शोध आलेख : मीडिया संस्कृति एवं युवा मनोविज्ञान: समाजशास्त्रीय विश्लेषण / डॉ. ज्योति सिडाना
समाजशास्त्रीय दृष्टि से हम समाज को सामाजिक संबंधों के जाल के रूप में परिभाषित करते हैं। इसका मतलब है कि जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य पुनरावृत्तिमूलक अन्तःक्रिया होती है तो सामाजिक संबंध अस्तित्व में आते हैं। आजकल समाज को कई उपनामों से बुलाया जाने लगा है जैसे मीडिया समाज, सूचना समाज, ज्ञान समाज, उपभोक्ता समाज, नेटवर्क समाज और मापन समाज इत्यादि (माउ : 2019)। इन सभी समाजो में सामाजिक संबंधों का स्थान ज्ञान, सूचना, मीडिया, उपभोग ने ले लिया यानी अब समाज ज्ञान, सूचना, मीडिया, बाजार इत्यादि से निर्देशित व संचालित होता है। कंप्यूटर क्रांति के बाद से हम एक ऐसी 'नेटवर्क सोसाइटी' (कैसेल :1996) में रहते हैं, जहाँ व्यक्ति अपने संबंधों को विश्व स्तर पर प्रभावी ढंग से संचालित कर सकता है। अबकंप्यूटर संचार के कारण और विशेष रूप से इंटरनेट की मदद से लोगों के समूह के साथ या लोगों के समूह के बीच ऑनलाइन चर्चाएं या बातचीत करने का चलन बढ़ा है, अब उन्हें आमने-सामने बैठकर बातचीत करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस निर्विवाद तथ्य से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है कि सूचना-नेटवर्क आज के समाज की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि हर चीज का ज्यादा इस्तेमाल इंसान के लिए जोखिम भरा या खतरनाक हो जाता है। इसी तरह इंटरनेट (प्रौद्योगिकी) का अत्यधिक उपयोग मानव समाज के समक्ष खतरा पैदा कर रहा है। परिणामस्वरूपएक मशीन की तरह हम भावनाहीन व्यक्ति की भांति व्यवहार कर रहे हैं। असहिष्णुता, आक्रामकता, हिंसा, कम भावनात्मक या गैर-भावनात्मक, गैर-प्रतिबद्ध, नियमों का उल्लंघन/विचलन, हताशा, तनाव व्यक्ति के व्यक्तित्व की केंद्रीय विशेषताएं बन रहीहैं। प्रौद्योगिकी के तीव्र विस्तार के कारण सामाजिक संबंधों में भी तीव्र परिवर्तन वर्तमान समाज में देखे जा सकते हैं।
नई मीडिया संस्कृति ने युवा पीढ़ी में ऐसा भ्रम पैदा किया है कि वह इन्टरनेट को अपनी सभी समस्याओं का समाधानकर्ता मानने लगी है और उन्हें लगता है कि इन्टरनेट ही उनके सपनो को मूर्त रूप देने का एकमात्र माध्यम भी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज मीडिया बाजार में मीडिया ‘यथार्थ’ का आइना और ‘सामाजिक उत्पाद’ नहीं है बल्कि बाजार की शक्तियों द्वारा निर्मित अतियथार्थ को प्रस्तुत करने का एक सशक्त माध्यम बन कर उभरा है जिसकी चर्चा जीनबौड्रिलार्ड करते हैं (बौड्रिलार्ड:1976)। उनका तर्क है कि आज मीडिया समाचार, विचार और घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाता है, मीडिया इतना जीवंत बन जाता है कि सच्चाई से भी सच्चा नजर आता है, यही अतियथार्थ है। इसलिए युवा वर्ग यथार्थ और अति-यथार्थ अथवा वास्तविक और आभासी के बीच अंतर नहीं कर पाता। अनेक अध्ययन बताते हैं कि इन्टरनेट ने व्यक्ति को ज्ञान और सूचनाओं के विश्व से जोड़ दिया परंतु परिवार और अनौपचारिक विश्व की जीवनशैली से दूर कर दिया है। पहले बच्चों में संस्कार अभिभावक डालते थे लेकिन अब ‘न्यू डोमेस्टिक टेक्नोलॉजी’ बच्चों का समाजीकरण कर रही है। यही कारण है कि बच्चे अब अभिभावक और रिश्तेदारों से कोई बात शेयर न करके नेट का सहारा लेते हैं। परिणामस्वरूप वे वास्तविक जीवन (रियल लाइफ) से अलग होते जा रहे हैं और आभासी जीवन (वर्चुअल लाइफ) को अपना वास्तविक संसार मानने लगे हैं जिसने उन्हें ‘असामाजिक’, भावनाशून्य और सीमित व्यक्तित्व (कनफांईड पर्सनेल्टी) बना दिया है।
भारत वर्ष की युवा जनसंख्या एक ऐसे संक्रमणकाल से गुजर रही है जो अनेक प्रकार की सामाजिक चिंताओं को उत्पन्न करता है। सोशल मीडिया के प्रति युवाओं के एक बहुत बड़े हिस्से का आकर्षण लत (एडिक्शन) के स्तर तक जा पहुंचा है और वह सामाजिक जीवन के एक बहुत बड़े भाग को प्रभावित एवं निर्धारित करने लगा है। कोटा में अवलोकन के दौरान मैने पाया कि अध्ययन के लिए आया हुआ युवा सोशल मीडिया का अत्यधिक इस्तेमाल करने में संलग्न है। देर रात तक चैटिंग करना या फिर विभिन्न कार्यक्रमों को देखना, सेल्फी लेने में व्यस्त रहना, वॉट्सएप का अनवरत प्रयोग करना और अध्ययन सामग्री के लिए विभिन्न साइट्स की खोज में संलग्न रहना, ऐसेपक्ष हैं जो यह दर्शाते हैं कि इस अभिकरण ने सामाजिक जीवन को व्याधिकीय स्तर तक प्रभावित किया है। इन गतिविधियों की संलग्नता के कारण युवाओं में शारीरिक व्याधियों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है। शारीरिक श्रम सम्बंधी क्रियाओं में तेजी से कमी आयी है। कोटा में मैंने जब सन् 2008 में शिक्षण कार्य प्रारम्भ किया था तो सुबह पार्क में टहलते हुए अनेक युवाओं से बातचीत हो जाती थी पर अब यह संख्या बहुत कम हो गई है। अनेक युवाओं का वजन बढ़ रहा है। नींद पर्याप्त न लेने के कारण काम काज के प्रति रूचि का कम होते जाना अभिव्यक्त होने लगा है। ‘स्थगन’की मानसिकता का युवा शिकार होने लगा है। ‘कल करेंगे’ के तर्क को वे प्रस्तुत करते हैं। यह स्थगन धीरे-धीरे कुण्ठा एवं पराजय की स्थितियों को जन्म देता है। युवाओं में इस प्रकार का नैराश्य एक नये प्रकार की सांस्कृतिक विसंगति को जन्म दे सकता है। यह संस्कृति न केवल सामाजिक सम्बंधों में उनकी सहभागिता को कम करती है अपितु उन्हें भय एवं आक्रामकता का शिकार बनाती है। कहीं न कहीं आत्महत्या की प्रवृत्ति के उत्पन्न होने में यह सांस्कृतिक विसंगति योगदान करती है। इसके साथ ही धूम्रपान एवं मादक द्रव्य सेवन के प्रति भी उसका आकर्षण बढ़ा है। रफ्तार में अत्यधिक तेजी, आधुनिकतम मोटर साइकिल के इस्तेमाल, मुंह में सिगरेट एवं कानों पर मोबाइल युवा की अस्मिता के अवयव के वे रूप हैं जो उन्हें अन्य आयु श्रेणियों से पृथक करते हैं।
आज के अधिकांश युवा अपने बड़ों के अनुभवों या उनकी बुद्धि पर भरोसा नहीं करते हैं। यहां तक कि वे उनके साथ इस तरह के मुद्दों पर बात भी नहीं करना चाहते हैं। वे ऐसा दिखाते हैं कि वे पूरी तरह से स्वतंत्र हैं और वे अपने पूरे जीवन का नेतृत्व उनके (बड़ों) बिना कर सकते हैं। वे सोचते हैं या महसूस करते हैं कि बड़ों के अनुभव वर्तमान समाज के लिए उपयोगी नहीं हैं क्योंकि वे प्रौद्योगिकी-संचालित समाज को समझने में असमर्थ हैं इसलिए पुरानी पीढ़ी उनकी समस्याओं को हल करने में भी असमर्थ हैं। युवा पीढ़ी कुछ ही मिनटों के भीतर सब कुछ प्राप्त करना चाहती है, यहां तक कि सफलता भी।
वास्तव में सोशल मीडिया का प्रयोग युवाओं के लिए एक ब्रांड का रूप ले चुका है। इसका अधिक से अधिक प्रयोग प्रतिष्ठा में वृद्धि करेगा, का तर्क आजके युवा देते हैं। पर मेरा मानना यह है कि यह विचार संभवतः देश के प्रत्येक भाग में युवा चेतना का हिस्सा बन चुका है। सोशल मीडिया कीइस लत (एडिक्शन) ने ‘स्मार्टफोन’ के बाजार में तीव्र गति से वृद्धि की है। नवीनतम प्रौद्योगिकी युक्तस्मार्टफोन अब ग्रामीण क्षेत्र में भी दस्तक दे चुका है। स्वाभाविक है कि इस बढ़ते हुए बाजार का लाभ कारपोरेट घरानों को होने लगा है और वहीं दूसरी ओर मध्य एवं निम्न वर्गीय युवा नवीनतम स्मार्टफोन को खरीदने के लिए अपनी आवश्यकताओं में कटौती करने लगा है। बातचीत के दौरान अनेक विद्यार्थियों ने कहा कि पुस्तक, स्टेशनरी, मनोरंजन के लिए सिनेमा, सांस्कृतिक कार्यक्रम इत्यादि में व्यय और यहॉ तक कि अच्छे होटल एवं रेस्तरां में खाने की आवृत्ति में कमी कर स्मार्टफोन खरीदने के लिए पैसे की बचत की जाने लगी है। उसके साथ ही अपनी प्रतिष्ठा को बनाने के लिए माता-पिता पर यह भावनात्मक दबाव डाला जाने लगा है कि वे महंगे स्मार्टफोन उपलब्ध कराये तथा उन्हें 3जी या 4जी जैसी सुविधाओं का इस्तेमाल करने के लिए आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराए। परिणामस्वरूप इन परिवारों पर आर्थिक व्यय का भार बढ़ने लगा है। और अब तो महामारी के दौर में यह दबाव और भी महत्वपूर्ण हो गया है जबकि शिक्षा प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्च शिक्षा तक ऑनलाइन माध्यमों पर निर्भर हो गयी है। अब तक तो अच्छे ब्रांड्स के मोबाइल रखना प्रतिष्ठा का सूचक था अथवा ब्रांडस के बाजार में पीछे छूटने की शंका का खतरा लगता था लेकिन अब स्मार्ट फ़ोन का न होना शैक्षणिक प्रयासों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने का एक ऐसा कारण बनता है जो कालांतर में आत्महत्या की प्रवृत्ति को भी जन्म देता है। अनेक समाचार-पत्र इस बात के साक्षी हैं कि लॉकडाउन के दौरान जबकि स्कूल कॉलेज बंद थे और विद्यार्थियों को ऑनलाइन कक्षाओं के माध्यम से पढना था तब कुछ बच्चों ने इन सुविधाओं के अभाव में अपनी जिन्दगी ही समाप्त कर ली। यानि स्मार्ट फोन है तो जीवन है। एक वस्तु मानव जीवन से ज्यादा मूल्यवान कैसे हो सकती है? जिस मानव मस्तिष्क ने इस प्रौद्योगिकी को बनाया आज वही मानव जीवन को नियंत्रित कर रही है। यही उपभोक्तावाद का दुष्परिणाम भी है (शिलर : 1996)।
हाल ही की कुछ घटनाओं की चर्चा करना यहाँ प्रासंगिक होगा। मध्य प्रदेश के छतरपुर में जुलाई माह में ऑनलाइन गेम में कथित तौर पर 40 हजार रुपए गंवाने पर 13 वर्षीय लड़के ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। सुसाइड नोट में छात्र ने लिखा कि उसने मां के बैंक खाते से 40 हजार रुपए निकाले और इस पैसे को ‘‘फ्री फायर’’ गेम में बर्बाद कर दिया। छात्र ने अपनी मां से माफी मांगते हुए लिखा है कि अवसाद के कारण वह आत्महत्या कर रहा है। जनवरी माह में मध्य प्रदेश के सागर में भी इसी प्रकार का ममला सामने आया था। एक पिता ने ‘‘फ्री फायर’’ गेम की लत के कारण अपने बेटे से मोबाइल फोन छीन लिया तो 12 वर्षीय छात्र ने कथित तौर पर फांसी लगा ली थी। समय के साथ खेल के नाम बदलते जाते हैं कभी ‘ब्लू व्हेल’, कभी ‘पबजी’ तो कभी ‘फ्री फायर’ लेकिन बच्चों का आत्महत्या करना या अपराधिक गतिविधियों की ओर अग्रसर होना सामान्य घटना बन गयी है। सोचने का विषय यह है कि आखिर बच्चों को इस तरह के खेल की लत या एडिक्शन कैसे होता है? क्यों वे इस तरह के खेल में रूचि लेने लगे हैं? बहुत ही गंभीर चिंतन की जरुरत है? यह किस तरह की डरपोक और कमजोर पीढ़ी विकसित कर रहे हैं हम? जो हर जगह चाहे पढाई हो, खेल हो या और कोई प्रतियोगिता सिर्फ और सिर्फ जीतना ही चाहती है, हार बर्दाश्त नहीं कर सकती क्यों? क्योंकि हमने उन्हें हारना सिखाया ही नहीं। हमेशा यही कहते हैं जीत कर आना, फर्स्ट आना, ए ग्रेड लेकर आना, सामने वाले को धूल चटा देना बजाय इसके हमे कहना चाहिए अच्छा करना, घबराना मत, अपना बेस्ट देना, खुद पर विश्वास रखना। तुम्हे हर अगली बार अपनी पिछली बार से बेस्ट या बेहतर करना है बस, यानी हमे खुद से प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए दूसरों से नहीं। अपनी पुरनी गलतियों से सीख कर आगे बढ़ना है। मुझे याद है हमारे माता-पिता ने कभी ऐसा नहीं कहा था हमसे इसलिए आज अपना बेस्ट दे पा रहे हैं फिर क्यों 21वीं सदी में अभिभावक ऐसा नहीं करते? उसे खुद से प्रतिस्पर्धा करना सिखाए दूसरों से नहीं। दूसरों से तुलना करने में उसका आत्मविश्वास कहीं खो सा जाता है। हर बच्चे का व्यक्तित्व विशिष्ट होता है तो फिर उसे दूसरे जैसा क्यों बनना है? जिस तरह प्रकृति के सभी स्वरूपों का समान महत्त्व है सभी तरह के मौसम जरुरी हैं और यदि आपने प्रकृति केसाथ छेड़-छाड़ की तो उसका संतुलन बिगड़ जाता है (अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं)। उसी तरह किसी बच्चे के स्वाभाविक व्यक्तित्व पर दबाव डालना उसके भविष्य से खिलवाड़ करना है। यही कारण है कि अधिकांश बच्चे बिना सोचे समझे ऐसा कदम उठा लेते हैं कि माता-पिता के पास पछताने के अलावा कोई चारा नहीं होता। बाजार के बढ़ते वर्चस्व ने हर किसी को इतना अधिक व्यक्तिवादी बना दिया है कि वह केवल ‘दिखावे के उपभोग’ में डूबा रहता है और हर वस्तु को यहाँ तक कि हर रिश्ते को लाभ-हानि की नजर से देखता है।
सूचना क्रांति के परिणामस्वरुप अस्तित्व में आए नेटवर्क समाज ने ‘सामाजिक संबंधो के नेटवर्क’ को ‘सूचनाओं के नेटवर्क’ में बदल दिया है। जहाँ सूचनाएं बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन सामाजिक सम्बन्ध नहीं। क्योंकि इस तरह के समाज में सूचनाओं का ही उत्पादन होता है और उनका ही उपभोग, विनिमय और वितरण भी। ऐसे में व्यक्ति सूचनाओं के उत्पादन, उपभोग, विनिमय और वितरण में इतना व्यस्त हो गया है कि उसके निजी और सार्वजानिक (औपचारिक एवं अनौपचारिक) दोनों स्पेस के सम्बन्ध अब हाशिए पर नजर आते हैं। संभवतः इसीलिए अनेक समाज वैज्ञानिक ‘सामाजिकता की समाप्ति’ की चर्चा भी करने लगे हैं। यह सच है कि आज के बच्चे और युवा जितना समय अपने इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के साथ बिताते है उसका आधा समय भी परिवार या संबंधियों के साथ नहीं बिताते, अपनी किसी भी समस्या को उनके साथ साझा भी नहीं करते। यही कारण है कि संबंधो में औपचारिकता बढ़ रही है और भावनात्मकता खत्म हो रही है। पहले तो फिर भी सप्ताह में एक दिन इन सबसे उसे छुट्टी मिल जाती थी लेकिन पिछले 2 साल से महामारी और लॉकडाउन ने तो इस समस्या को और भी बढ़ा दिया है। विद्यार्थी हो या नौकरी पेशा हर कोई अधिकांश समय कंप्यूटर या फ़ोन पर व्यस्त रहने लगा है परिणामस्वरुप उन्हें अनेक मानसिक व शारीरिक समस्याओं का आये दिन सामना करना पड़ता है।
साथ ही इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि नेटवर्क सोसाइटी ने अनेक ऐसे सार्वजानिक प्लेटफार्म को उत्पन्न किया है जहाँ लोग अपने हर तरह के विचारों और भावनाओं को बिना रोक-टोक साझा करते हैं। अनेक बार तो अश्लील और अभद्र भाषा का प्रयोग करने से भी युवा गुरेज नहीं करते। यहाँ तक कि सोशल मीडिया पर अब जो कुछ सार्वजनिक हो रहा है उसमें कितना सच है और कितना झूठ के बीच का अन्तर कम होता जा रहा है। चेहरों को बदल देना, तोड़-मरोड़ कर सूचनाओं एवं समाचारों को उत्पन्न करना और आक्रामकता, हिंसा एवं अश्लीलता से भरे कार्यक्रमों को व्यापक स्तर पर सामने लाना कुछ ऐसे प्रयास हैं जिसने सृजनशीलता एवं मनोरंजन के बाजार में हड़कंप पैदा किया है। यह भी देखा जाता है कि सूचनाएं देकर युवाओं को आक्रामक बना देना एक ऐसी कोशिश है जो जहाँ एक तरफ सामाजिक विभाजन को उत्पन्न करती है वहीं दूसरी तरफ अनावश्यक तनाव को युवाओं के व्यक्तित्व का हिस्सा बना देती है। एक सीमा तक यह कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया ने वंचन एवं कुंठा के समाज मनोविज्ञान को नये अर्थ दिये हैं। ऐसा लगता है कि फ्रायड के मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत (फ्रायड:1917) को सोशल मीडिया के संदर्भ में नये सिरे से समझने की आवश्यकता है। क्या युवाओं के सपनो को सोशल मीडिया निर्मित कर रहा है? या युवा-सपनों को केन्द्र में रखकर सोशल मीडिया नयी सांस्कृतिक फेंटेसी उत्पन्न कर रहा है? ये ऐसेसवाल हैं जिन पर समाज वैज्ञानिकों को विचार करने की आवश्यकता है। भारत जैसे देश में जहाँ युवाओं की जनसंख्या सर्वाधिक है, सोशल मीडिया के परिणामों को गहराई से समझना होगा।
समाजशास्त्रीय दृष्टि से देखे तो यह तथ्य सामने आता है कि हम सभी इस साइबर युग में उन सभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियमों से कटते जा रहे हैं या कट गये हैं जो कभी हमारे विचारों को,बोलने और व्यवहार करने के तरीको को नियंत्रित या निर्देशित करते थे,ये नियम स्वाभाविक रूप से समाजीकरण के द्वारा हमारी जीवन पद्धति और व्यक्तित्व का अंग बनते थे जिन्हें इन सोशल साइट्स ने चुनौती दी है। साथ ही एक और खतरा भी उभर कर आया है कि कमजोर व्यक्तित्व के लोग साइबर स्पेस के माध्यम से नेटवर्किंग का प्रयोग करके खुद को शक्तिशाली,कुशल और योग्य मानने लगे हैं जो उन्हें न केवल मानसिक रूप से अपितु शारीरिक रूप से भी बीमार कर रहा है। ऐसे लोग जो अपनी बात ऑफलाइन रहकर या फेस-टू-फेस नहीं कर पाते वे ऑनलाइन होकर और अपनी पहचान को छुपाकर इस तरह की असामाजिक या समाज विरोधी गतिविधि आसानी से करने में खुद को सक्षम मानते हैं।यदि सोशल मीडिया ज्ञान, सूचना, कौशल एवं विविधतामूलक चेतना उत्पन्न कर व्यक्तित्व विकास को नये अर्थ देता है तब भारत का युवा विकास के प्रारूप में समूचे विश्व के लिए धरोहर बन जाता है। इस प्रकार की सक्रिय जनसंख्या भारतीय समाज को हर दृष्टि से शक्तिशाली बनाती है। परंतु यदि गहराई में जाए तो सोशल मीडिया का चरित्र कारपोरेटीय है और यह खंडित संस्कृति, अविश्वास, हिंसा, भावनात्मक आक्रामकता और सफलता एवं केवल सफलता को स्थापित करता है (शिलर : 1996)।
सोशल मीडिया ने ‘आई मस्ट बी द बेस्ट’ के विचार को सर्वाधिक मजबूती दी है और इसलिए ‘बेस्ट आउट ऑफ द क्वालीफाइड’ का संदेश सोशल मीडिया के द्वारा बाजार में एक ऐसी गला-काट प्रतियोगिता को उत्पन्न कर चुका है जिसमें