समीक्षा:जनजीवन की महागाथा है नमिता सिंह की ‘जंगल गाथा’/डॉ.धर्मेन्द्र प्रताप सिंह

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                      
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
  नमिता सिंह आज के समय की महत्त्वपूर्ण कथाकारों में प्रतिष्ठित हैं। एक स्त्री के रूप में उनकी अहमियत और भी बढ़ जाती है। इनके कहानी संग्रहों में खुले आकाश के नीचे’ (1978), ‘राजा का चैक’ (1982), ‘नील गाय की आँखे’ (1990), ‘जंगल गाथा’ (1992), ‘निकम्मा लड़का’, ‘मिशन जंगल और गिनीपिंग’, कफ्र्यू और अन्य कहानियाँहैं। नमिता सिंह कहानियों के अतिरिक्त एक उपन्यारस सलीबेंऔर लेडीज क्लबका भी सृजन कर चुकी हैं। इसके अतिक्ति लम्बे समय तक वर्तमान साहित्यनामक हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका का सफलतापूर्वक संपादन करती रही। इनकी अनेक कहानियों का उर्दू, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। ये आज भी अनेक सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध होकर सामाजिक कार्यों में सक्रिय योगदान दे रही हैं।
    

                ‘जंगल गाथानमिता सिंह का दस कहानियों- जंगल गाथा, बन्तो, मक्का की रोटी, सांड़, उबारने वाले हाथ, गणित, मूषक, गलत नम्बर का जूता, चाँदनी के फूल, नतीजा का संग्रह होने के साथ ही इनकी कथा-यात्रा का महत्त्वपूर्ण पड़ाव भी है। जंगल गाथाप्रकृति और मानव जीवन के मध्य सामंजस्य न बिठा पाने की कहानी है। प्रकृति से मानव जीवन का गहरा रिश्ता है। जंगल पर ठेकेदारों की नजर निरन्तर बनी रहती है। अवैध कटाई से वे दिन दूना रात चैगुना तरक्की कर रहे हैं। टोले के लोग जंगल को लेकर अत्यधिक संवेदनशील अरैर चिन्तित हैं। जंगल की अवैध कटाई से वे चिन्तित होकर कहते हैं- ‘‘जंगल नष्ट होगा तो टोला भी खत्म हो जायेगा। तलिया टोले जैसे कई ढेरो टोेेले- सब खत्म हो जायेंगे।’’ (जंगल गाथा, पृ0-13) इसके साथ ही वे जंगली जानवरों के उत्पाद से भी परेशान हैं। इसी से परेशान होकर बिलमा स्याना कहता है कि- ‘‘जंगल के हिरन, लोमड़ी, बन्दर दीखता है। भेडि़या, लकड़बग्गा दीखता है, लेकिन ये बाघ किधर से आ गया। हे बनजारिन माई, रक्षा करो जंगल की... हे खैरा माई रखा करना टोले की।’’ (जंगल गाथा, पृ0-13) नमिता सिंह इस कहानी में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को लेकर काफी संवेदनशील दिखायी पड़ती हैं। आदिवासी जीवन शैली में स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं होता। दोनों ही साथ-साथ सामाजिक क्रियाओं और नाच-गानों में भाग लेते हैं- ‘‘सचमुच कहीं नज़र न लग जाये... उधर नज़र गड़ाये सुरसत्ती यही सोच रही थी। उसकी सहेलियाँ पूरे सजाव-बनाव के साथ कबीर टोला के नौजवानों के साथ नाच में उतर चुकी थी और अब आदमी-औरत के मिले-जुले संगीत के स्वर गूँज रहे थे।’’ (जंगल गाथा, पृ0-20)

                नव उपनिवेशवादी समय में हम अपनी भाषा, संस्कृति, खान-पान, पहनावा आदि सब भूलने के साथ ही स्वयं को बाजार के अनुसार बनाने में जुट गये हैं। मक्का की रोटीइसी ओर संकेत करती हुई रचनाकार की कथायात्रा का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। प्यारेलाल कहानी का मुख्य पात्र है जो अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिए अपने मलिक की चापलूसी करता है। कहानी के माध्यम से स्त्री-जीवन में बाजार रूपी वनमानुष के प्रवेश से होने वाले परिवर्तन को रेखांकित किया गया है। इस नवीन संस्कृति ने स्त्रियों के लिए अनेक नई समस्याओं को जन्म दिया है। घर में उनका जीवन यापन निरन्तर दुरूह होता जा रहा है जिसका वर्णन रचनराकार ने इन शब्दों में किया है- ‘‘सच कहती हैं, बहुत बोरियत होती है। क्या करो बैठे-बैठे। कितना घर सजाओ, कितना घर का इंतजाम करो... फिर ये सब तो... आखिर इतने सर्वेंट्स हैं... वो भी तो कुछ करेंगे!’... बिल्कुज सही अजी इसीलिए तो शादी के चार साल बाद मैंने फिर से सर्विस जौइन कर ली। न रहूँगी मैं, न रहेगा मेरा इंतजार! अपने टाइम पर आओ, अपने टाइम से खाओ, और अपने ही टाइम से जाओ, जहाँ जाना हो। न कोई पूछ न ताछ। हम भी खुश, आप भी खुश।’’ (जंगल गाथा, पृ0-54)

                ‘सांड़कहानी में बुन्देली के माध्यम से नामिता सिंह एक शहर की आंतरिक संरचना का बखूबी चित्रण किया है। साड़के आतंक से सारा शहर डरा-डरा रहता है लेकिन यह हिन्दुओं के लिए एक धार्मिक प्रतीक है। यही कारण है कि इसका वध हिन्दू-मुस्लिम दंगे का कारण बन सकता है। पूरी कहानी इसी पृष्ठभूमि पर तैयार की गयी है। साड़निरन्तर किसी न किसी को चोट पहुँचाता रहता है। पूरा मोहल्ला उससे परेशान हो जाता है। यहाँ पुलिस और प्रशासन का रवैया भी नागरिकों को निराश करता है जब पुलिस वाले यह कहते हैं कि- ‘‘प्रोफेसर साहब...। दंगे फसाद रोकना हमारा काम है। जानवरों को रोकना नहीं। हम दंगाइयों को जेल में बन्द कर सकते हैं- जानवरों को नहीं कर सकते।’’ (जंगल गाथा, पृ0-70) एक दिन साड़ बुन्देली के दरवाजे पर दम तोड़ देता है जो उसके लिए मुसीबत बन जाता है। कुछ दिन पहले ही उसने मोहल्ले वालों के सामने उसे जान से मार डालने की सलाह दी थी जिसे नागरिकों ने यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि इस कृत्य से दंगा भड़क सकता है। साड़ कोई जहरीली घास खाकर बुन्देली के दरवाजे के सामने सुबह मरा हुआ मिलता है। नमिता सिंह कहानी के माध्यम से कहना चाहती है कि किसी के जीवन के लिए संकट पैदा करने वाले किसी मनुष्य अथवा जानवर का किसी धर्म या जाति से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

                ‘बन्तो’, ‘उभारने वाले हाथऔर गलत नम्बर का जूतास्त्री जीवन को आधार बनाकर लिखी गयी कहानियाँ हैं। अनमेल-अनचाहा विवाह, स्त्री की खरीद-फरोख्त, शराबी पति के हाथों में पड़ने के बाद औरत की होने वाली दुर्दशा, जुआ और शराबखोरी के कारण घर-परिवार की होने वाली बर्बादी इन सभी समस्याओं को लेकर नमिता जी ने एक अच्छी कहानी रची है। बन्तोकहानी में बलबीरा की हत्या के बाद जब उसकी माँ बन्तो को सतबीरा के हाथ में सौंपना चाहती है। बन्तो अपने आत्मसम्मान के वशीभूत होकर ऐसे कृत्य के लिए तैयार नहीं होती, साथ ही उसे सतबीरा के लुगाई के दर्द का भी अहसास है जिसका विवाह जल्द ही हुआ है और उसकी सास ने उसके ऊपर बलबीरा की मौत का अपशकुन मढ़ दिया है। बलबीरा की मौत उसकी जिन्दगी का नरक बन जाता है।
                ‘उबारने वाले हाथमें गंभीर विमर्श विद्यमान है लेकिन इसका अंत मैं समझ नहीं पाया। चन्दोकिसलिए लखनऊ जाने से मना करती है, क्या उसे बड़े भैया या भाभी पर भरोसा नहीं था, नमिता जी ने पूरी कहानी में इस विचार के लिए तो कोई जगह नहीं छोड़ी। उनके चरित्र से तो ऐसा लगता नहीं कि वे भरेासे लायक नहीं हैं। इस बारे में काफी देर तक सोचता रहा और अब भी सोच ही रहा हूँ। कारण मेरी समझ में नहीं आया। चन्दो घर, माँ और भाई का मोह होने के कारण यदि वह मना करती है तो इसे मैं कहानी का कमजोर पक्ष मानता हूँ। इसके अलावा और कहीं पहुँच नहीं पा रहा हूँ। वैसे कहानी में निम्न वर्गीय परिवार की स्त्रियों की समस्या को उठाया गया है जिसे लेकर काफी कुछ लिख जा सकता है।

                नामिता सिंह की कहानियों में स्त्री चिन्तन के लिए व्यसपक सामग्री मौजूद है। गणितके अंत में रामलाल की औरत उसे उसकी औकात बताती है जो इस कहानी के अंत के लिए बहुत जरूरी था। उसका चरित्र आखिरी कुछ पंक्तियों में ही भले हो लेकिन पूरी कहानी का केन्द्र बिन्दु है। इसे लेकर भी स्त्री की भूमिका पर विचार किया जा सकता है जो स्त्री के स्वावलम्बी होने का संकेत है। कहानी का मुख्य पात्र होने के बावजूद उसकी पत्नी के सामने रामलाल का चरित्र गौड़ हो जाता है। रामलाल का भैंस, कुत्ते और अपने सहायक के साथ किया गया व्यवहार उसे संवेदनहीन सिद्ध करता है।
                ‘गलत नम्बर का जूतामध्य वर्गीय पारिवारिक जीवन की एक मजेदार कहानी है। इसमें स्त्री जीवन के विविध पहलुओं की पड़ताल नमिता सिंह ने की है। जब सुधीश के माँ साड़ी और जेवर का ताना देती है तो सुजाता कहती है कि वे ही तो जिद करते हैं कि यह पहना करो, वह पहना करो। कानो ंमें यह पहनो, गले में ये डालो। अभी तक मैंने जितनी भी कहानियाँ स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को लेकर पढ़ी है, यह कहानी उनमें से खास है। सभी कहानियों में लड़ाई-झगड़ा, मार-पिटौउल, तलाक, अवैध सम्बन्ध, विवाह पूर्व प्रेम प्रसंग के अतिरिक्त कुछ नहीं था। ऐसी कहानियों से वैवाहिक जीवन के प्रति एक नाकारात्मक भाव आ जाता है। लेकिन नमिता सिंह की यह कहानी उन कहानियों से अलग होते हुए भी एक बात समान है वो यह कि सुजाता अंत में समझौता कर ही लेती है। गृहस्थी की गाड़ी जिन दो पहियों पर चलती है, जीवन पथ पर उन पहियों के आगे गड्ढे और पत्थर आते हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि एक पहिया दूसरे की स्थिति को समझते हुए उसे सहारा दे और उसके अनुसार अपना सामंजस्य बिठाये। सुजाता और सुधीश की जीवन भी कुछ इसी तरह है। सुधीश महत्वाकांक्षी है और रातोंरात सारी खुशियाँ और सुख-सुविधाएँ समेट लेना चाहता है। इस कहानी पर कई अन्य स्तरों से भी विचार किया जा सकता है जैसे सुजाता की माँ के चरित्र स्त्री को एक अलग दृष्टि से देखने के लिए प्रेरित करता है।     

                ‘मूषककहानी में नमिता जी ने बताया है कि डरपोक और कमजोर दिल वालों के लिए दुनिया में कहीं भी जगह नहीं है। कहानी के मुख्य पात्र पंडितजी दंगे के डर से शहर के बाहर मकान बनवा लेते हैं। उनका नया मकान भीड़भाड़-शोरगुल से दूर स्वच्छ शान्त वातावरण में था लेकिन वहाँ चोरी की घटनायें बिल्कुल आम थी। दिन-दहाड़े घरों में चोरी हो जाया करती थी। चोरी के भय से वे अपने पैतृक गाँव जा बसे। वहाँ उन्होंने एक बस चलायी जिससे ठीक-ठाक आमदनी हो जाती और उनका जीवन सुचारु रूप से चलने लगा। एक बार उनकी बस को आतंकवादियों ने लूट कर उसे बम से उड़ा दिया। इससे घबड़ाकर वे अपने लड़के के पास विदेश चले जाते हैं जहाँ उनके साथ फिर मारपीट की घटना घटी। इससे घबड़ाकर वे पुनः अपने वतन वापस लौटते हैं और जीवन पर्यन्त वहीं रहने का निर्णय कर लेते हैं।

                ‘चांदनी के फूलमें कहानीकार ने समय के साथ मानव की सोच में होने वाले परिवर्तन को रेखांकित किया है। नीना की सहेली के माध्यम से रचनाकार ने जीवन में स्थायित्व को महत्त्वपूर्ण माना है। मानव एक निश्चित समय तक है जगह-जगह घूम-फिर सकता है। हर जगह उसके अनुरूप वातावरण मिलना कठिन है। कथा नायिका कालेज में अध्यापिका है और उसका स्थानान्तरण हर तीसरे साल हो जाता है। प्रारम्भ में उसे यह नौकरी बहुत अच्छी लगी कि हर तीसरे वर्ष नयी जगह, नये लोग, नया वातावरण, नयी भाषा, नयी संस्कृति से रूबरू होने का अच्छरा मौका मिलेगा। इसी क्रम में नायिका का स्थानान्तरण एक ऐसे पहाड़ी क्षेत्र में हो जाता है जहाँ दैनिक जीवन की मूलभूत सुविधाओं को जुटाना कठिन है तो उसे स्थायित्व का महत्त्व पता चलता है। कहानीकार के प्रकृति के प्रति लगाव इस कहानी का महत्त्वपूर्ण पहलू है जो जगह-जगह दिखायी पड़ता है।

                नमिता सिंह देश की शिक्षा पद्धति पर प्रश्नचिह्न लगाती हुई नतीजामें कहती हैं कि- ‘‘पी-एच0डी0 करके ही क्या कर लेगा। एक से एक डाक्टरेटधारी मारे-मारे फिरते हैं।’’ (जंगल गाथा, पृ0-138) माँ-बाप बड़ी उम्मीद के साथ अपने बच्चे को पढ़ाते हैं कि उसका बेटा बुढ़ापे में उसका सहारा बनेगा लेकिन देश की बीमार व्यवस्था और बाजार में संघर्षरत युवाओं की सच्ची तस्वीर इस कहानी में प्रस्तुत की गयी है। मधुकर ऐसे ही वर्ग का प्रतिनिधि पात्र है। मधुकर की काबिलियत से प्रभावित होकर उसे सीको कम्पनी में नौकरी पर रख लिया जाता है लेकिन ज्वाइनिंग के ही दिन उसकी माँ का आपरेशन होना रहता है जब वह यह बात सेलेक्शन कमेटी को बताता है तो उसकी नौकरी उससे यह कहते हुए छीन ली जाती है कि - ‘‘यू नो, मेरी माँ डेथ बैड पर थी लेकिन लेबर ट्रबल मजदूर हड़ताल की वजह से मैं दो दिन की छुट्टी नहीं ले सका। वी डोंट वांट सच इमोशनल आफीसर्स। ऐसे भावुक अफसर नहीं चाहिए हमें।’’ (जंगल गाथा, पृ0-140) आज का समय बाजार और मुनाफे का है। इसमें भावनाओं की कोई कीमत नहीं है। नमिता सिंह की यह कहानी देश में फैले भाई-भतीजावाद, जातिवाद आदि को गहरे से रेखांकित करती है- ‘‘श्रीराम डिग्री कलिज में इण्टरव्यू के लिए गया था। मैंनेजमेंट की अपनी ही जाति का एक उम्मीदवार लगभग तय था जिसे वहाँ लेना था।’’ (जंगल गाथा, पृ0-137)

                नमिता सिंह की भाषा में आंचलिकता के साथ जीवंतता विद्यमान है। कहीं कहीं ठेठ गँवई शब्दावली का प्रयोग भी हुआ है। कहानियों में यदा-कदा लोकगीतों का प्रयोग रचनाकार के भावात्मक हृदय का परिचायक है- ‘‘ हँस-हँस माया न लगाया...सुआ तोरे बरन रे... आठो अंग ला चमकाय सुआ तोरे बरन रे...’’ (जंगल गाथा, पृ0-20) नमिता सिंह के अध्ययन-अध्यापन का क्षेत्र मुख्यतः विज्ञान वर्ग रहा है जिसका प्रभाव उसकी भाषा पर जगह-जगह दिखायी पड़ता है। शहरी पृष्ठभूमि पर आधारित कहानियों में अंग्रेजी मिश्रित आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है। शीर्षक के नामकरण की दृष्टि से भी संग्रह की सभी कहानियाँ पूर्णतः सार्थक हैं।

                
डॉ. धर्मेन्द्र प्रताप सिंह
शोध सहायक, हिन्दी विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
ई-मेल- dpsingh33@ymail.com
ब्लॉग- dpsinghpbh.blogspot.in
मो-09453476741
नमिता सिंह का कहानी संग्रह जंगल गाथाकी कहानियों में न केवल मानव जीवन के प्रत्येक पहलू को उद्घाटित किया गया है, बल्कि मानव जीवन से सम्बन्ध रखने वाले जीव-जन्तुओं, पेड़-पौधों, पहाड़ों-नदियों आदि का चित्रण किया गया है। मनुष्य की महत्त्वकांक्षा और प्रकृति से छेड़छाड़ आज एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। यहीं महत्त्वकांक्षा पारिवारिक जीवन को तबाह करती जा रही है। आज के वैश्विक युग में युवाओं के समक्ष रोजगार की विकट समस्या मुँह फैलाये खड़ी है। इन सबके बीच स्त्री का स्वावलम्बी होना हमारे देश और समाज के लिए सकारात्मक संकेत है। नमिता सिंह के इस संग्रह में इन सभी पहलुओं को रेखांकित करने वाली कहानियाँ संग्रहीत हैं।

संदर्भ- नमिता सिंह कृत जंगल गाथा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण- 2012
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