त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
(यह 'किसान विशेषांक' एक दीर्घ अवधि के उपरांत प्रकाशित हो रहा है. यह सही है कि हमें अपने प्रकाशित अवधि को कई बार टालना पड़ा. साथियों आप जानते है कि सामान्य अंक की बजाय विशेषांक निकालना थोड़ा जटिल कार्य होता है. मैं 'अपनी माटी' के उन सभी लेखकों का आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने धैर्य पूर्वक विश्वास करके विशेषांक के लिए इंतजार किया. हमारे दोनों अतिथि सम्पादक ने कार्य को गंभीरता पूर्वक सम्पन्न किया उनके हम आभारी हैं जिनके बिना यह अंक संभव नहीं था)-जितेन्द्र यादव,सम्पादक मंडल
संपादकीय
इस अंक में
अधिकांश लेख शोध-छात्रों के हैं। ये तराशे हुए हीरे नहीं अपनी माटी से निकले हुए
वे अँखुएं हैं जो ज्ञान और जीविका की तलाश में शहरों के प्रदूषण से लड़ते हुए भी उस
गोबर और घूर की गंध को भूल नहीं पाए हैं। वह गंध जो उनके शरीर में रक्त की तरह
शामिल है। जिन्हें गोबर और घूर की गंध पसंद नहीं उन्हें शायद ये लेख पसंद नहीं आएं।
पसंद तो बहुतों को इस देश के किसान भी नहीं आते। बाबा नागार्जुन की कविता ‘तुझे घिन तो नहीं आती’ याद हो तो देख लीजिए कि किस तरह शहरी मध्यवर्ग किसान के
रक्त और पसीने से निर्मित अन्न, दूध, फल-फूल पर जीवित रहते हुए भी किसान के शरीर की
गंध से नफरत करता है। जिस देश में ऐसा कृतघ्न मध्यवर्गीय मानस बसता हो उस देश में
किसान की दुर्दशा पर कविता, कहानी, उपन्यास और लेख लिखने से और चाहे जो कुछ हो
किसान का दुख दूर होने वाला नहीं है।
आप याद करें कि श्रम
के प्रति सम्मान की संस्कृति अपने देश में लंबे समय से मौजूद रही है। रामविलास जी
ने वेदों में खेती करने वाले ऋषि-मुनियों का विशेष रूप से उल्लेख किया था। ज्ञान
और श्रम के बीच कोई दूरी नहीं थी। गुरुकुलों में राजा और प्रजा दोनों के पुत्र
खेती करते हुए ज्ञानार्जन करते थे। राजा जनक को सीता हल चलाते हुए ही मिली थीं।
राजा जनक जैसे लोगों को भी हल चलाने में कोई तौहीन नहीं महसूस होती थी। बुद्ध के
जीवन में सुजाता को देखें। एक श्रमिक स्त्री के तर्क और अन्न के आगे बुद्ध को
झुकना पड़ा। बुद्ध के प्रतिपक्ष में खड़े शंकराचार्य दर्शन में भले ही जगत को मिथ्या
मानते हों लेकिन उन्हें पता था कि इस जगत में जब तक भी जीवन है उसके लिए अन्न की
जरुरत पड़ती है और वह अन्न किसान पैदा करता है। उन्होंने किसान के जीवन को सर्वोपरि
माना। बुद्ध और शंकराचार्य जैसे दो छोर पर खड़े सन्यासियों को किसान और श्रम का
महत्त्व मालूम था। अपने देश में श्रम की संस्कृति के प्रति सम्मान जब तक मौजूद था,
देश सोने की चिड़िया था। उस सोने की चिड़िया की
चहचहाहट तब बंद हुई जब वर्णाश्रम व्यवस्था ने धीरे-धीरे श्रम की संस्कृति के प्रति
सम्मान को विस्थापित करते हुए जन्मना पवित्रता और अपवित्रता की संस्कृति को
स्थापित करने में सफल रहा। इस नई संस्कृति का मानदंड यही था कि जो जितना अधिक
शारीरिक श्रम करेगा वह वर्णाश्रम व्यवस्था में उतना ही नीचे और फलतः उतना ही
अपवित्र माना जाएगा। श्रम के प्रति अपमान की यह संस्कृति देश को कितना पीछे ले गई
इसका इतिहास बताने का यहाँ न तो अवकाश है और न ही जरूरत।
हिंदी में
किसानों की दशा-दुर्दशा पर तुलसीदास से लेकर अब तक जो कुछ लिखा गया है वह हमारे
सामने है। तुलसीदास और प्रेमचंद के रचना संसार में किसानों की दशा और दुर्दशा के
जो चित्र हैं उनके बीच एक गहरा संबंध है। रामविलास जी भक्तिकाल को लोक जागरण मानते
हुए जब उसे हिंदी नवजागरण की पृष्ठभूमि के रूप में विश्लेषित कर रहे थे तब उनके
दिमाग में यह बात जरुर रही होगी कि अवध के किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि और उसकी छाया
किस तरह तुलसीदास और प्रेमचंद के बीच एक सेतु का निर्माण कर रही है। भारतीय
किसानों के दुख इतने बड़े और व्यापक हैं कि उन्हें लोक जागरण से यदि तुलसीदास की
जरूरत थी तो नवजागरण से प्रेमचंद की। यह अलग बात है कि युग और विधा की सीमाएँ
सामने आईं जिनकी वजह से तुलसीदास किसानों के दुख को महाकाव्य का विषय नहीं बना पाए,
लेकिन प्रेमचंद इस दृष्टि से इतिहास निर्माता
हैं जिन्होंने किसानों के दुख को अपने उपन्यास का विषय ही नहीं बल्कि नायक बनाया।
साहित्य और समाज की इतिहास धाराएँ लगभग एक साथ चलती हैं। वे अपना गाँधी निर्मित
करती हैं, अपना प्रेमचंद रचती हैं।
किसान, धरती और स्त्री तीनों के पास धैर्य है। धैर्य
इनकी पूंजी है। प्रेमचंद ने हिंदी में किसानों के इस धैर्य पर बहुत धैर्य के साथ
लिखा है। होरी का धैर्य देखकर बड़ों-बड़ों का धैर्य टूटने लगता है। प्रेमचंद की यह
ताकत है कि अपनी रचना में बुद्ध की तरह गरम पानी का नहीं, ठंढे पानी का इस्तेमाल करते हैं। गरम पानी में छाया साफ़
नहीं दिखती। प्रेमचंद ने भारत के अन्नदाताओं की विपदा और विडंबना को इस तरह
प्रस्तुत किया कि वह इंग्लैंड के किसानों से अलग दिखे। लेकिन इंग्लैंड और भारत की
राजधानी लंदन तक ही सीमित न होकर वह दूर और देर तक दुनिया की सभी राजधानियों में
बैठे हुए बुद्धिजीवियों से आँख में आँख डालकर यह सवाल कर सके कि जिसके अन्न से पल
रहे हो उसके बारे में कितनी देर तक सोचते
हो ?
प्रेमचंद के
प्रायः सभी किसान पात्र सीमांत किसान हैं। चार-पांच बीघा के मालिक। अपने देश में
किसानों की जनसंख्या का अधिकांश आज भी इतनी ही जमीन और इससे भी कम जमीन में
गुजर-बसर कर रहा है। उससे भी बहुत बड़ी आबादी उन मजदूरों की है जिनके पास रहने के
लिए भी जमीन नहीं है। मैंने सुना है कि अमेरिका में बहुत बड़े-बड़े Farm होते हैं। रूस में जब सोवियत खेती होती थी तब
वहाँ भी ऐसे ही बड़े-बड़े Farm बने। पूँजीवाद और
समाजवाद दोनों अंततः इस बात पर सहमत दिखे कि खेती की सबसे बड़ी बाधा छोटे खेत हैं।
प्रेमचंद इन निरंतर छोटे होते जा रहे खेतों की पीड़ा से गुजर रहे छोटे किसानों की
विडंबना से भारत के भाग्य विधाताओं को परिचय कराते रहे। हमारा देश आजतक किसान और
खेती की समस्या पर कोई बड़ा निर्णय लेने की स्थिति में नहीं पहुँच पाया है। देश का
किसान यदि आज उदास है और इस उदासी में वह कोई आत्मघाती कदम उठा रहा है तो निश्चय
ही यह सिर्फ किसान से जुड़ी हुई समस्या नहीं है। हरिश्चंद्र पाण्डेय की एक कविता
में किसानों की इस नियति पर जो टिप्पणी दिखाई पड़ती है वह विचारणीय है –
“क्या नर्क से भी
बदतर हो गई थी उसकी खेती
वे क्यों करते
आत्महत्या
जीवन उनके लिए
उसी तरह काम्य था
जिस तरह
मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उसमें
नदियों की तरह प्रवाहमान सदानीरा
उन्हीं की हलों
के फाल से
संस्कृति की
लकीरें खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो
कपास की तरह उज्जर था
वे क्यों करते
आत्महत्या।”
मैं ‘अपनी माटी’ के संचालकों
माणिक जी, जितेन्द्र यादव और सौरभ
कुमार के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करना चाहता हूँ कि उन्होंने यह दायित्व सौंपकर
किसानों के दुखों से जुड़ने का अवसर प्रदान किया है। डॉ. अभिषेक रौशन और डॉ. भीम
सिंह के प्रति भी मैं अपना आभार प्रकट करना चाहता हूँ जिन्होंने क्रमशः अपने सहयोग
और आलेख से इस अंक का गौरव बढ़ाया है। मैं अपने शोध-छात्रों दिवाकर दिव्य दिव्यांशु,
राकेश कुमार सिंह और दीपक कुमार दास को विशेष
रूप से धन्यवाद देना चाहूँगा जिनके परिश्रम और सुझाव के बिना यह अंक संभव नहीं था।
इस अंक में व्यक्त लेखकों के विचारों से मेरी सहमति अनिवार्य नहीं है। विचार के लोकतंत्र में असहमतियाँ ज्यादा कीमती होती हैं, यह अलग से कहने की जरूरत नहीं है।
(2)
इस अंक में व्यक्त लेखकों के विचारों से मेरी सहमति अनिवार्य नहीं है। विचार के लोकतंत्र में असहमतियाँ ज्यादा कीमती होती हैं, यह अलग से कहने की जरूरत नहीं है।
(2)
“देश के बारे में लिखे गए
हजारों निबन्धों में लिखा गया
पहला अमर वाक्य एक बार फिर
लिखता हूँ
भारत एक कृषि प्रधान देश है
दुबारा उसे पढ़ने को जैसे ही
आँखें झुकाता हूँ
तो लिखा हुआ पाता हूँ
कि पिछले कुछ बरसों में डेढ़
लाख से अधिक किसानों ने
आत्महत्या की है इस देश में”
अपनी माटी का किसान अंक
लम्बे इंतजार के बाद आपके सामने है. इस अंक के बारे में एक कहानी है. मेरे प्रतिभाशाली,
होनहार और साहसी शोध छात्र सौरभ कुमार से यूँ ही कुछ बातचीत हो रही थी. वे अपनी
माटी के सह सम्पादक भी हैं. बातचीत में एक बात निकलकर आ गई कि आधुनिक हिंदी
साहित्य गद्य की दुनिया में गाँव यानि किसान और कविता की दुनिया में प्रकृति को
केंद्र में रखकर विकसित हुआ, आज की दुनिया में यही दोनों खतरे में हैं. इस चकाचौंध
या विकास के भ्रम पैदा करने वाली दुनिया में ही नहीं, साहित्य की दुनिया में भी ये
हाशिए पर चले गए हैं. बस यहीं से योजना निकल पड़ी कि, क्यों न ‘अपनी माटी’ का किसान
अंक निकाला जाए. मैं और मेरे शोध छात्र (अब वे अधिकारी बन गए हैं) उत्साहित हो गए.
रास्ता निकल गया और मैं व्यस्त हो गया अपनी दुनिया में. एक दिन सौरभ का फोन आया कि
आप अतिथि सम्पादक बन जाइए. यह स्थिति 'आ बैल मुझे मार' वाली हो गई. मैं सोचने लगा कि
कहाँ फंस गया, मन तो था कि कुछ बड़ा काम किया जाए पर अपने आलस्य और संकोच से डर रहा
था. अपनी जिम्मेदारी से भागने के लिए मैंने प्रो. गजेन्द्र पाठक जी का नाम सुझाया। सौरभ जिद पर अड़ गये कि आप
और पाठक जी दोनों इस अंक का संपादन कीजिए। इस पत्रिका के कर्ता-धर्ता के अटूट
धैर्य, लगन और श्रम के धनी श्री
माणिक जी और साहित्य एवं समाज के सकारात्मक सोच से लैस श्री जितेन्द्र जी ने भी
हामी भर दी और इस किसान अंक की योजना चिंतन में तैरने लगी। मैं भागने की कोशिश तो
बहुत किया पर इन त्रिमूर्ति (माणिक जी, जितेन्द्र जी, सौरभ जी) के श्रम
और लगन के सामने नतमस्तक हो गया।
इस अंक के बारे में बातचीत में यह तय
हुआ कि शोध और अध्ययन में किसान, मजदूर, हाशिये के समाज तो रहते ही हैं। हम उनकी बेचारी
से अपना व्यवसाय चलाते ही हैं, क्यों न हम भारत
के किसानों से बातचीत कर उनकी सोच को इस अंक में रखें? इस सोच के पीछे भी एक कहानी है। मेरे गुरूवर श्री मैनेजर
पांडेय ने एक संस्मरण सुनाया था कि वे उच्च अध्ययन शोध संस्थान शिमला में एक
व्याख्यान देने गये थे। शायद व्याख्यान हाशिये के समाज पर ही था। गुरूवर ने बताया
कि “वहाँ सब अंग्रेजी में
व्याख्यान दे रहे थे, (अभी भी अपने देश
में छोटे लोगों पर बड़ी बात अंग्रेजी भाषा में ही करने का चलन और स्वीकार्य माध्यम
है।) मैं हिंदी का प्राध्यापक क्या करता, हिंदी में ही अपना व्याख्यान प्रस्तुत कर दिया। व्याख्यान के बाद सभागार का एक
चपरासी मेरे पास आया और बोला कि साहब! मैं यहाँ कई वर्षों से नौकरी कर रहा हूँ,
यहाँ रोज बड़े-बड़े कार्यक्रम होते हैं,
मेरा काम सभागार में व्यवस्था को देखना होता है,
आज आपके भाषण के बाद पहली बार पता चला कि आप सब
मेरे बारे में ही बात कर रहे हैं, सब अंग्रेजी में
बोलते हैं, कुछ समझ में नहीं आता।”
गुरूवर के इस संस्मरण ने प्रेरित किया कि इस किसान अंक में किसानों की
बातों को रखा जाए। योजना तो यह थी कि भारत के हर राज्यों के कम-से-कम एक किसान से
साक्षात्कार लिया जाए, पर ऐसा हो न सका।
आज के इस युग में संसाधन और संपर्क भी तो मायने रखते हैं। एक योजना और बनी कि हमारी
राजनीति गरीबी, भुखमरी, किसान इन्हीं को केन्द्र में रखकर सत्ता पाने की कोशिश करती
है, तो क्यों न कुछ राजनेताओं
या किसान नेताओं से बात की जाए, पर इस कोशिश में
हम नाकाम रहें। अकेले किसान नेता एवं राजनीतिक श्री योगेन्द्र यादव जी से ही संपर्क
हो पाया, उनके विचार इस अंक में
हैं। पता नहीं क्यों, अभी बाबा
नागार्जुन की पंक्तियाँ याद आ रही हैं –
“जो न हो सके पूर्ण काम, मैं करता हूँ उनको प्रणाम”
मेरे गुरूवर प्रो. मैनेजर पांडेय अक्सर कहा
करते थे कि साहित्य और शोध की दुनिया में कुछ भी पूर्ण नहीं होता, कुछ काम दूसरों पर भी छोड़ देना चाहिए। तो ‘अपनी माटी’ भी आपके लिए कुछ छोड़ रहा है। आप इस रास्ते को और आगे तक ले
जायेंगे, यही इस अंक का सपना है।
इस अंक के संपादन में यह कोशिश रही कि किसी भी शोध, आलेख को छाँटा न जाए। इस युग में जहाँ सब चकाचौंध और मॉल की
यूनिवर्सिटी में डिग्री लेने में व्यस्त हैं, वहाँ कोई किसान पर लिख रहा है। यही इन सब के लिए एक उम्मीद
और बेहतर भविष्य की बात है।
दोस्तों बातें तो बहुत करनी थीं और मन भी
कर रहा है, पर बड़े-बुजुर्ग समझा गए
हैं कि ज्यादा बोलना ठीक नहीं होता। ‘मौन भी अभिव्यंजना है।’ पर मैं इतना बता
दूँ कि इस अंक के लिए मैंने सिर्फ गिलहरी की भूमिका निभायी है। असली हनुमान-अंगद
तो श्री माणिक जी, जितेन्द्र जी और
सौरभ जी हैं। ‘अपनी माटी’,
के संपादक एवं व्यवस्थापक मंडल का मैं आभारी
हूँ कि मुझ जैसे अदना और आलसी आदमी पर भरोसा जताया और ‘अपनी माटी’ के किसान अंक का
यह पहिया चल पड़ा।
गजेन्द्र पाठक व अभिषेक रौशन