शोध आलेख : हिन्दी भाषा और साहित्य की निर्मिति में राजस्थानी का योग / विमलेश शर्मा

हिन्दी भाषा और साहित्य की निर्मिति में राजस्थानी का योग
- विमलेश शर्मा

शोध सार : राजस्थानी भाषा नहीं वरन् एक संस्कृति है। इस भाषा में डिंगल के सरस दोहे हैं तो नाथों की बानियों के गूढ़ साक्षात्कार भी, यहाँ ढोला-मरवण की विरहोक्तियाँ हैं तो वीरदर्पोचित चैतावणी रा चूँग्टयाँ भी। सिद्धान्ततः राजस्थानी साहित्य अपनी समृद्धता,व्यापकता एवं लोकप्रियता के कारण हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत ही विवेचनीय है। हिन्दी साहित्य के विकास की परम्परा में उसका उल्लेख ना करना दुराग्रह ही कहा जाएगा।

बीज शब्द : पुरानी राजस्थानी, राजस्थानी, मरूवाणी, डिंगळ, पिंगळ, राजस्थानी भाषा का इतिहास,सांवैधानिक मान्यता, चारण साहित्य, संत साहित्य, राजस्थानी-व्याकरण,राजस्थानी-भाषा।

मूल आलेख : हिंदी भाषा और साहित्य की निर्मिति में राजस्थानी का विशिष्ट योगदान है। हिन्दी के ‘आदिकाल’ के परिसीमन में आने वाली ‘पुरानी हिन्दी’ की बहुत सी रचनाएँ आज प्राप्त हैं। वस्तुतः मैथिली को छोड़कर हिंदी परिवार की किसी भी भाषा की ऐसी कोई प्राचीन कृति सामने नहीं है, जिसके आधार पर आदिकाल का ढाँचा खड़ा किया जा सकता हो। केवल पुरानी राजस्थानी ही एक ऐसी भाषा है जिसका गद्य और पद्य दोनों प्रकार का साहित्य प्रभूत परिमाण में उपलब्ध है। राजस्थान के डिंगळ साहित्य में भारतीय संस्कृति, दर्प और शृंगार की अनेक अर्थच्छवियाँ मौज़ूद है। इतिहास पर दृष्टिपात करें तो स्वतंत्रता पूर्व राजस्थान 21 देशी राज्यों में विभाजित था। सर्वप्रथम जार्ज टॉमस ने इसे ‘राजपूताना’ कहा और तदनन्तर 1886 में कर्नल टॉड ने इस राज्य के इतिहास में इसे “राजस्थान”1 नाम दिया। यहाँ की भाषा और उसके इतिहास की बात करें तो राजस्थान के परगने और अनेक अंचलों में बोली जाने वाली बोलियों का अपना विशिष्ट साहित्य है। कहीं यह साहित्य वीरस्तुति काव्य (प्रशस्ति) के रूप में मिलता है, कहीं यह आध्यात्निक गलियारों से गुजरता है तो कहीं वेलि-ख्यात के रूप में तो कहीं यह अपने अनूठे प्रेमल स्वरूप में उपलब्ध है। राजपूताने में मेवाड़, मारवाड़, महोबा, चित्तौड़, बूँदी, जयपुर, नीमराणा, रीवा, पन्ना और भरतपुर राज्यों में विपुल मात्रा में चारण-साहित्य का रचाव हुआ। यद्यपि राजस्थानी साहित्य वीर-रस प्रधान है परन्तु भाषावैज्ञानिक अध्ययन करते हुए इसके प्रमाण में अन्य प्रवृत्तिगत साहित्य भी मुखर रूप से दिखाई देता है। राजस्थानी भाषा का अंश सिद्धों की उद्धृत रचनाओं में भी है, जिनकी भाषा को देशभाषा-मिश्रित अपभ्रंश या पुरानी हिंदी कहा गया, जो उस समय गुजरात-राजपूताना, ब्रजमंडल से लेकर बिहार तक पढ़ने-लिखने की शिष्ट भाषा थी। कबीर की साखियों की भाषा खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य ‘सधुक्कड़ी’ भाषा है। इस प्रकार राजस्थान में रचित साहित्य साहित्य की विविध प्रवृत्तियों को साथ लेकर चलता है। “राजस्थान का साहित्य विदेशी आक्रमण से देश, धर्म और जाति की रक्षा करने तथा संरक्षण के कर्तव्य के लिए असीम बलिदान करने की सक्रिय भावना से प्रारंभ होता है। इस भावना की अभिव्यक्ति की सारी प्रेरणा युद्ध, बलिदान तथा स्वधर्म के लिए सर्वस्व का उत्सर्ग कर देने की संस्कारगत उमंग से प्राप्त हुई है, अतः युद्ध की वीरोल्लासिनी हलचलों के बीच राजस्थान का साहित्य सारी जाति को त्याग और बलिदान का संदेश देता है।”2 वस्तुतः राजस्थान का इतिहास भारत की वीरता और जातीय अस्मिता का इतिहास रहा है। इसीलिए राजस्थान की महत्ता में आज भी यह गाया जाता है-

“मोहे विदेशी वीर भी जिस वीरता के गान से।
जिस पर बने हैं ग्रंथ रासो और राजस्थान से।।
थी उष्णता वह उस हमारे शेष शोणित की अहा !
जो था महाभारत समर में नष्ट होते बच रहा ।।”3

राजस्थानी भाषा का इतिहास एवं विकास -

राजस्थानी भाषा के आदिस्वरूप पर विचार करें तो अनेक भाषारूप सामने आते हैं। भौगोलिक दृष्टि से अरावली पर्वतमाला के बँटाव से राजस्थान को उत्तर-पश्चिमी राजस्थान एवं दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान जिन्हें क्रमशः मारवाड़ या मरूदेश एवं मेरवाड़ा में बाँटा जा सकता है। यहाँ की आदिभाषा मरूभाषा, राजस्थान की प्रधान भाषा रही है और किंचित् स्थानीय परिवर्तनों के साथ यह समूचे राज्य की साहित्यिक भाषा भी रही है। इसे मरुभूमभाषा, मरुभाषा, मरुदेशीय भाषा, मरुवाणी संज्ञाओं से भी जाना जाता है। उद्योतनसूरी के कुवलयमाला में जिन अठारह देश-भाषाओं का उल्लेख है, उनमें मरू, गुर्जर, लाट और मालवा प्रदेश की भाषाओं के उद्धरण मिलते हैं। जैनग्रंथों और राठौड़ पृथ्वीराज की ‘वेलि’ की भाषा को भाषावैज्ञानिकों और “वेलि के पद्यानुवादकर्ता ‘गोपाल लाहोरी’ ने मरूभाषा कहा है- मरूभाषा निरजल तजी कवि ब्रजभाषा चोज ।”4 अबुल फज़ल भी आइने अकबरी में भारतीय भाषाओं में मारवाड़ी का गणना करते हैं। “भाषाशास्त्रियों के भाषाई शोध में अपभ्रंश के तीन उपभागों का उल्लेख है-नागर, उपनागर और ब्राचड़। हेमचंद्र के मतानुसार इस नागर अपभ्रंश का आधार शौरसेनी प्राकृत था।”5 इसी शौरसेनी अपभ्रंश से राजस्थानी भाषा का विकास हुआ, जिसके साहित्यिक रूप का नाम डिंगळ है।” डिंगळ पर बात करने से पूर्व इतिहास की कुछ परतों को जानना आवश्यक है। हिंदी के सबसे प्राचीन नमूने पृथ्वीराज तथा समरसिंह के दरबारों से संबंध रखने वाले ताम्रपत्रों के रूप में समझे जाते थे, जिनको नागरी प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया था; किन्तु इनके प्रामाणिक होने में अब संदेह किया जाता है, परन्तु यह भी सच है कि इन साक्ष्यों के अध्ययन से राजस्थानी और हिंदी के संबंध का सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है। गुलेरी ने जिसे पुरानी हिंदी कहा है उसमें राजस्थानी भाषिक संरचना के विपुल उदाहरण मिलते हैं। “पं.चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग 2 अंक 4 में ‘पुरानी हिंदी’ शीर्षक लेख में जो नमूने दिये हैं, वे प्रायः गंगा की घाटी के बाहर के प्रदेशों में बने ग्रंथों के हैं अतः इनमें हिंदी के प्राचीन रूपों का पाया जाना स्वाभाविक है। अधिकांश उदाहरणों में प्राचीन राजस्थानी के नमूने मिलते हैं। इसके अतिरिक्त इन उदाहरणों की भाषा में अपभ्रंश के नमूने मिलते हैं। इसके अतिरिक्त इन उदाहरणों की भाषा में अपभ्रंश का प्रभाव इतना अधिक है कि इन ग्रंथों को इस काल के अपभ्रंश साहित्य के अंतर्गत रखना उचित मालूम होता है।”6

प्रामाणिकता की दृष्टि से देखें तो छठी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश राजस्थान की साहित्यिक भाषा के पद पर आरूढ़ थी। इसके पश्चात् इसी के लोकप्रचलित रूप राजस्थानी ने इसका पद ग्रहण किया, जिसका एक रूप डिंगळ नाम से विख्यात हुआ। डिंगळ भाषा गुर्जरी अपभ्रंश से विकसित हुई है। डिंगळ भाषा में चारणों ने अधिक लिखा है, इसीलिए डिंगळ साहित्य को चारण साहित्य भी कहते हैं। “राजस्थान में इस जाति के लोग पहले पहल मारवाड़ में आकर बसे थे। वहाँ से धीरे-धीरे राजस्थान की दूसरी रियासतों में फैले और अपने साथ अपनी भाषा को भी ले गए।...राजपूतों और चारणों का पारस्परिक संबंध प्राचीन काल से रहा है, उन्होंने डिंगळ भाषा-साहित्य को प्रोत्साहन दिया।”7 “इस साहित्य में जो भाव है, जो उद्वेग है वह राजस्थान का खास अपना है। वह केवल राजस्थान के लिए ही नहीं, सारे भारतवर्ष के लिए गौरव की वस्तु है।”8 ‘ढोला मारू रा दूहा’ जो राजस्थान का जातीय काव्य भी है, को डिंगळ भाषा का पहला ग्रंथ कहा गया है। इस ग्रंथ में शृंगार विषयक मौलिक उद्भावनाएँ हैं जिसकी छाप हम परवर्ती ग्रंथों यथा कबीर की बानियों -साखियों और जायसी के नागमती वियोग वर्णन में स्पष्ट देख सकते हैं, संभवतः यह श्रुति परंपरा से ही संभव हो पाया है। दादूदयाल, अग्रदास, नाभादास, सूजाजी , छीहल, आशानंद, ईसरदास, दुरसाजी, कुशललाभ और मीराँ का साहित्य हिंदी की विरासत है। मानजी, गवरीबाई, चंडीदान आदि रचनाकारों ने भी डिंगळ-पिंगळ में लिखा है। हाला झाला री कुण्डलियाँ हो या वेली किसन रुकमणी री, ये राजस्थानी साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं। अधिकांश रचनाएँ डिंगळ में लिखी गईं हैं क्योंकि डिंगळ में जो ओज का तत्त्व समाहित होता है वह पिंगळ के माधुर्य में नहीं आ सकता। रासो साहित्य, पृथ्वीराज विजय, नैणसी री ख्यात उत्तर मध्यकाल में डिंगळ के साथ-साथ पिंगळ की उत्पत्ति राजस्थानी साहित्य में देखी जा सकती है। जसवंतसिंह, जान कवि, नैणसी और बिहारी के दोहे इस बात के प्रमाण है। इधर रीति ग्रंथों की परंपरा में “हरिपिंगळ-प्रबंध”9 ग्रंथ का उल्लेख मिलता है, जो कि उच्च कोटि का ग्रंथ है। यह ग्रंथ प्रतापगढ़ राज्य के महारावत हरिसिंह के आश्रित कवि जोगीदास द्वारा रचित है। डिंगळ भाषा में रचित इस ग्रंथ में संस्कृत, हिंदी और डिंगळ में प्रयुक्त मुख्य छंदों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन किया गया है। आदि-मध्यकालीन राजस्थानी पर ब्रजभाषा, गुजराती और खड़ी बोली का स्पष्ट प्रभाव था, यह यहाँ के संत साहित्य से सहज ही जाना जा सकता है। दादूजी, वखनाजी, रज्जब, गरीबदास, जगन्नाथदास, सुन्दरदास, दयाबाई, खेमदास, सहजोबाई, दरियावजी (रामसनेही पंथ), हरिदास जी (निरंजनी पंथ) आदि संतों ने पदों-साखियों और कवित्त-सवैयों के माध्यम से जनचेतना और भक्ति का साहित्य सृजित किया। “रीतिकालीन कवियों की अभिव्यंजना पद्धति पर रची हुई इनकी कविताओं का जितना औपदेशिक मूल्य है उतना ही साहित्यिक भी। औऱ यही कारण है कि उन्हें पढ़कर ज्ञान-पिपासु भक्तजन ही परितृप्त नहीं होते, बल्कि बड़े-बड़े काव्य कला-कौशल प्रेमी भी आनंदित होते हैं और झूमने लगते हैं।”10 आधुनिक काल में राजस्थान के कवि ब्रजभाषा, खड़ी बोली और राजस्थानी तीनों में रचना कर रहें हैं। सूरजमल, चतुरसिंह, प्रताप कुँवरि बाई, मुरारिदान, चंद्रकला, दिनेशनंदिनी आदि कवियों ने श्रेष्ठ साहित्य की रचना की है। हरिभाऊ उपाध्याय, नरोत्तमदास, पं.जनार्दनराय नागर, कन्हैयालाल सहल, विजयदान देथा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, अम्बिकादत्त व्यास आदि अनेक शक्तिशाली लेखकों ने राजस्थानी-हिंदी साहित्य की श्री वृद्धि की है। विषय के अनुरूप भाषा-चयन से ही कोई भी रचना-कर्म सामाजिक के लिए सरस बन सकता है। और राजस्थान के अनेक लेखकों ने अपने रचना-कर्म से यह सिद्ध किया है।

इसी के साथ एक बार पुनः प्रारंभ पर लौटने पर हम यह तथ्य भी पाते हैं कि अपभ्रंश को आदर भी राजस्थान-गुजरात में ही प्राप्त होता है संभवतः अपभ्रंश को यहीं अनुकूल परिस्थिति प्राप्त हुई होगी। इस संबंध में डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है, “अपभ्रंश का अधिकांश साहित्य इसी क्षेत्र के प्रमुख नगरों एवं जैन भंडारों से प्राप्त हुआ है, जैसे- अहमदाबाद, जैसलमेर, पाटण आदि। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है की अपभ्रंश के अधिकांश कवि उसी क्षेत्र के रहने वाले थे अथवा उन्होंने इसी क्षेत्र में अपने साहित्य की रचना की। धनपाल, हेमचन्द्र ,सोमप्रभ, हरिभद्र, जिनदत्त आदि ने गुजरात में, देव सेन ने मालव में, राम सिंह ने राजपूताना तथा अब्दुल रहमान ने मुल्तान में अपने ग्रंथ रचे।”11 भाषा के विकास की सरणियों के क्रम में यहाँ एक तथ्य अपेक्षित है जो कि संदेश रासक और प्राकृत पैंगलम् की भाषा के संबंध में है। “प्राकृत पैंगलम् के पूर्वोक्त पदों की भाषा में पुरानी ब्रजभाषा के बीज अधिक हैं, जबकि ‘संदेश रासक’ की भाषा में वे बीज अपेक्षाकृत कम है।” 12 परवर्ती रचनाओं में तत्सम शब्दों का प्रयोग, परसर्गों का अत्यधिक प्रयोग, परसर्गों के अभाव में सर्वनामों का प्रयोग, कारक-विभक्तियों का अप्रयोग आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के आरंभ का सूचक है। डॉ.सुनीती कुमार चटर्जी ने ‘वर्ण रत्नाकर’ में इसी बिन्दु को रेखांकित किया है।

राजस्थानी-भाषा-व्याकरण -

राजस्थानी के भौगोलिक क्षेत्र के विस्तार के आधार पर यहाँ मोटे तौर पर “72 बोलियाँ”13 मानी गईं है। इन बोलियों का विपुल शब्द-भाण्डार है और हिंदी उन शब्दों से आज भी विकास पाती है। चंद ने अपनी रचना पृथ्वीराज रासो में कन्नौजी, मागधी, डिंगळ, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि शब्दों का प्रयोग किया है। राजस्थानी भाषा-व्याकरण हिंदी से अधिक साम्य नहीं रखती है। पुरानी राजस्थानी का विकास गुर्जरी या सौराष्ट्री अपभ्रंश से हुआ है जबकि हिन्दी का शौरसेनी अपभ्रंश से। इसमें 52 अक्षर हैं जिनमें 16 स्वर तथा 36 व्यंजन हैं। हिंदी के चार मूल स्वरों अ,इ,उ, ऋ के अतिरिक्त राजस्थानी में लृ भी शामिल हैं। इधर हिंदी वर्णमाला में राजस्थानी का एक वर्ण और जुड़ गया है। ‘ळ’ राजस्थानी की एक विशिष्ट ध्वनि है। केन्द्रीय हिंदी समिति ने हिंदी वर्णमाला में संशोधन करते हुए "ळ" को विशिष्ट व्यंजन के रूप में शामिल किया है। हिंदी में अब कुल वर्णों की संख्या 52 से बढ़कर 53 हो गई है। व्याकरणिक संरचना में अंतर होने के बावज़ूद वाग्यंत्र की दृष्टि से हिंदी की बोलियों यथा अवधी, ब्रजभाषा और राजस्थानी में अधिक अंतर नहीं है। संस्कृत की अधिकांश स्वर और व्यंजन ध्वनियाँ भी राजस्थानी में सामान्य रूप से सुरक्षित हैं। संस्कृत की कुछ ध्वनियाँ जैसे ऋ,ण,व,श,ष,क्ष,ज्ञ आदि इन बोलियों में रि,न, ब,स,ख या स, क्छ,ग्य आदि रूप ग्रहण करती हैं। ‘ए’ और ‘ओ’ के दोनों मात्रिक रूप इसमें मिलते हैं। राजस्थानी में उदात्त स्वरों की परंपरा भी है। वस्तुतः राजस्थानी का हिंदी से संबंध और प्रदेय समझने के लिए उसके व्याकरण को जानना होगा। डिंगळ और पिंगळ के क्रिया रूपों की ही तरह हिंदी में भी वर्तमान, भूत और भविष्य काल के विविध रूप बनते हैं। पिंगळ और डिंगळ की काल-रचना में वर्तमानकालिक कृदंत तथा भूतकालिक कृदंत रूपों का व्यवहार स्वतंत्रतापूर्वक होता है। डिंगळ-पिंगळ की ही तरह हिंदी में भी ‘ती’ लगाकर स्त्रीलिंग रूप बनते हैं। आँ,इया आदि प्रत्यय लगाकर बहुवचन स्त्रीलिंग रूप बनते हैं। इसी तरह भूत निश्चयार्थ के लिए पिंगळ और डिंगळ दोनों में भूतकालिक कृदंत के रूपों का प्रयोग होता है, जिसका साम्य हम हिंदी में भी देखते हैं। डिंगळ-पिंगळ के कवियों ने संस्कृत शब्दों का बहुतायत में प्रयोग किया है, चाहे वे शब्द तत्सम रूप में प्रयुक्त हुए हों या तद्भव रूप में… अचरज, छिति, बानी आदि शब्द पिंगळ से हिंदी में आए हैं। हिंदी की तरह राजस्थानी में भी ‘ड’ और ड़ ध्वनियाँ पृथक्-पृथक् होती हैं। राजस्थानी में रेफ पूरे ‘र’ में बदल जाता है जैसे-कर्म-करम, धर्म-धरम। राजस्थानी में ‘य’ व्यंजन का उच्चारण ‘ज’ के रूप में करने की प्रवृत्ति है। हिंदी के नकारान्त शब्द राजस्थानी में णकारान्त में बदल जाते हैं, यथा-मान-माण। हिंदी के विश्वव्यापी प्रसार में हिन्दी क्षेत्र की सभी उप-भाषाओं के प्रयोगकर्ताओं की मूल्यवती भूमिका है। हिंदी परिवार की प्रमुख उप-भाषाओं में पारस्परिक व्याकरणिक संबंध और साम्य भी है और इसी क्रम में राजस्थानी की प्रकृति गुजराती के अधिक समीप बैठती है। भाषाई विकास क्रम में राजस्थानी का अपना विशिष्ट प्रदेय है, चाहे अवहट्ठ-अपभ्रंश से या जूनी गुजराती की बाच की जाए या रासो में ही वर्णित ‘षडभाषा’ को, राजस्थानी की किसी भी तरह से उपेक्षा नहीं की जा सकती। अतएव इस भाषा के विकास की संभावनाओं को देखते हुए इसे साहित्यिक, राजनीतिक, सांवैधानिक मान्यता प्रदान की जानी चाहिए।

साहित्य की बात करें तो रासो साहित्य, जैन साहित्य और संत साहित्य के बिना हिंदी के साहित्य के विकास को समझा ही नहीं जा सकता। हालाँकि इसका आदिस्वरूप शिलालेख, ताड़पत्र और भोजपत्रों पर लिखा मिलता है और इससे भी अधिक लोक के कंठ में बसा मिलता है। आदिकाल औऱ मध्यकाल में राजस्थानी साहित्य मुड़िया लिपि में लिखा गया। इस भाषा का शब्दकोश लेखन काफी समृद्ध रहा है, जिससे हिंदी साहित्य के विकास को भी सहज ही समझा जा सकता है। नाममाला, नागराज डिंगळ कोस, हमीर नागमाळा, अवधानमाळा, अनेकार्थी कोस, डिंगळ अेकाक्षरी कोस, डिंगळ कोस आदि राजस्थानी शब्दों के संकलन हैं, जिनसे हिंदी की भाषिक संपदा और राजस्थानी के समन्वय को देखा जा सकता है। राजस्थानी के वार्णिक और मात्रिक छंद हिंदी के और संस्कृतवर्णवृत्तों के समान है । प्रो. नरोत्तमदास स्वामी, पद्मश्री सीताराम लालस के व्याकरण इस भाषा की व्याकरणिक विशेषताओं और सौन्दर्य को सिद्ध करते हैं। डॉ. ग्रियर्सन, एल.पी.टेस्टीटोरी, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. नामवर सिंह, प्रो.नरोत्तमदास स्वामी, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी जैसे विद्वान राजस्थानी भाषा की समृद्धता का बखान करते हैं।

लोकगीत और भाषाई संवर्धन -

लोकगीतों के पीछे कई शताब्दियों की परंपरा और सामाजिक परंपराओं का योग होता है। इनके रचयिता कोई एक व्यक्ति नहीं होकर पूरा समाज होता है। इडोणी, पणिहारी, गोरबंद, कुरजाँ,ओल्यूँ, घूमर और लूर, जलो और जलाल, माहेरा,घोड़ी, विनायक,परणेत, पावणा, जच्चा, पीपली, हिचकी, बिणजारा,कांगसियो, काजळियो, कलाळी, दारुड़ी और रसिया यहाँ के प्रसिद्ध लोकगीत हैं जिनका विस्तार और लोकप्रियता देशव्यापी है। इसी तरह मीराँ, संत कबीरदास, रैदास, चंद्रसखी आदि के भजन और हरजस राजस्थान के साथ-साथ देश के जाने कितने स्थानों पर गाए जाते हैं। ‘रूणीचे रा धणियाँ, अजमाल जी रा कँवरा,माता मेणादे रा लाल,राणी नेतल रा भरतार, म्हारो हेलो,सुणो नी रामा पीर जी’ रामदेवजी की विरुदावली हर घर में पताका की ही तरह फहराई और गाई जाती है। यहाँ के लोक नाट्य- संगीत नाट्य चाहे वह ख्याल हो, तमाशा- रम्मत-भवाई हो, गवरी, लीला हो या राजस्थान के लोक-नृत्य गवरी, राई,गेर,घूमर, घुड़ला, डांडिया,गरबा, चंग,ढो,पणिहारी, तेरहताली, चरी या अग्निनृत्य आदि जिन्हें लोकप्रिय बनाने में देवीलाल सामर ने अनेक प्रयत्न किए हैं आदि ने भी राजस्थानी भाषा के संवर्धन व लोकव्यापी बनाने में महत्त्वपूर्ण प्रयास किए हैं। राव, राळ, ढाढ़ियों,भोपा आदि ने राजस्थान की संस्कृति को पीढ़ियों तक अपनी कविता और राग-रागिनीयों में जीवित रखा है। कहावतें -लोकोक्तियाँ किसी भी भाषा की समृद्धि के अक्षय भण्डार है और राजस्थानी जीवन-संस्कृति के उत्साह और व्यवहार-पटुता के दर्शन तो इनमें सहज होते ही हैं, साथ ही भारतीय-संस्कृति की अखण्डता के दर्शन भी इनमें होते हैं।

आज राजस्थान का सीताराम लालस कृत समृद्ध शब्दकोश है, जो पहली बार 1962 में तथा 2013 में पुनः प्रकाशित हुआ। वर्ष 2023 में राजस्थानी शब्दोकोश का अन्तर्जाल पर भी लोकापर्ण हो चुका है, और अब यह सहज-सर्वसुलभ है। गत वर्ष ही राजस्थानी भाषा और साहित्य के वरिष्ठ साहित्यकार और अकादमी पुरस्कार से सम्मानित श्री अन्ना राम सुदामा की जीवन-यात्रा का शताब्दी वर्ष रहा है। लीलटांस, जागतीजोत,अनुक्षण आदि पत्रिकाएँ और चंद्रप्रकाश देवल, नंद भारद्वाज, नीरज दइया , मीठेस निर्मोही, मंगत बादल, बुलाकी शर्मा, भरत ओळा, आईदान सिंह भाटी, सांवर दइया, महेंद्र सिंह सिसोदिया ‘छायण’ सरीखे अनगिन लेखक राजस्थानी का मान बढ़ा रहे हैं। बहरहाल राजस्थानी का यह लेखा-जोखा यह प्रदर्शित करता है कि राजस्थानी साहित्य अपनी साहित्यिक उपस्थिति राष्ट्रीय स्तर पर दे रहा है। यहाँ की अनेक बोलियाँ इसकी मान्यता की राह में अड़चन नहीं बल्कि भाषा कि उस माँग को पूरा करती है जो किसी भी भाषा की समृद्धि के लिए आवश्यक है। राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की सार्वभौम सत्ता है; किंतु जनपदीय भाषाओं के प्रति अनुदार होने का अर्थ है हिंदी की अवनति। राजस्थानी का अध्ययन अन्य प्रमुख आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की तरह स्वतंत्र रूप से कर हम राजस्थानी के मान का संरक्षण कर सकते हैं।

संदर्भ :
  1. Annals and Antiquities of Rajasthan, Part-I- Col. Tod.
  2. गजानन, मिश्र, राजस्थान की हिंदी साहित्य को देन, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, प्र.सं. 1995, पृ.1
  3. मोतीलाल, मेनारिया, राजस्थानी साहित्य की रूपरेखा, प्रकाशक-छात्रहितकारी पुस्तकमाला, प्रयाग,प्र.सं. अगस्त 1939,पृ.2
  4. हरदान, हर्ष, राजस्थानी भाषा, साहित्य और संस्कृति, आशीर्वाद प्रकाशन, जयपुर,सं. 1996, पृ. 2
  5. धीरेन्द्र, वर्मा, हिंदी भाषा का इतिहास, हिन्दुस्तानी अकेडमी, प्रयाग, सं. 1933, पृ.21
  6. वही, पृ. 48
  7. मोतीलाल, मेनारिया, राजस्थान का पिंगळ साहित्य, हिंदी ग्रन्थ रत्नाकर, वाराणसी, सं. दिसम्बर, 1958, पृ. 8
  8. राजस्थान वर्ष-2, अंक-4, पृ.72. मॉटर्न रिव्यू, दिसम्बर सन् 1938, पृ. 710
  9. “सवत सत्तर इकवीस में, कातिक सुभ पख चंद। हरिपिंगळ हरिअद जस, वणियौ खीरसमंद ।।” मोतिलाल, मेनारिया, राजस्थानी भाषा और साहित्य, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, पृ. 160 स्रोत- अन्तर्जाल पर उपलब्ध पीडीएफ।
  10. वही, पृ.223
  11. नामवर सिंह, हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, सं.1954 पृ. 48
  12. वही, पृ.55
  13. Linguistic Survey of India, (खंड-1, पृ. 171), Grierson.

विमलेश शर्मा
राजकीय कन्या महाविद्यालय, अजमेर

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र  विजय मीरचंदानी

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