आकर्षण की इस फिसलपट्टी पर उतरते पाठक को अपनी ओर लाने के लिए लेखक को अधिक श्रम करना होगा

  • पाठक से कहानी को जोड़ती आलोचना
  • डॉ.राजेश चौधरी
    ये मूल रूप से जनसत्ता समाचार पत्र में 26 अगस्त,2012 को  6 न. पेज पर छ्प चुकी है इसे यहाँ  पाठक हित में चस्पा कर रहे हैं।-सम्पादक 
पल्लव
युवा आलोचक और 'बनास जन' पत्रिका के सम्पादक हैं.
वर्तमान में हिंदी विभाग,हिन्दू कोलेज में सहायक आचार्य हैं.
मूल रूप से चित्तौड़ के हैं ,अब दिल्ली जा बसे हैं.
उनका पता है.
फ्लेट . 393 डी.डी..
ब्लाक सी एंड डी
कनिष्क अपार्टमेन्ट
शालीमार बाग़
नई दिल्ली-110088
 मेल pallavkidak@gmail.com









कहानी का लोकतंत्र
पल्लव, 
आधार प्रकाशन, 
पंचकूला (हरियाणा) 
प्र.सं.2011, पृ. 168, 
मूल्य- 250/-रु.


राजनीतिक शब्दावली से लिए गए ‘लोकतंत्र’ शब्द का प्रयोग जब साहित्य-क्षेत्र में हो तो ध्यानाकर्षण के साथ ही उसका कारण जानने की जिज्ञासा भी बलवती हो उठती है। ‘कहानी का लोकतंत्र’ की लोकतांत्रिकता बहुस्तरीय है। एक तो भौगोलिक-भाषाई विस्तार विस्तार की दृष्टि से कि पल्लव ने राजस्थान निवासी होने के बावजूद अन्य हिन्दी प्रदेशों के कथाकारों के साथ-साथ अहिन्दी क्षेत्रों व हिन्दीतर भाषाओं यथा गुजराती, उर्दू, तेलगु के कथाकारों को समीक्षा में सम्मिलित में किया है। दूसरे-चयनित कहानियों का विषय-वैविध्य है, जिसमें ग्रामीण-संवेदना की कहानियों-बक्खड़ (चरणसिंह पथिक), सितम्बर में शत (सत्यनारायण) से लेकर उदारीकरण। बाजारीकरण के कुप्रभाव को दर्शाती कहानियाँ भी हैं, स्त्री और दलित भी हैं। तीसरे-पल्लव प्रेमचन्द, अमरकांत, रमेश उपाध्याय, स्वयंप्रकाश से होते हुए युवतम कथाकार अभिषेक कश्यप की कहानियों तक पहुँचे हैं। चौथे-पल्लव ने रचनाओं की अन्तर्वस्तु का ही उद्घाटन नहीं किया अपितु उसे पाठक तक पहुँचाने वाले शिल्प पर भी खासा ध्यान दिया है। यहाँ तक कि एक स्वतंत्र अध्याय ‘पाठकीय भागीदारी का आह्वान करती कहानी’ इसी पर केन्द्रित है।

पाठक होने की हैसियत से यदि मैं इस किताब के लेखों का क्रय निर्धारण करूँ तो सबसे पहले ‘पाठकीय भागीदारी’ को रखुँगा। पल्लव ने इसमें प्रेमचंद की शिल्पगत रोचकता को सराहते हुए यह ठीक कहा है कि आज के कथा-लेखक के समक्ष पाठक जुटाने/बनाए रखने की चुनौती प्रेमचंद की तुलना में अधिक कठिन है क्योंकि आज पाठक को अपनी ओर खींचने वाला, उसका समय चुराने वाला टी.वी भी है। जोड़ना चाहिए कि कम्प्यूटर, इंटरनेट की दुनिया भी है। आकर्षण की इस फिसलपट्टी पर उतरते पाठक को अपनी ओर लाने के लिए लेखक को अधिक श्रम करना होगा लेकिन यह क्यों भूला जाय कि प्रेमचंद के जमाने में टी.वी. भले न हो, अशिक्षा और अल्पशिक्षा तो थी ही तब भी प्रेमचन्द के जमाने में उनकी किताबों पर पाए जाने वाले हल्दी और अचार के निशान उसकी पाठकीय सफलता, उनके अपेक्षाकृत व्यापक पाठक संसार की गवाही हैं ही। ऐसे और इतने पाठक जुटा लेना आज के कहानीकार के लिए भी संभव होना चाहिए। इसी संदर्भ में पल्लव ने रमेश उपाध्याय, स्वयंप्रकाश, उदप्रकाश, रघुनंदन त्रिवेदी की प्रश्न करती, पाठक-संबोधित कहानियों को उदाहरण रूप में रखा है।

पल्लव को कहानी में विचारधारा की उपस्थिति से परहेज नहीं है पर कहानी में उसका आत्मसातीकरण होना चाहिए। उसकी अनुपस्थिति या उसकी फार्मूले के रूप में उपस्थिति, दोनों ही गैर जिम्मेदाराना रूख को दर्शाती हैं। पल्लव की कथा संबंधी कसौटी यही है और कहना होगा कि प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रेमचन्द उनके मन में हैं तभी सत्यनारायण पटेल की ‘पनही’ के पात्र बौंदा बा का मिलान प्रेमचन्द के हल्कू से करते हैं तो पाठकीय भागीदारी के संदर्भ में भी प्रेमचंद याद आते हैं और पुस्तक का अन्तिम लेख ‘कफनः एक पुनर्पाठ’ तो प्रेमचंद की ओर से कुपाठ करने वाले दलितवाद को दिया गया समुचित उत्तर है ही।

ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों के प्रसंग में पल्लव ने दलित लेखन से जुड़ा एक सवाल-सहानुभूति बनाय स्वानुभूति उठाते हुए दलित रचनाकारों की मुक्त यथार्थ से उपजी रचनाओं की अधिक विश्वसनीय पाया है पर यहीं पर उनसे अपेक्षा थी कि वे दलित रचनाओं में सर्वत्र और निरन्तर छाए सवर्ण विरोध। प्रतिशोध भाव के औचित्य को लेकर भी सवाल उठाते। यह सही है कि वर्ण और जाति की संरचना अधिकांशतः भेदभावमूलक एवं त्रासद रही है पर कहीं-कहीं स्वयं सवर्णों ने भी इसकी खिलाफत की है-जैसे कि बुद्ध के प्रथम ग्यारह शिष्यों में पाँच ब्राह्मणों का शामिल होना। क्या समरसता की इस क्ष्ज्ञीण ही सही पर उपलब्ध धारा को दलित-लेखन में स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए?

‘तय था हत्या होगी’, ‘बैल, किसान और कहानी’ नवउदारवाद, बाजारवाद, उपभोक्तावाद की भारतीय कृषक जीवन में दुखद परिणति को लक्ष्य करती कहानियों पर दृष्टिपात हैं यह चयन संभावनाशील आलोचक पल्लव की संवेदशीलता तो है ही साथ ही बदलते यथार्थ को पकड़ने की चेष्टा भी कि किसानों की आत्महत्या का एक कारण ‘‘ग्रामीण जीवन में धन की गैरजरूरी कृत्रिम भूख’’ (पृ.39) है। उन्होंने महेश कटारे के ‘छछिया भर छाछ’ कहानी-संग्रह के संदर्भ में यह देखा है कि किसान-आत्महत्या उपभोक्तावाद-जनित लालच की दुर्घटना है और किसान सर्वत्र प्रेमचंद वाला किसान नहीं रह गया है।

पल्लव ने चरणसिंह पथिक, अभिषेक कश्यप, भगवानदास मोरवाल जैसे अल्पचर्चित किंतु चर्चायोग्य कथाकारों का उचित मूल्यांकन किया है। पथिक की ग्राम केंद्रित कहानियाँ के संदर्भ में यह टिप्पणी अर्थवान है कि ‘‘ऐसी कहानियाँ गाँव को सैलानी भाव से देखते हुए नहीं लिखी जा सकती।’’ दरअसल गाँव के प्रति रोमानी भाव और उसकी फोटोग्राफी तथा गाँव के खुरदुरेपन को जीना, दोनों अलग-अलग बातें है। पथिक की ‘बक्खड़’ कहानी नाते चली गई स्त्री को पूर्वसंतान की समाज में एक अलग-अटपटी पहचान को लेकर है। क्या अस्थायी वैवाहिक जीवन, तलाक, जिसे कि स्त्रीवाद, स्त्री-अधिकार के रूप में प्रतिष्ठित करता है; को यह कहानी प्रश्नांकित नहीं करती? इस बक्खड़ को मन्नु भंडारी के आपका बंटी उपन्यास के बंटी से मिलाकर देखा जा सकता है।
‘शहर में आ गए कथाकारों’ शीर्षक की व्यंजना गहरी है कि शहर आना कथाकारों की मजबूरी है और गाँव उनकी रचनाओं का प्राण है। इसके अन्तर्गत भगवानदास मोरवाल की कहानी ‘सौदा’ को परखते हुए पल्लव ने कहानी में मौजूद आर्थिक विपन्नता के बरक्स कारपोरेट सेक्टर में बट से लाखों के वेतन पर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। देखा जाय तो सौदा कहानी में मौजूद आर्थिक विपन्नता का मूल कारण इस सेक्टर की अतिशय सम्पन्नता है। यहीं पर छठे वेतन आयोग के फलस्वरूप सरकारी क्षेत्र में मौजूद भारी-भरकम वेतन को भी प्रश्नांकित करते हुए सरकार की नीयत पर सवाल उठाना चाहिए।

पल्लव की आलोचना कथारस का आस्वादन करते हुए मानवीय पक्षधरता के साथ कहानी के सुख-दुख में डुबते हुए लिखी हुई आलोचना है। विजेन्द्र अनिल की ‘बैल’ कहानी में जो उत्सव कहानी के किसान के यहाँ है वही पल्लव के मन में भी है-‘‘बैल का आना किसान के घर में कैसा उत्सव है-जरा देखिये (पृ.49) उत्सव है तो पल्लव के मन में क्षोम भी है। रचना सत्य और रचनाकार-व्यक्तित्व में फाँक हो तो कचोट पैदा होती है। रचना में आई प्रतिबद्धता रचनाकार के जीवन में न हो तो उन्हें बुरा लगता है। चित्रा मुद्गल की ‘लपटें’ कहानी के संदर्भ में पल्लव का सवाल सटीक है कि ‘‘यदि लोकसेना (शिवसेना) का उभार इतना भयानक है कि चित्राजी कहानी लिखने को मजबूर हैं तो उनकी पक्षधरता इन्हीं ताकतों के साथ क्यों है?’’ (पृ. 70)

यह आलोचना-पुस्तक पल्लव की अध्ययनशीलता और स्मृति का परिणाम है। आश्वस्त करने वाली सूक्ष्म दृष्टि उनके पास है। सुधा अरोड़ा की कहानियों के संदर्भ में उनकी टिप्पणी ‘स्त्रीलेखन के दायरे में नहीं बल्कि स्त्री के देखे जाने से विश्वसनीय .....’ या वोल्गा की कथा-चर्चा में यह कहना कि ‘सर्वत्र स्त्री पीड़ा समान है अतः भारत एक है’-प्रमाण के लिए पर्याप्त है।

डॉ. राजेश चौधरी
व्याख्याता-हिन्दी,महाराणा प्रताप राजकीय महाविद्यालय,
चित्तौड़गढ़.
ईमेल:-sumitra.kanu@gmail.com
मोबाईल नंबर-9461068958

Post a Comment

और नया पुराने