समीक्षा : 'जंगल पहाड़ के पाठ' का पुनर्पाठ / जनार्दन

                                                 समीक्षा : 'जंगल पहाड़ के पाठ' का पुनर्पाठ / जनार्दन 

महादेव टोप्पो की कविताएँ जंगल, पहाड़ और पानी के सवालों के साथ-साथ आदिवासियत और आदिवासी मन की व्यथा, आक्रोश और शालीनता को सामने लाती हैं। इसलिए इन सवालों के सांस्कृतिक पाठ और आदिवासी समझदारी के लिए महादेव टोप्पो की काव्य पुस्तक जंगल पहाड़ के पाठ से गुजरना जरूरी है। निश्चित ही इन कविताओं को टोटल ट्राइब ऐंगल से देखे जाने की जरूरत है। खंडित मन:स्थिति से देखने पर इन कविताओं का सौंदर्य उजागर नहीं हो पाएगा। इस पुस्तक में 1982 से2014 के मध्य लिखी कुल 44 कविताएँ शामिल हैं। अर्थात किताब बत्तीस साल के दौरान कवि-मन में उठने वाले उथल-पुथल और संवेदनात्मक अनुभव को पाठक के सामने लाती है। इन कविताओं से गुजरना लगभग तीन दशक के दौरान कवि मन की सर्जनात्मक मन:स्थिति से गुजरने जैसा अनुभव है।

किताब में 44 कविताओं के अतिरिक्त पुरखों को याद करतेजैसी एक बेहद शालीन और कृतज्ञ भाव वाली कविता प्रकाशित है। इस कविता को आमुख कविता,प्रस्ताविका कविता या जोहार कविता के रूप में देखा जाना चाहिए। इस तरह इस कविता को मिलाकर पुस्तक में कुल पैंतालीस कविताएँ संकलित हैं। कविता पुरखों को याद करतेकी कुछ पंक्तियों की चर्चा अपरिहार्य है -

जानेअनजाने, चीन्हे-अनचीन्हे

इन सभी पुरखों का आह्वान

बनाएँ रखें सदा हमें ऊर्जावान

रहें सदा, साथ हमारे

सभी को जोहार हमारा!

निश्चित रूप से यह समर्पण की पंक्तियॉ हैंकवि अपनी श्रृद्धा पुरखों को समर्पित कर रहा है। सर्जक होते हुए भी कवि आम आदिवासी की तरह पुरखों को याद करता है। आदिवासी समुदायों में ज्ञान की परंपरा की निरंतरता इसी प्रकार की कृतज्ञता से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचती है। संकलन की कविताएँ पुरखौती भाव से ओत-प्रोत हैं। हम जानते हैं कि आदिवासी साहित्य में सर्जक और पाठक समुदाय की दूरी नहीं पाई जाती। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि हर आदिवासी स्वयं आर्ट-पर्फामर होता है। सारा समुदाय कलावंत होता है। ऐसे में साधारण और आसाधारण का भेद हो भी कैसे सकता है।

पाठक की दिलचस्पी इस बात में हो सकती है कि कवि काल के कपाल को कैसे रीड कर रहा है। अथवा काल उसके सामने किस रूप में चुनौती पेश करता है। इसलिए कालक्रम के आधार पर कविताओं की उपस्थिति को जानने के लिए किताब को देखना जरूरी है (हर कविता के साथ उसका सर्जन वर्ष दिया गया है)

संकलन की पहली कविता जंग लगी तीरों पर नई धार लाने का गीत सुस्त होते आदिवासी आंदोलनों को धार, उमंग और ऊर्जा देने के लिए लिखी गई है। व्यवस्था और सत्ता से टकरातेटकराते आदिवासी आंदोलन धीरेधीरे तेज खोते चले जाते हैं, जबकि जिन मांगों अथवा शोषण के खिलाफ ये आंदोलन शुरू किए गए होते हैं, वे पहले से अधिक पैने और अमानवीय होते जा रहे हैं। ऐसे में एक प्रहरी और प्रभात गायक की तरह सुस्त पड़े आदिवासी योद्धाओं को कवि सजग करना चाहता है। एक सांस्कृति-कर्मी, आंदोलनकर्ता और झारखंड पृथक राज्य की मांग को बहुत नज़दिक से देखनेजानने के कारण महादेव टोप्पो जानते हैं कि झारखंड बन जाने के बाद भी आदिवासियों की समस्याएँ कम नहीं हुईं। वे सचेत हैं कि वाजिब हक को पाने के लिए लड़ाई जारी रखने की जरूरत है। यह बेला सुस्ताने की नहीं, कुछ करने की है। इसीलिए वे खाँटी आदिवासी मुहावरे में सगाओं को चेताते और सजग करते हैं।

कविता की शुरूआती पंक्तियॉ कुछ इस तरह हैं

तुम्हारे जदुर गीत सुनकर

झूमती नहीं है स्वर्णरेखा, मयूर पक्षी, कोयल, कारो कन्हर

और ही तुम्हारे

नगाड़ों, ढोलों मांदरों की ताल से ताल मिलाकर नाचता है दामोदर

क्योंकि इन सारी नदियों के

बँध गए हैं हाथ-पैर या बँध रहे हैं

छड़, सीमेंट की जंजीरों से...

कविता की ये पंक्तियाँ आदिवासियत और धरती-पहाड़ और पानी की मृत्यु गीत हैं, इसलिए कवि इनके सखाओं अर्थात आदिवासियों को सचेत कर रहा है। इस कविता को गहन अंधकार में धर्मेश (सूरज) की कामना की तरह भी देखा जा सकता है।

संकलन की दूसरी कविता मैं खुश था एक यात्रा की तरह लगती है। क्रॉफ्ट और काठ में कविता आदिवासी सौंदर्यशास्त्र की समझ के साथ पाठक के सामने आती है। इन्हीं अर्थों में टोप्पो जी की यह कविता आदिम जीवन की हलफ़नामा सी लगती है। इस कविता को देखकर लगता है मुट्ठी की रेत की तरह सब कुछ छिजता जा रहा है (नदियों और पहाड़ों का सौदा हो रहा है) इस अर्थ में यह कविता गहन और संवेदनशील दर्शन है। कविता विपन्न होते जाने की मैकेनिक्स का इजहार करती है और बताती है कि कैसे हरपल आदिवासी पहले से अधिक विपन्न और अशक्त होता जा रहा है। इसीलिए कविता का नाम मैं खुश हूँ होकर मैं खुश था रखा गया है। आदिवासी समुदायों की यह विडंबना ही कही जाएगी कि वे खूबसूरती से बदसूरती की ओर पयान करने को अभिशप्त हैं। कविता की पंक्तियाँ गवाह हैं

मैं जैसा भी था खुश था

लेकिन वे मानते नहीं

कि मैं खुश हूँ

पहले ले आए वेद-पुराण फिर रामायण

फिर कुरान

फिर लाए बाइबिल

हद तो यह कि

अब दे गए हैं त्रिशूल

और ले गए हैं हमारे हल, बैल

कुदाल, कुल्हाड़ी, हमारे तीर कमान

कविता से गुजरते हुए पाठक का मन जंगल-पहाड़-पानी और आदिवासी जन-जीवन से गुजर रहा होता है। कविता बोलती-बतियाती अपनी विपदा कथा सुनाती आगे बढ़ती जाती है। कविता की पंक्तियाँ ओरी की पानी की तरह धरती रूपी पाठक मन को द्रवित करती हुई आगे बढ़ती हैं। कवि बहुत आहिस्ता-आहिस्ता अपनी सारी व्यथा पाठक तक पहुँचा देता है। कवि महादेव टोप्पो बड़े धैर्य के साथ त्रासदी के हर एक पहलू को उजागर करते हुए और पाठक को शोषण की बानगी दिखाते हुए धीरेधीरे आगे बढ़ते हैं। कविता की पंक्तियाँ कवि-हृदय की आहट-फुसफुसाहट सुनाती जान पड़ती हैं।

कविता कब तक विकास की नियोजन प्रक्रिया पर सवाल खड़ा करती है। यह कविता दोहन और पलायन की आधारशिला रखने वाली संस्तुतित विकास कार्य पर व्यंग्य है। विकास और सभ्य बनाने के आरोपण से संपूर्ण आदिवासी समुदाय परेशान है। आदिवासियों को सभ्य बनाने का अभिप्राय है, उन्हें उनकी पहचान से वंचित करना। इस लिहाज से यह कविता वंचनाओं के खिलाफ़ एक आवाज़ बनती जान पड़ती है। कविता का अंत नियोजनात्मक विकास और सभ्य बनाने के अवसाद से होता है

लेकिन एक सवाल तब भी बचा रहेगा कि

इस देश में कास्ट सर्टिफिकेटों के माध्यम से ही

पहचाने जाते हम लोग

चौथी श्रेणी के नागरिक होने का

दर्द भोगते रहेंगे कब तक?

निश्चित रूप से सारी पहचान का कास्ट सर्टिफिकेट तक सिकुड़ना आदिवासी समाज के लिए सामाजिक, राजनीतिक प्रश्न से कहीं ज्यादा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक प्रश्न है। किसी समाज की पहचान का जाति-प्रमाणपत्र तक सिमट जाना अपने आप में त्रासदी है। आदिवासी समाज उम्मीद पर जीने वाला सरल और सकारात्मक समाज है। सब कुछ के हनन होते इस दौर में भी वह सपनों को पूरा होने की उम्मीद में बैठा हुआ है। आदिवासियों में इस तरह की उम्मीद खेत में पैदा होने वाली फसल से कायम होती है। आदिवासियों के सारे सपने वहीं से (खेतों, पहाड़ों और जंगलों से) आते हैं। आदिवासी समाज का हर व्यक्ति जानता है कि मेहनत की मजूरी के एवज में धरती उन्हें फसल और अनाज का उपहार देती है। धरती और मेहनत के इसी समीकरण के आधार पर वह पढ़ाई और रोटी-रोजी का सपना देखता है। मगर वह नहीं जानता कि व्यवस्थाएँ और सरकारें धरती की तरह पवित्र नहीं हुआ करती। आदिवासी गाँव से इंटर पास छात्र का सपना कविता इसी भाव की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति करती है -

चिंता करो दादा

इस बार बारिश अच्छी हुई है

धान कुछ अधिक उपजेंगे

फिर हम खेतों में मटर, आलू

या गोभी की भी कर लेंगे खेती

पैसे मिल ही जाएंगे दादा

जुगाड़ हो जाएगा

किसी किसी तरह मेरी पढ़ाई का

... गाँव से राँची शहर और राँची से कोड़ा जाने तक

अब आप कोड़ा नहीं जाएंगे दादा

कर लेने दो मुझे बीए पास दादा।

कविता के संदर्भ में कई बातें पहले ही साझा की गई हैं। कविता राज्य की कल्याणकारी भूमिका पर सवाल उठती है। विकास के अंतिम पायदान पर खड़े आदिवासी समाज तक पहुँचते-पहुँचते कल्याणकारी राज्य की हँफरी छूट जाती है। परोपकारी राज्य के सिकड़ते दामन के कारण आदिवासियों की समस्याओं में इजाफा होता है। उसे दवादारू और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव से दोचार होना होता है। यह कविता ऊर्वर आदिवासी सपनों के ऊसर होने की व्यथा को उजागर करती है।

संकलन की हर कविता आदिवासियत से लैस है। हर कविता में सपनों तक पहुँचने की आहट है। आदिवासी समाज हजारों साल से अनवरत बिना थके लड़ रहा है, मगर उसकी लड़ाई और उसकी यातनाएँ कहीं दर्ज़ नहीं हो पाई हैं, इसीलिए अब उसने लड़ने के साथसाथ लिखने-पढ़ने और सोचने का भी निर्णय लिया है। कविता का यह भाव फुले-अंबेडकर और जयपाल सिंह मुंडा का वैचारिक रूपांतरण सा है। कविता में निरुपित किया गया है कि आदिवासी अब लड़ेगा भी, पढ़ेगा भी और सोचगा भी। कविता रचने होंगे ग्रंथ इसी भाव-भूमि को सामने लाती है। यह सकारभाव की कविता है। अर्थात् कविता विश्वास और निर्णय पर विराम लेती है

तुम्हें अपने आदमी होने की

खोजनी होगी परिभाषा

उनके सिद्धांतों, स्थापनाओं, मंतव्यों के विरुद्ध

उनके बर्बर वैचारिक हमलों के विरुद्ध

रचने होंगे

स्वयं ग्रंथ।

सकारभाव के साथ-साथ यह स्वालंबनबोध की भी कविता है। कवि अपने इतिहास को कहने और रचने की जिम्मेदारी शोषक समुदाय पर नहीं डालना चाहता है। इसकी जिम्मेदारी वह स्वयं लेना चाहता है। इस तरह की कवायद विश्व आदिवासी कविता के लिए उपलब्धि है, जिसकी पहुँच ब्लैक पोयट्री तक दिखाई पड़ती है, जैसे लंगस्टन हगीज (Langstan Hughes) की यह कविता

अमेरीका सुन लो, गुन लो

एक दिन गाऊँगा मैं भी

मैं काला हूँ मेरे भाई

इसलिए जब सम्मानित लोग आते हैं

तब मुझे

बावर्चीखाना में खाने के लिए भेज दिया जाता है

मैं निराश नहीं होता

हँसते हुए बावर्चीखाने में चला जाता हूँ

वहाँ मैं खाता हूँ और मजबूत बनता हूँ

मेरा भी कल आएगा

जब मैं पीछे नहीं धकिया जाऊँगा

मैं इतना ताकतवर बन जाऊँगा

कोई मुझे पीछे जाने को कहने की जुर्रत

नहीं कर पाएगा

तब मेरे देखना अमेरीका

 मेरा भी वजूद रहेगा।

दोनों कविता, दुनिया के दो अलगअलग कोनों की होने के बाद भी एक सी संवेदना-संकल्प लिए हुए हैँ। जाहिर है संवेदनाएँ सरहदों की गुलाम नहीं हुआ करतीं।

महादेव टोप्पो वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आदिवासी समाज और साहित्य के लिए वे प्रेरणा के स्रोत हैं। समर्थ, सतर्क और निरंतर सृजनशील रहने वाले महादेव टोप्पो कवि के साथसाथ बड़े सांस्कृतिकर्मी, टिप्पणीकार और निबंधकार भी हैं। बौद्धिक हस्तक्षेप और प्रदर्शनकारी विधाओं की संलिप्तता की सार्थकता का उजालापन उनकी कविताओं में प्रतिभाषित होता है। महादेव टोप्पो सत्ता के चरित्र और भाषा के छल को भलीभाँति जानते-समझते हैं। कई बार वे अपनी कविताओं में तथाकथित सभ्य समाज और सत्ताधारियों के दो मुँहे छल को उजागर भी करते हैं। वे तथाकथित विकास प्रक्रिया में जिस तरह से आदिवासी पहचान विलुप्त हो रही है, उसे उजागर करते हैं, जैसे उनकी कविता त्रासदी, एक आशा यह कविता कुछ हद तक नॉस्टेल्जिक कही जा सकती है। परंतु भाषा में कवि की ईमानदारी साफ झलकती है और दुख के उस छोर को छू लेती है, जो कविता का हेतु है। कविता की कुछ पंक्तियों को देखने से बात ज्यादा स्पष्ट होगी

आता है याद लाल चींटी का स्वाद

आग में भुने तीतर का स्वाद, पोठी मछली का स्वाद

गैस चूल्हे में पका मसालेदार खाना तब लगता है बेकार

टीवी पर आँख गड़ाए

देखता हूँनगाड़ों, ढोलों की थाप पर

अपने भाइयों को थिरकते

दुख होता हैभूल रहा हूँ

माँदर की थाप पर थिरकना

दरअसल यह दुख पेंड़ से बिछुड़ी डाली का दुख है। तथाकथित सभ्य होकर अपनों से दूर होने की पीड़ा समाई है इन पंक्तियों में। कविता लंबी है और महाकाव्यात्मक पीड़ा से लैस है, इसलिए कविता की कुछ अन्य पंक्तियों को देखना भी जरूरी जान पड़ता है

मैं एक जंगली, एक आदिवासी

महसूस करता हूँ घुटन

जीवन की अंधी दौड़ में

एक पुर्जा बनता जा रहा हूँ

.... कभी हाथों में मेरे पकड़ा दिया जाता है

क्रॉस तो कभी त्रिशूल, कभी तलवार तो कभी कुछ

छाप दी जाती है तस्वीर

मेरे भटक जाने की

कभी फिर घर वापसी का खेला जाता है नाटक

कोलकाता के कलाँ मंदिर में

सम्मान के साथ चाहता हूँ जीना यदि

अपने गाँव में, तब भी

डैम, नहर, सड़क, कारखाने, खदान के नाम

हटाया जाता हूँ जबरन रायफल की नोक पर...

हम सब जानते हैं कि भारत को उपनिवेश बनने के बाद से ही आदिवासियों की भाषाई और सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान मिटाने साजिश तेज हो गई। यह तेजी शुंग काल से शुरू हुई और आज तक जारी है। सम्राट मिट गए और ब्रिटिश हुकूमत खत्म हो गई मगर आदिवासियों की पहचान मिटाने की कोशिशें नहीं थमीं, क्योंकि सत्ताओं का चरित्र नहीं बदला। यहाँ तक कि आज की लोकतांत्रिक सरकार में भी जबरिया घर वापसी कम होने की जगह नई उत्साह से बढ़ रहा है। नागरिक अधिकार, निजता और आस्था को संरक्षण देने वाले संविधान भी दयनीय स्थिति में चुका है। महादेव टोप्पो की इस कविता में वंचना की क्रिया-विधि उजागर हुई है। कविता बहुत ही संवेदनात्मक तरीके पाठक के हृदय-तल में उतर जाती है। दरअसल यह कविता बहुत ही खामोशी से आदिवासी उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ पाठक को तैयार करती है।

इस कविता में पढ़े-लिखे नौकरी करने वाले आदिवासी व्यक्ति के साथ जो बर्ताव किया जाता है उसकी पीड़ा के साथ घर वापसी और आरक्षण पर तथाकथित ऊँचा तबका जिस तरह आदिवासियों को हीन और अपने आप को मेरिटोरियस साबित करने का उपक्रम करता है, वह प्रवृति भी स्पष्ट हुई है। हालाँकि अब यह बात किसी से छिपी नहीं रह गई है कि मेरिटोरियस होना किसी खास तबके की निजी विशेषता नहीं रह गई। इस संदर्भ में स्टैंफोर्ड विश्वविद्यालय की रिपोर्टिंग को देखा जा सकता है।

स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय ने भारत में आरक्षण के माध्यम से शिक्षालयों में प्रवेश पाए विद्यार्थियों की मेधा और मेहनत पर एक सर्वे किया है। सर्वे का निष्कर्ष कई आरोंपों और परंपरागत मान्यताओं को तथ्यपरक ढंग से गलत साबित करता है। हालाँकि इतने महत्त्वपूर्ण और प्रतिष्ठित संस्थान की इस रिपोर्ट पर हमारे देश के मीडिया संस्थानें खामोश रहीं। इससे साफ पता चलता है कि आरक्षण के खिलाफ अनाप-शनाप चर्चा करने वाली मीडिया स्वयं में घोर आरक्षण विरोधी है। इस सर्वे पर बात करना जरूरी जान पड़ता है। सर्वे में कहा गया है“Engineering students from the Scheduled Tribes (ST) and the Scheduled Castes (SC) learn at a faster rate than those from the general category, according to a study carried out by Stanford University, the All India Council for Technical Education (AICTE) and the World Bank.” अर्थात स्टैंफोर्ड विश्वविद्यालय, तकनीकी शिक्षा परिषद और विश्व बैंक द्वारा किए गए एक सर्वे में पाया गया कि भारत के अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में पढ़ने वाले अनुसूचित जाति और जनजाति के विद्यार्थियों के सीखने की दर और प्रगति सामान्य श्रेणी के विद्यार्थियों तेज है।(https://www.hindustantimes.com/education/sc-st-engineering-students-learn-at-faster-rate-study/story-IwYLKGJ7bULtLJmQQE3qbO.html)

आदिवासी समाज पर विचार करते समय तथाकथित मुख्यधारा के चिंतन रोमैंटिक नजरिए का शिकार हो जाया करते हैं। उन्हें सिर्फ नाचतेगाते उछलते-कूदते आदिवासीभाते हैं। महादेव टोप्पो इस नजरिए के पीछे की मानसिकता और अधिकार-बोध से संपन्न होते आदिवासी समाज के बीच के समीकरण को उद्घाटित करते हैं।

संकलन की प्रजातंत्र में कविता नागरिक अधिकार बोध की कविता है। कविता में आदिवासियों के संघर्ष को प्रजातंत्र का हिस्सा बताया गया है। जल-जंगल-जमीन और पहाड़ की सुरक्षा तथा उसके लिए जान की बाजी लगा देना राष्ट्रद्रोह नहीं, बल्कि देश-प्रेम है, जो संविधान द्वारा दिया गया उत्तरदायित्व है। इसलिए ये सारी लड़ाइयाँ वैध और जरूरी है। बतौर नज़ीर कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं

रोटी तो हम माँगेंगे ही

कटते वृक्षों के साथ चिपकेंगे भी

छिनती जमीन की खातिर देंगे जान भी

मरती अपनी भाषा की खातिर

माँगेंगे तुम्हारे अखबार में दो कालम भी

रेडियो, टीवी में कुछ घंटे का प्रसारण समय भी।

यह कविता नागरिक अधिकार का माँग-पत्र है। रोटी का सवाल जीवन का सवाल है और हमारा संविधान जीवन सुरक्षा की गारंटी देता है। भारतीय संविधान का अनुच्छे 21 प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण की गारंटी देता है। जिंदा रहना हर नागरिक का अधिकार है और उसे जिंदा रहने की अनुकूल परिस्थितियाँ देना राज्य का कर्तव्य है।

वृक्षों की कटाई पर्यवारण सुरक्षा से जुड़ा हुआ विषय है। वृक्षों की कटाई के लिए संघर्ष करना और रोकना अपराध नहीं बल्कि पर्यावरण मित्र की भूमिका का निर्वहन है, जिससे धरती की हवा ताजी और साँस लेने योग्य बनी रहती है। अपनी बोली और भाषा में बोलना अभिव्यक्ति के लिए जरूरी है, जिसकी गारंटी संविधान के अनुच्छेद 15(4), 29,46, 350 और संविधान की पाँचवी-छठी अनुसूची के प्रावधानों में दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 19()और 19() अभिव्यक्ति और प्रेस की आजादी के उपबंध किए गए हैं। इसीलिए यह कविता आदिवासी ही नहीं भारतीय नागरिकों के अधिकार-पत्र की तरह पढ़े जाने की माँग करती है।

यह कविता मूलत: कुड़ुख से अनुवाद होकर हिंदी में साया हुई है। मूल आदिवासी भाषा की ताजगी हिंदी अनुवाद में भी है। अधिकार और संघर्ष को जायज बताते हुए यह कविता आदिवासियों को जगाती है और उनमें लड़ने का भरोसा पैदा करती है। कविता का उत्तरार्ध हिस्सा गौरतलब है

 

बिरसा चौक पर बँधे हाथ से होकर मुक्त

प्रवेश कर रहा हूँ अब संसद के द्वार से

मिलूँगा तुमसे जल्द ही अन्य मंचों पर भी

पहाड़ों, जंगलों को

रुपए की आँखों से देखने की

नजरिए को तुम्हारी

देता रहूँगा चुनौती

लिख कर, बोल कर

शब्दों की ऊर्जा भर रहा हूँ इसलिए

दिल में, दिमाग में

शरीर के रोम-रोम में।

जंगल पहाड़ के पाठ की सभी कविताएँ आदिवासी इतिहास, विघटन और विस्थापन की संवेदनात्मक दुख, आक्रोश और दिशानिर्देश से लैस हैं। इसलिए सारी कविताओं को मिलाकर आदिवासी वचनाओं और संघर्षों के महाकाव्य के रूप में भी पढ़ा जा सकता है। इन कविताओं का एकात्म स्वर यह भी है कि आदिवासी हित की वास्तविक आवाज़ किसी आदिवासी के कंठ से फूटेगी और सही रहनुमाई कोई आदिवासी ही कर पाएगा। इस संदर्भ में कवि महादेव टोप्पो की यह पंक्तियाँ (इसी संकलन से) महत्त्वपूर्ण जान पड़ती हैं

उन्होंने की है मेहनत

हमें हाशिए से बाहर लाने के लिए

सम्मान के साथ जीने के लिए

धन्यवाद, धन्यवाद, धन्यवाद।

मगर विवश, बेबस क्यों हम?

खामोश,‘आक्रोश के लहन्या की तरह

बहन का गला काटते अब भी

मेरे विद्वान दोस्त यह नहीं बताते

इस प्रश्न के तहखाने का रहस्य कौन खोलेगा?

शायद हमारे बीच से ही कोई!

 

अर्थात् आदिवासी जीवन की त्रासदी का सही पैमाइश कोई आदिवासी ही कर पाएगा। एक तरह कविता के माध्यम से आने वाला यह विचार एक प्रकार की घोषणा हैआदिवासी साहित्य आदिवासी ही लिख सकता है। झारखंड गठन के बाद-कुछ दृश्य कविता को झारखंड निर्माण के बाद वहाँ उभरी राजनीति की पटकथा के रूप में देखा जा सकता है। शिल्पगत रूप से यह एक प्रयोगधर्मी कविता है, जो पाँच दृश्यों में बँटी हुई है। जहाँजहाँ राजधानियाँ बनती हैं,वहाँ-वहाँ शोषण और लूट-पाट की बाढ़ जाती है। आदिवासी राज्यों के निर्माण के बाद वहाँ के जिन शहरों को प्रदेश की राजधानी होने का ओहदा मिला, वहाँ शोषण और पलायन की घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई। राँची भी इसका अपवाद नहीं। कविता की कुछ पंक्तियों पर निगाह दौड़ाई जा सकती है

दृश्य दो

रोज राँची शहर में

निकलते जुलूसों को देखकर

वहाँ पढ़ी जाती माँगों की सूची देखकर

लगता है ऐसा

झारखंड सभी के लिए बन गया है कामधेनु

जिसे देखो वही

कुछ पाने की कर रहा है तैयारी।

इन पंक्तियों को देखकर कहा जा सकता है कि राजधानियाँ कुछ शर्तों और कुछ समीकरणों पर फलतीफूलती हैं, चाहे वह राँची हो या रायपुर, त्रिपुरा हो या आइजोल।कविता संकलन जंगल पहाड़ के पाठमें कुल 32 साल की काव्य-यात्रा शामिल है। इस आलेख में संकलन की कुछ कविताओं पर ही चर्चा हो पाई है। संकलन में कई दूसरी महत्त्वपूर्ण कविताएँ भी हैं, जैसे कविता को झारखंड घुमाना चाहता हूँ’, ‘माँदर के साथ’,‘भारत की समृद्ध परंपरा निभाता झारखंड’,‘पहाड़ की नजरों से’,‘बाजार का झारखंड’, और पेरवा घाघ के कबूतर भाग एक और दो। इन कविताओं के माध्यम से आदिवासी अहमियत और संघर्ष सामने आता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह संकलन हमारे समय के सचेत और नई पीढ़ी को प्रेरित करने वाले कवि चिंतक महादेव टोप्पो के सुदीर्घ संवेदनात्मक चिंतन का नतीजा है। कई कविताएँ झारखंड बनने के पहले हैं और कई झारखंड राज्य निर्माण के बाद की हैं। हम जानते हैं कि झारखंड का निर्माण आदिवासी सपनों के निर्माण जैसा उपक्रम रहा है। इसलिए इन कविताओं के माध्यम से झारखंड के आम आदिवासी मन के सपनों की बनावट को समझा जा सकता है। कविताएँ पाठक का हाथ पकड़ कर जंगल-पहाड़ की बदहाली और पलायन का दृश्य दिखाती हैं। संकलन की तमाम कविताएँ आधुनिकता और विकास की प्रक्रिया पर प्रश्न खड़ा करती हैं। इसलिए भारतीय आदिवासी समाज के मर्म को समझने में संकलन की कविताएँ सहायक जान पड़ती हैं। इस किताब का प्रकाशन अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली ने किया है।

 जनार्दन, सहायक प्राध्यापक

हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग, .वि.वि. प्रयागराज, उत्तर प्रदेश

                                                                    jnrdngnd@gmail.com


        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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