शोध आलेख : जीवनी साहित्य : श्रद्धा और संवेदना / जेताराम वणल

                                     शोध आलेख : जीवनी साहित्य : श्रद्धा और संवेदना / जेताराम वणल 

शोध सार :

            जीवनी में किसी विशेष प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के संपूर्ण जीवन का कलात्मक शैली में अन्य व्यक्ति द्वारा लेखन किया जाता है। जीवनी विधा हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा है। जन सामान्य शैली में लिखी गई जीवनी में आस्था, श्रद्धा संवेदना की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है। साहित्यिक जीवनी लेखन परंपरा को कायम रखने के प्रति सहज अनुभूति समायोजन में सहायता मिलेगी। जीवनी लेखन में लेखक की आस्था संवेदना को जानने के लिए जीवनी लेखन में आई बाधाओं को दुरुस्त करने के लेखक के प्रयासों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीवनी लेखन के इतिहास के साथ-साथ तमाम विद्वानों की जीवनी की परिभाषा को प्रमुखता से लिया गया है। जीवनी लेखन की व्युत्पत्ति चीन में हुई तथा इस पर अंग्रेजी की बायोग्राफी विधा का प्रभाव है। प्राचीन समय में वाद, दंत कथाओं दैवीय व्याख्यान में जीवन चरित का उल्लेख मिलता है। यूरोपियन देशों में शासकों की कब्र प्रस्तर पर अपनी विजयादि अभियानों को अंकित किया गया है। भारत में जीवन चरित लेखन का गौरवमय इतिहास रहा है। मौर्य साम्राज्य के शासक सम्राट अशोक ने अभिलेखों द्वारा जनता को संबोधित है। मुगल साम्राज्य में मुगल बादशाहों में अपनी आत्मकथा लिखना सम्मान एवं गौरव का विषय हो गया था जिनमें बाबरनामा, हुमायूंनामा, अकबरनामा प्रमुख है। हिंदी साहित्य के दरबारी काव्य में कवियों ने अपने आश्रयदाताओं का बखान अतिशयोक्तिपूर्ण शैली में किया है, जो कि एक प्रकार से जीवन चरित का ही रूप है। साहित्यिक जीवनी लेखन का प्रयास आधुनिक काल में हुआ है। विष्णु प्रभाकर ने आवारा मसीहा नामक कालजयी जीवनी लिखी है। इसी प्रकार अमृतराय कृत कलम का सिपाही, शिवरानी देवी कृत प्रेमचंद घर में रामविलास शर्मा द्वारा लिखित निराला की साहित्य साधना प्रमुख है। 

बीज शब्दसाहित्यिक जीवनी, जीवन चरित, बायोग्राफी, आत्मकथा, आस्था, कलात्मकता, संवेदना, भावनाएं, चरित्र नायक, विचार, अनुभूति, प्रशंसा आदि

मूल आलेख :

अब यह हकीकत है कि तुम जिंदा बैठे हो

जिस तरह भी यह जीवन चले तुम इसे ज्यादा चाहते हो

जितनी ज्यादा थर्थराती हैं जिंदगी

उतनी बैसा खाता रूह के मुखातिब

यह गाती है जिंदगी

आज तुम्हारी अपनी खासियत है जिंदगी

आगे तुम्हारे भीतर और फिर तुम्हारे बाद भी जिंदा है

ये जिंदगी....[1]

            फ्रेंच कवि लुई आरागों की यह पंक्तियाँ यद्यपि मानव जीवन की ओर संकेत करती दिखाई तो देती है, परंतु उसे जीवनी में तब्दील करने की उनकी यह कला कुछ हद तक अधूरी ही रह जाती है। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति का अपना जीवन और अपनी जीवन शैली को भोगने भुनाने की परंपरा चली रही है। परंतु यथार्थ के शब्दों में अगर जीवनी को ले तो यह स्वयं द्वारा तो शब्दों में नहीं पिरोई जा सकती संभवतः इसके लिए अनुभूति का होना मार्मिक जान पड़ता है। अनुभूति भी ऐसी हो जो किसी दूसरे द्वारा शब्दों में सँवारी जाए। वैसे तो जीवनी लेखन परंपरा का सूत्रपात पुराणों में भी हुआ है तत्पश्चात भाषाओं की जननी संस्कृत से होते हुए अपना सफर अन्य कई भाषाओं की परिक्रमा द्वारा निरंतर आगे बढ़ाती रही है। जीवनी लेखन परंपरा को भक्ति कालीन कवियों द्वारा भी उपभोग में लिया गया। उनके द्वारा लिखी गई जीवनी चाहे वह कुछ व्यक्तियों की जीवंत घटनाओं को उजागर करती हो या उनके तत्कालीन परिदृश्य को छूती हुई आगे बढ़ती हो। जीवनी साहित्यिक हो या साहित्येतर दोनों ही अपनी-अपनी महत्ता को संजोए है। जैसा कि विदित है कि साहित्यिक जीवनियों के भी कई प्रकार उभर कर सामने आते हैं जैसे- लेखकीय, आलोचकीय, कवि की जीवनी या अन्य प्रकार की जीवनी....

            जीवनी विधा हिंदी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा है। जीवनी किसी प्रभावशाली व्यक्ति विशेष के संपूर्ण जीवन का लेखन किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है। वैसे साहित्य लेखन की सभी विधाओं के केंद्र बिंदु में मानव जीवन ही होता है। "जीवनी शब्द हमारे जीवन से निर्बाध रूप से जुड़ा हुआ है अर्थात हमारे जीवन को प्रभावित करने वाली प्रत्येक विषय वस्तु से हमारा विशेष लगाव हो जाता है। हमारे जीवन में हमारे कर्म, हमारा चरित्र चित्रण एवं हमारी सामाजिक पृष्ठभूमि महत्त्वपूर्ण रहती है। इस तरह संपूर्ण जीवन में कुछ विशेष व्यक्तियों का जीवन हमारे लिए संपूर्ण मानवता के लिए प्रेरणादायक हो जाता है। तब उन्हीं व्यक्तियों के जीवन को अगर एक पुस्तक का रूप दिया जाए जिससे आने वाली पीढ़ी उनके बताए मार्ग पर चलकर अपने जीवन को सफल बना सके उसे हम जीवनी कह सकते हैं।[2]

            जीवनी को आत्मकथा के साथ जोड़ना नितांत गलत है। किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं के जीवन को तारतम्य ढंग से लिखना आत्मकथा कहलाता है, जबकि जीवनी किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखी जाती है। निराला के संपूर्ण जीवन पर आधारित पुस्तक निराला की साहित्य साधना रामविलास शर्मा द्वारा लिखी गई है। इसी तरह उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के जीवन को आधार बनाते हुए उनके पुत्र अमृतराय द्वारा कलम का सिपाही उनकी पत्नी शिवरानी द्वारा प्रेमचंद घर में लिखकर प्रेमचंद को पुनर्जीवित सा कर दिया है। महामानव महापण्डित : राहुल सांकृत्यायनकमला सांकृत्यायन, बाबुजी’ (नागार्जुन) शोभाकांत, 'कमलेश्वर मेरे हमसफरगायत्री कमलेश्वर,व्योमेकेश दरवेश’ (हजारी प्रसाद) विश्वनाथ त्रिपाठी, ‘वृटवृक्ष की छाया मेंअमृतलाल नागर (कुमुद नागर), ‘मुक्तिबोध की आत्मकथाविष्णुचंद्र शर्मा, ‘उत्सव पुरुषनरेश मेहता, महिमा मेहताशिखर से सागर तक’(अज्ञेय) रामकमलराम,सुमित्रानन्दनपंत : जीवनी और साहित्य शान्ति जोशी आदि जीवनी साहित्य प्रमुख है।

जीवनी : शब्द की व्युत्प तिः

            "जीवनी का उद्गम ई.पू. दूसरी शताब्दी में चीन में हुआ। परंतु वर्तमान जीवनी साहित्य विद्या के प्रचार और प्रसार पर अंग्रेजी बायोग्राफी विधा का प्रभाव है। यह शब्द Bious (Life) और graphicr (to write) शब्दों से बना है जिसका अर्थ है, जीवनी अथवा जीवनचरित्र का लेखन। मराठी में जीवनी के लिए 'चरित्र' शब्द प्रचलित है, जो मूल में संस्कृत से प्रचारित हुआ। चरित्र शब्द में मूल धातु चर' है 'चर' का अर्थ है करना (todo) सिद्धि तक लाना (to perform) कृति करना (to act) वर्तन ( to behave) आदि है।"[3]

जीवनी साहित्य का इतिहास

            जीवन चरित के प्राचीनतम रूपों के उदाहरण हमें हमारे मजहब, वात, दंत कथाओं और पौराणिक आख्यानों में मिलते हैं। इनमें मनुष्य के विकारों, मानव के चरित्र और मनोभावों का उल्लेख मिलता है। मानव के जीवन पर दृष्टि डालें तो हमें बहुतायत में देवी और मानवीय चरित्रों में जीवन चरित्र के किंचित लक्षण नजर आते हैं। जिनका सृजन अनादिकाल से ही होता रहा है। मानव ने जब तक उपर्युक्त भावों को कलमबद्ध नहीं किया तब तक इस प्रयोजन के निमित्त श्रीपत्रों एवं मिट्टी का प्रयोग होता था।

            "मेसोपोटामिया, मिश्र एवं यूरोपियन देशों में उनके शहंशाह की कब्र, पत्थर के रेलिंग व दीवारों पर उनके विजयादि अभियानों को उत्कीर्ण करने की रीति अनादिकाल से चल पड़ी थी। साथ ही हमें उनके समग्र जीवन काल का इतिहास, प्रशस्तियों के रूप में उत्कीर्ण मिलता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इस तरह के जीवन वृतांत अथवा प्रस्तर उत्कीर्ण सामग्री इतिहासकारों के लिए बड़ी उपयोगी सिद्ध हुई है। जीवनी लेखन के इतिहास की गहराई को अगर हम जानना चाहते हैं, तो हमें ई.पू. प्रथम शताब्दी में लौटना होगा। इसी समय चीन में स्सुमा चिएन ने अपने महत्त्वपूर्ण लेखन में समकालीन विशिष्ट व्यक्तियों के जीवन चरित्र को लिखा है।"[4] "बाद में उन्हीं के ऐतिहासिक संस्करणों से चीनी सम्राट थिएन ने चीन की वंशावलियों का इतिहास 1747 में 214 खंडों में संग्रहित किया था, जिनमें चीन के कई सम्राटों का इतिवृत्तात्मक वर्णन हुआ है। धर्मार्थ महात्माओं, बौद्ध भिक्षुओं, ज्योतिषियों, राजसभासदों एवं हत्यारों तक के जीवन ग्रंथ लिखे गए। इस तरह यह बात सिद्ध होती है कि चीनी साहित्य में .पू. भी जीवन चरित्र का उल्लेख मिलता था।"[5]

            प्लूतारक जो यूनान के प्रमुख जीवनी कारक लेखक है। जिन्होंने अपनी कृति में फारस, रोम और यूनान के छियालीस यशस्वी एवं विशिष्ट व्यक्तियों के जीवन को कलमबद्ध किया है। प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक सुकरात के जीवन पर 'अनाबासिस सुकरात' जीवनी उनके शिष्य जोनोंफोन ने लिखी है। सत्रहवीं शताब्दी के पूर्व का पाश्चात्य साहित्य बहुत संक्षिप्त मिलता है। शेक्सपियर व महारानी एलिजाबेथ की एक रोचक जीवन का नितांत अभाव मिलता है। इस तरह अंग्रेजी साहित्य जीवन चरित्र के साथ-साथ आत्मकथा के रूप में रचा गया है।[6]

भारत में जीवन चरित

            जीवन-चरित लेखन में भारत का गौरवमय इतिहास रहा है। जिसमें राजनीतिज्ञ, सम्राट, व्यापारी, देवी चरित्र, साधु एवं कवियों का जीवन चरित लिखा गया। मौर्य साम्राज्य के महान शासक सम्राट अशोक ने भारत में .पू. तीसरी शताब्दी में पत्थरों पर उत्कीर्ण अभिलेखों द्वारा जनता को संबोधित किया था, जो आत्मकथा का रूप था। इस तरह की रीति अशोक के बाद भारत के अधिकांश नरेशों में चल पड़ी थी। नरेश अपने जीवन विशेष से संबंधित किसी महत्वपूर्ण घटना को यादगार बनाने के लिए उसे पत्थर के स्तंभों, ताम्रपत्रों, मंदिरों और उनकी दीवारों पर उत्कीर्ण करवा देते थे। इस प्रकार का कार्य गुप्त कुषाण काल में बहुतायत में हुआ। इस तरह इन्ही स्तम्भो एवं लेखों से कभी-कभी हमें जीवनी लेखन का रूप भी दिखाई पड़ जाता है। बाण भट्ट द्वारा रचित 'हर्षचरित' एक जीवनी लेखन का आदर्श उदाहरण है।

            "मुगल बादशाहों में आत्मकथा लिखना सम्मान एवं रुचि का विषय हो गया था। जिसमें भारत के प्रमुख सभी मुगल बादशाहों ने अपनी आत्मकथा लिखी है, जो क्रमशः बाबरनामा, हुमायुनामा, अकबरनामा व जहांगीरनामा प्रमुख है।’’

            मुगल बादशाहों के बाद भारतीय राजपूत राजाओं के पनाह में रहने वाले कवियों ने अपने आश्रयदाताओं के जीवन वृतांत का समग्र विस्तार अपने काव्य ग्रंथों में किया है। इन कवियों ने अपने आश्रयदाताओं का बखान अतिशयोक्ति में भी किया है। इस तरह का काव्य रीतिकाल में प्रमुख रूप से लिखा गया है। अर्थात कविता दरबार में सुनाई देने लगी जिसे चरित काव्य की संज्ञा दी गई जो वीरगाथा काल विशेषतः रीतिकाल में बहुलता से हुई है।[7] 

परिभाषाएं :

विष्णु प्रभाकर इन्होंने जीवनी को स्पष्ट रूप से व्याख्यात्मक तरीके से परिभाषित करते हुए लिखा है कि "जीवनी क्या है अनुभवो का श्रृंखलाबद्ध एवं कलात्मक चयन है। इसमें वही घटनाएं पिरोई जाती है। जिनमें सवेंदना की गहराई हो भाव को आलोकित करने की शक्ति हो, इन घटनाओं का चयन लेखक किसी नीति या दर्शन से प्रभावित होकर नहीं करता है, बल्कि गोताखोर की तरह जीवन सागर में डूब-डूब कर मोतिया चुनता है। सशक्त और सच्ची संवेदना की हर घड़ी ही मोती है। श्रेष्ठ जीवनी अनुभूतियों में विक्षेपण करती है विशुद्ध कला और मानदण्डों के बीच संतुलन और सामंजस्य का प्रणयन करती है।" इस प्रकार जीवनी एक व्यक्ति के संपूर्ण जीवन का इतिहास होती है, जिसमें व्यक्ति के चरित्र चित्रण भाव, विचार उसके काज का लेखा-जोखा होती है। जीवनी लेखक का संबंधित व्यक्ति, जिनकी जीवनी लिखता है, उनमें विशेष आस्था होती है, अर्थात उसके जीवन से प्रभावित होता है। आदिकाल के रासो साहित्य के लेखकों में हम इस बात को भलीभांति समझ सकते हैं। चंदबरदाई कृत 'पृथ्वीराज रासो में कवि चंद की सम्राट पृथ्वीराज के प्रति गहरी आस्था है। वे उनके पराक्रमी शौर्य भरे जीवन से प्रभावित हुए हैं। अन्य रासो साहित्य में बीसलदेव रासो, परमाल रासो, हम्मीर रासो, खुमान रासो, विजयपाल रासो आदि में इन सभी लेखकों की अपने बलशाली सम्राट के प्रति गहरी आस्था रही है।

            रीतिकाल में जो दरबारी काव्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया है। जिनमें घनानन्द, आलम, बोधा, ठाकुर, बिहारी जसवंत सिंह जैसे कवियों ने अपने आश्रयदाताओं का बखान अतिशयोक्तिपूर्ण शैली कर सम्बंधित सम्राट के प्रति अपनी गहरी आस्था जाहिर की है। जीवनी लेखन की इसी परंपरा में भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, छायावाद युग प्रयोगवाद से लेकर आधुनिक युग के लेखन में जीवनी लेखक का नजरिया बदला है। अब उस पर एक पक्षीय होने का आरोप भी लगता है। अब जीवनी लेखन में लेखक को सम्बंधित व्यक्ति के प्रति तटस्थ रहना जरूरी होता है। अब जीवनी लेखन के लिए विष्णु प्रभाकर के मा संघर्ष अमृतराय के मा एकनिष्ठा, राम विलास शर्मा की सी साधना तो शिवरानी देवी सी कर्तव्यपरायणता होना जरूरी है। विष्णु प्रभाकर कृत आवारा मसीहा हिंदी जीवनी साहित्य का एक कालजयी ग्रन्थ है। विष्णु प्रभाकर स्वयं एक उच्च कोटि के कथाकार तो थे, साथ ही अपने प्रिय लेखक के प्रति गहरी आस्था रखते थे। उन्होंने इसके लिए कई लंबी यात्राएं की, पत्र-व्यवहार भेंटवार्ता के द्वारा शरतचंद्र को नजदीक से जानने की कोशिश की है। इसके लिए एक जगह लिखते हैं "सन 1959 में मैंने अपनी यात्रा प्रारंभ की थी और अब 1973 है, 14 वर्ष लगे मुझे आवारा मसीहा लिखने में समय और धन दोनों मेरे लिए अर्थ रखते थे क्योंकि मैं मसीजीवी भी लेखक हूं।[8] शर के प्रति विष्णु प्रभाकर के मन में श्रद्धा है, अंधभक्ति नहीं है। इसलिए वे उनका सांगोपांग विवेचन कर सके हैं। उन पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उन्होंने शरद की भावातिरेक में आकर निंदा या प्रशंसा की है। आवारा मसीहा की भूमिका में विष्णु प्रभाकर ने पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि "मैंने कला को भले ही खोया हो पर आस्था को एक क्षण के लिए भी नहीं खोया और निरन्तर सशक्त और सच्ची संवेदना की घड़ियों को खोजने का प्रयत्न किया है। शरत के प्रति विष्णु प्रभाकर की यह आस्था अमृतराय की प्रेमचन्द के प्रति आस्था रामविला शर्मा की निराला के प्रति आत्मीयता से भिन्न है।"[9] छायावाद के प्रमुख स्तंभ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के संपूर्ण जीवन पर आधारित रामविलास शर्मा ने निराला की साहित्य साधना जीवनी लिखी है। इसमें लेखक ने अपने पसंदीदा कवि के प्रति अपनी सच्ची संवेदना आस्था प्रकट की है। निराला के जीवन के संघर्षो दुःखों को रामविलास शर्मा ने महसूस किया है। एक जगह अपने जीवन के बारे में उन्होंने स्वयं कहा है-

दुःख ही जीवन की कथा रही।

क्या कहूँ आज जो नहीं कहीं।

            गालिब की जिंदगी की तरह खास तरह के उदास भाव और करुणा ने उनके अनुभवों को ऐसे मानवीय तजुर्वे में बदल दिया। निराला का दुःख उनके जीवन के परिवेश से संघर्ष की प्रक्रिया में पनपा था। निराला का अपने परिवेश से सामना अपने समय की प्रचलित रूढ़ियों से हुआ है। निराला ने अपनी इकलौती बेटी सरोज की मृत्यु होने पर शोक गीत 'सरोज स्मृति' लिखा, तो यह दर्द भी छुपा ना पाए। रचना के लौटने का दर्द इकलौती बेटी के निधन से जुड़कर फूट पड़ा।

लौटाता रचना लेकर उदास

ताकता हुआ मैं दिशाकश।।[10]

            दिशाकश ताकते में निराला की दृष्टि दुखों से परे भी रही है, अर्थात उन्होंने कुछ ऐसा देखा और ऐसी गहरी करुणा को तड़पते देखा है, जिस पर उनके किसी समकालीन की नजर नहीं पड़ी थी। यही उनके महाप्राण होने का राज था। उन्होंने ऐसा क्या देखा था..? उन्होंने देखा, जिन्होंने ठोकरें खाई, गरीबी में पड़े, उनके हजारों-हजारों हाथ के उठते समर देखें। गगन की ताकतें सोयी भी जहां भी हसरते सोयी भी.. निकलते प्राण बुलबुल के बगीचे के अंगार देखें। उनके देखने का दायरा बहुत बड़ा था। देखना वेदना से गुजरना है। उन्होंने मुट्ठी भर दाने को अपनी भूख मिटाने को, फटी पुरानी झोली फैलाता, पछताता, पथ पर आता, टूक कलेजे के करता हुआ, अपने सा ही एक आदमी देखा अपने शहर के रास्ते पर गुरु हथोड़ा हाथ में लिए पत्थर तोड़ती हुई औरत देखी, धोबी, पासी, चमार, तेली देखें[11] अपनी उपज के दाम को तरसते किसान देखें, मुगरी लेकर धान कूटता हुआ किसान देखा, दुष्यंत की तरह का कमान बना हुआ आदमी देखा, सभ्यता की वह राह देखी, जहां से जनता की कोठियों में बांधे हुए ऋषि-मुनि आराम से गुजर गए 

संदर्भ :

[1] मदनपाल सिंह: समकालीन फ्रेंच कविता और उसका विधान आलेख, हिन्दी समय महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का अभिक्रम, 2020, पृ. 8

[2] चन्द्रावती सिंह : हिन्दी साहित्य में जीवनीपरक साहित्य, 1958, पू. 67

[3] अनुराधा पाण्डेय : कथा इतर गद्य साहित्य, उड़ीसा स्टेट ओपन युनिवर्सिटी संभलपुर, 2020, पृ.3

[4] वही, पृ.5

[5] वही, पृ.7

[6] वही, पृ.9

[7] शान्ति खन्ना: आधुनिक हिन्दी का जीवनीपरक साहित्य, 1973, पृ.146

[8] विष्णु प्रभाकर: आवारा मसीहा, 1974, राजकमल प्रकाशन, पृ.43

[9] के.पी. शाह: आस्था और संवेदना, कृति मूल्यांकन आवारा मसीहा, राजकमल एंड संस प्रकाशन, 2017, पृ. 101

[10] धर्मेन्द्र सिंह: यह कवि अपराजय निराला जिसको मिला गरल का प्याला, द वायर प्रकाशन, 2019, पृ. 102-103

[11] वही, 103-104

 जेताराम वणल, शोधार्थी, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर 

                    jetaram15@gmail.com, 9829550412                         

       अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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