शोध आलेख : हिन्दी की एक उदात्त कहानी : उसने कहा था -डॉ. शहाबुद्दीन

हिन्दी की एक उदात्त कहानी : उसने कहा था

डॉ. शहाबुद्दीन


 

शोध सार :

उसने कहा थाकहानी की रचनात्मक उर्वरा का ही परिणाम था कि धर्मवीर भारती जैसे उत्कृष्ट साहित्यकार ने इसका नाट्य-रूपांतरण तैयार किया तो विमल राय जैसे विख्यात फिल्मकार ने हिन्दी सिने-जगत के लिए एक फिल्म निर्मित की। उत्तर आधुनिक परिदृश्य में भी इसकी संभावनाओं पर विचार होता रहा है और नवीन पाठ प्रस्तुत हुए हैं। इसकी मार्मिकता एवं लहना सिंह के मानवीय चरित्र के सूक्ष्म पहलुओं को लेखक ने संजीदगी से उकेरा है। लहनासिंह की दुखद कथा करूणा से होती हुई त्रासदी में परिणत होती है! कहानी में औपनिवेशिक शासन के अंतर्विरोध और यथार्थ की सराहनीय अभिव्यक्ति हुई है। इसमें पंजाब की स्थानीय प्रकृति, संस्कृति एवं आँचलिकता का अद्भुत कलात्मक संयोजन भी देखने को मिलता है। कहानी का शिल्प, उसकी फ्लेशबैक तकनीक, अभिव्यंजना शैली, भाषाई लाक्षणिकता अद्भुत है। अंतर्पाठीयता एवं अंतःअनुशासनिक दृष्टि से भी यह एक संभावनाशील उदात्त कहानी है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं, हिन्दी कहानी के इतिहास में विशिष्ट स्थान रखती है

 

बीज - शब्द : उदात्त, पूर्वदीप्ति शिल्प, यथार्थवाद, राष्ट्रीयता, अंतर्पाठीयता, अंतःअनुशासनिक

 

मूल आलेख : चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' कृत कहानीउसने कहा थासाहित्येतिहास ही नहीं ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने महिमा की दृष्टि से इसकी तुलना कथा-सम्राट प्रेमचंद की कहानीपंच परमेश्वरसे की थी।1 प्रसिद्ध सम्पादक एवं साहित्यकार आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने अक्टूबर, 1915 में इसेसरस्वतीपत्रिका में कुछ पाठ-संशोधनों2 के साथ प्रकाशित किया था। प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती ने इसका नाट्य-रूपांतरण तैयार किया था। इस नाट्य-रूपांतरण कादस्तावेजीमहत्त्व तो है ही, इससे कहानी में मौजूद रचनात्मक संभावनाएँ भी प्रकट होती हैं। यह नाट्य-रूपांतरण कहानी पर महत्वपूर्ण टिपण्णी भी है। धर्मवीर भारती ने कहानी के संवेदनात्मक पक्ष को उभारते हुए नाटकीय संभावनाओं को जीवंत किया है। कहानी में मौजूद रचनात्मक उर्वरा कोविमल रायजैसे संजीदा फिल्मकार ने भी पहचाना और एक बेहतरीन फिल्म हिन्दी सिनेजगत को दी। 'उसने कहा था' कहानी का मुख्य चरित्र पाठक की संवेदना को इस कदर छूता है कि उसको आधार बनाकर 'नया ज्ञानोदय' जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में कई कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। निस्संदेह उसने कहा थाकहानी पर आधारित प्रत्येक पुनर्रचना उसके विशिष्ट पहलू को उजागर करती है। इस तरह यह कहानी अपने कालजयी होने की पुष्टि करती है।

 

धर्मवीर भारती के नाट्य-रूपांतरण मेंउद्घोषककी परिकल्पना की गई है जो कथावाचक की भूमिका में है। इसी उद्घोषक के माध्यम से लेखक कहानी पर उल्लेखनीय टिपण्णी करते हैं। लिखते हैं- यह कहानी मानव हृदय की सबसे पुरानी और सबसे नवीन कहानी है। यह कहानी उस गुत्थी की कहानी है जो सृष्टि के आदि में उलझ गई थी और आज तक उलझी हुई है। यह कहानी युद्ध के खून से लथपथ मैदानों में, लाशों से पटी हुई खाइयों में, खूंखार श्मशानों में भी सहानुभूति, त्याग और करूणा की पवित्र रागिनी की तरह भटकती रहती है। वह प्रेम जो हिंसा और हत्या के पैशाचिक नग्न नृत्य में भी मनुष्य को पशु होने से रोक लेता है और मानवता की उसमें आत्मविश्वास की भावना जगाए रखता है। उसकी आत्मा पर आशीर्वादों की तरह छाया रहता है। यह कहानी युद्ध के घोर पैशाचिक वातावरण में इसी प्रकार के एक करूण किन्तु उदात्त आत्म बलिदान की कहानी है।3

 

आचार्य रामचद्र शुक्ल ने आलोच्य कहानी के विषय में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए लिखा - “इसमें पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इसकी ऐसी है जैसी बराबर हुआ करती है पर उसके भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झांक रहा है केवल झांक रहा है, निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा। कहानी भर में कहीं प्रेम की निर्लज्ज प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृत्ति नहीं है। सुरुचि के सुकुमार से सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुँचता। इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।”4

 

            गुलेरीजी ने लगभग तीन-चार प्रेमपरक कहानियाँ लिखीं लेकिन आलोच्य कहानी जिस शिखर पर पहुँची उसे उनकी कोई ओर कहानी नहीं छूतीं। यह कहानी इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें युद्ध एवं प्रेम की थीम को आधार बनाया गया है। यह थीम आधुनिक हिन्दी साहित्य में कम ही देखने को मिलती है। क्या इस थीम को चुनने के कुछ सरोकार नहीं रहे होंगे? कहानीकार ने प्रथम विश्वयुद्ध की परिघटना को कहानी की पृष्ठभूमि में रखा और आलोचकों ने प्रेम, त्याग और आत्मबलिदान जैसे मूल्यों को शिद्दत से उभारा। यह सही है कि लेखक युद्ध के वातावरण में प्रेम, त्याग, बलिदान आदि उदात्त मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठित करता है परन्तु क्या इतना ही कहानीकार का मंतव्य था? कहानी के दुखद अंत से गुलेरीजी क्या सन्देश प्रेषित करना चाहते थे? प्रतिष्ठित पत्रिकासमालोचकमें लिखेहिन्दी भाषा के उपन्यास लेखकों के नामशीर्षक लेख में गुलेरीजी ने लिखा

 

हम पर उन कल्पित नियमों को मत चलाओ जो उपन्यास या सुकुमार शिल्प के राज्य में से अपने काम में धंसे हाथों से आलू उबालती बुढियाओं को, उन गोल पीठों और सब ऋतुओं को सहने वाले चेहरों को जिनने हल और कुदाली पर झुक-झुककर काम किया है, होली में थोड़ी-सी भांग पर मस्त गंवारों को, उन पीतल के बरतनों वाले घरों, मिटटी की हंडियों, लेडीं कुत्तों पर और प्याज के छिलकों को निकाल दें।.. संसार में बहुत कम महापुरुष होते हैं, बहुत कम परम सुन्दरी स्त्रियाँ होती हैं, बहुत कम वीर होते हैं, इन विरले असंभवों को मैं अपना सम्पूर्ण प्रेम और सम्पूर्ण सहानुभूति नहीं दे सकता, मेरे प्रेम के भाव का अधिकांश मुझे अपने प्रतिदिन के साथियों के लिए चाहिए... यह अत्यंत आवश्यक है कि मुझ में स्नेह की एक तंतु तो बचे जो मुझे उस मैले कपड़ों वाले भाई से मिलावें जो मेरी शक्कर तोलता है इसकी अपेक्षा कि मैं अपने स्नेह को ज़री की टोपी पहनने वाले कल्पित दगाबाज़ पर अपने भावों कोभस्मनिहुतमकरूं। यह आवश्यक है, मुझे पड़ोसियों के सुख-दुःख से सहानुभूति हो, और न उन कल्पित नायकों से जो कही सुनी में ही हैं अथवा जो आदर्श उपन्यास-लेखक के आदर्श ही हैं।5

 

स्पष्ट है गुलेरीजी कल्पित नियमों के विरुद्ध थे और जनसामान्य को साहित्य-क्षेत्र मेंस्पेसदेने के पक्षधर थे। वे कल्पित नायकों के नहीं, सजीव व्यक्तियों के चित्र साहित्य में उकेरना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि उनका सम्पूर्ण प्रेम एवं सहानुभूति उनके दिन-प्रतिदिन के संगी-साथियों को मिले। उनसे उन्हें सहानुभूति थी। वे उनके सुख-दुःख, आशा-निराशा, उनके यथार्थ को साहित्य में उकेरना चाहते थे। निश्चय ही वे यथार्थपरक साहित्य के पक्षधर थे। तब क्याउसने कहा थाकहानी उनके इन विचारों से मुक्त होगी? क्या इसकी रचना के समय उनके विचार ऐसे नहीं रहे होंगे? यदि यथार्थ के प्रति उनका आग्रह था तो वह कहानी में कहाँ-कहाँ और किस रूप में सुरक्षित है? क्या यह अनायास है कि लहनासिंह जैसे साधारण व्यक्ति को उन्होंने अपनी कहानी का नायक बनाया? इन प्रश्नों के उत्तर हेतु कहानी कीक्लोज रीडिंगअपेक्षित है। यह अपेक्षा प्रसिद्ध आलोचक नामवरसिंह ने भी अपने लेखसौ साल की एक कहानी : उसने कहा थामें की थी।

 

1


 ‘उसने कहा थाकहानी की बुनावट और संरचना अद्भुत है। इसका कथानक औपन्यासिक है। कहानी में घटनाओं के साथ पात्रों ने भी काफी कुछ कहा है। कुछ सिचुएशन पर ही उन्होंने ‘मौन’ धारण किया है। कहानी में कुछ कथन महत्वपूर्ण हैं पर आलोचकों ने उन्हें महत्व नहीं दिया! यदि ध्यान से इन कथनों का निरीक्षण किया जाए तो ये कथन औपनिवेशिक शासन के अंतर्विरोध और गुलेरीजी की परिपक्व समझ व सूक्ष्म दृष्टि का परिचय देते हैं। कहानी में तत्कालीन साम्राज्यवाद के यथार्थ को उभारने का प्रयास हुआ है। इसमें ऐतिहासिकता के साथ ऐतिहासिक यथार्थ भी सुरक्षित है। ऐतिहासिकता इस कहानी को महत्वपूर्ण बनाती है। इसमें प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि और उसकी हलचलें मौजूद हैं। भारतीयों का दृष्टिकोण भी कुछ हद तक इसमें उभरा है। जमादार लहनासिंहसात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुक़दमे की पैरवी करने अपने घर गया है।6 दूसरी ओर सूबेदारनी कहती है,सरकार ने बहादुरी का ख़िताब दिया है, लायलपुर7 में जमीन दी है, आज नमकहलाली का मौका आया है।8 दोनों प्रसंग जमीन से जुड़े हैं। पहला प्रसंग सैनिक के जमीन की पैरवी के सिलसिले में अदालत के चक्कर काटने से जुड़ा है तो दूसरा प्रसंग अंग्रेजों द्वारा पुरस्कार स्वरुप जमीन देने से जुड़ा है। एक भारतीय संघर्ष कर रहा है तो दूसरा नमकहलाली। एक स्वयं अंग्रेजों को सेवाएँ दे रहा है तो एक का पति सेवारत है। यहाँ साम्राज्यवादी शासन का अंतर्विरोध एवं भारतीयों की औपनिवेशिक मानसिकता बखूबी उभरा है। कोढ़ पर खाज यह कि मुक़दमे की सुनवाई शुरू होने के पूर्व ही लहनासिंह की छुट्टियाँ रद्द कर दी जाती हैं। यहाँ एक प्रश्न उभरता है कि जो सरकार अपने सैनिकों के हितों का संरक्षित नहीं करती उसके पक्ष में भारतीय सैनिक क्यों लड़ाई लड़ रहे थे? क्यों वे औपनिवेशिक हितों की रक्षा हेतु स्वाधीनता आन्दोलन से मुँह फेरे थे? यह कहानी 1915 ई. को प्रकाशित हुई थी। यह समय गाँधीजी के भारतीय राजनीति में सक्रियता का समय है। हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयास जारी थे और इन्हीं प्रयासों का परिणाम 1916 के लखनऊ अधिवेशन में दिखाई दिया जिसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग में एकता हुई। क्या गुलेरीजी अपनी कहानी के माध्यम से औपनिवेशिक हितों की रक्षा हेतु कटिबद्ध सिख सैनिकों की भूमिका को राष्ट्रीय पटल पर लाना चाहते थे? यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि “1857 में बंगाल आर्मी ने जहाँ विद्रोह किया था, वहाँ अकेले सिख रेजिमेंट थी, जो बकायदे अंग्रेजों के साथ थी। अंग्रेज जिस पर पूरी तरह निर्भर कर सकते थे कि ये गद्दारी नहीं करेंगे, बग़ावत नहीं करेंगे। इसलिए पहले महायुद्ध में मोर्चे पर जो आर्मी भेजी गई थी वह सिख बटालियन थी।9

 

औपनिवेशिक हितों के रक्षक ये राजभक्त सैनिक न तो स्वयं राष्ट्र-प्रेमी हैं और न ही यूरोपीय स्त्रियों की राष्ट्रीय भावना को पहचान पाते। वे विदेश की खूबसूरती, समृद्धि, सम्पन्नता की तारीफ करते हैं परंतु अपने देश की बदहाली की ओर उनका ध्यान नहीं जाता।हाँ, देश क्या है स्वर्ग है! मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा जमीन यहाँ माँग लूँगा और फूलों के बूटे लगाऊँगा।10 अच्छी जमीन प्राप्ति की आशा ने उनमें राष्ट्रीयता की भावना का लोप कर दिया है। वे साम्राज्यवादी हितों की रक्षा के लिए दिलोजान से तत्पर हैं, देशमुक्ति के लिए नहीं! कहानी के चरित्र जटिल हैं उन्हें सरलीकृत ढ़ंग से नहीं समझा जा सकता। भारतीय स्त्री (होराँ) भी औपनिवेशिक मानसिकता का शिकार है तभी वह नमकहलालीघागरिया पलटनकी बात करती है। क्या इस सोच की निर्मिति में उसकी ममता और पतिव्रत होना नहीं है? घागरिया पलटन अर्थात स्त्री रेजिमेंट के विषय में सोचना आधुनिक है परंतु नमकहलाली की सोच उसकी अंग्रेजी राज के प्रति निष्ठा है। उसके बरक्स अंग्रेज स्त्रियाँ राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत हैं। वे मोर्चे पर डटे भारतीय सैनिकों की सुविधाओं एवं आवश्यकताओं का ख्याल इसलिए रखती हैं क्योंकि वे बखूबी समझती हैं कि भारतीय सैनिक उनके हितों की रक्षा हेतु ही युद्ध कर रहे थे।जब वह (मेम) सिगरेट देने की हठ करती है, ओठों से लगाना चाहती है और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं।11 वस्तुतः ये घटनाएँ भारतीयों की संदिग्ध राष्ट्रीयता, औपनिवेशिक मानसिकता एवं जटिल अनुभूतियों को प्रकट करती हैं।

 

गुलेरीजी की दृष्टि बहुत गूढ़ है। वे भारतीयों की औपनिवेशिक मानसिकता और अंग्रेजपरस्त भूमिकाओं का बारम्बार उद्घाटन करते हैं। औपनिवेशिक मानसिकता का ही परिणाम है कि वजीरा सिंह कहता है- “मरे जर्मनी और तुरक!”12 उसने मरें अंग्रेज' क्यों नहीं कहा? क्या भारतीयों के हितों को तुर्कों या जर्मनों ने कोई नुकसान पहुँचाया था? वे साम्राज्यवादी ब्रिटेन के शत्रुओं (जर्मनी और तुर्की) को अपना शत्रु क्यों समझ रहे थे? वे उन अंग्रेजों के लिए क्यों लड़ रहे थे जिन्होंने उनके देश को कंगाल बनाया था!

 

‘उसने कहा था’ व्यंजनाधर्मी कहानी है जो तत्कालीन दौर में भारतीयों की अलग-अलग भूमिका को इंगित करती है। इस संदर्भ में मौलवी से जुड़ा प्रसंग विचारणीय है। वह बच्चों को दवाई पिलाता व लोगों से कहता थाजर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गौ-हत्या बंद कर देंगे।13 उसके कथन से बोध होता है कि वह जाति-विशेष को संबोधित कर रहा था। इसीलिए जर्मनों को पंडित, वेद ज्ञाता, गौ-संरक्षक आदि बताता है। इतना ही नहीं वह बनियों को भी अलग से समझाने की कोशिश करता है। लहनासिंह के अनुसारमंडी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रूपये निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है।चूँकि लहनासिंह की निष्ठा ब्रिटिश शासन के प्रति है और औपनिवेशिक मानसिकता में जकड़ा है इसलिए वहमुल्ला जी की डाढ़ी मूँढकर उसे गाँव से बाहर कर देता है और चेतावनी भी देता है किजो मेरे गाँव में अब पैर रखा तो...” यह बात स्वयं लहनासिंह ‘लपटन साहब’ को बताता है। मुल्ला की दाढ़ी मूँढने एवं गाँव से भगाने वाली घटनाएँ किसके हित में रही होंगी कहने की आवश्यकता नहीं।

 

गुलेरीजी ने लहना की औपनिवेशिक गुलामी का एक ओर प्रमाण दिया है। वह अपनी सूझ-बूझ से सभी सैनिकों को बचाता है परंतु उसका श्रेय एक अंग्रेज लपटन साहब को देता है जो उसकी रेजिमेंट में पाँच वर्ष रहे थे। वह कहता हैचालाक तो बड़े हो, पर मांझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए।14 सूबेदार हजारासिंह भी लहनासिंह की प्रशंसा करते हुए अपनी औपनिवेशिक मानसिकता का परिचय देते है और प्रत्येक सफलता के पीछे लपटन साहब के सानिध्य को श्रेय देता है। इस प्रसंग़ में एक अन्य उदहारण देखिए- “लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं।ऐतिहासिक सच है कि ब्रिटिश शासन में बड़े अफसर अधिकतर अंग्रेज ही थे।

 

2


उसने कहा थाकहानी के पाँच खंड हैं। इनमें से चार युद्धस्थल पर आधारित हैं और एक अमृतसर पर! प्रथम खंड का असफल प्रेमी अन्य भागों में सफल सैनिक, समझदार नेतृत्वकर्ता और संवेदनशील-मानवतावादी नायक के रूप में उभरा है। हर खंड़ में उसका चरित्र निखरता चला जाता है। पहले खंड और दूसरे खंड में जो 'गेप' है उसे भरती है फ्लेशबैक तकनीक (पूर्वदीप्ति शिल्प)। कलात्मक संयम और घटनाओं का संयोजन भी काबिले-गौर है और काबिले-तारीफ भी। कथावस्तु का अधिकांश युद्ध-स्थल से संबद्ध है। इसके भी ऐतिहासिक कारण हैं। युद्धोन्माद तत्कालीन दौर की विशिष्टता है। सम्पूर्ण विश्व न चाहते हुए भी दो खेमों में बंटा था। इसलिए भीषण युद्ध की सजीव झाँकी कहानी में दिखे तो आश्चर्य कैसा?

 

युद्ध के वातावरण एवं परिवेश की जीवंत निर्मिती कहानीकार ने की है। उन्होंने युद्ध कौशल और रणनीति के एक-एक पहलु को बड़ी बारीकी से कहानी में उकेरा है। किसी प्रशिक्षित सैनिक की तरह किसी पक्ष को ओझल नहीं होने दिया! उस दिन धावा किया थाचार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था! जैसे वाक्य हों या गैबी गोले गिरने की बात, युद्ध स्थल की भीषणता का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं। इसी तरह दिन में पचीस जलजले होते हैं जैसे वाक्य हों या खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है!जैसे कथन सभी युद्धभूमि के जमीनी हालात को बयाँ करते हैं। जो कहीं खंदक से बाहर साफा या कुहनी निकल गयी तो चटाक से गोली लगती है। जैसे कथन और उनमें प्रयुक्त भाषा परिवेश-निर्मिती में सहायक ही सिद्ध हुए हैं। युद्धस्थल पर कई दिनों से मेह अर्थात वर्षा का होना और उसी हालात में शत्रु सेना की रणनीति को विफल करना आसान कार्य नहीं। वजीरा सिंह का यह कथन कि “मन मन भर फ़्रांस की मिट्टी मेरे बूटों पर चिपक रही थी” से वातावरण की भीषणता का अंदाजा लगाया जा सकता है।

 

युद्ध-स्थल पर सैनिकों द्वारा अपने परिवार एवं गाँव की याद आना, उनके मस्तिष्क में पूर्व घटित स्थानीय जीवन स्मृतियों का कौंधना सहज एवं स्वाभाविक स्थितियाँ हैं। विशेष है उन्हें कहानी में रोचक अंदाज में जीवंत करना। गुलेरी ऐसा करने में सफल सिद्ध हुए हैं। कई दिनों से मोर्चे पर डटे सैनिक अपनी ऊब को दूर करने के लिए बातचीत के क्रम में बताते हैं कि चंबे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं।कथन में पंजाब की नदी चंबा की स्मृति उभरती है तो सैनिकों की विषम स्थिति भी प्रकट होती है। नगरकोट के से जलजलेसी जमीन उछलती है जैसे कथन में पंजाब के नगरकोट जिले में आए भूकंप की याद के साथ युद्धस्थल के विषम स्थिति उभरती हैं। इसके अतिरिक्त बुलेल के खड्ड में मरूँगा जैसे वाक्य सैनिकों की मानसिक मजबूती एवं मातृभूमि के प्रति उनके प्रेम को प्रकट करते हैं।

 

युद्ध स्थल पर मृत्यु कब दस्तक दे दे किसी को पता नहीं। कभी-कभी ऐसे अवसर भी आते हैं जब सैनिक उदास हो जाते हैं। उनका मन बहकने लगता है। ऐसे क्षणों को संभालना चुनौतीपूर्ण होता है। सैन्य प्रशिक्षण में तनाव के ऐसे क्षणों से बचने के उपाय बताना शामिल रहता है। इसीलिए लहनासिंह व अन्य सैनिक वजीरासिंह जैसे विदूषक से हास-परिहास करते हैं। वजीरा सिंह का कहनामैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पणयाअपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा!” आदि कहानीकार की हास्य के प्रति समझ, सैनिकों की जिंदादिली एवं उनके ग्रामीण अनुभवों को भी उजागर करते हैं। ऐसे समय में सैनिकों द्वारा तरोताजा होने के लिए "लुच्चों का गीत" गाया जाए तो उसे शीलता-अश्लीलता के पैमाने पर नहीं कसना चाहिए। गीत कुछ इस ढ़ंग का है-

 

दिल्ली शहर ते पिशौर नूँ जाँ दिए,

कर लेणा लौंगाँ दा व्यौपार मंडिए;

कर लेणा नाड़ेदा सौदा अड़िए--

(ओए) लाणा चटाका कदुए नूँ।

कद्दू वण्याए मजेदार गोरिए,

हुण लागा चटाका कदुए नूँ।।15

 

वैसे शीलता-अश्लीलता वैयक्तिक समझ पर निर्भर करती है। वस्तुतः गुलेरीजी ने यह गीत शीलता-अश्लीलता की दृष्टि से नहीं, युद्धस्थल पर मौजूद सैनिकों की मन:स्थिति को दर्शाने के लिए लिखा था। यदि सैनिकों में हवस होती तो वे यह नहीं कहते कि "यहाँ वालों को शरम नहीं", बल्कि वे परिस्थितियों का अनैतिक लाभ उठाते। हालाँकि ऐसे प्रसंगों को स्त्री विमर्श के दृष्टिकोण से सही नहीं कहा जा सकता। ऐसे प्रसंग सैनिकों के मानस में निर्मित स्त्री छवि को उभारते हैं और उनके पितृसत्ता से ग्रसित होने को महसूस किया जा सकता है। बहरहाल।

 

3


चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ पंजाब प्रांत के ‘गुलेर’ जिले से थे। ब्रिटिश राज के दौरान पंजाब प्रांत में वर्तमान पंजाब के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं पाकिस्तानी पंजाब प्रांत का भाग शामिल था। पंजाब की भाषा, समाज और संस्कृति से गुलेरी को गहरा लगाव था। उनकी ग्रंथावली का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि वे स्वयं कई बार लायलपुर एवं अमृतसर जैसे शहरों में गए थे। वहाँ की स्थानीय संस्कृति एवं सिख धर्म की सांस्कृतिक-सामाजिक परम्पराओं से वे बखूबी परिचित थे। इसलिए जब उनकी कहानी में पंजाब की स्थानीय प्रकृति, संस्कृति एवं आँचलिकता का अद्भुत कलात्मक संयोजन देखने को मिलता है तो आश्चर्य कैसा? कहानी में पंजाब प्रांत के कई शहरों (अमृतसर, लायलपुर, लुधियाना, नगरकोट, जगाधरी, शिमला, चंबे, मगरे, माँझे आदि) की जलवायु एवं भौगोलिक विशेषताएँ उभरती हैं तो वे लेखक के अनुभव एवं दृष्टि का परिणाम है। कहानी के आरम्भ में अमृतसर उन स्थानीय विशिष्टताओं के साथ आया है जो अन्य शहरों में सामान्यतः देखने को नहीं मिलेंगी। हर शहर की अपनी तासीर होती है अमृतसर शहर की न हो ऐसा कैसे हो सकता है? कहानी के प्रथम अंक में प्रयुक्त वाक्य अमृतसर की बनावट की विशिष्टता को उभारता है। गुलेरी लिखते हैं- “सफ़ेद फेटों, खच्चरों और बतकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं।यानी अमृतसर की गलियाँ भीड़भाड़ वाली हैं। उनमें से गुजरना चुनौतीपूर्ण है। इस चुनौती का सामना करने के लिए इक्केवाले व्यंजनाधर्मी भाषा का प्रयोग करते हैं। वे विशिष्ट भाषा-प्रयोग में पारंगत हैं। मसलन वहाँ के इक्के वालों की भाषा जो गुलेरी जी के शब्दों मेंमीठी छूरीकी तरह है, जो मलहम का काम करती है।मीठी छूरीउसकी व्यंजनाधर्मिता की और संकेत है तो मलहम स्थानीय भाषा की खूबी को व्यक्त करता है। अमृतसर के इक्केवाले गाली-गलौच नहीं, व्यंजना से काम लेते हैं। व्यंजना के साथ उस शब्दावली में स्थानीयता की रंगत और मिजाज देखने योग्य है। बचो खालमाजी’, ‘हटो भाई जी’, ‘ठहरना भाई’, ‘आने दो लालाजी’, ‘हटो बाछाजैसी पंजाबियत से युक्त शब्दावली इस अहसास को पुख्ता करती है। भाषा की बारीकियों पर गुलेरी जी विशेष ध्यान देते हैं। जैसे वे देखते हैं कि इक्के वाले भाषा के प्रयोग में लोगों की हैसियत और अवस्था का भी ध्यान रखते हैं। यदि स्त्री वृद्धा है तो उनकी भाषा का स्वरूप होता है- ‘हट जा जिणए जोगिए,हट जा करमा वालिए,जा हट जा, पुत्तां प्यारिए,बच जा, लंबी वालिए!’ आदि। यहाँ अमृतसर का वैशिष्ट्य तो उभरा ही पंजाबी की रवानगी भी नज़र आती है। कुछ इसी तरह का चित्रण भगवतीचरण वर्मा ने अपनीकहानीदो बाँकेमेंलखनऊका किया है।

 

            सैनिकों द्वारा युद्धस्थल पर समय व्यतीत करने हतु सुखद भविष्य की कल्पनाएँ करना उबाऊ परिवेश में ताजगी लाने के समान हैं। ये कल्पनाएँ जीवन में उनके विश्वास को व्यक्त करती हैं। लहना सिंह और अन्य सैनिक कई दिनों से मोर्चे पर डटे हुए हैं। समय काटने के लिए वे कई तरह की बातें करते हैं। इसी प्रसंग में वे ‘रिलीफ’ आने एवं बैरक में लौटने के बाद अपने हाथों झटका करेंगे16 की चर्चा करते हैं। माँसाहार वैसे तो किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत चुनाव है। परंतु जब वे ‘झटका करना’ पद का प्रयोग करते हैं तो उससे सैनिकों की आशा-उमंग के प्रकट होने के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ भी उभरते हैं। सिख समाज में ‘झटके वाला’ माँस खाना अवैध नहीं है जबकि मुस्लिम समाज में ‘हलाल’ माँस खाना ही वैध है। वहीँ हिंदू समाज में मांसाहार एवं शाकाहार को लेकर कई मत प्रचलित हैं।

 

पूर्व में बताया जा चुका है कि कहानी के चार खंड युद्धस्थल से जुड़े हैं। युद्धस्थल पर वाणी ओजस्वी न हो तो सैनिकों में उत्साह कैसे बना रहे? गुलेरीजी इसे समझते हैं तभी वे समय-समय पर प्रसंगानुसार सैनिकों से वाहे गुरूजी की फतह! वाहे गुरूजी का खालसा! एवं अकाल सिक्खाँ दी फ़ौज आयी! वाहे गुरूजी की फतह! वाहे गुरूजी का खालसा!! सत् सिरी अकाल पुरुष!!!”17 जैसे सूक्त-वाक्यों का प्रयोग कराते हैं। यानी वे सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों के साथ-साथ सैनिक रणनीति को भी ध्यान में रखते हैं। जब लहनासिंह को लपटन साहब के वेश में एक जर्मन के आने का इल्हाम होता है तो वह वजीरासिंह को तुरंत सूबेदार को सूचित करने एवं लौट आने का निर्देश देकर भेजता है। वजीरासिंह मोर्चे पर मात्र आठ सैनिकों के होने को लेकर अपनी चिंता प्रकट करता है तो लहनासिंह उसे कहता है "एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। गुलेरीजी चाहते तो वाक्यों के स्थान पर कोई अन्य वाक्य प्रयुक्त कर सकते थे परंतु उन्होंने इन वाक्यों के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक संदर्भों के साथ सैन्य रणनीतिक दृष्टिकोण से इनकी महत्ता को समझा और युद्धस्थल पर सकारात्मक वातावरण निर्मित करने में सफल सिद्ध हुए। ऐसे वाक्यों सैनिकों के उत्साहवर्धन की पूर्ति के साथ उनकी आस्था को भी प्रकट करते हैं। यह आस्था उनके सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का अटूट हिस्सा है तभी वे युद्धस्थल ही नहीं, दैनिक जीवन में भी "गुरू उनका भला करें या मत्था टेकना लिखनाजैसी शब्दावली का बारंबार बारम्बार प्रयुक्त करते हैं।

 

लहनासिंह का केश धोने के लिए दही लेने, बच्चे के जन्मदिवस पर पेड़ रोपने या लड़की का कढ़े हुए सालू को दिखाते हुए अपनी ‘कुडमाई’ की सूचना देना, ये सभी प्रसंग सांस्कृतिक दृष्टि से कहानी की महत्ता को ही इंगित करते हैं।

 

4


‘उसने कहा था’ कहानी की भाषा आश्चर्यजनक है! निश्चय ही गुलेरीजी ने अभिव्यंजना कौशल को विकसित करने में बड़ा परिश्रम किया है। वे भाषा के जादूगर हैं। भाषा के साथ ‘भाखा’ पर उनकी गहरी पकड़ है। सृजनात्मक भाषा का अनुपम उदहारण है उनकी भाषा। उन्होंने कहानी की माँग के अनुरूप भाषा निर्मित की हैं। यदि शब्द उनके संदर्भ या प्रसंग के अनुकूल नहीं तो वे उसे घिसकर या कहें ठोक-पीटकर प्रयुक्त करते हैं। इससे कहानी की आँचलिक विशिष्टता एवं लोक से उसकी निकटता बनी रहती है।

 

आँचलिकता कहानी का विशिष्ट गुण है। हिन्दी में प्रेमचंद से आँचलिक कहानी का आरंभ माना जाता है और फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य में वह अपने उत्कर्ष को छूती है। परंतु बहुत कम लोगों को जानते हैं कि गुलेरीजी की कहानियों पर आँचलिकता का प्रभाव है। उनकी कहानी में आँचलिक शब्दावलियों का संदर्भानुसार प्रयोग हुआ है। वे बड़ी सतर्कता से शब्दों का चुनाव करते हैं। ‘बड़’ का पेड़ ग्रामीण जीवन में विशिष्ट स्थान रखता है। इसका प्रयोग पाठक को अंचल विशेष से जोड़ता है। लहनासिंह घावों से रक्त के अत्यधिक रिसाव को रोकने के लिए गीली मिटटी को जख्म में भर लेता है जिसके लिए गुलेरीजी ने ‘पूर लिया’ पद का प्रयोग किया है। मिटटी पूरने का यह प्रसंग किसानी जीवन को स्मृत कराता है। उनकी कहानी में चितौनी’, ‘उदमी’, ‘सौहरा’, ‘कोले’, ‘पारसाल, आदि शब्द उल्लेखनीय हैं। चितौनी जहाँ चेतावनी का अप्रभ्रंश रूप है वहीँ कोले कोयले का। उन्होंने ठेठ आँचलिक रंगत के शब्द प्रयुक्त करने में भी संकोच नहीं किया है। लडढी’, ‘गुथ’, ‘घुसेड़’, ‘मोरी’, ‘छाबड़ी’, ‘खोते,मादे,सौदा’, ‘मेह जैसे शब्द मानक भाषा में शामिल हो न हों उन्हें फर्क नहीं पड़ता। उनके लिए साध्य महत्वपूर्ण है साधन नहीं। मानक या लोक भाषा से जब उन्हें उचित-अनुकूल शब्द नहीं मिलता तो वे आवश्यकता के मुताबिक शब्द गढ़ लेने में भी गुरेज नहीं करते। घागरिया पलटन, तुरंत बुद्धि या मीन गौट्ट स्थानीय भाषा के अनुरूप निर्मित किए शब्द ही हैं।

 

गुलेरीजी के शब्द-प्रयोग चरित्रों को समझने की कुंजी भी हैं। उनके शब्द-प्रयोग व्यक्तित्व को उजागर करने के साथ व्यक्ति की मनःस्थिति को भी प्रकट करता है। ‘देखते नहीं रेशम से कढ़ा यह सालू’ वाक्य में स्त्री की पीड़ा और विवशता तो है ही, इसमें सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा के संदर्भ भी सुरक्षित हैं। इसे समझने के लिए विमल राय की फिल्म के इस दृश्य को देखना चाहिए। इसी तरह उसने कहा था की बारम्बार स्मृतिक आवृत्ति लहनासिंह के प्रेम को व्यंजित करती हैढीले सुथने, केश और लाड़ी हौरां जैसी शब्दावली चरित्रों के व्यक्तित्व से जुड़ी है तो गुरूबाजार,कुड़माई,पाजी,पाधा जैसी शब्दावली से पंजाबी संस्कृति और लोकधर्मिता को उभारती है।

 

गुलेरीजी भाषा के प्रति कठोर नीति का अनुसरण नहीं करते। वे भाषा के प्रयोग में लचीले रहे हैं। इसी लचीलेपन का परिणाम है कि वे संदर्भ और परिस्थितियों के अनुरूप भाषा प्रयुक्त करते हैं। उन्हें न उर्दू के शब्दों से परहेज़ है न अंग्रेजी के शब्दों से। यदि जरूरत हुई तो वे संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकते। उन्होंने कहानी की व्यंजना-क्षमता में वृद्धि के लिए स्थानीय या कहें लोकभाषा के शब्दों को भी प्रयुक्त किया है। उनकी कहानी में प्रयुक्त उर्दू शब्दों की सूची देखिए- ऐन, तिरसठ, गनीम, गैबी, जलजला, बेईमान, मुल्क, हुक्म, देहली, हुकुम हुजूर, खानसामा, कैद, मिजाज, लफ्ज, तावीज, मुर्दा, नजदीक, कसम, कमरबंद, मुकदमा, पैरवी, फौरन, ख़िताब, नमकहलाली, तख्ते आदि। ये शब्द तत्कालीन दौर में रोजमर्रा के जीवन में प्रयुक्त होने वाली भाषा से संबद्ध हैं और इनमें से अधिकांश शब्द आज भी हमारी दैनिक भाषा में प्रचलित हैं। ध्यातव्य यह भी है कि इनके अर्थ को समझने के लिए किसी शब्दकोश को देखने की आवश्यकता नहीं है।

 

गुलेरीजी जयपुर के मेयो कॉलेज में अध्यापन करते थे। इसमें देसी राजे-रजवाड़ों से जुड़े परिवारों के सदस्य पढ़ते थे। अंग्रेजी उनके पाठ्यक्रम से जुड़ी थी। ऐसी परिवेश में गुलेरीजी अंग्रेजी के प्रभाव से कैसे मुक्त रहते? उन्होंने अंग्रेजी को पढ़ा-समझा इसीलिए उनकी कहानी में अंग्रेजी के शब्द प्रयुक्त हों तो इसे सहज रूप में लेना चाहिए। उनकी कहानी में क्वाटरों’ ‘रेजिमेंट’ ‘फील्ड’ ‘टेलीफोन’ ‘फायर’ ‘हैनरी मार्टिनी’, ‘रिलीफ़’, ‘मार्च’18., ‘जनरल’, ‘सिगरेट’, ‘मैस’, ‘डायरी’ जैसे शब्दों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। ये शब्द ऐतिहासिक आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। समझना यह है कि कहानीकार ने अंग्रेजी शब्दों के चयन में सावधानी बरती है और आवश्यकतानुसार ही इनका प्रयोग किया। संदर्भ से जुड़ने के कारण इनसे कहानी की प्रभावोत्पादकता में वृद्धि हुई है।

 

गुलेरीजी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे तब यह कैसे हो सकता है कि उनकी कहानी में संस्कृत के शब्दों का प्रयोग न हो? वे ऐसे प्रसंग खोज लेते हैं जहाँ संस्कृत-परम्परा से उनकी कहानी जुड़ सके। वे संस्कृत के प्रति सहज थे इसलिए उन्होंने उसका सहज प्रयोग भी किया। तर्पण, कपल-क्रिया, संस्कृत, क्षयी, दन्तवीणोप्देशाचार्य आदि शब्दों के साहित्यिक-सांस्कृतिक संदर्भों के साथ प्रयुक्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त रोजमर्रा के जीवन में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत-शब्द भी कहानी में हैं जिनसे कहानी में सहजता आई है और सहजता सौंदर्य में वृद्धि करती है। सूर्य, प्रार्थना, ग्लानि, लहू, भूमि, ज्वर, सौगन्ध, प्राण, स्मृति, मृत्यु, दृश्य, दुःख, क्रोध, मूर्च्छा, स्वप्न, वर्ष, प्राण, भिक्षा आदि ऐसे ही शब्द हैं। इनके अर्थ को समझने के लिए भी किसी शब्दकोश को देखने की आवश्यकता नहीं है।

 

          लोकोक्ति एवं सूक्त वाक्यों के प्रयोग से कहानी के सौंदर्य में वृद्धि हुई है। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही19 जैसे कथन कई दिनों से ड्यूटी पर तैनात सैनिकों की ऊब और बैचेनी को व्यक्त करते हैं। भाषा को रोचकता एवं आकर्षण पैदा करने के लिएहैनरी मार्टिनी के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दीजैसे वाक्यों का प्रयोग भी अद्भुत है। इसी तरह हड्डियों में जाड़ा धँस गया हैस्थानीय स्तर पर प्रयुक्त होने वाला सामान्य वाक्य है परन्तु फ्रांस और बैल्जियम की सीमा पर तैनात सैनिक जब ऐसा कहें तो इससे सर्दी की तीव्रता महसूस की जा सकती है। कहानी में व्यंजना शब्द-शक्ति का प्रयोग भी हुआ है। दाढियों वाले, घरबारी सिख ऐसे लुच्चों का गीत गायेंगेइसी तरह का वाक्य है। वाक्य में 'दाढ़ियों वाले', 'घरबारी' एवं 'लुच्चों का गीत' आदि पदों के सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक एवं धार्मिक निहितार्थ हैं। इनकी व्यंजना बहुआयामी है।

मुहावरों का सधा प्रयोग भी ‘उसने कहा था’ कहानी में हुआ है। कहानीकार ने मुहावरों का संदर्भ और परिस्थितियों के अनुकूल प्रयोग किया है। 'तक-तककर मारना', 'माथा ठनका', 'धावा करना', 'त्यौरी चढ़ाना', 'क़यामत आना', 'आँखें लगना', 'पत्ता तक न खड़कना', 'खबर लेना', 'चकमा देना' जैसे मुहावरों के स्वाभाविक प्रयोग से कहानी की भाषा में प्रोढ़ता और जीवन्तता आई है। 'खेत रहे' और 'दो चक्की के पाटों के बीच आना' जैसे मुहावरों के प्रयोग में लोकानुभव की पैठ नजर आती है। इस तरह का अनुभव कबीर के दोहों में भी व्यक्त हुआ है।

 

5


‘उसने कहा था’ कहानी का शिल्प, उसकी कलात्मकता और फ्लेश्बेक तकनीक भी उल्लेखनीय है। कहानी अंतर्वस्तु, संरचना, गठन, शिल्प, भाषा, परिवेश आदि दृष्टियों से परिपक्व है। पूर्वदीप्ति शिल्प का सृजनात्मक प्रयोग महत्वपूर्ण है। इसी से इसका हिन्दी कहानी के इतिहास में ऐतिहासिक महत्व है। प्रेम जैसे मानवीय मूल्य का जो ह्रास वर्तमान समय में दिखता है उस दृष्टि से भी यह कहानी अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने में सफल हुई है। परंतु मानवीय त्रासदी को उजागर करता कथा का अंत बेहद करुणाजनक है। धर्मवीर भारती लिखते हैं –

 

और जोउसने कहा था’, वह लहना ने किया। अपनी जान खतरे में डालकर उसने बोधा और सूबेदार के प्राण बचाए। किसी ने भी जाना उसने अपने सीने पर कितना बड़ा घाव झेला है। लहना चाहता (था) कि वह अपने गाँव में अपने हाथ से लगाए हुए आम के पेड़ की छाया में अंतिम साँसें लेलेकिन कौन जानता था कि साँसों का कमज़ोर डोरा अपने गाँव से हज़ारों मील दूर, इस परदेश में फ़्रांस के कीचड़ भर खाई में टूटेगा, जहाँ उसका भाई कीरत सिंह होगा, उसका छोटा बच्चा होगा जिसके जन्म के समय उसने आम बोया था। बगल में होगा सिर्फ़ वज़ीरा।।।20

 

यहाँ ठहरकर ज़रा इन कथनों पर गौर करें निमोनियासे मरने वालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।21 औरकुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा” - “फ़्रांस और बेल्जियम-६८ वीं सूची - घावों से मरानं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।22 ये कथन ऐतिहासिक विडम्बना को उजागर करते हैं। वस्तुतः फ़्रांस और बेल्जियम की सीमा पर लड़े जा रहे युद्ध का वास्तविक नायक लहनासिंह था। इस लड़ाई में 15 सिख एवं 63 जर्मन मरे थे। यह लहनासिंह की सूझबूझ, तुरंत बुद्धि एवं तार्किकता का परिणाम था कि उसने सूबेदार की अनुपस्थिति में स्वयं नेतृत्व लिया और अपने साथियों की जान बचाई। परंतु विडंबना देखिए अखबार में न लहनासिंह की वीरता का जिक्र, न उसकी सूझबूझ का उल्लेख, न उसकी मानवता का वर्णन, न उसके परिवार को पेंशन का देने पता, न उनका साक्षात्कार, न पुरस्कार एवंमुरब्बे23 मिलने की घोषणा, न ही लहना सिंह को शहीद का दर्जा! पत्रकारों ने जैसे ‘सरकारी’ प्रेस विज्ञप्ति छाप दी हो! किस तरह की थी वह पत्रकारिता जिसका भारतीय जन-सरोकारों से कोई संबंध नहीं? क्या ऐसी पत्रकारिता को साम्राज्यवादी मानसिकता की शिकार पत्रकारिता नहीं कहना चाहिए? लहनासिंह की वीरता एवं सूझबूझ के स्थान पर मीडिया में केवल घावों से मृत्यु की सूचना औपनिवेशिक दौर के अंतर्विरोध को ही उजागर करती है। बहरहाल।

 

कहानी के प्रथम अंक में लहनासिंह ठोकर खाता, टकराता घर पहुँचता है तो दुःख होता है। परन्तु उस दुःख से करुणा नहीं जागृत होती। करुणा क्यों जागृत नहीं होती? क्योंकि ऐसी घटनाएँ आम हैं। ऐसी घटनाएँ अमूमन हर व्यक्ति के जीवन में घटित होती हैं। कहानी के मध्य के बाद मृत्युशय्या पर पड़े-पड़े उसकी “स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ़ होते हैं, समय की धुंध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।”24 क्यों लेखक ऐसा लिखता है? क्या मात्र पूर्वदीप्ति शिल्प25 (तकनीक) का कलात्मक प्रयोग करने हेतु? नहीं। उसके निहितार्थ कुछ ओर हैं। पूर्वदीप्ति शिल्प साधन है साध्य नहीं। इसके निहितार्थों पर चर्चा से पूर्व आलोचक बच्चन सिंह के विचार देखते हैं। लिखते हैं- “तकनीकी मामले में यह कहानी प्रश्न उठाती है कि स्थानीयता, पूर्वदीप्ति, स्वप्न आदि तकनीकियाँ इसमें कहाँ से आ गईं, कैसे आ गईं? संभव है उन्हें पश्चिमी प्रभाव से मिली हो, संभव है, अपने ही विशाल साहित्य के मंथन से प्राप्त हुई हो.”26 भारतीय या कहें पूर्व के साहित्य का जिसने अध्ययन किया है वह निःसंकोच कह सकता है कि ये तकनीकियाँ भारतीय या कहें पूर्व की साहित्यिक परम्परा का सहज परिणाम हैं। बहरहाल, मूल मुद्दे पर लौटते हैं। लहनासिंह का मृत्युशय्या पर पड़े-पड़े अपनी स्मृतियों में आना-जाना एवं कई गुजरे प्रसंगों को सोचना। “हां कल हो गयी, देखते नहीं, यह रेशम के फूलोंवाला सालू?” इस कथन के बाद गुलेरीजी का लिखना, “सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?” फिर “उसने कहा था” कथन का बारम्बार स्मृति में उभरना क्या इंगित करता है? मानवता, प्रेम या औपनिवेशिक हितों की रक्षा हेतु कटिबद्ध सैनिक का बलिदान? फिर आठ घंटे तक चुप्पी के बाद उसकी चेतना का लौटना। फिर उसके परिवार एवं मातृभूमि के प्रति प्रेम का उभरना। इन सभी एक के बाद एक दृश्यों के चलचित्र की तरह उभरते चले जाने के बाद जब आप युद्ध के रक्तरंजित मैदान पर लौटते हो और वजीरासिंह जैसे विदूषक की गोद में लहनासिंह जैसे वीर सैनिक को देखते हो तो कैसा महसूस होता है? क्या आपमें भावुकता की निर्झरिणी नहीं फूटती? नायक चेतनाशून्य होता जा रहा है और विदूषक की आँखों से टप्-टप् आँसू टपक रहे हैं। एक तरह का मौन विलाप! हास्य पैदा करने वाला विदूषक विषादग्रस्त अवस्था में! ऐसी स्थिति में दुःख नहीं, शोक प्रबल होगा तथा शोक की प्रबलता से करुणा जागृत होगी। अब ज़रा सोचिए ऐसी करूणाजनक स्थिति और उसमें अख़बारों की रिपोर्टिंग का संवेदनशील भारतीय पाठक के ह्रदय पर कैसा असर होगा? एक के प्रति करुणा दुसरे के प्रति क्रोध को जन्म देगी कि नहीं? और इससे जो क्रौध उत्पन्न होगा वह किस पर होगा? क्या इसके परिणाम के विषय में गुलेरीजी ने नहीं सोचा होगा? क्या लहनासिंह की वीरता, साहस, बलिदान, मानवीयता, प्रेम, सूझबूझ, कुशल नेतृत्व क्षमता, तुरंत बुद्धि की चर्चा वे भारतीयों के मध्य कराना चाहते थे? तब क्या इसे औपनिवेशिक एवं रूढ़ मानसिकता के विरोध की एक उदात्त त्रासदी नहीं कह सकते? लहनासिंह की दुखद कथा करूणा से होती हुई अंततः त्रासदी में ही परिणत होती है! वस्तुतः कहानी का यह अंत ऐतिहासिक विडम्बना, औपनिवेशिक यथार्थ और मानवीय त्रासदी को उजागर करता है। यह कहानी प्रेम और युद्ध के दो छोरों को बेहद संजीदगी से उभारती है और मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण मनुष्य की गति को प्रकट करती है। कहानी के ओर कई पाठ किए जा सकते हैं। अंतर्पाठीयता एवं अंतःअनुशासनिक दृष्टि से यह एक संभावनाशील उदात्त कहानी हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी कहानी में विशिष्ट स्थान रखती है

 

संदर्भ :

 

1.       हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-1952, नौवीं आवृति-2009, पृष्ठ संख्या-224

2.       आलोचक नामवर सिंह ने अपने लेखसौ साल की एक कहानी : उसने कहा थामें इस संदर्भ में कुछ तथ्य प्रस्तुत किए हैं।

3.       रंग प्रसंग-35’, सम्पादक-प्रयाग शुक्ल, जुलाई-अगस्त, 2009, पृष्ठ संख्या : 123-24

4.       हिदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, पांचवां संस्करण : संवत् 2006, पृष्ठ 504-5

5.       गुलेरी रचनावली, खण्ड-2, सम्पादक-डॉ. मनोहरलाल, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली-02, प्रथम संस्करण-1991, पृष्ठ संख्या-371-72 [समालोचक, जनवरी-अप्रेल, 1905]

6.       उसने कहा था कालजयी कहानियाँ, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, सम्पादक-उदय प्रकाश, वाणी ग्रंथाली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2002, पृष्ठ : 117

7.       लायलपुर का उल्लेख गुलेरी जी के कई पत्रों में आया है. वे व्यक्तिगत तौर पर वहाँ दो बार गए थे. शहीद क्रांतिकारी भगत सिंह के दस्तावेजों में भी अंग्रेजों द्वारा लायलपुर में जमीन देने का उल्लेख है. इसके अतिरिक्त आचार्य नरेद्र देव की पुस्तक राष्ट्रीयता और समाजवाद में भी अंग्रेजों द्वारा लायलपुर में जमीन देने का उल्लेख मिलता है.

8.       उसने कहा था कालजयी कहानियाँ, उपर्युक्त, पृष्ठ : 118

9.       सौ साल की एक कहानी : उसने कहा था, नामवर सिंह, http//hindisamay.com/content/6881/1

10.    उसने कहा था कालजयी कहानियाँ, उपर्युक्त, पृष्ठ : 97-98

11.    उपर्युक्त, पृष्ठ : 98

12.    उपर्युक्त, पृष्ठ : 99

13.    उपर्युक्त, पृष्ठ : 99

14.    उपर्युक्त, पृष्ठ : 110

15.    उपर्युक्त, पृष्ठ : 99-100 ( दिल्ली शहर से पेशावर को जाने वाली! बाज़ार में लौंगों का व्यापार कर लेना। अरी! नाड़े का सौदा भी कर लेना। ओय। अब हमें कद्दू चखना है। गोरे वर्णवाली! कद्दू अत्यंत स्वादिष्ट पका है! अब हमें कद्दू चखना है।)

16.    उपर्युक्त, पृष्ठ : 95

17.    उपर्युक्त, पृष्ठ : 112

18.    मार्च महीने के लिए नहीं, बल्कि सैनिकों की कवायद की जानकारी हेतु प्रयुक्त हुआ है।

19.    उसने कहा था कालजयी कहानियाँ, उपर्युक्त, पृष्ठ : 95

20.    रंग प्रसंग-35’, सम्पादक-प्रयाग शुक्ल, जुलाई-अगस्त, 2009, पृष्ठ संख्या-132

21.    उसने कहा था कालजयी कहानियाँ, उपर्युक्त, पृष्ठ : 99

22.    उपर्युक्त, पृष्ठ : 120

23.    नहरों के पास की सिंचित एवं उपजाऊ वर्गभूमि।

24.    उसने कहा था कालजयी कहानियाँ, उपर्युक्त, पृष्ठ : 116

25.    कालांतर में पूर्वदीप्ति शिल्प/तकनीक का प्रयोग अज्ञेय ने ‘शेखर: एक जीवनी’ और जैनेन्द्र ने ‘त्यागपत्र’ उपन्यास में किया।

26.    कथा साहित्य के सौ बरस, सम्पादक-विभूति नारायण राय, शिल्पायन प्रकाशन, संस्करण-2001, पृष्ठ संख्या-420 [प्रेम और त्याग की महागाथा, बच्चन सिंह]

 

डॉ. शहाबुद्दीन

सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम शासकीय महाविद्यालय

संघप्रदेश दादरा एवं नगर हवेली, सिलवासा-396230

8128969321, shah2971983@gmail.com 


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021
चित्रांकन : दीपशिखा चौधरी, Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

Post a Comment

और नया पुराने