शोध आलेख : हिन्दी सिनेमा में एंटी-हीरो और ट्रैजिक-हीरो की बढ़ती प्रवृत्ति / प्रिया कुमारी

हिन्दी सिनेमा में एंटी-हीरो और ट्रैजिक-हीरो की बढ़ती प्रवृत्ति
- प्रिया कुमारी

शोध सार : समाज और सिनेमा दोनों ही एक-दूसरे को विभिन्न पहलुओं में प्रभावित करते हैं। समाज का ही एक व्यक्ति फिल्मों में किरदार के रूप में नज़र आता है तो दूसरी ओर वही किरदार समाज के कई हिस्सों में पैदा होने लगते हैं क्योंकि सिनेमा समाज के युवा वर्ग के लिए एक रोल मॉडल प्रस्तुत करता है। प्रत्येक किरदार के कई पक्षों को सिनेमा में देखा जाता है परंतु जब नायक ही खलनायक के तौर पर नज़र आता है तो उसके हेयरस्टाइल और पहनावे से लेकर उसके विचार और डाइलोग्स, जनता को अधिक उत्तेजित करने लगते हैं। सिनेमा में समाज को एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करने की क्षमता है और फिल्मों का अभिनेता उस नवीन दृष्टिकोण को प्रदर्शित करने का एक सशक्त माध्यम हो सकता है। 21वीं सदी के सिनेमा के नायक जब एंटी हीरो या एक विलेन के रूप में प्रदर्शित किए जाते हैं तो यह भविष्य के लिए घातक सिद्ध होने की संभावना को बढ़ा देता है। प्रस्तुत लेख में हिन्दी सिनेमा में नायकों और खलनायकों के बदलते स्वरूप और जनता में उसके प्रभाव एवं आम जनमानस के मूल्यों में आए परिवर्तन को दर्शाने का प्रयास किया गया है।    

बीज शब्द : एंटी हीरो, युवा वर्ग, ग्रे किरदार, खलनायक, नायक, ट्रैजिक हीरो, एंटी हिरोइन, एंटी विलेन, नेगेटिव शेड, प्रभाव।

मूल आलेख : हिन्दी सिनेमा ने समाज के स्वरूप को प्रदर्शित करने, परिमार्जित करने और आगामी परिवेश से परिचित कराने में अपनी ख़ासी भूमिका को निभाया है। प्रारम्भिक युग से ही युवा वर्ग सिनेमाई दुनिया से अत्यधिक प्रभावित रहा, जहां फिल्म के नायक-नायिका उसके व्यक्तित्व के प्रेरणास्रोत बने। हिन्दी सिनेमा के आरंभिक दौर में जहां सिनेमा का उदेश्य मनोरंजन के साथ समाज में एक सकारात्मक प्रभाव डालना था, वह आज की सिनेमाई दुनिया में धुंधला होता दिखाई देता है। ऐसा कहना भले ही पूर्णत: संगत न हो परंतु अधिकतर फिल्मों का फिल्मांकन जो बड़े बजट के कारण समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित करती हैं वह आज नायक-नायिका के प्रतिबिंब ग्रे-किरदारों (Grey Character) से भरी पड़ी है। सिनेमा में वह ताकत है कि वह व्यक्ति के सूक्ष्म से सूक्ष्म सकारात्मक पहलुओं को बड़े पर्दे के माध्यम से समाज पर विस्तृत प्रभाव डाल सकता है और इसी के विपरीत एंटी-हीरो (anti-hero) किरदारों के माध्यम से उसके द्वारा किए गए गलत कृत्य भी युवा वर्ग के लिए आदर्श बन समाज के लिए घातक साबित होने की संभावना को बढ़ा देता है। इसका एक उदाहरण जावरीमल्ल पारख अपनी किताब में लिखते है- “साहित्य और सिनेमा में दिखाये जाने वाले पात्र ‘व्यक्ति’ नही होते, वह अपने वर्ग और समुदाय के प्रतिनिधि भी होते हैं। सिनेमा के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि यदि एक पुलिस अफसर को भ्रष्ट दिखाया जा रहा है, तो दर्शक उसके उस भ्रष्ट आचरण को सिर्फ उसी के भ्रष्ट आचरण के तौर पर ग्रहण नहीं करता बल्कि एक वर्ग के रूप में पुलिस अधिकारियों के भ्रष्ट आचरण के तौर पर ग्रहण करता है।”[1] जिसके कारण समाज में कानून की विश्वसनीयता पर आशंका आने लगती है। 

समाज में निरंतर परिवर्तनों के साथ-साथ सिनेमा में बदलाव आना स्वाभाविक है और जब बात फिल्मों में खलनायकों की आती है तो समयानुसार उनके स्वरूप में भी परिवर्तन आया है। हिन्दी सिनेमा के खलनायकों के इतिहास को देखें तो ये पात्र उतने ही पुराने हैं जीतने की हमारे नायक। इन्हीं किरदारों के कारण नायक के नायकत्व को सार्थकता प्राप्त होती है। हिन्दी सिनेमा में अभिनेता हीरालाल ठाकुर को हिन्दी सिनेमा का प्रथम सुपरस्टार खलनायक माना जाता है। बॉम्बे टॉकीज के आगमन से खलनायकों की छवि को और मजबूती मिली। 1950 के दशक में के.एन. सिंह और प्राण जैसे खलनायकों का उदय हुआ। 'मधुमति', 'उपकार', 'शहीद', 'पूरब और पश्चिम', 'डॉन', 'अमर अकबर एंथनी' जैसी कई फिल्मों में खलनायक के किरदार हेतु प्राण को फिल्म इंडस्ट्री और दर्शकों ने 'विलेन ऑफ द मिलेनियम' के नाम से नवाजा। इसी दौर में खलनायकों के संवाद अमरीश पूरी (मौगेम्बो खुश हुआ), अजीत खान (मोना डार्लिंग), प्रेम चोपड़ा (प्रेम नाम है मेरा), अमजद खान (कितने आदमी थे), गुलशन ग्रोवर (बैड बॉय), शक्ति कपूर (आऊ) जैसे कई खलनायकों ने अपनी टैगलाइन से पूरी फिल्म को प्रभावित किया है। 

एक ऐसा दौर भी आया जब खलनायक को व्यक्तिगत जीवन में भी नकारात्मकता का सामना करना पड़ता था। खलनायक अभिनेता ‘रंजीत’ अपने एक इंटरव्यू में बताते है कि “जब मेरी बेटी दिल्ली में पढ़ रही थी, तो मैं उससे मिलने जाता था। हम साथ में रेस्टोरेंट में जाते थे और लोग मुझे देखकर कमेंट करते थे, 'कितना घिनौना है! वह जवान लड़कियों के साथ बाहर जा रहा है।' हमारे बगल में एक परिवार बैठा था और पति उन पर चिल्लाता रहा कि वे मेरी तरफ न देखें। यह वास्तव में मुझे असहज कर रहा था। इसलिए जब वेटर खाने का ऑर्डर लेने आया, तो मैंने जोर से कहा, 'अरे बेटी लेकर आई है, उससे पूछो।' मैं अक्सर लोगों को यह बताने के लिए ऐसा करता था कि मैं कॉल गर्ल्स के साथ बाहर नहीं जाता। यह मेरी स्क्रीन इमेज थी जो अक्सर लोगों को डराती थी।"[2] इस घटना से यह बात स्पष्ट होती है कि हिन्दी सिनेमा के प्रारम्भिक काल में खलनायक का किरदार कितना स्पष्ट था। और आम जनता के लिए अच्छाई और बुराई के सीधे-सीधे दो पात्र थे, खलनायक में समाज की समस्त बुराइयाँ समाविष्ट थी तो वही नायक का व्यक्तित्व एक अच्छे व्यक्ति के लिए आदर्श था। परंतु सिनेमा में आए परिवर्तन ने खलनायक और नायक की भूमिका में दर्शक को भ्रमित कर दिया है। ऐसा इसलिए क्योंकि हिन्दी सिनेमा से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला वर्ग युवा वर्ग है जिसके लिए अक्सर नैतिकता का पैमाना उसके मनपसंद कलाकारों से तय हो जाता है।

The Guardian समाचार पत्रिका की हैडलाइन देखिये- “Security guard avoids jail by blaming Bollywood for stalking habit”[3]उनके वकील ‘ग्रेग बार्न्स’ ने सफलतापूर्वक तर्क दिया कि भारतीय पुरुषों के लिए महिलाओं को बिना किसी स्पष्ट संकेत के जुनूनी रूप से लक्षित करना ‘बिल्कुल सामान्य व्यवहार’ है। बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि रंगीन, रोमांटिक बॉलीवुड फिल्मों में पुरुष पात्रों को अक्सर अपनी महिला समकक्षों का तब तक दृढ़ता से पीछा करते देखा जाता है जब तक कि वे अंततः किसी रिश्ते के लिए सहमत नहीं हो जातीं।’ ऐसे कई कलाकार है जो अपने कलाप्रदर्शन करने हेतु कई बार ऐसे रोल करते है जो समाज के लिए असामाजिक कृत्यों का उदाहरण बन जाते है “आजकल के हीरो-हीरोइन नेगेटिव शेड के रोल करने में भी नहीं हिचकते। अपनी कला का प्रदर्शन करने को मिले तो आजकल के कलाकार कुछ डिफरेंट करने को उत्सुक रहते है।”[4] यश चोपड़ा की ‘डर’ (1993)[5] मूवी में शाहरुख खान (राहुल) का किरदार जिस प्रकार एंटी हीरो के रूप में दर्शाया गया उसने दर्शकों को एक नए रोल मॉडल से परिचित करवा दिया जो नौसेना के कमांडों सुनील (सनी देओल) पर भारी पड़ता है। जुही चावला (किरण) का पीछा करता है। अपने प्रेम को पाने के लिए किसी भी हद को पार कर जाने वाला किरदार युवा वर्ग को आकर्षित करता है जो समय आने पर किसी की हत्या तक कर सकता है और अपनी ही प्रेमिका को नुकसान पहुंचा सकता है। (आकृति-1)

आकृति-1: फिल्म ‘डर’- राहुल (नायक) द्वारा किरण (नायिका) को भयभीत किया जाना 


    ‘तेरे नाम’ फिल्म में भी इसी प्रकार की मानसिकता को दर्शाया गया जिसके संदर्भ में सलमान खान अपने एक साक्षात्कार में राधे के किरदार को लेकर कहते है कि "एक कैरेक्टर करते हुए मुझे बहुत डर लगा था वो है 'तेरे नाम' का कैरक्टर...ये जो कैरेक्टर है इसे कभी फॉलो नहीं करना। ये लूसर कैरेक्टर है कि एक लड़की के पीछे पागल हो गए और अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर दी है।...बालों तक की हेयरस्टाइलिंग वगैरह की फॉलोइंग ठीक है लेकिन पर्सनालिटी की फॉलोइंग बहुत गलत होती है। इससे मैं डर रहा था कि आवाम उसे नहीं कहीं अपना ले।"[6]

 ‘प्यार जब हद से गुजर जाए तो पूजा बन जाता है...और पूजा बहक जाए तो जुनून’ यही जुनूनी प्रेम हमें हिन्दी सिनेमा की कई फिल्मों के किरदारों में देखने को मिलता है। आनंद एल॰ राय कीरांझणा’ (2013)[7] का धनुष (कुन्दन) जो सोनम कपूर (जोया) से बेहद प्यार करता है। यह फिल्म बेहतरीन पटकथा और कलाकारी का अच्छा नमूना है परंतु प्यार में अस्वीकार होकर कुन्दन का अपनी नश काट लेना, जोया के मंगेतर को पीटना और अंत में स्वयं का मर जाना, दर्शक को बहुत प्रभावित कर जाता है और सच्चे प्रेम को परिभाषित कर जाता है। ग्रे केरेक्टर के रूप मे कुन्दन जब जोया द्वारा अस्वीकार किया जाता है तो वह कहता है –“तुमने भी बहुत आखिरी तक बेवकूफ बनाया ज़ोया, तुम्हें क्या लगता है ज़ोया तुम बहुत हूर की परी हो? तुमसे प्यार करना मेरा टैलेंट है ज़ोया। इसमें तुम्हारा कोई हाथ नहीं है। तुम्हारी जगह कोई भी होती ना, तो मैं उससे भी इतना ही टूट के प्यार करता। तुम्हें क्या लगता है ज़ोया, कुंदन के लिए पूरे बनारस में एक तुम्हीं हो? तुम्हारी शादी वाले दिन शादी करेंगे हम, चाहे काली कुतिया से कर लें पर करेंगे, और जहां तक रही तुम्हारी शादी, उसमें भी सब कुछ करेंगे, मर जाएंगे लेकिन आज के बाद तुम्हारा नाम भी लिया तो मैं एक बाप की औलाद नहीं।”[8] यह संवाद हर उस युवा की आवाज बन जाता है जिनको प्रेम में सफलता नहीं मिल पाती। 

समाज का कोई भी व्यक्ति पूर्णत: ब्लैक एंड व्हाइट के करेक्टर मे भले ही न उतरता हो परंतु पूर्व की फिल्में एक आदर्श व्यक्ति के प्रति झुकाव रखती थी। और नव सिनेमा ने इस आदर्श से उठ कर यथार्थ की ओर अपने कदमों को बढ़ाया। परंतु कब नायक ही खलनायक की भूमिका निभाने लगा इसका ध्यान कम ही लोगों ने दिया। आज की सिनेमाई दुनिया के संदर्भ में जावरीमल्ल कहते हैं -“दुनिया-भर में आज जो लोकप्रिय सिनेमा बन रहा है, वह दो तरह का है। पहला, जिसमें हिंसा से ग्रस्त दुनिया का चित्रण है, चाहे वह अति काल्पनिक हो या अति यथार्थवादी। दूसरा, वह जिसमें ऐश्वर्य, विलासिता और भोग से ओतप्रोत दुनिया में जी रहे लोगों के बीच भावनात्मक टकरावों की सच्ची-झूठी कहानियाँ हैं।”[9]

संदीप वांगा की ‘कबीर सिंह’ (2019)[10] फिल्म में कबीर (शाहिद कपूर) एक ‘एंटी हीरो’ के रूप में उभरता है, जिसमें एक ओर अपनी प्रेमिका से अटूट प्रेम और एक सर्वश्रेष्ट सर्जन के रूप में दिखाया गया है, वहीं दूसरी ओर समाज की सभी बुराइयों से ओतप्रोत एक ऐसा नायक जो प्यार को भुलाने के लिए अन्य स्त्रियों से संबंध बनाता है और मादक पदार्थों का सेवन भी करता है। उत्तेजित होकर अपनी ही प्रेमिका पर हाथ उठाना और उसके परिवार वालों का अपमान करने वाला किरदार दर्शकों पर गहरा प्रभाव तो डालता ही है साथ ही कमजोर मानसिकता वाले दर्शक उसे अपना आदर्श मानने लगते हैं। ‘‘इंपेक्ट ऑफ हिन्दी सिनेमा ऑन बिहेवरल चेंज ऑफ अर्बन यूथ : ए स्टडि बेसेस ऑन दिल्ली एंड एनसीआर’’ नामक लेख में लिखा है- “Hindi cinema carries a variety of content which inspires and motivate viewers to adopt certain sets of values. It can be positive and negative both as cinema highlights both types of characters. Sometimes violence in movies attracts the young generation while sometimes they get attracted by the glorification of consumption of toxicants. When a hero consumes alcohols or drugs in a film, youth get attracted by this easily.”[11](आकृति-2)

नायक बनाम खलनायक

          संदीप रेड्डी वांगा के निर्देशन में ही बनी ‘एनिमल’ (2023) फिल्म जो कबीर सिंह से भी आक्रामक और पागलपन की हद पार करता, रणविजय (रणवीर कपूर) एक ऐसा किरदार है जिसे स्वयं नहीं पता की वह किसके साथ, कब और क्या कर जाए। एक नायक जो स्कूल में बंदूक ले आता है, जिसे सारी समस्याओं का हल केवल हिंसा (आकृति-3) लगता है। छत्तीसगढ़ की INC MP रंजीत रंजन ने फिल्म इंडस्ट्री और 'एनिमल' फिल्म के संदर्भ में संसद में कहा कि –“सिनेमा समाज का आईना होता है। इसे देखकर हम बड़े हुए हैं, सिनेमा देखकर और युवा काफी इन्फ़्लुएन्स होता है आजकल कुछ इस तरह कि फिल्में आ रही हैं, अगर आप शुरू करें ‘कबीर’ से लेकर ‘पुष्पा’ और अभी एक पिक्चर चल रही है ‘एनिमल’। आखिर इतनी हिंसा और इतना वाइलेंस और महिलाओं के साथ छेड़छाड़। इन पिक्चरों का, इस वायलेन्स का, इन निगेटिव रोल को पेश करने में हमारे आजकल 11वीं और 12वीं के बच्चों पर असर होता है। वो इसे रोल मॉडल मानने लगे हैं। पिक्चरों में क्योंकि देख रहे हैं, इसीलिए समाज में भी हमें इस तरह कि हिंसा देखने को मिल रही है।”[12]

            कलाकार शाहीद कपूर की फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ (2016) अपराध पर आधारित एक फिल्म है, जिसका निर्देशन अभिषेक चौबे करते हैं, जिसमे कई अश्लील दृश्य होने के कारण भारत के केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने की मांग की और 89 दृश्यों को फिल्म से हटाया गया। फिल्म में गालियों की भरमार नज़र आती है। नायक के रूप में रॉकस्टार टॉमी सिंह (शाहिद कपूर) पागलपन और ड्रग्स का आदी दिखाया गया है, फिल्म पंजाब में नशे से पीड़ित युवा वर्ग के ड्रग्स लेने की प्रक्रिया को इतना खुलकर दिखाया गया है, जो कहीं न कहीं, दर्शकों के मानसिक पटल को प्रभावित करता है। शाहीद कपूर के द्वारा प्रस्तुत गाना ‘उड़ता पंजाब’ के शब्दों और वाक्यों पर ध्यान देने की आवश्यकता है जो जीवन में आने वाली चुनौतियों से नशे के माध्यम से कैसे निपटा जाए, युवा वर्ग को ड्रग्स लेने के लिए प्रेरित करना और भावुकता को व्यक्ति की कमजोरी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार के गाने जब फिल्म के नायकों द्वारा गाये जाते हैं तो दर्शकों पर इसका अधिक प्रभाव पड़ता है। भारतीय सिनेमा में सेंसर बोर्ड, जिसके बिना किसी भी प्रकार की फिल्म जनता के सामने प्रस्तुत नहीं होती, वह इस गाने की पंक्तियों में से “पाउडर की लाइनों का रखेगा कौन हिसाब (सेंसर संस्करण: बरबाद रातों का रखेगा कौन हिसाब)”[13] इस एक वाक्य को निकाल देती है जिससे गाने के भाव में किसी प्रकार का परिवर्तन देखने को नहीं मिलता। सिनेमा मानव के विचारों में परिवर्तन लाने में एक विशेष भूमिका निभाता है और समाज में परिवर्तन लाने में एक सशक्त हथियार का भी काम करता है परंतु यही प्रभाव यद्यपि नकारात्मक हो तो इसका प्रभाव सांघातिक हो सकता है। “मानव सभ्यता के इतिहास के साथ संघर्षों का भी विस्तार हुआ है। जिनके पास सत्ता है, वे सत्ताहीन के विरुद्ध ताकत का इस्तेमाल करते हैं, ताकि उनकी सत्ता बनी रहे। यहाँ सत्ता का मतलब राजसत्ता ही नहीं, हर उस सत्ता से है जो दूसरों पर अपना वर्चस्व कायम करती है और ताकत का मतलब हथियारों की ताकत से ही नहीं है, वह धारणाओं, रूढ़ियों, संस्कारों, मान्यताओं की ताकत भी है जो हथियारों से कम खतरनाक नहीं होती।”[14]

“कुत्ते से भी टफ

लाइफ हो जाए तो मारो 10 पफ (कश्श)

मैच फिक्स लगेगा तो पिच खोदेंगे

होके बेशरम बंदी रिच खोजेंगे

इमो-पंती अपने को तो सूट ना करे

गबरू हाय क्या जो हिप से शूट (सुलगाना) ना करे”[15](आकृति 4)



आकृति 4: फिल्म पोस्टर (उड़ता पंजाब) में नशीले पदार्थों का प्रदर्शन


   एंटी हीरो-एंटी विलेन का एक उदाहरण गुरु दिवेकर (सिद्धार्थ मल्होत्रा) और ‘राकेश महादकर’ (रितेश देशमुख) की ‘एक विलेन’[16] फिल्म के रूप में भी देखने को मिलता है। इस फिल्म की कहानी पुनः दर्शक को यह सोचने पर मजबूर करती है कि असल में विलेन है कौन? नायक (गुरु) जो एक गैंगस्टर है पर दर्शकों के बीच सहानुभूति का पात्र बनता है क्योंकि आयशा (श्रद्धा कपूर) जो उसके बच्चे की माँ बनने वाली है उसकी हत्या कहानी का विलेन ‘राकेश’ कर देता है परंतु राकेश के विलेन बनने के पीछे उसकी मानसिक स्थिति को दर्शाया गया है जहां वह एक असफल व्यक्ति है। फिल्म में विलेन कहता है- “तुम सबकी निकलती जान के साथ... मेरी हर चिंता, सारा तनाव भी निकल जाता है”[17]

            वही कहानी के हीरो को विलेन से भी हिंसक प्रवृत्ति का उकेरा गया है- “मैं तुझे मरने नहीं दूंगा...लेकिन मैं तुझे रोज मारूंगा...एक बार नहीं हजार बार मारूंगा”[18]

           “तेरे जिस्म से बहते खून के हर एक टुकड़े का हिसाब रखूंगा मैं... तेरी आखिरी सांसों को भी मुट्ठी में बंद रखूंगा मैं... तुझे इतना मारूंगा कि दर्द जीते जी तेरे जिस्म को भी होगा...और मरने के बाद तेरे रूह से भी निकलेगी”[19]

            फिल्म के दोनों पात्र एंटी हीरो और ग्रे करेक्टर की भूमिका में नजर आते हैं जहां दर्शक गैंगस्टर गुरु को आदर्श किरदार के रूप में स्वीकार करते है और राकेश के प्रति भी हल्की सहानुभूति का भाव नज़र आता है। 

    गैंगस्टर पर ही आधारित अनुराग कश्यप के निर्देशन में बनी ‘गैंग ऑफ वासेपुर’ फिल्म को लिया जा सकता है जिसके सभी कलाकार नायक की भूमिका में खलनायक है। ‘शाहिद खान’ (जयदीप अहलावत) का गुस्से में कोयले की खान के पहलवान की हत्या कर देना। रामाधीर सिंह (तिग्मांशु धूलिया) फिल्म में असली खलनायक के किरदार में उभरता है। सिनेमा के संदर्भ उसके द्वारा कहा जाता है “सब साले, सबके दिमाग में अपनी-अपनी पिक्चर चल रही है, सब साले हीरो बनना चाह रहे हैं अपनी पिक्चर में। साला हिंदुस्तान में जब तक सनीमा है लोग चूतिया बनते रहेंगे।”[20] इसका प्रभाव पूरी फिल्म में देखा जा सकता है। अपने हीरो के पहनावे, हैयर स्टाइल से लेकर उनके द्वारा कहे गए संवाद को युवा वर्ग में गंभीरता से लिया जाता है। ‘गैंग ऑफ वासेपुर-2’ के पात्र बबुआ/परपेंडिकुलर (आदित्य कुमार) जो 14 वर्ष की आयु में मुँह में ब्लेड रखने वाला खतरनाक खलनायक के रूप में आता है जो सिनेमा से बहुत प्रभावित है, सिनेमा हॉल में देखने गए फिल्म का एक डाइलोग ‘क्या एक जवान लड़का और एक जवान लड़की कभी दोस्त हो सकते हैं?’ से बबुआ को बहुत प्रभावित दिखाया गया है ‘हर कोई अपनी गली-मोहल्ले का या तो संजय दत्त था या सलमान खान।’ वहीं दूसरा युवा ‘डेफेनिट खान’ (ज़ीशान कादरी) जो उसका मित्र है दोनों चोरी करते हैं और पुलिस से बचते चले जाते हैं। 

    ट्रैजिक हीरो के रूप में उनके खलनायक बनने के पीछे एक इतिहास, मजबूरी या सामाजिक दवाब को भी दिखाया जाता है। फैजल (ट्रैजिक हीरो) (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) अपने मित्र को अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए मार देता है क्योंकि उस पर सामाजिक दबाव होता है, (आकृति-5) वह कहता है कि “बाजार से निकलो तो सब हँसते हैं साले! ये सब भोसड़ेवाले बोलते हैं कि फैजल खान ने... दोस्ती में अपने बाप और भाई पर गोली चला दिया। बुढ़िया (फैजल की माँ) बोलती है कि हम जन्मे ना होते तो आज सरदार खान के घर में ये मातम ना होता। हम तो सोचते थे संजीव कुमार के घर में हम बच्चन पैदा हुए हैं। लेकिन आँख खुली तो देखा साला, शशि कपूर हैं। बच्चन तो कोई और है।”[21]

ट्रैजिक हीरो


आकृति-5: फिल्म ‘गैंग ऑफ वासेपुर’- फैजल (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) 2012



            हिन्दी सिनेमा में 21वीं सदी में आने वाली कई फिल्मों में एंटी हीरो/हीरोइन के किरदार देखे जा सकते हैं - ‘मुन्ना भाई MBBS’ (2003) हीरो का एक गुंडा होना और गलत तरीके से डोक्टर की डिग्री पाना, धूम-1 (2004) कबीर (जॉन अब्राहिम) जो चोरी की बाइक को बेचने वाले गिरोह का लीडर है, धूम-2 (2006) में नायक-नायिका का चोर होना, ‘वांटेड’ (2008) में राधे द्वारा  की जाने वाली हत्या, ‘बदमाश कंपनी’ (2010) में करण, जिंग, चंदू और बुलबुल का रीबॉक ब्रांड के जूतों की भारत में तस्करी करना, ‘7 खून माफ’ (2011) एंटी हीरोइन के रूप में सुजाना (प्रियंका), ‘स्पेशल 26’ (2013) में अजय (अक्षय कुमार) और उसकी टीम का नकली सीबीआई अधिकारीयों के भेष में जगह-जगह रेड डालता है और धन लूटना, ‘हैप्पी न्यू इयर’ (2014) में चार्ली और उसकी पूरी टीम धोखे से डांस प्रतियोगिता में आगे बढ़ती है, गुंडे (2014) में गैंगस्टर का नायक के रूप में दर्शन, ‘हाइवे’ (2014) में महाबीर भाटी (रणदीप हुड्डा) का एक अपहरणकर्ता होना, बिच्छू का खेल (2020) में अखिल श्रीवास्तव’ का हत्या कर कानून को धोखा देना, रमन राघव, Once Upon a Time in Mumbaai, Shootout at Wadala, विक्रमवेदा, राज़ी और मिशन मजनू जैसी फिल्में राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत हिंसात्मक प्रवृत्ति के नायक-नायिका, क्रू  (2024) में ‘एंटी हीरोइन’ के रूप में तीन नायिकाओं का सोने की तस्करी करना, भैया जी (2024) में ‘मनोज वाजपेयी’ का अपराधी की भूमिका में नज़र आना, ‘फिर आई हसीन दिलरुबा’ (2024) में तापसी पन्नू, विक्रांत मैसी और सनी कौशल का नायक रूप में खलनायक होना आदि कई फिल्में हैं जो दर्शकों को विभिन्न पहलुओं में आकर्षित करती हैं।

निष्कर्ष : अंतत: कहा जा सकता है कि हिन्दी सिनेमा के कई सकारात्मक पक्ष हैं। सिनेमा नवीन जीवन मूल्यों और मानदंडों को स्थापित करने में समर्थ है परंतु वहीं एक ओर लगातार नायक-नायिका की भूमिका में बुरे चरित्रों का प्रदर्शन, युवा वर्ग को मानसिक रूप से विक्षिप्त करने में अधिक हावी दिखाई देता है तो दूसरी ओर जनता की इसी प्रकार की मांग को पूरा करना निर्देशकों, निवेशकों और कलाकारों की मजबूरी बन जाता है। शायद इन्हीं सब आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारणों से सिनेमा को खलनायक विहीन कर दिया गया, जिसके कारण समयानुसार सिनेमा के नायक और खलनायक किरदारों में जटिलता का भाव आने लगा। 21वीं सदी की फिल्मों के हीरो द्वारा मादक पदार्थों का सेवन और आक्रामक व्यवहार दर्शकों में नकारात्मक छवि को रोमांटिसाइज़ करता है, जो भावी पीढ़ी और समाज दोनों के लिए घातक परिस्थितियों को उजागर कर सकता है।

संदर्भ :

     1. जावरीमल्ल पारख,हिन्दी सिनेमा में बदलते यथार्थ की अभिव्यक्ति (2021), नई किताब प्रकाशन, पृ.159
2.https://timesofindia.indiatimes.com/entertainment/hindi/bollywood/news/veteran-actor-ranjeet-recalls-how-people-mistook-his-daughter-for-someone-else-says-i-dont-go-out-with-call-girls-exclusive/articleshow/105784734.cms, 21 अगस्त, 2024 को उपलब्ध।
3.    https://www.theguardian.com/film/2015/jan/29/security-guard-avoids-jail-by-blaming-bollywood-for-stalking-habit 21 अगस्त 2024को उपलब्ध।
4. वरुण वागीश, हिन्दी सिनेमा का बदलता परिदृश्य : एक आलोचनात्मक अध्ययन(शोध प्रबंध), शोध गंगा (2013), पृ.297
5. डर : यश चोपड़ाद्वारा निर्देशित, सनी देओल, जुही चावला, शाहरुख खान द्वारा अभिनीत एवं  यश राज फिल्म्स द्वारा निर्मित फिल्म,1993
6. सलमान खान, 'आप की अदालत' (साक्षात्कारकर्ता - रजत शर्मा), 2019, इंडिया टीवी चैनल (यूट्यूब) पर उपलब्ध : https://www.youtube.com/watch?v=tWzAaGbBDn4 
7. रांझणा : आनंद एल. राय द्वारा निर्देशित, धनुष, सोनम कपूर,अभय देयोल आदि द्वारा अभिनीत एवं इरोस इंटरनेशनल प्रदर्शन द्वारा निर्मित फिल्म,2013
8. वही
9. जावरीमल्ल पारख, हिन्दी सिनेमा में बदलते यथार्थ की अभिव्यक्ति (2021), नई किताब प्रकशन, पृ.-134
10. कबीर सिंह : सदीप वांगा द्वारा निर्देशित, शाहिद कपूर, कियारा आडवाणी आदि द्वारा अभिनीत एवं सिने1 स्टूडियोज टी-सीरीज़ द्वारा निर्मित फिल्म, 2019
11. डॉ. अमित चन्ना, डॉ. अंकित शर्मा, डॉ. अमित चन्ना, डॉ. अंकित शर्मा, डॉ. पारुल मल्होत्रा,इंपेक्ट ऑफ हिन्दी सिनेमा ऑन बिहेवरल चेंज ऑफ अर्बन यूथ: स्टडि बेसेस ऑन दिल्ली एंड एनसीआर, पाक हार्ट जे 2023:56(03), पृष्ठ सांख्य-1323, पाक हार्ट जे 2023:56(03), पृष्ठ सांख्य-1323
12. आज तक, नई दिल्ली, 07 दिसंबर 2023 https://www.aajtak.in/entertainment/bollywood-news/story/animal-controversy-in-parliament-chhattisgarh-inc-mp-ranjeet-ranjan-on-film-industry-rajya-sabha-ranbir-kapoor bobby-deol-tmovk-1834068-2023-12-07, 27 अगस्त 2024 में उपलब्ध।
13. उड़ता पंजाब गाना, कलाकार- शाहिद कपूर,https://wynk.in/music/song/check-out-ud-daa-punjab-song-lyrics-wynk/lyrics/zm_ZMC00001_4
14. जावरीमल्ल पारख, हिन्दी सिनेमा में बदलते यथार्थ की अभिव्यक्ति (2021), नई किताब प्रकशन, पृ.-108
15. उड़ता पंजाब गाना, कलाकार- शाहिद कपूर,https://wynk.in/music/song/check-out-ud-daa-punjab-song-lyrics-wynk/lyrics/zm_ZMC00001_4
16. एक विलेन : मोहित सूरी द्वारा निर्देशित,रितेश देशमुख,सिद्धार्थ मल्होत्रा,श्रद्धा कपूर आदि द्वारा अभिनीत एवं बालाजी मोशन पिक्चर्स द्वारा निर्मित फिल्म,2014
17. वही
18. वही
19. वही
20. गैंग ऑफ वासेपुर-2 : अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित, रामाधीर सिंह आदि द्वारा अभिनीत एवं वायाकॉम18 स्टूडियोज़ द्वारा निर्मित फिल्म, 2012
21. गैंग ऑफ वासेपुर-2 : अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित,नवाजुद्दीन सिद्दीकी आदि द्वारा अभिनीत एवं वायाकॉम18 स्टूडियोज़ द्वारा निर्मित फिल्म, 2012


प्रिया कुमारी
शोधार्थी, केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय, केरला
priyabisht680@gmail.com, 9582460640
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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