शोध : एस. एल. भैरप्पा के उपन्यासों के वर्ण्य विषय / प्रो. राजिन्द्र पाल सिंह ‘जोश’ और केवल कुमार

      एस. एल. भैरप्पा के उपन्यासों के वर्ण्य विषय / प्रो. राजिन्द्र पाल सिंह ‘जोश’ और केवल कुमार

 


शोध-सार 

    शोध पत्र का केंद्र कन्नड़ के प्रख्यात उपन्यासकार एस.एल. भैरप्पा के हिंदी अनूदित उपन्यास हैं। भैरप्पा समाज एवं संस्कृति के प्रति सजग एवं संवेदनशील रहे हैं। भारतीयता के मुखर व्याख्याता के रूप में हमेशा समाज को एक नयी दिशा देते रहे हैं। भैरप्पा ने अपने उपन्यासों के लिए जमीन के किरदारों को चुना है और उनकी आवाज़ को पाठकों तक पहुँचाया है। भैरप्पा के उपन्यास जहाँ मध्यवर्गीय इन्सान के जीवन और आर्थिक हालातों को प्रस्तुत करते हैं वहीं इतिहास और मिथिहास के महान तथ्यों को उजागर करते दिखते हैं जिनके विषय में हम अनभिज्ञ थे। भैरप्पा ने किसी एक विचारधारा के साथ जुड़ कर साहित्य रचना नहीं की है बल्कि अनेक सामाजिक मुद्दों को आवाज़ देना उनका उद्देश्य रहा है, इसी विषय की विविधता के कारण इस शोधपत्र का उद्देश्य उन विषयों को उजागर करना है जिन पर उपन्यासकार ने लेखनी चलाई है।


बीज-शब्द : भैरप्पा, उपन्यास, वर्ण्य विषय


मूल आलेख 


    भारतीय साहित्य के सशक्त उपन्यासकारों में एक नाम एस.एल. भैरप्पा का भी है। उन्होंने अपने भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम केवल उपन्यास को बनाया। उनके उपन्यासों के विलक्षण कथानक एवं अद्भुत चरित्र-चित्रण ने उन्हें उत्कृष्ट रूप प्रदान किया। उन्होंने अपने उपन्यासों में भारतीयता, भारतीय नैतिक मूल्य, संस्कृति, चिंतन-दर्शन एवं मानवतावाद जैसे पहलुओं को समेटा है। उन्होंने जहाँ सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, उच्च-नीचता, नारी शोषण, युवा-भटकन आदि समस्याओं को निर्भीकता से प्रकट किया है, वहीं भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल पक्ष को भी उद्घाटित किया है। उनकी कलम ने विविध विषयों को बड़ी बारीकी से छुआ है, जिसके कारण उनके पाठकों में न केवल साहित्य से जुड़े लोग आते हैं, बल्कि प्रत्येक क्षेत्र का व्यक्ति इनकी कलम का कायल है। वे अपने ‘आवरण’ एवं ‘वंशवृक्ष’ जैसे उपन्यासों के रिकॉर्ड स्थापित करने का मुख्य श्रेय अपने पाठकों को देते हैं । उन्होंने अपने विविध और विशाल पाठक वर्ग के संबंध में ‘भित्ति’ में लिखा है, “मेरी पुस्तकों का पाठक वर्ग अपने आप ही बन चुका था। अनजाने में ही जनता मेरी पुस्तकों से प्यार भी करती है और सम्मान भी देती है। यह मुझे पता ही नहीं था। जनता माने समय काटने को पढ़ने वाले या कम पढ़े-लिखे नहीं; वे भी पढ़ते थे, पर उसके साथ-साथ हाईकोर्ट के न्यायधीश, श्रेष्ठ न्यायधीश, ऊँचे और वरिष्ठ अधिकारी, वकील, मेडिकल कॉलेज के अध्यापक, भारतीय विज्ञान संस्थान के अध्यापक, भाभा अनुविज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अध्यापक मेरे उपन्यास पढ़ चुके थे और उनके प्रशंसक बन चुके थे। तब के कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश गोविंद भट्ट ने हाईकोर्ट पुस्तकालय का उद्घाटन करते हुए कहा था कि, “वकीलों का केवल क़ानूनी पुस्तकें पढ़ने से काम नहीं चलेगा। उन्हें समाजविज्ञान, तत्त्वशास्त्र और गंभीर साहित्य का अध्ययन भी करना चाहिए। उदाहरण के लिए आप लोगों में कितने लोगों ने भैरप्पा की कृतियाँ पढ़ी हैं? दाय भाग, श्राद्ध कर्म, सन्यास, गृहस्थ धर्म आदि। हिंदू कानून से संबंधित अनेक सूक्ष्म कल्पना के भीतरी दृश्य उनके ‘वंशवृक्ष’ को पढ़ने पर समझ में आ जाते हैं। ‘कन्नड़ प्रभा’ में यह बात छपी थी।” [i]


    भैरप्पा के उपन्यास जहाँ एक आम आदमी के जीवन के संघर्ष को उद्घाटित करते हैं वहीं रामायण, महाभारत, मुग़ल शासन और इतिहास की कई घटनाओं के रहस्यों को भी उजागर करते हैं।भैरप्पा अपने उपन्यासों में वैश्विक स्तर पर एक सक्रिय एवं संघर्षरत मनुष्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके उपन्यास राजनीतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और विचारात्मक पहलुओं को समेटे हुए हैं। उनके उपन्यासों के विविध विषयों को अधिक सूक्ष्मता से जानने के लिए यहाँ उनके उपन्यासों का अध्ययन समीचीन होगा।


सांस्कृतिक संरक्षण एवं द्वन्द्व :-

    

    भैरप्पा अपने उपन्यासों में भारतीय समाज में व्याप्त सांस्कृतिक द्वन्द्व और इस द्वन्द्व से संस्कृति के संरक्षण पर बल देते हैं। भैरप्पा का उपन्यास गोधूलि इस विषय से जुदा उपन्यास है।  यह उपन्यास जीवन के प्रति आस्था और मूल्यों के संघर्ष की गाथा है। उपन्यास दो पीढ़ियों के अंतराल के कारण आये सांस्कृतिक द्वन्द्व को भी पेश करता है। उपन्यासकार ने कर्नाटक के ग्रामीण अंचल के माध्यम से भारतीय संस्कृति, सांस्कृतिक गौरव, भारतीय अस्मिता और भारतीय समाज की पहचान को उभारा है। उपन्यास में जहाँ कलिंग गौड़ा के माध्यम से एक विशाल हृदय और भारतीय संस्कृति की मान्यताओं के विश्वासी व्यक्ति का चित्रण है, वहीं कलिंग और हिल्डा के द्वारा प्रयोगवादी एवं आधुनिकता के नाम पर अपने संस्कारों को भूलने एवं धनलोलुप्त व्यक्तियों का चित्रण भी किया है। हम उपन्यास में दो पीढ़ियों के अन्तराल से आए सांस्कृतिक बदलाव के कारण सामाजिक परिवर्तन और नैतिकता को पत्नोन्मुख होते हुए देख सकते हैं। उपन्यास आधुनिकतावाद के कारण दोराहे पर खड़े भारतीय समाज को चित्रित करता है, जो न तो पुराने को त्याग पा रहा है और नवीन को स्वीकार करने में भी असमर्थ है।

     

    कलिंग गौड़ा और वेंकटरमण वैदिक और सनातन मान्यताओं का पक्ष लेते हैं, तो कलिंग और हिल्डा आधुनिकता के पक्षधर बने हुए हैं। उपन्यास का केन्द्र गाय पर आश्रित है और भारतीय समाज की पशुओं प्रति दोगली प्रवृति को भी प्रकट करता है। धर्म के नाम पर किए जा रहे पशुसंहार का विरोध इसमें मुखर रूप से उद्घाटित होता है। पशुओं की चरागाहों को नष्ट करके खेतों में तब्दील कर अधिक फसल उपजाने की सरकारी नीति के कारण देहाती जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को भी यह उपन्यास रेखांकित करता है। उपन्यास की सृजनभूमि के सम्बन्ध में भैरप्पा ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “कुछ जगहों पर दूध निकालने की मशीनें लगी हुई थीं। वहाँ तो हाथ से दूध निकालने की बात ही नहीं थी। बछड़े का माँ के दूध से कोई संबंध नहीं होता था। यह देखकर मेरी भावनाएँ विचलित हो गईं। मन में प्रश्न उठा कि यह कैसा अमानवीय तरीका है? यह भावना बलवती होने लगी कि इस डेयरी का दूध पीना भी पाप है...यह मेरे लिए नैतिक समस्या का अनुभव था। इसी पृष्ठभूमि पर मैंने ‘जलपात’ और ‘तब्बलियु’ (गोधूलि) उपन्यास लिखे।” [ii]

      

    भैरप्पा ने अमूल डेयरी की कार्यप्रणाली से प्रभावित होकर इन रचनाओं को पाठकों तक पहुँचाया। यह उपन्यास उनके ग्रामीण जीवन के सूक्ष्म परिज्ञान को प्रस्तुत करता है। उपन्यास जहाँ एक और धार्मिक विश्वास, सनातनता और वैदिक वर्चस्व को प्रकट करता है वहीं धार्मिक आडम्बर, अंधविश्वास और आधुनिकता के नाम पर संस्कारों के पतन को भी स्पष्ट करता है। विभिन्न दृश्यों, पात्रों, घटनाओं के माध्यम से अंचल विशेष को आधार बनाकर वहाँ के जीवन के प्रत्येक पहलू को स्पष्ट किया गया है। उपन्यास के अंत में भैरप्पा पुनः सांस्कृतिक संरक्षण की बात स्पष्ट करके पाठक वर्ग को इस विषय पर चिंतन के लिए विवश कर देते हैं।


वंशावली परम्परा की जटिलताओं का खंडन :-


    भारतीय समाज में वंशावली परम्परा अपने पुरातन गूढ़ रूप में व्याप्त है। भारतीय समाज में वंशगत रीतियों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। लोगों द्वारा वंशगत परम्पराओं का ढिंढोरा इस कदर पिटा जाता है कि जिससे एक अयोग्य व्यक्ति को वंशगत परम्परा के तहत योग्य घोषित करके पूर्ण कार्य सौंप दिया जाता है। भैरप्पा ने अपने उपन्यास वंशवृक्ष में वंशावली परम्परा की ऐसी जटिल समस्याओं का खुलकर चित्रण किया है।


    ‘वंशवृक्ष’ उपन्यास अंचल विशेष के माध्यम से वंशावली परम्परा के प्रश्नों का उद्घाटन करने के साथ अंचल विशेष तक सीमित न रहकर अखिल भारतीय एवं विश्व स्तर के प्रश्नों के संगम से वैश्विक रचना का रूप धारण कर लेता है। उपन्यास डॉ. सदाशिवराय, नागलक्ष्मी और करुणरत्ने नामक पात्रों के माध्यम से जीवन के विभिन्न संबंधों, संयोगों और सद्भावों को भी प्रकट करता है। जीवन के लिए निर्धारित लक्ष्यों को अर्जित कर लेना, अपने वंश को आगे बढ़ाने का स्वस्थ संकेत है अथवा संतति के माध्यम से ही वंशीय परम्परा का वहन सहज हो सकता है। अपने उपलक्ष्य में यह कृति इन प्रश्नों से जूझती है। यह रचना सवाल उठाती है कि मनुष्य का जीवन प्रवाह केवल वंशीय परम्परा, धारणाओं एवं रीतियों पर चलकर ही हो सकता है या नहीं? भैरप्पा के उपन्यासों के पात्र उनके जीवन से संबंधित हैं, उनके मित्र दासगुप्त उपन्यास के नायक डॉ. सदाशिवराय के पात्र की प्रेरणा बने हैं, “वास्तव में दासगुप्त जी ने पहली पत्नी और उसके बच्चों को त्यागा नहीं था। वह स्वयं दूर हो गई थीं। यह उन्हें काफी पैसे भेजते थे। पति के गुज़र जाने पर भी सुरमा जी उन बच्चों की पढ़ाई-लिखाई तथा विवाह आदि के लिए पैसे भेजा करती थीं। बच्चे भी छुट्टियों में इनके पास आते रहते थे। ‘वंशवृक्ष’ में सदाशिवराय के पात्र की प्रेरणा यही हैं।”  [iii]


    वंशीय परम्परा की जटिलताओं के कारण जीवन के संत्रास और दुखों का वर्णन भी उपन्यास करता है। उपन्यास इस बात को भी सिद्ध करता है कि यह परम्पराएँ जटिल रूप धारण करके किस प्रकार समाज एवं मानव जीवन को प्रभावित करती हैं। उपन्यास के पात्र जहाँ परम्पराओं के संवाहक बनकर सामने आते हैं, वहीं परम्पराओं का भंजन भी करते दिखते हैं। वंशवृक्ष के सभी पात्र मनुष्यगत अपूर्णताओं के साथ स्वयं में पूर्ण हैं। वंशावली परम्परा की मान्यताओं के चित्रण के साथ ही इसके कुप्रभावों को भी उपन्यास में बड़े सार्थक ढंग से प्रस्तुत करने में भैरप्पा सफल सिद्ध होते हैं।


मन का मनोवैज्ञानिक अध्ययन :-

      

    मानवीय मन का अध्ययन भैरप्पा के मनपसंद विषयों में से एक है। मन की जिज्ञासाओं, दुर्बलताओं, कुंठाओं आदि का अध्ययन करना और उनका यथार्थ चित्रण अपने उपन्यासों में करना भैरप्पा के उत्कृष्ट उपन्यासकार होने को प्रतिबिंबित करता है। मानव मन के इन्हीं भावों को भैरप्पा ने अपने उपन्यास जिज्ञासा में वर्णित किया है। ‘जिज्ञासा’ भैरप्पा का एक अद्भुत मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। इस उपन्यास में मानवीय मूल्यों के साथ ही मानव जीवन की जटिलताओं एवं समस्याओं को चित्रित किया गया है। उपन्यास का नायक विश्वनाथ एक ऐसा पात्र है, जो अपने जीवन की व्यर्थता एवं विफलता के विषय में सोच-सोचकर विकल होता रहता है। अपने मन के भावों की प्रामाणिकता की खोज करना उपन्यास के नायक विश्वनाथ के जीवन का लक्ष्य है। साथ ही विश्वनाथ व्यर्थ के संस्कारों, पुरातन मूल्यों, रूढ़िवादी विश्वासों, अहं और झूठ की समकालीन प्रासंगिकता के प्रश्न उठाता है और इनका तब तक विरोध करता है जब तक बिखर नहीं जाता। वर्तमान समय के साथ चलने की उसकी सोच उसे अन्तर्मुखी बना देती है। विश्वनाथ ने जीवन में जो किया वह गलत था या सही, इस तथ्य को ढूँढने में और उसकी प्रामाणिकता को खोजने में लगा रहता है, किन्तु उसे अंत तक विश्वनाथ नहीं मिल पाता।

     

    उपन्यास विश्वनाथ की जीवनी के रूप में अपना रूप लेता है। विश्वनाथ के माध्यम से लेखक ने यह बताने की प्रयत्न किया है कि वर्तमान समय में यह अत्यावश्यक हो गया है कि हम अपने मूल्यों और भावनाओं की समकालीन प्रासंगिकता खोजें और समकालीन समय के साथ इनका सामंजस्य स्थापित करें। उपन्यास का नायक विश्वनाथ पूर्ण उपन्यास में विविध पात्रों के सम्पर्क में आकर, अपने अस्तित्व की खोज करता रहता है। उपन्यास की एक विशेषता यह है कि नायक विश्वनाथ की जीवनी से उलझे पात्रों में पाठक अपना धूमिल-सा व्यक्तित्व खोजने का प्रयत्न करता रहता है। उपन्यास पाठक को वर्तमान समय के साथ अपने संस्कारों एवं भावनाओं के सामंजस्य स्थापित कर विकास करने के लिए प्रेरित करता है। उपन्यास मनुष्य की कामुक, भावुक और जिज्ञासु जैसी प्रवृतियों को उजागर करता है। मानवीय मन की विभिन्न वृत्तियों का वर्णन इस उपन्यास में मिलता है। मानवीय मन में व्याप्त क्रोध नामक वृत्ति का वर्णन उपन्यास में इस प्रकार किया गया है, “पिछवाड़े में जाकर एक प्याले में पेशाब किया। होटल का मालिक भट्ट खुद सप्लाई कर रहा था। दस-बीस ग्राहकों के सामने प्यालों में भरा पेशाब भट्ट के सिर पर उंडेल दिया। फिर बोला, ‘स्साला, दो दिन से पेट में कुछ नहीं इसलिए पायखाना नहीं आया। वरना उसी को लाकर तेरे सिर पर उंडेल देता।” [iv]

      

    उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि भैरप्पा ने अपने इस उपन्यास में मानवीय मन की दुर्बलताओं का यथार्थ वर्णन किया है, इसके साथ ही मानवीय मन के ग्लानि, स्वाभिमान, कृतज्ञता जैसे भावों को भी यथा स्थान दिया है। कृतज्ञता के भाव को उपन्यास की यह पंक्तियाँ स्पष्ट करती है, “आज भी मैं उसको याद करता हूँ। लंपटता से नहीं; मेरे प्राण बचाए- इस कृतज्ञता के कारण।” [v] अत: हम कह सकते हैं कि उपन्यास मानवीय मन का अध्ययन और अध्ययन के निष्कर्षों का यथार्थ वर्णन है।


आर्थिक अभाव का  चित्रण :-

      

    आर्थिक अभाव और विषमता का चित्रण भैरप्पा ने वृहद मात्रा में किया है। इनका जीवन आर्थिक अभाव में गुज़रा था। बचपन से आर्थिक अभावों को झेलते हुए भैरप्पा बड़े हुए। भैरप्पा के प्रत्येक उपन्यास में आर्थिक अभाव और विषमता का चित्रण मिलता है। इनके लगभग सभी उपन्यासों में कोई-न-कोई पात्र आर्थिक अभाव से ग्रस्त दिखाई दे जाता है, जो मुख्य या गौण रूप से भैरप्पा के जीवन का ही प्रतिनिधित्व करता है। भैरप्पा ने अपने उपन्यास ‘निराकरण’ में आर्थिक विषमताओं से टूटकर बिखरते रिश्तों और इन स्थितियों से भागते मनुष्य के यथार्थ को यहाँ प्रकट किया गया है। मध्यवर्गीय परिवारों की आर्थिक विषमताओं पर आधारित यह उपन्यास नायक नरहरि के संघर्षों की जीवंत गाथा है। नरहरि के माध्यम से लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि किस प्रकार आर्थिक तौर पर बिगड़ी हालत के कारण अपने कर्तव्यों से भागकर, बच्चों को दत्तक में देकर एक मध्य वर्गीय व्यक्ति संन्यासी बनकर आत्मिक शांति प्राप्त करने जाता है। वर्तमान समय में अर्थ की महत्ता को स्पष्ट करता यह उपन्यास भविष्य की अनिश्चितता की ओर भी संकेत करता है। उपन्यास में पारिवारिक सुख से विमुख होकर पहाड़ों में जाकर शांति की खोज करने की मनुष्य की चेष्टा का वर्णन किया गया है। मानव जीवन में आने वाले दुखों का कारण अर्थ की कमी को न मानकर लेखक ने मनुष्य के अपने कर्तव्यों एवं संबंधों से विमुखता को माना है।


    आर्थिक अभाव में टूटते रिश्तों और परिवारों को उपन्यास में वर्णित किया गया है। नरहरि की बिगड़ी आर्थिक स्थिति के कारण बच्चों को दत्तक देने की घटना आर्थिक रूप से पतनोन्मुख भारतीय समाज को उद्घाटित करती है, “लक्ष्मण को बडौदा के पटेल दम्पति को और राम को जयपुर के चाँदमल दम्पति को देने की बात फ़िलहाल निश्चित हो गयी। दोनों दम्पति रात को नौ बजे तक बैठे रहे।” [vi] ‘जिज्ञासा’ उपन्यास का नायक विश्वनाथ भी आर्थिक रूप से कमज़ोर एवं पूरे उपन्यास में अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के प्रयत्नों में लगा रहता है। भैरप्पा ने अपनी आत्मकथा ‘भित्ति’ में अपनी पारिवारिक आर्थिक स्थिति का वर्णन किया है। इन्होंने अपने संघर्षपूर्ण जीवन में पैसे की कमी को इस पुस्तक में इस प्रकार वर्णित किया है, “एक हो जोड़ा कपडे थे। उन्हीं को धो-सुखाकर पहना करते था। इसी से वे फटने लगे थे। तब तक काफी समय चलने वाला सिंथेटिक कपड़ा नहीं आया था। सूती कपडा जल्दी फटता था। पैसे मिलने पर दो कमीज़-पाजामे बनवाए। एक धोकर दूसरा पहनने का ऐश्वर्य मुझे जीवन में पहली बार प्राप्त हुआ।”[vii] भैरप्पा ने अपने उपन्यासों में आर्थिक स्तर पर पिछड़े मनुष्य का चित्रण किया है। उनके अनुसार आर्थिक विषमता सामाजिक भेदों को और बढ़ा देती है। इसलिए भैरप्पा अपने उपन्यासों में अर्थी समानता के पक्षधर दिखते हैं।


जाति-पाति का खंडन :-


    भैरप्पा उच्च जाति से संबंधित थे किन्तु अपनी माता की सौहार्दपूर्ण परवरिश के कारण जातिगत भेदभाव से हमेशा दूर रहे। इनके अनुसार मनुष्य को सिर्फ मनुष्यत्व का ही पालन करना चाहिए, जातिगत भेदभाव या जातिगत अभिमान मात्र मुर्खता की निशानी है। ये हमेशा हर जाति के लोगों के प्रति उदार रहे हैं और उनका यह उदारता का भाव उनकी आत्मकथा से लेकर उपन्यासों में स्पष्ट दिखाई देता है। भैरप्पा ने अपने उपन्यास गोधूलि, जिज्ञासा, वंशवृक्ष, छोर, आधार, साक्षी के साथ उल्लंघन उपन्यास में इस भाव का यथा वर्णन किया है।


    उपन्यास उल्लंघन जाति-विभाजन, जाति-आधारित समाज रचना एवं इसके दुष्परिणामों को लेकर लिखा गया है। जातिगत भेदभाव और अंतरजातीय विवाह जैसे मुद्दों को मुख्य मानकर लिखा गया यह उपन्यास जातिगत वैषमय, अंतरजातीय विवाह के दुष्परिणामों, रक्त संबंध का मोह, प्रतिष्ठा का ढोंग, अहंकार और अनुचित क्रांति विवेक आदि समस्याओं को विस्तार से प्रकट करता है। उपन्यास अंचल विशेष का न रहकर राष्ट्रीय फ़लक तक अपना विस्तार प्राप्त करता है। जातिगत समन्वय स्थापित करने वालों के साथ स्वजाति के लोगों द्वारा किए जाने वाले दुर्व्यवहार और अपनी जाति से नीची जाति के लोगों के सम्पर्क में आने पर बहिष्कार मिलने जैसी जातिगत अपमानता का चित्रण बड़े निर्भीक ढंग से किया गया है। दलितों को हमेशा इस जातिगत विषमता का दंश झेलना पड़ा है और यह उपन्यास भी इसी तथ्य को स्पष्ट करता है। उपन्यास दलितों के मंदिर प्रवेश पर रोक और हरिजनों के मंदिर प्रवेश करने के बाद मंदिर को गोमूत्र से शुद्ध करना, इस भेदभाव से भलीभाँति अवगत करवा देता है। उपन्यास में प्रस्तुत जातिगत भेदभाव के चित्रण की झलक इससे मिल जाती है, “वेंकटेश इससे परिचित नहीं था कि वृद्ध पटेल छुआछूत को बहुत मानते हैं। अपनी जात वक्कलिगा के अतिरिक्त अन्य शूद्रों अर्थात् गड़रिये, गिलकार, नायक, जुलाहे आदि के घर वे पानी तक नहीं पीते। सिर्फ ब्राह्मणों के घर खाते हैं। उनके कुलदेव भगवान तिरुमल के अर्चकों के घरों को अपना ही समझते हैं।”[viii]


    लेखक ने अपने जीवन में मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाया है और उनका यह दृष्टिकोण इस उपन्यास में देखने को मिलता है। ऊँची जाति के लोगों द्वारा अपने भोग-विलास और शारीरिक सुख के लिए शुद्र जाति की स्त्री से संपर्क करना और बाद में गोमूत्र से स्नान कर अपने-आप को स्वच्छ कर लेने की ब्राह्मणवादी प्रवृत्ति पर भी लेखक ने प्रश्न उठाया है। जातिगत व्यवस्था के जाल को परत-दर-परत उधेड़ते इस उपन्यास को दलित लोगों द्वारा सराहा गया, जिसका वर्णन भित्ति में भैरप्पा करते हैं, “दलित पंथ की जन्मभूमि महाराष्ट्र के दलित आंदोलन के प्रमुख पूना के वाघ दंपती का कहना है कि जाति की भीतरी समस्याएँ इतनी सूक्ष्मता से परत-दर-परत खोलकर दिखानेवाला ऐसा कोई दूसरा उपन्यास नहीं है। उन्होंने इस उपन्यास को बेहद पसंद किया। वाघ जन्म से दलित हैं। उनकी पत्नी ब्राह्मण हैं।”[ix] उपन्यास जातिगत रूढ़िवादिता के कारण पिता द्वारा तज्य और तिरस्कृत बेटी, उपन्यास की नायिका के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसे नीची जाति के लड़के से प्रेम हो जाता है। प्रेम करने की सज़ा नौकरी से निकाले जाना और पिता की मार के रूप में मिलती है। भैरप्पा ने अपनी आत्मकथा में भी जातिगत भेदभाद को खुलकर वर्णित किया है। भैरप्पा ने सम्पूर्ण जीवन इस व्वस्था को देखा और इसके विरोध में डटकर खड़े हुए। भित्ति का एक अंश इस व्यवस्था के कटु सत्य को वर्णित करता है, “इस प्रकार सप्ताह में पाँच दिन का खाना पक्का हो गया। मास्टर जी ने कहा, “बाकी दो दिन हमारे ही घर खा लेना, पर किसी को यह मत बताना कि तुम यहाँ खाना खाते हो। लिंगायतों के घर खाना खाता है, यह पता चल जाने पर लोग (ब्राह्मण) तुम्हें अपने घर में खाना नहीं देंगे।”[x]


    इस प्रकार भैरप्पा ने अपने उपन्यासों में जातिवाद एवं जातिगत वर्ण व्यवस्था का डटकर विरोध किया है और सामाजिक समानता का प्रचार और प्रसार करना उनका मुख्य उद्देश्य रहा है।

 

नैतिक मुल्यों का प्रतिपादन :-

      

    भैरप्पा का नैतिक मुल्यों के प्रति विशेष प्रेम रहा है। इनके अनुसार मनुष्य के नैतिक मूल्यों में गिरावट आना उसके सांस्कृतिक-सामाजिक पतन का आरम्भ होता है। भैरप्पा ने अपने जीवन में कभी भी नैतिक मूल्यों के विपरीत कोई कार्य नहीं किया। सत्य, अहिंसा, कृतज्ञता, पश्चाताप, शिष्टाचार जैसे नैतिक मूल्यों का इन्होंने कभी अतिक्रमण नहीं किया। इन्होंने इन मूल्यों की महत्ता और इनकी व्यापकता का वर्णन अपने उपन्यासों में किया है।


    भैरप्पा का उपन्यास ‘साक्षी’ असत्य पर सत्य की विजय गाथा का प्रतिबिंब है। साक्षी उपन्यास भारतीय समाज में व्याप्त नैतिक मूल्यों की परिधि है। इस उपन्यास में उपन्यासकार ने अशिव की अतल गहराइयों से उतरने की चेष्टा की है। सत्य और असत्य के द्वन्द्व और सत्य की असत्य पर विजय उपन्यास का मूल है, जिसे मंजय्या (असत्य का मूर्त रूप) और परमेश्वरय्या (सत्य का मूर्त रूप) जैसे पात्र सिद्ध करते हैं। अनैतिकता, अमानवता और काम-वासना जैसे तत्त्व किस प्रकार व्यक्ति को पथ भ्रष्ट कर गलत मार्ग पर ले जाकर जीवन का अंत कर देते हैं, उपन्यास इस तथ्य को भी स्पष्ट करता है। नैतिक मूल्यों के ह्रास और उसके पश्चाताप की गाथा को साक्षी के माध्यम से लेखक ने पेश किया है। परमेश्वरय्या द्वारा अपने दामाद को सजा से बचाने के लिए दी गई झूठी गवाही के पश्चाताप में अपने प्राण त्याग देना, वर्तमान समय में समाज में व्याप्त नैतिक मूल्यों के अस्तित्व को उजागर करता है। लेखक ने परमेश्वरय्या के माध्यम से सत्यनिष्ठ व्यक्ति को चित्रित किया है। उपन्यास में पश्चाताप और आत्मग्लानि जैसे नैतिक मूल्यों को उपन्यास की पात्र सावित्री के यह कथन स्पष्ट करते हैं, “सावित्री बोली, “आप जानते हैं पिताजी को मारने वाली मैं हूँ!” वह उसका चेहरा देखता रहा। इस सारी घटना के अन्याय की जिम्मेदारी मेरी है- इतने भाव से उसकी आँखे भर आयीं।”[xi]


    उपन्यास के अंत में लक्कू द्वारा मंजय्या के पुरुष तत्व को नष्ट करना असत्य की हार का प्रतीक है। उपन्यासकार ने असत्य और अभिमान पर सत्य और नैतिक मूल्यों की विजय को प्रकट किया है। इस उपन्यास के अलावा भैरप्पा ने अपने उपन्यास गोधूलि, जिज्ञासा, छोर, आधार, निराकरण और आत्मकथा भित्ति में भी नैतिक मूल्यों का विस्तार से वर्णन किया है। इनके पात्र नैतिक मूल्यों के धारिणी हैं और उनके पालन करते दिखते हैं।

 

ऐतिहासिक तथ्यों का स्पष्टीकरण :-


    भैरप्पा केपन्यास शोधपरक हैं। उन्होंने अपने उपन्यासों में केवल कल्पना का पुट नहीं दिखाया है। इनके उपन्यास साहित्य में सार्थ और आवरण ऐसे ही शोधपरक उपन्यास हैंजिनकी रचना में भैरप्पा की शोध के प्रति रूचि स्पष्ट दिखाई देती है। भैरप्पा ने भारत के गौरवपूर्ण इतिहास का गहन अध्ययन किया और उसके निष्कर्षों को उपन्यास का रूप दिया है। सार्थ भैरप्पा का प्रथम सांस्कृतिक-ऐतिहासिक उपन्यास है। उपन्यास की पृष्ठभूमि आठवीं शती के भारत की ऐतिहासिकता है। आठवीं शती में जब भारत में वैदिक धर्म अपनी कट्टरतादुर्बलताओं एवं संस्कार विहीनता के कारण पत्तनोन्मुख हो रहा था। वैदिक धर्म के पतन के साथ बौद्ध धर्म के उत्कर्ष के इस काल की परिस्थितियों को बड़े रोमांचक ढंग से उपन्यास में पेश किया गया है। उपन्यास का नाम ‘सार्थ’ व्यापारियों के कबीले के अर्थ को स्पष्ट करता है। उपन्यासकार ने उपन्यास में समाज में फैली तीन धर्मों की टकराहट को उजागर किया हैजहाँ एक और वैदिक धर्म अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा थातो दूसरी ओर इन परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए बौद्ध धर्म अपने मठों और विहारों से अपने धर्म का प्रचार कर रहे थेतो तीसरी ओर मुस्लिम तलवार की नोक पर अपना वर्चस्व स्थापित करने में लगे हुए थे। बौद्ध धर्म का यह उत्कर्ष काल थाउसके आचार्य धर्म प्रचार के लिए स्तूपोंचैत्यों और विहारों के निर्माण में जुटे थे। उपन्यास में नागभट्ट के माध्यम से एक राजा द्वारा सार्थ के गूढ़ रहस्यों को जानने की इच्छा को भी प्रकट किया गया है। उपन्यास ऐतिहासिक उपन्यास की सभी विशेषताओं को भलीभांति पूर्ण करता है। माखनलाल शर्मा के यह शब्द ऐतिहासिक उपन्यास की उन विशेषताओं को प्रस्तुत करते हैंजो सार्थ और आवरण में दिखाई देती हैं“ऐतिहासिक उपन्यास का महत्त्व तो केवल उसी में है कि उसमें किसी प्राचीन कला के जीवन का पूर्ण विस्तृत वर्णन किया जायेजिससे पाठकों के सामने उस काल का जीता जागता चित्र उपस्थित हो जाये और यह बात तभी हो सकती हैजब लेखक ने उस काल की सभी बातों का भलीभांति अध्ययन किया हो और साथ में उनका ठीक-ठाक वर्णन करने की शक्ति भी हो।”[xii]


    आवरण भैरप्पा कृत दूसरा ऐतिहासिक उपन्यास हैकिन्तु यह उपन्यास मूल ऐतिहासिकता के साथ शोध प्रविधि से लिखा गया है। उपन्यास में दिए गए तथ्यों को आधारों के साथ स्पष्ट किया गया है। उपन्यास ‘सार्थ’ उपन्यास के पश्चात की भारतीय समाज की सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का यथार्थ प्रकट करता है। उपन्यास भारत में स्थापित मुगल साम्राज्यमुगलों की शासन नीतियुद्ध नीति एवं मुगल हरमों के भीतरी यथार्थ के रहस्यों को स्पष्ट करता है। मुगलों के भारतीय राजाओं पर किए गए हमलोंहमलों के पश्चात की परिस्थितियों और बंदी राजाओं और प्रजा के साथ किए जाने वाले निर्मम व्यवहार को भी उपन्यास स्पष्ट करता है। उपन्यास के सृजन के लिए लेखक ने परिश्रम की प्रत्येक सीमा को लाँघकर मुस्लिम लोगों से और इतिहास ग्रंथों के गूढ़ अध्ययन से जानकारी इकट्ठा करके अपनी कलम से साहित्य और इतिहास का संबंध स्थापित किया। उपन्यास के सृजन विषय में स्वयं लेखक का कहना है“इस उपन्यास की ऐतिहासिकता के विषय में मेरा अपना कुछ भी नहीं है। प्रत्येक अंश या पग के लिए ऐतिहासिक आधार हैं उनको साहित्यिक कलात्मकता जहाँ तक सँभाल पाती हैवहाँ तक मैंने उपन्यास के अंदर ही शामिल कर लिया है। उपन्यास के तंत्र के विन्यास में यह अंश किस प्रकार प्रधान रूप में कार्यान्वित हुआ हैइसको सर्जनशील लेखक और दर्शनशील पाठकदोनों पहचान सकते हैं। शेष आधारों को उपन्यास के अंदर के उपन्यास को रच डालने वाले चरित्र ने हीअपनी क्रिया की आवश्यकता के रूप मेंप्रस्तुत कर दिया हैन कि मैंने। इस पूरी वस्तु को जो अद्यतन रूप प्रदान किया हैउसमें ही मेरी मौलिकता है। इतिहास की सच्चाई में कला का भाव यदि छुआ हैतो वहाँ तक साहित्य के रूप में यह सफल हुआ हैऐसा मैं मानता हूँ।[xiii] कुछ उ


    उपन्यासकार ने उपन्यास में समकालीन समाज में व्याप्त धर्म की कट्टरता और साम्प्रदायिकता की समस्या को इतिहास के कलेवर में लपेट कर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। उपन्यास प्रगतिवादी और प्रगतिशील विचारधारा का रूढ़िवादी कट्टर विचारधारा से टकराव प्रस्तुत करता है । इस प्रकार भैरप्पा ने अपने उपन्यासों में शोध के माध्यम से इतिहास के कुछ नवीन तथ्यों को स्पष्ट करने की सफल चेष्टा की है। इन्होने इतिहास के कुछ ऐसे बिन्दुओं को उठाया है जिससे हम अनभिज्ञ थे और तर्कों एवं सबूतों के आधार पर अपनी बात को स्पष्ट भी किया है।


    एस. एल. भैरप्पा आधुनिक समय के ऐसे सशक्त उपन्यासकार हैं जो किसी वाद के घेरे में आकर नहीं लिखते। भैरप्पा ने मानव जीवन से जुड़े प्रत्येक विषय पर अपनी स्वतंत्र लेखनी चलाई है। इनके उपन्यासों के विवेचनात्मक अध्ययन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भैरप्पा ने संस्कृति, इतिहास, मिथिहास, मानव मूल्य, स्त्री मुक्ति, स्त्री-संघर्ष, धर्म, दर्शन एवं औद्योगिक क्रांति एवं विज्ञान आदि विषयों से अपने उपन्यासों के लिए ज़मीन तैयार की है। भैरप्पा ने किसी बंधी-बंधाई परिपाटी से जुड़कर साहित्य रचना नहीं की, उन्होने विविध विषयों पर अपनी मेहनत और अपने ज्ञान का परिचय अपने उपन्यासों में दिया है। उन्होने सांसारिक विषयों पर कलम चलाकर सृष्टि के रहस्यों को पाठकों के समक्ष पेश किया है। भैरप्पा के उपन्यास अपने कलेवर में भारतीय समाज के सभी समकालीन मुद्दों को समेट लेते हैं, जो समाज को प्रभावित करते हैं। इसके साथ ही भैरप्पा ने अपने उपन्यासों में सामाजिक विषमताओं, धार्मिक कट्टरताओं, अंधविश्वासों, विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं, भ्रष्ट राजनीति आदि विविध वर्ण्य विषयों को उकेरा है। इन्होने सामाजिक सौहार्द को स्थापित करने के लिए अपनी लेखनी चलाई है।


    उनके उपन्यासों के विलक्षण कथानक और अद्भुत पात्र-चित्रण इनको विलक्ष्ण उपन्यासकार बनाते हैं। भैरप्पा विविध विषयों को लेकर लिखने वाले आधुनिक समय के ऐसे उपन्यासकार है जिनका अंतिम लक्ष्य ‘मानव कल्याण या मानव हित’ है।

 

सन्दर्भ-

 


[i] एस. एल. भैरप्पा, भित्ति, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण, 2011, पृष्ठ 431

[ii] वही, पृष्ठ 375

[iii] वही, पृष्ठ 351

[iv] एस. एल. भैरप्पा, जिज्ञासा, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण 2011, पृष्ठ 72

[v] वही, पृष्ठ 119

[vi] एस. एल. भैरप्पा, निराकरण, अमरसत्य प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 1993, पृष्ठ 32

[vii] एस. एल. भैरप्पा, भित्ति, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण 2011, पृष्ठ 221

[viii] एस. एल. भैरप्पा, उल्लंघन, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण 2013, पृष्ठ 21

[ix] एस. एल. भैरप्पा, भित्ति, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण 2011, पृष्ठ 405

[x] वही, पृष्ठ 46

[xi] एस. एल. भैरप्पा, साक्षी, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण 2011, पृष्ठ 65

[xii] रोडनवर, विनोद टी., एस.एल.भैरप्पा के उपन्यासों में युवा विमर्श, अभिषेक प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 2016, पृष्ठ 66

[xiii] एस. एल. भैरप्पा, आवरण, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम पेपरबैक संस्करण 2013, फ्लैप से...


प्रो. राजिन्द्र पाल सिंह ‘जोश’

प्रोफेसर

हिंदी विभाग,

स्नातकोत्तर राजकीय कन्या महाविद्यालय,

सेक्टर 42चंडीगढ़ (सेवानिवृत्त)

 

केवल कुमार

शोधार्थी

हिंदी विभाग,

पंजाब विश्वविद्यालयचंडीगढ़


       अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-35-36, जनवरी-जून 2021, चित्रांकन : सुरेन्द्र सिंह चुण्डावत

UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)

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