आलेख : ईशान भारत का प्रतिबिंब : पश्चिम भारत के आईने में / डॉ. पन्ना त्रिवेदी

                         आलेख : ईशान भारत का प्रतिबिंब : पश्चिम भारत के आईने में / डॉ. पन्ना त्रिवेदी 

मैं गुजराती भाषा में लिखनेवाला भारतीय लेखक हूँ।ये शब्द है ज्ञानपीठ पुरस्कृत गुजराती सर्जक उमाशंकर जोशी के। उन्होंने कविता के सिवा भी अधिकतर विधाओं में लेखन किया है। कवि-कहानीकार-आलोचक-समीक्षक-संपादक-निबंधकार-अनुवादक और न जाने कितनी ! वैश्विक चेतना से भरे इस साहित्यकार की कलम से कोई यात्रावृत्तांत न मिले, ये भला कैसे हो सकता था? समग्र पृथ्वी जिनके के लिए मानो एक अपना ही परिवार होयह उद्घोष उन्होंने अपनी एक गुजराती कविता में वसुधैव कुटुम्बकमशब्दों के रूप में अंकित किया था। शायद इसीलिए इस विश्वकविसे प्राप्त होने वाले किसी भी यात्रावृत्तांत में भारतीयताकी अपेक्षा रखना बहुत स्वाभाविक हो जाता है।

उत्तर गुजरात में जन्मे इस साहित्यकार ने ईशान भारत अने अंदमानमाँ टहूँक्या मोरशीर्षक से गुजराती भाषा में यात्रावृत्तांत लिखा है। पश्चिम दिशा में रहने वाले इस विभूति की नजरों में पूर्वोत्तर की छवि कैसी है यह देखना और भी दिलचस्प हो जाता है जब दो दिशाएँ बिलकुल विरुद्ध हो। दूसरी बात यह कि एक कवि की नजरों से ईशान भारत और अंदमान किस रूप में अंकित होता है यह कुतूहल होना भी स्वाभाविक है। उमाशंकर जोशी की इस यात्रा के निमित्त में वहां के विख्यात कवि अड़-डू-रल की स्मृति में आयोजित एक व्याख्यान का निमंत्रण है। मणिपुर राज्यकला अकादमी ने श्री उमाशंकर जोशी को ईशान भारत में तीन सप्ताह के लिए निमंत्रित किया गया था, बस यह यात्रा ही तो है– ‘ईशान भारत और अंदमानमाँ टहूँक्या मोर। पुस्तक का पृष्ठ खोलते ही मिलते है अपने भारतीय होने के, गर्वान्वित करते हुए अर्पण शब्द– ‘ईशान दिशा के प्यारे देश स्वजनों को। भारतीयता मानो उनके हृदय की तरह शब्दों के कण-कण में बसी हुई हो। केवल गुजरात की बात नहीं पर पूरे देशस्वजनों की बात। ईशान भारत के एक एक कोने को देखने का, महसूस करने का अवसर जब उन्हें प्राप्त होता है तब इस प्रकृतिप्रेमी की अनुभूति हमें भी कुछ ऐसे ही महसूस होती है– ‘हर एक जगह मानो घर का आँगन। भिन्न भिन्न स्थल और कालबिंदु पर खड़े रहकर हमारे देश की अखंड प्रतिमा देखने का अपूर्व आनंद, समष्टि मात्र को देखने की अखिलाई भरी एक दृष्टि। 

यह पुस्तक नवम्बर 1976 में लिखी गयी है। देखा जाए तो आज पूर्वोत्तर प्रदेश बहते कालप्रवाह के साथ काफ़ी बदल चुका है, किन्तु इस रचना का महत्त्व आज इसलिए भी है कि लेखक की आँखों से खींची गई तत्कालीन प्रदेश विशेष की छवि में एक पूरे समयस्तंभ को हम देख सकते है। अपने काल को अंकित करती हुई कोई भी रचना एक अर्थ में दस्तावेजी इतिहास बन जाती है। अत: ऐसे ग्रंथो का मूल्य अपनेआप में अनूठा बन जाता है। यहाँ, जो देखा वैसा ही नहीं लिखा गया, शब्द की मोहिनी से, आलंकारिक विवरण से लिखित शब्दों को सजाया नहीं गया है बल्कि बाह्य परिदृश्यों के भीतर बसी आंतरिक वास्तव की सुन्दरता और कुरूपता दोनों को उन्होंने उजागर किया है।

यात्रा या प्रवास किसे कहते है? उसके प्रत्युत्तर में मानो इस लेखक स्वयं सर्जित परिभाषा देते हुए कहते है– ‘कुछ कालखंडो में कुछ भूभागो में हमारा शरीर घूम आया उसका नाम यात्रा नहीं है, यात्रा एक प्रकार से अंतरयात्रा भी है।यहाँ हमें स्मरण होती है उनकी ही एक कविता– ‘माइलोना माइलो मारी अंदरकहते हुए उमाशंकर! मनुष्य की यात्रा जीतनी बाहर होती है उससे कहीं अधिक भीतर होती है। मुसाफ़िर भी वही होता है और मानो अपना सहयात्री भी वही होता है। साधारण मनुष्य की यात्रा के अपने-अपने उद्देश्य रहते है पर साहित्यकार के लिए यात्रा का उदेश्य होता भी है और कभी-कभी नहीं भी होता। गुजराती के प्रसिद्ध कवि निरंजन भगत ने एक कविता में अपने पृथ्वी पर आने के उद्देश्य को निरुदेश्य कहा है लेकिन उमाशंकर? वे कहते है– ‘भारत यात्रियों देश का कोना कोना घूम लो और सर्वत्र चिरंतन ताज़गी भरे प्रेरणासभर झरणों से अखूट आत्मस्फूर्ति प्राप्त करो।यहाँ फिर से स्मरण होता है उनकी पहली कविता– ‘नखी सरोवर पर शरदपूर्णिमा’, जिसमें प्रकृति के कण -कण से सौन्दर्यपान करने की बात की गई है। 

यह यात्रा वृत्तान्त सात हिस्सों में विभाजित है। गुवाहाटी प्रवेशद्वार, मेघालय, मणिपुर, कोहिमा स्वप्ननगरी, नयनाभिराम मोकोकचुंग, रोमहर्षं मोन, डिब्रूगढ़ संस्कारमथक। इसके अतिरिक्त पुस्तक के अंतिम भाग में ईशानीशीर्षक से यात्रा के दिनों में रची गई पद्य रचानाओं के गुच्छ भी रखे गए हैं। अपनी अनुभूति को उन्हों ने ब्रह्मपुत्र नदी, मेघालय, अंदमान के द्वीप, जेल के पीपल का पेड़ इत्यादि विषयों पर लिखी कविताएँ मिलती है। गुवाहाटीमें प्रवेश करते ही उनकी प्रथम अनुभूति कैसी है? प्रवेश के लिए कौन सी दो चेतनायें जरुरी है? तो उनका जवाब है - इस प्रदेश में यहाँ के सांस्कृतिक समाज एवं बौद्धिक समाज के माध्यम से प्रवेश करना। यहाँ गुवाहाटीशब्द का मूल, शब्द की व्युत्पत्ति की रोचक जानकारी भी प्राप्त होती हैगुवा(सुपारी) का बाज़ार। हरी नागरवेल की पत्तियों के बीच रखी कच्ची नर्म सुपारी का एक चौथाई टुकड़ा।

गुवाहाटी प्रवेशद्वारके आरंभ में यात्रा का आयोजन कैसे हुआ, कुछ उत्साहित पारिवारिक सभ्य किस तरह सहयात्री बने, यात्रा का प्रारंभ कैसे हुआ, गुजराती-बांग्ला के साहित्यिक मित्रो से कैसे मिलना हुआ इत्यादि बातों के साथ-साथ गुवाहाटीकी हृदययात्रा का प्रारंभ कैसे हुआ वह बयान करते जाते हैं। मणिपुर राज्यकला अकादमी के व्याख्यान हेतु प्रो. नीलकान्त सिंह के निमंत्रण से यात्रा का आयोजन होता है। शिमला सेमिनार से लौटी हुई नंदिनी प्रो. रॉय बर्मन का पेपर लेकर आई थी, जिसे पढ़ते ही उमाशंकर लिखते है: उस प्रदेश के समाज की विविधता, उसके प्रश्न, नई पीढ़ी के प्रतिभाव, प्रजाकीय अरमानइन सभी नक़्शे को ऊपर -ऊपर से देखने से भी दिमाग काम करता नहीं है। और कुछ भी हो, मगर हम अपने देश को पहचानते नहीं है - उसका साक्षात्कार त्वरित होता है। आगे लिखते हैं– ‘लेकिन उसके लिए ही तो यह यात्रा!गौहाटी पहुँचते ही उस रमणीय प्रदेश के वश में मानो खींचे चले जाते लेखक ब्रह्मपुत्र के वारिपट के दर्शन मात्र से विराट अस्तित्वका अनुभव करते हैं।

असमिया साहित्यसभा के प्रमुख श्री सत्येन्द्रनाथ शर्मा के आत्मीयता से भरे सांस्कृतिक आतिथ्य का आनंद लेते हैं। कन्या विद्यालय शरणिया आश्रम, जहाँ महात्मा गांधी ठहरे थे वह पावन स्थान देखने के बाद सुप्रसिद्ध कामाख्या मंदिर के संदर्भ में लिखते हैं, वहाँ दो भिन्न परिवेश विशेष की संस्कृति संदर्भ की गहनता भी हमें नजर आती है– ‘यह प्रदेश, जो सुदूर उत्तर गुजरात के किसी गाँव में बचपन में सुनी हुई कुछ कहानियों के रूप में कानों में पड़ा था वही कामरू’ (कामरूप) देश। गौहाटी कामरूप जिले में पड़ता है। सुबह कामाख्या-मंदिर की ओर जाते -जाते मैंने बिरेन्द्रकुमार से कहा कि हमारी बाल कहानियों में ऐसा आता है कि हम कामरूप देश में जाते है तो वे हमारा रूपान्तर-परिवर्तन कर देते हैं। उन्होंने कहा, हमारे वहाँ कहा जाता है कि बाहर का कोई आता है तो उसका सुव्वरमें परिवर्तन हो जाता है।असल में इन बातों से हमें दो भिन्न प्रदेश की तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य की विशालता का भी अनुभव होता है। रोचक बात तो यह लगती है कि एक गुजरात का साहित्यकार और दूसरा असम का - कामरू और कामख्या.... रूपान्तर की दंतकथा पूर्व और पश्चिम के दोनों छोर पर मौजूद है! शायद इसीलिए हम लोग चाहे भारत के किसी भी हिस्से में चले जाए, कहीं न कहीं, किसी न किसी संस्कृति या परंपरा के तत्त्व से जुड़े ही रहते है, ‘भारतीयताकी रोशनी कभी ओझल नहीं होती। शायद इसीलिए उमाशंकर जी को भी आसाम की भूमि में अपने प्रदेश की ही मिट्टी का अनुभव हुआ होगा। (ठीक उसी तरह मुझे यहाँ स्मरण होता है, हमारे गुजरात में किसी-किसी हिस्सों में एक रूढ़ि प्रचलित है जिसके अनुसार हाथों में नमक नहीं दिया जाता है। इसके पीछे यह मान्यता है कि ऐसा करने से रिश्तें बिगड़ जाते है, नमकीन हो जाते है। ठीक उसी तरह असम में हाथ में लाल मिर्ची नहीं दी जाती, कहते है, रिश्तें बिगड़ जाते है, तीखें हो जाते है।) जब हम हमारे भूभागों को जानने का यत्न करते हैं तो महसूस होता है कि भारतीयता की सोंधी-सोंधी खुशबू हमे देश के किसी भी कोने में बहती दिखाई देगी, चाहे वह सामाजिकता के रूप में हो, सांस्कृतिक रूप में हो या हो परंपरा के रूप में।

भारत में मंदिर किसी भी कोने में क्यों न हो लेकिन पंडा और भीड़ की तस्वीर एक -सी ही रहती है। इस बात का विवरण करता एक कविहृदय यहाँ भी छिपा नहीं रहता। उनकी संवेदनाएँ हमें इस विधानों में प्रतीत होती है– ‘यहाँ वध हो तब खुल्ले छोड़े गए दाढ़ी वालें बकरें, पंडाओ के साथ खड़े, मृत्यु के किनारे खड़े, किसी अजशिशु की आँख में अपनी ही नहीं, उसको नहीं बचा पाने की असमर्थता भी तैरती है।वधस्थान और दरवाजे के पास बच्चे को दूध पिलाती माँ के शिल्प की भावाकृति का संनिधिकरण (jaxtapose) कर लेखक अपनी गहरी अनुभूति को सांकेतिक रूप से निरुपित कर बहुत कुछ बयाँ कर देते हैं।

देख सकते हैं इस रचना में यात्रा का केवल सतही बयान नहीं है। मोइरांगकलातीर्थ के संस्मरण पाठक के सामने रखते हुए थोईबीखम्बा की प्रेमकथा स्वरूप लोककथा से भी पाठकों को अवगत करवाते हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने जिस बारीकीयों से प्रादेशिक विशेषताओं का आलेखन किया है उससे हमें एक सम्पूर्ण प्रदेश विशेष की झांकी मिलती है। वे लिखते है, मणिपुरी भाषा का उपयोग कभी भी कीर्तन में नहीं होता। इसके पीछे यह मान्यता है कि अगर कोई दिन में इस भाषा का प्रयोग कीर्तन में कर लेता है तो उसका अगला जन्म कौवे के रूप में होता है और अगर रात को कर लेता है तो उल्लू के रूप में। कियांबा के समय से चली आती इस मान्यता पर राजा भाग्यचंद्र भी प्रतिबंध दूर न कर सके और आजपर्यंत मौजूद है। इतना ही नहीं, भाग्यचंद्र के पितामह के समय से चैतन्य संप्रदाय का प्रभाव किस तरह उत्तरोत्तर बढ़ता गया, श्रीगोविंद की कृपा कैसे हुई, कुछ द्वेषी लोगों की ईर्ष्या के कारण वे किस तरह परेशान हुए, ईश्वर की श्रद्धा की कसौटी रूप में पागल हाथी को काबू करने में स्वयं श्रीकृष्ण कैसे सहायक बने, भक्त भाग्यचंद्र की मूर्ति बनाने की प्रतिज्ञा लेना, अपनी बेटी को रासलीला में राधा बनने के लिए कहना और मीराबाई की तरह बेटी का हकीकत में गोविंद को पति मान कर समर्पित हो जाना, अत: त्रिपुरा को बेटी सौंपकर, राज्य त्यागकर भाग्यचंद्र का तीर्थयात्रा में चले जानाइस कथा से हम केवल किसी मनोरंजक पुराकथा से ही अवगत नहीं होते बल्कि त्रिपुरा और मणिपुर जैसे दो राज्यों के बीच किस तरह संबंध प्रगाढ़ बने, दृढ़ बने इसका एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण भी प्राप्त होता है। कविताएँ और पदों में चैतन्य प्रभु एवं वैष्णव धर्म के निमित्त रूप किस तरह कृष्णप्रभाव का उद्भव और विकास हुआ उसके मूल भी हमें इस विवरण में दिखाई देते हैं।

यहाँ मणिपुर नृत्यशैली, पहनावा, बसंत के वैभव के आलेखन के साथ साथ सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्यों का जो निरीक्षण लेखक ने प्रस्तुत किया है वह इस यात्रावृत्तांत को और भी रोचक बनाता है। लेखक ने महिला बाज़ार की आवाज़ को भी हमारे कानों तक पहुंचाया है। कपड़ा बाज़ार के उत्सवी परिवेश में काम करती वहां की औरतें, उनके मिजाज़, आत्मसम्मान और रुतबे को कागज़ पर बखूबी उतारा है। विस्मय की बात तो यह है कि बाज़ार चलाने का काम इन औरतों के लिए किसी विवशता या रोज़ी रोटी कमाने का ज़रिया मात्र नहीं है बल्कि यह काम उनके लिए रुचि का रहा है और यहीं एक कारण है कि राजमहल की औरतें भी बाज़ार चलाने के काम में जुड़ने के लिए बेहद उत्सुक दिखाई पड़ती हैं– “मणिपुरी औरतें स्वतंत्र मिज़ाज की होती है, वह पुरुष पर निर्भर रहने वाली नहीं है। आर्थिक कार्य का बोझ भी उसी ने उठा लिया है, आप उम्रदराज़ औरतों को भी एक हाथ में छाता और एक हाथ से गवर्नर थामे साइकिल पर भागा-दौड़ी करते हुए देख सकते हो। रूप के पीछे का एक तर्क यह दिया गया है कि ब्रह्मदेश के साथ छोटी-मोटी लड़ाइयाँ होती थी इसीलिए पुरुष योद्धाओं को मुक्त रखने के लिए उनकी औरतों ने इस भार का स्वीकार किया है। अब नए ज़माने के सुधारकनिकले है औरतें बाज़ार चलाये यह ठीक नहीं हैऐसा प्रचार-प्रसार करके उनके बाज़ार के पास ही नेपाकेइथल’– पुरुषो से चलता बाज़ार खड़ा कर दिया।1

उपरोक्त छोटे से परिच्छेद में स्त्रीस्वातंत्र्य, मिजाज़, आत्मसम्मान की झलक मिलने के साथ अपने आपको नए ज़माने के नाम पर जो सुधारककहते है, कहलवाते है उनकी सुधारणासंबंधित परिभाषा पर, उनकी सोच पर एवं मानसिकता पर तेज़ व्यंग्य दिखाई देता है। हालाँकि देखने वाली बात तो यह है की आज के दौर में वैश्वीकरण और नारी स्वातंत्र्य की चर्चा जहाँ ज़ोरों पर है वहां नारी चेतना के आंदोलन के उद्भव की एक और छवि उभरती हुई मिलती है। औरत घर के बाहर काम कर सकती है और यह बात पिछली सदी की औरतों ने साबित कर दी है। हम जानते हैं कि नारीवाद के उद्भव के मूल में हमें कारखाने में काम करती हुई औरतें भी दिखाई पड़ी थी। कारखानों में शोषण के विरुद्ध एक तेज़ आंदोलन चला था तब उन पुरुषों के जगह उनकी औरतें कारखाने में जा कर उनके काम संभालती थी, यहाँ वर्किंग वुमन का एक अनूठा ऐतिहासिक संदर्भ भी प्राप्त होता है। मणिपुर की औरतें शायद उससे भी एक कदम आगे दिखाई देती हैं। उनका यह साहस कौनसे इतिहास के पन्ने पर दर्ज हुआ होगा?। लेखक उस मानसिकता से भी भलीभांति परिचित है जहां यह माना जाता है कि औरत में सौन्दर्य और बुद्धिमत्ता साथ-साथ नहीं चल सकती। इसीलिए वह लिखते है: उससे कत्तई यह फलित नहीं होता कि इन औरतों में लावण्य का अभाव है। इसकी तो हम कल्पना ही नहीं कर सकते। राजकुमारी चित्रांगदा को यात्रिक अर्जुन ने वहां से गुजरते हुए देखा था और यह संदर्भ कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर रचित जिस कविता में लिया गया था उसे स्मरण करते हुए कवि उमाशंकर जोशी कहते हैंमणिपुर की औरतें पुरुषों के काम को स्वीकारती हैं पर नारीत्व को मिटाकर हरगिज़ नहीं और मणिपुर की नारी की लावण्यविहीन कल्पना करना, यह तो असंभव है।2

रोम हर्षण मोनशीर्षक से लेखक हमें नगा प्रजा और उनकी संस्कृति, उनकी मान्यताएँ, उनकी परंपराओं से रूबरू करवाते हैं। किस तरह विवाहयोग्य नगा लड़के मोरुंगमें रहते हैं, किस तरह अपने आपको संसार रचने योग्य सिद्ध करते हैं। इस समाज में मस्तकशिकार की एक परंपरा भी है जो कई सदियों से चली आ रहीहै। मस्तकशिकार की इस परंपरा के पीछे प्रचलित मान्यता भी बड़ी ही अचंभित करने वाली है। वे लिखते हैं– “परंपरा जब जोर-शोर से चल रही थी तब भी मित्रगाँव से मस्तक नहीं ला सकते ऐसी मान्यता का स्वीकार किया गया था। जिस गाँव में इक्कादुक्का मर्द हो वहां भी हल्ला करने के प्रयास होते थे और बैर विरासत में मिल जाते। मस्तकशिकार के रहस्यमयता (मिस्टिक) को महत्त्वपूर्ण माना जाता, आदमी छुपते-छिपाते कहीं भी छिपे रहते और कोई अकेली औरत किसी झील से पानी भरने गई हो या कोई बच्चा अकेला पड़ा हो तब मस्तक काटकर ले आने से भी बिलकुल हिचकिचाते नहीं थे। एक प्रकार की मानसिक विकृति तक यह परंपरा पहुँच चुकी थी। नगा प्रजा में ऐसी मान्यता है की मृत्यु के पश्चात् परलोक (डिखू के उस पार) में यहाँ जैसी ही जिंदगी जीनी पड़ती है, घर, खेतीकाम, सब कुछ यहाँ जैसा। जिसके मस्तक का स्वीकार किया गया हो वह व्यक्ति इतरलोक के मार्ग में बोझ उठाने के भी काम आता है।3 इसी के साथ शुरू होता है लेखक के मानस में नगाओ के आगमन विषयक जिज्ञासा का मंथन। - भारत में और किसी गिरीजनों में यह परंपरा नहीं है। नगा प्रजा में कहाँ से आई? बाहर से? मानववंश विज्ञानी यह कहने की स्थिति में हैं कि मस्तकशिकार की यह परंपरा बोर्नियो द्वीप, फोर्मोसा या र्फिलिपिंस में है। तो क्या नगा दूर से आये द्वीपवासी है? उनकी लक्कड़ढोल की आकृति बींधी हुई संकीर्ण नाव(कानू) से मिलतीजुलती है। मानो न मानो, लेकिन पर्वतों के शिखरो पर बसने वाले नगाओं का प्रिय श्रृंगार समुद्रतट की कोडियों का है। कोडियों के श्रृंगार के शौक से और लक्कड़ढोल की आकृति में नगाओं ने खुद को समुद्रद्वीप के निवासी थे इस बात को सहेज रखा है।4

नगाओं में प्रचलित रीति-रिवाज़ एवं जातीय संबंधों के संदर्भ में उमाशंकरजी लिखते है: नगाओं में जातीय संबंध, विवाह इत्यादि में कुछ अलग ही रिवाज़ दिखाई देते हैं। विवाह योग्य उम्र होते ही लड़का मोरुंग में जाकर रहता है। लडकियां उनके निवास (जहां कोई संभालने वाली बाई हो) वहां जाकर ठहरती है। देर रात तक सबका मेल-मिलाप चलता है। जातीय संबंध में बंधन नहीं है ऐसा कहा जा सकता है। विवाह तय हो जाए तो गाँववासी बांस-पत्ते काटकर ले आते है, झोंपड़ी बना देते हैं और उनका संसार शुरू हो जाता है। अगर पुरुष विवाह तोड़ता है तो उसे औरत को रहने की और पोषण की व्यवस्था करनी पड़ती है। मोरुंग इस तरह एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था है। हर एक मोरुंग का अपना एक गीत होता है। उस गीत को दूसरा मोरुंग नहीं गा सकता।5 यहाँ इस विवरण में भी देखा जाए तो गुजरात में भी कई आदिवासी समूहों में इससे काफ़ी मिलती-जुलती परम्परा दिखाई देती है। हालाँकि यहाँ लेखक त्वरित ही पाठकों को इस बात से अवगत कराते हैं कि मस्तक परंपरा, मोरुंग का जीवन, कोन्याको की अल्प वेशभूषा इस सब से आज के नागालेंड का ख़याल बांध लेना अपूर्ण होगा और वह गलत मार्ग पर ले जाने वाला होगा। साक्षर नगा परिवार देश के अन्य परिवार जैसे ही हैं जो आधुनिक भारत के साथ ताल से ताल मिलाकर चल रहे हैं।

महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि आज भी कुछ प्रदेशों के जनमानस में पूर्वोत्तर प्रदेश की अनदेखी हो रही है, वहां सन 1976 के समय में भी यह अनदेखी ज्यों की त्यों ही थी इस बात का प्रमाण हमें लेखक के इस सूक्ष्म निरक्षण से मिलता है, वे लिखते है: भले यात्री एक बात को लेकर अनजाने में ही सही मगर विवेक खो बैठते हैं यह कहकर कि हिन्द में ऐसा है’, ‘आपको हिन्द के साथ इस तरह से संबंध में आना चाहिए’– यूँ नगाओं से हिन्दअलग है इस प्रकार का उल्लेख उनसे हो जाता है। इसके स्थान पर हिन्द के उस हिस्से में’, ‘नागालेंड में यूँ है, बाकी हिन्द में यूँ है’– इस प्रकार उल्लेख होना चाहिए।6 इससे अधिक फ़िक्र तो नगा समाज के अन्दर -अन्दर ही समिल्लित न होने की है, यह समस्या इतनी ही महत्त्वपूर्ण है। साक्षर नगा समाज के सवाल और पिछड़े नगा समाज के सवाल भी उतने ही प्रमुख है: कोन्याक नगाओं के मोन विभाग में किसी ने एक बार कहा: हां, मीटिंग में असाम से लोग आये थे, भारत से आये थे और नागालेंड से भी आये थे। यानि की मोन के पिछड़े प्रदेश के लिए नागालेंड भी अपना मुल्क नहीं है।7

यात्रावृत्तकार ने डिब्रूगढ़ को संस्कारमथककी उपमा दी है, कोहिमा उनके लिए नागालेंड का हृदयहै, तो अंदमान के भीतर पूरे भारत की एक छोटी सी प्रतिकृतिकी अनुभूति वे करते हैं। अंदमान के बारे में लिखे गये विवरण का शीर्षक ही देखिये न, कितना संगीतमय !– ‘अंदमानमाँ टहूक्या मोर’! अंदमान, जहाँ ज़्यादा मानव बस्ती नहीं मिलती वहां एक तरह के सूनकार में कवि के कर्ण मयूर की केका को सुनते है, यह विरोधाभास क्यों है? इस सवाल का जवाब हमें विवरण की गहराइयों में जाकर ही मिलता है। जहाँ हमे अंदमान का संक्षिप्त इतिहास भी मिलता है और किस प्रकार पोर्टब्लेर बंदर विशेष है उसकी जानकारी भी मिलती है। अंदमान और दो बातों के लिए भी खास है - एक तो गर्म मसाले की फसल उगाने के लिए और दूसरा प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए। सिपिघाटी में काली मिर्च, लॉन्ग, जायफल इत्यादि मसालें और अनानस की फसल यहाँ की समृद्धि है। अलबत्ता जंगलों की कटाई कर नए लोगों को बसाने के विरुद्ध भारी पूर्वग्रह भी है। एक समूह वह है जो किसी भी परिस्थिति में आदिम स्थिति को टिकाये रखना चाहता है तो दूसरा समूह की दलील यह है कि जो पेड़ काटे जा रहे हैं उसके विकल्प में दूसरे उत्पादक पेड़, पौधे उगाते ही है न! वहां के सामाजिक परिवेश के संदर्भ में हमें लेखक का सकारात्मक दृष्टिकोण मिलता है। भारत के अन्य हिस्से में जो सांप्रदायिकता, जातिवाद और भाषावाद का ज़हर फ़ैला है वहां यह कोना इन समस्याओं से कोसो दूर है। न तो यहाँ कोई भिखारी है, न तो यहाँ कोई अछूत! इसीलिए वे लिखते है: पिछड़ा कहलाता, ‘कालापानीका काला कलंक माथे पर लगाया हुआ, यह हिस्सा फिलहाल भारत की मुख्य बस्ती के लिए एक आदर्श उदाहरण बन सकता है। यह आशा करे की आज वहां जो तत्त्व नहीं है उसे भविष्य में आयात न किया जाए (विशेषत: राजकीय नेताओ के हाथों)8 यहाँ कौंस में रखे शब्द बड़े मार्मिक है। इस व्यंग्य में मूलतः राजकीय वृत्ति को दिखाना वे नहीं चूके। अंदमान के सौन्दर्य को रमणीय गद्य में ढालने का प्रयास प्रशंसनीय है। इसके अतिरिक्त अंदमान के आदिवासीशीर्षक से लिखे गए विवरण में वे प्रश्न पूछते हैं– ‘तो क्या अंदमान स्वर्ग है? कुछ विस्तार और कुछ द्वीप में बसते अंदमान के मूलनिवासियोंसे मिलना मुश्किल है। एक जाति तो बाहर के लोगों को देखते ही मार देती है। कुल मिलाकर मूल निवासी लोग अठारह हज़ार के लगभग है, जिसमें करीब पोने सत्रह हज़ार के लगभग लोग तो निकोबारी है। दूसरी जातियां भी है, उसमें अंदमानी गिनेचुने तेईस हैं, ओंगे लोग सौसवा सौ के लगभग और शेमपेना जाति के मुश्किल से सौ के करीब हैं। जारवा जाति के सेंटीनेलीज लोग बाहर के लोगों के साथ संपर्क में आते नहीं है, इसीलिए उनकी गिनती नहीं हो पाई है।

उपर्युक्त अवलोकन विशेष महत्त्वपूर्ण है। यहाँ कहा जा सकता है कि आदिम अवस्था में जीवन जीते वहाँ के आदिवासियों का एक समूह 1976 में भी था और 2018 में भी। (अभी कुछ दिन पूर्व ही घटी हुई, एक घटना का स्मरण हम सबको होगा जहाँ एक अमरिकन नागरिक को वहां के आदिवासी समूह ने ज़हरीले तीर से मार डाला था।) उस दृष्टि से भी यह यात्रावृत्त कुछ हद तक दस्तावेज बन जाता है। लेखक यहाँ आंकड़े भी बताते जाते है और साथ ही रोचक बातें भी। जहां (निकोबारी आदिवासियों में कहीं-कहीं शिक्षा का प्रचार हुआ है और एक आदमी आई.ए.एस. की परीक्षा तक भी पहुंचा हुआ है (याद रहे यह 1976 की बात है) उस बात को लेखक सहर्ष लिखना नहीं भूले। इस समूह की जीवनशैली कैसी है? “बाकी के आदिम लोग कपड़े पहनते नहीं है। पुरुष छाती का हिस्सा वनस्पति के बड़े पत्तो से ढंकते हैं। औरतें कमर पर लाज ढंकने जितना ही आंग्ल घास का या ऐसे गुच्छे की ड़ोर बांधकर लटकाती है। एक जाति नेग्रिटो है, उनकी औरतों के बाल बहुत ज्यादा छोटे होते है। एक ही छपरे के नीचे ओंगे लोगों के एक से अधिक कुनबे होते है और मानो कोई चारपाई लगी हो, इस तरह समूह में रहते है। पूरा कुनबा एक चारपाई पर सोता है। चारपाई की एक ओर खाना टंगा होता है और दूसरी और शहद। जब भूख लगे तब खा लो। मृत्यु हो तो उसी चारपाई के नीचे दफ़न कर देते हैं। अपने करीब ही रखते हैं। शस्त्र मेंबाण, जिसमें नुकीले बांस का उपयोग। कहते है नोंक पर कोई ज़हर लगाते है। सूअर का मांस और मछली या नारियल यहीं खुराक। नाव (कानू)) को संतुलित रखने के लिए एक तरफ लकड़े की लंबी कमान होती है। उनकी भाषा अभी तक समझ नहीं आती है। पुउउउउ....गाने की यूँ आवाज़ सुनाई पड़ती है । कुछ मिट्टीकाम भी वे जानते हैं।9

लेखक ने यहाँ केवल अपनी यात्रा को ही प्रकट नहीं किया बल्कि लगातार मनुष्यत्व को टिकाये रखने की फ़िक्र और ज़िक्र भी उनके मंथन में निरंतर दिखाई पड़ती है। वह इस उपेक्षित समूह की पीड़ा से बखूबी परिचित हैं। इतना ही नहीं, वे सुधारऔर विकासके नाम पर किए जा रहे प्रयोगों से चेतावनी देते हुए लिखते हैं: विस्मय की बात तो यह है कि इस जाति की हरदम उपेक्षा ही हुई है। गोरों के हाथों न्यूज़ीलेंड के मावरी लोगों का, अमरिकन रेड इन्डियनों का जो हुआ है वही क्या भारतीयों के हाथों इन आदिवासियों का होगा? उन जातियों को सुधारके बहाने बिगाड़ने की जल्दी भी नहीं करनी चाहिए। यूंग ने कहीं लिखा है, गोरों के चले जाने के बाद किस तरह आफ्रिकन जातियों के लोगों को जातीय रोगो की भेंट मिली थी, वैसा यहाँ भी हुआ है। जो जातियां अपने भिन्नता पर आक्रमण नहीं सह सकती उनके भी दिल जीतने के तरीके अपनाने चाहिए, प्रमुखांश उनका अपना वजूद टिका रहे, उस तरह उनके साथ काम करना चाहिए।10

जहां हम अंदमान का नाम सुनते है तो तुरंत ही कालापानीका एक संदर्भ विशेष भी हमारे दिलोदिमाग पर छा जाता है। अंदमान जेल की रचना और उसके इतिहास की बातें दिल को छू जाती है। क्रूरता की चरमसीमा तो देखिये !अपनी ही कैद के लिए उन्हीं कैदियों की मजदूरी से यह जेल तैयार की गई। उमाशंकर का व्यथित कवि हृदय चीख उठता है: समुद्र देख उसकी मातृभूमि के विशाल किनारे को उछलतो लहरों के संग देखते ही बंदीवान स्वातंत्र्य वीरों के दिल कैसे दुखते-रींसते होंगे उसकी तो बस हम कल्पना ही कर सकते हैं।11

सुखद विस्मय की बात तो यहाँ यह हुई कि आज़ादी के बाद छुआछूत के भेदभावविहीन एक नए आवास की स्थापना हुई और नया समाज रचा गया। यह समाज की संरचना कैदियों की शादियों से किस प्रकार बुनी गई यह जानना भी रोचक लगता है। इस विवरण में न केवल प्रदेश परिवेश की रेखाएँ उपलब्ध होती है बल्कि समाज और संस्कृति को देखने विशिष्ट मनोवैज्ञानिक दृष्टि भी प्रतीत होती है। शायद इसीलिए उन्होंने प्रेम से इस जगह को, इस परिवेश को, इस स्थल विशेष को ईर्ष्या जगानेवाली अनूठी संस्कृति का पालनाकहकर नवाज़ा होगा!

यूँ तो ईशान भारत की यात्रा का हेतु लेखक के लिए तो एक व्याख्यान प्रसंग था लेकिन उनकी नज़रों ने प्रादेशिक विशेषताओं को, समाज-संस्कृति को, मर्यादित सीमाओं को अपने अनूठे दृष्टिकोण से निरुपित किया है। यहाँ, जहाँ अनिवार्य हो वहां उन्होंने एक चिकित्सक के रूप में भी चीजों को परखा है। क्योंकि वे बौद्धिक समाज के साथ चर्चा-विचार-संवाद निमित्त रूप था तो अपनी चर्चाओं के तारण, निरीक्षण, अनुभूति, चिंतन एवं मंथन के दर्शन में उनकी साहित्यिक गहराई का विशाल परिचय प्राप्त होता है। दृष्टांत स्वरूप महाकाव्य का कल और आनेवाला कलविषय के बारे में रखे गए निष्कर्ष पाठकों के लिए उपलब्धि ही बनी रहती है। कालिदास, होमर, वेदव्यास, वाल्मीकि, वर्जिल, मिल्टन के अतिरिक्त अरविन्द, एजरा पाउंड, पाब्लो नेरुदा के महाकाव्यों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि कोई एक विशिष्ट विभूति को केन्द्र में रखकर या रखे बिना भी पूरी मानवजाति की किसी एक महाघटना की अनुभूति को आकार देने के लिए कविप्रतिभा सक्रिय हो यह असंभव नहीं है। बंगाल की रंगभूमि से मणिपुर की रंगभूमि किस तरह भिन्न है वह वहां देखे हुए नाट्यप्रयोग के आधार पर बताते हैं। इस तरह यह यात्रावृत्तांत कई मायनो में अधिक मूल्यवान बन जाता है।

लेखक अंत में लिखते हैं: मित्र बालकृष्ण त्रिपाठी ने भावुक हो कर कहा था: भाई, क्या बताऊ? पन्द्रह साल से मैंने मयूर की केका को नहीं सुना।12 लेकिन व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता है अंदमान में मिली यह आह्लादक अनुभूति उमाशंकर जोशी के लिए केका के ध्वनि से कहाँ कम थी? शायद इसीलिए तो उन्होंने लिखा होगा– ‘अंदमान में टहूके मोर’ ! 

संदर्भ :


1.     उमाशंकर जोशी, ईशान भारत अने अंदमानमाँ टहूँक्या मोर- (पृ. 41)

2.     वही. (पृ.42)

3.     वही. (पृ.98)

4.     वही. (पृ.99)

5.     वही. (पृ.102)

6.     वही. (पृ.105)

7.     वही. (पृ.106)

8.     वही. (पृ.136)

9.     वही. (पृ.138)

10.    वही. (पृ.139)

11.    वही. (पृ.142)

12.    वही. (पृ.164)             

डॉ. पन्ना त्रिवेदी, आसि. प्रोफ़ेसर, गुजराती विभाग, वीर नर्मद साऊथ गुजरात विश्वविद्यालय,

उधना मगदल्ला रोड, सूरत07, गुजरात

9409565005, pannatrivedi20@yahoo.com

       अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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