कविताएँ :राकेश तेता

त्रैमासिक ई-पत्रिका
वर्ष-3,अंक-24,मार्च,2017
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कविताएँ :राकेश तेता
चित्रांकन:पूनम राणा,पुणे 


    ख़ुदा (ई)
अक्सर मैंने देखा है तुम्हे
तुम्हारे मजारों गिरजों मस्जिदों और मंदिरों में 
अरदाशों के तले ईश्वरों से सौदा करते हूये  
और तुम्हारे ईश्वर भी तुम्हारी सौदेबाजी से खुश हैं
वे तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं के संरक्षक और
तुम्हारी लालसाओं के आश्रयदाता हैं
तुम्हारे भगवान तुम्हारी कामनाओं के अनुरूप
अपना रूप धरते बाना पहनते हैं

ईधर
जीवित रहने का संघर्ष ही हमारे
दिन और रातों को आकार देता है
यहां
रात हमारी जिजीविषा को मिटाता है
और दिन हमारे फूस की झोपड़ियों में 
आग लगाने की कोशिश करता है

और हम तुम्हारे ईश्वरों से जुझते हैं
हम तुम्हारे ईश्वरों की आत्मा को
जिसे तुमने धरती के बाहर कहीं दूर आसमां में
छिपा रखा है
आमंत्रित करते हैं धरती की गर्द में 
खेतों कारखानों और 
खदानों में
वे आसमानों के अहं छोड़कर
श्रमशील हाथों का हिस्सा बने
स्वर्णाभूषणों का बाना छोड़कर
हरहराते धान की बालियां उगाए

कोयले की खानों में जहरिली गैसों का सामना करे
नीलकंठ नीलकंठ बने
पसीना बहाये सृजन करे

हमारे तांबई बदन का पसीना ही 
तुम्हारे 
और तुम्हारे ईश्वरों की रंगत को बनाए रखता है
यह पसीना तुम्हारे स्वर्णाभूषणों की डोरी है

और हालिया हमने यह भी सुना
कि
तुम्हारी कामनाओं के कुड़ागाह में दबकर
ईश्वरों का दम निकल गया है और
तुम मुर्दा ईश्वरों को पुजते हो।

जब तुम चांदी के चंद ठिकरों से
इंसानी वजूद का सौदा करते हो
जब तुम कई स्वर्णहारों से
अपने मुर्दा खुदाओं को सजाते हो और
वहीं दिवाला के बाहर बच्चे भीख मांगते हैं 
और भूख से तड़पते हैं
तो हमें पक्का यकिं हो जाता है
वह खुदा यकिनन मर गया होगा
और
मृतकों की संगती के असर से
तुम भी मृतप्राय हो गए

काश तुम्हारे खुदा तुम्हारी पूंजी के पास से आजाद हो पाते।
काश तुम अपने खुदाओं से आजाद हो पाते
तो तुम भी जिंदा होते और वह भी .


श्राद्ध
कल
गंगा के उद्गम में
गंगोत्री धारा में
श्राद्ध में श्रद्धा से
तीन रोटियां फेंकी थी
आज प्रयाग तट पर
मैं देख रहा
वही तीन रोटियां 
इंसानी दांतो के सांचे में 
खण्ड.खण्ड ह्रास हुई
अतृप्त आत्माओं की ग्रास बनी 
वही तीन रोटियां 
हाय !



रूपान्तरण
जड़ों को यह कहा गया था 
और 
जड़ों की आकांक्षाएं
इसे 
सम्पूर्ण पेड़ की इच्छा मानकर
जमीन में अंदर और अंदर 
धंसते जाती थी
वे तो शाखाएं ही थीं 
जिन्होंने जड़ों को आमंत्रित किया 
उन्हें उकसाया कि क्यों न वह भी
खुले आसमान के नज़ारे देखे
हवाओं का रसपान करे
उगते सूरज को निहारे 
रौशनी की समृद्धि का सुख भोगे 

जड़ जो जीवन भर झिझके थे 
आज भी झिझके
आखिरकार
शाखाओं ने उद्वेग में 
स्वयं को ही जड़ों का रूप दे डाला
और जड़ों को शाखाओं मे तब्दील किया 

दोनों ने दोनों को बांटा आत्मसाथ किया 

जड़ों और शाखाओं के बीच 
इस रूपान्तरण और संक्रमण से ही 
आज वह बरगद 
अपने वृहद विस्तार और 
लंबी आयु पर खूब इठलाता है



धुंध और सार
यह कपड़ा और मेरी चमड़ी 
इन दो पाटों के बीच फंसा 
समय का धुँआ है
इस धुंए में थोड़ी मेरी निजता है और 
समाज के कुछ लिहाज कुछ रिवाज
धुँआ बदलता है और मैं बदलता हूँ
धुँआ पिघलता है मैं पिघलता हूँ
धुँआ ढलता है मैं ढलता हूँ

पर इन दो पाटों और समय के धुंध के परे
मेरे दुःख भी वही हैं जो औरों के हैं
मेरे विलाप और मेरा हंसना भी  
वैसा ही है जैसे औरों का हंसना
एक सी हमारी पीड़ा और संताप 

इसी से मैं जान पाता हूं कि
चमड़ी और कपड़े 
समाज और सोहबत के परे 
हमारा अंतस एक ही है
वह सभी जो रोते हैं मेरी रुदाली में आ मिलते हैं 
सभी की हंसी से मेरी हंसी वाबस्ता है
कपड़े और चमड़ी के परे


दृश्य
भट्टी और चाय की केतली
सब सुनती है
जो हम कह नहीं पाते
और जो हम कहना चाहते हैं
सब सुनती हैं चुपचाप
कभी बोलती नहीं
क्या पता वह बोल दे तो हंगामा हो जाये
नेताजी का व्यापार और 
व्यापारी की नेतागिरी 
सिक्कों का उछलना और 
एक रुपये कम में चाय पीना 
सब कुछ तो देखती है केतली 
पर बोलती नहीं जाने क्यों
यकीनन वह स्थितप्रग्य या सिद्ध नहीं है
जो वीतराग हो चुपचाप देखता रहे
दृष्टा मात्र नहीं वह सिर्फ दृष्टा नहीं हैं 
वह तपती है.उबलती है.खौलती है 
पर जाने वह 
क्यों कुछ नहीं बोलती है
शायद !
उसे अंदेशा होगा कि
अमीर और गरीब 
व्यापारी और भिखारी 
छोटे और बड़े 
सभी 
सबके हित का सच जानने के बावजूद 
वैसा ही व्यवहार करेंगे
जैसा वे करना चाहते हैं

शायद चाय की केतली 
सच और आकांक्षा के द्वंद्व  के बीच 
फंस जाती होगी



संक्रमण
मैंने  संवेदनाओं को सिकोड़ा
दबाया, दबाता गया
और 
वे 
सिक्कों में बदल गए




अंतराल
अंतराल ही तुम्हारी दृष्टि है

कोई गर मेरे आंख का ही हिस्सा हो 
तो मुमकिन है मैं उसे देख ही न पाउं 
गोया कि वह मेरे होने में शामिल हो

तुमने मुझे देखा और मुझे परिभाषित किया
इसी से मुझे अंदाजा होता है कि हमारे बीच दूरियां भी हैं
वरना मैं तो तुममे शामिल होना चाहता था
तुममे घुल जाना चाहता था।
और तुम्हे भी 
मेरे गीतों में अपने अक्स नजर आते थे
पर तुमने मुझे देखा
और मैं दृश्य बना
तुम न बन पाया



ब्यूटी टिप्स
बिफोर और आफ्टर का आकर्षण
मुझे भी अपने मोह पाश में बांध लिया
मैं सांवली से गोरी होना चाहती थी
मैंने विज्ञापनों के अनुसार 
नियमित ब्यूटी क्रीम लगाये 
पार्लर्स में हाजिरी दी
रंग सांवले का सांवला रहा 
और मैं गोरी रंगत की चाहत पाले रही

धीरे.धीरे मैंने देखा 
कि चमड़ी की रंगत विज्ञापनों के क्रीम 
और ब्यूटी पार्लर्स की दौड़ से ही नहीं बनती

यह बनती है 
कम से कम रोज एकाध घंटे बैठके  
पड़ोसियों रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ गप्पे हांकने से 
सप्ताह के एकात दिन फुरसत से नाखूनों में नेल पॉलिश लगाने से 
धूप में निकलते वक्त अपने स्किन का उचित ख्याल रखने से 
और सप्ताहांत में नए डिश बनाके 
कहीं घूमने निकल जाने से 
बनती है चेहरे की रंगत

और मैं
बेबस हूं धूप में काम करने के लिए 
रोज एक घंटे की गप्पबाजी 
मेरे परिवार को कई घंटे भूखा रखेगी 
और मेरी नेल पॉलिश मिट्टी की संगत से
रोज- रोज धुल जायेगी

मैंने देखा कि
चेहरे की रंगत
व्यक्तिवाद की खास
उत्पादन प्रणाली से बनती है 
चेहरे की रंगत
सत्ता के साथ मेनिपुलेशन की क्षमता से बनती है 
श्रम का रंग पूंजी का रंग
ज्ञान का रंग निरक्षरता का रंग
बेबसी का रंग और शक्ति का रंग
मैं अबूझ थी जो रंगत की तलाश में 
ब्यूटी क्रीमों और पार्लरों से उम्मीदें पाली थी 
क्योंकि चेहरे के गोरेपन का 
एक सौंदर्यशास्त्र है राजनीति है 



शिक्षा
सरपंच ने
गांव वालों से अपील की कि
गुरूजी ब्रम्हा , विष्णु  और महेश हैं
वे ज्ञानदाता हैं
हमें ऐसे गुरू का सम्मान 
अवश्य करना चाहिए
धन्य हैं वे जो गुरूपद के भागी हैं।
गुरू का स्थान सर्वोच्च है
ठेकेदार और साहूकार ने भी 
सरपंच के साथ हो
जोर शोर से
उसकी बातों का समर्थन किया
लोगों ने गुरूजी की प्रशंसा में
उन पर फुलों की वर्षा की
उनका गुणगान किया और 
घर चले गए
शाम के धुंधलके में
सरपंच ठेकेदार और साहूकार ने
गुरूजी को अपने पास बुलाया
और उसे
निर्देश दिया कि
स्कूल में 
क्या पढ़ाना है और क्या नहीं.



जीवन
मेरे हमाम के नीचे और
किचन के पिछे
काकरोचों और चुहों की कई बस्तीयां रहती हैं
इन बस्तीयों और हमारे असबाबों के बीच
कनखजूरे चुपके से सरपट गस्त लगाते हैं
कनखजूरे और काकरोच
इंसानों की उत्पत्ति से भी पहले
धरती पर घुम रहे हैं
हमारी बस्तीयों सड़कों और खलिहानों में
घुमते चरते मरते मारते
पवित्र और अपवित्र
पालतु और फालतु जानवर

एक से दूसरे 
दूसरे से पहले
और पहले से हजारवें 
सभी शरीरों में लगातार संचरित संक्रमित होते हूए
जीवाणु
इन शरीरों को बनाते बचाते और मारते हैं
वे जीवन की शुरूआती इकाई हैं
वे शुद्ध और अशुद्ध
अश्वेत और श्वेत
सभी शरीरों में बिना भेदभाव के समान रूप से 
जीते हैं विहरते हैं
हमारी जातिगत दुश्मनी भेदभाव
कृत्रिम विश्वासों और सत्ता संघर्षों के परे
यह जीवाणु लगातार
हममें संचरित संक्रमित होते 
हमें मारते और जीवित रखते हैं

पर सहजीवन के इस संबंध को अक्सर मैं
सड़क में घुमते मरियल घायल कमजोर 
कुत्ते, भैंस, गाय और सुअरों के बीच
नहीं देख पाता।
मैं नहीं देख पाता 
सहजीवन के रिश्तों 
और जीवन की समृद्धि को 
इन्सानों की आपसी रंजिश और युद्धों के बीच
मेहनतकशों और मालदारों की जुदा दुनिया के बीच  




राकेश तेता
धमतरी छत्तीसगढ़
संपर्क:vasudevrakeshteta@gmail.com

4 टिप्पणियाँ

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 18 सितंबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"

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  2. बहुत ही उम्दा रचनाएँ है आदरणीय आपकी।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  3. मैंने संवेदनाओं को सिकोड़ा
    दबाया, दबाता गया
    और
    वे
    सिक्कों में बदल गए।

    वाह वाह। क्या तंज़ है। सारी की सारी रचनायें बेहद उम्दा। सादर

    जवाब देंहटाएं

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