शोध आलेख : एक गरिमापूर्ण जीवन के इंतज़ार में वेश्याएं / पंकज कुमार

एक गरिमापूर्ण जीवन के इंतज़ार में वेश्याएं
- पंकज कुमार

शोध सार : इस प्रकृति में विद्यमान भौतिक एवं अभौतिक सभी चीजें परिवर्तनशील है। समाज भी इससे अछूता नहीं है, जोकि विभिन्न दबावों में खुद को परिवर्तित करता आया है। काम-संबंधों ने समाज के स्वरूप निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है पर कभी काम-संबंधों पर खुलकर चर्चा समाज में नहीं हुई है। और बात यदि वेश्या की हो तो और भी नहीं। इस शोध आलेख में उन कारणों के तह तक जाने की कोशिश की गयी है जिनके कारण वेश्या का जीवन इतना कष्टप्रद और गरिमाहीन है। कैसे कुछ लोग अपने हित-साधन के लिए मूल्यों और मानदंडों को रचते है? और उनका इस्तेमाल करते हैं। क्या इस समाज में वेश्याओं के लिए बेहतर ‘प्रस्थिति’ की सम्भावना है? उनकी मुक्ति का मार्ग क्या होगा? इस पर भारतीय एवं पाश्चात्य दृष्टि से विचार किया गया है।

बीज शब्द : वेश्या, वेश्यावृत्ति, सामाजिक बदलाव, सामाजिक अध्ययन, ज्ञान और पॉवर, फूको, गरिमाहीन, कोविड-19, साहित्य और वेश्या, नलिनी जमीला, एक सेक्स वर्कर की आत्मकथा, सेक्स, रति, उपभोग, पुलिस, मूल्य एवं मानदण्ड, काम

मूल आलेख : कोविड ने दुनिया में जो तबाही मचायी उसने बहुत कुछ उलट-पलट के रख दिया है। इस दौरान लोगों के व्यवहार में कई परिवर्तन आ गए हैं। ऐसे परिवर्तनों की आज से कुछ वर्षों पहले केवल कोरी कल्पना ही की जा सकती थी, परन्तु अब वे यथार्थ हैं। मास्क की व्यापक स्वीकृति, सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) को मान्यता, वर्क फ्रॉम होम का आगमन, आभासी माध्यम से प्रार्थना सभाएँ, टेलीमेडिसिन की सफलता आदि उन्हीं परिवर्तनों में से कुछ हैं और सामाजिक संबंधों में ‘न्यू नार्मल’ के रूप में स्वीकृत हैं।

समाज सामाजिक संबंधों की एक जटिल प्रक्रिया है जिस पर टाल्कट पारसन्स का विचार है ‘समाज उन मानवीय संबंधों की पूर्ण जटिलता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो साधन और साध्य के द्वारा क्रिया करने से उत्पन्न हुए हों, वे चाहे यथार्थ हों या प्रतीकात्मक। समाज का निर्माण समूह की अंतः क्रियाओं से होता है। समाज के लिए पूर्वापेक्षित हैं- वस्तुओं का उत्पादन और वितरण की आर्थिक व्यवस्था, नवीन संतति के समाजीकरण की व्यवस्था और निश्चित परिसीमा। समाज अमूर्त होता है। समता और विषमता समाज में व्याप्त होती है। समाज में सहयोग और संघर्ष दोनों आवश्यक हैं।’1

हम ऐसा कह सकते हैं कि समाज एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें बहुत से कण विद्यमान हैं जो आपस में क्रिया करते हुए गतिशील रहते हैं, कई बार एक ही दिशा में तो कई बार विपरीत दिशा में। ऐसे में कई बार स्थिति परिवर्तन के कारण हाशिए और केंद्र में परिवर्तन होता रहता है। ज्यादा दबाव की स्थिति में कई कण व्यवस्था से बाहर भी निकल जाते हैं और कुछ नये कण प्रवेश भी पा जाते हैं। समाज सदैव सतत् संघर्ष का भागीदार बनता है और जिसके परिणाम स्वरूप ही वह गतिशीलता पाता है।

समाज का निर्माण विभिन्न संरचनाओं में होता है और भिन्न-भिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न प्रकार की सामाजिक संरचना होती है। ‘हर बदलते युग के साथ सामाजिक संरचना में निरंतर बदलाव होते रहे हैं जोकि उसमें रहने वाले व्यक्तियों की ‘प्रस्थिति’ और ‘भूमिका’ का भी निर्धारण करती है। शिकार और संग्रहण समाज से उत्तर औद्योगिक समाज के संरचना में आमूलचूल परिवर्तन हो चुका है। श्रम की अवधारणा बदल चुकी है, परिणाम स्वरूप सामाजिक मानदंडों, मूल्यों में परिवर्तन हुआ है।’2 भारत जैसा परम्परागत समाज भी व्यापक बदलाव का साक्षी बना है। स्त्री को पर्दे से कुछ हद तक आजादी मिली है, वह बाहर ऐसे आर्थिक क्रियाओं का हिस्सा बनी है, जिसकी स्पष्ट गणना की जा सकती है और की भी जा रही है। ट्रांसजेंडर को लिंग के रूप स्वीकृति, सरोगेसी को क़ानूनी ढाँचा मिलना, धारा 377 में अपराधीकरण से मुक्ति और धारा 497 में अप्रत्याशित परिवर्तन आदि उन बदलावों के उदाहरण हैं।

जहाँ समाज में कई विषयों को लेकर व्यापक बदलाव आया है तो वहीं वेश्या एवम् वेश्यावृत्ति को लेकर अभी भी ऊहापोह की स्थिति विद्यमान है। ‘वेश्या स्त्री’ को सिर्फ और सिर्फ कुछ चन्द रुपयों के लिए अपनी देह का सौदा करने वाली के रूप में, समाज में सबसे नीचे ‘सामाजिक अछूत’ के रूप में बहिष्कृत किया गया है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि वेश्या और यौनकर्मी बहुधा पर्याय के रूप में इस्तेमाल किए जाते हैं परन्तु ये दोनों पूर्ण पर्याय नहीं हैं। यौनकर्मी की परिभाषा में उन सभी महिलाओं, पुरुषों और अन्यों को शामिल किया जाएगा जोकि धन अर्जन के उद्देश्य से अपने जिस्म का व्यापार करते हैं। यौनकर्मी को एक समुच्चय की तरह समझा जा सकता है जिसके अंदर बहुत से अवयव हैं, जिनमें से एक अवयव वेश्या भी है। अन्य अवयवों में कॉल गर्ल, पॉर्न स्टार और जिगोलो आदि हैं।

वेश्या को एक उपसमुच्चय की तरह पढ़ा जा सकता है। जिसका ‘कनोटेशन’ एक ऐसी स्त्री से है जोकि बिना किसी गरिमा के अपना शरीर कुछ पैसों के लिए बेच रही है। उसके इस कार्य में उसके स्वयं और आनंद का कोई स्थान नहीं है। इसकी वास्तविक स्थिति कॉल गर्ल या जिगोलो से बिल्कुल अलग है। जहाँ वेश्या के कार्य में सामजिक बहिष्कार जुड़ा हुआ है, वहीं अन्य की स्थिति में ऐसा नहीं है। वह समाज से बहिष्कृत हुए बिना भी अपने कार्य को अंजाम दे सकते हैं। सनी लियोनी, मिया खलीफा, जेम्स डीन और टोनी आदि जैसे स्थापित पॉर्न स्टार्स को अपनी सामाजिक पहचान छुपाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

वेश्या भारतीय सामाजिक व्यवस्था के लिए नयी नहीं है। वैसे भी किसी समाज में किसी की उपस्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके लिए कितने नामों का प्रयोग हो रहा है। रुसी भाषा में बर्फ के भिन्न-भिन्न नामों का प्रयोग बताता है कि बर्फ़ वहाँ व्यापक रूपों में विद्यमान है। जबकि कांगो, जायरे जैसे आदि गर्म देशों में संभव नहीं है। वैसे ही यदि भारतीय भाषाओं की बात की जाए तो वेश्या के लिए विभिन्न संज्ञाओं का प्रयोग मिल जायेगा- ‘वारवनिता, रूपजीवा, गणिका, नगर मंडना, नगर शोभिनी, वेशि, वन्नदासी, जनपद कल्याणी, स्वैरिणी, विषकन्या, तट्टी, पेट्टी, बंधुदा, बाजारु, तवायफ़ आदि।’3 जोकि उनके देह कर्म के अलावा अन्य कई भूमिकाओं को भी ध्वनित करता है।

वेश्यावृत्ति विश्व के अन्य समाजों की तरह भारतीय समाज में भी प्राचीन काल से ही विद्यमान है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के सत्ताईसवें अध्याय में नाटक के दस मूल्यांकनकर्ताओं में से एक मूल्यांकनकर्ता वेश्या भी है। ‘जो कि प्रेम के आनंद व संगीतज्ञ के स्वरों से संबंधित विषयों पर अपना मूल्यांकन रखती है।’4 वस्तुतः प्राचीन काल में वह मनोरंजन के एक साधन के रूप में आती है, जिसके लिए संगीत में पारंगत होना भी जरूरी था।

चाणक्य द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ में वेश्याओं के लिए व्यापक विधि-विधान का वर्णन मिलता है। वेश्याएँ शहर के दक्षिण में निवास करती थी। प्रशासन उनकी स्वास्थ्य सुविधाओं और सुरक्षा का ध्यान रखता था। एक विस्तृत नियमावली थी जो उनको उनके बुरे वक़्त में बचाती थी। कोई भी बलपूर्वक उनका शोषण नहीं कर सकता था। ‘न’ कहने के हक़ के साथ-साथ उन्हें गरिमापूर्ण कार्य की आज़ादी प्राप्त थी। नियमावली में इस बात का भी ध्यान रखा था कि गणिकाएँ किसी को छल न सकें। “जो अनिच्छुक कन्यापर बलात्कार करे या इच्छुक कन्यापर ही ऐसा काम करे उसको क्रमशाः उत्तम दंड, तथा साहस दंड जो अनिच्छुक वेश्या को रोके, पटके, मारे या बदसूरत करे उसको 1000 पण दंड मिले। जैसा स्थान हो वैसे ही दंड बढ़ाया जाय।”5 परन्तु आधुनिक संशोधित भारतीय न्याय संहिता 2023 में भी इनको लेकर कोई भी व्यवस्थित नियमावली नहीं है। क़ानूनी स्थिति अभी भी अस्पष्ट सी है जहाँ वेश्या होना कोई समस्या नहीं है परन्तु उसके कर्म को लेकर पेचीदगी बहुत है। वह अपने इस कर्म को कर तो सकती है पर व्यवस्थित नहीं कर सकती है।

अर्थशास्त्र में इस बात का भी वर्णन है कि जब वेश्या जीवन के दूसरे पड़ाव पर हो और वेश्यावृत्ति को और आगे न बढ़ा सके तो उसके जीवन के भरण-पोषण के लिए अन्य कार्यों की भी व्यवस्था है। वेश्यावृत्ति में प्रवेश और इस कार्य को छोड़ने के लिए भी स्पष्ट नियम है। वेश्यावृत्ति को लेकर अर्थशास्त्र में कोई भी ऐसा प्रावधान नजर नहीं आता जोकि उन्हें गरिमाहीन करता हो। यहाँ तक यदि उनके द्वारा कुछ अन्य कार्य(मूनलाइटिंग) किये जा रहें है तो राजा द्वारा उसके प्रतिफल का भी उल्लेख मिलता है। “जो वेश्यायें गणिका, दासी नटी आदिको गाना, बजाना, पढ़ाना, नाचना, नाट्य, अक्षर विज्ञान, चित्रकला वीणा बांसरी तथा मृदंगबजाना, दूसरे के ह्रदय को पहिचानना, गंध मालव गूंथना, शरीर को सजाना धजाना, आदि विषयक विद्यायें सिखावें उनको राजा की ओर से खर्चा मिले।”6 आज के समय में ऐसी किसी सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था के दर्शन नहीं होते हैं, बस उनके मान मर्दन की प्रक्रिया चलती रहती है।

इसके अलावा प्राचीन काल में रचित अधिकतर लौकिक एवं धार्मिक साहित्य में वेश्याओं का वर्णन मिलता है। ‘महाभारत में कृष्ण का स्वागत वेश्याओं द्वारा किये जाने का वर्णन है, गांधारी की सेवा में वेश्याएँ भी उपस्थिति थीं। विजय उपरांत गणिकाओं के नृत्य कि एक सामान्य परम्परा थी। और भी अन्य प्रसंगों में इनका वर्णन मिलता है।’7

‘शूद्रक की ‘मृच्छ्कटिकम्’ में वसन्त सेना, दण्डी के ‘दशकुमारचरितम्’ में काममंजरी तथा रागमंजरी का उल्लेख भी इनकी उपस्थिति को दर्शाता है। वात्स्यान का ‘कामसूत्र’, राजशेखर का ‘काव्यमीमांसा’, दामोदर गुप्ता की ‘कुट्टनीमतम्’ आदि भी वेश्याओं के जीवन को चित्रित करते हैं। मध्यकालीन समय में भी इनकी उपस्थिति को साहित्य और इतिहास दोनों दर्ज करते हैं। क्षेमेन्द्र की ‘समयमातृका’ एक ऐसा ग्रन्थ जो वेश्याओं को अपने कर्म में पारंगत होना सिखाता है। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में तो वेश्याओं ने रानी का पद भी प्राप्त किया। चंदबरदाई के ‘पृथ्वीराजरासो’, नरपतिनाल्ह का ‘बीसलदेवरासो’, कायस्थ गणपति की ‘माध्वानन्द कामकंदला’, अलबरूनी की ‘तहकीक-ए-हिन्द’ आदि ग्रन्थ भी उल्लेखनीय है।’8 जिनमें वर्णित अधिकतर वेश्याओं का जीवन उतना गरिमाहीन नहीं था जितना की आज है।

जिन ग्रंथों की चर्चा ऊपर हुई है वो पूर्णतः इतिहास ग्रन्थ नहीं हैं, फिर भी ‘नवइतिहासवादी’ दृष्टि से देखें तो उन्हें नकारा नहीं जा सकता है। वेश्याओं की सामाजिक स्थिति का कुछ हद तक अंदाजा तो इन साहित्यिक कृतियों के माध्यम से हो ही जाता है। इन प्राचीन रचनाओं का सन्दर्भ भूतोंमुखी होने के लिए नहीं है अपितु भविष्य निर्माण के एक पाठ के रूप में है।

आधुनिक काल में यदि हिंदी साहित्य को देखा जाये तो उसमें भी वेश्याओं का पर्याप्त चित्रण हुआ है। किशोरी लाल गोस्वामी का ‘स्वर्गीय कुसुम’, खत्री जी का ‘काजर की कोठरी’, देवीदत्त द्विवेदी का ‘वेश्या का चरित्र चित्रण’, लज्जाराम का ‘आदर्श हिन्दू’, प्रेमचंद का ‘सेवासदन’, कौशिक का ‘माँ’, ऋषभचरण का ‘वेश्यापुत्र’, निराला का ‘अप्सरा’, उषा देवी का ‘जीवन की मुस्कान’, इलाचंद्र का ‘परदे की रानी’, यशपाल का ‘दिव्या’, रांगेय राघव का ‘घरोंदा’, चतुरसेन शास्त्री का ‘वैशाली की नगरवधू’, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित का ‘मुर्दाघर’, अमृतलाल का ‘ये कोठेवालियाँ’, जैनेन्द्र का ‘दशार्क’, मधुकांकरिया का ‘आखिरी सलाम’, नैमिषराय का ‘आज बाज़ार बंद’ आदि उल्लेखनीय कथा साहित्य नज़र आते हैं। परन्तु इनमें से अधिकतर वेश्या ‘पहचान की समस्या’ से जूझते हुए नज़र आते हैं। प्रत्येक व्यक्ति एक साथ कई ‘आइडेंटिटी’ को अपने में समाये रखता है। एक स्त्री माँ, पुत्री, बहन, महिला, पंडिताइन, किसी कंपनी की मैनेजर या अध्यापिका आदि, एक साथ कई प्रस्थिति में हो सकती है। परन्तु वही प्रस्थिति ऊपर होगी जोकि ज्यादा चमक धमक वाली है। अधिकतर वेश्या जीवन से सम्बंधित साहित्य में उसकी पहचान वेश्या के रूप में नहीं अपितु स्त्री के रूप में होती है। जहाँ रचनाकार उसे गरिमाहीन जीवन से ही निकालने में या यूँ कहें उसे वेश्यावृत्ति से मुक्ति के लिए ही अपनी पूरी ऊर्जा खपा रहा होता है।

यहाँ पर उन वेश्याओं खासकर बाल वेश्याओं की बात नहीं हो रही है जोकि इस पेशे में जबरदस्ती ठेल दी गयी हैं। उनकी मुक्ति सदैव आवश्यक रहेगी और उसके लिए हर प्रकार का प्रयास भी जरूरी है। गुलामों, दासों की मुक्ति संघर्ष का तो इतिहास गवाह है। ‘भारतीय न्याय सहिंता 2023 की धारा 98 और 99 बाल वेश्याओं के रक्षा के उपबंध भी करती है।’9 प्रश्न यहाँ उन स्त्री वेश्याओं का है जो जीवन-यापन के एक मार्ग रूप में वेश्यावृत्ति का अनुसरण करना चाहती हैं। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है की कोई भला इस मार्ग का अनुसरण क्यों करेगा? प्रश्न प्रथम दृष्टया वाजिब भी लगता है परन्तु ये उतना भी वाजिब नहीं है। हम जिस भौतिक पूंजीवादी दुनिया में गमन कर रहें हैं वहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में, काम अर्थ का संगी हो रहा है। उत्तर आधुनिक दुनिया में सब कुछ बिकाऊ है। साहित्य, संगीत, शिक्षा सब कुछ बिकने के लिए बाजार में है। वैज्ञानिकता का अंधानुसरण करती इस दुनिया में कलात्मकता भी एक पूंजी मात्र बनकर रह गयी है। वेश्यावृत्ति में शीघ्रता से बहुत सारा धन कमा लेने का लालच जुड़ा हुआ है। ऐसे में इस भौतिकवाद दुनिया में वेश्यावृत्ति के अनुसरण को लेकर प्रश्न बहुत दूर तक नहीं टिकता है।

इस उलझी हुई गुत्थी को समझने में फ्रांसिसी दार्शनिक मिशेल फूको काफी काम आते हैं जिन्होंने ज्ञान, शक्ति(पॉवर) और व्यक्ति के संबंधों का बहुत गहराई से ‘हिस्ट्री ऑफ़ सेक्सुआलिटी’ में विवेचन किया है और बताया है कि संबंधों का निर्माण सिर्फ आनंद(संतुष्टि) के लिए नहीं हो रहा है। उसके पीछे ज्ञान की एक दुनिया है जो पॉवर के माध्यम से संचालित हो रही है और यह सिर्फ वही पॉवर नहीं है जिसको हम सत्ता के रूप में देख समझ रहें है। फूको कहता है "इन पॉलिटिकल थॉट एंड एनालिसिस, वी स्टिल हैव नॉट कट ऑफ द हेड ऑफ द किंग।"10 हमारे सारे सम्बन्ध इसी ज्ञान और पॉवर के माध्यम से निर्धारित किये जा रहे हैं। हमें कब ज्यादा बच्चे चाहिए, कब कम बच्चे चाहिए, कितनी पत्नियाँ या पति होंगे। यह सिर्फ हमारा निर्णय नहीं है। हमारे सारे संबंधों को कोई न कोई सत्ता नियंत्रित कर रही होती है। वर्तमान में देखे तो इस सत्ता का सर्वाधिक उपयोग पूंजीवाद और पितृसत्ता द्वारा हो रहा है।

वेश्या यदि यौनकर्मी के रूप में मान्यता प्राप्त करती है तो सबसे पहला नुकसान उस पुरुष को होगा जो कि औने-पौने दाम में उनकों अपना शरीर बेचने के लिए मजबूर कर रहा है। जब भी किसी सामाजिक संस्था को समाज में मान्यता मिलती है तो वह कुछ अधिकारों के माँग को भी अपने साथ ले आती है। स्त्री के उपभोग को अपना हक समझने वाली पितृसत्ता कभी नहीं चाहेगी उससे प्रश्न हो। उसके इस एकाधिकार को कोई चुनौती मिले। स्त्री देह पर अधिकार उसके शक्ति के प्रदर्शन का एक माध्यम है और उसका मनचाहा उपभोग उसके सत्ता की निशानी है।

यहाँ विचार करने वाली बात यह भी है कि वेश्यागमन को जाने वाले लोग कौन है? उनकी सामाजिक प्रस्थिति कैसी है? उनकी आर्थिक हैसियत क्या है? जिन लोगों का ज्ञान और सत्ता पर एकाधिकार है, ‘रति’ तक उनकी आसान पहुँच कभी इस समाज के लिए मुद्दा रहा ही नहीं है। इसके उदाहरण वर्तमान में ही नहीं अपितु प्राचीन एवं मध्यकाल में भी मिल जायेंगे। ‘हरम’ जैसी संस्थाओं को गुजरे कुछ ही शताब्दियाँ बीती हैं। शीर्ष पर बैठे लोग अपनी काम-वासनाओं की पूर्ति के लिए आसान रास्ते निकाल ही लेते हैं। बचते हैं तो वो लोग समाज के निचले वर्ग से आते हैं और जिनकों आपनी आर्थिक समस्यायों के कारण अपने परिवार से दूर रहना पड़ता है। ऐसे लोग न केवल वासनाओं की पूर्ति के लिए वेश्यागमन करते हैं अपितु अनावश्यक बीमारियों के वाहक बनते हैं। मीना पौडेल नेपाल से भारत काम करने आने वाले लोगों को केंद्र में रखते हुए ‘वर्ड हेल्थ’ के अपने एक लेख ‘पावर्टी, प्रॉस्टिट्यूशन एंड वीमन’ में लिखती हैं "फ्रॉम द फार वेस्टर्न एंड नॉर्दर्न रीजन्स ऑफ नेपाल, मेन ट्रैवल टू इंडिया ड्यूरिंग द स्लैक फार्मिंग सीज़न (विंटर) एंड वर्क ऐज़ पोर्टर्स ऑर वॉचमेन। व्हाइल दे आर अवे फ्रॉम द फैमिली, दे मे विज़िट चीप ब्रॉथेल्स एंड बिकम इन्फेक्टेड विथ सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिज़ीज़ेज़, देन रिटर्न होम एंड इन्फेक्ट देअर वाइव्स।”11

ऐसे एक नहीं हजारों उदाहरण आपको आस-पास देखने के लिए मिल जाएँगे जो कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीति की इन अदृश्य शक्तियों के माध्यम से अपनी इस स्थिति को प्राप्त करते हैं। प्रश्न शक्ति के इस्तेमाल करने वाले लोगों से पूछे जाने चाहिए कि उन्होंने ऐसी परिस्थितियों का निर्माण क्यों किया है? जिसमें सब कुछ हो तो रहा है परंतु उसमें चोर मनोवृत्ति और नैतिकता ह्रास के दबाव को जोड़ दिया गया है।

पाश्चात्य दुनिया की बात की जाये तो वो भी अपने आप में बहुत साफ़-सुथरा नहीं है। वहाँ पर भी सम्बन्ध स्थापना को लेकर व्यक्तिगत से ज्यादा वाह्य जगत का हस्तक्षेप रहा है। मध्यकाल में यह हस्तक्षेप चर्च जैसी धार्मिक सत्ताओं के हाथ में था। वर्तमान में वह उन लोगों के हाथों में है जो ज्ञान और पॉवर का इस्तेमाल कर रहे हैं। यह अवश्य है कि 1950-60 के दशक में पाश्चात्य साहित्यिक दुनिया में ‘बीट आन्दोलन’ ने कुछ हलचल मचायी। जो स्थापित मूल्यों को अस्वीकार करके यौन मुक्ति, मानव आज़ादी का स्पष्ट चित्रण करता है, और प्रताड़ित, गरिमाहीन व हाशिए के लोगों को गरिमा प्रदान करने का प्रयास करता है।

यहाँ पर अमेरिकी सिंगर मैडोना के ‘ट्रू’ एल्बम के गीत ‘पापा डोंट प्रीच’ का सन्दर्भ महत्वपूर्ण है। 1986 में आये इस गाने ने पितृसत्तामक दुनिया में तहलका मचा दिया था। जिसमें कहा गया कि हमारे निर्णय की स्वतंत्रता किसी न किसी के हाथ में गिरवी होती है।

"पापा, आई नो यू आर गोइंग टू बी अपसेट
कॉज आई वाज़ ऑलवेज योर लिटिल गर्ल
बट यू शुड नो बाय नाउ
आई एम नॉट ए बेबी...

XX XX XX XX

पापा डोंट प्रीच, आई एम इन ट्रबल डीप
पापा डोंट प्रीच, आई हैव बीन लूज़िंग स्लीप
बट आई मेड अप माय माइंड, आई एम कीपिंग माय बेबी-ओह”12 (देवनागरी में लिप्यान्तरित)

स्त्री हो या वेश्या, उनके लिए व्यवस्था सदैव उपदेशात्मक ही रही है, उसे हमेशा बताया जाता रहा है कि वह गुनाहगार है। जैसा कि नलिनी ज़मीला अपनी आत्मकथा में कहती हैं, “हम गुनाहगार क्यों हैं? किस नजरिए से? अगर सेक्स कोई गुनाह है, तो दूसरे आदमी को भी सजा मिलनी चाहिए। उसे कभी सजा क्यों नहीं मिलती? क्या वो भी एक गुनहगार नहीं है?”13 यह कैसी मनुस्मृति कालीन दंड व्यवस्था है, जिसमें समान कृत्य के लिए अलग-अलग सजा विद्यमान है। पाप-पुण्य की परिभाषाएं कौन तय कर रहा है? और उसका पैमाना सबके लिए एक-सा क्यूँ नहीं है। यहीं समाज के संचालकों की भूमिका संदेह के घेरे में आ जाती है और सामाजिक व्यवस्था पर भी प्रश्न चिन्ह लगता है कि ये किसके हितों का पोषण कर रहे हैं? पितृसत्ता की सीधी धमक यहाँ महसूस की जा सकती है। जिसमें वह एक साथ दो स्थितियों(पत्नी और वेश्या) का सुख प्राप्त करना चाहता है और अपने आप को जवाबदेही से भी बचा लेना चाहता है।

उत्तर आधुनिक भौतिकवादी दुनिया में जहाँ सब कुछ बिकाऊ है, वस्तु ही नहीं सम्बन्ध भी। वहाँ किसी का अपनी सेवा के बदले पैसे की माँग करना पाप कहाँ से हो जाता है? अगर उनके कार्य में कुछ कठिनाइयाँ हैं तो अन्य कार्यों में लगे लोगों की भी समस्याएँ हैं। नलिनी के अग्रलिखित दो प्रश्न महत्वपूर्ण हैं-

“ज्ञान का कोष सबसे बड़ा कोष होता है अब अगर हम अध्यापक से कहें कि वह हमें अपने ज्ञान का भंडार मुफ्त में सौंप दे, तो क्या वह देगा? नहीं!”14

“संगीत एक आनंद देने वाली कला नहीं है? सेक्स को भी इसी रूप में लेना चाहिए। जिस तरह बाकी कामों भी थोड़ी परेशानियाँ आती है। जिस तरह गायक अपनी आवाज और सेहत का ध्यान रखता है उसी तरह सेक्स वर्कर को भी रखना चाहिए। अगर सेक्स वर्कर अपना मेहनताना मांगता है, तो इसमें कौन सा पाप है?”15

पाप और पुण्य को लेकर विचार बदलते रहें हैं, परिवर्तन और स्वीकृति को लेकर यहाँ पर महात्मा गांधी का एक उद्धरण विशेष रुप से उल्लेखनीय है। उन्होंने वेश्या के सम्बन्ध में 1919 में पुनर्प्रकाशित हिन्द स्वराज की प्रस्तावना में लिखा था, “परन्तु यदि मैं इसमें संशोधन करना चाहूँ तो उसमें एक शब्द बदलना चाहूँगा। क्योंकि मैं इस बात का वचन अपने एक अंग्रेज मित्र को दे चुका हूँ। उन्होंने संसद के सम्बन्ध में मेरे द्वारा प्रयुक्त “वेश्या” शब्द पर आपत्ति की थी।”16

इसी के साथ यहाँ पर एक महात्मा बुद्ध से सम्बंधित एक प्रसंग को भी ले सकते हैं। ‘प्रसिद्ध आम्रपाली का आतिथ्य गौतम ने स्वीकार किया था जोकि एक वेश्या ही थी।’17 उपरोक्त दोनों प्रसंगों को उद्घृत करने का उद्देश्य यह रेखांकित करना है कि वैयक्तिक गरिमा अति आवश्यक है। वेश्यावृत्ति के पेशे में कार्यरत लोगों के लिए प्रयोग होने वाले शब्द गरिमाहीन है और गाली की तरह लोक भाषा का हिस्सा हैं।

कई बार किसी उद्घोषित संज्ञा का नाम परिवर्तन ही गरिमा में परिवर्तन ला देता है। उदाहरण स्वरूप दिव्यांग और विकलांग को ही ले लें । 27 दिसम्बर 2015 को प्रधानमंत्री ‘मन की बात’ कार्यक्रम में आह्वान करते हैं कि शारीरिक रूप से कमजोर को विकलांग नहीं दिव्यांग कहा जाये। ऐसा नहीं है कि सिर्फ संज्ञा परिवर्तन से उनकी दशा में परिवर्तन आ जायेगा, परन्तु एक अनावश्यक लादी गयी मानसिक पीड़ा से दिव्यांग हो या फिर वेश्या बच सकते हैं। वेश्याओं की लंबे वक़्त से यह माँग रही है कि उन्हें ऐसी संज्ञाओं से न नवाजा जाए जोकि समाज में अपमान सूचक है या फिर गाली की तरह इस्तेमाल हो रही हैं। यौनकर्मी जैसे शब्द न केवल अधिक संवेदनशील है अपितु अधिक उपयुक्त और मानवीय भी हैं। भारतीय संविधान की प्रस्तावना हर किसी के गरिमापूर्ण जीवन की आकांक्षा रखती है, अनुच्छेद 21 दैहिक स्वतंत्रता का मूलाधिकार प्रदान करता है, अनुच्छेद 42 काम की न्यायोचित और मानव संगत दशाओं की सत्ता से गुजारिश करता है। वेश्याओं के सन्दर्भ में ये कहाँ हैं? पता नहीं!

वेश्याओं के बारे में अनुसन्धान और चर्चा की कल्पना भारतीय समाज में बड़ा कार्य है। इसको लेकर कोई भी पहल नज़र नहीं आती। लुईज ब्राउन ने ‘यौन दासियों’ में लिखा है, “सेक्स से सम्बंधित मामलों पर अनुसन्धान और चर्चा करने को लेकर इस क्षेत्र में गहरी अनिच्छा पायी जाती है। सेक्स के नाम पर गहरी परेशानी उभर आती है ..... खासतौर मुझ जैसी सम्मानित महिला के द्वारा।.... इस विषय को चर्चा के लायक समझा भी जाता है तो विमर्श इस विषय पर केन्द्रित हो जाता है कि वेश्यावृत्ति वेश्या के नैतिक पतन का प्रतीक है। प्रगतिशील हलकों में इसे विकास का मसला मान लिया जाता है।”18

जिस भी मुद्दे को लेकर समाज में खुली चर्चा नहीं होती वह उसकी दुश्वारियों को बढ़ाता है। उदाहरण स्वरूप स्त्रियों से जुड़ी दिन-प्रतिदिन की समस्याओं (पीरियड्स, यौन रोग) को ले सकते हैं। यही हाल वेश्या-स्त्री-जीवन का भी है। नलिनी का यह कथन यहाँ कोप ग्रस्त कर सकता है “पुलिस ही रात को साथ सोती है और दिन में डंडे मारती है।”19 कितने ही सेक्स वर्कर की मौत की ख़बर सामान्य दुनिया के लिए ख़बर ही नहीं होती है। जिससे उनके सामान्य मानवीय अधिकारों का आसानी से हनन हो जाता है।

ऐसा भी नहीं है कि दुनिया में कहीं कोई प्रयास नहीं हुए हैं। 2 जून 1975 को अपने अधिकारों के लिए पहली बार फ्रांस में सेक्स वर्कर्स ने समाज को अपनी सुध लेने के लिए विवश किया था। इसी 2 जून को आगे चलकर ‘इंटरनेशनल सेक्स वर्कर्स डे’ के रूप मनाया जाने लगा। ऐसा ही कुछ प्रयास भारत में ‘दरबार महिला समन्वय समिति’ के तत्वावधान में 3 मार्च 2001 को 25000 सेक्स वर्कर्स को कोलकाता में एकत्रित करके किया गया। हीनता बोध से बाहर निकालने के लिए किये गए इस आयोजन को, आगे याद रखने के लिए ‘इंटरनेशनल सेक्स वर्कर्स राईट डे’ के रूप में प्रत्येक वर्ष 3 मार्च को मनाया जाता है।

परन्तु इन छिटपुट प्रयासों से ज्यादा कुछ नहीं बदला। हाल ही में कोविड-19 जैसी महामारी ने ऋण-जाल में फसाकर इनकी पीढ़ियों को सजा भुगतने के लिए मजबूर कर दिया। वेश्याओं की कोरोना महामारी में हुई दुर्दशा को दिखाती एक रिपोर्ट एन.एस.डब्लू.पी. द्वारा जारी की गई है। इस पेशे की सहज स्वीकृति न होने का परिणाम यह हुआ कि न तो इन्हें सरकारों की तरफ़ से मदद मिली है और न ही कहीं कोई स्थान। ऊपर से सत्ता ने इस दौरान सर्विलांस बढ़ा के इन्हें जेलों में ठूस दिया है। ‘सरकारों की तरफ़ से जो भी मदद, चाहें वो राशन की हो या फिर पैसों की उन तक नहीं पहुँची है। क्योंकि अधिकतर के पास वो प्रपत्र ही नहीं थे जो सरकारी मदद के लिए आवश्यक थे। ऐसे में उन्हें या तो कोरोना ने मार दिया या फिर गरीबी और भुखमरी ने।’20

ऐसे में इस समाज के कर्ता-धर्ताओं से प्रश्न बनता है कि उनकी इन मौतों का जिम्मेदार कौन होगा? उनकी पीढ़ियों को सिर्फ इसी काम के लिए अभिशप्त करने वाला कौन है? मार्क्स कहता है हर व्यवस्था किसी न किसी के पोषण के लिए बनी होती है जिसमें ज्यादातर लोगों का शोषण हो रहा होता है। ऐसे में ये देखना होगा कि किसके पोषण के लिए मूल्य, मानदण्ड और नैतिकता है?

वेश्याओं को लेकर समाज में ऊहापोह की स्थिति है। उनका पक्ष लेने वालों से कई प्रश्न किये जा सकते हैं, उनमें से एक प्रश्न ये भी हो सकता है उनसे शादी कौन करेगा? परिवार रूपी संस्था अभी तक समाज में प्रवेश का प्रथम सोपान रही है जोकि शादी के माध्यम से कड़ी के रूप में जुड़ती है। परन्तु जिस दुनिया में हम प्रवेश कर रहें हैं वहाँ ‘लिव इन’ जैसी नयी संरचनाएं भी स्वीकार की जा रही हैं, शादी ही सामाजिक मुक्ति का एक मात्र माध्यम हो, ऐसा नहीं रहा है।

समाज और संस्कृति के निर्माण में भौतिक और गैर-भौतिक तत्वों दोनों का योगदान होता है। जिस हिसाब से भौतिक दुनिया में प्रगति हो रही है उसका प्रभाव गैर भौतिक तत्वों पर पड़ना स्वाभाविक है, फिर चाहे वो रहन-सहन हो, खान-पान हो, आपसी संबंधों का औपचारिक हो जाना हो, परिवारों की समाप्ति हो आदि सभी पर उनका प्रभाव आना ही है। यथास्थिति वादियों के लिए अब समय नहीं बचा है, उनके देखते ही देखते समलैंगिकता अप्राकृतिक नहीं रही, वर्जिनिटी का मिथ ढीला पड़ चुका है, सफ़ेद चादर जैसी प्रथाएं अब इतिहास का हिस्सा होने को हैं। और जिस गति से समाज बदलावों की ओर बढ़ रहा है उसको वेश्याओं के सच को स्वीकार करते हुए उनके लिए जगह बनानी होगी। उनका भविष्य अँधेरें में क़ैद नहीं किया जा सकता है, उनके लिए स्वच्छ हवा और रोशनी की व्यवस्था समाज और नीति निर्माताओं द्वारा करनी होगी।

निष्कर्ष : समाज में जिन लोगो के हाथ में शासन की बागडोर है वह अपने हित साधन और अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए एक पूरी आबादी को अमानवीय जीवन जीने के लिए शापित कर रहे हैं। वेश्यावृत्ति का खात्मा सिर्फ और सिर्फ कोरी कल्पना है, जिसका बिगुल प्रभुत्वशाली वर्ग साहित्य से लेकर समाज तक में फूंकता रहता है। यह कोरी कल्पना इस लिए है क्योंकि इसकी नींव समानता के धरातल पर नहीं है। बल्कि इसमें ‘कास्ट’ और क्लास का गठजोड़ है जो विभिन्न हथकंडों के माध्यम से सदियों से चली आ रही अपनी सत्ता को बचा रहे हैं। उनका उद्देश्य वेश्यावृत्ति को खत्म करना तो कतई नहीं हैं। अगर होता तो समाज में ‘कॉल गर्ल’ और ‘स्कॉट सर्विसेज’ की आमद इतनी तेजी से नहीं बढ़ रही होती। इनकी वृद्धि का कारण स्पष्ट है इन सेवाओं का उपभोक्ता वर्ग इन्हीं सत्ताधारी वर्ग से आता है।

हम करोड़ों की आबादी को यूँ बिना स्थान दिए, किसी समावेशी साहित्य व समाज की कल्पना नहीं कर सकते हैं। भौतिकवादी दुनिया में उनकी ऐसी प्रस्थिति और भूमिका की ओर विचार किया जाना चाहिए जोकि उन्हें मूलभूत मानवीय गरिमा प्रदान कर सके। हमारे सामने प्राचीन काल के अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथों के उदाहरण मौजूद हैं। जिसमें उनके लिए मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं का ध्यान रखा गया है। उनके भविष्य को अंधकार में रखकर पूरी आबादी के लिए उजाले का दावा असंभव है। वैसे भी साहित्य और समाज में बिम्ब-प्रतिबिम्ब का सम्बन्ध है, किसी एक में भी सकारात्मक परिवर्तन दूसरे में भी प्रतिबिंबित होगा। और अब इस उत्तर आधुनिक दौर में किसी एक ही सत्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता है, समय है कि बेड़ियों को तोड़ा जाये और साहित्य व समाज में वेश्याओं के लिए स्वस्थ, मानवीय और गरिमापूर्ण स्थान की स्थापना की जाये।

सन्दर्भ :
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पंकज कुमार
पीएच.डी. (सीनियर रिसर्च फेलो), अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद, 500007
pkmaurya222@gmail.com, 8726286446/9807135737

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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
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