संवेदनाशून्य होते समाज में आदिवासी किसान/राजीव कुमार

त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी
(ISSN 2322-0724 Apni Maati)
वर्ष-4,अंक-25 (अप्रैल-सितम्बर,2017)
किसान विशेषांक
   संवेदनाशून्य होते समाज में आदिवासी किसान/राजीव कुमार

नहीं हुआ है अभी सवेरा
पूरब की लाली पहचान
चिड़ियों के जगने से पहले
खाट छोड़ उठ गया किसान।

            दूसरी कक्षा में पढ़ी सत्यनारायण लाल की किसानशीर्षक यह कविता हमारे लिए महज एक कविता नहीं थी। स्कूल के पाठ्यक्रम से निकलकर यह कविता हमारे जीवन में रच बस गई थी। इससे पहले तुलसीदास ने कविता और प्रेमचंद ने अपने कहानीउपन्यासों में किसानों की अभावग्रस्त जीवन की पीड़ा को चित्रित किया था, पर चिड़ियों के जगने से पहले खाट छोड़ने वाला किसानही हमारा अपना बना रहा। बाल मन पर पड़ी इन पंक्तियों का असर इतना गहरा था कि हम कंधे पर हल उठाये, खेत की ओर जाते या खेतों में तल्लीन किसानों को गर्व की नजर से देखते थे। यह वो समय था जब शहर में दरबदर की ठोकर खाने वालों के लिए गाँव जाकर खेती करनेका जुमला जुबान और दिल से नहीं उतरा था। अभी खुले बाजार की नीतियों ने किसानी को पूरी तरह से घाटे का सौदा नहीं बनाया था। यह सम्मान धीरे-धीरे रोमांटिसिज्म में परिवर्तित होता महसूस हुआ। अब किसानों को हम देख तो नहीं पाते हैं पर अब भी भारत को किसानों का देश लिखते-पढ़ते हैं। फिर धीरे-धीरे हम किसानों के बारे में काव्यात्मक नहीं गद्यात्मक अप्रोच रखने पर मजबूर होने लगे। पूरब की लाली वाले बैकग्राउंड में चिड़ियों की चहचहाहट के बीच अब खाट छोड़ कर उठते या कंधे पर हल रखे किसान का चित्र नहीं था। अब किसानों की खबरें आती हैं। खबरों में वे महज आंकड़े होते जा रहे हैं। अब किसान कहने से धरती के सीने की धड़कन नहीं सुनाई देती, अब फटी हुई धरती के बीच असहाय बैठा किसान दिखाई देने लगा है। किसानों के बारे में सोचते-जानते हुए हमारी सोच में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरोपद कहाँ से दाखिल हो गया, पता ही नहीं चला। आज किसानों पर लिखे हुए तुलसीदास की कविता हो या प्रेमचंद के उपन्यास या शिवमूर्ति की कहानियाँ, उनके रसास्वादनकी प्रक्रिया में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरोचुपके से दाखिल हो जाता है। जो बताता है कि 30 दिसम्बर 2016 तक दर्ज किये गए रिकार्ड के अनुसार किसानों की आत्महत्या में 42% की वृद्धि हो गई है। अकेले 2016 के साल में 12002 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्याएँ की है। यही हाल 2015 का है और 2014, 2013... का भी।

          किसानों का आंकड़ों में तब्दील होना हमारे समाज की सबसे भयावह सच्चाई है। हमारे साहित्य विवेक और सामाजिक विवेक को ललकारती हुई सी कोई क्रम जारीके तरह की रचना है। इन्हीं संदर्भों में एक कम विचारित पक्ष हैं आदिवासी किसान। आदिवासी की दुनिया में किसानी कोई अलग से उल्लेख किया जाने वाला कर्म या व्यवसाय नहीं है बल्कि यह उनके रोजमर्रा का ही हिस्सा है। उनके खेत सिर्फ धान और सरसों आदि तक सीमित नहीं होते बल्कि पूरा जंगल ही उनके लिए खेत का पर्याय होता है। धान से लेकर कटहल तक किसानी में शामिल होते हैं।

          समकालीन कविता की उभरती कवयित्री जसिंता केरकेट्टा की एक कविता है – ‘काली खेतें कोड़ता बचपन। इस कविता में वे लिखती हैं

बचपन बचाने की
हजार दावों की खेतों में
भूखा बचपन काले सोने कोड़ रहा
और सोते हुए भी माथे पर शिकन है
जरूरत से ज्यादा खाए हुओं के कि
कौन कमबख्त उनकी नींद तोड़ रहा

        अब यहाँ खेतों की संकल्पना ही बदल गई है। यह कविता संबंधित है झारखण्ड के कोयले की खदान से। कोयला-खदान से निकलते हाइवा रास्ते के दोनों तरफ के खेतों को कोयले से पाटते जाते हैं। यह खदान खुद आदिवासियों के खेतों को उजाड़कर बना है। जहाँ पहले उन खेतों में फसलें उगती थीं, अब वहां कथित मुख्यधारा के समाज के लिए काला सोना उगता है। आदिवासी समाज अपने गीतों से जिस खेतों को सींचता, फसले उगाता था, अब वही जमीन कोयले की फसल दे रही है। उसी का परिणाम है कि आदिवासी बच्चे, भूखे पेट सड़क किनारे के खेतों से कोयला कोड़ने को मजबूर हैं। यह बचपन नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के ब्यौरे में दर्ज नहीं है, पर क्राइम रिकार्ड ब्यूरों में दर्ज होने की भूमिका बना रहा है।  वे लिखती हैं

बेपरवाह बचपन
अंधेरी राहों में बिखरी कालिखों से
अपना चेहरा पोत रहा
गुनाह की फसलें उगाने को
विकास के नाम उनकी
तैयार काली खेतें जोत रहा

           ऐसे में सारा किसान-विमर्श एक नई जमीन अख्तियार कर लेता है। देश भर में नये रूप से लोग किसानों को लेकर सचेत हो रहे हैं पर वैसी सचेतनता अभी किसानों को लेकर नहीं दिखाई पड़ रही जैसी बाघ बचाओऔर रैली फॉर रिवर्सके नाम पर दिखाई पड़ रही है। आदिवासी दुनिया में सवाल किसानों के साथ-साथ उनसे नाभिनालबद्ध उस धरती का है, जिसका सम्मान लौटाना एक आदिवासी अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी समझता है। तभी तो अनुज लुगुन लिखते हैं,

मैं उस फसल का सम्मान लौटाना चाहता हूँ
जिसकी जड़ों में हमारी जड़ें हैं
जिसकी टहनियों में लौटती पंछियों का घोसला
लौटाना चाहता हूँ मैं ।” (‘मैं गीत गाना चाहता हूँ)

           आज हम देखते हैं कि कठोर श्रम और अपनी सारी पूँजी लगाकर उपजाए गए किसानों के फसलों का सरकार समर्थित न्यूनतम मूल्य भी नहीं मिल पाता है। हर राज्य की सरकारें किसानी को बढ़ावा देने और किसानों की हौसला आफजाई की मात्र कागजी कार्रवाई ही करती हैं। इनके दावे शोर मचाते चुनावी घोषणा पत्र तक ही सीमित रह जाते हैं। ऐसे में फसलों का सम्मान कैसे लौटाया जा सकेगा? फसलों का अपमान असल में किसानों के साथ-साथ अब भी थोड़ी से बची फसलों से लहलहाती धरती का अपमान है। सरकारों के कथित प्रयासों के बावजूद किसानी लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है। तमाम प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष प्रयासों से किसानों का हौसला तोड़ा जा रहा है। ऐसे माहौल में भी आदिवासी फसलों का सम्मान लौटाने को लेकर कृत-संकल्प नज़र आते हैं। आदिवासी भी नए व्यवस्था की मार सहते किसानी से बेदखल होकर शहरों में बेगार खटने को मजबूर हैं। इस तरह अपनी जड़ों से कटने और अपनी अस्मिता को खोने की प्रक्रिया में लगातार शामिल भी हैं। इसलिए यह आदिवासी कवि समझता है कि अपनी जड़ों को पुनर्स्थापित करने के लिए फसलों का सम्मान लौटाना एक अत्यंत जरूरी हस्तक्षेप है।

         इसलिए वह एक दिन में करोड़पति बनने या पेप्सी पीकर पेरिसजाने के सपने में विश्वास नहीं कर पाता। उसे यह एक षड्यंत्र लगता है जो हमें इन सपनों के पीछे की भयावह सच्चाइयों से विरत करते हैं। पिछले दो दशकों में किसानी ही नहीं बल्कि उस पर आधारित छोटे-बड़े कई उद्योग-धंधे भी उजड़ते गए हैं। लाखों लोगों को अपनी जमीन और रोजी रोटी से बेदखल होना पड़ा है। इसलिए अनुज लुगुन उस मामूली प्रतीत होने वाले सपने को महत्त्व देते हैं जहाँ जीवन सहज और सच्चा है। बहुत बड़ा कुछ हासिल करने की चाहत में हमने अपना बचा-खुचा हासिल भी खो दिया है जबकि जीवन को छोटे-छोटे सपनों से जोड़कर ही खुशहाल बनाया जा सकता है। एक आदिवासी की दृष्टि में विकास खुशहाली का परिचायक नहीं है बल्कि खुशहाली ही विकास की चरम अवस्था होती है। इसलिए उसके सपने अपनी जमीन पर पलती-बढ़ती उम्मीदों से भरे सपने हैं

हमारे सपनों में रहा है
एक जोड़ी बैल से हल जोतते हुए
खेतों के सम्मान को बनाये रखना” (‘हमारी अर्थी शाही नहीं हो सकती)

           यहाँ महज किसी किसान की ज़िन्दगी और उसकी रोजी-रोटी ही नहीं बल्कि पूरे समाज और समुदाय के अस्तित्व एवं अस्मिता का प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है। खेतों का सम्मान पूरे आदिवासी समुदाय की अस्मिता से जुड़ा प्रश्न है। यह व्यवस्था फसलों के उत्पादन में आधुनिक मशीनों के प्रयोग से आमूलचूल परिवर्तन और बेतहाशा वृद्धि का सपना दिखाती है। यह कुछ हद तक सच भी है। मशीनों के प्रयोग से उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है परन्तु यहाँ सवाल यह है कि क्या इससे किसानी और किसानों के सम्मान में भी बेतहाशा वृद्धि हो गई ? निराई, बुवाई, सिंचाई, कटाई के लिए प्रयोग किए जाने वाले तमाम आधुनिक मशीनों के प्रयोग से किसानी का व्यवसाय किसानों के लिए फायदे और सम्मान का धंधा बना पाया है ? किसानों की आत्महत्या और उनकी मार खाती ज़िन्दगी में क्या खुशहाली लौट आई है ?

          असल में भारत में शुरू से खेती महज मुनाफे पर आधारित व्यवसाय नहीं रही है। भारत दुनिया भर के देशों से अपनी अलग सांस्कृतिक विरासत और पहचान के लिए जाना जाता है। भारतीयता के केंद्र में कृषि तो रही है पर मुनाफा कमाने की भावना का अभाव रहा है। इसलिए यहाँ फसलों और पशु धन की पूजा की जाती है। गीत गाते हुए फसलें बोई जाती हैं और उनकी कटाई पर मेलों का आयोजन होता है। उस प्रक्रिया में किसानों का पेट भी पलता था और लोगों का भरता भी था। किसान शान से इस कृषि प्रधान देश का प्रतीक समझा जाता था। वह जिंदा था और दुरुस्त भी।
हमारे यहाँ जीवन में उमंग और उम्मीद भरने का काम किसानी सदियों से करती आई है। इसलिए उनके सपनों में आज भी दो बैलों वाला हल ही आता है, शोर करता ट्रेक्टर नहीं। इसलिए मूल प्रश्न फसलों की उपज में अंधाधुंध वृद्धि नहीं, उनका सम्मान हासिल करना होना चाहिए। इससे किसानी और इंसानियत दोनों को ससम्मान बचाया जा सकता है। यही चाहत वरिष्ठ आदिवासी कवयित्री रोज केरकेट्टा को भी है,

हल जोतते हुए सपने पंख लगा उड़ते
आसमान को भर आँखों देख
काम का आरम्भ सपने से निकल
खेत- टांड़ में बोते
तन-मन में ताकत पाते

             तन- मन की यही स्वस्थ ताकत मनुष्यता को बचाए रखती है। हमारे सपनों की दुनिया को सींचती और पल्लवित करती है। ऐसे समय को बहुत बदनसीब माना जाता है जो सपनों के विरुद्ध होता है। परिवर्तन को अगर समय संसार का अटल नियम माना जाता है तो सपने उन परिवर्तनों को गति देने वाले सबसे महत्वपूर्ण घटक होते हैं। ये सपने लोगों के तन-मन में हौसला भरते हुए अपने समय की बदहाली को खुशहाली में परिवर्तित करने का हुनर रखते हैं।
              यथार्थ है कि यह समय किसान और किसानी के प्रतिकूल है। ऐसे में आदिवासी समाज के किसानों की हालत और भी दयनीय है। इनके अनपढ़ और भोले होने का फायदा उठाने की कवायद आज भी सुदूर ग्रामीण इलाकों में बदस्तूर जारी है। वरिष्ठ आदिवासी कवि महादेव टोप्पो लिखते है,

आखिर जबरन
अपने खेतों से
होने पर बेदखल
हुआ हमें ज्ञात
X               X                    x
सादे कागज़ में अंगूठे के निशान ने
किया है हमें खेतों से बेदखल

इसके बावजूद आदिवासियों ने खेती में निष्ठा नहीं खोई। खेतों से जबरन बेदखली के बावजूद उनका खेती से नाता नहीं टूटता। इसी कविता में महादेव टोप्पो आगे लिखते हैं,

जंगलों में कुछ और चलकर भीतर
खेद खोदते बस गए हम
ताकि हो न तुम्हें कोई तकलीफ

       जहाँ कथित मुख्यधारा के किसान ( वैसे किसान पूरे देश में अब सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय हैं) किसानी से हताश होकर आत्महत्या का रास्ता चुनने को मजबूर हो रहे हैं, वहीँ आज भी आदिवासी किसान जमीन से बेदखली से हार नहीं मानते। अब तो वे अपनी जमीन से बेदखली को मुद्दा भी बना रहे हैं, किसानी और लड़ाई को एक कर रहे हैं। वे अपनी जमीन वापस चाहते हैं। औने- पौने दाम पर जमीन बेच कर अपने ही घर में परदेशी नहीं होना चाहते। वे अब भी  खेती करना चाहते हैं, जमीन को सींचकर ऊर्वर बनाना चाहते हैं। तभी तो अनुज लुगुन आदिवासियों की उस उद्दाम आकांक्षा को व्यक्त करते हुए कहते हैं,

हमने चाहा कि
फसलों की नस्ल बची रहे
खेतों के आसमान के साथ
हमने चाहा कि जंगल बचा रहे
अपने कुल-गोत्र के साथ” (‘हमारी अर्थी शाही नहीं हो सकती’)

        उनके जीने का विश्वास अभी खेतों की जड़ों से उखड़ा नहीं हैं। इंसानी नस्लों के महफूज़ रहने के लिए वे फसलों के नस्ल के बचे रखने को आवश्यक मानते हैं। हवा पानी तक को कमोडिटी में तब्दील कर रहे इस समय में भी वे खेतों के ऊपर के आसमान और फसलों के विभिन्न नस्लों को बचाने की जरूरत को समझते हैं। इसलिए आदिवासियों की खेती की धारणा भी विस्तृत है। इनके खेती के रंग जंगल के कंद-मूल से लेकर साल-सागवान तक में बिखरे पड़े हैं। जंगल में मौजूद इनके खेत सिर्फ फसलों के सम्मान की ही रक्षा नहीं करते बल्कि जंगल और जंगल के तमाम बासिंदों के अस्तित्व को भी बचाते हैं। इसलिए वे फसलों के साथ जंगल को भी उसके कुल-गोत्र के साथ बचाना चाहते हैं, जो अंततः मनुष्यता को बचाने का ही उपक्रम है । इसलिए पूरा जंगल ही आज निशाने पर है। प्रसिद्ध आदिवासी विद्वान रामदयाल मुण्डा ने अपनी कविता कथा शालवन के अंतिम शालशीर्षक कविता मंक बताया ही कि कैसे आदिवासियों को ही जंगल के खिलाफ खड़ा करने के तर्क गढ़े जा रहे है, जिसमें वे खासे कामयाब भी हुए हैं। रामदयाल मुण्डा लिखते हैं,

जंगल का आदमी
जंगल काट कर बर्बाद कर रहा है
इसलिए इसकी रक्षा होनी चाहिए
शायद इसलिए इसकी
रक्षा हो रही है
टिम्बर मर्चेंट्स के गोदामों में
उनकी तिजोरियों में
नोटों के बंडलों के रूप में।

        जंगल में रहने वालों को ही जंगल के खिलाफ बताने का षड़यंत्र अब तक बहुत सफल साबित हुआ है। इसी षड्यंत्र से किसानों को किसानी से बेदखल कर मोंसेंटों जैसी कम्पनियाँ करोड़ों का व्यवसाय कर रही हैं और शान से धरती को बर्बाद भी कर रही हैं। यह तो स्पष्ट है कि जब तक इंसान रहेगा फसलों और अनाजों की जरूरत बराबर बनी रहेगी। पर इसे मुनाफे का धंधा बनाने की जिद किसानी और किसानों को उजड़ने के लिए मजबूर करती रहेगी। इसलिए जबरन किसानी शब्द को किसानों से विलगाने का सफल खेल जारी है। अब यह किसानी या खेती नहीं हैं बल्कि मुनाफे के लिए किया जाने वाला महज प्रोडक्शनहै। जिसके अंतर्गत किसान एक तरफ आत्महत्या के नए नए तरीकों पर शोध करने को मजबूर होंगे तो दूसरी तरफ कम्पनियाँ अपने शेयर होल्डरों को खुशियों की सौगात भेंट करती रहेंगी। इस नई व्यवस्था में सिर्फ होरी ही किसान से मजदूर बनता हुआ विकास की सड़क को निर्मित करने की प्रक्रिया में शहीद नहीं होगा। यह हर उस किसान की नियति है जो अब भी अपनी उम्मीद किसानी में देखता है।
        
   इतनी विकट परिस्थिति में भी आदिवासी किसान एक उम्मीद की तरह दिखाई पड़ते हैं । खेती से उनका मोह और उनकी निष्ठा अब भी ख़त्म नहीं हुई है। अपने गीतों में ही नहीं बल्कि अपने जीवन में भी उन्होंने खेती की उम्मीद को बरक़रार रखा है। आदिवासी समुदाय मनुष्यता से जुड़ी उम्मीद को अपने अस्तित्व की कीमत पर बचा कर रखने का हिमायती रहा है। ऐसा नहीं है कि यहाँ चुनौती नहीं है या अपनों ने साथ नहीं छोड़ा है या आंतरिक और बाहरी षड्यंत्रकारी नहीं हैं, पर अब भी यहाँ नाउम्मीदी का साया इतना गहरा नहीं हो पाया है। अब भी किसानी यहाँ उम्मीद है, अब भी यहाँ

काले घने बादलों के बीच
भीगता हुआ सर
माथे से टपकती बूँद
हाथों में धान का बीड़ा
घुटनों तक कादो में धंसे पाँव
गा रहा है गाँव”  (सरिता सिंह बड़ाईक, ‘रोपनी’)

                            
संदर्भ
1.            संपादक - रमणिका गुप्ता, आदिवासी स्वर और नई शताब्दी  
2.            रोज केरकेट्टा , अबसिब मुरडअ (कविता संग्रह)
3.            संपादक हरिराम मीणा, समकालीन आदिवासी कविता

4.            http://www.rajuthokal.com/2014/10/blog-post_79.html


                                   राजीव कुमार
                                 अतिथि प्राध्यापक
                           हिंदी विभागहैदराबाद विश्वविद्यालय.
                      मो.- 8500109921,ईमेल rajeevrjnu@gmail.com

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