अपनी व्यथा को व्यक्त करते अमिलकोनी के कलात्मक अवशेष
- सरला सिंह
शोध सार : कला मनुष्य के भावों के अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है।कला के इतिहास की दृष्टि से भारतवर्ष प्राचीन काल से ही अत्यंत समृद्ध देश रहा है। न केवल मध्य प्रदेश वरन संपूर्ण भारतवर्ष में कलात्मक अवशेषों की बहुलता रही है जिसे पुरातत्ववेत्ताओं ने समय-समय पर उत्खनन के माध्यम से उद्घाटित कर हमारे समक्ष प्रस्तुत करने का सफल एवं सार्थक प्रयास किया है। कला के क्षेत्र में प्राचीन काल से ही उल्लेखनीय प्रगति होती रही है जो कि वर्तमान में भी जारी है। उसी क्रम में मध्य प्रदेश के चाकघाट स्थित रीवाँ जिले में अमिलकोनी नामक ग्राम में कुछ कलात्मक अवशेष प्रकाश में आए हैं जिन्हें पूर्णतया नजरअंदाज कर यथावत रूप में छोड़ दिया गया है। उन्हें वर्तमान समय में आवश्यकता है एक नई पहचान की। इसलिए इस शोध पत्र में उक्त कलात्मक अवशेषों को अध्ययन का विषय बनाया गया है और उनकी विशद व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
बीज शब्द : देवायतन, देवकुल, देवगृह, देवधाम, देवलोक, वृहत्संहिता, मत्स्यपुराण, इंडोइस्लामिक, अधिष्ठान।
मूल आलेख : कला मनुष्य की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है।यही कारण है कि प्राचीन काल कालीन आदि मानव ने भी इसे ही अपनी अभिव्यक्ति का सबसे प्रमुख साधन बनाया। कला का उद्गम सौन्दर्य की मूलभूत प्रेरणा से हुआ है। सौन्दर्य की अभिरुचि मनुष्य की अनुकरण-प्रवृत्ति द्वारा प्रमाणित होती है। मानव की सर्वोपरि चेतना प्रकृति के अनुकरण में निहित है। भारतीय कला में प्रत्यक्ष की अपेक्षा अप्रत्यक्ष तथा सत्य की अपेक्षा कल्पना को ही अधिक महत्व दिया गया है, क्योंकि कल्पना के द्वारा मनुष्य में नव चैतन्य का जन्म होता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य की भावनाओं तथा विचारों का प्रत्यक्षीकरण कला के द्वारा हो जाता है। प्रत्येक प्रकार की कलात्मक प्रक्रिया का ध्येय है- सौन्दर्य तथा आनंद की अभिव्यक्ति। वास्तु कला का इतिहास अत्यन्त पुराना है। यह शब्द 'वस्' धातु से बना है जिसका अर्थ है एक स्थान पर निवास करना। अर्थशास्त्र में गृह, सेतु, क्षेत्र आदि इमारतों के भाव में इस शब्द का प्रयोग मिलता है। अतएव वास्तु कला का प्रतिपाद्य विषय है- मानवगृह, देवमंदिर या अन्य प्रकार के भवन। किसी भी विषय के वैज्ञानिक सिद्धान्त के सुव्यवस्थित रूप को प्रतिपादित करने के लिए आधारभूत मौलिक पदार्थों की स्थिति आवश्यक होती है। वैदिक साहित्य में कई प्रकार की वास्तुकृतियों का वर्णन मिलता है। परन्तु उनकी रचना किस प्रकार हुई. इस विषय पर प्रकाश नहीं पड़ सका है। बौद्ध ग्रंथ भी वास्तुकला की कृतियों के विवरण से परिपूर्ण हैं तथा उनके भग्नावशेष भी मिलते हैं। चाणक्य युग में वास्तुविज्ञान अत्यन्त प्रसिद्ध था। पौराणिक साहित्य भी इस प्रकार के विवरण से भरे पड़े हैं। विष्णु धर्मोत्तर पुराण में मानव तथा देवगृहों की रचना का निरूपण पृथक् पृथक् किया गया है। भारतीय संस्कृति में धर्म प्रमुख स्थान रखता है। धार्मिक विचार मानव जीवन के कर्मों का संचालन करता है तथा मनुष्य का जीवन दर्शन उसी पर आधारित है।
भारत की प्राचीन स्थापत्यकला में मंदिरों का विशिष्ट स्थान है। भारतीय विचारधारा तथा संस्कृति ने छोटी-मोटी बाहरी बातों को आत्मसात कर लिया। इसी प्रकार भारतीय मंदिर देश की परंपरा तथा प्रतिभा की उपज है। प्राचीन भारत की कला में धर्म के लोकप्रिय स्वरूप की छाप दृष्टिगोचर होती है। मंदिर का वास्तु न केवल साधारण जन के आवास से भिन्न है अपितु गर्भग्रह के ऊपर विमान की उच्चता आध्यात्मिक भावना तथा विशिष्टता का प्रतीक है।मंदिर का शिखर दूर से ही उच्च स्वर में ईश्वर की सर्वव्यापकता का उद्घोष करता है। समीप आते ही मानव भक्ति में विभोर हो जाता है। संसार की ओर से हट कर आध्यामिक भावना जग जाती है। मंदिर की भित्तियों, स्तंभों तथा छत्तों पर उत्कीर्ण अथवा उभरी हुई आकृतियों के मध्य दर्शक अपने को भूल जाता है। देवी-देवताओं के संमुख भक्त नतमस्तक हो जाता तथा अपने कुकृत्यों पर पश्चाताप कर निर्मल एवं पवित्र भावों के निमित्त जागरूक होता है।
मन्दिर विचलित मन से दूर वह स्थान है जहां उसे शांत और आध्यत्मिक वातावरण प्राप्त होता हैं। केवल मध्यप्रदेश ही नही बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष में भी कलात्मक अवशेष यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं जिन्हें पुरातत्वविदों के द्वारा समय-समय पर गर्भ से बाहर लाने का सदैव से ही सफल प्रयास किया जाता रहा है। यद्यपि यह सत्य है कि वास्तु की अवधारणा उसके धार्मिक स्वरूप में निहित होती है तथापि उसका स्वरूप बहुत वृहद होता है जिसमे आर्थिक-सामाजिक इत्यादि लगभग सभी पक्ष सम्मिलित होते हैं। यदि हम प्राचीन साहित्य का गंभीरतापूर्वक अवलोकन करें तो पायेंगे कि इस देश में मन्दिरों के निर्माण सम्बन्धी विभिन्न क्रियाकलाप प्राचीन काल से ही विद्यमान थे। साथ ही पुरातत्वीय अवशेषों में भी मन्दिरों के स्वरूप संबंधी अनेक प्रमाण प्राप्त होते हैं।
सामान्यतः मन्दिर से आशय वह निर्माण है, जहाँ पूजा एवं उपासना की दृष्टि से देवी- देवताओं तथा तीर्थंकर की मूर्ति प्रतिस्थापित की जाती है। सहित्यावलोकन से ज्ञात होता है कि गुप्तकाल तक मंदिर शब्द का प्रयोग सामान्य अर्थों में आवास के लिए होता था जबकि देवता के मंदिर के निमित्त देवायतन, देवकुल देवगृह, देवधाम, देवलोक इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जाता था।1 ऋग्वैदिक कालीन साक्ष्यों से पता चलता है कि तत्कालीन समय में जनमानस में प्रतीकात्मक पूजा का प्रचलन था। इस काल से किसी मंदिर या मूर्ति का प्रणाम अभी तक प्राप्त नही हुआ है।2 उत्तर वैदिककालीन साहित्य में देव-गृहों, देव-कुलों तथा देवायतनों के रूप में मन्दिर का उल्लेख हुआ है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इस दृष्टि से सीधे और स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। सांख्यायन सूत्र में भी प्रासाद को दीवारों, छत और गवाक्षों से युक्त कहा गया है।3 महाकाव्यों में भी प्रसाद व विमान आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है, किन्तु यह कहना कठिन है, कि इनका प्रयोग मन्दिरों के लिए किया गया है अथवा नहीं। भारत मे अंग्रेजों के आगमन के बाद से ही मंदिर शब्द का प्रयोग स्वतंत्र रूप में देवालय के लिए होने लगा। 15वीं-16वीं शती में रचित ग्रंथ रामचरितमानस में भी इस बात के स्पष्ट साक्ष्य मिलते हैं कि तत्कालीन समय मे मंदिर शब्द का प्रयोग अधिकांशतः राजा के घर या प्रसाद के अर्थ में होता था।4 इस दृष्टि से विश्वकर्माप्रकाश नामक ग्रन्थ में भी दी गई मन्दिर की परिभाषा प्रस्तर के बने हुए निवास के रूप में की गई है।5 बाणभट्ट की कादम्बरी में भी मन्दिर शब्द प्रयुक्त हुआ है, किन्तु यह भी देवालय के बोध का स्पष्ट प्रमाण नही है।6
मंदिर जिसे अंग्रेजी में टेम्पल कहकर संबोधित किया जाता है लैटिन भाषा के टेम्पलम् शब्द से व्युत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है आयाताकार देवालय। रस्किन नामक विद्वान ने स्थापत्य का वर्गीकरण करते हुए टेम्पल की परिभाषा ऐसे भवन के रूप में की है जहाँ पूजा कार्य सम्पन्न किये जाते हैं। अभिलेखीय साक्ष्य भी मन्दिर उद्भव विषयक जानकारी देते हैं। इसमें सर्वप्रथम बेसनगर का हेलियोडोरस के स्तम्भ लेख का उल्लेख किया जा सकता है।7 बेसनगर स्थित एक अन्य अभिलेख से भी ई.पू. की निकट शताब्दियों में मन्दिर निर्माण की जानकारी प्राप्त होती है। मन्दिर प्रमाण की दृष्टि से प्राचीन मुद्राओं से भी अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती है जिसमे प्राचीन आहत सिक्के , औदुम्बरों और पांचालों आदि की मुद्रायें विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं।8 इनमें मन्दिर का जो सादा रूप देखने को मिलता है उससे पता चलता है कि देवालय का निर्माण एक ऊंचे स्थान पर किया जाता था जिसके चारों ओर वेदिका निर्मित होती थी । बेसनगर, मथुरा इत्यादि स्थानों के उत्खननों से प्राप्त प्रमाण भी उक्त तथ्य की पुष्टि करते हैं।
भारतीय मन्दिरों के आकार के लिए मानव शरीर तथा पर्वत शिखर प्रेरणास्रोत थे। आध्यात्मिक तथा अधिभौतिक दृष्टि से मन्दिरों में मूल रूप में इन स्रोतों का निरूपण प्राचीन भारतीय परंपरा में दिखायी देता है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों यथा वराहमिहिर की बृहत्संहिता9, मत्स्यपुराण10, अग्निपुराण11, मयमतं12, कश्यपशिल्प13, शिल्परत्न14 और ईशानशिवगुरुदेवपद्धति15 इत्यादि में मन्दिर को पुरुष कहा गया है और मंदिर के विभिन्न अंगों को पुरुष के विभिन्न अंगों के साथ समीकृत किया गया है । मन्दिर ईश्वर की सर्वव्यापकता की भावना का मूर्त रूप है। मन्दिर के गर्भगृह की द्वार शाखाओं और तोरणों पर निर्मित मिथुन, पत्रवल्लरी, प्रमथ (बौने), स्वास्तिक, घट, श्रीवृक्ष (कल्पद्रुम), देवता, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि सभी के अंकन के माध्यम से विराट् ब्रह्माण्ड की कल्पना को सार्थक रूप दिया गया है। मन्दिर के शिखर की कल्पना ‘सुमेरू‘, ‘कैलाश‘, ‘मन्दार‘ तथा ‘त्रिकूट‘ आदि पर्वतों के रूप में की गई है।16 ये पर्वत देवताओं और देव योनियों के निवास एवं क्रीड़ा-स्थल माने गये हैं । इस प्रकार भारतीय संदर्भ में मंदिर की संकल्पना अत्यंत विराट है।कुछ इसी प्रकार से देवता को मूर्त रूप में प्रदर्शित करने का सफल प्रयास अमिलकोनी स्थित मंदिर में भी किया गया था जो असमय काल के गराल में समाहित हो गया परंतु प्राचीन मंदिर के अवशेष और वर्तमान मंदिर-संरचना तत्कालीन कलात्मक प्रतिभा के गौरवशाली इतिहास को बयाँ कर रहे हैं जिसका अध्ययन कुछ इस प्रकार है।
अमिलकोनी नामक ग्राम जो कि एक प्राचीन पुरास्थल भी है, मध्यप्रदेश के रीवाँ जिले के त्योंथर नामक तहसील में चाकघाट बाजार से करीब 10 किमी उत्तर-पूर्व दिशा में टौंस नदी के तट पर स्थित है। जिला मुख्यालय से इसकी दूरी लगभग 78 किमी है। भौगोलिक दृष्टि से यह शंकरगढ, जवा, कौंधियारा और जसरा आदि के बीच में स्थित है। इलाहाबाद से इसकी कुल दूरी लगभग 58 किमी है। 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की कुल जनसंख्या लगभग 1988 थी।17 यह एक प्राचीन पुरास्थल भी है जहाँ के टीले की खोज सर्वप्रथम 1997 में की गयी तथा 1998 ई0 में यहाँ पर उत्खनन कराया गया जिसके उपरांत कुषाणकालीन मृदभाण्डों के साथ-साथ यहाँ से उत्तरी काली चमकीली मृदभाण्डों के टुकड़े भी प्राप्त हुए। यहाँ लघुपाषाण उपकरण और पशुओं की हड्डियाँ भी बड़ी मात्रा में प्राप्त हुयी हैं। उक्त के आधार पर यहाँ के टीले में आवास का सतत अनुक्रम दिखाई देता है। अमिलकोनी से उक्त अवशेषों की प्राप्ति के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग द्वारा फरवरी 1998 ई0 में प्रो० बी0डी0 मिश्रा के निर्देशन में उत्खनन कार्य कराया गया। प्रो० जे0एन0 पाल, प्रो०डी0के0 शुक्ला और डॉ0 ए0सी0 शुक्ला उत्खानकर्ताओं के टीम में सम्मिलित थे।18 इस टीम को निर्देशित करने का कार्य एल0के0 तिवारी, राजेन्द्र प्रसाद, वी0के0 खत्री और शरद सुमन आदि विद्वानों ने किया । अमिलकोनी के उक्त टीलों में कुल चार खंतियां डाली गयीं जो कि इस प्रकार हैंः- A-9, L-1, Z-5 और Z-6 आदि।19
1. खंती A-9 से कुल तीन स्तरों के साक्ष्य प्रकाश में आये हैं जोकि उत्तरी काली चमकीली मृदभाण्ड परम्परा (NBPW) से सम्बन्धित हैं ।
2. खंती L-1 से 20 स्तर प्रकाश में आये जो दो संस्कृतियों से सम्बन्धित हैं । इसमें से नीचे के स्तरों से लाल तथा काले मृदभाण्ड के टुकड़े प्राप्त हुए तथा ऊपरी स्तर से उत्तरी काली चमकीली मृदभाण्ड परम्परा के टुकड़े प्राप्त हुए।
3. खंती Z-5 और Z-6 से कुषाणकालीन मृदभाण्ड, मिट्टी की मूर्तियाँ और लोहे के उपकरण प्रकाश में आये। खंती Z-6 स्वयं में दो तथ्यों के लिए महत्वपूर्ण है जिसमें से प्रथम तथ्य यह कि इस स्तर से लोहे के जिस प्रकार के उपकरण प्राप्त हुए हैं उनसे स्पष्ट होता है कि इन लोगों को लोहे को गलाने और उनका उपकरण बनाने में महारथ हासिल थी। दूसरी बात यह कि इसी खत्ती से N.B.P.W. के स्तर पर मानव का एक कंकाल भी प्राप्त हुआ है।20
चित्र संख्या 1 :अमिलकोनी का सांस्कृतिक अनुक्रम
इस लिए अमिलकोनी में किया गया यह उत्खनन अत्यन्त महत्वपूर्ण है जिससे स्पष्ट होता है कि अमिलकोनी प्राचीन काल से ही एक महत्वपूर्ण पुरास्थल रहा है। यहाँ के टीलों से मानव आवास की एक सतत प्रक्रिया उद्घाटित होती है जो N.B.P.W. से लेकर कुषाण काल तक निरन्तर गतिमान थी और उसमें कहीं भी कोई अवरोध दिखाई नहीं देता है साथ ही यहाँ से प्राप्त कुषाण कालीन ईंटे ठीक उसी प्रकार की हैं जैसा कि मध्य गंगा घाटी के अन्य कुषाण काली पुरास्थलों से प्राप्त हुई थीं। इस प्रकार अमिलकोनी के इस टीले पर मानव का आवास 5वीं शती ई0पू0 से द्वितीय/तृतीय शती ई0 तक निरन्तर चलता रहा।21
कलात्मक अवशेष -
अमिलकोनी ग्राम के पुरातात्विक टीलों से लगभग 500 मीटर दक्षिण दिशा की ओर टौंस नदी के दाहिने तट पर एक मंदिर विद्यमान है जो प्रथमतया तो सामान्य प्रतीत होता है, परन्तु गंभीरतापूर्वक अवलोकन करने पर वह विशेष स्थान रखता है और यदि अध्ययन किया जाये तो संभवतः अमिलकोनी नामक ग्राम को भारतीय कला के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करने की क्षमता भी रखता है। पक्षियों का चहचहाना, नदी का कल-कल बहता हुआ निर्मल जल और दूर-दूर तक फैली हुई शांति इस स्थान को एक अलौकिक सौन्दर्य प्रदान करती है। वर्तमान मंदिर 1 फुट 6.5 इंच ऊँचे, 43 फुट 2.5 इंच लम्बे एवं 43 फुट 2.5 इंच चौड़े अधिष्ठान पर स्थित है जिसका निर्माण इंडो-इस्लामिक शैली में किया गया है। मंदिर का गर्भगृह 31 मी0 गहरा, 15 मी0 चौड़ा तथा 15 मी0 लम्बा है। गर्भगृह में दो शिवलिंग स्थापित हैं। कला मानव की आन्तरिक अनुभूति की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मध्य भारत कलात्मक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से भारतवर्ष का सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र है। मध्य भारत के प्रत्येक कोने में कलात्मक अवशेष यत्र-तत्र बिखरे दिखाई देते हैं, इसी क्रम में वर्तमान मध्यप्रदेश में भी कलात्मक अवशेष प्राप्त हुए हैं। ग्रामवासियों का मानना है कि इस मंदिर में विद्यमान एक शिवलिंग स्वयं शिवशम्भु का है जबकि दूसरा शिवलिंग माता पार्वती का प्रतीक है। मंदिर की छत गुम्बदाकार है जिसकी भीतरी संरचना में छोटे-छोटे आकार के मेहराबों का प्रयोग किया गया है। परन्तु मंदिर का यह वर्तमान स्वरूप बाद की रचना है। यह मंदिर जिस टौंस नदी पर स्थित है उसे ही रामचरित मानस में तमसा नदी के नाम से जाना गया है। वर्तमान मंदिर के प्रवेश-द्वार में बेल-बूटों का अलंकरण है और ललाट पर श्रीगणेश जी की छोटे आकार की मूर्ति विराजमान है जिसे सिन्दूर से पोत दिया गया है। पहले के अवशेषों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जिस स्थान पर वर्तमान मंदिर स्थित है उसके पहले यहाँ कोई मठ या मंदिर रहा होगा जिसके स्थान पर बाद में वर्तमान मंदिर बनाया गया। मंदिर के चारों ओर फैले अवशेष इस बात की पुष्टि करते हैं। मंदिर का अधिष्ठान मुख्यतः कुषाण-कालीन पक्की ईंटो से निर्मित था। अधिष्ठान के चारों ओर दोहरे चहारदीवारी का निर्माण किया गया था जिसमें प्रारम्भ में तो पक्की ईंटो का प्रयोग किया गया था परन्तु बाद में उसे पाषाण आच्छादित करा दिया गया। मंदिर परिसर से ईंटों से निर्मित चहारदीवारी के अवशेष भी प्राप्त हैं जिनमें कुषाणकालीन बड़े-बड़े ईंटों का प्रयोग किया गया है।
चित्र संख्या 2 एवं 3 : कुषाण कालीन ईंटों से निर्मित चहारदीवारी
साथ ही पाषाण निर्मित चहारदीवारी भी प्राप्त हुयी है जिसमें बड़े-बड़े पत्थरों का प्रयोग किया गया है। बाहर की ओर की चहारदीवारी का कुछ अंश अभी भी सुरक्षित है जो उसकी उत्कृष्टता का परिचायक है।
चित्र संख्या 4 : पाषाण निर्मित चहारदीवारी
मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व में नीचे की ओर कुषाणकालीन पक्की ईंटों से निर्मित एक कुएँ का भी साक्ष्य प्राप्त हुआ है जिसे वर्तमान में ढँक दिया गया है। इस कुएँ में पानी का स्रोत मुख्यतः नदी थी। इस वास्तु की प्राचीनता का द्योतक ब्राह्मी लिपि का प्राप्त एक अभिलेख है जिसे मंदिर की ड्योढ़ी में लगा दिया गया है। यद्यपि यह अभिलेख 5 से 6 पंक्तियों का है परन्तु इसके अधिकांश भाग पाषाण आच्छादित होने के कारण अक्षर नष्ट हो गये हैं तथापि कुछ ही अक्षर पढ़े जा सकते हैं, जो कि इस प्रकार हैं- म, ठ, व, जा
चित्र संख्या- 5 : मंदिर की ड्योढ़ी में लगा हुआ अभिलेख
इसके अतिरिक्त मंदिर के सामने जो खाली स्थान है वहाँ से कुषाण-कालीन लाल रंग के मृदभाण्डों के टुकड़े प्राप्त हुए है जो कि इस पुरास्थल के महत्ता की पुष्टि के लिए महत्वपूर्ण प्रमाण हैं। इस पुरास्थल से पाषाण निर्मित कुछ कलाकृतियाँ भी प्राप्त हुई हैं जो कि स्वयं में विशिष्ट प्रतीत होती हैं।
चित्र संख्या- 6: पत्थर से निर्मित शिवलिंग
उपर्युक्त अध्ययनोपरात हम कह सकते हैं कि अमिलकोनी के इन कलात्मक अवशेषों की महत्ता इतिहास के संदर्भ में प्रासंगिक है वर्तमान समय में आवश्यकता है तो उन्हें सहेज कर रखने कि। यदि पुरातत्व विभाग के द्वारा इन्हें संरक्षित करने के पर्याप्त प्रयास किए जायेंगे तो निःसंदेह इस पुरास्थल के गर्भ में छिपी हुई अनेक महत्वपूर्ण जानकारियों को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया जा सकेगा।
सन्दर्भ :
1. सम्पादक, आप्टे हरिनारायण,1929,अमरकोश,अध्याय 2,पृष्ठ संख्या 13,बम्बई।
2. कुमारस्वामी, आनन्द,1927,हिस्ट्री ऑफ इंडियन एंड इंडोनेशियन आर्ट,पृष्ठ संख्या 42 , लंदन
3. संपादक, यौली,1923,अर्थशास्त्र, अध्याय 3,पृष्ठ संख्या 23,बनारस।
4. तिवारी ,पुष्पा तथा अन्य,'चंदेल टेम्पल आर्किटेक्चर :फॉर्म एंड ट्रांसफॉर्मेशन' राष्ट्रीय संगोष्ठी 9 दिसम्बर,2016,आयोजक:प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग,इलाहाबाद विश्वविद्यालय तथा इंडियन आर्केलॉजिकल सोसाइटी,नई दिल्ली में प्रस्तुत अप्रकाशित शोध-पत्र।
5. संपादक,कात्यायन, अभय,1940,विश्वकर्माप्रकाश, अध्याय4,पृष्ठ संख्या 11,बनारस।
6. संपादक, शास्त्री,मथुरानाथ,1948,कादम्बरी,अध्याय3,पृष्ठ संख्या 15,बम्बई।
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8. बोलेंसेन एंड वेंकटेश्वर,1916-17,जर्नल ऑफ द रॉयल एसियाटिक सोसाइटी।
9. संपादक, द्विवेदी, सुधाकर,1895,वृहदसहिंता,अध्याय52,पृष्ठ संख्या11,बनारस।
10. सम्पादक, आप्टे हरिनारायण,1907,मत्स्यपुराण, अध्याय252,पृष्ठ संख्या,22 पुणे।
11. सम्पादक, आप्टे हरिनारायण,1822,अग्निपुराण, अध्याय17,श्लोक 14, पुणे।
12. संपादक,शास्त्री, गणपति,1919,मयमत,अध्याय19,श्लोक 35,त्रिवेंद्रम।
13. संपादक, आप्टे,वी.ए.,1932,काश्यपशिल्प,अध्याय15,श्लोक 16,पुणे।
14. संपादक,शास्त्री, गणपति,1922,शिल्परत्न, अध्याय19,श्लोक 40,त्रिवेंद्रम।
15. संपादक,शास्त्री, गणपति,1922,ईशानशिवगुरुदेवपध्दति,अध्याय11,श्लोक13,त्रिवेंद्रम।
16. शुक्ल, डी. एन.,1968,भारतीय स्थापत्य, पृष्ठ संख्या112,लखनऊ।
17. पी.आई.बी.,भारत सरकार,भारत की जनगणना2011।
18. पाल, जे. एन.,1988,आर्कयोलॉजी ऑफ मध्य प्रदेश,पृष्ठ संख्या 233,जबलपुर।
19. वही,पृष्ठ संख्या 240।
20. वही,पृष्ठ संख्या 242।
21. वही,पृष्ठ संख्या,246।
सरला सिंह
असि. प्रोफेसर, प्राचीन भारतीय इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग,श्री अग्रसेन कन्या पी. जी. कॉलेज, वाराणसी
सम्बद्ध: महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी
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अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-59, जनवरी-मार्च, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव सह-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र विजय मीरचंदानी
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