चिमटे में छिपा संसार : ईदगाह की एक नई परत
- मोहन महतो
प्रेमचंद की अमर कहानी "ईदगाह" पर हिन्दी आलोचना जगत में सामाजिक यथार्थ, बाल मनोविज्ञान, गरीबी, माँ की ममता और हामिद की करुणा–विवेक को लेकर अनेक मूल्यांकन हो चुके हैं। किंतु अब तक कुछ ऐसे आयाम हैं, जिन पर गंभीर आलोचनात्मक प्रकाश कम डाला गया है। इस आलेख में एक नई आलोचनात्मक दृष्टि प्रस्तुत है, जो अब तक साहित्यिक विमर्श में अपेक्षाकृत उपेक्षित रही है।शोध सार : प्रेमचंद की कहानी ईदगाह प्रायः बाल-मन, दादी-पोते के संबंध और करुणा के प्रतीक रूप में पढ़ी जाती रही है, किंतु इसका गहरा प्रतीकात्मक पाठ उपनिवेशकालीन भारत के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संघर्षों की परतें खोलता है। हामिद का चिमटा केवल घरेलू उपयोग की वस्तु नहीं, बल्कि स्वदेशी चेतना, मातृ-संवेदना और उपयोगितावादी विचारधारा का सूक्ष्म, लेकिन प्रभावशाली प्रतीक बन जाता है। यह बाजारवादी खिलौनों के मोह के विरुद्ध एक वैचारिक प्रतिरोध का औजार है, जो हामिद को एक स्वदेशी नायक में रूपांतरित करता है। आज के उपभोक्तावादी युग में जब बच्चों की इच्छाएँ और पहचान खिलौनों व ब्रांड्स से निर्धारित होती हैं, ‘ईदगाह’ का यह पाठ उपयुक्तता बनाम उपभोग की बहस को पुनर्जीवित करता है। यह कहानी हमें बताती है कि संवेदना, विचारशीलता और आत्मबल आधुनिक समय में भी सशक्त वैकल्पिक मूल्य हो सकते हैं। यही इसका शाश्वत साहित्यिक महत्व है।
बीज शब्द : चिमटा, प्रतीकात्मकता, स्वदेशी चेतना, उपयोगिता बनाम उपभोग, मातृ-संवेदना, बाल-मनोविज्ञान, उपनिवेशकालीन भारत, सांस्कृतिक प्रतिरोध, आर्थिक यथार्थ, बाजारवाद, विकल्पवादी मूल्यबोध, समकालीन प्रासंगिकता, सामाजिक रूपक, नवीन आलोचना दृष्टिकोण।
मूल आलेख : प्रेमचंद का साहित्य भारतीय समाज की आत्मा का दस्तावेज़ है, जिसमें ग्राम्य जीवन, वर्गीय विषमता, स्त्री की पीड़ा, तथा नैतिक और मानवीय मूल्यों की गहन अभिव्यक्ति मिलती है। उनकी कहानी “ईदगाह” को अब तक एक नैतिक बालकथा, त्याग और मासूमियत की कथा के रूप में पढ़ा गया है। किंतु वर्तमान समय में, जब समाज उपभोक्तावादी संस्कृति, संवेदनात्मक शुष्कता और पारिवारिक मूल्यों के ह्रास के संकट से जूझ रहा है, ईदगाह की पुनर्पाठ आवश्यकता और प्रासंगिकता दोनों को रेखांकित करती है। आज के सामाजिक परिवेश में जहां बच्चों को उपभोगवादी बाज़ार और आभासी दुनिया ने घेर रखा है, वहीं हमीद जैसा पात्र न केवल एक विरोधाभास प्रस्तुत करता है, बल्कि एक वैकल्पिक मूल्य-प्रणाली की ओर भी संकेत करता है। उसका चिमटा खरीदना एक प्रतीकात्मक प्रतिरोध है उस मानसिकता के विरुद्ध, जिसमें दिखावा, तात्कालिक सुख और सामाजिक प्रतिस्पर्धा प्रमुख हैं। ईदगाह इस संदर्भ में एक ऐसी कहानी बन जाती है जो हमें बाल मनोविज्ञान के माध्यम से सामाजिक नैतिकता और व्यवहारिक विवेक की पुनः समीक्षा करने को प्रेरित करती है।
इसके साथ ही यह कहानी आज के स्त्री विमर्श के संदर्भ में भी नई संभावनाएँ खोलती है। अमीना की मौन उपस्थिति और संघर्ष, वर्तमान में उन असंख्य स्त्रियों की प्रतिनिधि बन जाती है, जो त्याग और ममता की मूर्ति होते हुए भी सामाजिक विमर्श में हाशिए पर हैं। आज जब स्त्री अस्मिता, श्रम और सशक्तिकरण की बहसें तेज़ हो रही हैं, ईदगाह की अमीना एक मूक, किंतु गहन स्त्री प्रतिरोध की प्रतीक बन जाती है। वर्तमान संदर्भ में इस कहानी की प्रासंगिकता केवल भावनात्मक शिक्षा तक सीमित नहीं, बल्कि यह हमें यह भी सोचने को मजबूर करती है कि आज के सामाजिक ताने-बाने में बच्चों के निर्णय, पारिवारिक संरचना और सांस्कृतिक मूल्यों की भूमिका क्या है? प्रेमचंद की लेखनी इस प्रश्न का उत्तर बिना नारेबाज़ी के, एक सहज दृश्यात्मकता में छिपाकर प्रस्तुत करती है—जो साहित्य को जीवन का प्रतिबिंब और दर्पण दोनों बनाता है।
इसलिए यह आलेख ईदगाह का अध्ययन केवल पारंपरिक व्याख्याओं तक सीमित न रखकर, उसे नए विमर्श, प्रतीकों, वर्ग चेतना, स्त्री अनुभव और सामाजिक उपयोगिता के आलोक में देखने का प्रयास है। यह एक ऐसा पुनर्पाठ है, जो ईदगाह को न केवल बाल कथा के रूप में, बल्कि समाज, संस्कृति और मूल्य-बोध के समेकित आख्यान के रूप में स्थापित करता है।
हम इस कथा को उपनिवेशकालीन भारत, स्वदेशी आंदोलन, और भारतीय आत्मनिर्भरता की चेतना के संदर्भ में पढ़ें, तो हामिद का चरित्र एक सामान्य बालक नहीं रह जाता, बल्कि वह उस राष्ट्र की "प्रारंभिक नागरिक चेतना" का प्रतीक बन जाता है, जो अपनी विवेकपूर्ण सोच, नैतिकता और कर्तव्यनिष्ठा से उपनिवेशवाद के भोगवादी मॉडल को चुनौती देता है। हामिद के पास महज़ तीन पैसे हैं। यह राशि ना तो बाज़ार की आँखों को चकाचौंध करने लायक है, ना ही बच्चों की दुनिया में प्रतिष्ठा का माध्यम बन सकती है। फिर भी हामिद इस आर्थिक अल्पता को अपनी नैतिक संपन्नता में बदल देता है। "अम्मी के हाथ जलते हैं, तो मुझे क्या खुशी होगी?"(प्रेमचंद, ईदगाह 33) यह कथन स्वदेशी आंदोलन के उस मूल भाव से जुड़ा है जिसमें परायापन और अपनेपन के बीच आत्म-निर्णय को सर्वोच्च स्थान दिया गया। यह निर्णय निजी संवेदना को सार्वजनिक नैतिकता में बदलने का रूप है – और यही एक स्वदेशी नायक की बुनियादी विशेषता है।
चिमटा भारतीय स्वराज की प्रतीक वस्तु के रूप में प्रस्तुत हुआ है| हामिद जिन वस्तुओं को नकारता है — जैसे खिलौने, मिठाई, झूले — वे सभी उपनिवेशी संस्कृति की आकर्षक उपभोक्तावादी संरचना के प्रतीक हैं। उनके विपरीत हामिद का चयनित चिमटा एक स्वदेशी, श्रम-केंद्रित, उपयोगी वस्तु है। इस चयन को केवल ममता से नहीं, स्वावलंबन और मातृरक्षा की नैतिक राजनीति से जोड़ा जाना चाहिए। गांधीजी के ‘हिन्द स्वराज’ में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि भारत को अपने स्थानीय संसाधनों, श्रमिक वर्ग की आवश्यकताओं, और सामूहिक कर्तव्यबोध पर आधारित अर्थनीति विकसित करनी चाहिए। “सच्चा स्वराज वही है जिसमें हर जन यह विचार करे कि उसकी क्रिया समाज के लिए कितनी उपयोगी है।”(गाँधी, हिंद स्वराज) हामिद का चिमटा इसी विचारधारा की प्रतिध्वनि है। हामिद का निर्णय बाल्यावस्था में होने के बावजूद एक गहरे राजनीतिक और नैतिक विचार का प्रतीक है। वह ना केवल अपने ऊपर आकर्षणों का संयम रखता है, बल्कि समाज की आवश्यकताओं को अपनी व्यक्तिगत पसंद से ऊपर रखता है। यह प्रक्रिया स्वदेशी नायक की चेतना की पहली सीढ़ी है —जो संसाधनों की मर्यादा को समझता है,दूसरों के श्रम का सम्मान करता है और परायी संस्कृति के लुभावने आवरण को अस्वीकार करता है।
इस सन्दर्भ में रामविलास शर्मा प्रेमचंद को भारतीय यथार्थवाद का जनक मानते हुए कहते हैं: “प्रेमचंद का नायक भारतीय समाज के गहरे सवालों से जूझता है, वह अकेला नहीं, अपने परिवेश से जुड़ा हुआ है।”(प्रेमचंद और भारतीय समाज, 1978,56) हामिद भी समाज और परिवार से जुड़ा हुआ वही पात्र है जो अपने परिवेश की पीड़ा को अपने निर्णय में ढालता है।
आज जब बच्चों को उपभोक्तावाद के झूठे सुखों में उलझाया जा रहा है, त्योहार बाज़ारवाद के महोत्सव बनते जा रहे हैं और संवेदना की जगह प्रतिस्पर्धा ने ले ली है, ऐसे में हामिद एक प्रेरणा है जो बताता है की "संवेदना से बड़ा कोई मूल्य नहीं, और त्याग से बड़ा कोई सौंदर्य नहीं। "हामिद प्रेमचंद का नायक नहीं, भारत का रूपक है। वह भारत जो गरीबी में भी आत्मबल रखता है। वह भारत जो भोग से नहीं, कर्तव्य और विवेक से चलता है। वह भारत जो दूसरों के लिए जीता है। हामिद का चिमटा स्वदेशी विचारधारा का लोहे का प्रतीक है — सीधा, सच्चा, स्थायी, और जन-हितैषी।
प्रेमचंद की कहानी ईदगाह केवल बालमन की संवेदना या मातृप्रेम की करुण कथा नहीं है, बल्कि यह भारतीय सामाजिक संरचना, औपनिवेशिक मानसिकता और उपभोक्तावादी आकर्षण के विरुद्ध खड़े एक नैतिक नायक – हामिद – की कहानी है। इस कथा में "चिमटा" केवल एक घरेलू औजार नहीं, बल्कि सांस्कृतिक प्रतिरोध और प्रासंगिक उपयोगिता का सघन प्रतीक बनकर उभरता है। चिमटा: भोगवादी संस्कृति के विरुद्ध आत्मनियंत्रित निर्णय है| कथा में हामिद के साथी: “खिलौने से क्या फायदा.व्यर्थ में पैसे ख़राब होते है.”(प्रेमचंद, “ईदगाह”46) इन सभी खिलौनों में दिखावे, शक्ति और मनोरंजन का तत्व है। यह एक उपभोक्तावादी बाजार संस्कृति की ओर संकेत करता है जो वस्तु की प्रदर्शनीयता को उपयोगिता से ऊपर रखती है। हामिद इस प्रवृत्ति से अलग हटकर तीन पैसे में चिमटा खरीदता है — न आकर्षक, न खेल का सामान, न दिखावे योग्य। यह एक विवेकपूर्ण सामाजिक विकल्प है, जो उपभोग के मोह को नकारता है। हामिद का निर्णय केवल भावुक नहीं, एक गंभीर श्रम-संवेदनशील निर्णय है। यह बालक स्त्री-श्रम (माँ या दादी के श्रम) को देख रहा है, पहचान रहा है, और उसके लिए क्रियाशील हो रहा है। स्त्रीवादी आलोचना के अनुसार, घरेलू श्रम सदैव अदृश्य, और कमतर समझा गया है। हामिद की दृष्टि इस असमानता को तोड़ती है। चिमटा यहाँ स्त्री सुरक्षा का प्रतीक बन जाता है। यह एक पुत्र द्वारा स्त्री-श्रम की गरिमा की पुष्टि है — जो भारतीय समाज में एक नई नैतिकता की नींव रखता है। चिमटा: औपनिवेशिक वस्तु-संस्कृति का प्रतिरोध भी है| प्रेमचंद इस कहानी को लिखते हैं उस समय जब अंग्रेज़ों का वस्त्र और खिलौनों का बाज़ार देश में व्याप्त था| गांधीजी स्वदेशी और हस्तनिर्मित वस्तुओं के प्रयोग की बात कर रहे थे। हामिद का चिमटा स्थानीय कारीगरी, ग्रामीण उपयोगिता और लोहे की सीधी संरचना का प्रतीक है — यह किसी औपनिवेशिक चकाचौंध का अनुकरण नहीं। गांधीजी के शब्दों में “हमें सुंदर वस्तुओं की आवश्यकता नहीं, उपयोगी वस्तुओं की आवश्यकता है।”(हिन्द स्वराज, 1909, 78) हामिद का चयन इसी स्वराज की दृष्टि से प्रेरित है।
आज के वर्तमान संदर्भ में जब बच्चों को महंगे खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स, और ब्रांडेड उत्पादों से जोड़ा जा रहा है, माँ-बाप की पीड़ा को देखने की संवेदना लुप्त हो रही है, सामाजिक सहानुभूति को प्रतिस्पर्धा और दिखावे ने ग्रस लिया है, ऐसे में चिमटा हमें पुनः याद दिलाता है कि— "सच्ची मानवता व्यक्तिगत इच्छा नहीं, सामूहिक उपयोगिता में बसती है।"(66) हामिद अपने सुख को नहीं, दादी के श्रम को केंद्र में रखता है। यह एक नैतिक घोषणा है — जो शिक्षा, संस्कृति और साहित्य में मानवीय पुनरुत्थान की राह दिखाती है। चिमटा एक विचारधारा है| यह प्रेमचंद का "साहित्य में प्रतिरोध का शस्त्र" है। यह उपयोगितावादी, सहानुभूतिपूर्ण, नैतिक और श्रमिक केन्द्रित दृष्टिकोण का प्रतीक है। यह हमें याद दिलाता है कि साहित्य केवल कल्पना नहीं, एक सांस्कृतिक विकल्प की रचना भी है। चिमटा हमें सिखाता है — "जो वस्तु समाज को राहत दे, वही वस्तु मूल्यवान है, चाहे वह तीन पैसे की हो या तीन सौ की।”
अमीना नारी के अपरिचित संघर्ष और आंतरिक पीड़ा का प्रतीक है। वह समाज के सामने कभी अपनी समस्याओं या इच्छाओं का उद्घाटन नहीं करती। उसकी पूरी जीवनशैली त्याग, समर्पण और ममता से भरी हुई है, लेकिन इसके बावजूद वह गैर-धार्मिक और शोषित सामाजिक स्थिति में अपने कर्तव्यों का निर्वाह करती है। प्रेमचंद के शब्दों में— "बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई |वह रोने लगी |दामन फैलाकर हामिद को दुआए देती जाती थी और आंसू की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी | "(प्रेमचंद,“ईदगाह”45) यह वाक्य अमीना की गहरी ममता, उसकी आध्यात्मिक स्थिरता और सामाजिक आस्थाओं को दर्शाता है। वह अपने कष्टों और जीवन की कठिनाइयों को छिपाकर भी अपने पोते को ईदगाह भेजती है, ताकि उसे जीवन के सही मूल्य समझ में आए। यहाँ एक ओर महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अमीना का यह त्याग नारी के अदृश्य परिश्रम और बलिदान का प्रतीक बनता है। वह अपने जीवन की भरी-पूरी पीड़ा के बावजूद कभी भी अपने परिजनों के लिए अपनी इच्छाओं का त्याग करती है। इसके माध्यम से प्रेमचंद ने स्त्री की आंतरिक शक्ति और संघर्ष को अत्यंत गहरे तरीके से चित्रित किया है। अमीना का पात्र मौन स्त्री प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में उभरता है। वह जिस तरह से अपने पोते हमीद के लिए ईदगाह भेजने का निर्णय लेती है, वह एक मौन और आंतरिक शक्ति का प्रतीक है। हालांकि वह कभी भी प्रत्यक्ष रूप से विरोध या आत्मसाक्षात्कार नहीं करती, लेकिन उसकी पूरी उपस्थिति स्त्री अस्मिता का पुनर्निर्माण करती है। अमीना का यह निर्णय—कि वह हमीद को न केवल मेलों में भेजे, बल्कि उसे संस्कारों और मूल्यों के साथ जीवन की सच्चाइयाँ समझने का अवसर दे— उसका स्त्री शक्ति, प्रेम, और संघर्ष का काव्यात्मक रूप है। इस संदर्भ में आलोचक नामवर सिंह ने लिखा है: "प्रेमचंद के पात्र, चाहे वे पुरुष हों या स्त्री, हमेशा अपने अस्तित्व की पहचान अपनी परिस्थितियों से करते हैं, और स्त्री का यह अस्तित्व हमेशा समाज की असमानता और उसके द्वारा किए गए शोषण से आकार लेता है।" (कहानी नई कहानी, 1981)अमीना का मौन संघर्ष उसे सामाजिक ताने-बाने में परिभाषित करता है, लेकिन यह समाज के भीतर नारी के अधिकारों और अस्मिता की पुनः घोषणा भी करता है। उसका गंभीरता से भरा मौन उस समय की स्त्री के जीवन के कष्ट और यथार्थ को बहुत प्रभावी तरीके से व्यक्त करता है। दूसरी ओर ईदगाह केवल बाल मनोविज्ञान और भावनात्मक संवेदना की अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह भारतीय ग्रामीण समाज की वर्गीय संरचना और आर्थिक विषमता को भी सूक्ष्मता से उद्घाटित करती है। 1930 के दशक की यह कहानी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जब समाज अत्यधिक उपभोग और आर्थिक असमानता की गहराई में फंसा हुआ है। इस कहानी में हमीद का चरित्र न केवल भावुकता का वाहक है, बल्कि वह आर्थिक विवेक, वर्ग अनुभव और सामाजिक न्याय की चेतना का भी प्रतीक है। हमीद एक गरीब बच्चे का प्रतिनिधित्व करता है, जिसकी जेब में केवल तीन पैसे हैं। वहीं उसके मित्रों के पास छः से आठ पैसे हैं, जिनसे वे मेले में मिठाइयाँ, खिलौने और झूले का आनंद लेते हैं। यहाँ पर यह अंतर केवल पैसों का नहीं, बल्कि सामाजिक वर्ग भिन्नता का है। हमीद इस भिन्नता को महसूस करता है, लेकिन वह किसी हीन भावना में नहीं डूबता। इसके बजाय वह अपने वर्गीय अनुभव को एक समझदारी और उत्तरदायित्व में बदल देता है। हमीद ने सोचा, चिमटा लेना चाहिए। दादी रोटियाँ सेंकते समय हर रोज़ उँगलियाँ जला लेती हैं। यहां हमीद का निर्णय आर्थिक विवेक के साथ-साथ समाज में श्रमशील वर्ग की पीड़ा के प्रति उसकी वर्गीय संवेदना को भी दर्शाता है। जब सभी बच्चे क्षणिक सुख (खिलौने, मिठाइयाँ) में खोए हैं, हमीद चिमटे जैसी उपयोगी वस्तु को प्राथमिकता देता है। यह निर्णय उपभोक्तावाद पर एक स्पष्ट टिप्पणी है। अन्य बच्चों के खिलौने जल्दी टूट जाते हैं, लेकिन हमीद का चिमटा न केवल लंबे समय तक टिकता है, बल्कि घरेलू श्रम में भी उपयोग होता है। हमीद ने चिमटा लिया, और विजयी भाव से चल पड़ा।” “अब किसी की मजाल नहीं कि हामिद के सामने बोल सके। यह ‘विजयी भाव’ केवल चिमटे के खरीदने का नहीं, बल्कि एक ऐसे आर्थिक दृष्टिकोण का है जो वस्तु की उपयोगिता और परिवार की आवश्यकता को महत्व देता है — यही यथार्थवादी आर्थिक समझ है। हामिद का निर्धन होना उसकी चेतना को संकुचित नहीं करता, बल्कि उसे गौरवमयी मानवीय मूल्य अपनाने के लिए प्रेरित करता है। प्रेमचंद ने यह दिखाया है कि गरीबी भी एक चेतनशील वर्ग अनुभव में रूपांतरित हो सकती है, यदि उसमें मानवीय संवेदना और व्यावहारिक विवेक हो। “उसे विश्वास था कि वह दादी को चिमटा दिखाकर प्रसन्न कर देगा, और यह प्रसन्नता सभी मिठाइयों और खिलौनों से अधिक मूल्यवान होगी।” यह भावनात्मक रूप से पूंजीहीन व्यक्ति का नैतिक और सामाजिक पूंजी में रूपांतरण है। यह रूपांतरण ही प्रेमचंद के यथार्थवाद का मूल है। आज के उपभोक्तावादी और प्रतियोगी समाज में ईदगाह हमें यह सिखाती है कि सच्चा विवेक लाभ और प्रदर्शन में नहीं, बल्कि आवश्यकता और सहानुभूति में है। आज जब बच्चों की इच्छाएँ बाज़ार के विज्ञापनों से तय होती हैं, तब हामिद का यह निर्णय हमें मूल्य आधारित दृष्टि की ओर लौटने की प्रेरणा देता है। वर्तमान ग्रामीण भारत में भी गरीब तबकों के बच्चे संसाधनों की कमी के बावजूद आर्थिक ज़िम्मेदारी और पारिवारिक प्राथमिकता को समझते हैं। ईदगाह इस चेतना को सौ साल पहले ही उद्घाटित कर चुकी है। इसीलिए यह कहानी आज के सामाजिक न्याय, बाल अधिकार, वर्ग-संवेदना और आर्थिक सशक्तिकरण की बहस में एक प्रेरक कथा बन जाती है। नामवर सिंह ने प्रेमचंद के यथार्थवाद पर कहा है: “प्रेमचंद का यथार्थ जीवन की सतह को नहीं, उसकी गहराइयों को छूता है, जहाँ व्यक्ति के निर्णय वर्ग और मूल्य-चेतना से प्रभावित होते हैं।”(85) ईदगाह कहानी में प्रेमचंद ने हामिद के माध्यम से वर्ग चेतना और आर्थिक यथार्थ को न केवल चित्रित किया, बल्कि उसे एक सकारात्मक और प्रेरणात्मक रूप में प्रस्तुत किया। हमीद का पात्र आज भी इस प्रश्न के सामने हमें खड़ा करता है कि — क्या हम आज भी वस्तुओं को उनके वास्तविक मूल्य और उपयोगिता के आधार पर देखते हैं, या केवल बाज़ार और प्रदर्शन की चमक से मोहित हो चुके हैं?
प्रेमचंद की यह कथा आज भी भारतीय समाज की वर्गीय संरचना, आर्थिक विवेक और सामाजिक मूल्यबोध का स्थायी पाठ बनी हुई है - और इसी में इसकी साहित्यिक अमरता है। प्रेमचंद की कालजयी कहानी ईदगाह में हामिद का चिमटा और अन्य बच्चों के खिलौने एक गहरे प्रतीकात्मक संघर्ष को जन्म देते हैं — यह केवल वस्तुओं का चुनाव नहीं, बल्कि मूल्य-व्यवस्था, नैतिकता और सामाजिक दृष्टिकोण के टकराव का रूपक है।
कहानी में जब अन्य बालक बाज़ीगर, घोड़ा-बग्घी, सिपाही और तोप जैसे खिलौनों को खरीदते हैं, तो वे क्षणिक मनोरंजन और शक्ति के मिथकीय रूपों की ओर आकृष्ट होते हैं। ये सभी वस्तुएँ उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रतीक हैं - आकर्षक, रंगीन और दिखावटी, परंतु अस्थायी और अनुपयोगी। इसके विपरीत, हामिद तीन पैसे में चिमटा खरीदता है, जो न खेल की वस्तु है, न गौरव का प्रतीक, परंतु दादी की पीड़ा को कम करने वाला एक यथार्थवादी उपकरण है। रामविलास शर्मा इस प्रकार की रचनाओं को जनचेतना और श्रम की नैतिकता से जोड़ते हैं: “प्रेमचंद के पात्र केवल सहानुभूति नहीं जगाते, वे मूल्यगत निर्णय की नई सामाजिक भूमिका गढ़ते हैं।” (प्रेमचंद और भारतीय समाज, 1978) समकालीन समय में जब बच्चे विज्ञापन प्रेरित वस्तुओं, गैजेट्स, और ब्रांडेड खिलौनों की ओर झुकते हैं — वहाँ हामिद का चिमटा एक शिक्षणीय वैकल्पिक मूल्य प्रणाली का प्रतीक बनता है। इस तरह चिमटा और खिलौनों के बीच का यह टकराव भारतीय समाज में सार्थकता बनाम सजावटीपन, कर्तव्य बनाम भोग, और संवेदना बनाम प्रदर्शन के संघर्ष को रेखांकित करता है — जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
निष्कर्ष : प्रेमचंद की ईदगाह कहानी का चिमटा, पहली दृष्टि में मात्र एक साधारण घरेलू उपकरण है, लेकिन जब हम उसे प्रतीकात्मक दृष्टि से पढ़ते हैं, तो वह भारतीय समाज की परतों, विचारधाराओं और ऐतिहासिक सन्दर्भों को समेटे हुए एक सघन सांस्कृतिक रूपक बन जाता है। हामिद का चिमटा बालक की सीमित दुनिया में असीम समझदारी और आत्मबल का प्रमाण है। यह वही चिमटा है, जो बाजार की चमक-दमक के बीच स्थायित्व और श्रम-संवेदना की चुप बात करता है। अन्य बच्चों के खिलौने युद्ध, शक्ति और आडंबर के प्रतीक हैं; चिमटा, इसके उलट, कष्टहर और मातृत्व-रक्षक के रूप में उभरता है। वह एक ऐसी वस्तु है जो खेल नहीं करती, पर जीवन की पीड़ा कम करती है। हामिद का चयन वर्तमान समय में उस प्रतिकूल उपभोक्तावादी मानसिकता के विरुद्ध खड़ा एक मौन प्रतिरोध है, जिसमें मूल्य का अर्थ केवल ‘कीमत’ और ‘दिखावा’ रह गया है। तीन पैसे का यह चिमटा आज के करोड़ों के गैजेट्स से अधिक शिक्षाप्रद है - क्योंकि इसमें भावनात्मक बुद्धिमत्ता, नैतिक चयन और सामाजिक उत्तरदायित्व छिपा है। चिमटा एक संसार है - ऐसा संसार जहाँ करुणा, कर्तव्य और विवेक की जगह है। प्रेमचंद ने यह दिखाया कि वस्तु का मोल उसके आकार, कीमत या बाजार-मूल्य से नहीं, उसकी उपयोगिता और संवेदना से आँका जाना चाहिए। आज जब बच्चे ब्रांडेड वस्तुओं से जुड़ाव की होड़ में वास्तविकता से दूर जा रहे हैं, तब हामिद का चिमटा एक आदर्श शैक्षिक प्रतिमान बन सकता है। यह भी उल्लेखनीय है कि यह चिमटा स्त्री के श्रम की सुरक्षा करता है। यह प्रेमचंद की गूढ़ स्त्री-संवेदना का उदाहरण है, जहाँ अदृश्य मातृत्व को चिमटे के माध्यम से दृश्य बना दिया गया है। इस प्रतीक में स्त्रीवादी विमर्श, स्वदेशी आत्मनिर्भरता, बाल-नैतिकता और सामाजिक विकल्पशीलता सभी एकत्र हैं। वर्तमान शिक्षा, साहित्य और समाज में यह आवश्यक है कि हम हामिद के चिमटे को केवल कहानी का 'मोमेंट' नहीं, एक ‘मॉडल’ मानें - एक ऐसा नैतिक मॉडल, जो कम संसाधनों में अधिक जीवनमूल्य सिखाता है।
इस प्रकार, हामिद का चिमटा न केवल प्रेमचंद की दृष्टि का विस्तार है, बल्कि हमारी सामाजिक स्मृति, नैतिक पुनर्चिंतन और भावनात्मक पुनर्संरचना का स्रोत भी है। चिमटे में न केवल रोटियाँ पलटती हैं, बल्कि समाज की चेतना भी।
संदर्भ :
- प्रेमचंद. मानसरोवर. खंड 1, लोकभारती प्रकाशन, 2021.
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मोहन महतो (शिक्षक)
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( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

'ईदगाह' कहानी के नए पाठ और संदर्भ को व्याख्यायित करता हुआ आलेख है। बधाई।
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