शोध आलेख : समकालीन आदिवासी कविता का पारिस्थितिक पाठ / डॉ. संतोष कुमार यादव

                शोध आलेख : समकालीन आदिवासी कविता का पारिस्थितिक पाठ / डॉ. संतोष कुमार यादव

(आदिवासी हिन्दी कविता का पर्यावरणवाद आधारित आलोचनात्मक अनुशीलन)

शोध सार : साहित्य को दुनिया भर के पर्यावरणीय आंदोलनों ने प्रभावित किया है। भूमंडलीकरण के पश्चात् अवनयित होते गए पर्यावरण और पारिस्थितिकी के ह्रास ने इस विषय को वैमर्शिक आधार प्रदान किया। साहित्य के पर्यावरणवादी पाठ ने आलोचना का एक नया सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसे पारिस्थितिक-आलोचना अथवा इको-क्रिटिसिज़्मके रूप में जाना गया। साहित्य की सभी विधाओं, सिनेमा, मीडिया और अन्य अनुशासनों में इनके पारिस्थितिकीय पाठ और आलोचना के सिद्धांत प्रस्तुत हुए। आदिवासी कविता आदिवासी जीवन-विवेक और संवेदना से प्रेरित होती है। आदिवासी कला और साहित्य की अन्तः प्रेरणाओं में उनकी विशिष्ट जैविक संस्कृति और उनका वास-स्थल भी निहित होता है। भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था और साभ्यतिक परिवर्तनों ने आदिवासी-जीवन और पर्यावरण को प्रभावित किया है। आदिवासी कवियों द्वारा रचित कविताओं में उनके पर्यावरण और हैबिटेट की चिंता संवेदनात्मक रूप में अभिव्यक्त होती है। इस काव्यात्मक अभिव्यक्ति में उनका पर्यावरण पहले कैसा था, और अब कैसा हो गया है ?’ की चिंता मुखर है। यह चिंता आदिवासी-कविता को हरित कविता या पर्यावरणवादी कविता का स्वरूप प्रदान करती है।    

       बीज शब्द : समकालीन आदिवासी कविता, पारिस्थितिक-आलोचना,हरित कविता,पर्यावरणबोध, कविता और पर्यावरण

 मूल आलेख : आदिवासी कविता को सामान्यतः शोषण के प्रतिरोध और अस्मिता के संघर्ष के रूप में देखा जाता है। यह तर्कसंगत भी है क्योंकि आदिवासियों के सम्मुख अस्मिता और अस्तित्व का बड़ा संकट है। कविता सौंदर्यबोध के साथ अपने वर्ग की अनुभूत जटिलताओं और संवेदनाओं का स्वर अपने भीतर लेकर चलती है। हरिराम मीणा ठीक टिप्पणी करते हैं कि, “इस दृष्टि से आदिवासी कविताओं का विश्लेषण किया जाएगा तो कविता के लिए आदिवासी जीवन का गहन अनुभव, विषयानुरूप भाषा का मुहावरा, संप्रेषणीयता और प्रकृति तथा मानवता के दु:ख-सुख में शामिल होने की प्रेरणा आदि की बातें भी सामने आयेंगी।1 आदिवासी प्रकृति के साहचर्य में निवास करते रहे हैं। उनका प्रकृति-प्रेम कथित मुख्यधारा के सभ्य समाज से भिन्न और नितांत नैसर्गिक है। उनकी लड़ाई जल-जंगल और ज़मीन के साथ पर्यावरण की भी लड़ाई है। प्रकृति के साथ बेरहम छेड़खानी केवल आदिवासियों के अस्तित्व का संकट नहीं है बल्कि सम्पूर्ण मानवता व मानवेतर प्राणी जगत के लिए ख़तरा है। पर्यावरण प्रेमियों के साथ आदिवासी कविता भी सुर मिलाती है।"2

       साहित्य का एक पारिस्थितिक दर्शन भी है। पारिस्थितिक दर्शन यानी पर्यावरणवादी दर्शन। जिसे इको-फिलॉसफ़ी भी कहा जाता है। के. वनजा अपनी पुस्तक साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन में लिखती हैं- इको-फिलॉसफ़ी (Eco-philosophy) का आरंभ एवं विकास 1970 के बाद हुआ। इसकी मुख्य शाखाएँ चार हैं- (1) गहन पारिस्थितिवाद (DeepEcology) (2) सामाजिक पारिस्थितिवाद(SocialEcology),(3) पारिस्थितिक-मार्क्सवाद (Eco-Marxism), (4) पारिस्थितिक स्त्रीवाद (Eco-Feminism)। इन चार शाखाओं के ज़रिए पारिस्थितिक दर्शन विकास प्राप्त कर रहा है। इन शाखाओं को प्रभावित करने वाली कुछ बुनियादी संकल्पनाएँ हैं- वे हैं, भौम सदाचार (EarthEthicsorEnvironmentalEthics), साकल्यता (Holism), हरित अध्यात्मिकता (GreenSpirituality)3 इसके अतिरिक्त साहित्य की एक हरित आलोचना या इकोक्रिटिसिज़्म (Eco-Criticism) भी है जिसमें साहित्य की पर्यावरणोन्मुखी आलोचना की जाती है। पारिस्थितिक-आलोचना वस्तुतः पर्यावरणिक दृष्टिकोण से साहित्य की आलोचना करना है। ग्लोटफेल्टी ने 1996 में प्रकाशित अपनी पुस्तक द इकोक्रिटिसिज़्म रीडर’ (TheEcocriticismReader) में पारिस्थितिक-आलोचना को भौतिक पर्यावरण और साहित्य के मध्य के संबंधों का अध्ययनकहा है। “What then is ecocriticism? Simply put, ecocriticism is the study of the relationship between literature and physical environment.”4ग्रेग गरार्ड जिनकी महत्वपूर्ण पुस्तक इकोक्रिटिसिज़्म2004 में प्रकाशित हुई, ने इसे मनुष्य और मनुष्येतर संबन्धों का अध्ययन कहा है। “Indeed, the widest definition of the subject of ecocriticism is the study of the relationship of the human and the non-human.”5उन्होंने पारिस्थितिक-आलोचना को समकालीन साहित्यिक और सांस्कृतिक सैद्धांतिकी में सबसे भिन्न माना है क्योंकि इसका संबंध पारिस्थितिकी-विज्ञान से है। “Ecocriticism is unique amongst contemporary literary and cultural theories because of its close relationship with the science of ecology.”6पारिस्थितिक-आलोचना के प्रमुख सिद्धांतों में पर्यावरणवाद, मानवेतर कल्पना या मानवेतरवाद, ग्राम्यवाद, ग्रामीणवाद या रोमानी ग्राम्यवाद, वनप्रान्तरवाद, प्रलयवाद या विनाशवाद, सामाजिक-पारिस्थितिकी और पारिस्थितिक-मार्क्सवाद, हाइडेगरवादी पारिस्थितिक-दर्शन, पारिस्थितिक-नारीवाद या इकोफ़ेमिनिज़्म, पर्यावरणिक न्याय आदि प्रमुख हैं। जिनके अंतर्गत साहित्य के पाठ में क्षेत्रीय या वैश्विक स्थान या वातावरण की कल्पना, पृथ्वी का भविष्य-चिंतन, लिंग, आदिम देशीपन, प्राकृतिक आवास-निवास, प्रदूषण, वन्य-जीव एवं जैव-विविधता, ग्राम्य-पारिस्थितिकी, गहन-पारिस्थितिकी, प्रचुरता आदि का अध्ययन किया जाता है। इन्हींउपकरणों से साहित्य की पारिस्थितिक-आलोचना की जाती है। इसका उद्देश्य साहित्यालोचकों की आने वाली पीढ़ी में पर्यावरणीय नैतिकता का स्तर बढ़ाना है। कविता में इसके माध्यम से पारिस्थितिक-काव्य या हरित काव्य को चिह्नित किया जाता है तथा पारिस्थितिक-काव्यशास्त्र का विस्तार किया जाता है। 

      आदिवासी कविता के पास प्रतिरोध के स्वर के साथ एक पारिस्थितिक सौंदर्यबोध है। जो इस भूमंडलीकृत दुनिया में मनुष्य के प्रकृति से हुए अलगाव को अभिव्यक्त करती है। समकालीन आदिवासी कविता अपने पर्यावरण, अपने प्राकृतिक वातावरण और निवास के प्रति सजग है। वह अपनी जल-जंगल और ज़मीन की लड़ाई में मनुष्य और प्रकृति के सहयोगी साहचर्य का सार्वभौमिक संदेश धारण किए हुए है। अनुज लुगुन की पंक्तियाँ हैं- 

हमने चाहा कि

 पंडुकों की नींद गिलहरियों की धमाचौकड़ी से भी टूट जाए

 तो उनके सपने न टूटें

 हमने चाहा कि

 फसलों की नस्ल बची रहे

 खेतों के आसमान के साथ

 हमने चाहा कि जंगल बचा रहे

अपने कुल-गोत्र के साथ

पृथ्वी को हम पृथ्वी की तरह ही देखें

पेड़ की जगह पेड़ ही देखें

नदी की जगह नदी

समुद्र की जगह समुद्र और

पहाड़ की जगह पहाड़7


उपर्युक्त पंक्तियों में सामाजिक पारिस्थितिकी के साथ मानवेतरवाद का सुंदर उदाहरण है। जहाँ मनुष्य भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितने कि पंडुक और गिलहरी। नदी, पहाड़ और समुद्र विशाल पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हैं। नदी के स्थान पर नदी और पहाड़ के स्थान पर पहाड़ होना प्रकृति का स्थिर होना है। इस स्थिरता में उसकी अपनी निजी आंतरिक गत्यात्मकता और विविधता है, जिसे वैज्ञानिक भाषा में जैव-विविधता कहते हैं। एक प्रदेश का जैववैविध्य उस प्रदेश के सस्य, जानवर एवं सूक्ष्मजीवियों की विविध जातियों का समूह है। इसकी रक्षा उस प्रदेश की मिट्टी की उर्वरता, जल की लभ्यता, जलवायु आदि पर निर्भर है। इन्हें कृत्रिम रूप से बनाना मुश्किल है। इसलिए जैववैविध्यों की स्थिति मनुष्य सहित सभी जीवजालों के लिए अनिवार्य है।8 आदिवासी कविता में इस प्राकृतिक जैव-विविधता के रूप देखे जा सकते हैं। ग्रेस कुजूर की पंक्तियाँ हैं- 

संगी रे

 न जाने कौन से देश उड़े

 क्षितिज के पार वे

 हरे खेतों में विचरते बगुले

 नहीं खेलती झूमर अब

 दोभाके पानी में

 गीतूऔर बुदुमछलियाँ

 फँसने लगे हैं क्यों कुमनीमें

 ढोढ़ बहुत दुमुंहे

 और बार-बार फिसलने लगी है क्यों

 हथेलियों से जिंदगी यहाँ

 मांगुर की तरह.....

 क्या तुम्हें अपनी धरती की

 सेंधमारी सुनाई नहीं दे रही ?

 क्या अब भी निहारते हो

 अपने को

 दामोदर और स्वर्ण रेखा के

 काले जल में ?”9


 उपरोक्त पंक्तियों में पारिस्थितिकी संतुलन पर पड़े प्रभाव का चित्रण है। औद्यगिक विकास और प्राकृतिक संसाधनों का अतिदोहन पर्यावरण की स्थिरता को नष्ट कर रहा है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण प्रकृति पर निर्भर जीवन-यापन करने वाला व्यक्ति आक्रांत है। आदिवासी कविता में प्राकृतिक नियमों को अधिक महत्व दिया गया है जो साहित्य के पारिस्थितिक-दर्शन की अवधारणा के अनुरूप है। 1981 में रोड्रिक फ्रेसियर नैश की ‘RightofNature’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। उन्होंने इस पुस्तक में भौम सदाचार का अच्छा ख़ासा विश्लेषण प्रस्तुत किया है। वे प्रकृति संरक्षण के लिए हिंसात्मक वृत्ति को भी अपनाने के पक्ष में हैं। इसके लिए नैश ने ग्रीनपीसअंतर्राष्ट्रीय पारिस्थितिक संरक्षण संघ के इंद्रधनुष के योद्धानामक जहाज के कप्तान पॉल वाट्सन को उदाहरण के रूप में लिया। वाट्सन ने प्रकृति की रक्षा के लिए हिंसा को अपनाया था। उनके अनुसार हिंसा गलत है, लेकिन अहिंसा से हमेशा गुणात्मक परिवर्तन संभव नहीं होगा। थोरो के समान वाट्सन ने भी राष्ट्रीय क़ानूनों (NationalLaws) से ज़्यादा महत्व प्राकृतिक नियमों (NaturalLaws) को दिया।10 आदिवासी जीवन-प्रणाली प्राकृतिक नियमों पर आधारित है। ग्रेस कुजूर की इस कविता में गहन पारिस्थितिवाद के उदाहरण भी आए हैं। गहन पारिस्थितिवाद के आधारभूत तत्व दो हैं। प्रथम तो यह है कि मनुष्य के समान इस प्रकृति की सभी सत्ताओं का अपना मूल्य है और उन्हें अपने अस्तित्व को ख़ुद ढूँढने का अधिकार है। प्रत्येक सत्ता का मूल्य इस पर केन्द्रित नहीं है कि वह मनुष्य के लिए उपयोगी है या नहीं। इसलिए प्रकृति से मनुष्य को अपनी बुनियादी ज़रूरतों से ज़्यादा संसाधनों को एकत्रित करने का अधिकार नहीं है।11 आदिवासी जीवन इसी दर्शन को लेकर जीता है। उनका जीवन न केवल प्रकृति-प्रदत्त वस्तुओं पर निर्भर बल्कि वे स्वयं प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के विरोध में है। आदिवासी कविता में इसकी अभिव्यक्ति मुखर हुई है। आदिवासी कविता गहन पारिस्थितिवाद से सामाजिक पारस्थितिवाद या सोशल इकोलॉजी के सिद्धांत तक पहुँचती है। ग्रेस कुजूर की ही पंक्तियाँ हैं- 

ए संगी !

 तानो अपना तरकस

नहीं हुआ है भोंथरा अब तक

 बिरसा आबा का तीर

 कस कर थामो12


 गहन पारिस्थितिवाद प्रकृति के संरक्षण के लिए हिंसात्मक मार्ग अपनाने की भी धारणा प्रस्तुत करता है। मार्क्सवादी-माओवादी आंदोलनों ने आदिवासियों की लड़ाई को हिंसक बनाया। लड़ाई उनके अधिकार, अस्मिता और अस्तित्व की है। भारत के कई आदिवासी क्षेत्र नक्सलवाद से प्रभावित हैं। नक्सलवाद के नाम पर भी आदिवासियों का दमन-शोषण होता है। आदिवासी मार्क्सवाद, माओवाद से परिचित नहीं थे लेकिन उनका लगातार संघर्ष ऐतिहासिक है। यह उनकी अपनी निजी और व्यक्तिगत लड़ाई रही है जिसे वे दीर्घकाल से लड़ते आ रहे हैं। उन्हें मुख्यधारा के आंदोलनकारियों ने ही मार्क्सवाद, माओवाद की विचारधारा पकड़ाई। हरिराम मीणा की पंक्तियाँ हैं- 

जानते हैं अब भी लड़ना

 मगर नहीं जानते लड़ें किस से

 ये तो बांसुरी ही बजाते रहे जंगल में

 मानकर कि हमारा ही है जंगल

 लड़ कौन रहे हैं इनके पक्ष की लड़ाई

 -इधर भी, उधर भी13


 नक्सलवादी और माओवादी संगठनों का नेतृत्व मुख्यधारा के समाज के लोग करते हैं। लड़ने वाले आदिवासी होते हैं। राज्य से टकराव की स्थिति में उन्हें सेना की हिंसा और दमन का भी शिकार होना पड़ता है। अश्वनि पंकज का इस पर कहना है कि जो लोग इस नक्सलवाद-माओवाद का नेतृत्व कर रहे हैं वे निहित स्वार्थों से भरे हुए गैर-आदिवासी स्वयंभू नायक हैं जिन्हें आदिवासी-हितों से कोई लेना-देना नहीं है।14पारिस्थितिक-दर्शन इको-मार्क्सवाद या हरित समाजवाद की अवधारणा प्रस्तुत करता है। बुक्कच्चिन के सामाजिक पारिस्थितिवाद से भिन्न होकर इको-मार्क्सवाद राजनैतिक अर्थशास्त्र का विश्लेषण है। इसके अनुसार प्रयत्न, शोषण, उत्पादन, मुनाफे का दर, पूँजी का बँटवारा और केन्द्रीकरण जैसे मुख्य मुद्दों के अध्ययन से ही पूँजीवाद के अधीन उत्पन्न होने वाले प्राकृतिक नाश पर विचार कर सकते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था के आमूल परिवर्तन से ही पारिस्थितिक संकट का हल संभव होगा।15 आदिवासी कविता में हम हरित समाजवाद को देख सकते हैं। इसमें शोषण और दमन का जितना प्रतिकार है उतना ही पर्यावरण और प्रकृति को बचाने की चिंता का भाव भी है। आदिवासी कविता का सौंदर्यशास्त्र उसकी जल, जंगल और ज़मीन के सौंदर्य से ही निर्मित हुआ है। 

     आदिवासी कविता के पास एक पारिस्थितिक, हरित सौंदर्यबोध है। उसमें आदिम देशजता है। रोमानी ग्राम्यवाद है। जसिन्ता केरकेट्टा की पंक्तियाँ हैं-

 धूप चुन रहा है

 महुआ साथ-साथ

जवनी की माँ थकती नहीं

 चुनती है महुआ शाम तक।16

 

महुआ आदिम देशीपन का प्रतीक है जो देशज संस्कृति के साथ संबद्ध है। यह ग्रामीण पारिस्थितिकी का भी प्रतीक है जो अति औद्यौगिक विकास के प्रकृति विरोधी रूप का प्रतिरोधी है। इसी तरह हम आदिवासी कविता में वनप्रांतर के बिम्ब भी देखते हैं। वनों पर टिकी आदिम संस्कृति या आदिवासी-जीवन पद्धति से अगर वन छीन लिए जाएँ तो उनकी अनुभूतियों में वनों का आना अपरिहार्य है। जंगल के साथ पारिस्थितिकी-तंत्र का जुड़ाव है। वन्य जीवों का भी जुड़ाव है। इसलिए आदिवासी कविता में जब जंगल आता है तब पारिस्थितिकी भी आती है-

 आँवला, बहेड़ा, हरड़ के पेड़ पौधे

 देते थे जीवन मानव को

 नहीं है अब वैसा जंगल

 वीरान होते, उजड़ते जंगल, कटते पेड़

 प्रदूषण का जाल फैला

 बादल उड़ा, उड़ गई बारिश भी

 भाग गए हैं जानवर, एक जंगल से दूसरे जंगल17


 ग्राम्यवाद आदिवासी कविता का अभिन्न अंग है। पशुचारण के बिम्ब आदिवासी कविता को रोमानी ग्राम्यवाद (RomanticPastoral) से जोड़ते हैं। रोमानी ग्राम्यवाद चरवाहा संस्कृति का वाहक है। यह भी एक तरह की ग्राम्य पारिस्थितिकी है। प्रदूषण और पर्यावरण अवनयन से आक्रांत मनुष्य देहात की शरण में जाना चाहता है यह पारिस्थितिक आलोचना भी कहती है। इकोक्रिटिक ग्रेग गरार्ड ने भी लिखा है- “It may be that contemporary pastoral refuge lies within the discourse of ecology itself. At the root of pastoral is the idea of nature as a stable, enduring counterpoint of the disruptive energy and change of human societies.”18ग्राम्यवाद के मूल में ही प्रकृति का चिरस्थाई रूप है। विघटनकारी ऊर्जा और मानव समाज में हुए परिवर्तन को ग्राम्यवाद स्पष्ट करता है। आदिवासी कविता में ऐसे बिंबों की प्रचुरता है- 

ज्येष्ठ की भरी दुपहरी में नंगे पाँव आदिवासी लड़कियाँ

 बकरियाँ चराकर लौटते हुए कंडे बीन लाईं हैं

 बूढ़े बैलों की रासथामे नन्हें हलधरघर लौट रहे हैं

 रोज ही लौटते हैं19


 प्राकृतिक ग्रामीण पारिस्थितिकी के नष्ट होने से सांस्कृतिक पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचेगा। नगरीकरण और अंधविकासवाद की प्रक्रिया में सांस्कृतिक पर्यावरण पर भी संकट उत्पन्न हुआ है। आदिवासियों के पास मानव होने का प्रारम्भ है। उनकी आदिम संस्कृति धारणीय (Sustain) पद्धति से निर्मित हुई है। यह ग्रामीण प्रकृति है। ग्रामीण प्रकृति, ग्रामीण आचार-विचार, लोकजीवन की धुन, पगडंडियाँ, पुष्प, लतागुल्म, नदियाँ, नाले, पर्वतमालाएँ, पेड़-पौधे, पक्षी-पतंगे,लोक गीत, लोककथाएँ सब हमारे जीवन के अभिन्न अंग थे। ये ही हमें जीने की प्रेरणा एवं हमारे जीवन को सौंदर्य देते थे, अपनापन प्रदान करते थे। ये सब नष्ट हो गए। नयी पीढ़ी के लिए ये मिथक हैं, बुजुर्गों के लिए स्मृतियाँ हैं। हम विदेशी जीवन के अंधानुकरण में हैं। भारतीयता का वह सांस्कृतिक वैविध्य गायब हो गया है। सब का चेहरा एक सा है। यानी की नगरीय चेहरे के साथ सब जीना पसंद करते हैं। इस संदर्भ में आदिवासियों का मूल्यबोध भी नष्टप्राय प्रतीत होता है।20आदिवासियों के पास सांस्कृतिक विविधता है क्योंकि खान-पान, बोली-भाषा प्रत्येक स्तर पर उनमें वैविध्य है। आदिवासी कविता के पास उस सांस्कृतिक विविधता के बिम्ब हैं।


       आदिवासी कविता में हम पारिस्थितिक-नारीवाद या इकोफेमिनिज़्म को भी पाते हैं। इकोफेमिनिज़्म हरित नारीवाद है। यह प्रकृति और पर्यावरण के दृष्टिकोण से स्त्री-पुरुष में द्वैत मानता है। के. वनजा ने अपनी पुस्तक इको-फेमिनिज़्म में एलन स्वार्ले को उद्धृत करते हुए लिखा है- पृथ्वी और घर ऐतिहासिक दृष्टि से स्त्री से ज़्यादा सम्बद्ध हैं। बच्चों का जन्म और उसका पालन पोषण और आदि से स्त्री में जो मानसिक स्थिति उत्पन्न होती है, वह प्रकृति के साथ उसे मिला देती है । चंद्रमा की परिक्रमा से जुड़ा हुआ है उसका मासिक धर्म, यह भी स्त्री के शरीर के प्रकृति के ताल-लय के साथ के संबंध को स्पष्ट करता है। हिन्दी में इसके लिए उचित शब्द-प्रयोग पारिस्थितिक स्त्रीवाद है। यह पारिस्थितिक स्त्रीवाद स्त्री और प्रकृति की पारस्परिकता को लेकर ही नहीं बल्कि उनके शोषण और अवमूल्यन को लेकर भी गहन चिंतन एवं उसका परिचिन्तन करता है। पारिस्थितिक स्त्रीवाद का मानना यह है कि पितृसत्तात्मक समाज चार मुख्य एवं परस्पर संबद्ध खंभों पर अवस्थित है, वे हैं- लिंगवाद, नस्लवाद, वर्गशोषण, और पर्यावरण का नाश।21पारिस्थितिक स्त्रीवाद का मानना है कि स्त्री की प्रकृति जैविक रूप से प्रकृति जैसी है और पुरुष स्त्री और प्रकृति दोनों का शोषण करता है।निर्मला पुतुल की कविताएँ पारिस्थितिक स्त्रीवाद की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं-

 उसके अंदर वंशबीज बोते

 क्या तुमने कभी महसूसा है

 उसकी फैलती जड़ों को अपने भीतर ?”22 

निर्मला पुतुल की उपरोक्त पंक्तियाँ इको-फ़ेमिनिस्ट फ्रांस्वा द यूबोण की पारिस्थितिक-स्त्रीवाद संबंधी धारणाओं को अभिव्यक्त करती हैं। फ़्रांस्वा के अनुसार भूमि के नाश का दायित्व पुरुषों पर है। उनके आक्रमणों से भूमि को मनुष्य की भलाई के लिए बचाने में स्त्री समर्थ है। पाँच हजार वर्ष से पूर्व खेती स्त्रियों के नियंत्रण में थी। इसे पुरुष ने अपने अधीन कर लिया। मिट्टी की उत्पादन क्षमता के साथ स्त्री की उर्वरता को भी अपने अधीन कर पुरुष ने अपनी सत्ता को आगे बढ़ाया। मिट्टी और और स्त्री में बीज बोने का अधिकार पुरुष ने ले लिया।23 स्त्रीवाद कहीं न कहीं अभिजात वर्ग की स्त्रियों तक सीमित रहा है। किन्तु पारिस्थितिक-स्त्रीवाद की दृष्टि से आदिवासी स्त्री का जीवन पूरी तरह इस सिद्धान्त के अनुरूप है। आदिवासी स्त्री प्रकृति के सान्निध्य में श्रमशील जीवन जीती है। वह महानगरीय कथित मुख्यधारा की स्त्री की तरह नहीं है जिसे पूँजीवाद ने वस्तु में बदल दिया है। आदिवासी स्त्री बाज़ार और उसके षडयंत्रों को भली प्रकार समझती है। उसमें यह लोकभाव और बोध उसकी प्रकृति के साथ संगत से उत्पन्न हुआ है। निर्मला पुतुल की कविताओं में यह पारिस्थितिक स्त्री अपनी स्वतंत्र चेतना के साथ नज़र आती है- 

मैं जानती हूँ कि तुम क्या सोच रहे हो मेरे बारे में

 वही जो एक पुरुष, एक स्त्री के बारे में सोचता है

 अभी-अभी जब मैं तुमसे बतिया रही हूँ

 संभव है मेरी बातों में

 महसूसते देह-गंध रोमांचित हो रहे हो तुम24


 पारिस्थितिक-स्त्रीवाद स्त्री-पुरुष की समानता नहीं चाहता वह स्त्री की मुक्ति चाहता है और मानता है कि स्त्री की मुक्ति इस पृथ्वी की मुक्ति भी है। यह मानता है कि विज्ञान से ही औद्यौगिकीकरण हुआ और विज्ञान धीरे-धीरे पूँजीवाद का उपकरण बन गया। वंदना शिवा और मारिया मीज़ लिखती हैं- “The ecofeminist principal of looking for connections where capitalist patriarchy and its warrior science are engaged in disconnecting and dissecting what forms a living whole also informs this movement. Thus those involved look not only at the implication of these technologies for women, but also for animals, plants, for agriculture in the Third World as well as in the industrialized North. They understand that the liberation of women cannot be achieved in isolation, but only as part of a larger struggle for the preservation of life on this planet.”25निर्मला पुतुल की कविताओं में इस पूंजीवादी पितृसत्ता द्वारा स्त्री के शोषण का स्पष्ट प्रतिकार हुआ है। पूँजी द्वारा स्त्री-श्रम को मूल्यहीन कर देने की प्रक्रिया पर निर्मला पुतुल की एक कविता इस तरह प्रकाश डालती है-

 तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हजारों

 पर हजारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट

 कैसी विडम्बना है कि

 जमीन पर बैठ बुनती हो चटाईयाँ

 और पंखा बनाते टपकता है

 तुम्हारे करियाए देह से टप...टप...पसीना...!26

 

पारिस्थितिक-स्त्रीवाद की दृष्टि से निर्मला पुतुल की कविता बूढ़ी पृथ्वी की दु:ख एक विशेष कविता है जो सम्पूर्ण आदिवासी कविता को पर्यावरणवाद की ओर ले जाती है। यह पर्यावरणिक पारिस्थितिक सौंदर्यबोध आदिवासी कविता में प्रकृति की चिंता की संवेदना को मुखर करता है-

 

क्या तुमने कभी सुना है 

सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से

 पेड़ों का चीत्कार ?

 कुल्हाड़ियों के वार सहते

 किसी पेड़ की हिलती टहनियों में

 दिखाई पड़े हैं तुम्हें

 बचाव के लिए पुकारते हजारों-हजारों हाथ ?”27


 इस तरह हम देखते हैं कि आदिवासी कविता के पास एक संश्लिष्ट स्वर है जहाँ अस्मिता और अस्तित्व के संघर्ष के साथ-साथ पर्यावरण और प्रकृति को उसके नैसर्गिक रूप में बनाए रखने की चिंता भी है। अन्याय और हक़तलबी के विरुद्ध प्रतिरोध की अभिव्यंजना के साथ एक रोमानी हरित, पर्यावरणिक, पारिस्थितिक सौंदर्यबोध भी है जो अपनी संवेदनात्मक संश्लिष्टता में भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। आदिवासी कविता केवल प्रतिरोध ही की कविता न होकर पारिस्थितिक कविता या इकोपोएट्री भी है।

 संदर्भ :-

1-   मीणा, हरिराम (सं.), समकालीन आदिवासी कविता, अलख प्रकाशन, 2013 संस्करण, पृष्ठ- 8  

2-   वही, पृष्ठ- 10

3-   वनजा के., साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन, वाणी प्रकाशन, 2011 संस्करण, पृष्ठ- 13 

4-   उद्धृत,GarrardGreg,Ecocriticism,RoutledgeTaylor&FrancisGroup, 2004 संस्करण, पृष्ठ- 3

5-   वही, पृष्ठ-5

6-   वही

7-   लुगुन, अनुज, हमारी अर्थी शाही नहीं हो सकती, समकालीन आदिवासी कविता, (सं.) हरिराम मीणा, अलख प्रकाशन, 2013 संस्करण, पृष्ठ- 15, 16

8-   वनजा के., साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन, वाणी प्रकाशन, 2011 संस्करण, पृष्ठ- 25

9-   कुजूर ग्रेस, एक और जनी शिकार, समकालीन आदिवासी कविता, (सं.) हरिराम मीणा, अलख प्रकाशन, 2013 संस्करण, पृष्ठ- 20 

10-   वनजा के., साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन, वाणी प्रकाशन, 2011 संस्करण, पृष्ठ- 13, 14

11-   वही, पृष्ठ- 15

12-   कुजूर ग्रेस, एक और जनी शिकार, समकालीन आदिवासी कविता, (सं.) हरिराम मीणा, अलख प्रकाशन, 2013 संस्करण, पृष्ठ- 21

13-   मीणा, हरिराम, आदिवासी और यह दौर, वही, पृष्ठ- 108 

14-   मीणा, हरिराम, आदिवासी दुनिया, नेशनल बुक ट्रस्ट, 2012 संस्करण, पृष्ठ- 163 

15-   वनजा के., साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन, वाणी प्रकाशन, 2011 संस्करण, पृष्ठ- 17

16-  केरकेट्टा जसिन्ता, महुआ चकित है, सहजि-सहजि गुन रमैं : जसिन्ता केरकेट्टा,https://samalochan.blogspot.in/2016/11/blog-post_13.html

17-  बड़ाईक सिंह, सरिता, आज का जंगल, समकालीन आदिवासी कविता, (सं.) हरिराम मीणा, अलख प्रकाशन, 2013 संस्करण, पृष्ठ- 82

18-  GarrardGreg,Ecocriticism,RoutledgeTaylor&FrancisGroup, 2004 संस्करण, पृष्ठ- 56

19-   मीणा, रामनारायण, साहस पक्की सड़क से नीचे उतरने का, समकालीन आदिवासी कविता, (सं.) हरिराम मीणा, अलख प्रकाशन, 2013 संस्करण, पृष्ठ- 83  

20-   वनजा के., साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन, वाणी प्रकाशन, 2011 संस्करण, पृष्ठ- 28

21-  वनजा के., इको-फेमिनिज़्म, वाणी प्रकाशन, 2013 संस्करण, पृष्ठ- 12 

22-   पुतुल, निर्मला, क्या तुम जानते हो, नगाड़े की तरह बजते शब्द, (रूपांतर) अशोक सिंह, भारतीय ज्ञानपीठ, 2005 संस्करण, पृष्ठ- 8

23-   वनजा के., साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन, वाणी प्रकाशन, 2011 संस्करण, पृष्ठ- 18

24-   पुतुल, निर्मला, मैं वो नहीं हूँ जो तुम समझते हो, नगाड़े की तरह बजते शब्द, (रूपांतर) अशोक सिंह, भारतीय ज्ञानपीठ, 2005 संस्करण, पृष्ठ- 55

25-  Mies Maria, Shiva Vandana, Ecofeminism, Rawat Publication 2010, Page- 16

26-   पुतुल, निर्मला, बहामुनी, नगाड़े की तरह बजते शब्द, (रूपांतर) अशोक सिंह, भारतीय ज्ञानपीठ, 2005 संस्करण, पृष्ठ- 12

27-  पुतुल, निर्मला, बूढ़ी पृथ्वी का दु:ख, नगाड़े की तरह बजते शब्द, (रूपांतर) अशोक सिंह, भारतीय ज्ञानपीठ, 2005 संस्करण, पृष्ठ-31 

डॉ. संतोष कुमार यादव, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, डीएवी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश)

9919988123, poetarshbbk@gmail.com



     अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा         UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

Post a Comment

और नया पुराने