शोध:कविता और सौन्दर्य का रिश्ता/अरुण प्रसाद रजक

            साहित्य-संस्कृति की त्रैमासिक ई-पत्रिका           
'अपनी माटी'
          वर्ष-2 ,अंक-15 ,जुलाई-सितम्बर,2014                       
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चित्रांकन:उत्तमराव क्षीरसागर,बालाघाट 
सौन्दर्य का अनुभव कब होता है? मुक्तिबोध कहते हैं— ‘‘किसी वस्तु, दृश्य या भाव से मनुष्य जब एकाकार हो जाता है तब सौन्दर्यबोध होता है।’’1 ऐसे सौन्दर्य- विशेष, दृश्य- विशेष या भाव- विशेष का गुण आनन्ददायी होता है। कविता ऐसी ही सौन्दर्य की वस्तु है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं— ‘‘कवि की दृष्टिï तो सौन्दर्य की ओर जाती है, चाहे वह जहां हो वस्तुओं के रूप रंग में अथवा मनुष्यों के मन, वचन और कर्म में।’’2 

वैसे काव्य का सौन्दर्य भाव और अभिव्यक्ति को लेकर होता है और वह सौन्दर्य कवि की सर्जनात्मक शक्ति के ऊपर भी निर्भर करता है। भाव- वैशिष्टïय से जो सौन्दर्य उत्पन्न होता है, वह भावगत सौन्दर्य होता है और कवि द्वारा अपनाया गया शब्द अथवा शिल्प जिस सौन्दर्य का निर्माण करता है, वह कलागत सौन्दर्य कहलाता है। इसे हम अभिव्यंजनागत सौन्दर्य भी कहते हैं। भावगत सौन्दर्य और अभिव्यंजनागत सौन्दर्य की एकता ही कविता में सत्य और सौन्दर्य की एकता कहलाती है। ध्यातव्य है कि कविता में रूप और अंतर्वस्तु अभिन्न होते हैं। वस्तु किसी न किसी रूप में ही व्यक्त होती है इसलिए वस्तु ही रूप का निर्णायक एवं नियामक तत्व है। लेकिन शासक वर्ग जब अपने सिंहासन को खतरे में देखता है, तभी वह वस्तु- तत्व की उपेक्षा कर रूप- तत्व को प्राथमिक बताने लगता है। पूँजीवादी सभ्यता के समर्थक एवं प्रगतिशीलता के विरोधी विचारक रूप को वस्तु से अलगा कर  ‘कला कला के लिए’ प्रचार करते हैं।

भाववादी सौन्दर्यशास्त्री डॉ. कुमार विमल ने कविता के सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन में कला की आँख से साहित्य और साहित्य की आँख से कला को देखने पर जोर दिया है। उनकी धारणा है— ‘‘कविता के सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन की आवश्यकता और औचित्य को प्रतिपादित करने का मुख्य आधार है ललितकलाओं का तात्विक अंर्तसम्बन्ध। इस तात्विक अंर्तसम्बन्ध पर गंभीरतापूर्वक विचार करने से यह प्रतीत होता है कि शैली, शिल्प, अभिव्यक्ति- भंगिमा और प्रेषणीयता के माध्यम की दृष्टिï से सभी कलाओं में चाहे जितनी भिन्नता हों; किन्तु तत्त्व समास की दृष्टिï से सभी कलाएँ समान हैं और इनमें एक तात्त्विक अंर्तसम्बन्ध अनिवार्य रूप से विद्यमान रहता है।’’3 

यहां सौन्दर्यशास्त्र के तत्वों की कल्पना, ललितकलाओं के अंर्तसम्बन्धी के आधार पर की गयी है। भाववादी कला- चिंतकों की यह सीमा है कि वह सौन्दर्यबोध और जीवनबोध के द्वंद्वात्मक सम्बन्ध को अनदेखा करते हैं। सौन्दर्यशास्त्र कलावस्तु की आवयविक समग्रता को मान देता है, उपादानों के समायोजन को नहीं। सौन्दर्यचेतना का वास्तविक स्रोत जनजीवन या लोकजीवन है जो अपनी प्रकृति में वैविध्यपूर्ण एवं बहुस्पर्शी है। मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है, उसका सारा ज्ञान लोकबद्ध है। अत: उसकी सौन्दर्य सम्बन्धी धारणा भी लोकबद्ध ही होगी। मुक्तिबोध कहते हैं— ‘‘सौन्दर्यानुभव के तत्व जीवन द्वारा प्रदत होते हैं।’’4 

वे सौन्दर्यानुभूति और जीवनानुभव के द्वंद्वात्मक सम्बन्ध के परिप्रेक्ष्य में लिखते हैं— ‘‘सौन्दर्यानुभूति उच्चतर स्तर पर, अधिक उदात्त स्तर पर, जीवनानुभूति का ही एक रूप है, जीवनानुभवों का ही वह एक कल्पनोद्भासित पुन: अनुभव है। उसमें जीवनानुभवों का पुन: सृजन होता है, संवेदनापूर्ण कल्पना द्वारा।’’5 

कविता में जीवन के अनुभव का उदात्त रूप देखने को मिलता है। जीवनानुभूति उदात्तीकृत होकर कल्पनाओं के प्रकाश में पुन: अनुभव की प्रक्रिया में ढलकर सौन्दर्यानुभूति के रूप में कविता प्रस्तुत होती है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कविता में सौन्दर्य की भावभूमि पर विचार करते हुए लिखा है— ‘‘कविता केवल वस्तुओं के ही रूप रंग में सौन्दर्य की छटा नहीं दिखाती, प्रत्युत कर्म और मनोवृत्ति के सौन्दर्य के भी अत्यन्त मार्मिक दृश्य सामने रखती है। वह जिस प्रकार विकसित कमल, रमणी के मुखमण्डल आदि का सौन्दर्य मन में लाती है, उसी प्रकार उदारता, वीरता, प्यार, दया, प्रेमोत्कर्ष इत्यादि कर्मों और मनोवृत्तियों का सौन्दर्य भी मन में लाती है।’’6 

यह कर्म और मनोवृत्ति मनुष्य के जीवन- अनुभूति का वह मार्मिक हिस्सा है, जो उदात्त रूप में कविता में उजागर होती है। उदात्त जीवनानुभव के आलोक में ही कवि अपनी सौन्दर्य- दृष्टिï को ईजाद करता है।कविता जब सत्य का बखान करती है तो वह आशा- आकांक्षा, दु:स्वप्न, अवसाद, वीभत्सता, पीड़ा और हाइपर रियालटी को भी सुन्दर बनाकर प्रस्तुत करती है। उदात्त भावों में सौन्दर्यतत्व रहते ही हैं क्योंकि सुन्दर और उदात्त भावनाओं में हमारी प्रवृत्ति होती है। वे हमें स्पृहणीय लगती है। हृदय की मुक्तावस्था या सत्वोद्रेक की दशा में उदात्त और सुन्दर भावों की अनुभूति आनन्दमयी सौन्दर्यानुभूति होती है। उदात्त और सुन्दर शोक, घृणा, क्रोधादि दुखात्मक भावों से भी रसानुभूति या आनंदानुभूति प्राप्त होती है। यदि कोई व्यक्ति किसी अत्याचारी- दुराचारी के पापाचरण के प्रति घृणा व्यंजित करता है, तो उसकी घृणा हमें स्पृहणीय लगेगी। यही सुन्दर और उदात्त घृणा है। यही बात सुन्दर क्रोध, भय आदि के बारे में कही जा सकती है। आचार्य शुक्ल कहते हैं— ‘‘जिन मनोवृत्तियों का अधिकतर बुरा हम संसार में देखा करते हैं, उनका भी सुन्दर रूप कविता ढूंढक़र दिखती है। दशवदन निधनकारी राम के क्रोध के सौन्दर्य पर कौन मोहित न होगा?’’7 

अत: उदात्त और सुन्दर क्रोध, भय, शोक, घृणानुभूति सुन्दर भी होगी और आह्लादक भी।प्रेमचंद ने अपने लेख ‘जीवन में साहित्य का स्थान’ में बतलाया है कि ‘‘वीभत्स में सुन्दर और सत्य मौजूद है। भारतेन्दु ने शमशान का जो वर्णन किया है, वह कितना वीभत्स है! प्रेतों और पिशाचों का अधजले मांस के लोथड़े नोचना, हड्डिïयों को चटर-चटर चबाना, वीभत्सता की पराकाष्ठा है; लेकिन वह वीभत्स होते हुए भी सुन्दर है; क्योंकि उसकी सृष्टिï पीछे आनेवाली स्वर्गीय दृश्य के आनन्द को तीव्र करने के लिए ही हुई है।’’8 

यह जरूरी नहीं की साहित्यकार को महलों में ही सुन्दरता दिखायी दे, रंक की झोपडिय़ाँ भी सुन्दर लग सकती है। साहित्य को उदात्त सौन्दर्य से सम्बद्ध करते हुए प्रेमचन्द कहते हैं— ‘‘साहित्य तो हर एक रस में सुन्दर खोजता है— राजा के महल में रंग की झोपड़ी के शिखर पर, गंदे नालों के अंदर, ऊषा की लाली में, सावन- भादों की अंधेरी रात में।’’9

सौन्दर्यशास्त्र के बहसों में काव्य या कला की स्वायत्तता को लेकर घमासान भी होता रहा है। यह भूचाल भाववादी विचारकों द्वारा खड़ा किया गया। ऐसे विचारक मानते हैं कि कवि को सिर्फ कवि की हैसियत से हस्तक्षेप करना चाहिए न कि किसी उपदेशक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री की हैसियत से। कवि की कोई सामाजिक उपयोगिता नहीं है। हालांकि वह कुछ भी कर सकता है, किन्तु जब वह कविता लिखता है, तब उसे कविता ही लिखनी चाहिए- कविता जो कविता के रूप में मान्य हो, न कि किसी अन्य रूपों में। चरम व्यक्तिवादियों, शुद्ध कलावादियों, सामाजिक दायित्व को बार- बार अस्वीकार करनेवाले विचारकों का ऐसा मत है। इलियट और उसके बहुत से भारतीय- अभारतीय अनुयायियों के लिए सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता एक व्यर्थ की चीज हो सकती है, क्योंकि उनके लिए तो कला या काव्य एक निरपेक्ष और स्वतंत्र सत्ता के रूप में है।

देखा जाय तो स्वायत्तता का प्रश्न साहित्य के सीधे और स्थूल दृष्टिïकोण के कारण उठता है। साहित्य की कुछ अपनी प्रकृति और कुछ तकनीकी कारणों से उसकी एक सापेक्षिक स्वतंत्रता बनती है और हमारे दौर में तमाम उपन्यासों, कहानियों और कविताओं के नये प्रयोग इस ओर संकेत करते हैं। अज्ञेय ने कविता में सम्प्रेषण और नये साधारणीकरण की मांग पर जोर देते हुए बतलाया था कि काव्यानुभूति को जीवनानुभूति से विशिष्टïता देनेवाली महत्वपूर्ण वस्तु काव्यानुभूति की प्रक्रिया ही है, जो अपने आप में एक गहरे प्रयोग की मांग करती है। स्वायत्तता के पक्षधर विचारक प्रयोग पर जोर देते हैं, क्योंकि वे अनुभूति से अधिक अनुभूतियों के परिवर्तित संदर्भ पर बल देते हैं। स्पष्टïत: उनका बल रागात्मकता से अधिक रागात्मक सम्बन्धों पर है और रागात्मक सम्बन्धों का सम्बन्ध ऐन्द्रिय संवेदना से होता है। उनके मत के अनुसार इंद्रिय संवेदनाएं बदल रही है। इन्द्रियों में बौद्धिकता का महत्वपूर्ण स्थान है, इसलिए सौन्दर्यबोध बौद्धिकता के अनुसार होना चाहिए। अज्ञेय सौन्दर्यबोध को रसात्मक व्यापार के स्थान पर बुद्धि का व्यापार घोषित करते हैं। उनकी निष्पति है— ‘‘सौन्दर्यबोध मूलत: बुद्धि का व्यापार है।’’10 

बौद्धिकता के प्रति आग्रह ने काव्य और कला की स्वायत्तता को और दृढ़ किया।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कविता के महान आलोचक हैं। उनकी धारणा है— ‘‘मनुष्य लोकबद्ध प्राणी है। उसका अपनी सत्ता का ज्ञान तक लोकबद्ध है। लोक के भीतर ही कविता, क्या किसी कला का प्रयोजन और विकास होता है।’’11 कलावादी विचारकों को शुक्लजी के इस स्थापना पर ध्यान देना चाहिए कि कोई भी प्रयोग समाज निरपेक्ष नहीं हो सकता। बौद्धिकता के आग्रह के कारण काव्य समाज से अलग एक मनोवैज्ञानिक वस्तु मात्र बनकर रह जाता है, जिसे केवल कुछ खास लोग, विशिष्टï जनोचित बौद्धिकता के साधक ही उपलब्ध कर पाते हैं और वह अन्यों के लिए व्यावहारिक चेतनावालों के लिए नहीं है। स्पष्टï है कि स्वायत्तता का यह दृष्टिïकोण ‘खतरनाक भाववाद’ का रूपान्तर है। यह सही है कि कविता ऐन्द्रिय संवेदना की वस्तु है। वह रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि की अनुभूति से गहरे स्तर तक जुड़ी हुई है। लेकिन अनुभूति के परिवर्तित संदर्भों के नाम पर इंद्रियबोध और भाव को एक मान लेना ठीक नहीं है। सौन्दर्यशास्त्र के बहसों में कला की स्वायत्तता के तर्कों का खण्डन करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता और सामाजिक विकास’ नामक प्रसिद्ध निबन्ध में बताया है कि इन्द्रियबोध तथा भाव एक ही वस्तु नहीं होते। व्यक्तिगत सम्बन्धों के अतिरिक्त भी सौन्दर्य की कोई सामान्य भूमि होती है जहां भिन्न प्रवृत्ति, प्रकृति, वातावरण आदि की सुन्दर वस्तुएं भी सुन्दर ही लगती हैं। अनुभूति के परिवर्तित संदर्भों में यह जोर दिया जाता था कि जो चीजे पहले सुन्दर लगती थी, अब वह  सुन्दर नहीं लगती क्योंकि सौन्दर्य का संबंध वाह्य वस्तुओं से नहीं मनुष्य की मनोदशा से है और मनोदशा में परिवर्तन हो चुका है। ठीक इसके विपरीत डॉ. रामविलास शर्मा मानते हैं कि भावों में परिवर्तन होने से सौन्दर्य की वस्तुगत सत्ता को नकारा नहीं जा सकता। वे कहते हैं— ‘‘इन भावों की सत्ता मनुष्य के मन में होगी, किन्तु जिस गोचर सौन्दर्य से ये भाव उत्पन्न होते हैं उनकी सत्ता तो प्रकृति में ही हैं।’’12 

अरुण प्रसाद रजक
शोधार्थी, हिन्दी विभाग,
कलकत्ता विश्वविद्यालय
अतिथि प्रवक्ता, 
विद्यासागर विश्वविद्यालय
पी.बी.एम.रोड, चापदानी
पो. बैद्यवाटी, 
जिला-हुगली (प. बं.)
पिन-712222, 
मो. 08100935197
ई-मेल 
arunrajak30@gmail.com
और रही बात भावों में परिवर्तन की तो उसका संबंध भी मनुष्य की आत्मगत रुचि के परिवर्तन से नहीं, बल्कि समाज की विकासशील धारणा से है। यदि हम मानव जीवन के विकासक्रम को देखें तो पायेंगे कि कोई भी युग अपने पूर्वजों द्वारा निर्धारित और निर्मित सुन्दर-सम्बन्धी धारणा या सुन्दर वस्तुओं से संतुष्टï नहीं होता और ऐसी वस्तुओं का निर्माण करता है, जो उसकी अपनी सौन्दर्य-चेतना के अनुकूल हो। पुरानी वस्तुएं नये युग में असुन्दर नहीं हो जातीं, उन पर समय का कुहासा अवश्य चढ़ जाता है। इसलिए यह हमारी ऐन्द्रिय संवेदना को पूरी तरह संतुष्टï नहीं कर पातीं। लेकिन यह इन्द्रियबोध और कुछ नहीं बल्कि ‘‘एक वाह्य, प्रत्यक्ष जगत का अनुभव है; इन्द्रियों से जगत का बोध होता है; इन्द्रियां उसकी सृष्टिï नहीं करतीं। इसलिए इन्द्रियों से जिस सौन्दर्य की अनुभूति होती है, वाह्य जगत में उसकी वस्तुगत सत्ता है। इन्द्रियां सौन्दर्य की परख का साधन हैं, उसका कारण नहीं— जहां तक वाह्य जगत के इन्द्रियबोध का सम्बन्ध है।’’13 

इन्द्रियबोध मनुष्य के भाव- जगत के साथ संलग्न होता है, जिसे मनुष्य अपने विकास के साथ- साथ नवीन तथा परिमार्जित करता रहता है। अत: व्यक्ति और समाज में परस्पर द्वंद्वात्मक सम्बन्ध है। कविता में अनुभूति में परिवर्तनशीलता का संबंध व्यक्ति के मन से ही होता है; किन्तु उसका परिष्कृत और समृद्ध रूप सामाजिक विकास और सामाजिक जीवन से ही संभव हुआ है। इसलिए काव्य या कला की स्वायत्तता किसी कीमत पर नहीं मानी जा सकती। कविता को समाज- निरपेक्ष तथा सौन्दर्य को वैयक्तिक सत्ता के रूप में माननेवाले विचारकों को शुक्लजी के इस धारणा के मर्म को पहचान लेना चाहिए कि ‘‘सच्चा कवि वही है जिसे लोकहृदय की पहचान हो, जो अनेक विशेषताओं और विचित्रताओं के बीच मनुष्य जाति के सामान्य हृदय को देख सके।’’14 इसलिए कविता या कला की स्वायत्तता जीवन निरपेक्ष नहीं हो सकती। उसका विकास जीवन के सम्पर्क में ही संभव हुआ है। इसी क्रम में काव्य-सौन्दर्य उस सांस्कृतिक परम्परा से जो पूर्वा पर रूप से निरन्तर संशोधित और संस्कार निर्मल होती आई है।


संदर्भ सूची :
1. मुक्तिबोध, गजानन माधव, ‘एक साहित्यिक की डायरी’, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, 1964, पृ. 7
2. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र (सं.), ‘रस मीमांसा’, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, संवत् 2039वि., पृ. 21
3. कुमार, विमल, ‘सौन्दर्यशास्त्र के तत्व’, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1967, पृ. 22
4. मुक्तिबोध, गजानन माधव, ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’, विश्वभारती प्रकाशन, नागपुर, द्वितीय संस्करण, 1977, पृ. 38
5. मुक्तिबोध, गजानन, माधव, ‘समीक्षा की समस्याएं’, नेमीचंद जैन (सं.), ‘मुक्तिबोध रचनावली-5’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1985, पृ. 163
6. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र (सं.), ‘रस- मीमांसा’, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, संवत्, 2039 वि., पृ. 22
7. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र (सं.), ‘रस- मीमांसा’, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, संवत्, 2039 वि., पृ. 23
8. प्रेमचंद, ‘कुछ विचार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2008, पृ. 90-91
9. प्रेमचंद, ‘कुछ विचार’, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2008, पृ. 91
10. अज्ञेय, ‘हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य’, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ. 227
11. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र, ‘चिंतामणि : भाग-2’, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, तृतीय संस्करण, संवत्, 2041 वि., पृ. 122
12. शर्मा, डॉ. रामविलास, ‘आस्था और सौन्दर्य’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1990, पृ. 29
13. शर्मा, डॉ. रामविलास, ‘आस्था और सौन्दर्य’, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय संस्करण 1990, पृ. 30
14. शुक्ल, आचार्य रामचन्द्र, ‘चिंतामणि : भाग-1’, इण्डियन प्रेस, प्रयाग, 1966, पृ. 183

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