आलेख : जगदीश ओझा ‘सुंदर’ की नजर में सन उन्नीस सौ बयालीस का ‘विद्रोही बलिया’ -डॉ. जैनेन्द्र कुमार पाण्डेय

           आलेख : जगदीश ओझा सुंदरकी नजर में सन उन्नीस सौ बयालीस का विद्रोही बलिया’ 

   डॉ. जैनेन्द्र कुमार पाण्डेय


    महात्मा गाँधी ने जब अंग्रेजों के विरुद्ध 9 अगस्त, 1942 को भारत छोड़ो आंदोलनका शंखनाद किया तो उसकी अनुगूँज भारत के कई शहरों, कस्बों और गाँवों तक पहुँच गई। बलिया जो अठारह सौ सत्तावन के विद्रोह के नायक मंगल पाण्डेय की जन्मभूमि है, महात्मा गाँधी के आह्वान पर चलने वाले इस आंदोलन की आँच में उबलने लगा। यहाँ की जनता अंग्रेजों के खिलाफ़ विद्रोही हो उठी। वैसे तो इस आंदोलन में सभी वर्ग के लोग शामिल थे, पर इसका नेतृत्व यहाँ के युवाओं के हाथ में था। ये युवा पूरे आत्मविश्वास और उत्साह से भरे हुए थे। इस युवा नेतृत्व का स्पष्ट प्रभाव आंदोलन के स्वरूप पर पड़ा। अब वह पहले की तरह संयमित और अनुशासित न रहकर उग्र और हिंसक हो उठा। इसमें अंग्रेजों की हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा से देने की भावना जोर पकड़ने लगी। इससे अंग्रेजी सत्ता और तंत्र के लिए काफी मुश्किलें खड़ी हो गईं। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि स्थानीय जनता अंग्रेजी सत्ता के सभी प्रतीकों को उखाड़ फेंकने पर उतारू हो गई। इस प्रक्रिया में उसने उग्र एवं हिंसक संघर्ष का रास्ता अख्तियार कर लिया। सरकारी कार्यालयों, सार्वजनिक संपत्तियों और पुलिस थानों तक को भारी नुकसान पहुँचाया गया। आगजनी, लूटपाट और हिंसा की घटनाओं ने संघर्ष के स्वरूप को इतना भीषण बना दिया कि इसके समक्ष अंग्रेजी सत्ता बिलकुल लाचार नज़र आने लगी और कुछ दिनों के लिए उसे सत्ता से बेदखल होना पड़ा। इस प्रकार सन् बयालीस में कुछ दिनों के लिए ही सही, बलिया आज़ाद हो गया और यह घटना इतिहास के सुनहले पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो गई। गौरतलब है कि इस समय आज़ादी हासिल करने वाले सतारा, मिदनापुर और बलिया जैसे कुछ गिने-चुने जनपद ही थे जिन्होंने अंग्रेजों को सत्ता से बेदखल कर स्वशासन और सुशासन की स्थापना की थी। इस दौरान बलिया में जो स्थानीय प्रशासन कायम हुआ, उसमें चित्तू पाण्डेय जिलाधीश और महानंद मिश्र पुलिस कप्तान बनाए गए। इनके नेतृत्व में कुछ दिनों तक बलिया का प्रशासन सुव्यवस्थित ढंग से चला। लोगों में शांति, सद्भाव और उत्साह का नए सिरे से संचार हुआ। चोरी- डकैती, हत्या जैसी जघन्य घटनाओं पर स्वतः लगाम लग गई। लेकिन दुर्भाग्य से यह स्थिति बहुत दिनों तक नहीं चल सकी। जल्द ही अंग्रेजों ने ताकत के बल पर सत्ता फिर से हस्तगत कर ली और इसके लिए उन्होंने ऐसा दमन -चक्र चलाया कि बर्बरता और अमानवीयता की सारी हदें पार हो गईं। न्यायिक प्रक्रिया का मखौल बनाते हुए विद्रोहियों को मनमाने ढंग से दंडित किया गया, जिसमें कई लोगों को खुलेआम मौत के घाट उतार दिया गया। दहशत कायम करने के उद्देश्य से निर्दोष जनता को जुल्म और ज्यादती, का शिकार बनाया गया। स्थिति निश्चय ही भयावह थी, परंतु वह भी यहाँ के लोगों का मनोबल तोड़ने में नाकाम साबित हुई। लोगों ने बाद के दिनों में भी अंग्रेजी सत्ता और उसके समर्थकों के खिलाफ अपना बगावती तेवर बनाए रखा। बड़ी बात यह है कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी यहाँ के लोगों का बगावती तेवर कम नहीं हुआ बल्कि चंद्रशेखर, जयप्रकाश नारायण, जनेश्वर मिश्र और दूसरे व्यक्तित्वों के माध्यम से समय-समय पर वह लगातार व्यक्त होता रहा। समझा जा सकता है कि इस जनपद को जो बागीकी उपाधि प्राप्त है वह अनायास ही नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक खास ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है।


इतिहास अपनी जड़ को पहचानने और उसे समृद्ध करने का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है, इसी तथ्य को ध्यान में रखकर एक सचेत व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने इतिहास से जुड़े। इतिहास का सम्यक अनुशीलन जहाँ व्यक्ति को अतीत की गलतियों से सीख लेने का सबक देता है, वहीं उसे सुनहरे अतीत से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ने का हौसला भी देता है। शायद यही वजह है कि इतिहासबोध को अस्मिताबोध के आवश्यक उपकरण के रूप में देखे-समझे जाने की हमारे यहाँ एक लम्बी परंपरा रही है। आमतौर हम इतिहास के अंतर्गत उन्हीं पुस्तकों को शामिल करते हैं जो आधुनिक ऐतिहासिक प्रविधियों का प्रयोग करते हुए लिखी गई हैं। ऐसे में हम प्रायः उन पुस्तकों को इतिहास का दर्जा नहीं देते या उन्हें उपेक्षित छोड़ देते हैं, जो लोक- स्मृति पर आधारित होती हैं और अपने भीतर विविध प्रकार के लिखित एवं मौखिक साहित्य-रूपों को समेटे रहती हैं। ठीक है कि इनके भीतर दर्ज होने वाली प्रत्येक घटना इतिहास नहीं होती; परंतु इनमें भी इतिहास की बहुत-सी घटनाएँ दर्ज होती हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। यदि बात बलिया की करें तो इसके बारे में भी सच यही है कि यहाँ का इतिहास जितना इतिहास की गंभीर अथवा प्रामाणिक कही जाने वाली पुस्तकों में दर्ज है, उससे कहीं ज्यादा लोगों की स्मृतियों, किंवदंतियों, लोककथाओं, लोकगीतों और दूसरे साहित्य-रूपों में दर्ज है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इतिहास का यह रूप हमारे लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। स्मरण रखना होगा कि आज हममें से अधिकांश लोग बलिया के जिस इतिहास से परिचित हैं और जिस पर गर्व करते हैं उसका अधिकांश हिस्सा इतिहास के इन्हीं रूपों पर आधारित है। क्या यह सच नहीं है कि सन् उन्नीस सौ बयालीस के आंदोलन को लेकर इस क्षेत्र में जोभी मौखिक और लिखित साहित्य उपलब्ध है, उसका बड़ा हिस्सा किसी इतिहासकार द्वारा नहीं बल्कि यहाँ के स्थानीय साहित्यकारों द्वारा लिखा गया है? इन्हीं साहित्यकारों में एक प्रमुख नाम है- जगदीश ओझा सुंदरका, जिन्होंने अपने एक गीत में बलिया की क्रांति को बड़े जोशीले अंदाज प्रस्तुत किया है।

       बलिया की माटी में जन्मे जगदीश ओझा सुंदरजीमूलतः भोजपुरी के रचनाकार हैं, हालाँकि खड़ी बोली में भी उनकी कई रचनाएँ मिलती हैं। उन्होंने भोजपुरी में कई यादगार गीत लिखे हैं, जिनमें मिट्टी की सुगंध रची-बसी है। पर इन गीतों की मुख्य विशेषता इस बात में है कि वे पाठक को रससिक्त या आनंदित नहीं करते, बल्कि इससे आगे बढ़कर वे जनसामान्य के दु:ख-दर्द एवं संघर्षों का त्रासद साक्षात्कार कराते हैं। ये गीत यथार्थ की जमीन पर अवस्थित हैं और सामान्यजन, जिसमें मुख्यतः किसान और मजदूर शामिल हैं, की समस्याओं को बिना किसी कलात्मक बाजीगरी के अभिव्यक्त करते हैं। ये गीत पाठक को चैन- सुकून देने के बजाय उद्वेलित करते हैं और प्रायः व्यवस्था की क्रूरता के प्रति उसमें आक्रोश का संचार करते हैं। विभिन्न आंदोलनधर्मी संगोष्ठियों में उनकी कविताओं का पाठ किया जाता था। कथाकार अमरकांत ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास इन्हीं हथियारों से’, जो सन् उन्नीस सौ बयालीस के बलिया की क्रांति पर केन्द्रित है, में सुंदरजी की एक कविता का उल्लेख किया है। यह कविता अगस्त क्रांतिके पहले लिखी गयी है जिसका पाठ बलिया के टाउन हाल में आयोजित एक सभा में किया गया। ध्यान देने वाली बात है कि सुंदरजी पहले से ही अपनी रचाओं में अंग्रेजों के विदाई की तैयारी कर रहे थे :


बोझ  गुलामी  का  ढोने  को पल भर भी तैयार नहीं,

पर के घर में पर  के  शासन का कोई अधिकार नहीं,

सच  को  दबा  सके दुनिया में कोई है हथियार नहीं,

जा सकता भारत का धन अब सात समुंदर पार नहीं,

ऐसी  हो  ललकार, जुल्म का सघन अंधेरा छँट जाए

शत्रु  फिरंगी  शीश  झुकाकर अपने घर पलट जाएँ।


गुलामी के बोझ को उतार कर फेकने के लिए तैयार सुंदरजी अत्यंत तीक्ष्ण शब्दों में कहते हैं कि दूसरे के घर में किसी दूसरे को शासन करने का कोई अधिकार नहीं है, जैसे हमारे घर में फिरंगी करते हैं। वे जब कहते हैं कि भारत का धन अब सात समुद्र पार नहीं जाएगा तब सहसा भारतेन्दु की भारत दुर्दशाकी पंक्तियाँ याद आती हैंपै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी। सुंदरजी का विचार है कि इससे मुक्ति का केवल एक ही उपाय है ललकार अर्थात् सशस्त्र प्रतिरोध। जब फिरंगी इस देश को छोड़कर स्वदेश लौट जाएँगे तभी इस देश की जनता पर होने वाले जुल्म से मुक्ति मिल सकती है।


       भोली-भाली ग्रामीण जनता का साहूकारों एवं जमींदारों द्वारा छला जाना, मेहनतकश जनता की बेजार कर देने वाली गरीबी जैसे विषय उन्हें बराबर व्यथित करते हैं, अकारण नहीं है कि इन विषयों पर सुंदरजी जी ने हृदय को झकझोर देने वाले गीत लिखे हैं। इन गीतों में उन्होंने जिस तरह के मार्मिक बिम्ब रचे हैं, वे इस वर्ग के प्रति उनके गहरे लगाव का प्रमाण है। इसके अतिरिक्त सुंदरजी जी का लेखनहमें अपनी जड़ों को पहचानने और उनसे जुड़ने की प्रेरणा देता है। इसका अप्रतिम उदाहरण उनके द्वारा उन्नीस सौ बयालीस के भारत छोड़ो आंदोलन पर लिखा गया विद्रोही बलियानामक गीत है, जो मातृभूमि के प्रति उनके गहरे जुड़ाव का स्पष्ट रेखांकन करता है और साथ ही उनके इतिहासबोध का परिचय देता है।यह गीत खड़ी बोली में लिखा गया है और इसका भाषिक विधान बहुत सरल है। भोजपुरी की जगह खड़ी बोली में इस गीत का लिखा जाना इस बात का संकेत है कि रचनाकार अपना संदेश बड़े पाठक समुदाय तक पहुँचाना चाहता है। साथ ही वह इसके माध्यम से उस युवा वर्ग से संवाद करना चाहता है, जो किन्हीं वजहों से भोजपुरी और बहुत हद तक अपनी ऐतिहासिक विरासत से कट गया है। रचनाकार का प्रयास है कि खड़ी बोली के माध्यम से ही सही, बलिया की युवा पीढ़ी को उसके सुनहले इतिहास से जोड़ा जाए। सन् उन्नीस सौ बयालीस के आंदोलन के दौरान इस जनपद में जो कुछ घटित हुआ, वह सामान्य घटना-क्रम भर नहीं था, वरन वह हमारी समृद्ध ऐतिहासिक विरासत का एक अविस्मरणीय हिस्सा था- ऐसा हिस्सा जिससे हमारी अस्मिता जुड़ी हो। अकारण नहीं, इस विरासत को याद करते हुए सुंदरजी कहते हैं :


भारत छोड़ोके नारे की, बलिया एक अमिट निशानी है,

जर्जर तन बूढ़े भारत की यह मस्ती भरी जवानी है।


       गीत के टेक के तौर पर प्रयुक्त यह पंक्ति बलिया की अस्मिता का स्पष्ट रेखांकन करती है। सरल- संप्रेष्य भाषा में रचित यह गीत उन घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करता है, जो घटनाएँ सन् बयालीस के आंदोलन के दौरान घटी थीं। इसकी आरंभिक पंक्तियों में बताया गया है कि जब जनता विद्रोह पर उतारू हुई तो कैसे अंग्रेजों की शक्तिशाली सत्ता भी बेबस और लाचार नजर आने लगी। किसे गर्व नहीं होगा अपने इन वीर नायकों पर, जिन्होंने अपने शौर्य और सामर्थ्य का प्रदर्शन करते हुए अंग्रेजी ताकत को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया था! उस दृश्य को जीवंत करती सुंदरजी ये पंक्तियाँ देखने लायक हैं :


प्रलयंकर मानव-रूप देख, आसुरी शक्ति असमर्थ हुई।

तलवारें कर से छूट पड़ीं, बंदूकें उसकी व्यर्थ हुईं।

अरिदल ने घुटने टेक दिए, यह कल की अभी कहानी है।

भारत छोड़ोके नारे की...


       उल्लेखनीय है कि सुंदरजी ने अंग्रेजी सत्ता को आसुरी शक्ति कहा है। कहना न होगा कि आसुरी शक्ति का संबंध किसी प्रकार के सृजन से नहीं बल्कि विनाश से है। यह आसुरी शक्ति शक्ति: परेषां परपीडनायके मुहावरे को अलग ढंग से व्याख्यायित करती है अर्थात् यह केवल दूसरों को परेशान करने वाली और पीड़ा देने वाली है। अंग्रेजी सत्ता के विनाशकारी नीतियों का प्रतिरोध कवि ने अत्यंत प्रभावी ढंग से किया है। प्रसंगात मिशेल फूकों की शक्ति की अवधारणाकी चर्चा प्रासंगिक लगती है। इस अवधारणा में फूकों ने शक्तिऔर प्रतिरोधके संबंधों का उल्लेख किया है। उनका मत है कि, ‘शक्ति शासितों पर एक पहचान थोपती है तथा प्रतिरोध उस थोपे हुए पहचान को प्रभावहीन कर देता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्नीस सौ बयालीस के आंदोलन में बलिया के उत्साही युवाओं ने प्रतिरोध की संस्कृति को मजबूत किया, साथी ही साथ उस शक्तिशाली साम्राज्यवादी सत्ता को घुटने टेकने के लिए मजबूर किया जिसकी दमनकारी नीतियों ने संपूर्ण विश्व को परेशान कर रखा था। उन युवाओं ने यह संदेश दिया कि यह क्रूर साम्राज्यवादी सत्ता नतमस्तक भी हो सकती है। बलिया के उस प्रतिरोध के सामने अंग्रेजी सत्ता की सारी तलवारें और बंदूकें कुछ समय के लिए प्रभावहीन हो गईं।


       यह विदित तथ्य है कि युवा छात्रों ने बड़े जोश से इस आंदोलन में हिस्सा लिया था। कम उम्र वाले इन युवाओं ने अपने साहस और पराक्रम का परिचय देते हुए कौनसे कार्य किये थे, इसकी बानगी देखिए :


बढ़ चले छात्र स्कूल छोड़, आज़ादी के अरमान लिए।

बन-बन ध्रुव औप्रह्लाद चले, करतल में कोमल प्राण लिए।


       बकौल सुंदरजी अपनी सरकारचौदह दिनों तक चली थी, हालांकि इस संदर्भ में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान इस स्थानीय सरकार की अवधि दस दिन की मानते हैं तो कुछ सात दिन की। जो हो, पर एक बात स्पष्ट है कि इस अल्पावधि वाले शासन में जनता को सुशासन का अनुभव हुआ था। आगे यह गीत इस तथ्य का उल्लेख करता है कि कैसे अंग्रेजों ने सत्ता पुनः प्राप्त की और इसके लिए उन्होंने कैसे अमानवीय कृत्य किए। इसकी बानगी देखिए :


प्राणों से क्रीड़ा  होती थी, होते थे फायर पे फायर।

था गाँव-गाँव जलियाँवाला, हर दारोगा था ओडायर।

पशुता की यह तांडव-लीला, टोले-टोले दिन रात हुई।

भालों ने शोणित पान किया, तलवारें रक्त स्नात हुईं।

नादिरशाही की जिसे देख बढ़ गई आज हैरानी है।

भारत छोड़ो...


क्रूरता और अत्याचार की कहानी कहते ये दृश्य इतने भयावह हैं कि इन्हें देखकर किसी भी व्यक्ति का हौसला टूट जाए। परंतु धन्य है यहाँ की मिट्टी जिसने फौलादी हौसला वाले लोग पैदा किए। ऐसे लोग जिन्हें काल भी न डरा सके। क्या यह सच नहीं है कि इन्हीं विभूतियों के बलिदान की बदौलत आज हम आजादी की साँस ले रहे हैं? ऐतिहासिक तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि इस सुराजी आंदोलन की अनुगूँज संपूर्ण भारत में सुनाई पड़ी थी। तत्कालीन राजनेताओं ने इस आंदोलन में जनता की भागीदारी और उसकी सफलता के लिए बलिया की जनता को बधाई दी थी। स्वाधीनता आंदोलन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नेता महात्मा गाँधी ने इस संबंध में लिखा कि, ‘बलिया संयुक्त प्रांत का बारदोली है। जब तक वहाँ जाकर स्वयं मैं आँख से न देखूँ तब तक मैं बलिया का ऋणी ही रहूँगा।महात्मा गाँधी ने बारदोली की तुलना बलिया से की है। सन् 1928 के बारदोली सत्याग्रह अथवा किसान आंदोलन से बलिया की तुलना करने का एक विशेष संदर्भ यह है कि दोनों जगह जनता के सामने अंग्रेजी सत्ता को झुकना पड़ा। दोनों जगह के आंदोलन में सामान्य जनता की भागीदारी ने उसके सफलता का गौरवपूर्ण बना दिया। इस आंदोलन के विषय में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा कि, ‘बलिया ने राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में एक अध्याय अपने खून से लिखा है। भारतवर्ष यहाँ के बहादुर एवं उत्साही वीर युवकों को कभी भूल नहीं सकता। यहाँ की जनता ने अगस्त सन् 1942 के ऐतिहासिक राष्ट्रीय संग्राम में जो कुछ किया है उसके लिए मैं उन्हें राष्ट्र की ओर से बधाई देता हूँ। ... आज बलिया के प्रत्येक नर-नारी एवं युवक को गर्व है कि उसने संसार के एक प्रबल शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य की ग़ुलामी की जंजीर तोड़कर कम से कम 14 दिनों के लिए अपना राज कायम किया था।नेहरू का यह संदेश बलिया के उन अनेकानेक सामान्य जन को था जिन्होंने सन् बयालीस के आंदोलन में अपना योगदान दिया था। ऐसी स्थिति में क्या हमारा उत्तरदायित्व नहीं बनता कि हम इन महान विभूतियों के त्याग और बलिदान को याद रखें और इनके द्वारा निर्मित विरासत को सहेजें और संभव हो तो उसे और समृद्ध करें? इस बात की पुष्टि करती सुंदरजी की ये पंक्तियाँ जितनी महत्त्वपूर्ण हैं, कदाचित उतनी ही प्रासंगिक भी :


आ यहाँ अदब से रे राही! इसको कुछ सुंदर फूल चढ़ा।

आदर से इसको शीश झुका, सिर पर आँखों पर धूल चढ़ा।

पथ में इसके बलिदानों की, रक्तिम कल कथा सुनाता जा।

जा झूम-झूम आज़ादी के, पुरजोश तराने गाता जा।

यह स्वतंत्रता की यज्ञभूमि, यह वरदानी कल्याणी है।

भारत छोड़ोनारे की...


कहना न होगा कि इस समृद्ध विरासत में ही हमारी विशिष्टता निहित है, जिसे सुंदरजी जी जैसा कवि सहेजना चाहता है। अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि इसे जानें, समझे और जितना संभव हो समृद्ध करें।

 

संदर्भ :

1. जगदीश ओझा सुंदर’– विद्रोही बलिया

2. अमरकांत इन्हीं हथियारों से

3. भारतेन्दु हरिश्चंद्र भारत दुर्दशा

4. Nathan Widder – Foucault and Power Revisited (European Journal of Political Theory, Volume 3, Issue 4, October 2004)

5. मन्मथनाथ गुप्त अगस्त क्रांति और प्रति क्रांति

6. शंकरदयाल सिंह भारत छोड़ो आंदोलन

7. पंडित दीनानाथ व्यास अगस्त सन् 42 का विप्लव

8. महात्मा गाँधी सम्पूर्ण गाँधी वङ्मय-76

 

डॉ. जैनेन्द्र कुमार पाण्डेय

एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मुरली मनोहर टाउन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बलिया 277001

jainendratdc@gmail.com


                       अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

चित्रांकन : चंचल माली, Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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