शोध : दलित सौन्दर्यशास्त्र और मलखान सिंह की कविताएँ / डॉ. रविता कुमारी

                           दलित सौन्दर्यशास्त्र और मलखान सिंह की कविताएँ / डॉ. रविता कुमारी



शोध-सार

अपने ही बनाये नियमों को कालान्तर में ध्वस्त करते जाने का नाम है सौन्दर्यबोध या शास्त्रजाहिर है जिस तरह का समाज होगा उसी तरह का सौन्दर्यबोध और उसका प्रतिमान उसके भीतर होगास्पष्ट है कि रेत के ढेर पर आशियाना बनाने वाले का सौन्दर्यबोध नदी-पेड़ के किनारे रहने वाले के सौन्दर्यबोध से अलग होगाअगर हम व्यक्ति को एक इकाई मानें तो जाहिर है कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना सौन्दर्यबोध या सौंदर्यशास्त्र होगासंभव है समाज के जितने संस्तरण होंगे उतने ही सौंदर्यशास्त्र भी समाज में उपलब्ध होंकोस-कोस पर पानी बदले चार कोस पर बानीकी तर्ज पर संभव है कि सौन्दर्य के प्रतिमान आदिकाल से बदलते रहे होंइसीलिए आज तक कोई शाश्वत सौंदर्यशास्त्र नहीं बन पायाहिंदी साहित्य ने सौन्दर्य के प्रतिमानों को तो लगातार बदला है। कभी रस, छंद, अलंकार को अपना ध्येय मानने वाला सौंदर्यशास्त्र मिथक, बिम्ब, प्रतीक से टकराया तो कभी अस्मिताकामी लोगों द्वारा उसे सम्पूर्ण नकारकर एक नए सौंदर्यशास्त्र की वकालत की गई। मलखान सिंह की कविताओं में हम बदले हुए सौन्दर्यशास्त्र को परख सकते हैं। बिम्बों, प्रतीकों, मिथकों के अनूठे प्रयोग को उनकी कविताओं में देखा जा सकता है।

 

बीज-शब्द : सौन्दर्यशास्त्र, दलित लेखन, श्रम का सौन्दर्यबोध, प्रतिरोध का सौन्दर्यबोध, बिम्ब, मिथक, प्रतीक, भाषाई क्षेत्रीयता, अम्बेडकरवाद, मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, ज्वालामुखी के मुहाने

 

मूल आलेख 

    सौन्दर्यशास्त्र की विवेचना में सौन्दर्य’, ‘कल्पना’, ‘बिम्बऔर प्रतीकको कुछ विद्वानों ने प्रमुख माना है जब कि सौन्दर्य के लिए सामाजिक यथार्थ एक विशिष्ट घटक है। कल्पना और आदर्श की नींव पर खड़ा साहित्य किसी भी समाज के लिए प्रासंगिक नहीं हो सकता है। साहित्य के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और वर्तमान की दारुण विसंगतियाँ ही उसे प्रासंगिक बनाती हैं। यदि कबीर आज भी प्रासंगिक लगता है तो वे सामाजिक स्थितियाँ ही हैं जो कबीर को प्रासंगिक बनाती हैं। हिन्दी समीक्षक रचना के मापदंडों के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशील दिखाई पड़ते हैं। रचना का मापदंड क्या हो सकता हो? कैसेहो? इसके लिए जरूरी है कि उसके उदगम और भावबोध पर चर्चा हो, समाजशास्त्रीय आलोचना का विकास हो। उन मापदंडों में भी परिवर्तन की आवश्यकता है, जो सामन्ती सोच के पक्षधर हैं, कुलीन घरानों के नायकत्व से आतंकितहैं। मानकों का निर्माण किया जाए। उन मानकों की खोज की जाए, उन मूल्यों की खोज की जाए जिनके कारण दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों को सदा से हाशिये पर धकेला जाता रहा है। समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय-इन जीवन मूल्यों को दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र का मूल माना जा सकता है। शरणकुमार लिम्बाले, ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे चिंतनशील मनीषियों ने दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रकी अवधारणा को जब प्रस्तुत किया तो मुख्यधारा के साहित्यिक मठों के महंत इससे काफी आहत हुए। उन्होंने इसे भरजोर नकारने की कोशिश की। उसे जब अविकसित या अल्प विकसित कहकर मुख्यधारा नकार रही थी तो बदलते-बनते प्रतिमाओं को स्थापित करने वालों को एक बल भी मिल रहा था।

  

मराठी दलित लेखन की तरह हिंदी दलित लेखन भी अब स्थापित हो चुका है। कविता, उपन्यास, नाटक ही नहीं अन्य अस्मिताकामी विधाओं पर अब रचनाकारों का ध्यान जा रहा है। अब तो आलम यह है कि साहित्य चाहे दलित लिख रहा हो या गैर दलित केंद्रमें दलित ही है। साहित्यिक प्रतिमानों के बड़े किले अब ध्वस्त हो चुके हैं। मीनारें ढहाई जा चुकी हैं। दलित साहित्य ने जहाँ आंबेडकर दर्शन को अपना आधार माना है वहीं पर आदिवासी साहित्य अपने पुरखा साहित्यके आधार पर अपने प्रतिमान बना रहा है। बदलाव के साथ आये नए अनुभूतियों के शास्त्र को जिन लोगों ने रेखांकित करने का काम किया उन्होंने भय और भूख के सौन्दर्यबोध को कविता का विषय बनाया। नए सौंदर्यशास्त्र की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए शरणकुमार लिम्बाले लिखते हैं ‘‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र 1. कलाकारों की सामाजिक प्रतिबद्धता 2. कलाकृति में जीवन मूल्य 3. पाठकों के मन में जागृत होने वाली समता, स्वतंत्रता, न्याय और भातृभाव की मूल पर टिकी कोई चेतना सौन्दर्य का प्रतिमान हो सकता है। समता, स्वतंत्रता, न्याय और प्रेम आदि व्यक्ति और समाज की मूलभूत भावनाएं हैं। यातना, वेदना, बेचैनी दलित रचनाकारों की विशेषता है। पारम्परिक आलोचना का स्थायी भाव आनंद है। उनके लिए आनंद ही सर्वश्रेष्ठ भाव है। आनंद के बरक्स यातना और वेदना का अपना सौंदर्यशास्त्र है जो मानवीयता के सौन्दर्यशास्त्र पर आधारित है। यातना और बेचैनी से मुक्ति का सवाल ही हमारे समाज की जरूरत है। यहाँ अनुभूति की प्रमाणिकता सबसे अधिक होगी। आक्रोश और प्रहार इसके मूल में है’’[i]। यह सर्वज्ञात ही है कि हिंदी कविता के वरिष्ठ हस्ताक्षर श्री मलखान सिंह अपनी कविता के अलग तेवर के कारण प्रसिद्ध हैं। 1996 में प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह सुनो ब्राह्मणने तो पाठकों पर व्यापक असर डाला। बीस बरस के अंतराल के बाद 2016 में उनका दूसरा कविता संग्रह ज्वालामुखी के मुहानेप्रकाशित हुआ। दोनों संग्रह भारी मांग के कारण अनुपलब्ध रहे। अभी हाल ही में लखनऊ से उनके पहले संग्रह का पुनर्प्रकाशन रश्मि प्रकाशनसे हुआ है।


मलखान सिंह की कविता का वैचारिक सौन्दर्यबोध :


    विचार हमारे शरीर की आंतरिक क्रिया द्वारा उत्पन्न एक भाव है। विचारों की श्रेष्ठता ही मानव ह्रदय में आनंद और विषाद को जन्म देती है।  साहित्य के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और वर्तमान की दारुण विसंगतियाँ ही उसे प्रसंगिक बनाती हैं। यदि कबीर आज भी प्रासंगिक लगते हैं तो वे सामाजिक स्थितियाँ ही हैं जो कबीर को प्रासंगिक बनाती हैं। दलित आलोचकों ने अपने साहित्य के सौंदर्यशास्त्र का आधार डॉ. आंबेडकर के दर्शन को माना है। प्रश्न है कि डॉ. आंबेडकर का अपना कोई मौलिक दर्शन भी है या नहीं?  बुद्ध से उन्होंने सीखा है, कबीर को अपनाया है और फ्रांस की राज्यक्रांति से उन्होंने प्रेरणा ग्रहण की है। साहित्य में यह ठीक वैसे ही नहीं आएगा जैसा कि राजनीति में आता है। सौन्दर्य की खोज तो दलित कवि भी करता है। पर दोनों की सामाजिकता उसकी खोज के रास्तों को तय करती है। मार्क्स और आंबेडकर के रास्ते पर चलकर ही बहुजन समाज को जातीय और सामाजिक शोषण से बचाया जा सकता है यह बात मलखान सिंह बहुत अच्छी तरह से समझते हैं इसलिए उनके लेखन में हमें कोई बाइनरी भी दिखाई नहीं देती है।

 

 गौतम बुद्ध, संत कबीर, चोखा मेला, संत रैदास, फुले नारायणा गुरु और महामानव बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की चेतना कवि को वंशगत मिली है तो विज्ञान और तकनीकि ने उनको सहज सरल दुनिया को विज्ञान सम्मत देखने का नजरिया भी दिया है। मार्क्स और आंबेडकर का प्रभाव कवि को बलिष्ट बनाता है। वर्ग और वर्ण का समंजन कवि की विशेषता है। कवि को जल्दी में समंदर लांघने की जल्दी नहीं है। कवि ने जो लिखा है वह जीवन की कसौटी पर कसकर लिखा है। इसलिए उनकी कविता दो शताब्दियों की कविता को एक साथ पाठकों के सम्मुख लाती है। उनकी कविता कई ऐसे बेचैन करने वाले सवालों को पाठकों तक लाती है जिनके उत्तर आज तक अनुत्तरित हैं। सवर्णवाद के समक्ष वे सर्वमानववाद को उठाने वाले विरल कवि हैं। वे कोई दलितवाद नहीं स्थापित करते पर वंचित और दमित की आवाज बन डूबते को तिनके का सहारा जरुर बनते हैं। वस्तु तो सुन्दर होती ही है, विचार भी सुन्दर होते हैं। तन-मन की सुन्दरता का अपेक्षाबोध हमारा समाज चाहता है। उदारीकरण के बाद भारतीय समुदायों की सोच का सौन्दर्य बदला है, साहित्य के प्रतिमान बदले हैं, पाठ-पुनर्पाठ की अवधारणाओं का विकास हुआ है, जिस तरह से हाशिया केंद्र बनता जा रहा है, जिस तरह से किसी भी वस्तु या परिदृश्य को देखने की लेंथ में परिवर्तन हुआ है उससे यह स्पष्ट था कि पुराने सौन्दर्य के प्रतिमान बदलती आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम नहीं हैं। पिछले दो दशकों में दलित साहित्य ने अपने सौंदर्यशास्त्र विकसित करने के लिए कदम बढ़ाया है।

 

देवेन्द्र चौबे अपनी पुस्तक आधुनिक साहित्य में दलित विमर्शकी भूमिका में लिखते हैं कि दलित साहित्य का मूल्यांकन किस प्रकार होगा? उसके लिए कोई नया सौंदर्यशास्त्र रचा जाएगा अथवा मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र जैसी जैसी धारणाओं के अंदर से ही दलित पाठ के मूल्यांकन के प्रतिमान अथवा मानदंड विकसित होंगे? यह एक अहम सवाल है क्योंकि मार्क्सवाद पर जोर देने के कारण ही दलित विचारकों ने प्रगतिशील साहित्य की इस विचारधारा के खिलाफ कड़ा प्रतिरोध दर्ज किया है। उनका मानना है कि मार्क्सवादी विचार पद्धति में दमन, शोषण और उत्पीड़न का बुनियादी कारण आर्थिक माना जाता है जबकि दलित लेखन की बुनियाद वर्ण एवं जाति केंद्रित असमान सामाजिक व्यवस्था पर टिकी है। मलखान सिंह की कवितायें इसकी ताकीद करती हैं। यहां सवाल आर्थिक असमानता का नहीं जातीय संरचना का है। अंबेडकर ने तो साफ-साफ कहा था जाति प्रथा केवल श्रमिकों का विभाजन मात्र नहीं है। वह वंशगत है जिसमें श्रमिकों का वर्गीकरण एक के ऊपर दूसरी सीडीनुमा है। जिसका जन्म जिस तल जाति में होता है और उसी में मरता है। (डॉक्टर बाबासाहेब आंबेडकर भाषण लेखन खंड 5 पृष्ठ 376).[ii] मलखान सिंह अपनी कविता नहीं चाहिएमें उस मनुवादी सामंतवादी ताकत का वह विरोध अपनी वैचारिकता से  करते हैं और प्रतिकार करते हुए लिखते हैं कि :


नहीं चाहिए/ नहीं चाहिए / तुम्हारा सच/ तुम्हारा झूठ /तुम्हारा स्वर्ग/ तुम्हारा नर्क/ तुम्हारी देवी तुम्हारा देव /यह जनेऊ धारी सूरज/ तुम्हें ही मुबारक हो / गढ़ेंगे नया सूरज हम/ नीले आसमान में / ओढ़ेगा हमारे दुःख-दर्द / फटेहाल जो  /हमारी टूटी खाट पर/ संग-संग सोयेगा / तोड़ेगा पहाड़ / जाति, धर्म, राज्य, भाषा के / नए राग-नए फाग नई आग घोलेगा[iii]


 मलखान सिंह जानते हैं कि एक न एक दिन वह समतामूलक समाज जरुर बनेगा जिसकी कल्पना संत रैदास ने बेगमपुराके नाम से और डॉ। आंबेडकर ने समतामूलक समाज की कल्पना में किया था। वे सवर्णी समाज की विसंगतियों को भली भांति जानते हैं इसलिए अपनी कविता विषवृक्षवे अपने वैचारिक प्रतिरोध को कुछ इस तरह से प्रस्तुत करते हैं :


‘’राजघाट की धनाड्य वादियों में  / पसरा महामानव / धतूरे के दंश को नष्ट करने के लिए / पत्तियों को शहद में / डुबोने की बात कह / शतरंजी चाल चल रहा है’’[iv]


 एक समय था, जब वर्ग-संघर्ष पर आधारित मार्क्सवादी दृष्टि, मूल्य-संरचना और सौन्दर्यशास्त्र के मार्क्सवादी नज़रिये से वंचितों के उक्त सवालों, अभिव्यक्तियों और बदलावों को समझने का प्रयास किया जाता था। लेकिन, आज उक्त समूहों में से कई अपने-अपने अनुभव या सौन्दर्यबोध के आधार पर अपनी-अपनी वैचारिकी और सौन्दर्यशास्त्रीय मानकों का खुद से संधान कर रहे हैं। उससे उक्त वैचारिकी या मूल्य-संरचना की भी सीमाएँ स्वत: रेखांकित होती गयी हैं.वे अपनी कविता आखिर कब तकमें शोषण और दमन का प्रतिकार अपनी वैचारिकी के आधार पर करते हैं :


‘’कैसी लीला है परमेश्वर की / कि जब जब भी / बसन्त के फूल हमारे आँगन में खिलते हैं / स्वर बदल जाते हैं भोपुओं के / आदमखोर भेड़ियों की गुर्राहट/ बिगडैल साड़ों की हुंकारें / पीताम्बरी ओढ़े सियारों की / खतरनाक दखलांदाजी / स्वरों को और भी /मारक बना देती है’’[v]


 दलित साहित्य के लिए अलग सौन्दर्यशास्त्र की आवश्यकता क्यों पड़ी यह एक अहम सवाल है। क्या वर्णधर्म से अलग भी कोई सौन्दर्यशास्त्र हो सकता है? ईश्वर का नकार उनकी वैचारिकी से ही उपजता है। अपनी कविता पत्र एक मित्र कोमें वह लिखते हैं –


‘’प्रिय मित्र/ जिस वर्ण धर्म को तुम / ईश्वरीय कहते हो / वह हमारे लिए है / दासता का प्रवेशद्वार / और तुम्हारे लिए / यश का विशाल साम्राज्य’’[vi]


 ज्ञात हो कि इसी वर्ण धर्म के कारण दलितों के विशाल समुदाय को बहुत मेहनत के बाद भी जहालत की जिन्दगी जीनी पड़ती है।


 मलखान सिंह की कविता का सामाजिक यथार्थ :


मानव एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक जीवन मानव का स्वभाव है।  वह सिर्फ व्यक्तियों का समूह नहीं है बल्कि संबंधों और विचारों की एक कड़ी है। पिछले दो दशक में साहित्य और विचारधारा की दुनिया में अवधारणात्मक परिवर्तन आये हैं। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में मंडल कमीशन, आर्थिक उदारीकरण, बाबरी मस्जिद ध्वंस, विभिन्न दलित और बहुजन आंदोलनों ने साहित्य और समाज को बहुत प्रभावित किया है। इसने बौद्धिक समाज को समझने को जहाँ बाध्य किया है वहीं कई तरह की बौद्धिक चुनौतियों से भर दिया है। इस बौद्धिकता के युग में दुनिया को सोचने पर बाध्य किया है। हम बहुत सारी संरचनाएं तोड़ते जा रहे हैं और बहुत सारी संरचनाओं की निर्मिती भी उसी के साथ कर रहे हैं। जबसे विचार की दुनिया में अस्मिताकामी चीजों ने प्रवेश किया है तबसे प्रगतिशील और परम्परागत धारा चौंकी है और उसमें नई तरह की हलचल का सूत्रपात हुआ है। समय के साथ इन्हीं सौन्दर्य प्रतिमानों के बदलाव सम्बन्धी प्रतिमानों को बदलने के लिए प्रेमचंद ने भी कहा था :


‘’हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी और हमें निश्चय ही विलासिता के मीनार से उतरकर उस बच्चों वाली काली रूपवती का चित्र खींचना होगा जो बच्चे को खेत की मेड़  पर सुला कर पसीना बहा रही है.[vii] यह समाज की सचाई है कि सत्ता का वर्चस्ववादी धड़ा लम्बे समय तक सत्ता में आने के लिए मुख्यधारा बना बैठता है और जो मुख्यधारा होती है उसको कहीं हाशिये पर लाकर छोड़ देता है। कभी कभी यही अस्मिता की राजनीति के रूप में उभर कर आता है पर अपवंचित धारा का यह साहित्य केवल अस्मिता की राजनीति भर नहीं है अपितु प्रतिरोध भी रचता रहता है। हमें यही प्रतिरोध इस कवि की कविताओं में सर्वत्र दिखाई पड़ता है। चौमासा सबके लिए बराबर नहीं हो सकता। सामाजिक सन्दर्भों में उसकी अर्थवत्ता बदल जाती है.अपनी कविता हमारे दिन हमारी रातमें मलखान सिंह लिखते हैं :


कैसा होता है चौमासा / मूसलाधार बरसात में / दगडे का भाव जब / ज्वार बन जब उफनता है / पोखर बना देता है बस्ती को/ पूरी की पूरी रात / पानी उलीचते ही निकलती है / और दिन / चूल्हा सिल्गाने के इन्तजार में[viii]


 आज सत्ता राजनीति की शक्ति प्राप्त करने के लिए दलित कई स्तरों पर संघर्ष कर रहे हैं। मार्क्सवादी ब्राह्मणवाद को दलित शक्ति पछाड़ कर पीछे छोड़ रही है। उन्हें न सवर्ण सहानुभूति की जरुरत है न मार्क्सवादी मानववाद की। वे आज आंबेडकर की राह चलकर अपना मुकाम बनाना चाहते हैं जहाँ किसी वैचारिक वैसाखी की जरूरत नहीं है। आज दलित साहित्य के पास ऐसे सैकड़ो युवा चेहरे हैं जो नित नया कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। जिनका ह्रदय विशाल हुआ है और उनके साहित्यिक प्रतिमान दलित साहित्य के प्रतिमानों पर खरा उतर रहा है। कवि अपनी कविता कैसा उदारवाद यहमें इसी उदारवादी छवि की बखिया उधेड़ता नजर आता है –


‘’नगर के चौराहों पर/ बिकने वालों की इतनी भीड़ है कि/ पाँव रखने की जगह नहीं/ गाँव बंजर हो गए है / हम सिमाने पर खड़े/ पेट के भेड़िये से जूझ रहे हैं / और सत्ता से / खुद की गर्दन की मोटाई/ छिपाने के लिए / मुफ्तखोर गर्दन को/ प्रगति का पैमाना बना / घोषित कर रहे हैं कि / देश समृद्धि कर रहा है’’[ix]


 गाँव हमेशा से राग-द्वेष, हिंसा, नफरत के केंद्र रहे। पितृसत्ता, सामंतवाद, जातिवाद का खुला संस्करण ही गाँव कहलाता था। कितना धूर्त, पर दिखाई तो कोमल देता था। जमींदारों का नंगा नाच आज भी हो रहा है, शेष जनता आज भी सामंती शोषण का शिकार हो रही है। नए आर्थिक ढाँचे ने नए संबंधों को जन्म दिया है पर सबके मूल में नफरत और अहंकार के सिवा कुछ भी तो नहीं है। गाँव के अच्छे होने की तस्वीरे केवल यूटोपिया है। शोषकों का गाँव आज भी आदर्श गाँव है, नंगई और भुखमरी आज भी वहां नंगा नाच रही है. अपनी कविता एक पूरी उम्रमें मलखान सिंह इसी ग्रामीण यथार्थ को रेखांकित करते हैं :


गाँव’ और भूखको अगर हमें करीब से देखना हो तो मलखान सिंह को पढना अनिवार्य हो जाता है: यकीन मानिए/ इस आदमखोर गाँव में / मुझे डर लगता है/ बहुत डर लगता है[x]

 

श्रम का सौन्दर्यबोध :


साहित्य में पुनः उन कैननों का निर्माण हो जिसे ब्राह्मणवादी संस्कृति ने नकारा और प्रतिकैननों का निर्माण किया। प्रतिरोध की आवाज के कारण लाखों लोगों को जिन्दा जला दिया गया है, लाखों लोगों को पशुवत क्रूरता का सामना करना पड़ा है, लाखो लोगों को अपना घर-परिवार छोड़कर निर्वासन में जिन्दगी जीने को मजबूर होना पड़ा है तब भी आवाज कहीं मंद या क्षीण नहीं पड़ी। जैसे-जैसे शोषण और दमन चला, आवाजें और बुलंद हुई। हिन्दू धार्मिक संस्थाओं द्वारा दलित बहुजन जातियों के ऊपर आध्यात्मिक, आर्थिक और शैक्षिक वंचना का परिणाम यह हुआ कि दलित बहुजन जातियां गोलबंद हुई और अपने शोषण और दमन के खिलाफ एक मुखर आवाज से वाकिफ हुई। गरीबों मजलूमों ने श्रम की महत्ता को समझा है। इसी श्रम को अंगीकार करते हुए मलखान सिंह अपनी कविता ‘सुनो ब्राह्मण’में सीधे ललकारते हैं-"


हमारे पसीने से / बू आती है तुम्हें / फिर ऐसा करो /एक दिन / अपनी जनानी को / हमारी जनानी के साथ/ मैला कमाने भेजो / तुम! मेरे साथ आओ/ चमड़ा पकाएंगे/ दोनों मिल बैठकर / मेरे बेटे के साथ / अपने बेटे को भेजो / दिहाड़ी की खोज में /और अपनी बिटिया को/ हमारी बिटिया के साथ / भेजो कटाई करने/ मुखिया के खेत में[xi]


     वीणा के स्वर केवल संवादी नहीं होते अपितु उनमें विवाद के स्वर भी सुनाई देते हैं वैसा ही मलखान सिंह को पढ़ते हुए कोई संवादी या विवादी हो सकता है। मलखान सिंह सरल रेखा नहीं खींचते हैं अपितु एक ऐसा आरेखण करते हैं जिसमें सर्वहारा मनुष्य का चित्र उभरता है जो जटिल से सरल की तरफ चलता है। अपनी कविता कैसा उदारवाद यहमें वह लिखते हैं :


‘’नगर के चौराहों पर / बिकने वालों की इतनी भीड़ है कि / पाँव रखने की जगह नहीं / गाँव बंजर हो गए हैं / हम सिमाने पर खड़े / पेट के भेड़िये से जूझ रहे हैं / और सत्ता से / खुद की गर्दन की मोटाई / छिपाने के लिए / मुफ्तखोर गर्दन को /प्रगति का पैमाना बना / घोषित कर रहे हैं कि / देश समृद्धि कर रहा है’’[xii]

 

प्रतिरोध का सौन्दर्यबोध :


दलित साहित्य की अंतर्चेतना में वेदना मूलक संघर्ष भाव की प्रधानता है। जो यातना से उपजी है। राजेंद्र यादव कहते हैं- साहित्य जिन तत्वों से अमर-स्थाईया सार्वभौमिकहोता है उनमें तीन मुझे सबसे प्रमुख लगते हैं- संघर्ष, यातना या सफरिंग और विजन[xiii]। राजेंद्र यादव का यह भी मानना है जो नया सौंदर्यशास्त्र बनेगा, वह संघर्ष से शुरू होगा, उस यातना से शुरू होगा, चाहे वह उसका रियलाइज करने अथवा उसकी आत्मा को, उसकी तकलीफ को, उसके भेदक रूप को समझने के रूप में हो, और उसके बाद बदलने की मानसिकता के रूप में हो, जिसे हम संघर्ष कर सकते हैं। तीसरा - एक स्वप्न के रूप में होगा, हमें करना क्या है? हमें समानांतर सौंदर्यशास्त्र देना है, वैकल्पिक समाज बनाना है, यह सारा संघर्ष साहित्य में भी है और समाज में भी। [xiv]दलित साहित्य में यह तीनों तत्व विद्यमान हैं। अंबेडकर दर्शन एवं विचार ने दलित साहित्य में संघर्षशीलता को तीव्रता दी है। 


 वर्ण व्यवस्था और भारतीय समाज व्यवस्था में दलितों पर जो अमानुषिक उत्पीड़न किया है उस यातना की निचली तह से उठकर ऊपर आने वाला दलित लेखक अपने भीतर जिस आग को अनुभव करता है वह कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। दलित साहित्य की दिशा और दृष्टि उसे जीवंत बनाती है। मलखान सिंह की कविता में यही सीधे प्रतिरोध के रूप में आता है। अपनी कविता सुनो ब्राह्मणमें वे ललकारते हैं :


“हमारी दासता का सफर / तुम्हारे जन्म से शुरू होता है / और इसका अंत भी / तुम्हारे अंत के साथ होगा”[xv]


कवि अपनी कविता कामरेडमें लिखता है कि :


“मौसम के गरमाते/ रेत के ढेर में घुसेड़ देते हैं गर्दन / निश्चिंत हो जाते हैं / कि अंधड़ जब आयेगा/ उन्हें छू भी नहीं पायेगा....../ लाल रथ के पहिये/ रेत में धंसे देख / झुंझलाते कामरेड/ कंठी के मनके/ गिनते बार-बार / एक दो तीन चार / एक दो तीन चार / संख्या सही पाते हैं”[xvi]

 

यातना, वेदना और बेचैनी :

यातना, वेदना और बेचैनी दलित साहित्य की अन्य विशेषताएं हैं। पारम्परिक साहित्य का स्थायीभाव आनंद है। आनंद का साहित्य ही श्रेष्ठ साहित्य है। जबकि अधिकांश दलित साहित्य यातना और वेदना का साहित्य है। सदियों के शोषण, दमन और अन्याय के तले पिसते हुए लोगों की यातना और उनकी वेदना को स्वर देने वाला साहित्य है दलित साहित्य। यह बेचैनी हमें सोचने पर विवश करती है और संघर्ष कि ओर प्रेरित करती है :


‘’पेट का दर्द/ जब पीठ को रुलाता है/ बेहूदा मौसम / हमारी अस्मिता को /गाँव की गलियों में / नंगा घुमाता है तब/ आँखों में चुभती है विरासत / सामने मसखरी करते/ भेड़िये की गर्दन पकड़ने को हाथ मचल-मचल जाता है.’’[xvii]


 महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने दो कदम आगे बढ़कर इस व्यवस्था को खत्म करने के लिए एक नई सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना की उन्होंने साफ साफ कहा कि सभी मनुष्य बराबर हैं और जाति अथवा जन्म के आधार पर उनमें कोई मौलिक भिन्नताएं नहीं है। देवेन्द्र चौबे ने कोट करते हुए लिखा है कि :


            ना जच्चा वसलो होति,  ना जच्चा होति ब्राह्मणों !कम्मना ही वसलो होती कम्मना होति ब्राह्मणों !!


अर्थात जन्म से ना कोई शूद्र होता है ना जन्म से कोई ब्राह्मण। कर्म से ही शूद्र होता है और कर्म से ही ब्राह्मण.[xviii]

 

अपनी कविता भूखमें वे अपना आक्रोश कुछ इस तरह से व्यक्त करते हैं :


भूख! आँख खुलते ही तुझे/ चौखट पर बैठे देखा / देखा है कि तुझे/ आँगन में पसरा देख / मेरी माँ फूट-फूट कर रोई है / भूख ! तेरे आका का हाथ.....जगन्नाथ / हमारा हाथ कुत्ते का गू / भूख तेरे आका का पाँव ....अंगद पाँव / हमारा पाँव फटा बांस / भूख ! तेरे आका की बात....हरिचंद / हमारी बात मूसलचंद / भूख ! तेरे आका का बेटा .....राजा बेटा / हमारा बेटा किस्मत का हेठा[xix]

 

मलखान सिंह की कविता का शिल्प :


दलित कविता का प्रस्थान बिंदु ही है समता के लिए संघर्ष की चेतना की अभिव्यक्ति। इसीलिए उसका सौंदर्यशास्त्र संघर्ष को स्वीकार करता है और कहता है कि जिस साहित्य में आत्मा-परमात्मा, अध्यात्म, नीति, श्रृंगार जैसा विषय रहा हो उस साहित्य का सौंदर्यशास्त्र दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र नहीं हो सकता। इस साहित्य का नायक अछूत एकदम नीच आदमी है। इस नायक को न्याय देने के लिए संस्कृत या अंग्रेजी साहित्य शास्त्र पर्याप्त नहीं होगा। शरण कुमार लिम्बाले लिखते हैं : ‘’समाज बदल रहा है साहित्य बदल रहा है। वैसे ही साहित्यशास्त्र बदलना चाहिए। इस आदमी को न्याय देने के लिए एक अलग सौंदर्यशास्त्र की जरूरत है। दलित वर्ग सदियों से न्याय से वंचित रहा है। कोई साहित्यशास्त्र इस बात को उस तरह नहीं व्यक्त करता जिस तरह दलित चाहते हैं। ऐसे में उनकी मांग वाजिब है। सौंदर्यशास्त्र का स्वरूप क्या होगा यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है’’[xx]मलखान सिंह की कविता कलावाद का विरोध करती है कला का नहीं। इसे ना समझ पाने के कारण कुछ लोग दलित कविता पर कला हीनता का आरोप लगाते हैं जो सही नहीं है। शरण कुमार लिंबाले का कहना है कि :‘’जो प्रस्थापित सौंदर्यशास्त्र है वह आनंद पर आधारित है। किताब पढ़ने के बाद पाठक को कितना आनंद होगा यह उस आनंद को महत्व देता है। हम आनंद को महत्व नहीं देते हैं मेरी कलाकृति पढ़कर आपको आनंद हुआ आप बोलने लगे कि मेरी कलाकृति अच्छी है तो हमको संताप होता है। आनंद के लिए महफिल लगती है पर स्वतंत्रता के लिए होने वाली क्रांति के लिए महफिल नहीं लगती। इसलिए जो कलाकृति स्वतंत्रता की प्रेरणा दें वही सुंदर है। दलित साहित्य के सौंदर्य शास्त्र का आधार यही हो सकता है.[xxi]विचारधारा अथवा व्यवस्था कभी भी अपने आप में पूर्ण नहीं होती है। परिवर्तन अथवा विकास की प्रक्रिया में या तो उसमें सुधार होता है अथवा संशोधन। नहीं तो वह नष्ट हो जाती हैं या हाशिये पर चली जाती है। कई बार इस प्रक्रिया में कुछ छोटे और कुछ बड़े संघर्ष भी शामिल होते हैं। चाहे वह राजनीतिक हो अथवा सामाजिक यह संघर्ष ही समकालीन परिस्थितियों में प्रचलित विचारधाराओं अथवा व्यवस्थाओं का मूल्यांकन करते हुए उनकी अवधि तय करते हैं।


मिथकों का नया प्रयोग :


पौराणिक ऐतिहासिक मिथकों को दलित साहित्य ने खूब प्रयोग किया है। मनुष्य और प्रकृति, भाषा और संवेदना का गहरा रिश्ता है, जिसे दलित कविता ने अपने गहरे सरोकारों के साथ जोडा है। जिस विषमतामूलक समाज में एक दलित संघर्षरत हैं, वहां मनुष्य की मनुष्यता की बात करना अकल्पनीय लगता है। इसी लिए सामाजिकता में समताभाव को मानवीय पक्ष में परिवर्तित करना दलित कविता की आंतरिक अनुभूति है, जिसे अभिव्यक्त करने में गहन वेदना से गुजरना पडता है। भारतीय जीवन का सांस्कृतिक पक्ष दलित को उसके भीतर हीनता बोध पैदा करते रहने में ही अपना श्रेष्ठत्व पाता है। लेकिन एक दलित के लिए यह श्रेष्ठत्व दासता और गुलामी का प्रतीक है.मलखान सिंह कीआखिरी जंगकविता में ईश्वर केवल मिथक के रूप में व्यक्त हुआ है :


‘’ओ परमेश्वर ! / कितनी पशुता से रौंदा है हमें / तेरे इतिहास ने / देख, हमारे चेहरों को देख / भूख की मार के निशान/ साफ़ दिखाई देंगे तुझे’’[xxii]


 मलखान सिंह एकलव्यके बहाने उस मिथक को पुनः जीवित करते हैं जिनके कारन योग्य दलितों को उन्हें अपना अधिकार नहीं मिल पाता और राज्यसत्ता उन्हें नष्ट करने का कोई कोर-कसर बाकी भी नहीं लगाती है। यह कविता आज भी सार्थक लगती है क्योंकि इक्कीसवीं सदी का होनहार दलित रोहित वेमुलाभी इन्हीं गुरुओं के षड्यंत्रों और हत्याओं का शिकार होता है। मलखान सिंह अपनी कविता में लिखते हैं :


“हम जब भी / तेरे क़दमों में सर रखने की सोचते हैं / तेरी धरती में गड़ा स्थूल लिंग / अग्रज एकलव्य का कटा अंगूठा / प्रतीत होता है हमें”[xxiii]


 मलखान सिंह की कविता के बिम्ब :


बिम्ब वह शब्द चित्र है जो ऐन्द्रिक अनुभवों के आधार पर निर्मित होता है। यह तथ्य है कि शब्द की अपेक्षा बिम्ब अधिक सन्दर्भ सापेक्ष होता है, क्योंकि वह यथार्थ का एक सार्थक टुकड़ा होता है। वह अपने ध्वनियों और संकेतों से भाषा को अधिक संवेदनशील और सार्थक बनाता है। कोष में नहीं, जीवन और इतिहास में उसका अर्थ निहित होता है। मलखान सिंह अपनी कविता में साढ़ेतीन हाथ लम्बी नाक का अद्भुत बिम्ब प्रस्तुत करते हैं :


“महज इत्तेफाक नही हैं यह / महज इत्तेफाक नही है यह / कि सदियों से वे / साढ़े तीन हाथ लंबी नाक के लिए / अवतरित होते हैं /हम पैदा होते है नकटे / नकटे ही मर जाते हैं/ कि हमारी धोती / घुटने नही ढक पाती हमारी /उनकी धोती / अंगुठा चूमती है पैर का / तर्जनी में झूमती है।” [xxiv]


 जाहिर है कि गोरे लोगों के सौन्दर्य के प्रतिमान काले लोगों के सौन्दर्य के प्रतिमान कतई नहीं हो सकते ठीक वैसे ही खाए-पिए अघाये लोगों के प्रतिमान भूखे, नंगे, दूखे लोगों के प्रतिमान कभी नहीं होंगे। इसी तरह से वह पीताम्बरी ओढ़े सियारों का बिम्ब देते हैं :


आखिर कब तक / कैसी लीला है परमेश्वर की / कि जब-जब बसंत के फूल / हमारे आँगन में खिलते हैं/ स्वर बदल जाते हैं भोपुओं के / आदमखोर भेड़िये की गुर्राहटें / बिगडैल साड़ों की हुंकारें / “पीताम्बरी ओढ़े सियारों की / खतरनाक दखलंदाजी / स्वरों को और भी / मारक बना देती है”[xxv]

 

मलखान सिंह की कविता में बेर के रूप में देह का बिम्ब कितना सार्थक है। वे लिखते हैं

“हाथ सुन्न/ पाँव सुन्न /देह बेर सी कंपकंपा रही है”[xxvi]

 

मलखान सिंह की कविता के प्रतीक :


भारत जैसे जातिवादी समाज में जब अस्मिताकामी विमर्श उभर कर सामने आये तो यह बात प्रमुखता से उभरी कि उसका अपना एक स्वतंत्र सौंदर्यशास्त्र होना चाहिए। हमने पश्चिम के सौंदर्यशास्त्र को जैसे-तैसे अपनाने की कोशिश तो की पर उसे भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में ठीक ढंग से लागू नहीं कर पाए क्योंकि भारतीय साहित्य या हिंदी पट्टी के साहित्य का स्वभाव बिलकुल अलग था। पहले उसे भारतीय दर्शनों के मायाचार में लपेटकर सिद्धावस्था, साधनावस्था, और भावयोग तक लाया गया फिर उसे अभिजन रुचियों के आधार पर ढाल देने का काम यहाँ के चतुर ज्ञानियों ने किया। वर्ण व्यवस्था और संस्कृत काव्यशास्त्र से उपजे साहित्यिक मूल्यों ने साहित्य को एक संकीर्ण दायरे में लाकर सीमित कर दिया। उन्हीं मानदंडों के आधार पर कबीर जैसे पढ़े लिखे व्यक्ति को अनपढ़ कहने की प्रवृत्ति से कौन परिचित नहीं है’.


महज इत्तेफाक नहीं यह/ कि सदियों से वे : साढ़े तीन हाथ लम्बी नाक लिए/ अवतरित होते हैं / हम पैदा होते हैं नकटे/ नकटे ही मर जाते हैं


 मदान्ध हाथीका ब्राह्मणवादी प्रतीक कितना सटीक है :


मदान्ध हाथी-/ लदमद भाग रहा है/ हमारे बदन/ गाँव की कंकरीली /गलियों में घिसटते हुए /लहूलुहान हो रहे हैं/ हम रो रहे हैं/ गिड़गिड़ा रहे हैं/ ज़िन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं/ गाँव तमाशा देख रहा है/ और हाथी/ अपने खम्भे जैसे पैरों से/ हमारी पसलियाँ कुचल रहा है/ मवेशियों को रौंद रहा है/ झोपड़ियाँ जला रहा है/ गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर/ बंदूक दाय रहा है और हमारे/ दुध-मुँहे बच्चों को/ लाल-लपलपाती लपटों में/ उछाल रहा है।


 पूस का एक दिन कविता में कवि मूछोंको सामंतवाद के आयतन के रूप में स्वीकृत करता है। कविता दृष्टव्य है :

“सामने अलाव पर / मेरे लोग देह सेंक रहे हैं / पास ही घुटनों तक कोट / हाथ में छड़ी / मुंह में चुरट लगाये खड़ीं / मूछें बतिया रही हैं / मूंछे गुर्रा रही हैं / मूंछे मुस्किया रही हैं/ मूछें मार रही हैं डींग / हमारी टूटी हुई किवाड़ों से/ लुच्चई कर रही हैं / शीत ढह रहा है / मेरी कनपटियाँ / आग सी तप रही हैं”[xxvii]

 

भाषा का सवाल :


संस्कृति का मूलाधार भाषा है। भाषा का मानव समाज और संकृति का नाभिनाल सम्बन्ध है। भाषा में ही संस्कृति की अभिव्यक्ति को देखा जा सकता है। किसी भी समाज और संस्कृति को समझने के लिए उसकी भाषा का अध्ययन बहुत जरुरी हो जाता है। जैसा कि मैलिनोवास्की ने लिखा था- भाषा से एक संस्कृति के कई रहस्यों के बारे में पता चल सकता है। भाषा किसी की मानसिकता प्रकट करने का माध्यम होती है। दलित कविता की भाषा पर लगातार सवाल उठाये जाते हैं। दलित साहित्य की भाषाई अस्मिता पर लगातार प्रश्नों की बरसात होती है। उसकी गुणवत्ता पर लगातार सवाल उठाये जाते हैं। इसका जबाब देते हुए हिंदी के विद्रोही रचनाकार मुद्राराक्षस लिखते हैं कि वस्तुतः साहित्य में जिस गुणवत्ता की बात की जाती है वे कभी शाश्वत रहे ही नहीं। दरअसल कोई भी नया कथ्य अपने पूर्व की विचार परम्परा से विद्रोह करता है। एक सीमा तक उसकी परपरा को तोड़ता और नए मूल्यों को स्थापित करता है।


“ओ ! चमट्टे / ओ! चूहड़े / धोबडे-खटिकरे, जुल्हट्टे /कुमहट्टे, नउअट्टे, लुहट्टे / लोधडे, कछ्ट्टे, मलहट्टे

तेली, तमोली, भिश्ती, सक्के / बजूद को हिला देने वाले स्वर / दूर तक पीछा करते हैं  / और हम

नाक की सीध में / सधे पाँव / सधी साँस / ऐसे बढे चलते हैं / जैसे टोपी हमारी नहीं

दूसरे की उछाली जा रही है”[xxviii]

 

कबीर ने यही किया। उन्होंने जिस भाषा का आविष्कार किया था, वह देश के बहुसंख्यक गैर साहित्यिक समाज के बोध की भाषा थी। गद्यात्मक और सपाटबयानी का आरोप तो दलित कविता का श्रृंगार बन चुका है। जरूरत है वह समय के तनाव को कैसे रेखांकित कर पाती है। मलखान सिंह लिखते हैं :

“पास ही मेढ़ पर खड़ी/ ठकुराईसी मूंछे/ हाथ में चुर्रट / घुटनों तक गर्म कोट/ बिनोवा कैप चढ़ाये  / साला कमीन कौम/ साला हरामखोर / साला, कामचोर कह / रह-रह गरिया रही है”[xxix]

 

भाषाई क्षेत्रीयता :


दलित साहित्य ने संस्कृत साहित्य एवं काव्यशास्त्र की परम्परा को नकारकर नए भावभंगिमा और भाषा के माध्यम से खुद को स्थापित किया है। यहाँ स्वाभाविक है कि दलित कविता की भाषा का स्वरूप भी परम्परागत आभिजात्य संस्कारों से अलग हो। हालाँकि आज की दलित कवितायें मुख्यधारा की कविताओं से कहीं भी कमतर नहीं है। महज इत्तेफाक नहीं है यहकविता में कवि मलखान सिंह के लोक का आस्वाद लिया जा सकता है:


“कि हमारे सिर नंगे हैं/ हमारे पैर नंगे हैं /वे रोज जूता बदलते हैं/सर पर मुंडासा बाँध / चौधराहट पेलते हैं/कि लम्पट हैं वे / लफंगई करते हैं / हवेलियों में रहते हैं / आँखों के अंधे हम / उम्र भर लद्दूवने / छत को तरसते हैं।’’[xxx]


 या जब कवि लिखता है :


“दूर सिमाने पर/ फटा सलूका/ घुटनों तक धोती/ अंगोछा कान से लपेटे /ताऊ भूड़ भर रहा है/ शीत जा धँसा है हड्डियों में / हाथ सुन्न/ पाँव सुन्न / फावड़ा उँगलियों की पकड़ से बार-बार छूट रहा है”[xxxi]

 

निष्कर्ष :

दलित सौंदर्यशास्त्र का विकास दलित समाज, उसकी चेतना, संस्कृति, विचारधारा और सौंदर्यशास्त्र के विकास पर निर्भर है जो एक लंबी प्रक्रिया में होगा। दलित चेतना और दलित सौंदर्यशास्त्र एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं फिर भी विश्व साहित्य की कुछ मूलभूत संरचनाएं होती हैं इनका पालन सभी प्रकार के साहित्य को करना ही पड़ता है। प्रामाणिक अनुभूति का सवाल कोई नया नहीं है इसलिए दलित साहित्य के साथ काव्यशास्त्र के विवेचन में देखना होगा कि उसमें नया क्या है जो पहले नहीं था.इस आलेख में मलखान सिंह की कविताओं के सहारे दलित साहित्य के सौन्दर्यबोध को रेखांकित करने का प्रयास है। मलखान सिंह ने समता, बंधुता, न्याय के सहारे वैज्ञानिक साहित्य को रचने की वकालत की और अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रचलित सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्यों को चुनौती देकर सौन्दर्य के नए प्रतिमान स्थापित किये।                                                                               


सन्दर्भ -

[i]शरणकुमार लिम्बाले : दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृष्ठ 116

[ii] देवेन्द्र चौबे:  आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श,  भूमिका,  पृष्ठ VII

[iii]मलखान सिंह : ज्वालामुखी के मुहाने, रश्मि प्रकाशन, 2019, पृष्ठ 42

[iv]वही, पृष्ठ-38

[v]वही, पृष्ठ 17-18

[vi]वही, पृष्ठ 61

[vii]ओमप्रकाश वाल्मीकि : दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रपृष्ठ 48

[viii] मलखान सिंह : ज्वालामुखी के मुहाने, रश्मि प्रकाशन, 2019, पृष्ठ 14

[ix]वही, पृष्ठ 16

[x]वही,2019, पृष्ठ 72

[xi]वही, पृष्ठ 108

[xii]वही, पृष्ठ 16

[xiii]ओमप्रकाश वाल्मीकि : दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रपृष्ठ 48

[xiv]वही, पृष्ठ 49

[xv]मलखान सिंह : ज्वालामुखी के मुहाने, रश्मि प्रकाशन, 2019, पृष्ठ 107

[xvi]वही, पृष्ठ 40

[xvii]वही, पृष्ठ26

[xviii]देवेन्द्र चौबे : आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, भूमिका, पृष्ठ VIII

[xix]मलखान सिंह:ज्वालामुखी के मुहाने, रश्मि प्रकाशन, 2019,  पृष्ठ 85

[xx]शरण कुमार लिंबाले : उत्तर प्रदेश, दलित साहित्य विशेषांक, पृष्ठ 162        

[xxi] बाबुराव बागुल :वसुधा-58, पृष्ठ 39

[xxii]मलखान सिंह : ज्वालामुखी के मुहाने, रश्मि प्रकाशन, 2019, पृष्ठ 88

[xxiii]वही, पृष्ठ 89

[xxiv]वही, पृष्ठ 24

[xxv]वही, पृष्ठ 17

[xxvi]वही, पृष्ठ 44

[xxvii]वही, पृष्ठ 81

[xxviii]वही, पृष्ठ 17-18

[xxix]वही, पृष्ठ 46

[xxx]वही, पृष्ठ 25

[xxxi]वही, पृष्ठ 46

 डॉ. रविता कुमारी 

174, एपी कोलोनी, गया

Karmam1984@gmail.com

8279665636

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021

चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

        UGC Care Listed Issue

'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' 

( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

Post a Comment

और नया पुराने