शोध आलेख : समय और समाज की नब्ज़ टटोलती संजीव की कहानियाँ -डॉ. मीनाक्षी चौधरी

समय और समाज की नब्ज़ टटोलती संजीव की कहानियाँ

डॉ. मीनाक्षी चौधरी




शोध सार
संजीव समकालीन जनवादी कथाधारा के एक बेहद संवेदनशील रचनाकार हैँ। इनकी कहानियाँ सामाजिक-राजनीतिक सोद्देश्यता की कहानियाँ हैँ। संजीव की कहानियाँ मुख्यतः निम्न एवं निम्न मध्यमवर्गीय समस्याओं,  चिंताओं और उनकी मुक्ति की आकांक्षा से संबंद्ध रही हैँ। इन्होंने अपनी कहानियों में एक ओर जहाँ निम्न वर्ग के दुख-दर्द को अभिव्यक्तकिया है,  वहीं दूसरी और इनके कारणों पर प्रकाश डालते हुए,  इस वर्ग को जाग्रत और संगठित करने का प्रयास भी किया है। संजीव स्वीकार करते हैं कि उनका लेखन उद्देश्यपरक है तथा वर्ग-विहीनएवं वर्ण-विहीन समाज की स्थापना उनके लेखन का एकमात्र उद्देश्य है। समकालीन सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण करते हुए उन्होंने पारिवारिक संबंधों में बदलाव,  स्त्री-पुरुष संबंधों में बिखराव,  संयुक्त बनाम एकाकी परिवार,  स्त्रियों की सामाजिक स्थिति,  वर्ग-भेद,  गरीबी,  अशिक्षा,  बेरोजगारी,  भ्रष्टाचार,  बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद के दुष्परिणामों आदि का चित्रण अपनी कहानियों में किया है। समय के साथ समाज में आ रहे बदलावों को लेखक ने बड़ी चतुराई से पकड़कर अपनी कहानियोँ में प्रस्तुत किया है।

 

बीज शब्द : समकालीन,  जीवन-दृष्टि,  ग्राम्य संवेदना,  अर्थाभाव,  शाश्वत,  सह-अस्तित्व, वर्ग-भेद, चक्रव्यूह, व्यर्थता-बोध, उपभोक्तावाद,  संस्कृति, प्रतिस्पर्धा, साम्यवाद, विघटन।

 

मूल आलेखसंजीव समकालीन समय के संवेदनशील एवं सशक्त रचनाकार हैं,  जिन्होंने अपने आसपास के समाज को बहुत गहराई से जाना,  समझा और महसूस किया है। उनके जीवन में बहुत कुछ ऐसा घटित हुआ,  जिसने उनकी जीवन-दृष्टि और जीवन जीने के नजरिए में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया। उन्होंने आसपास की घटनाओं का निष्पक्ष किंतु संवेदनशील दर्शक के रूप में पर्यवेक्षण किया एवं अपने अनुभवों व मन की अनुभूतियों को प्रभावशाली रचना-शैली के माध्यम से रचनाओं के रूप में अभिव्यक्त किया। डॉ. रविभूषण के शब्दों में "संजीव की कहानियाँ निजी और पारिवारिक न होकर सामाजिक हैं। वहाँ उनका समय अपनी विविधताओं में मौजूद है,  उनके इस व्यापक कथा संसार में मौजूदा समय और समाज की तमाम सच्चाईयाँ हैं।"1

 

संजीव के जन्मकाल के आसपास का समय,  सन् 1945-46 का जमाना,  जब देश,  विदेशी हुकूमत की गिरफ्त से मुक्त होने की कशमकश झेल रहा था,  संजीव के परिवारजन अपनी गरीबी एवं सामंती शोषण से तंग आकर अपनी जन्मभूमि से विस्थापित हो रहे थे। इनके पैतृक गाँव में ठाकुर जाति के लोगों का पूरा दबदबा था। ठाकुर जातिगत घमण्ड से लबालब एवं ऐय्याशी प्रवृत्ति के थे। "मुड़कर देखता हूँ तो लगता है,  कोई कह रहा है....देख ठाकुर आ रहे हैं,  खाट से उठकर 'जैराम बाबू'कहना।.....और यह गिलास,  इसमें धोबी-चमार को पानी दे दिया? फेंको-फेंको गिलास! अब तुमरे दरवज्जे कौन बड़मनई पानी पियेगा?"2संजीव के बचपन की इन सभी छोटी-बड़ी बातों व घटनाओं ने उनके व्यक्तित्व एवं विचारों को प्रभावित किया। ऐसा ही था उनके गाँव का परिवेश। इसी विषैली हवा में उनका बचपन एवं पारिवारिक जीवन बीता। वे स्वतंत्रता पूर्व एवं स्वतंत्रता पश्चात्,  आम आदमी के जीवन में बदलाव महसूस नहीं कर पा रहे थे।

 

संजीव मन प्राण से सहज,  ग्राम्य संवेदना में रचे-बसे मूलतः गंवई संस्कार के आदमी हैं। उन्होंने जमींदारों के अत्याचारों से पीड़ित जनता के क्रंदन,  किसानों की दयनीय स्थिति,  उनकी जटिल समस्याएँ,  जातिप्रथा,  छूआछूत,  सांप्रदायिकता,  धार्मिक पाखंडों को बहुत नज़दीक से देखा और महसूस किया। उनके जीवन में तिक्त अनुभूतियों का आधिक्य रहा,  जिनको उनकी रचनाओं में आसानी से महसूस किया जा सकता है। संजीव की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे अपने जीवन में व्यक्तिगत स्तर पर घटित घटनाओं को सामाजिक रूप देकर प्रस्तुत करते हैं और उन्हीं घटनाओं के ताने-बाने से कथानक का निर्माण करते हैं। उनके जीवन की वास्तविक घटनाएँ कल्पना का सहारा लेकर कथानक के रूप में अनेक उपन्यासों व कहानियों में विद्यमान हैं।

           

संजीव ने अपनी कहानियों में जीवन के अर्थाभावों का,  रिश्ते-नातों पर पड़ते आर्थिक दबाव का और अनेक कारणों से सम्बन्धों में आ रहे बिखराव का सशक्त और मार्मिक चित्रण किया है। सम्बन्धों में बिखराव के कारण टूटते व्यक्ति की पीड़ा को अभिव्यक्त कर पाने में उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। लोड शेडिंगकहानी में सदस्यों में रिश्तों की गर्माहट समाप्त हो चुकी है। "हम सह-अस्तित्व के उस दौर में हैं जहाँ सह-अस्तित्व गौरव नहीं मजबूरी बन चुका है।3परिवार में भैया,  भाभी,  बहन शीला,  भाई के दो बच्चे व वाचक हैं,  किन्तु सभी एक-दूसरे से नजरें चुराते हैं,  "दरअसल सम्बन्धों को हम जी नहीं रहे हैं,  महज निबाहे जा रहे हैं। ऊपर से हम सौम्य,  शिष्ट हैं,  मगर अंदर ही अंदर चोर निगाहों से एक-दूजे को देखने लगे हैं।"4यहाँ यह देखने की आवश्यकता है कि पारिवारिक ताने-बाने में मौजूद स्थाई ऊब और वहाँ होने वाले तीक्ष्ण घात प्रतिघात की जड़ें आखिर कहाँ हैं?,  इन घुटन भरी परिस्थितियों को खाद-पानी कहाँ से मिल रहा है? ये रीते-बुझे संबंध संकट की व्याप्ति के बारे में किस ओर इशारा कर रहे हैं? निश्चय ही घर की चारदीवरी के पार से आने वाली समकालीन परिस्थितियों की जहरीली आबोहवा रिश्तों के अन्तर्मनों तक पहुँच कर संबंधों को विषाक्त कर रही है।

           

वर्तमान समय में पिता-पुत्र,  पति-पत्नी,  भाई-भाई,  भाई-बहिन जैसे शाश्वत सम्बन्धों की ऊष्मा भी समाप्त होती जा रही है। भाई-भाई के मध्य सम्बन्धों के खिंचाव को हम संजीव की कहानी कुछ तो होना ही चाहिएमें देख सकते हैं। तेतुल और उसका पिता जीवित होते हुए भी कागजातों में मरे पड़े हैं। बूढ़ा कहता है,  "न जमींदार,  न ठेकेदार,  न साहूकार,  न मुखिया,  सरपंच और न ही गुंडा। जिसने यह किया,  वह मेरा अपना ही छोटा भाई था।"5बूढ़े का परिवार नामक संस्था से मोहभंग हो चुका है,  वह कहता है,  "परिवार एक चक्रव्यूह है,  जिसमें प्रवेश करने वाला अभिमन्यु मौत के बाद ही निजात पाता है,  इसके पहले नहीं... और मारता कौन है,  वही उसके स्वजन। सिर्फ सूई भर जमीन के लिये जिन्दगी का इतना बड़ा महाभारत!"6संजीव की एक अन्य कहानी धावकमें अशोक दा के लिए उसकी गरीब माँ,  उसका भाई व बहन मखमल में टाट के पैबंद समान हैं,  जिन्हें छिपाने की वह भरसक कोशिश करते हैं,  "फिर भी ये उनकी जड़े थीं जो निहायत बदसूरती और बेहूदगी से सिर उठाये उभरी हुई थी। इस बात को वे भूल नहीं पाते।"इस कहानी में संजीव ने सम्बन्धों के चूकने की स्थिति को कलात्मक स्तर पर अभिव्यंजित किया है।

 

बदलती समकालीन परिस्थितियों जैसे नगरीकरण,  औद्योगीकरण आदि के कारण जैसे-जैसे व्यक्ति के जीवन में हताशा-निराशा,  ऊब,  उदासी,  संघर्ष,  मानसिक तनाव, व्यर्थता-बोध के हादसे बढ़ते जा रहे हैं,  वैसे-वैसे अकेलापन,  यांत्रिकता,  उलझन,  त्रासद जैसी स्थितियाँ उस पर हावी हो रही हैं। आज व्यक्ति स्वयं को सामाजिक स्तर पर संकट से घिरा हुआ पाता है। पारिवारिक स्तर पर टूटा हुआ,  अकेला महसूस करता है,  और निजी स्तर पर खुद से ही खफा व ऊबा हुआ तथा आत्मनिर्वासित अनुभव करता है। इन सब बदलते हुए प्रभाव से संवेदनशील रचनाकार स्वयं को अधिक समय तक अलग नहीं रख सकता है। इसलिए वह एक सतर्क रचनाकार की तरह परिवेश में नित्य प्रति होते बदलावों,  बनते-बिगड़ते रिश्तों,  नवीन मानवीय मूल्यों और मानव स्वभाव को,  गहराई से परखता हुआ अपनी कृतियों में स्थान देता है। संजीव इन परिवर्तनों के प्रति जागरुक व अतिसंवेदनशील रचनाकार हैं। संजीव अपने परिवेश से कटकर न तो कभी जिये और न ही हटकर कुछ लिखा। उनका सम्पूर्ण लेखन उनके स्वयं के अनुभव व आसपास के परिवेश का बुना हुआ तानाबाना है। इसी क्रम में मध्यवर्ग के आत्मकेन्द्रित उपभोगवादी नजरिए का तीव्र विरोध नस्लकहानी में किया गया है। प्रतिभावान युवक संजू समृद्धि और सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए खुद को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रचार-प्रसार के लिए अर्पित कर देता है। इस उपभोक्तावादी संस्कृति के युग में जहाँ हर वस्तु खरीदी व बेची जाती है,  संजू अपने लालन-पोषण का खर्च अपने माता-पिता को देना चाहता है,  "मम्मी और तुम लोगों का भी खाया है,  लेकिन मैं अदा करता रहा हूँ,  कर दूँगा।"7जमनालाल को बेटे की इस सोच से गहरा आघात लगता है,  "बेटा न हम कोई सूदखोर हैं,  न तुम कोई आसामी।ʼʼ8 यहाँ नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के विचारों से सहमत नहीं है,  वह बुद्धि के बल पर नये-नये तर्क गढ़ लेती है,  उसके लिए रिश्तों के मायने बदल चुके हैं।

 

            संजीव की कहानी कचरामें सम्बन्धों के रीतने,  बुझने एवं चूक जाने की व्यथा का सशक्त रूप से निरूपण किया गया है। जीवनाथ का इकलौता पुत्र हर्ष पिता की मौत के मुआवजे के रूप में दो लाख का चैक,  अंत्येष्टि के लिए दस हजार रुपये और क्लब के लिए कलर टीवी स्वीकार कर लेता है। लोग उसकी अर्थी को ऐसे ले जा रहे हैं जैसे दो लाख का चैक और कलर टीवी उठाए चले जा रहे हैं। अफजल चा उन लोगों पर व्यंग्य कसते हैं,  "अगर वह सेठ कहता कि तीन लाख दे रहा हूँ,  तुम मेरा गू खा लो,  तो ये वह भी चख लेते।"9समय व्यतीत होने पर हर्ष का लालच बढ़ता जाता है। वह अपने दोनों बेटों पर खर्च किए गए रुपयों का भी रिटर्न चाहता है,  लेकिन उसके दोनों बेटे पैसों के लालच में उसका गला दबा देते हैं,  "बंटवारा पहले से तय था। एक को मिली डेथ-कोटा की नौकरी और दूसरे को प्रोविडेन्ट फण्ड और दूसरे तमाम पैसे।"10दोनों पीढ़ियाँ अपने-अपने जन्मदाता की मौत से पैसा कमाती है। एक पिता के मरने पर दूसरी पिता को मारकर। अतीत का कृत्य यहाँ अपराध चेतना का रूप ले लेता है।

 

            संजीव ने सम्बन्धों में आ रहे बिखराव को अर्थ से जोड़कर देखा है तथा अन्य कारणों को  अपेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण समझा है। इस दृष्टिकोण का एक कारण यह भी हो सकता है कि संजीव साम्यवादी विचारों के समर्थक रहे हैं तथा उनकी ज्यादातर कहानियों में दो वर्ग मौजूद रहे हैं। यही वजह है कि अर्थाभाव सम्बन्धों के बदलाव के संदर्भ में भी और सम्बन्धों के टूटने के संदर्भ में भी,  एक बहुत बड़ा कारण बनकर आया है। यही स्थिति संजीव की कहानी निष्क्रमणमें भी देखने को मिलती है। सीमा अपने शिक्षित बेरोजगार पति को आदर व सम्मान नहीं दे पाती है। यहाँ तक कि ससुर के बीमार होने की खबर भी वह देवर प्रत्यूष को ही देती है,  उसकी नजर में सत्येन को यह बताना कोई मायने नहीं रखता।

"तुमने मुझे खबर नहीं दी?“

पत्नी मौन रह गई।

प्रत्यूष को खबर गई है?"

"हाँ"11

वह सीमा के फर्क को जहर की तरह पीता है।  कहानी में नैरेटर का अपने पिता के प्रति क्षोभ है,  पत्नी से संबंध असहज है,  इन स्थितियों के कारण वह अंदर ही अंदर घुटकर विघटित हो रहा है। वह संबंधों और रागात्मक क्रियाओं से विमुख हो गया है। कहानी में नायक के परिवार वाले नायक के विरोधी तथा पूँजीवादी व्यवस्था के सहयोगी बन गए हैं। ऐसा लगता है कि माँ,  पत्नी,  भाई जैसे संबंधों का परम्परागत स्वरुप यहाँ आकर झूठा पड़ गया है। संबंधों की यह विकट स्थिति सिर्फ इसी दौर में दिखाई देती है। ʽनई कहानीʼ मेंसंबंधों में तनाव के बावजूद उन्हें बनाए रखने की जद्दोजहद है,  वहीं साठ के बाद की कहानियों में संबंधों को सहेजने की कोई कवायत दिखाई नहीं देती है।

 

वर्तमान समय में अर्थ चरम मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित हो गया है। अर्थ ने पति-पत्नी के रिश्तों को काफी हद तक प्रभावित किया है। अर्थाभाव पति-पत्नी के रिश्तों में आयी कड़वाहट का एक प्रमुख कारण बन कर उभरा है। ब्लैक होलकहानी में पति और पत्नी के विचारों में विरोध है। पी.पी. की पत्नी अलका मध्यवर्गीय आकांक्षा का शिकार है,  जिसमें केवल प्रतिस्पर्धा,  छीना-झपटी,  अंधी दौड़,  उपभोक्तावाद,  बाजारवाद,  पद और धन की होड़ है। पी.पी. यानी परमेश्वर प्रसाद पुरानी मान्यताओं के व्यक्ति हैं। वे फास्ट फूड’,  ‘फास्ट लाइफऔर यूज एण्ड थ्रोवाले जमाने के साथ चलने में स्वयं को असमर्थ मानते हैं। पी.पी.,  अलका जी को उच्च वर्ग के लोगों के यहाँ जाने और उनकी बराबरी करने से मना करते हैं,  तो अलका जी भी पलटकर वार करती है,  "चेखव ने यूं ही नहीं लिखा - एक क्लर्क की मौत! डरपोक हो। बने रहो केंचुआ।"12इस प्रकार अर्थ के कारण पति-पत्नी के सम्बन्धों की उष्मा कम हो जाती है। दोनों के लिए नितांत निजी संबंध जिंदगी का नासूर बन जाते हैं।

 

पैसा जहाँ सम्बन्धों पर हावी हो जाता है,  वहाँ इनका घृणित रूप उजागर होता है। संजीव की कहानी दुश्मनमें सम्बन्धों का यही घृणित एवं विकृत स्वरूप सामने आता है। ऊँची जाति का बाबू भूलन सिंह निम्न जाति की झाड़ूदारनी दुर्गी से शादी करता है। दुर्गी को यह गलतफहमी है कि भूलन सिंह ने उससे मुहब्बत के चलते शादी की है। दुर्गी को अपनी गलतफहमी के कारण जान गवानी पड़ती है,  "अउस ओकर पिराइविट फंड,  सर्विस का पइसा सब ऊ गू खौना के ओकर जगह पे नौकरी ओकर बेटी-दामाद के अ ऊ सब झाड़ूदार नय बाबू बीवी का काम करता होगा।"13गरीबी के दलदल में फँसा व्यक्ति बाहर आने के लिए यदि किसी उच्च वर्ग के व्यक्ति का सहारा ले लेता है तो भी उसे इसकी कीमत किसी न किसी रूप में चुकानी पड़ती है। यदि वह व्यक्ति स्त्री है तो मदद के बदले नारी-देह की इच्छा रखने वालों की कोई कमी नहीं है। संजीव की कहानी टीसहलफनामामें उच्च वर्ग के व्यक्ति निम्न वर्ग की स्त्री को लालच देकर उसका देह शोषण करते हैं। हलफनामाका वाचक जहाँ अपनी पत्नी के सेठ द्वारा किये जा रहे देह-शोषण को देखकर भी नहीं देखता,  वहीं टीसका शिबू काका क्रोध में आकर अपनी ही पत्नी की हत्या कर देता है।           

 

संजीव के कहानी संग्रह ब्लैक होलकी कहानियों- कन्फेशन’,  ‘फैसलातथा वांछित-अवांछितमें स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने का प्रयास किया गया है। कन्फेशनके यूनियन नेता साहा बाबू की पुत्री पल्लवी,  जो कॉलेज के दिनों में अंगार हुआ करती थी,  मान्यता प्राप्त यूनियन के नेता शीतल चटर्जी के प्रेम की फुहार से ठण्डी राख में बदल चुकी है। शीतल बाबू उसे पत्नी का दर्जा देकर उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को लील लेता है। इस कहानी में नारी शोषण का एक नया रूप हमारे सामने आता है- विवाह की आड़ में पत्नी का वर्चस्व समाप्त करने का प्रयास। पिछड़ती गयी पल्लवी और उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ते गये शीतल बाबू। "पल्लवी दी को पहली बार लगा कि वे शादी के जुए में काफी कुछ हार चुकी है।"14संजीव की कहानी 'दुश्मन'का भूलन सिंह व कन्फेशनका शीतल चटर्जी दोनों ही उच्च जाति के हैं और दुर्गी तथा पल्लवी दलित जाति की स्त्रियाँ हैं। दुर्गी अनपढ़,  अकेली महिला है जबकि पल्लवी पढ़ी लिखी तेज-तर्रार लड़की है। लेकिन दोनों ही पुरुष-प्रेम में पड़कर धोखा खाती हैं। भूलन सिंह और शीतल बाबू दोनों ही पत्नी को सफलता की पायदान के रूप में प्रयुक्त करते हैं। विजय कुमार महिलाओं के प्रति बढ़ते जा रहे अपराधों पर विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं,  ʽʽयह विचित्र विसंगति है कि जैसे-जैसे महिलाओं की सुरक्षा के नये-नये कानून बन रहे हैं और नये-नये प्रशासनिक उपाय किये जा रहे हैं,  वैसे-वैसे महिलाओं के प्रति अपराधों का ग्राफ निरन्तर ऊपर चढ़ रहा है।15

 

कहानी मानपत्रका नायक दीपंकर संगीतज्ञ है। वीणा परम्परागत पतिभक्त नारी के रूप में दीपंकर को गायन कला में निपुण बनाती है और अपनी कला का गला घोंट देती है,  किन्तु दीपंकर मौका पाते ही उसे दगा दे देता है और विवाह-वार्षिकी की रात पर-स्त्रीगमन करता है। मानपत्रकी वीणा के समान ही माँकी माँ अपने अधेड़ पति को अन्य स्त्री के मोहपाश में बँध जाने पर त्याग देती है। संजीव की दोनों महिला पात्र वीणा और माँ,  पति से अलग होकर भी उसे तलाक नहीं देती है तथा दाम्पत्य जीवन के सुख व दुःख के पलों को याद करती हैं। इनसे अलग मददकी शकीला अपनी सौत को बर्दाश्त नहीं करती है और पति को तलाक दे देती है,  "हम तो कौनों गैर मरद से बात भी नय कर सकते और तू सौत ले आए। फेन तू कौन चीज का सौहर,  हम कौन चीज का बीवी...? हम तोरा के तलाक देते हैं - तलाक,  तलाक,  तलाक।"यहाँ अनपढ़ शकीला का व्यक्तित्व मानपत्रकी पढ़ी-लिखी,  कला-निपुण वीणा से अधिक प्रभावशाली बन कर उभरता है। उसका पति को तलाक देने का निर्णय मजहब के खिलाफ है तथा समाज द्वारा भी इसका विरोध किया जाता है,  किन्तु वह अपने निर्णय पर अडिग है।

 

वर्तमान समय में स्त्री-पुरुष दोनों स्वतंत्र व्यक्तित्व चाहते हैं। इस कारण आज विवाह जैसे परम्परागत बन्धन ढीले पड़ गये हैं। एक जमाना था जब विवाह में माता-पिता की इच्छा सर्वोपरि होती थी,  उनकी इच्छा का पालन करते हुए अपरिचित युवक-युवती विवाह कर जन्मजन्मांतर के लिए एक हो जाते थे। परन्तु अब विवाह में युवक-युवतियों की इच्छा महत्त्वपूर्ण हो गई है। संजीव की कई कहानियों में अरैंज मैरिजका विरोध किया गया है। इनमें सीपियों का खुलना’,  ‘निष्क्रमण’,  ‘धक्काकहानियाँ प्रमुख हैं। सीपियों का खुलना,  प्रदीप और ललिता की प्रेम कहानी है। प्रदीप के पिता ने उसके लिए लड़की पसंद कर ली है। लेकिन प्रदीप अरैंज मैरिज का विरोध करता है,  "आई हेट सच शार्ट ऑफ इंपोज्ड लव। ललिता,  कितने आश्चर्य की बात है,  जिस लड़के से लड़की बिल्कुल अनजान रहती है,  समाज एक गैर जिम्मेदार चपरासी की तरह शादी का स्टाम्प मारकर उसके साथ बाड़े में बंद कर देता है,  खसी-बकरी की तरह।"16इसके विपरीत जिस लड़के को वह जानती-पहचानती है,  उससे जरा बात कर लेने भर से समाज के पहरेदारों की आँखें लेड इण्डीकेटरकी तरह धधक उठती है।

 

            ‘निष्क्रमणका सत्येन पिता के दबाव के चलते उनकी पसंद की लड़की से विवाह कर लेता है। यह विवाह उसे मानसिक संतुष्टि नहीं दे पाता है। वह सोचता है, "यह कहाँ का न्याय है कि अपनी खुशी और हमदर्दी की दुहाई देकर हमारी खुशी का ठेका कोई और ले लेता है। न हम स्वेच्छा से अपना जन्म और जीवन चुन सकते हैं,  न उस जीवन से मुक्ति।"17विवाह के साल भर बाद भी उसे लगता है कि वह और सीमा एक-दूसरे को स्वीकार नहीं कर पाये हैं। नितान्त निजी संबंधों का पीड़ादायक स्थिति में बदल जाना समकालीन परिस्थितियों के पड़ते दबाव का परिणाम है।निष्क्रमण’, ‘सीपियों का खुलना’,  ‘धक्का’, ‘कन्फेशनआदि कहानियाँ,  जिनमें संबंधों की जद्दोजहद,  बिखराव व उनसे विरक्ति के भाव हैं,  अगर इनकी आंतरिक पड़ताल की जाए तो हमें वहाँ वर्तमान समय की गहरी प्रतिध्वनि सुनाई देगी।

 

            आर्थिक विवशता,  वैवाहिक जीवन में बढ़ता तनाव,  कुण्ठा,  ऊब,  वैवाहिक सम्बन्धों के विघटन से उत्पन्न मानसिक पीड़ा के कारण युवक व युवतियाँ विवाह को जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना नहीं मान रहे हैं। विवाह की पवित्रता,  स्थायीपन,  जन्मजन्मांतर का सम्बन्ध जैसी अवधारणाओं को युवा वर्ग नकार रहा है,  साथ ही साथ विवाह की अनिवार्यता भी धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। निष्क्रमणकहानी का प्रत्यूष,  पिता द्वारा विवाह की चर्चा करने पर दो-टूक उत्तर देता है,  "ओह नो! आय कांट स्प्वायल माय फ्यूचर।"18विवाह को वह अपनी सफलता में बाधा मानता है और स्पष्ट इंकार कर देता है। नस्लकहानी के संजू के विचार भी प्रत्यूष के ही समान हैं। वह विवाह को एक बोझ समझता है,  "शादी? मेरे पास वक्त ही कहाँ है कि ढोल की तरह लटकाए फिरूं?"19  ‘मानपत्रकी कला अपनी माता की दुर्दशा देखने के बाद विवाह प्रथा को व्यर्थ समझती है। वह इसे चुनौती देती हुई कहती है,  "वह विवाह प्रथा,  जो किसी को बीहड़ और बंजर बना दे,  उसे मैं जूती की नोंक पर रखती हूँ,  थूकती हूँ महानता के उन चोंचलों पर।..... आय हेट! आय हेट!! आय हेट ऑल सच हीनियस हिपोक्रेसीज,  दीज मेल एण्ड फीमेल शोवेनिवम्स!"20नारी की सामाजिक सुरक्षा व पाँव फिसलने जैसी दलीलें कला को और अधिक उग्र बना देती हैं। इस प्रकार यहाँ विवाह नामक संस्था महत्त्वहीन हो गई है। समाज में इसका निरन्तर ह्रास हो रहा है,  तथा विभिन्न परिस्थितियों के कारण अविवाहित युवक-युवतियों की संख्या बढ़ रही हैं। खयाल उत्तर-आधुनिकीमें दफ्तर के बड़े बाबू प्रदीप और सेक्रेटरी प्रतीक्षा के बीच शारीरिक सम्बन्ध है। यहाँ न तो शादी है,  न ही सहजीवन। वे दोनों केवल अपने प्रति वफादार हैं न कि एक-दूसरे के प्रति। इस प्रकार इस कहानी में हमें स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का एक नया रूप देखने को मिलता है जो शादी या सहजीवन से अलग है।

 

            आज की युवा-पीढ़ी अपने परिवेश के प्रति जागरूक है। चारों ओर फैले भ्रष्टाचार और जीवन जीने की जटिल स्थितियों ने उसे रोषशील बना दिया है। संजीव की कहानी शिनाख्तमें संजीव ने छात्रावासों में रह रहे छात्रों द्वारा पढ़ाई की आड़ में की जा रही गलत हरकतों को भी उजागर करने का प्रयास किया है। गालियों का प्रयोग,  नंगी औरतों की तस्वीरों का अलबम,  रैंगिंग करना,  ब्लू फिल्में देखना,  बम-विस्फोट जैसे हिंसात्मक कार्यों में लिप्त होना युवा पीढ़ी के भटकाव को इंगित करता है। युवा पीढ़ी के दिग्भ्रमित होने के पीछे संजीव ने मीडिया को भी एक बड़ा कारण माना है। उनका कहना है,  "देश की सबसे ऊर्जावान पीढ़ी की मेधा और तेज को स्वप्नदोष में बदलने के लिए मीडिया के सैंकड़ों चैनल्स उपभोक्तावाद के पुष्पधन्वा विषबुझे तीर चला रहे हैं।"21संजीव ने अपनी कहानी जे एहि पद का अरथ लगावेमें भी इसी ओर इशारा किया है,  "इधर अधकपारी के लड़कों की जानकारियाँ इतनी ज्यादा बढ़ गई कि माँ के पेट से निकलते ही बच्चे सूचनाओं की उल्टी-दस्त करने लगे।"22संजीव सूचना तंत्र पर प्रहार करते हुए लिखते हैं,  "तुम्हारी और तुम्हारे देश की बढ़ती आबादी,  बढ़ते कर्ज,  बढ़ती महंगाई और खत्म होते रोजगार,  गरीबी,  अशिक्षा,  गुंडागर्दी तो आम बात है,  असल चीज है कील मुंहासे,  फटी एड़ियाँ,  गालों की लुनाई। यह सामान लोगे तो,  यह सामान फ्री मिलेगा। यह तंत्र देश के बच्चों,  किशोरों,  युवाओं को इन्सान से कुत्ते में बदल रहा है।.... पूँछ डुलाती यह पीढ़ीं।"23मीडिया ने युवा पीढ़ी का ध्यान देश की समस्याओं,  जरूरतों से हटाकर अनावश्यक चीजों की ओर लगा दिया है। एक बेहतर समाज के निर्माण में मीडिया को जो भूमिका निभानी चाहिए उसे वह भुला चुका है। इसके चलते जो युवा पीढ़ी सामने आ रही है,  वह वीडियो गेम में घंटों का समय बर्बाद करती,  मोबाइल पर फूहड़ बातें करती,  डेली सोप सीरियल्स में दिलचस्पी रखने वाली,  इंटरनेट पर अश्लील वेबसाइट्स को खोजती पीढ़ी है। वर्तमान समय का युवा आंतरिक छटपटाहट से भरा,  रोषशील निष्क्रिय युवा है जिसकी अपनी कोई आइडेंटिटी नहीं है। सामाजिक नैतिकता की कोई समझ उसे नहीं है। एकाकी जीवन जीने में अभ्यस्त इस वर्ग में सामूहिकता का अंश मात्र भी नहीं है। ऐसा लगता है कि उसके जीवन का कोई भी पक्ष कोमल और संवेदनशील नहीं है।डॉ.नन्दकिशोर आचार्य मीडिया और समाज के पारस्परिक संबंधों पर विचार करते हुए लिखते हैं,  ʽʽजब कोई समाज अपने यहाँ कुछ नये संचार-साधनों या सम्प्रेषण प्रणाली का विकास करता है तो वह जाने-अनजाने अपने रिश्तों में,  अपनी संबंध व्यवस्था में भी परिवर्तन कर रहा होता है।ʼʼ24

 

वर्तमान समय में परीक्षाओं का स्थान प्रतियोगिताओं ने ले लिया है जहाँ सिर्फ पास होने का कोई महत्त्व नहीं है। इन गलाकाटू प्रतियोगिताओं के कारण युवा पीढ़ी का जीवन रेसकोर्स के मैदान में तब्दील हो गया है। इन सब का अंत क्या होगा? वही जो ब्लैक होलकहानी में अंकुर का होता है। नस्लकहानी का स्वर भी यही है जहाँ संजू प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त कर कम्पनी का टॉप एक्जीक्यूटिव बन चुका है। संजू के लिए सभी आत्मीय रिश्ते बेमानी हो चुके हैं। जो त्रासद अंत 'ब्लैक होल'के अंक का था वही नस्लके संजू का होता है। अंकुर और संजू नए जमाने के सेल्फ कॉन्फीडेंटनायक हैं,  जो अपने ध्वस्त होते सपनों के हाथों पराजित होकर अवसाद की स्थिति में चले जाते हैं। तत्कालीन युवा मानस का आत्मसंकुचन वर्तमान अति भौतिकवादी संस्कृति की देन है। यह युवा पीढ़ी वर्तमान और भविष्य के प्रति आस्था पैदा करने में या संबल प्रदान करने में असमर्थ है।

 

वर्तमान समय में हमारे देश की एक बड़ी समस्या है - बेरोजगारी। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् भी युवाओं को नौकरी नहीं मिल रही है,  जिससे उनमें कुण्ठा,  आक्रोश तथा गहरी निराशा व्याप्त है। जे एहि पद का अरथ लगावेकहानी में चुन्नू बाबू इस देश में बढ़ती बेरोजगारी के लिए पूर्णतया सरकार को दोषी मानता है,  "सरकार कहती है कि नौकरी नहीं है तो क्या हुआ,  बिजनेस करो। माने कि रोटी नहीं है तो केक खाओ।..... सरकार ने रोजगार के सारे रास्ते बंद कर दिए हैं,  सिर्फ एक खोल रखा है - दलाल पथ।"देश में बढ़ती बेरोजगारी के लिए सरकार की गलत आर्थिक नीतियाँ भी जिम्मेदार होती हैं। रोजगार के नये-नये अवसर देकर सरकार इस समस्या को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। लेकिन सरकार कार्यालयों में पद समाप्त करके और राष्ट्रीयकृत कारखानों को अनार्थिक बताकर बंद करके बेरोजगारी को बढ़ावा देती है। जिससे युवा वर्ग में असंतोष बढ़ता है।

 

            संजीव की कहानी पूत-पूत! पूत-पूत!!में बेरोजगारी के कारण युवा वर्ग के दिग्भ्रमित होने की अभिव्यक्ति है। परशुरामपुर में भी हर साल बेरोजगारों की एक नयी फौज तैयार हो रही है,  "पुरानी नौकरियों को अगर छोड़ दे तो आठ-दस को छोड़कर बरसों से किसी को नौकरी नहीं मिली। लड़के मैट्रिक,  इंटर या ग्रेजुएशन जैसे-तैसे करके सरकारी दफ्तरों,  सेठों,  दलालों और फैक्ट्रियों की खाक छानकर घर लौट रहे हैं,  कुछ उसी मृगतृष्णा में भटक-भटक कर दम तोड़ देते हैं।"25बेरोजगारी के कारण युवा वर्ग में हीनता की भावना आ रही है और समाज की सबसे संभावनाशील पीढ़ी यूँ ही खत्म हो रही है। इस कहानी में गाँव के बेरोजगार सवर्ण युवक तेजी से सेना (वीर सेना और मुक्ति सेना) की ओर आकृष्ट होने लगते हैं। सेना इन्हें रुपये देकर गैर कानूनी काम कराती है। देश की युवा पीढ़ी जो देश की उन्नति में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है,  बेरोजगारी के चलते गलत हाथों में पड़कर देश को नुकसान पहुँचा रही है। यदि हम चाहते हैं कि हमारे देश की जनता को आतंकवाद,  तस्करी,  माफिया आदि से मुक्ति मिले तो सबसे पहले हमें बेरोजगारी की समस्या को हल करना होगा।           

 

            उचित व्यक्ति को समुचित रोजगार नहीं मिलना,  बेरोजगारी का ही एक पक्ष है। किसी पद के लिए प्रत्याशी की शिक्षा,  योग्यता और प्रतिभा को न देखकर सिफारिश को देखा जाता है। देश में शिक्षा,  योग्यता और प्रतिभा की ऐसी अवमानना कभी नहीं हुई थी। जाति के आधार पर दिये गये आरक्षण के कारण,  अवसर की समानता का मूल अधिकार केवल संविधान की किताबों तक सीमित होकर रह गया है। कहानी में कथावाचक के नौकरी माँगने पर एक सज्जन कहता है,  "शिड्यूल कास्ट या शिड्यूल ट्राइब हो? मेरा चेहरा दयनीय हो उठा,  "जी मेरी हालत हरिजनों की तरह ही है,  बल्कि कइयों से बदतर है। मैंने बचपन में उन्हीं की तरह ही गोबरहा......."

 

"यह तरह-तरह क्या होता है; हो तो नहीं। हमें वर्ग नहीं वर्ण,  क्लास नहीं कास्ट चाहिए - समझे?"सामान्य वर्ग के प्रतिभाशाली छात्रों के लिए जातिगत आरक्षणकोढ़ में खाज का काम कर रहा है। इन स्थितियों ने युवा मन में गहरी निराशा और आक्रोश को जन्म दिया है।

 

जाति विमर्श और उसमें भी दलित विमर्श,  समकालीन कहानी में सार्थक और आवश्यक हस्तक्षेप है। जाति के कारण ही समाज का एक बड़ा वर्ग सामाजिक,  राजनीतिक,  सांस्कृतिक,  धार्मिक,  शैक्षिक सभी प्रकार से उपेक्षित,  शोषित,  उत्पीड़ित रहा है। इस समाज के लोग लम्बे समय तक अस्पृश्यता,  दमन और दलन का शिकार रहे हैं। भारत में सामाजिक परस्थिति के अनुसार जो जातियाँ जितनी नीची हैं,  वो उतनी ही वंचित,  शोषित और दमित हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत में जाति शोषण और दमन का एक प्रमुख आधार है। संजीव की कहानी योद्धाजाति प्रथा पर ही आधारित है,  जिसमें दुबौली के बभनटोले में पाँच घर ब्राह्मणों के तथा दो घर लोहारों के हैं। कहानी में दद्दा के दोनों बेटों को उम्र के साथ-साथ बाभनों-लोहारों का फर्क पता चलने लगता है,  "आइने की खरोंचे तो बाद में उभरनी शुरु हुई - निहायत छोटी-छोटी बातें,  मसलन खाट से उतार दिया जाना,  पंगत से डाँटकर भगा दिया जाना।"26गाँव का ठाकुर अवधू सिंह लंगड़े बिसेसर दूबे को महाराजऔर लंगड़े दद्दा को लंगड़कहकर पुकारता है। सम्बोधन से लेकर बर्ताव तक का फर्क दद्दा और उनका परिवार महसूस करता है।

"दद्दा"

"हाँ।"

"ई दुबे से कैसे बोल रहे थे और तुमसे कैसे"

"बड़े है न!"

"बड़े तो तुम हो।" (दद्दा छह फुट के थे,  बावजूद इसके कि वे लंगड़े थे।)

"अरे नहीं,  जाति के ऊँचे। ठाकुर हैं न!"27

 

दर्द के साथ दलित का रिश्ता जन्म से ही जुड़ जाता है। वास्तव में दलित की अनुभूति दर्द की अनुभूति है। वह जन्म से ही भेदभाव,  उपेक्षा और अस्पृश्यता का शिकार होते हैं। यह अन्याय और अमानवीयता का घृणित रूप है। संजीव मानते हैं कि भारत में आज भी आदमी को चरम अभाव,  आर्थिक संकट आदि उतना नहीं तोड़ता है जितना जातिवाद के कारण झेली जाने वाली अपमानजनक स्थितियाँ उसे तोड़ती हैं।28

 

            ‘योद्धाकहानी का फेरु दुबे ब्राह्मणी के न मिलने पर एक नटिनी को मेहरारू बनाकर घर ले आता है। जिसने भी यह सुना,  फेरू काका के नाम पर थूका। फेरू काका को उसके भाई-भाभी भी दुत्कार देते हैं,  "तू बाभन नहीं कुत्ता है,  कुत्ता! एक हाड़ लाकर चिचोर रहा है"29फेरू काका के इस दुस्साहस के बदले पहले उसे जमीन से बेदखल कर दिया जाता है और फिर फेरू काका और उसकी मेहरारू को घाठीदेकर मार दिया जाता है। "लाशें सड़ती,  बदबू देती रही फेरू काका और उनकी मेहरारू की लेकिन गाँव से कोई भी लेने न आया,  बभनौटी से भी नहीं? मेहतरों ने वहीं फूँक दी लाशें।"30मानवता,  जाति के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव का तीव्र प्रतिकार करती है। जाति का प्रतिकार दलितों द्वारा आदिकाल से किया जाता रहा है,  किन्तु समय के दबाव तथा अन्य कारणों से प्रतिकार का यह स्वर कभी मंद कभी तीव्र रहा है।  

           

संजीव की कहानियों का केन्द्रीय स्वर समस्त प्रकार के भेदभाव का विरोध तथा उनका सपना वर्ण विहीन एवं वर्ग विहीन समाज की स्थापना है। इनकी कहानियों का परिवेश निम्न एवं मध्य वर्ग तक सीमित है। संजीव के अधिकतर पात्र दलित,  शोषित और वंचित समाज से ताल्लुक रखते हैं। वे समाज द्वारा बिना अपराध के दंडित किए जाते हैं। संजीव के पात्र पाठक को आनंद,  खुशी,  आत्मसंतुष्टी नहीं देते बल्कि पाठक के मन में एक घुटन,  एक बैचेनी,  एक क्षोभ और तनाव पैदा करते हैं। यह घुटन व्यवस्था के प्रति विरोध,  किन्तु कोई सामूहिक प्रतिरोध न होने और इसे न बदल पाने के कारण है।"मेरा समकाल बेरोक-टोक बढ़ती आबादी,  यौन हिंसा और अराजकता का काल है। मेरा समकाल उन्मादग्रस्त हुडदंगियों का काल है-क्रिकेट,  परमाणु बम,  विस्थापन,  बँटवारा,  बाबरी मस्जिद ध्वंस,  हिन्दू-मुस्लिम,  हिन्दू-सिख,  हिन्दू-ईसाई ही नहीं,  हिन्दू-हिन्दू, मुस्लिम-मुस्लिम और उष्ण युद्ध (खूनी दंगे का काल) गणेश प्रतिमा को दूध पिलाती पिलपिलाती भीड़,  सती के नाम पर नारी हत्या को गरिमा मंडित करता, नारी-शिशु,  दलित,  गरीबों ज्योति-स्फुलिंगों की हत्या का काल रहा है मेरा काल। विकास मूलक कल्याणकारी योजनाओं,  संस्थाओं के बनने और दायित्वहीनता और भोग के विवरों में उनके एक-एक करके विसर्जित होने का काल है यह।"31संजीव कहते हैं,  ʽʽकोई भी सृजन कर्म स्रष्टा की निजी वैयक्तिता और शेष विश्व और काल के साथ उसकी द्वन्द्वात्मकता का प्रतिफलन है।ʼʼ32संजीव की कहानियों में अनुभव व विचारों का सगुम्फन देखने को मिलता है। समकालीन सामाजिक परिप्रेक्ष्य में संबंधों में शुष्कता,  युवाओं की निष्क्रियता,  व्यवस्था में सड़ांध की जो स्थिति बनी हुई है उसकी एक मुकम्मल और तीक्ष्ण अभिव्यक्ति संजीव की कहानियों में हुई है। वर्तमान दौर के अंधकार के हर पहलू को उन्होंने सबसे सटीक और मुकम्मल तरीके से पकड़ा है। उन्होंने समाज में परिवर्तित हो रहे रीति-रिवाजों,  मान्यताओं,  मूल्यों एवं विचारों को बड़ी सूक्ष्मता के साथ पकड़कर प्रस्तुत किया है। ध्वस्त होते सपनों के कारण लोगों में अवसाद की स्थिति,  ऊब और निराशा का जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन जाना,  नितांत निजी संबंध का पीड़ादायक स्थिति में बदल जाना आदि स्थितियों का चित्रण करते हुए लेखक ने बदलते हुए समाज की नब्ज़ को बड़ी बारीकी से पकड़ा है। इसी के चलते संजीव अपनी कहानियों में भारतीय समाज के परिवेश को अत्यन्त जीवन्त रूप में प्रस्तुत करने में पूर्ण सफल रहे हैं। उनकी कहानियों में सामाजिक चेतना का सशक्त वर्णन मिलता है जो लेखक की युग चेतना का परिचायक है।

 

संदर्भ :

 

  1. डॉ. रविभूषण, स्वतंत्र भारत की वास्तविक कथाः संजीव की कहानियाँ,  कथाकार संजीव,  सं. गिरीश काशिद,  शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली,  2008,  पृ. 59
  2. संजीव, मैं और मेरा समय,  कथादेश,  जून,  1999,  पृ.6

3. संजीव,  लोड शेडिंग,  आप यहाँ हैं,  अक्षर प्रकाशन,  दिल्ली,  1984,  पृ. 43

4. वही पृ. 44

5. संजीव,  कुछ तो होना चाहिए ना,  प्रेरणास्रोत व अन्य कहानियाँ,  1996,  पृ.89

6. वही पृ.91

7. संजीव,  नस्ल,  ब्लैक होल,  दिशा प्रकाशन,  दिल्ली,  1997,  पृ. 41

8. वहीपृ. 41

9. संजीव,  कचरा,  गति का पहला सिद्धांत,  मेधा बुक्स,  दिल्ली,  2004,  पृ. 41

10. वहीपृ. 53

11. संजीव,  निष्क्रमण,  प्रेरणास्रोत व अन्य कहानियाँ,  1996 पृ. 186

12. संजीव,  ब्लैक होल,  ब्लैक होल,  दिशा प्रकाशन,  दिल्ली,  1997,  पृ. 11

13. संजीव,  दुश्मन,  ब्लैक होल,  दिशा प्रकाशन,  दिल्ली,  1997, पृ. 129

14. संजीव,  कन्फेशन,  खोज, दिशा प्रकाशन,  दिल्ली,  2002,  पृ. 64-66

15. विजय कुमार,  महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा,  कुरुक्षेत्र,  जुलाई,  1997,  अंक-9 पृ. 23

16. संजीव,  सीपियों का खुलना,  भूमिका तथा अन्य कहानियाँ,  पृ. 122

17. संजीव,  निष्क्रमण,  प्रेरणास्रोत व अन्य कहानियाँ,  1996,  पृ. 174

18. वहीपृ. 174

19. संजीव,  नस्ल,  ब्लैक होल,  दिशा प्रकाशन,  दिल्ली,  1997,  पृ. 39

20. संजीव,  मानपत्र,  खोज,  दिशा प्रकाशन,  दिल्ली,  2002 , पृ. 56

21. संजीव,  मैं और मेरा समय,  कथाकार संजीव,  सं. गिरीश काशिद,  शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली,  2008,  पृ. 21

22. संजीव,  जे ऐहि पद का अरथ लगावे,  गति का पहला सिद्धांत,  मेधा बुक्स,  दिल्ली,  2004,  पृ. 117

23. वही पृ. 124

24. डॉ. नंदकिशोर आचार्य,  दूरदर्शनः दायित्व और चुनौतियाँ,  मधुमति,  अप्रैल,  1990,  अंक 4,  पृ. 61

25. संजीव,  पूत-पूत ! पूत-पूत !!,  खोज,  दिशा प्रकाशन,  दिल्ली,  2002 , पृ. 85

26. संजीव,  योद्धा,  गुफा का आदमी,  भारतीय ज्ञानपीठ,  2006,  पृ. 18

27. वही पृ. 19-20

28.नरेन,  जिन्दगी-जिन्दगी तुझसे शिकवा करूँ तो कैसे करूँ,  कथाकार संजीव,  सं. गिरीश काशिद,  शिल्पायन प्रकाशन दिल्ली,  2008,  पृ. 59

29. संजीव,  योद्धा,  गुफा का आदमी,  भारतीय ज्ञानपीठ,  2006,  पृ. 22

30. वही,  पृ. 23

31. संजीव,  मैं और मेरा समय,  कथादेश,  जून,  1999,  पृ. 6

32. संजीव,  संजीव की कथा-यात्राः दूसरा पड़ाव,  वाणी प्रकाशन,  2008,  पृ. 6

 

डॉ. मीनाक्षी चौधरी

सहायक प्रोफेसर ( हिन्दी ), राजकीय डूँगर महाविद्यालय,  बीकानेर,  राजस्थान।

cmeenakshi042@gmail.com ,  9829563019


                        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

चित्रांकन : All Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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