस तरह बिना किसी उपयोगी उद्देश्य के ऊर्जा का खत्म होना।17 लेकिन अब बात आगे निकल चुकी है। सिनेमा जगत में ओमी आनंद और ज्योति निशा जैसे निर्माता निर्देशक भी आगे आ रहे हैं। अनेक ऐसे लोग आगे आ रहे हैं जो प्रतिरोध को व्यक्त करना चाहते हैं और अभिशप्त समाज की आवाज़ बनना चाहते हैं।
निष्कर्ष : भारतीय सिनेमा की इस महनीय यात्रा में अभिशप्त समाज, हाशिये का समाज व दलित आवाज़ को केंद्र में रखकर नई सोच के साथ सिनेमा निर्मिति के कपाट जो बंद थे या अधखुले थे उसे नए पंख लगे हैं और अब इस समाज को केंद्र में रखकर सिनेमा बनाने की होड़ शुरू होने वाली है। अतीत के साथ जीने की नहीं अपितु अतीत को आइना दिखाकर आगे बढ़ने वाले नए जागरूक समाज का उदय हुआ है जो निःसंदेह शोषितों, वंचितों और पीड़ितों की आवाज़ बनकर अपने उभार का संकेत दे रहा है। अभिशप्त होना अपने वश में नहीं है लेकिन प्रतिरोध के साथ अपने स्व को स्थापित करना अपने वश में है, यह संकेत ही दर्शाता है कि विद्यमान अभिशप्त समाज की विसंगतियों को संपूर्ण समापन के लिए अब लोग तैयार हो रहे हैं। यदि डॉ. आंबेडकर के लेखन में विद्यमान उनके पूर्वजों पर सिनेमा जगत के लोग ध्यान दें और उन एपिक को भी रुपहले परदे पर लायें जिनका गौरवशाली समय आंबेडकर ने आपनी पुस्तकों में अभिव्यक्त किया है तो निश्चय ही सिनेमा आने वाले समय में अपनी समृद्धि का गान करेगा।
सन्दर्भ:
- हरीश एस. वानखेड़े, अंबेडकर को भारतीय सिनेमा ने सालों तक नजरअंदाज किया, लेकिन ये अब बदल रहा है, https://hindi.thequint.com/voices/opinion/ambedkar-was-ignored-by-indian-cinema-for-years-thats-changing-now-jai-bhim-article-15
- Ambedkar, B. R. (Bhimrao Ramji). ([1987] 2014). “The Woman and the Counter- Revolution: Riddles of Hindu Women.” In Dr. Baba Saheb Ambedkar: Writings and Speeches (BAWS), Vol. 3. New Delhi: Dr. Ambedkar Foundation, Ministry of Social Justice and Empowerment, Government of India.
- See “Jai Bhim Comrade” with director Anand Patwardhan, https://vimeo.com/50903103
- भारत के दलित मुसलमान, फ़िल्म निर्माता: मुस्तफ़ा बौज़ाउई
- https://www.aljazeera.com/program/al-jazeera-world/2015/9/4/dalit-muslims-of-india
- वही
- Anuradha Nagaraj, Call Me Priya': film sparks debate about India textile industry abuses, Thomson Reuters Foundation, 6 August 2018
- https://news.trust.org/item/20180816064342-on23m/
- रविकिरण शिंदे, जय भीम से लेकर कर्णन तक- जाति विरोधी सिनेमा का साल रहा है 2021, दिप्रिंट, 26 दिसंबर, 2021
- अरविंद दास, हिंदी सिनेमा में दलित विमर्श, प्रभात खबर डिजिटल डेस्क, 28 जुलाई 2019
- Khushi Gupta, Stereotypes in Bollywood Cinema: Does Article 15 Reinforce the Dalit Narrative?http://www.inquiriesjournal.com/articles/1868/stereotypes-in-bollywood-cinema-does-article-15-reinforce-the-dalit-narrative
- Ibid
- अरविंद दास, हिंदी सिनेमा में दलित विमर्श, प्रभात खबर डिजिटल डेस्क, 28 जुलाई 2019
- Dolores Herrero Universidad de Zaragoza, Anti-cast Aesthet(h)ics In Contemporary Dalit Cinema: The Case of ASURAN, https://doi.org/10.25145/j.recaesin.2021.83.03
- Ibid
- Oh "This Wretched Hindustan" Says Dr. Ambedkar! Condemns Deification Of Men In Films!, Shatter Idols Of Rama And Other Gods, see image in the research paper by Shyma P, on Ambedkar and the cinema of reconstitution,
- https://doi.org/10.1080/14649373.2024.2365601
- Ibid
- बी.आर. अंबेडकर: नाउ एंड दैन, ज्योति निशा (निर्देशिका) की प्रणीता थोरात के साथ बातचीत का अंश, https://no-niin.com/issue-13/stories-of-resistance-a-conversation-with-filmmakers-omey-anand-and-jyoti-nisha/index.html
- Oh "This Wretched Hindustan" Says Dr. Ambedkar! Condemns Deification Of Men In Films!, Shatter Idols Of Rama And Other Gods, see image in the research paper by Shyma P, on Ambedkar and the cinema of reconstitution,
- https://doi.org/10.1080/14649373.2024.2365601
कन्हैया त्रिपाठी
चेयर प्रोफ़ेसर, डॉ. आंबेडकर चेयर, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, घुद्दा, बठिंडा-151401
hindswaraj2009@gmail.com, 9818759757
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved & Peer Reviewed / Refereed Journal
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग : विनोद कुमार
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