आलेख : निर्मला पुतुल की कविताओं में आदिवासी स्त्री / विजयश्री सातपालकर

आलेख : निर्मला पुतुल की कविताओं में आदिवासी स्त्री / विजयश्री सातपालकर

    

इस जगत में मानव ने बहुत तरक्की कर ली है। आधुनिक कहे जानेवाले मानव ने सभी क्षेत्रों में विकास कर लिया किन्तु वैचारिक तौर पर आज भी पुरातन पंथी है। आज स्त्री को पुरुष के बराबर समझा जाता है। किन्तु क्या यह सच है? इस पुरुष सत्तात्मक समाज में हमेशा से ही स्त्रियों को पुरुषों से दुर्बल समझा जाता हैं। स्त्री को अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए आज भी संघर्ष करना पड़ रहा है। स्त्री को केवल उपभोग की वस्तु समझा जाता है। हम आधुनिकता से उत्तर आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं। किन्तु स्त्री के प्रति हमारा दृष्टिकोण आज भी नहीं बदला, साहित्य के माध्यम से स्त्री को सामने लाने का प्रयास किया जा रहा है। हिन्दी साहित्य की सभी विधाओं में स्त्रियों पर भी रचनाएँ लिखी गयी हैं। आज महिलाएं भी अपनी लेखनी के माध्यम से अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही हैं। अपनी लेखनी के द्वारा स्त्री के सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, और मानसिक स्थिति को उजागर कर रही है। जिससे उनकी स्थितियों को वाणी मिली है। ऐसी ही कवयित्रियों में चर्चित है निर्मला पुतुल।


निर्मला पुतुल का जन्म झारखंड राज्य के दुमका जिले के दूधनी कुरुवा गाँव में एक संथाल आदिवासी परिवार में हुआ। निर्मला पुतुल की कविताओं में आदिवासी जीवन के बहू आयामों को देखा जा सकता है। साथ ही स्त्रियों की पीड़ा, वेदना, उपेक्षा, विवशता को भी उजागर किया है। उनकी कविताओं के माध्यम से स्त्री अपने दर्द को अभिव्यक्त करने के साथ पुरुष व्यवस्था का भी विरोध करती है। निर्मला पुतुल अपने कविताओं में स्त्रियों के प्रति किए जाने वाले शोषण को भी उजागर करती है। इन स्त्रियों में आदिवासी स्त्रियों का भी समावेश हैं जिनका शोषण किया जाता है।


एक स्त्री को अपना जीवन पिता, पति, और पुत्र के सहारे ही जीना पड़ता है। इस पुरुष प्रधान समाज में वह अपने अस्तित्व के साथ अपना स्थान भी तलाशती है। स्त्री को एक ही समय में स्थापित और निर्वासित होना पड़ता है। बचपन से लाड़-दुलार से उसे बड़ा करके विवाह के उपरांत पति के अनजान घर भेजा दिया जाता है। इसी वेदना को व्यक्त करते हुए कवयित्री कहती है,


“क्या तुम जानते हो

अपनी कल्पना में

किस तरह एक ही समय में

स्वयं को स्थापित और निर्वासित

करती है एक स्त्री?”1


निर्मला जी की कविताओं में चित्रित स्त्री अपने घर, परिवार, रिश्तों, नातों में अपना स्थान खोजती है। अपने अस्तित्व की तलाश करते हुए अपनी जमीन तलाशती है। इसका चित्रण वह “अपने घर की तलाश में” कविता में दिखाई देता है। वह कहती हैं-

“धरती के इस छोर से उस छोर तक

मुट्ठी भर सवाल लिए मैं

दौड़ती-हाँफती-भागती

तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर

अपनी जमीन, अपना घर

अपने होने का अर्थ” 2


आदिकाल से ही स्त्री को केवल चार दीवारी में ही सीमित रखा गया है। उसकी सारी इच्छाओं का दमन किया जाता है। जब-जब उसने अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का विरोध करना चाहा तब प्रेमवश या क्रोध से पुरुष उसे दबाता चला आ रहा है। पुरुष के लिए स्त्री सिर्फ भोग की वस्तु रही है। भोग के अतिरिक्त पुरुष स्त्री को कभी जान ही नहीं पाया। कवयित्री “क्या तुम जानते हो” कविता में कहती है-

“क्या तुम जानते हो

पुरुष से भिन्न

एक स्त्री का एकांत।

घर प्रेम और जाती से अलग

एक स्त्री को उसकी अपनी जमीन

के बारे में बता सकते हो तुम?”3

पुरुष ने कभी स्त्रियों की वेदना को जाना ही नहीं। कवयित्री कहती है कि पुरुष स्त्री के गर्भ में बीज तो छोड़ देता है, किन्तु गर्भवती स्त्री की वेदना को समझने की कोशिश कभी नहीं की। उसने स्त्री को सिर्फ रसोई, गृहस्थी संभालने तक ही सीमित रखा। इसे छोड़कर स्त्री के मन में चल रहे द्वंद्व को कभी नहीं जाना। इस संदर्भ में निर्मला पुतुल का कहना है,

“तन के भूगोल से परे

एक स्त्री के

मन की गाँठे खोल कर

कभी पढ़ा है तुमने

उसके भीतर का खौलता इतिहास?

अगर नहीं!

तो फिर जानते क्या हो तुम?4


रसोई और बिस्तर के गणित से परे पुरुषों की भांति ही स्त्री भी मेहनती होती हैं। अपने उदरनिर्वाह के लिए कड़ी मेहनत करती है। आदिवासी स्त्रियाँ अपने जीविका के लिए चटाइयाँ, पंखा आदि बनाती हैं किन्तु उनका प्रयोग स्वयं के लिए नहीं कर सकती। इसी विडम्बना को कवयित्री बाहामुनी कविता में रेखांकित करती है,


“तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते है पेट हजारों

पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट

कैसी विडम्बना है कि

जमीन पर बैठ बुनती हो चटाइयाँ

और पंखा बनाते टपकता है

तुम्हारे करियाये देह से टप..टप..पसीना।”5


निर्मला पुतुल अपनी कविताओं के माध्यम से अपनी कविताओं में स्त्री की वेदना को व्यक्त करती हैं। स्त्री को पुरुष की तुलना में कमजोर समझा जाता है और उनकी मेहनत को नजरंदाज कर दिया जाता है। निर्मला पुतुल के कविताओं कि स्त्री समाज की सारी बंधनों को तोड़ उन्मुक्त आकाश में विचरण करना चाहती है। जिन बंधनों ने उसे सदैव दबाये रखा उससे मुक्ती चाहती है,

एक उन्मुक्त आकाश

जो शब्द से परे हो

एक हाथ

जो हाथ नहीं

उसके होने का आभास हो!”6


वह अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती है। वह घर, प्रेम और जाती से परे अपनी जमीन तलाशती है जो सिर्फ उसकी हो। इन कविताओं के माध्यम से निर्मला पुतुल स्त्री को सिर्फ देह समझने वाली मानसिकता का खंडन करती है। कवयित्री आदिवासी स्त्रियों के साथ होने वाले अत्याचार और शारीरिक शोषण को सबके सामने लाती है। तथाकथित सभ्य समाज में रहने वाले पुरुष उनकी तरफ ललचाई हुयी आँखों से उनके देह को निहारते रहते है।


“मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नजर में

प्रिय है तो बस

मेरे पसीने से पुष्ट हुए अनाज के दाने

जंगले के फूल, फल, लकड़ियाँ

खेतों में सब्जियाँ घर की मुर्गियाँ

उन्हें प्रिय है मेरी गदराई देह।”7


निर्मला पुतुल की कविताएं स्त्री से संबन्धित हर यातनाओं को पाठक के समक्ष उघाड़कर रखती हैं। स्त्री सब कुछ सहती है किन्तु कुछ नहीं कहती। पुरुष सत्तात्मक समाज में वह दबकर बेबस पीड़ा सहने के लिए विवश है। स्त्री दूसरों का जीवन तो जोतिर्मय करती है किन्तु स्वयं के जीवन में अंधकार पाती है।

“सब कुछ सहती है

मन ही मन गुनती है

लकड़ी सी घुनती है

आँसू पीती है।

घुट-घुट जीती है

मोम सी पिघलती है

कुछ न कहती है

रोज जन्मती मरती है

घर भर की पीड़ा सहती है

सबकी सुनती है।”8


कवयित्री अपनी कविताओं में स्त्री की मुक्ति की कामना करती है। स्त्री समाज में अपना स्वतंत्र जीवन चाहती है। निर्मला पुतुल की कविता स्त्री संवेदना और भावना को व्यक्त करने के साथ हमें स्त्रियों की दशा पर चिंतन करने के लिए विवश करती है। स्त्री की मुक्ति ही निर्मला जी की कविताओं का केंद्र बिन्दु है। स्त्री को पहचान दिलाना ही इन कविताओं का ध्येय है। कवयित्री अपनी कविताओं के माध्यम से स्त्रियों को इतिहास में नई जगह दिलाना चाहती है।


“स्त्रियों को इतिहास में जगह नहीं मिली

इसलिए हम स्त्रियाँ लिखेंगे अपना इतिहास

हमारा इतिहास उन

इतिहास की तरह नहीं होगा

जिस तरह लिखे जाते रहे

अब तक इतिहास

हम खून से लिखेंगे अपना इतिहास

हम समय की छाती पर पाव रखकर

चढ़ेंगे इतिहस की सीढ़ियाँ

और बुलंदियों पर पहुँचकर

फहरएंगे अपने नाम का झंडा

कुछ इस तरह

हम स्त्रियाँ दर्ज कराएंगी

इतिहास में अपना इतिहास।”9


कवयित्री ने केवल स्त्रियों के शोषण का वर्णन ही नहीं किया अपितु कविताओं के माध्यम से विद्रोह भी व्यक्त करती है। वह निडर होकर अपने ऊपर किए जुल्मों को सबके सामने प्रस्तुत करते हुए क़हती है,


“पर तुम ही बताओं, यह कैसे संभव है?

आँख रहते अंधी कैसे हो जाऊँ मैं?

कैसे कह दूँ रात को दिन?

खून को पानी कैसे लिख दूँ।”10


निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सदियों से पुरुष सत्तात्मक समाज द्वारा प्रताड़ित स्त्री पुरुष के लिए केवल भोग्या ही रही। स्त्री का शोषण और उस पर अधिकार जमाने के सिवा और कुछ नहीं किया। पुरुषों ने स्त्री को कभी समझा ही नहीं। निर्मला पुतुल की कविताओं में स्त्रियों के प्रति गहरी संवेदना झलखती है। साथ ही कवयित्री आदिवासी स्त्री की वेदना, संघर्ष, अत्याचार को अपने कविता में अभिव्यक्त करती है। कविता की भाषा सहज होने के कारण आमजन को समझने में आसान है। वस्तुतः कवयित्री अपने समाजवादी चिंतन के द्वारा समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करना चाहती है।

 

संदर्भ

1) निर्मला पुतुल – नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 8

2) निर्मला पुतुल – अपने घर की तलाश में, रमणिका फाउंडेशन, नई दिल्ली, पृ.3

3) निर्मला पुतुल – नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 8

4) वहीं, पृ. 8

5) निर्मला पुतुल – नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 12

6) निर्मला पुतुल – नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 9  

7) निर्मला पुतुल – नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 73

8) निर्मला पुतुल - बेघर सपने, आधार प्रकाशन, पंचकुला हरियाणा, पृ. 104

9) निर्मला पुतुल - बेघर सपने, आधार प्रकाशन, पंचकुला हरियाणा, पृ. 75-75  

10) निर्मला पुतुल – नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पृ. 11

 

विजयश्री सातपालकर

घर नं॰124/5, गांधीनगर, कोलेम-धारबांदोरा, गोवा403410

सम्पर्क : 7875507982, vijayshri_1996@rediffmail.com

                         अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-33, सितम्बर-2020, चित्रांकन : अमित सोलंकी

                                     'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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