अध्यापकी के अनुभव : अपर्णा दीक्षित

अध्यापक के अनुभव
- अपर्णा दीक्षित


यह लेख संस्मरणात्मक है। इसे तीन हिस्सों में बाँटने का प्रयास किया है। हालांकि अनुभवों में घुलाव-मिलाव भी है। ज़ाहिर है, संस्मरणात्मक है। पहला हिस्सा मेरे एक विद्यार्थी के बतौर अनुभव पर केंद्रित है, दूसरा मेरे विषय की आलोचनात्मक व्याख्या एवं तीसरे हिस्से में मैंने इसे पढ़ने-पढ़ाने की चुनौतियों और ‘कक्षा’ शब्द को विस्तार देने का प्रयास किया है। इस लेख में जानबूझकर किसी लेखक व पुस्तक के संदंर्भ का हवाला नहीं दिया गया है। जिसका भरपूर प्रयोग किया जा सकता है। लेख पूर्णतः अनुभव आधारित है और मुझे लगता है कि संदर्भ इसे भारी और विषय को न जानने वालों के लिए बोझिल बना सकते हैं। मेरा विषय स्त्री अध्ययन है, जो प्रचलित अकादमिक विषय नहीं है। इसलिए यह भी इस लेख की चुनौती हो सकती है। हालांकि मैंने कोशिश की है कि इसे जितना हो सके, सहज रखा जाए। अनुभव अपनी अनगढ़ संरचना में यहाँ आपके लिए प्रस्तुत है। उम्मीद है आपको पढ़कर मज़ा आएगा।

अध्ययन और अध्यापन का विस्तार मेरे जीवन में अक्सर कक्षा से बाहर की बात रही। मैंने जीवन को एक कक्षा के बतौर देखा। ख़ुद को कई बार विद्यार्थी तो कभी-कभी अध्यापक होते देखा। जीवन संघर्ष मेरे साथ हमेशा एक शिक्षक की तरह ही पेश आए, सिखाने वाले। आँखें खोलकर दिखाने वाले। बहुत वक़्त तक अपने शिक्षक से नाराज़ रहते हुए जब मैंने उसकी मंशा जान ली। तब से अपने गुरु जी की मुरीद हूँ। मेरा गुरु तो हर हाल में मेरा संघर्ष ही रहा। यह कहा जा सकता है कि मेरे गुरु ने मुझे जीवन में पढ़ने के बहुत मौके दिए। मैंने पाया कि पढ़ने-पढ़ाने के खेल में जो तबियत से पढ़ा वही सिकंदर। फिर वो चाहे शिक्षक हो या विद्यार्थी। सबक चाहे किताब से हो या जीवन से।

शुरुआती दौर में पाइथागोरस प्रमेय पढ़ते हुए और न्यूटन के गति के तीनों नियम समझते हुए, यही सोचती रही कि इसका जीवन में क्या उपयोग। फिर स्नातक तक पहुँचते हुए यह जाना कि पालीटेक्निक एक शिक्षण संस्थान है, जहाँ कौशल आधारित पाठ्यक्रम बच्चों को पढ़ाए, माफ कीजिए, सिखाए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह कोर्स दूसरी पढ़ाइयों से इस तरह अलग हैं कि इनमें बाज़ार में पैसा कमाने की ‘सीधी तरकीब’ सिखाई जाती है। कोई इधर-उधर की बातें नहीं। अपनी परास्नातक तक की कक्षा और शिक्षा से मैंने जाना, कक्षा और जीवन दो अलग-अलग बातें हैं। जीवन की बातें, खाली वक़्त की बातें हैं, ज़्यादातर गैर ज़रूरी बातें हैं। बचकानी बातें हैं। भावनात्मक बातें हैं। इसीलिए जीवन का अनुभव जीवन के काम आता है। कक्षा का अभ्यास समझने में नहीं। कक्षा के पाठ ज़रूरी पाठ हैं। यह गंभीर बातें हैं। यह तार्किक बातें हैं। इससे ज्ञान बढ़ता है। इससे जीवन चलता है। इससे कौशल विकसित होगा। इसी ज्ञान से नौकरी करने का अवसर मिलेगा। 22-23 वर्ष की अवस्था तक आते-आते मैंने ये समझ लिया था कि कक्षा और जीवन के बीच वही संबंध है। जो दिन-रात, सफेद-काला, अच्छा-बुरा, और सूरज-चांद के बीच है। मसलन जब कक्षा में हैं तो सजग रहना है। कान-नाक-गला सब खुला रहना चाहिए और सबसे ज़रूरी तो दिमाग। दिमाग एकदम चौकन्ना। जीवन उबासी, उदासी, हँसी-ठिठोली जैसे गैर ज़रूरी भावों के साथ जी जाने वाली प्रक्रिया है। इसमें बस रहना होता है। बने रहना।

जीवन और कक्षा के बीच इस स्पष्ट मगर गूढ़ अंतर को समझते हुए मुझे काफी वक़्त लग गया। लंबें समय तक मैं इस भाव से ही लड़ती रही कि जैसे, नाचना, गाना, खाना, घूमना, बातें बनाना अच्छा लगता है। वैसे ही कक्षा में ज़्यादातर समय पढ़ना अच्छा क्यों नहीं लगता, सिवाय कुछ विषयों में कभी-कभार आने वाली कहानियों और किस्सों के। फिर अपनी किशोरावस्था तक आते-आते मैंने समझ लिया कि पढ़ाई अच्छी लगती नहीं, ‘लगाई जाती’ है। इस पाठ को कंठस्थ करने के साथ ही बड़े ही यत्नपूर्वक, यांत्रिक तरीके से मैंने अपना जीवन आसान बना लिया था। अब मुझे कक्षा और जीवन घर के दो कमरों की तरह दिखने लगे थे। कक्षा यानी ड्राइंग रूम जहाँ हमें सभ्य बनकर रहना होता है। जहाँ पर बाहर से लोग आकर बैठते हैं और उनके सामने ‘हर बात’ नहीं की जाती। दूसरा कमरा, सोने का कमरा, मेरे लिए जीवन था। जहाँ झगड़ सकते हैं। थकने पर कैसे भी पसर सकते हैं। थोड़ा चीख-चिल्ला भी सकते हैं। मैं जान चुकी थी कि इसीलिए ये कमरा-यानी सोने का कमरा, लड़ने का कमरा, रोने का कमरा अंदर होता है। और सभ्य-व्यवस्थित दिखने का कमरा बाहर का कमरा। ये समझ आते ही मैं बड़ी हो गई थी। समझदार। साथ ही शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था की गजब की पैरोकार।

सीखने की इस यात्रा में करीब 24 वर्ष की अवस्था में मेरी आँखें एक ऐसे विषय से दो-चार हो गईं जिसने मुझे चारों खाने चित कर दिया। मुझे मालूम पड़ा एक विषय है, स्त्री अध्ययन, जिसे अतःविषय अंग्रेज़ी में इंटरडिसिप्लनरी माना जाता है। यह भी कि ऐसे और भी विषय हैं जैसे दलित अध्ययन, अल्पसंख्यक अध्ययन आदि। थोड़ी खोज के बाद पता चला कि अतःविषयों की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि विषय अपना काम ठीक से नहीं कर पा रहे थे। आसान शब्दों में कहें तो ये विषय घर की बात बाज़ार में लाने से रोक रहे थे। मेरे तो पैरों से जैसे ज़मीन ही खिसक गई। मतलब, यही तो होता है। घर की बात घर में। बाहर की बाहर। कक्षा का ज्ञान नौकरी के लिए। जीवन का अनुभव जीवन जीने के लिए। अभी तक इतनी मगजमारी से यही तो सीखा था। पर ये इंटरडिसिप्लनरी स्टडीज़ तो कुछ अलग ही राग अलाप रही थीं। यहाँ कहा जा रहा था। घर की बातें, मन की बातें, जीवन की बातें, बेहद संवेदनशील बातें, सब कक्षा में ले आओ। यही ज्ञान है। और जब आओ तो सीखा हुआ मिटाते आना। इसे यहाँ अनलर्निंग कहा जा रहा था। ये बात दिमाग में टिक गई। यही से मेरी स्त्री अध्ययन विषय (वीमन स्टडीज़) के साथ एक नए सफर की शुरुआत हुई।

स्त्री अध्ययन में पहले एमफिल, फिर पीएचडी करते हुए और इसी के साथ विषय को पढ़ते-पढ़ाते हुए मैंने बहुत कुछ सीखा हुआ मिटाया। मिटाते हुए काफी कुछ नया लिखा भी गया, इस यक़ीन के साथ कि इसमें हमेशा ही कुछ नया जुड़ता रहेगा। मैंने स्त्री अध्ययन को अपने जीवन के अंधेरे समय में उजाले की तरह दाखिल होता पाया था। एक ग्रामीण परिवेश, सरकारी शिक्षा संस्थानों व स्त्री जगत से आने के नाते यह विषय मेरे लिए संभावनाओं से भरा था। आगे के अनुभवों पर बात करने से पहले थोड़ा विषय के बारें में बात करते चलते हैं। स्त्री अध्ययन, अन्य अतःविषयों की तरह ही एक ऐसा विषय है जो स्त्री जीवन व अनुभवों की बात उन्हीं की ज़बान और उनके द्वारा अर्जित ज्ञान के आधार पर करता है। विषय अकादमिया में गहरे पैठ कर चुकी सामाजिक विज्ञान की पॉसीटिविस्ट तत्वमीमांसीय(इपेस्टेमोलॉजिकल) संरचना पर वार करता है। गौरतलब है कि यह संरचना सत्ता आधारित है। जिसमें पढ़ानेवाला, शोध करनेवाला, किताब लिखनेवाला बेहद व्यवस्थित तरीके से पढ़नेवाले, शोध में शामिल लोगों(रेस्पॉडेंट्स), किताब पढ़नेवालों से बड़ा, समझदार, और ज्ञानी मान ही लिया जाता है। अब चूँकि वह बड़ा है तो उसकी नज़र(परस्पेक्टिव), ज्ञान और पहचान सब बड़ा है। वो ही है जो विषय का पाठ्यक्रम, कक्षा की संरचना, शोध के सवाल, जवाबों के मायने, किताब की संरचना, पढ़ाने लायक विषय, पढ़ाने के तरीके व कक्षा का ढाँचा सभी कुछ तय करता है। और इन सत्ता संबंधों का भ्रम जाल बाँधता है तथाकथित केंद्रित ज्ञान।

स्त्री अध्ययन या समग्र तौर पर कहें तो अतःविषयों ने समाजविज्ञान की इस सत्ता आधारित राजनीति की न केवल पोल खोल दी बल्कि इसके बरअक़्स स्टैंड प्वाइंट इपेस्टेमॉलॉजी की अवधारणा खड़ी की। जिसके अनुसार ज्ञेय ही ज्ञाता है। यानी जिसके बारे में बात हो रही वही तय करेगा कि क्या बात करनी है, क्यों बात करनी है, कैसे बात करनी है, और किससे बात करनी है। अतःविषयों ने आश्चर्यजनक तौर पर पढ़ने-पढ़ाने का पूरा डिस्कोर्स ही बदल दिया। यहाँ घरेलू बातें, अनकही बातें, गंदी समझी जानेवाली बातें, गैरज़रूरी बातें, अतरंगी बातें, सतरंगी बातें सब कक्षा और शिक्षा का हिस्सा थीं। पढ़नेवाला ढेर सारा ज्ञान ज़हन में लिए कक्षा में आ रहा था। नए डिस्कोर्स में डिस्कोर्स कमज़ोर माने जानेवाले के हक़ में था। ज़ाहिर तौर पर स्त्री अध्ययन में स्त्री के। विद्यार्थी अपने अनुभव कक्षा में साझा कर रहे थे। अब हर अनुभव ज्ञान था। इसलिए ज्ञान हासिल करने के लिए पुस्तकालयों के साथ-साथ रसोई में भी जाना होता था। लौटना होता था अपने और दूसरों के जीवन संघर्षों में ज्ञान की अभिलाषा के साथ। यहाँ घर-बाहर, ज़रूरी-गैरज़रूरी, स्त्री-पुरुष, ऊँचा-नीचा और ऐसी ही न जानी कितनी ही द्विविभाजन पर आधारित सत्ता केंद्रित भ्रांतियों को भेदा जा रहा था। यहाँ सीखे हुए को मिटाने पर पहला ज़ोर था। फिर जीवन और किताब के बीच की दूरी को नापते हुए लगातार कम करते जाना। और इस तरह मैंने जाना कि ये एक नया अकादमिक संसार था। उम्मीदों से भरा संसार। जहाँ कक्षा ने सोने और मेहमानों के कमरों को एक कर दिया था। मुझे इतनी बात बहुत देर और मुश्किल से समझ आई थी।

अपने इन्हीं अनुभवों, सवालों, संघर्षों और सीमित समझ के साथ मैंने इस विषय को पढ़ने-पढ़ाने की कोशिश की। ये कहना ग़लत न होगा कि स्त्री अध्ययन की कक्षा हर बार मेरे लिए एक सबक की तरह रही। मैंने विद्यार्थियों को उनमें भी ख़ासतौर पर महिला विद्यार्थियों को कक्षा में कई बार आँख-मुँह खोले भौचक्का देखा। समाज में औरत और मर्द के गढ़न की प्रक्रिया को समझते और समझाते हुए मैंने विद्यार्थियों को कक्षा में भर्राये गले से अपने अनुभव साझा करते पाया। इनमें भी एलजीबीटीक्यूआईए प्लस समुदाय से आने वाले विद्यार्थियों के लिए तो यह कक्षाएँ आराम के एहसास की तरह थीं। यहाँ उन्हें उनके जैसा होने के लिए स्वीकृति मिल रही थी। हम जाति, वर्ग और जेंडर पर अपने हवाले से बात कर रहे थे। समाज में रहते हुए जिन चीज़ों पर हम सबसे कम बात कर पाते हैं, वे ही हमारे मन मस्तिष्क को खा रही होती हैं, हम पर गहरा प्रभाव डाल रही होती हैं। उससे भी ज़रूरी बात यह कि हमें पता ही नहीं होता कि इन बातों का पढ़ाई-लिखाई से कोई संबंध भी हो सकता है। जब यही बातें कक्षा में पाठ्यक्रम का हिस्सा बनती हैं, तब विद्यार्थी एक नए संसार में प्रवेश करते हैं। कुछ इसी तरह का संसार विद्यार्थियों के साथ मिलकर मैंने स्त्री अध्ययन पढ़ते-पढ़ाते हुए खोजा। यहाँ सब अलग था। यहाँ सब अपना-अपना लग रहा था। यहाँ हम ख़ुद को पहली बार अपनेपन की, प्रेम की नज़र से देख रहे थे।

पितृसत्ता की तमाम अवधारणाओं पर चर्चा करने के दौरान मैंने पाया कि मेरे अपने जीवन के उदाहरण कक्षा में साझा करने के बाद विद्यार्थी अपने अनुभव बाँटने में भी सहज हो गए। घरों में काम के बंटवारे से लेकर जातिगत भेदभाव, रोज़मर्रा के संघंर्ष से लेकर करीबी रिश्तों में जेंडर आधारित गैर-बराबरी की पैठ पर उन्होंने खुलकर चर्चा करना शुरु किया। लैंगिकता व जेंडर के मुद्दे पर कक्षा में बात करना एक महिला होने के नाते सबसे मुश्किल रहा। वजह विषय की संवेदनशीलता, विद्यार्थियों के गढ़न में शामिल झिझक और कक्षा में लड़कों की भी उपस्थिति। शुरुआती दौर में इस विषय पर कक्षाओं के लिए पढ़ाई की तैयारी के साथ-साथ मानसिक तौर पर भी काफी काम करना पड़ा, साथ ही सबसे ज़रूरी रहा शिक्षण पद्धति एवं शब्दावली का विस्तार एवं सरलीकरण। मैं अपने अनुभव से यह कह सकती हूँ कि इस तरह के संवेदनशील विषय को पढ़ाने के लिए विद्यार्थी व शिक्षक के बीच एक सहज रिश्ता बेहद ज़रूरी है। इसके लिए विद्यार्थियों को मानिसक तौर पर तैयार करना एक शिक्षक के बतौर सबसे बड़ी चुनौती है। हमारी बनी बनाई अकादमिक शब्दावली, शिक्षण पद्धित, शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त सत्ता संबंध एवं विद्यार्थियों व शिक्षक की सामाजिक गढ़न यह सभी इस तरह के विषयों को पढ़ने-पढ़ाने में एक चुनौती है। इनको समझते-समझाते हुए इन्हें चुनौती देना विषय के अध्ययन-अध्यापन की पहली शर्त है।

स्त्री अध्ययन विषय की विद्यार्थी होने के नाते मेरे लिए यह कमोबेश आसान रहा । उससे भी ज़्यादा मदद मुझे विषय को लेकर मेरी रुचि व एक स्त्री के नाते मेरे संघंर्षों ने की। विषय को पढ़ते वक्त़ संशय, परेशानियाँ, खुद को लगातार चुनौती देना फिर इसी प्रक्रिया में एक ख़ास तरह का सुकून पा लेना, एक अद्भुत अनुभव रहा। बाद में मैंने विद्यार्थियों के साथ उनकी अनलर्निंग की प्रक्रिया में बार-बार अपने भीतर भी थोड़ा और लिखा हुआ मिटाया। इस बात को विस्तार दें, तो विषय को समझने और विद्यार्थियों के अनुभव से लगातार समृद्ध होते देखने की प्रक्रिया अनवरत जारी है। इस प्रक्रिया में कई बार विद्यार्थियों से दोस्ताना संबंध बने, जहाँ उन्हें मुझसे आसानी से अपनी बातें कह पाने की सुविधा थी। उससे भी ज़्यादा अपने जैसा रह पाने की सहजता। मेरे लिए यह संबंध कई मायनों में ख़ास रहे। मुझे विद्यार्थियों के अनुभव से, उनके नज़रिए से दुनिया को, विषय को और कई बार खुद को भी नई तरह से देखने की सलाहियत मिली। मैंने उनसे हमेशा ही बहुत सीखा। पर हर सीख के साथ एक जोखिम भी लाज़िम है। हर व्यक्ति सत्ता संबंधों के बरक्स एक स्वस्थ लोकतांत्रिक, बराबरी आधारित दोस्ताना रिश्ते के लिए तैयार नहीं। हम पूरा जीवन सत्ता आधारित संबंधों में जीने के आदी रहे हैं, यही वज़ह है कि सामने वाला इससे इतर बराबरी आधारित रिश्ते की शुरुआत करें तो हम उसे संदेह की नज़र से देखते हैं। हमारे हिसाब से इसमें या तो उसका कोई निहित स्वार्थ है या फिर हम उस व्यक्ति को बेवकूफ या कमज़ोर समझ लेते हैं। ये समझ हमारी वर्षों की सामाजिक गढ़न का हासिल है। इससे निकलने का एक ही रास्ता है। खुद को बार-बार चुनौती देना और ज़्यादा से ज़्यादा इस तरह के संबंधों को बढ़ावा देना। बरहाल, इसके अपने ख़तरे हैं, जो मैंने समय-समय पर उठाए। उठा रही हूँ। फिर भी मेरा विषय और उसकी समझ मुझसे कहती है कि ये ख़तरे उठाते रहो, लेकिन सावधानीपूर्वक।

अभी तक की यात्रा में मैंने ढांचागत कक्षाओं से बाहर बहुत कुछ सीखा-सिखाया। मैंने हमेशा विद्यार्थियों से कहा कि वे अपना वक्त़ ज़रूर बर्बाद करें। क्योंकि हम अपना वक्त़ कैसे ज़ाया करते हैं, उसी से पता चलता हैं, हम क्या हैं और क्या होना चाहते हैं। मैंने बड़ी अकादमिक बहसों को चाय की टपरी पर छेड़ना ज़्यादा उचित समझा और पाया कि वहाँ हम एक शिक्षक और विद्यार्थी के बतौर ज़्यादा सहज और सरल थे। अपनी कक्षाओं में भी मैंने विद्यार्थियों से आग्रह किया कि वह कोई टेक्स्ट पढ़ते समय भी कल्पना करें कि ये लेखक अगर चाय की दुकान पर अपने साथी लेखकों के साथ अड्डेबाज़ी कर रहा होता। तो यही बात वहाँ कैसे साझा करता। उन सबके बीच बहस कैसे होती। इस पूरी बातचीत को वह यानी एक विद्यार्थी कैसे देखता-समझता। और उस वक्त़ वह उनसे क्या कहना चाहता। उनकी बातें सुनते समय विद्यार्थी उनकी भाव-भंगिमाओं, बैठने-उठने के तरीके, आवाज़ और भाव भी समझ रहा होता। क्या वह इन सभी चीज़ों को अपनी कल्पना में साकार होते देखना चाहेगा। क्या वो उस समय में उन लेखकों या विभिन्न अवधारणाएँ देनेवाले ‘विद्वानों’ के साथ शामिल होना चाहेगा। क्या उसे ऐसा करने में मज़ा आएगा। यहाँ एक अभ्यास है, जिससे हम स्थापित ज्ञान के तिलिस्म को तोड़ पाते हैं और नए ज्ञान अर्जन और डिस्कोर्स की समृद्धि के लिए बेहद ज़रूरी है। मैंने निरंतर इस अभ्यास को करते हुए पाया कि विद्यार्थियों ने जल्दी ही अवधारणाओं और गहन विचारों को न केवल समझ लिया बल्कि आत्मसात भी कर लिया। उन्होंने कहा वे अब कभी-कभी किसी लेखक को पढ़ते वक्त़ अपने पास ही बैठा महसूस करते हैं और यह तब भी होता है, जब वह ड्राई कहे जाने वाले अकादमिक टेक्सट को पढ़ रहे होते हैं। मेरी एक विद्यार्थी ने मुझसे एकबार कहा कि पहले हम उन्हें समझते थे। अब लगता है, वे भी हमें समझ रहे हों।

अपर्णा दीक्षित
सरोजिनी नायडू महिला अध्ययन केंद्र, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली

अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
  चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-61, जुलाई-सितम्बर 2025
सम्पादक  माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक  विष्णु कुमार शर्मा चित्रांकन दीपिका माली

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