समीक्षा : ‘सरई के फूल’ की आदिवासियत और संवेदना -धर्मेन्द्र कुमार

समीक्षा : ‘सरई के फूल’ की आदिवासियत और संवेदना 

धर्मेन्द्र कुमार


हिन्दी कथा-साहित्य में आदिवासी समाज एवं उनकी संवेदना का चित्रण कई कथाकारों ने किया है। प्रकृति के साथ सामंजस्य इनकी मूलभूत विशेषता है। साथ ही आदिवासी जीवन संघर्ष एवं श्रम आधारित है। डॉ. उमेशचन्द्र शुक्ल के अनुसार,  ‘‘प्रकृति और संस्कृति का पारस्परिक संतुलनसामाजिक समानताआर्थिक सहभागितासर्व सम्मतिमूलक जनतंत्रधार्मिक सहिष्णुतासामूहिक कलात्मक अभिरूचि आदिवासी समुदाय की विशेषताएँ हैं। हवा की तरह ही जल, जंगल और ज़मीन इनकी दृष्टि में व्यक्तिगत सम्पत्ति न होकर सामुदायिक संसाधन हैं।’’1 झारखंड के आदिवासी समाज की अस्मिता एवं उनके संघर्षों का यथार्थ चित्रण अश्विनी कुमार पंकजरणेन्द्रपंकज मित्रअनिता रश्मिमहादेव टोप्पोवंदना टेटेअनुज लुगुन आदि झारखंडी साहित्यकारों की रचनाओं में सहज द्रष्टव्य है। झारखंड के हिन्दी साहित्यकारों में अनिता रश्मि एक जाना पहचाना नाम है। गुलमोहर के नीचे’,  ‘पुकारती ज़मीं’,  ‘रास्ते बंद नहीं होतेजैसे उपन्यासों और उम्र-दर-उम्र’,  ‘लाल छप्पा साड़ी’,  ‘बाँसुरी की चीखजैसे कहानी-संग्रहों के माध्यम से इन्होंने झारखंड के हिन्दी कथाकारों में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज़ की है। अनिता रश्मि के संबंध में रजनीश आनंद का कथन है- ‘‘अनिता रश्मि समकालीन हिंदी कथा-साहित्य में एक परिचित नाम हैउनके दो उपन्यासोंचार कहानी-संग्रहोंएक यात्रावृत्त और एक लघुकथा-संग्रह के ज़रिये बतौर कथाकार उनकी पहचान स्थापित हो चुकी है।’’2 ‘सरई के फूलइनका नवीनतम प्रकाशित कहानी-संकलन है जिसमें आदिवासी जीवन के सुख-दुखपीड़ाहर्ष-विषाद एवं समस्याओं का प्रामाणिक चित्रण है। अनुराग अन्वेषी के अनुसार- ‘‘यह संग्रह झारखंड का परिवेश बुनता है और ये कहानियाँ यह स्थापित करती हैं कि बात-व्यवहाररहन-सहनबोल-विचार जैसे हर स्तर पर आदिवासियों का जीवन अक्सर ब्लैक एवं व्हाइट होता है। आदिवासियों के व्यक्तित्व में ग्रे शेड की उपस्थिति कभी-कभार दिख जाती हैलेकिन यह कभी भी आदिवासियों के व्यक्तित्व का प्रतिनिधि रंग नहीं रहा।’’3 आलोच्य कहानी-संग्रह में कुल 12 कहानियाँ संकलित हैं। सभी कहानियाँ आदिवासी संवेदना की दृष्टि से नया वितान रचती हैं। 

 

रघुआ टाना भगतसीधे-सादे निर्दोष आदिवासियों पर पुलिसिया दमन की कहानी है। रघुआ को टाना भगत होने पर गर्व है। वह अपने पिता जागू टाना भगत और महात्मा गाँधी के क़दमों पर चलना चाहता है। स्वराज के लिए लड़ाई लड़ने वाले जागू की विरासत का सच्चा उतराधिकारी रघुआ है। वह आदिवासी समाज के लिए सोचता है। आज़ादी के साठ सालों के बाद भी ब्रिटिश सरकार द्वारा नीलाम की गई टाना भगतों की ज़मीन वापस नहीं मिलती। इन्हें वापस पाने के लिए वह अहिंसात्मक आन्दोलन का रास्ता अपनाना चाहता है। उस क्षेत्र का नक्सली कमांडर रघुआ को अपने दस्ते में शामिल होने का निमंत्रण देता है। रघुआ कहता है कि हम जतरा भगत और गाँधी बाबा के सच्चे चेले हैं। हमारा इरादा बदल नहीं सकता। हम अहिंसा का रास्ता नहीं छोड़ सकते हैं। नक्सलियों द्वारा दी जाने वाली धमकियों और लोभ-लालच उसे डिगा नहीं पाते। वह आदिवासियों की खुशहाल ज़िन्दगीलहलहाती खेती और ज़मीन वापस मिलने की कल्पना में खोया रहता है। पुलिस को जानकारी हो जाती है कि नक्सली रघुआ से मिलते हैं। सिर्फ़ इसी अपराध में रघुआ पर जुल्म ढाते हुए पुलिसवाले उसे हथकड़ी पहनाकर ले जाते हैं। लेखिका के शब्दों में-‘‘बंदूक का कुंदा सर पर। माथे से खून की धार फूट पड़ी। चंदन का फैलता टीका खून के साथ मिल गया। गले से होता हुआ जनेऊ तक बह आया। जनेऊ और सफेद खादी का कुर्ता लाल होने लगा।’’4

  

लोककथा के माध्यम से ज्वलंत घटनाओं एवं समस्याओं को नवीन अर्थवत्ता प्रदान करना अनिता रश्मि की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। लोक कथात्मक शैली का धारदार इस्तेमाल तिकिन उपाल का छैलाशीर्षक कहानी में हुआ है। लोककथा की उपाल से आदिवासी युवती उपाल की कथा भिन्न है। वह गाँव के ही आदिवासी युवक छैला से प्रेम करती है। गाँव की पंचायत और परंपरा के भय से दोनों भाग जाते हैं। मालदा स्टेशन पर टिकट नहीं रहने के कारण पुलिसवाला छैला को जुर्माना भरकर उपाल को ले जाने को कहता है। वह मालदा में अपने पूर्व परिचित मित्र अमर को ढूँढने निकलता है। अमर तो नहीं मिलतावापस आने पर उपला भी नहीं मिलती। वह अपनी प्रेमिका उपला को ट्रेनबस से लेकर नदी-नालों और गड्ढों तक ढूँढता है। वह नहीं मिलती। संसार से विरक्त छैला साधु के वेश में अपने गाँव लौटता है। बरहरवा के बिंदुधाम मंदिर में सेवा करता है। कुछ समय बाद मंदिर से भी उसका जी उचाट हो जाता है। वह जीवन को सार्थकता प्रदान करने की ठानता है। उसे हर आदिवासी किशोरी और युवती में उपला की छवि दिखाई देती है। बेरोज़गारीभूखअभाव से ग्रस्त किसी आदिवासी बाला को विस्थापित होने और दलालों द्वारा बाहर ले जाकर बेचे जाने से रोकना ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है। अनिता रश्मि लिखती हैं- ‘‘जब भी वह किसी किशोरीबच्ची या युवती को बचा पाता हैउपाल कोने में खड़ी मुसकराती हुई नजर आती है। वह आँखें बंद कर देर तक उसे महसूसता है। आँखों के कोरों की नमी से देर तक उपाल के कपोलों को भिगोता है।’’5

  

 ‘कहानी यहीं ख़त्म नहीं होतीसंग्रह की बेहद सशक्त कहानी है। शोषित आदिवासी स्त्रियों की दुर्दशा का चित्रण इसमें है। आदिवासी समाज को उसकी रूढ़ियों और ग़ैर ज़रूरी परंपराओं से मुक्त करने का साहस लिए फूलमनी गाँव की स्त्रियों को उनके पुरुषों की अनुपस्थिति में अपने खेतों में हल चलाने के लिए प्रेरित करती है। वह गाँववालों को हँड़िया की बुराई गिनाते हुए इससे दूर रहने की बात करती है। चाँदो का पति विवाह के एक महीने के बाद ही कमाने के नाम पर जो घर से भागाकभी लौटकर नहीं आया। पारिवारिक-सामाजिक दायित्वों को पूरा करते हुए चाँदो फूलमनी की सलाह पर अपने खेतों में हल चलाती है। परंपरा के विरूद्ध जाकर चाँदो का हल चलाना गाँववालों के लिए अक्षम्य अपराध था। भरी पंचायत मेंचाँदो को सजा के रूप में उसी के खेत में बैल की जगह जोता जाता है। फूलमनी की एक आँख फोड़ दी जाती है। लेकिन फूलमनी हिम्मत नहीं हारती। वह ईश्वर से प्रार्थना करती है- ‘‘हम दोनों का यह बलिदान बेकार न जाए भगवान! चार चाँदोचौदह फूलमनी और पैदा करना इस गाँव में। इसी गाँव में।’’6 

 

एक और भीष्म प्रतिज्ञाआदिवासी युवक कैला की कहानी है। वह लांस नायक परमवीर अल्बर्ट एक्का से प्रभावित है और उन्हीं की तरह बनना चाहता है। वह फौज में भर्ती होकर देश के लिए मरना चाहता है। उसके माता-पिता को यह पसंद नहीं। इकलौती संतान होने के कारण माता-पिता अपने बेटे को फौज में नहीं भेजना चाहते। वे अल्बर्ट की पत्नी बलमदीना की दुर्गति के बारे में बताते हैं। कैला अपने सपनों के पीछे पागल है। उसकी माँ घर में बहू लाकर कैला के पैरों में बेड़ी डालना चाहती है। लेकिन वह धीरे-धीरे ठंडी-ठहरी आवाज़ में अपनी भीष्म प्रतिज्ञा माँ को सुना देता है- ‘‘मायबलमदीना का उदाहरण क्या देती है। मेरे घर कोई बलमदीना नहीं आएगी। कोई विसेंट एक्का नहीं जन्मेगा।’’7 उसकी माँ को हाय मार जाती है। आखिरी दाँव भी बेकार हो जाता है। कैला फिर कहता है- ‘‘हामर पुरखा लोग देश के जान दे दिए। ऊ सब आदमी नय थे?.......हम भी कभी सादी नय करेंगे। कभी नहीं।’’8

  

सरई के फूलसंग्रह की शीर्षक कहानी है। इस कहानी में राँची के जोन्हा क्षेत्र की एक निश्छलमासूमसरल आदिवासी लड़की सरई की कथा है। साथ ही,  आदिवासियों के माँदरबाँसुरीअखड़ा और उनकी समृद्ध संस्कृति की गहरी व्याख्या इस प्रतिनिधि कहानी में लेखिका करती है। एक प्रकृति प्रेमी जोन्हा और गौतमधारा के जंगलों और प्राकृतिक दृश्यों से अटूट प्रेम करता है। इस क्षेत्र विशेष के प्राकृतिक सौन्दर्य को निहारने वह बार-बार आता है। सरई उसकी गाइड बन जाती है। वह सरई के निश्छल व्यवहार और उसके अनिंद्य सौन्दर्य के प्रति आकर्षित भी है। लेकिन इसे प्रकट नहीं करता। कहानी के उत्तरार्ध में नक्सल समस्या का चित्रण है। सरई का पूरा परिवार भी इसकी गिरफ़्त में है। उस आदमी को गेस्ट हाउस के कमरे से नक्सली जंगल ले जाते हैं। सरई वहाँ पहुँचकर उनके चंगुल से उसे बचाती है। वह सदा के लिए यहाँ से जाना चाहता है परंतु सरई का प्रेम उसकी राह रोक लेता है। वह सरई की अन्तरात्मा की आवाज़ पढ़ लेता है- ‘‘उसका चेहरा गीलाआवाज़ गीलीचेहरा थरथराताआवाज़ थरथराती हुई। कहीं उसके अंदर भी तो कोंपल नहीं फूटी? जरूरजरूर उधर भी कुछ अँखुवाया है। कोंपलों की पहचान हो गई मुझे। लफ्जों की जरूरत नहीं थी। थी ही कब!’’9 वह सदा के लिए सरई का होकर रह जाता है।

  

बिट्टो की बड़ी माँगुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को रेखांकित करती है। हमारे देश की आज़ादी में सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के नायकों और उनकी साधारण स्त्रियों ने भी अपना सब कुछ होम कर दिया थाजिनके बारे में आज की पीढ़ी कुछ नहीं जानती। बिट्टो की बड़ी माँ ऐसे ही महान स्वतंत्रता सेनानी की पत्नी थी। उनके पति को अपनी ही जाति-बिरादरी के लोगों ने दुश्मनी की आग में झोंक दिया था। स्वतंत्रता मिलने के तीस वर्षों के बाद। कहानी यह भी बताती है कि अपने ही घर के लोभियों-द्रोहियों ने देश और सच्चे देशभक्तों का सत्यानाश कर दिया। बड़ी माँ अपने पति की निशानियों जैसे- पिस्तौलेंएक जोड़ा खड़ाऊँएक जोड़ी धोती-कमीजडायरी और अखबार में छपी उनकी तस्वीर को गठरी में बाँधकर सदैव अपने साथ रखती थीं। आजीवन वह अपने पति के आदर्शों को जीती रहीं। बिना बोले घर का हर काम करती रहीं। लेखिका के शब्दों में- ‘‘मुँह से एक शब्द बोले बिना कितने काम निपटा दिए होंगे। सब रानी लक्ष्मीबाई नहीं बन सकती। सिनगी देई भी नहीं। दुर्गा भाभी भी नहीं। फिर भी इनके योगदान को समझना।’’10 बड़ी माँ का त्याग पाठक की आँखें नम कर देता है। वह मरकर भी अमर हो जाती है।

 

 दो चुटकी निमकसामाजिक रूढ़ियों और लिंग-भेद की मानसिकता को उद्घाटित करती है। इस मानसिकता का शिकार विवेच्य कथा का जमींदार परिवार है,  जो लड़की के जन्म लेते ही नमक चटाना चाहता है। इस ढोंगी परिवार को सिर्फ़ लड़का चाहिए। मालती का जन्म इसी परिवार में होता है। जन्म लेते ही,  लड़की होने के कारण उसके घरवाले नमक चटाकर हत्या करना चाहते हैं। प्रसव कराने वाली औरत गौना उसे बचाकर एक आदिवासी दंपति को सौंप देती है। आदिवासी माँ-बाप बिना किसी भेदभाव के उसका पालन-पोषण करते हैं। उसे यथाशक्ति पढ़ाते-लिखाते हैं। आदिवासी समाज में नारी की स्थिति के बारे में लेखिका के विचार हैं- ‘‘उसकी जाति में नारी से घृणा नहीं की जाती। वे लोग वधू किनते हैं,  वर नहीं। उनमें वर खोजने के लिए नहीं जाते,  कन्या खोजने के लिए जाते हैं। एक दिन ई कन्या को भी कोई किनकर ले जाएगा। कम-से-कम सात खड़ी साड़ी देकर।’’11  मालती बड़ी होने पर अपने जन्म की कहानी जानने पर ज़मींदार माँ-बाप और हवेली के लोगों को कभी अपना नहीं पाती। पिता की मृत्यु पर गौना ज़बरदस्ती उसे हवेली लिवाकर जाती है। मालती वहाँ से बदहवास भागती चली आती है। उसे काले माँ-बाप और उनका उन्मुक्त जीवन ही अच्छा लगता है।

 

 ‘डोमिसाइलझारखंड गठन के समय की स्थिति को बयां करती है। बिहार से अलग होकर झारखंड का गठन तो हो गया लेकिन नवसृजित राज्य झारखंडी बनाम बाहरी के दुष्चक्र में फँसकर रह गया। कुछ उन्मादी लोगों द्वारा स्थानीयता के नाम पर बिहार और अन्य राज्य के लोगों पर अत्याचार किए जाने लगे। इसकी प्रतिक्रिया अन्य राज्यों में भी हुई। घीसू की बेटी सगरीजो बिहार में ब्याही गई थीवह अपनी ससुराल में बैठी राजधानी में बसे माँ-बाप की दशा पर चिंतित रहती है। डोमिसाइलके नाम पर स्थानीय आदिवासियों को भी बहुत कुछ गँवाना पड़ा। लेखिका के अनुसार- ‘‘सगरी का डर निर्मूल नहीं। उसके पति और पूरे परिवार के लोगों को खदेड़कर वापस भेज दिया गया था। अन्य राज्यों में कमाने-खाने गए उन जैसे लुटे-पिटे लोग भी रोते-कलपते अपने-अपने घर लौट रहे थे। उन्हें लौटना पड़ा थामार-पीटकर भगा दिया गया था उन्हें। डोमिसाइल का भूत उन जगहों पर भी हँस रहा था ठठाकर-हा हा हा!’’12 प्रस्तुत कहानी में आदिवासी समाज के बीच प्रचलित मुर्गे की लड़ाई का भी चित्रण हुआ है। लेखिका का उद्देश्य यह दिखाना भी रहा है कि कैसे आदिवासी मुर्गे की लड़ाई को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं। इसके चलते कभी-कभी वे अपना सब कुछ  गँवाकर मानसिक संतुलन भी खो देते हैं। आदिवासी घीसू इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। वह विक्षिप्तता की अवस्था में शहीद बेटे की लाश देखने के बाद भी नाचता-डेगता रहता है।

 

सुग्गा-सुग्गीविस्थापन की पीड़ा को व्यंजित करती एक मार्मिक कहानी है। भूखअभाव और बेकारी के कारण गबरा मुंडा अपनी पत्नी सोना को छोड़कर दार्जिलिंग चला जाता है। सोना-गबरा का जीवन एक प्रतीक कथा भी है। जंगल में रहने और चहकने वाले सुग्गा-सुग्गी की तरह सोना-गबरा एक स्वतंत्र-स्वच्छंद जीवन जी रहे थे। स्वतंत्रता के पश्चात् उद्योग-धंधे लगाने के नाम पर सरकार और पूँजीपतियों द्वारा आदिवासियों की ज़मीनें छीनी जाने लगीं। अपने ही राज्य में गबरा जैसे लोग बेगाने होते चले गए। रोटी का सवाल मुँह बाए खड़ा था। अपनी सुग्गी सोनाबेटा और वन के सहवासी पशु-पक्षियाँमहुआमडुवाशाल-खजूरताड़ीपुट्टुश-सबको छोड़कर वह परदेश कमाने चला जाता है। परदेश में भी सुग्गे गबरा का ध्यान अपनी सुग्गी पत्नी सोना पर लगा रहता है। इधरसोना तमाम कष्टों को सहते हुए अपने पति की राह निहारती रहती है। उसका सुग्गा कभी नहीं आ पाता है। कारणएक सड़क दुर्घटना में उसकी मौत हो जाती है। यह बात सोना को पता नहीं है। गबरा मुंडा का दोस्त गुरंग गबरा बनकर भारी मन से उसे चिट्ठी लिखता है- ‘‘हम अभी आ नय पारेंगे। खूब धन कमाकर आएँगे तो सबको साथ रखेंगे। जैसे दो साल हिम्मत रखी हैवैसे ही कुछ दिन की बात है। फिर गोटे कुटुम साथ रहेंगे। तब तक बकरी-छगरी सबको ठीक से रखना। हामर लबरा को भी। हम हर महीने पैसा भेजते रहेंगे। पोस्ट आफिस जा के छुड़ा लेना।’’13 कहानी दुखान्त होने के कारण पाठकों के मन में एक गहरी टीस छोड़ जाती है।

                  

 

सहिया नीलकंठत्रिकोणात्मक प्रेम कहानी है। गूलर और नीलकंठ बचपन से सहिया(मित्र) रहते हैं। दोनों में बहुत अधिक गहरी दोस्ती रहती है। दोनों गाय-बैल चराते वक़्त साथ ही खेलते। कुछ बड़े होने पर तुरही-सिंगामाँदर-ढोल और अन्य वाद्ययंत्र साथ बजाते। कहीं से बुलावा आने पर भी दोनों साथ-साथ जाते। समय के साथ बासंती नाम की लड़की के कारण  दोनों में अलगाव होने लगता है। दोनों बासंती को चाहते हैं। एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या और घृणा की दीवारें बड़ी होने लगती हैं। गूलर अपने मित्र के प्रति इतनी कड़वाहट से भर जाता है कि उसकी हर गतिविधि उसके विरुद्ध हो जाती है।......अचानक गूलर गायब हो जाता है। वह बासंती को अपने प्रेम-जाल में फँसा लेता है। बचपन से अब तक हर बार हारने वाला गूलर इस बार किसी भी कीमत पर जीतना चाहता है। वह बासंती को हासिल कर अपने मित्र को पराजित कर देता है। नीलकंठ के मनोभावों को इन पंक्तियों में बखूबी समझा जा सकता है- ‘‘वह बाबा नीलकंठ बन गया है। ज़हर से उसका कंठ भी नीला पड़ गया है। अब इसी नीले कंठ के साथ उसे जिंदगी बितानी है। उसने झट अपने गले को थाम लियाऔर उल्टियाँ पर उल्टियाँ करने लगा।’’14

  

घोड़वा नाचलुप्तप्राय होती लोककला के लिए तन-मन और धन से भी समर्पित सेनारी नामक लोक कलाकार की मार्मिक गाथा है। उसके पिता कैला भी घोड़ा नाच के मशहूर कलाकार थे। इसी नाच की तैयारी में कई महीनों से लगातार व्यस्त रहने के कारण सरहुल के दिन ही कैला की मौत हुई थी। उसकी पत्नी मुन्नी इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाती है। जब उसका बेटा सेनारी पुनः घोड़नाचदिखाने के लिए अपने पिता की राह पर चल पड़ता है तो मुन्नी उसे रोकने के तमाम प्रयास करती है। दशहरे के अवसर पर बेहतरीन नाच के लिए पूजा-समिति की ओर से उसे दस हज़ार का इनाम मिलता है। साथ हीदर्शकों का अपार प्रेम-स्नेह भी। उसकी नाच को लंदन में आयोजित होने वाले भारत महोत्सव में भाग लेने के लिए भी चुना जाता है। यह पूरे राज्य और देश के लिए गर्व की बात होती है। सेनारी की नाच का मोहक चित्रण इन पंक्तियों में है- ‘‘खूब नाचा वहखूब नाचा। घोड़े के मुँह को ऊपर और पूँछ वाला भाग नीचे करताकभी मुँह आगे की ओर झुका पूँछ को उठा  देता। कभी सीधे घोड़े के साथ ऐसी फिरकिनी लेता कि घुँघरुओं की छम-छम से पूरा वातावरण गूँज उठता। कभी लगता थाउसके घुँघरू बँधे पैरों में किसी ने घोड़े की दुलकी चाल की खूबसूरती भर दी हो। आत्मा का सारा सौंदर्य झोंक दिया। भूखतकलीफ सब भुलाकर। कमाने-खाने की फिक्र नहीं थी।’’15

  

धरती अबुआ बिरसाकहानी में बिरसा मुंडा के बचपनप्रकृति से उनके जुड़ाव और आदिवासी समाज को संगठित करने के लिए किए गए उनके अथक प्रयासों का सुंदर चित्रण किया गया है। बहुत कम समय में बिरसा मुंडा अपने गुणों के कारण आदिवासियों में पूजे जाने लगे थे। उन्होंने आदिवासी समाज को हर प्रकार की सामाजिक बुराइयों से दूर रहने का आह्वान किया। लेखिका इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित करती है कि 21वीं सदी में झारखंड में बिरसा के नाम का जितना दुरुपयोग हुआ उतना किसी भी स्वतंत्रता सेनानी का नहीं। इस संदर्भ में उल्लेख्य है-‘‘महात्मा गाँधीभगत सिंहचंद्रशेखर आजाद की तरह भगवान बिरसा की भी आत्मा देखती-सुनती हैसब समझती है और चुपचाप चल देती है किसी नए प्रतिष्ठान के साइनबोर्ड पर चिपकने या चौक-चौराहों पर मूर्ति बन जाने के लिए।’’16

 

निष्कर्ष :

 

उपर्युक्त विवेचना के आधार पर निस्संदेह कहा जा सकता है कि सरई के फूलअनिता रश्मि की अनोखी रचना है। आदिवासी जीवन के तमाम पक्षों का चित्रण इन कहानियों में हुआ है। राँची एवं इसके आस-पास के इलाके की स्थानीय नागपुरी भाषा की छौंक सहज द्रष्टव्य है। आदिवासी अंचल की खूबसूरती का जिस सूक्ष्मता से अंकन प्रस्तुत संग्रह में हैवह अन्यत्र दुर्लभ है। निश्चय ही,  ‘सरई के फूलको पढ़े बिना आदिवासियत को नहीं समझा जा सकता। विवेच्य रचना झारखंडी हिन्दी साहित्य की अविस्मरणीय कृति है। डॉ. उर्वशी के शब्दों में,  ‘‘सुंदर सरल ढंग से कठिन परिस्थितियों को प्रस्तुत करनाभावपूर्ण लघुकथाएँ लिखनासंवेदना और प्रेरणा से ओत-प्रोत कविताएँ लिखना और लेखकों के गर्व-घमंडचमक-दमक से दूर चुपचाप अपने विचारों एवं भावों को अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त करते रहना अनिता रश्मि जी की विशेषता है।’’17

 

संदर्भ :

  1. संपादक डॉ. उषा कीर्ति राणावत, आदिवासी केन्द्रित साहित्य, पृष्ठ-296
  2.  डॉ. उर्वशी, पुरवाई, संपादक डॉ. तेजेन्द्र शर्मा, कथा यूके लंदन, 5 दिसंबर 2021
  3.  अनुराग अन्वेषी,  सांध्य दैनिक बिरसा का गांडीव’,  राँची,  04 अक्टूबर 2021 अंक से।
  4.  अनिता रश्मि,  सरई के फूलहिंद युग्म प्रकाशननोएडा(उ.प्र.)प्रथम संस्करण-2021ई. पृष्ठ संख्या-21
  5.  वही,  पृष्ठ संख्या-42
  6.  वही,  पृष्ठ संख्या-69
  7.  वही,  पृष्ठ संख्या-87
  8.  वही,  पृष्ठ संख्या-87
  9.  वही,  पृष्ठ संख्या-107
  10.  वही,  पृष्ठ संख्या-119
  11.  वही,  पृष्ठ संख्या-129
  12.  वही,  पृष्ठ संख्या-149
  13.  वही,  पृष्ठ संख्या-174
  14.  वही,  पृष्ठ संख्या-182
  15.  वही,  पृष्ठ संख्या-194
  16.  वही,  पृष्ठ संख्या-219
  17.  रजनीश आनंद,  दैनिक प्रभात ख़बरराँची,  18 दिसंबर 2020 

 

धर्मेन्द्र कुमार

सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग,  राम जयपाल महाविद्यालयडाक बंगला रोड,  छपरा (बिहार) - 841301

dk69044@gmail.com ,  7631058055


                  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

चित्रांकन : All Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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