शोध आलेख : राजस्थान का हिंदी रंगमंच : सामयिक सन्दर्भ एवं चुनौतियाँ / बलदेवा राम

                   शोध आलेख : राजस्थान का हिंदी रंगमंच : सामयिक सन्दर्भ एवं चुनौतियाँ / बलदेवा राम 

शोध सार :

        कलाओं में रंगमंच ऐसी कला है जो मानव जीवन से गहरे सम्बन्ध रखती है, क्योंकि जीवन के प्रारम्भ से अंत तक और सभ्यताओं के प्रारम्भ से भी पूर्व रंगमंच किसी किसी रूप में मनुष्य के साथ रहा है। रंगमंच और रंगकर्मी मानवीय चेतना को परिवर्तित और परिष्कृत करने का सशक्त माध्यम है। सम्पूर्ण विश्व की बदलती परिस्थितियों में इस विधा के अस्तित्व को लेकर कई प्रकार की समस्याएँ सामने रही हैं। आर्थिक, तकनीक, नाट्य लेखन और समीक्षा सम्बन्धी चुनौतियों के साथ-साथ दर्शक एवं ढांचागत सुविधाओं का अभाव भी रंगकर्म के लिए नया नहीं है। आभासी दुनिया का बढ़ता प्रभाव भी अपनी जगह है। बावजूद इसके राजस्थान का हिंदी रंगमंच अपनी विकास यात्रा में नए प्रतिमान स्थापित करते हुए आगे बढ़ रहा है, और बढ़ता रहेगा, ऐसी आशा है।

बीज शब्द : हिंदी रंगमंच, चुनौतियाँ, आर्थिक चुनौतियाँ, आर्थिक अनुदान, ढांचागत असुविधाएँ, संस्थागत समस्याएँ तकनीकी अभाव, नाट्य लेखन की कमी, आभासी दुनिया, समीक्षा, दर्शक। 

मूल आलेख :

        रंगमंच का मानव सभ्यता से अंतर्संबंध इतना गहरा और इतना सजीव है कि इसे केवल एक कला के रूप में चिह्नित नहीं किया जा सकता। बल्कि इसकी सम्पृक्ति मनुष्य जीवन के साथ अनवरत, अविरल है, एवं इस संगति में जीवन की गति है, द्वंद्व है, उसका समाधान है और आदमी होने की पहचान है।रंगमंच एक मानव प्रवृति है-अनिवार्य, आदिम सत्य, जिसकी तुलना मानव संस्कृति में उपलब्ध कोई अन्य विभूति नहीं कर सकती। हम शताब्दियों तक, जीवन की मूलगत, आवश्यक सुविधाओं तथा साधनों के बिना रहे हैं, इसका साक्षी इतिहास है, पर किसी भी रूप में सही, रंगमंच के बिना हम कभी नहीं रहे हैं।[1] लेकिन पूरी दुनिया के लिए अति अनिवार्य और विशिष्ट कला रूप रंगमंच पिछले कुछ वर्षों से अपने अस्तित्व को लेकर सशंकित है। रंगमंच को लेकर होने वाली कार्यशालाएं इस सवाल की भेंट चढ़ जाती है कि रंगमंच का और रंगकर्मियों का अस्तित्व कौनसी विधि से बचा रह सकता है और यह सवाल छोटा नहीं है। कला कोई भी हो, समय के साथ बदलती है, नवाचारों से पोषित होती है और उत्तरोत्तर उन्नति को प्राप्त होती रहती है। लेकिन यह विडम्बना है कि ये नवाचार और नयी पहल जिनके मस्तिष्क की उपज है, उन्हीं सांस्कृतिक सैनिकों के वजूद को लेकर सवाल उठ रहे हैं। भारतीय रंगमंच या कह सकते हैं कि आधुनिक हिंदी रंगमंच अपने ही अस्तित्व सम्बन्धी विमर्श को लेकर एक बड़ी उर्जा की खपत कर रहा है और सोशल मीडिया से लेकर अनेक सेमिनारों, पत्रिकाओं, आलेखों में यहीं सब छाया रहता है। वर्तमान समय में हिंदी रंगमंच अनेकानेक चुनौतियों का सामना कर रहा है। ऐसा भी नहीं है कि इस तरह की समस्याएँ अनपेक्षित है। बीकानेर के प्रसिद्ध रंगकर्मी सुधेश व्यास मानते हैं कि रंगमंच अपनी चुनौतियों पर ही खड़ा है। वे कहतेहैं किअसल में चुनौतियों का नाम ही जीवन है और थिएटर कहीं भी जीवन से अलग नहीं है। जिस तरह से अनेक प्रकार की समस्याएं जीवन का हिस्सा है, ठीक वैसे ही अनेक प्रकार की चुनौतियाँ भी थिएटर का हिस्सा होती है।

            वर्तमान में हिंदी रंगमंच दो श्रेणियों में चल रहा है, व्यावसायिक रंगमंच और शौकिया रंगमंच।हिंदी रंगमंच जैसा कि कहा गया है, मूलतः अव्यावसायिक है। उसके पास आर्थिक संसाधनों की भारी कमी है। ऐसे में नियमित-अनियमित रंगकर्म करने के लिए आर्थिक अनुदानों की आवश्यकता होती है। लोकतंत्र में कलाओं के विकास के लिए शासकीय सहायता सर्वोत्तम मानी जा सकती है।[2]  यहाँ एक बात यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि कला के आश्रय में जीवनयापन के भी अवसर निकल आएंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। वो बीते दौर की बात है, जब रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि बिहारी को प्रत्येक दोहे पर एक स्वर्ण अशर्फी मिला करती थी। मगर सभी काल में बिहारी को मिर्जा राजा जयसिंह जैसे उदारमना कला मर्मज्ञ मिल ही जाएंगे, कतई आवश्यक नहीं। इसलिए रंगमंच में आने से पहले ही प्रत्येक रंगकर्मी को इस ओर भी ध्यान दे लेना चाहिए।

इतना कह लेने के बाद भी यह निश्चित है कि रंगकर्म अपेक्षाकृत खर्चीला और बहुत से लोगों की सहभागिता से सम्पन्न होने वाला कला रूप है। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के समय में रंगकर्मियों ने अपने परिवार की दैनिक जरूरतों को पूरा करने में ही भयंकर मुश्किलों का सामना किया है। कुछ लोग जो व्यावसायिक रूप से या व्यावसायिक होते हुए भी पूर्णतः रंगमंच से ही जुड़े हुए हैं, ऐसे रंगकर्मियों के लिए आजीविका का कोई साधन रहने से बड़ी ज़िल्लतें उठानी पड़ी। रंगकर्मी सुधेश व्यास बहुत सीधे शब्दों में कहते हैं-“इसीलिए मैं लोगों को राय नहीं देता हूँ कि आप थिएटर करें। इसकी सबसे खास वजह जो मैं मानता हूँ, वो ये हैं कि आजीविका को लेकर यहाँ एक अनिश्चितता हमेशा बनी रहती है।हालांकि बहुत से रंगकर्मी थियेटर से भले ही मुनाफे की उम्मीद करें, परन्तु इसके आयोजन में होने वाले खर्चे भी कम नहीं है। थियेटर में आमदनी का सीधा जरिया दर्शक है, लेकिन टिकट खरीदकर नाटक देखने वाले दर्शकों की संख्या वर्तमान में तो के बराबर है।राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना के बाद रंगमंडल का गठन हुआ और रंगमंच के लिए सरकारी अनुदान की व्यवस्था की गयी। यह अनुदान केंद्र और राज्य सरकारों के संस्कृति मंत्रालयों द्वारा कम या अधिक मात्रा में आज भी जारी है।सरकारी अनुदान की अपनी सीमा है और यह सब के लिए सुलभ भी नहीं होता। लेकिन सरकारी अनुदान रंगमंच के लिए नया नहीं है और इसकी समुचित व्यवस्था होना जरूरी भी है। संस्कृत रंगमंच भी पूर्णतः राज्याश्रय में ही पल्लवित होता रहा था। लोक रंगमंच को छोड़ दें तो संस्कृत रंगमंच आभिजात्य वर्ग तक ही सीमित था और इसके आयोजन के लिए राज्य से पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध रहता था।

            आधुनिक समय में सुनियोजित प्रेक्षागृहों की अवधारणा ने रंगमंच को और अधिक महंगा बना दिया है। महानगरों और प्रान्तों की राजधानी को छोड़कर इन प्रेक्षागृहों का निर्माण बहुत कम जगहों पर हो सका है। इन भवनों के निर्माण और रख-रखाव में काफी पैसा खर्च होता है और यह खर्च केवल सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत ही वहन किया जा सकता है। ऐसा भी हुआ है, जब ये रंगभवन नाट्य प्रस्तुतियों के लिए बनाये गए और समय बीतने पर इनका अन्य कार्यों के लिए उपयोग होने लगा। इन भवनों के निर्माण, रख-रखाव और यहाँ नाट्य प्रस्तुतियों को सुनिश्चित करने के प्रति अधिकांशतः सांस्कृतिक अफसरों में उदासीनता ही देखने को मिलती है।

            यह हम कह चुके हैं कि रंगमंच सामूहिक अनुष्ठान है और इसमें एक ही केंद्र पर स्थापित रंग-संस्थाएं सकारात्मक भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं, लेकिन अधिकांश संस्थाएं ऐसा नहीं कर पाती। एक मय था, जब भारत में संस्थागत रंगमंच का अभाव था। संस्थागत रंगमंच से आशय ये है कि कुछ उत्साहित रंगकर्मी अपना निजी दल बनाकर नाट्य मंचन के आयोजन करते हैं अथवा किसी विशेष बैनर तले रंग-गतिविधियों का संचालन करते हैं। इप्टा एवं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना के बाद कुछ बड़े थियेटर ग्रुप सामने आए। आज भी सैंकड़ों की संख्या में इस प्रकार के थियेटर ग्रुप अथवा नाट्य संस्थाएं सक्रिय हैं। इन संस्थाओं ने रंगकर्म की निरन्तरता बनाये रखने, रंगकर्मियों को एक साथ लाने और साथ लेकर चलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। लेकिन इन संस्थाओं के अपने अहं हैं, अपनी विचारधाराएं हैं। जहां तक इनके आपसी सामंजस्य का सवाल आता है, तो एक ही उद्देश्य को लेकर चलने के बावजूद इन नाट्य संस्थाओं में आपसी समन्वय का अभाव है। शौकिया और पेशेवर रंगमंच के बीच में तो मतभेद और आरोप-प्रत्यारोप जगजाहिर है, परन्तु कस्बाई नाट्य संथाओं में, जहाँ सभी शौकिया रंगकर्मी हैं, वहां भी विचारों का टकराव काफी देखने को मिलता है। कह सकते हैं कि इस प्रकार के मतभेदों ने हिंदी रंगमंच को पीछे धकेलने का ही काम किया है।

            नाटक एक साहित्यिक विधा है परन्तु रंगमंच कलाओं का समूह है।रंगमंचीय प्रस्तुति के भीतर आवश्यकतानुसार अन्य कलारूपों को स्वीकार करने या समाहित करने की विनम्र कोशिशें रंगमंच की रचनात्मक शर्त है।[3] किसी भी कला की सामाजिक उपादेयता पर विचार करना हो, उसमें निहित मानवीय, नैतिक और सामाजिक मूल्यों की पड़ताल करनी हो अथवा उस के गुण-दोष की परख करनी हो, तब कला समीक्षकों की महती आवश्यकता होती है। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि रंगमंच जैसे सजीव और मानवीय कला रूप के लिए समीक्षा का भारी अभाव है। बीकानेर के रंगमंच के सन्दर्भ में कहा गया मधु आचार्य आशावादी का कथन सम्पूर्ण हिंदी रंगमंच के सम्बन्ध में प्रासंगिक है। वे कहते हैं किबीकानेर के बड़े अच्छे-अच्छे नाटक केवल यहीं मंचित होकर, मैं कहता हूँ, मर इसलिए गए कि उनकी सही आलोचना नहीं हुई। यहाँ बहुत अच्छा और राष्ट्रीय स्तर का थियेटर होता है, लेकिन उसको पहचान देने का काम एक नाट्य समीक्षक ही कर सकता है।[4]

            नेमीचंद जैन के रंग-दर्शन से समृद्ध हुई, यह रंग समीक्षा की यात्रा आज देवेन्द्र राज अंकुर, जयदेव तनेजा, हृषिकेश सुलभ, अख्तर अली, अमितेश, राजेश चन्द्र, पुंज प्रकाश और दयानंद शर्मा जैसे रंग आलोचकों तक पहुंचती है। वर्तमान रंग समीक्षकों में से अधिकतर तो स्वयं रंगकर्मी है तो उनका लिखा हुआ अनुभव कहलायेगा, शुद्ध समीक्षा नहीं। जोधपुर के प्रसिद्ध रंगकर्मी प्रमोद वैष्णव कहते हैं कि वर्तमान में रंगमंच की समीक्षा का जिम्मा पत्रकारों पर ही है और अधिकतर पत्रकार नाटक के मंचन की समीक्षा को भी खबर की तरह लिखते हैं।प्रत्येक कला रूप अथवा साहित्य की किसी भी विधा की समीक्षा के लिए समय के साथ कुछ प्रतिमानों का निर्माण होता जाता है। रंगमंच की समीक्षा हेतु स्थायी प्रतिमान उस तरह से स्थापित नही हो सके, जैसे कथा साहित्य अथवा कविता के लिए,जबकि किसी भी विधा की बेहतरी के लिए समीक्षा प्रतिमान और समीक्षक वैद्य की तरह काम करते हैं। दयानंद शर्मा कहते हैं- “रंगमंच को बढ़ावा देने वाली स्वस्थ आलोचना होनी चाहिए और रंग आलोचना में आलेख की आलोचना होकर प्रस्तुति की आलोचना होनी चाहिए।[5]

            गद्य विधा के रूप में नाट्य साहित्य की समीक्षा में इतनी विपन्नता देखने को नहीं मिलती, क्योंकि नाट्य साहित्य के सम्बन्ध में इतिहास ग्रंथों में भी लिखा गया है और नाटक के विकास को लेकर अनेक स्वतंत्र ग्रंथों की रचना भी की गयी है। लेकिन हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने अथवा नाटक की विकास यात्रा को दर्शाने वाले ग्रंथों में नाटक के साथ रंगमंच को शामिल नहीं किया गया या बहुत कम शामिल किया गया।इसका एक कारण रंगमंच की अपनी विलक्षणता है। रंगमंच अपने स्वरूप में ही क्रमशः जीवित होने के साथ ही मृत होता जाता है। इस तरह यदि वह किन्हीं विशिष्ट स्थानों या घरानों में लगातार होता रह पाया, तब तो कहीं कहीं उसके प्राचीन रूप से हमारा साक्षात् हो पाता है, जैसे कि कोट्टीयाटम या दक्षिण की लगभग शास्त्रीय-सी नाट्य परम्पराओं में। पर जहाँ उनका सातत्य खंडित हुआ-नाट्य दल टूट कर बिखर गए, परम्परा अशेष हुई, वहाँ तो उसका कोई रूप ही सुरक्षित रह सका और ही इसका कोई लिखित साक्ष्य।[6] होना तो यह चाहिए था कि जहाँ-जहाँ नाटक की बात होती, वहाँ-वहाँ रंगमंच का भी जिक्र होना था, क्योंकि मंचित होने की अनिवार्य शर्त नाटक के साथ जुड़ी हुई है, लेकिन देखने में यह भी आता है कि अन्य विधाओं के सृजक, साहित्यकार अथवा इतिहासकार अपनी विचार परम्पराओं में रंगमंच को उतना स्थान नहीं देते जबकि वे इसके महत्त्व को समझते हैं। यह अलगाव भी रंगमंच के लिए हितकर नहीं है।जब तक हिंदी नाटक के अध्येता नाटक को एक क्रियात्मक कला के रूप में, उसे अभिनय प्रदर्शन तथा दर्शक वर्ग से प्रत्यक्षतः सम्बन्ध अभिव्यक्ति माध्यम के रूप में, नहीं समझेंगे, तब तक हिंदी के साहित्यकार और रंगकर्मी के बीच, नाटककार और रंगमंच के बीच तथा साहित्य और रंगकला के बीच की वर्तमान दूरी कम हो सकेगी।[7]

            एक शिकायत हर एक गोष्ठी, सेमिनार और आलेख में सुनने, पढ़ने को मिलती है कि हिंदी रंगमंच में दर्शकों का अभाव है और यह अभाव कहीं-कहीं इतना अधिक है कि हिंदी से ज्यादा दर्शक क्षेत्रीय भाषाओं अथवा लोक रंगमंच में है। तब यह बात उठती है कि मंचन के लिए आवश्यक नाटकों का, बल्कि यूँ कहें कि अच्छे नाटकों का लेखन किस मात्रा में हो रहा है। रंगकर्मियों की अक्सर ये शिकायत रहती है कि हिंदी में ऐसे नाटकों का अभाव है, जिनकी छाप जनता के मानस में लम्बे समय तक बनी रह सके।

            असल बात तो यह है कि आज भी बहुत सारी नाटक मंडलियांआधे-अधूरे’, ‘अंधा युग’, ‘आषाढ़ का एक दिनअथवा कुछ प्रसिद्ध पाश्चात्य नाटक ही खेल रही हैं। इसमें एक महत्वपूर्ण बात ये भी है कि रंगमंच में उन्हीं नाटकों की धूम रही जो पहले से ही पाठ्य नाटकों के रूप में जनसामान्य में छाये हुए थे। अभी जो वर्तमान में रंगमंच के लिए ही नाटक लिखे जाते हैं, बल्कि लेखक निर्देशक के साथ बैठकर ही एक-एक दृश्य लिखता जाता है, उनका प्रसार बहुत बड़े जनसमूह में नहीं होता, क्योंकि रंगमंच की पहुँच भी बहुत बड़े जनसमूह तक एक साथ, एक समय में नहीं होती है, हालांकि लोक रंगमंच को इस सीमा से बाहर रखा जा सकता है।

            आधुनिक हिंदी रंगमंच के विकास के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि नाट्य लेखन इस स्तर का हो कि नाटक पहले पुस्तक के रूप में इतना प्रसिद्ध हो चुका हो कि लोगों में उसके मंचन को देखने की उत्कंठा पैदा हो। इसका यह मतलब नहीं है कि केवल मंचन के लिए लिखे जाने वाले नाटक उतने प्रभावी नहीं होते। हबीब तनवीर काआगरा बाजारदेखने में जितना प्रभावशाली और अमिट छाप छोड़ने वाला है, उतना शायद पढ़ने में प्रभावशाली हो। मंच पर यह नाटक छा गया।लेकिन फिर वही सवाल सामने आता है कि कितने लोग इसे देख पाए ? बहुत कम, जबकि इस देश की बड़ी आबादी साहित्य प्रेमी, सहृदय, रसिक और कला प्रेमी है। लोक का फलना-फूलना इसका उदाहरण है।

            रंगमंच अनुभूतियों का सजीव प्रस्तुतीकरण है। यहाँ पात्र केवल संवाद ही नहीं बोलते, बल्कि उन संवादों के साथ और उनके सामजंस्य में ध्वनि, प्रकाश एवं मंच सज्जा भी आवश्यक होती है। आप एक कविता लीजिए, कहीं भी बैठकर, सोकर, चलते फिरते पढ़ लीजिए, सुना दीजिए, सुन लीजिए, परन्तु रंगमंच के साथ ऐसा नहीं है। यहाँ तकनीक की जरूरत हमेशा से रही है, भले ही उसके स्वरूप बदलते गए हों। बड़े-बड़े प्रेक्षागृह, प्रकाश-व्यवस्था, महंगे साउंड सिस्टम, ये सब रंगमंच के लिए अति आवश्यक हैं। पाश्चात्य रंगमंच में तो बहुमंजिला प्रेक्षागृह की अवधारणा भी सामने आई। हालांकि इस बात की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं कि आधुनिक हिंदी रंगमंच अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर आत्मनिर्भर नहीं है, बल्कि दयनीय स्थिति में है। इसमें एक बड़ी बात ये भी है कि यहाँ ऐसे लोगों की जरूरत होती है, जो तकनीकी रूप से सक्षम होने के साथ ही साहित्य और कला के प्रति सहज लगाव और समझ रखते हों। जाहिर है यहाँ पर उन तकनीकी दक्ष लोगों को उतना मेहनताना नहीं मिल पाएगा, जितना एक रात में किसी शादी समारोह में मिल जाता होगा।

            पहली बात तो इतनी सुविधाएं जुटा पाना ही टेढ़ी खीर है। बड़ा भवन और भवन के साथ ये तमाम सुविधाएं जो मंचन को प्रभावी और अबाधित बनाने के लिए चाहिए, बेहद खर्चीली हैं। सरकारी सहायता के बिना यह कतई संभव नहीं है। चूँकि रंगमंच जागरूकता और गलत के प्रति प्रतिरोध का एक सशक्त माध्यम है, इसलिए सत्ता प्रतिष्ठान इसके लिए उतनी रूचि नहीं दिखाते। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रेक्षागृह बहुत सीमित संख्या में बने और जो बने वो भी रखरखाव के अभाव में अथवा प्रशासकीय उदासीनता के चलते उतने उपयोगी नहीं रहे। केवल साधन जुटाने की बात तक यह समस्या सीमित होती तो कोई बड़ी बात नहीं थी। संसाधन किसी किसी प्रकार से एक बार में जुटाए भी जा सकते हैं, लेकिन तकनीकी पक्ष में काम करने वाले विशेषज्ञों को कम मानदेय या कम लाभ पर रंगमंच से जोड़ना बहुत मुश्किल है।अधिकतर रंगकर्मी ही प्रकाश-व्यवस्था और दूसरे बेकस्टेज के कामों को देखते हैं। अगर अभी भी कोई खालिस टेक्नीशियन आधुनिक रंगमंच में पर्दे के पीछे रहकर इस काम को अंजाम देते हैं तो यह उनका रंगमंच के प्रति जुनून ही कहा जायेगा।

अगर हम सभी समस्याओं से निजात पा लें, नाटक के मंचन को सहजसुलभ, सुगम बना लें, तो भी दर्शक को प्रेक्षागृह तक लेकर आना भी अपने आप में एक चुनौती है।असल में यह समस्या सभी शहरों या सभी निर्देशकों के लिए तो नहीं है। लोक रंगमंच और यहाँ तक क्षेत्रीय भाषाओं में मंचित होने वाले नाटकों में भी यह समस्या उतनी बड़ी नहीं है, जितनी हिंदी रंगमंच में दिखाई देती है। आभिजात्य रंगमंच के लिए यह समस्या बहुत पुरानी है।अब सवाल यह उठता है कि वह हिंदी रंगमंच, जो दर्शकों के होने का रोना रो रहा है; क्या सचमुच का हिंदी रंगमंच है? क्या उससे हिंदी रंगमंच की व्यापक जनता जुड़ी है ......हमारे कस्बों-गाँवों में आज भी जीवित है देखने की परम्परा और ललक। उपेक्षा के कारण यह नष्ट हो जाए, इससे पहले इसकी चिंता आवश्यक है।[8] नेमीचंद जैन अपनी पुस्तक रंग दर्शन में भी इसकी चर्चा करते हैं तो इस से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह समस्या कितनी पुरानी है। इसमें कितना सच और कितना मिथ्या प्रचार है, यह देखने वाली बात है।

आज भी कई नाटक ऐसे मंचित होते हैं, जहाँ लोग गैलरी में बैठकर नाटक देखते हैं। हबीब तनवीर के एक नाटक को देखने के लिए इतने दर्शक आये थे कि एक ही नाटक के लगातार दो प्रदर्शन करने पड़े। लेकिन सभी हबीब तनवीर नहीं हो सकते और सभी शहर दिल्ली नहीं हो सकते, इसलिए यह विमर्श निराधार नहीं है। दर्शकों की कमी हिंदी रंगमंच की एक गंभीर समस्या है, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता और इसके कई कारण हो सकते हैं।

अनुदान पर रंगकर्म करने वाले रंगकर्मी तो ठीक से अपनी प्रस्तुति का प्रचार भी नहीं करते और अपने प्रदर्शन में आने वाले दर्शकों की तुलना सिनेमा देखने वाले दर्शकों की संख्या से करते हैं, जबकि एक सिनेमाई निर्माता फिल्म के प्रोमोशन के लिए फिल्म की लागत के बराबर का पैसा खर्च करता है। सोशल मीडिया के जमाने में बिना किसी लागत के भी प्रचार किया जा सकता है। प्रचार होने से बहुत से लोगों को नाटकों के मंचन की सूचना भी सही समय पर नहीं मिल पाती। हालांकि यह भी सच है कि सिनेमा का प्रभाव रंगमंच के दर्शक पर पड़ा है। सिनेमा में तकनीक का इस्तेमाल इस तरह किया जाता है कि फिल्म की स्क्रिप्ट, अभिनय इन सब की छोटी मोटी कमियों को इसके द्वारा दूर किया जा सकता है। वहीँ दर्शक जब प्रेक्षागृह में नाटक देखने जाता है, तो उसे चलते फिरते लोग जो साधारण से दिखाई देते हैं, अजीब लगते हैं।फिल्म में अभिनेता अपने कद से बड़ा दिखाई दे सकता है, दूरदर्शन में अपने कद से छोटा दिखाई पड़ता है, लेकिन रंगमंच में वह अपने सही कद के साथ सामने आता है।[9]

दर्शकों की कमी का एक कारण कहीं कहीं नाट्य प्रस्तुतियों से भी जुड़ा हुआ है। कमजोर नाट्य प्रस्तुति दर्शक के मन में रंगमंच की छवि को कमजोर करती है। सोशल मीडिया में अधिक समय बिताना, अत्यधिक भौतिकवादी हो जाने से कला के प्रति मोह रहना भी कुछ ऐसे कारण है, जो दर्शक को रंगमंच तक नहीं आने देते। इसके लिए हिंदी नाट्य साहित्य में लिखे जाने के अभाव को दूर करना होगा और साथ ही हिंदी रंगमंच का स्तर ऊँचा करने के साथ-साथ उसके प्रचार-प्रसार में भी रूचि लेनी होगी।

            भारत में एक बड़ी आबादी युवाओं की है और युवाओं पर सोशल मीडिया का प्रभाव एक सीमा को पार कर चुका है। कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया देश के युवाओं के चिंतन, मनन, दर्शन, प्रदर्शन, यहाँ तक कि उनकी जीवन शैली का अनिवार्य अंग हो गया है। इस आभासी दुनिया का अपना साहित्य भी खड़ा हो रहा है, इनके अपने साहित्यिक समूह है, जो तात्कालिक घटनाओं पर प्रत्यक्ष रूप से या उस से प्रेरित होकर साहित्य रचना करते हैं।

            रंगमंच की अपनी एक विशिष्टता है और वह है उसका सजीव होना। सजीव होना रंगमंच को अन्य कला रूपों से भिन्न करता है। सामाजिक माध्यमों पर लाइव प्रसारण किया जाना कभी भी रंगमंच के लिए हितकारी नहीं होगा, उल्टा उसकी विशिष्टता को ही नष्ट करेगा।ऑनलाइन नाट्य प्रस्तुति कैसे सफलतापूर्वक की जा सकती है, भले ही तकनीकी रूप से सम्भव हो लेकिन रंगमंच के बुनियादी सिद्धांतों तक की बलि इसमें चढ़ जाती है।[10]हालाँकि प्रचार प्रसार हेतु सोशल मीडिया के इस बढ़ते प्रभाव का रंगमंच के हित में लाभ लिया जा सकता है। नाटकों के मंचन की सूचना आदि देने में इस माध्यम का अहम् योगदान हो सकता है। सोशल मीडिया का एक खतरा एक्सपोजर का भी है। नई पीढ़ी में लोकप्रिय होने की होड़ उसे सोशल मीडिया की तरफ आकर्षित करती है, लेकिन रंगमंच केवल लोकप्रियता प्राप्त करने का माध्यम नहीं है।वास्तव में लोकप्रियता को उद्देश्य बनाकर कभी कोई सार्थक और मूल्यवान मानवीय सर्जनात्मक क्रियाकलाप संभव नहीं, और सामूहिक माध्यमों और संगठित प्रचार साधनों के इस युग में लोकप्रियता से बड़ा फंदा रचनाकार के लिए कोई दूसरा नहीं ही है।[11]

इन सारी चुनौतियों के बावजूद रंगकर्म हो रहा है और नए लोग भी रंगकर्म से जुड़ रहे हैं। इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि बाधाएँ रंगकर्म और रंगकर्मी की राह को मुश्किल तो बनाती हैं, लेकिन उनकी यात्रा को रोक नहीं पाएगीI पिछले कुछ दिनों में अनेक रंगकर्मियों से बातचीत करने का सौभाग्य मिला और मैंने जाना कि आर्थिक, पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर संघर्ष करते हुए भी अनेक रंगकर्मी अपने इस जुनून के प्रति समर्पित हैं रंगमंच आपको चुनौतियों से लड़ने की ताकत देता है और यही वो तत्त्व है जो हमें उम्मीद से भर देता है ।देश के जाने-माने रंगकर्मी भानु भारती इसे लेकर आशान्वित हैं, वे कहते हैं इस समय जो हो रहा है, यह चुनोतियाँ मनुष्य के लिए नई हैं, लेकिन मैं उम्मीद करता हूँ कि जल्द ही बेहतर समय आएगा। पिछले कुछ दशकों के दौरान थिएटर ने अपने आप को कायाकल्प किया है और बहु ​​दिशाओं में विकसित किया है।[12]  


[1]लक्ष्मीनारायण लाल, रंगमंच और नाटक की भूमिका, नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, 1965, पृ.सं. 11

[2]आशीष त्रिपाठी, समकालीन हिंदी रंगमंच और हिंदी रंगभाषा, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ.सं. 160

[3]हृषीकेश सुलभ : रंगमंच का जनतंत्र,राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2009, पृष्ठ सं. 13

[4]https://www.facebook.com/bikanerculturefest/videos/1034436550397513/

[5]https://www.facebook.com/bikanerculturefest/videos/1034436550397513/

[6]आशीष त्रिपाठी, समकालीन हिंदी रंगमंच और हिंदी रंगभाषा, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ.सं. 87

[7]नेमीचंद जैन, रंग दर्शन, अक्षर प्रकाशन, दिल्ली 6, 1968, पृष्ठ सं| 25

[8]हृषीकेश सुलभ : रंगमंच का जनतंत्र,, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2009, पृष्ठ सं. 21

[9]देवेन्द्र राज अंकुर : रंगमंच का सौन्दर्यशास्त्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संस्करण 2018, पृ. सं. 57

[10]राघवेन्द्र रावत, डिजिटल थियेटर नहीं है रंगमंच का विकल्प, हंस, जून 2021, पृ.सं. 68

[11]नेमीचंद जैन, रंग दर्शन,अक्षर प्रकाशन, दिल्ली 6, 1968, पृ सं, 185

[12] https://www.jagran.com/jammu-and-kashmir/jammu-director-bhanu-bharti-said-theatre-connects-us-to-our-roots-20851897.html 

बलदेवा राम, सहायक आचार्य, हिंदी

राजकीय नर्मदा देवी बिहानी,स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नोहर

961060346, baldev.maharshi@gmail.com

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

Post a Comment

और नया पुराने