शोध आलेख : अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति : तुलनात्मक अध्ययन ( मुस्लिम उपन्यासकारों के संदर्भ में ) -डॉ. मोहम्मद फ़ीरोज़ खान

नुभूतिजन्य अभिव्यक्ति: तुलनात्मक अध्ययन

( मुस्लिम उपन्यासकारों के संदर्भ में)

डॉ. मोहम्मद फ़ीरोज़ खान

  

शोध सार :

कथाकार द्वारा निर्मित पात्र, उसका आचार-विचार सामाजिक प्राणी जैसा ही होता है। कथाकार इसे अपने अनुभवों के आधार पर निर्मित करता है। मानवीय सोच के विविध स्तर को दिखाने के लिये कथाकार दो विपरीत
विचारों वाले पात्रों के मध्य संवाद प्रक्रिया का आयोजन करता है। इस प्रकार मानस के विविध स्तर उद्घाटित होते हैं। विभाजन के पश्चात् बने नये देश पाकिस्तान के प्रति जहाँ कुछ 
भारतीय मुसलमानों में अविश्वास और विद्रोह था वहाँ कुछ मुसलमानों को मज़हब, इस्लाम, समान संस्कृति वाले नवनिर्मित राष्ट्र से बड़ी आशायें थी। किसी भी पात्र से जुड़ी आत्मीयता, संवेदना तथा अपनत्व रचनाकार के मानस से जु़ड़ना होता है। उपन्यास, कहानी, निबंध एवं नाटक आदि कथाकार की अनुभूतिगत कलात्मक अभिव्यक्ति है। वह घटनायें एवं परिस्थितियाँ जिससे कथाकार प्रभावित हुआ तथा उसे अभिव्यक्ति देने हेतु प्रेरित हुआ जो कि रचना के सृजन हेतु यह तथ्य विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। कथाकार की सफलता उसकी समसामयिक संदर्भों से जुड़ी सशक्त अभिव्यक्ति में निहित है। सामाजिक सम्बन्धों में बंधा हुआ मनुष्य समय एवं परिस्थितियों से प्रभावित होकर परस्पर  सम्बन्धों में भाँति-भाँति के व्यवहार करता है। कभी-कभी उसके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार अत्यधिक निन्दनीय होता है। कभी पाशविक और कभी अत्यन्त प्रेमपूर्ण, भावनापूर्ण। मनुष्य अपने द्वारा किये व्यवहार पर पश्चाताप करता है उसके अन्र्तात्मा उसे अपने दुव्र्यवहार का प्रायश्चित करने के लिये प्रेरित करती है। उपन्यासों में व्यक्त परिवार, समाज और उनसे जुड़े सम्बन्धों के साथ किये गये व्यवहार से ग्लानि ग्रस्त विचारों का उल्लेख उपन्यासकारों ने बार-बार अलग-अलग रूप में किया है। जीवन और उससे जुड़ी समस्त परिस्थितियों से जन्मी मानवीय प्रवृत्तियों को आधार बनाकर ही उपन्यासकारों ने उपन्यास में व्यक्त किया है। मनुष्य जीवन को जीता तो हैं क्योंकि जीना उसकी नियति है। परन्तु वह पल-पल जीवन में होने वाली घटनाओं से स्तम्भित रहता है वह जीवन के गूढ़ रहस्यों को खोल पाने में कहीं न कहीं असमर्थ है।

 

बीज-शब्द : इस्लाम, उद्घाटित, अनुभूतिगत, समसामयिक, अभिव्यक्ति, निहित, त्रासदी, विभाजनोपरान्त, कैफियत, ताअल्लुक, तर्जुबा, तकलीफ देह, नवनिर्मित, ख़ौफ, बुनियाद, खुद्दारी, जनसामान्य, परिस्थितिवश, गरिबान, जुर्रत, गुनहगार, परम्परावादी, ईश्वरवादी, भारतवासी, द्वन्द्वात्मक, विषाक्ताओं, संवेदनशील, व्याख्यायित आदि।

           

मूल आलेख : भारत विभाजन की घटना, देश के लिये सबसे बड़ी त्रासदी थी जिसने पूरे देशवासियों के जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया, स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों में उपन्यासकारों द्वारा विभाजन का भोगा गया तिक्त अनुभव जीवन्त रूप से चित्रित किया गया है। इस त्रासदी ने सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को ही नहीं, साथ में सम्पूर्ण जनसामान्य की मानसिकता को भी प्रभावित किया जिसे सृजक ने गहराई से अनुभव किया है और उसे अपनी कृति में अभिव्यक्ति प्रदान की है। राही मासूम रज़ा ने विभाजनोपरान्त व्याप्त स्थिति का उल्लेख करते हुए लिखा है,‘‘हर कैफियत अकेली थी हर जज़्बा तन्हा था। दिन से रात और रात से दिन का ताअल्लुक टूट गया था।’’1प्रेमपूर्वक रहने वाले भारतवासी एक झटके में केवल हिन्दू और मुसलमान बनकर रह गये। जैसे दिशायें स्तब्ध-सी इस घटना को मौन देख रही थी। विभाजन की त्रासदी से जन्मी कड़वाहट ने धर्म की रेखा ही नहीं खिंची, बल्कि भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति पर भी आशंका व्यक्त की जाने लगी जिसे भारतीय मुस्लिम उपन्यासकारों ने न केवल अनुभव किया अपितु इस सत्य को पूरी पीड़ा के साथ अभिव्यक्तकिया।इसेनासिरा शर्मा के इसवक्तव्यसेसमझ सकते हैं,‘‘वह तर्जुबा कितना तकलीफदेह होता है कि जहाँ आप पैदा हों जिस ज़मीन को आप अपना वतन समझें उसे बाकी लोग आपका गलत कब्जा बतायें और साथ ही यह प्रश्न किया जाय कि वह कहाँ रहना चाहता है।’’2बदीउज्ज़माँ ने छाको की वापसीउपन्यास में विभाजन के पश्चात् भारत सरकार द्वारा भारतीय मुसलमानों से निवास सम्बन्धी किये जाने वाले प्रश्न और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप जन्म लेने वाली सोच को व्यक्त करते हुए छोटी अम्मा के माध्यम से व्यक्त किया है जिन्हें अपना वतन छोड़कर जाना स्वीकार नहीं है। वह कहती हैं कि हमें पाकिस्तान-वाकिस्तान नहीं जाना है। हम अपना घर-बार छोड़कर परदेस क्यों जायें?3 पाकिस्तान के निर्माण के साथ नफ़रत जंगल की आग की तरह पूरे देश में फैल गयी थी। आदमी-आदमी का शत्रु बना घूम रहा था। डॉ. राही मासूम रज़ा का मानस भी विभाजन की इस पीड़ा से प्रभावित हुआ था उन्होंने भी इस सत्य को भोगा था। उनका मानस भी पाकिस्तान निर्माण के समर्थन में न था। राहीने अपने प्रसिद्ध उपन्यास आधा गाँवमें लिखा है कि नफरत और ख़ौफ की बुनियाद पर बनने वाली कोई चीज मुबारक नहीं हो सकती।4

           

मानवीय सोच के विविध स्तर को दिखाने के लिये कथाकार दो विपरीत विचारों वाले पात्रों के मध्य संवाद प्रक्रिया का आयोजन करता है। इस प्रकार मानस के विविध स्तर उद्घाटित होते हैं। विभाजन के पश्चात् बने नये देश पाकिस्तान के प्रति जहाँ कुछ भारतीय मुसलमानों में अविश्वास और विद्रोह था, वहाँ कुछ मुसलमानों को मज़हब, इस्लाम, समान संस्कृति वाले नवनिर्मित राष्ट्र से बड़ी आशायें थी।

           

छाको की वापसीउपन्यास में छोटी अम्मी पाकिस्तान जाने के पक्ष में नहीं है। परन्तु बदीउज़्जमाँ ने उपन्यास के दूसरे पात्रों में पाकिस्तान के प्रति रुचि एवं आशायें भी दिखाई हैं। उपन्यास के पात्र कहते हैं कि ‘‘हिन्दू पाकिस्तान से भागकर हिन्दुस्तान आ रहे हैं। उनकी जगह यहाँ से जाने वालों को मिलेगी और फिर मुसलमानों का अपना मुल्क है। वहाँ न हिन्दू का डर होगा न दंगों का खतरा।’’5 उपन्यास में नासिरा शर्मा ने भी बदीउज़्जमाँ के समान ही पाकिस्तान से जुड़ी आशायें और अपनी सुरक्षा का सन्तोष व्यक्त करने वाली सोच नासिरा उपन्यास जि़न्दा मुहावरेके पात्र निज़ाम में दिखाई पड़ता है- ‘‘जहाँ जात है अब वही हमार वतन कहलइहे। नया ही सही अपना तो होइहे। जहाँ रोज़-रोज़ ओकी खुद्दारी को कोई ललकारिये तो नाही। कोई ओके गरिबान पर हाथ डालै की जुर्रत तो न करिहे।’’6

           

पाकिस्तान का निर्माण साधारण जनता की इच्छा न होकर राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि का परिणाम था। यही कारण है कि भारतीय मुसलमान विभाजन से अप्रसन्न थे, साथ ही वह भारत छोड़कर जाने को तैयार न थे। मनुष्य की यह सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपनी जमीन, सम्बन्धी, पड़ोसी, समाज और देश के प्रति प्रेम रखता है। परिस्थितिवश प्रेम का स्वरूप बदल भी सकता है। यह सब कुछ मानस से प्रभावित सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है। राही मासूम रज़ा का छोटा-सा गाँव गंगौली भी विभाजन से प्रभावित था। गाँव के कुछ लोग पाकिस्तान चले गये थे तो कुछ अपने पूर्वजों की धरती छोड़कर जाने को तैयार न थे। कुछ सम्बन्धियों के कारण देश छोड़कर जाने पर विवश हुए। भारत विभाजन के पश्चात् भारतीय मुसलमान द्वन्द्वात्मक पीड़ा की यातनायें सह रहा था। राही मासूम रज़ा ने सब कुछ बहुत निकट से देखा था और महसूस भी किया था जो उनके मानस पर चित्रित हो गया था। वही उपन्यास में घटना और प्रतिक्रिया के रूप में व्यक्त हुआ। उन्होंने आधा गाँवउपन्यास में कृषक वर्ग की मातृभूमि के प्रति प्रेम दिखाने का प्रयास किया है, जैसे- ‘‘हम ना जाय वाले हैं...जहाँ हमरा खेत हमरी जमीन तहाँ हम।’’7 परम्परावादी, ईश्वरवादी, भारतवासी अपने देश की मिट्टी में ही अपना अन्त चाहता है। ओंस की बूंदउपन्यास में भी राही का यही भाव व्यक्त हुआ हैं-‘‘मैं एक गुनहगार आदमी हूँ और उसी जमीन पर मरना चाहता हूँ जिस पर मैंने गुनाह किये हैं।’’8

           

राही मासूम रज़ा के उपन्यासों में पाकिस्तान को लेकर बार-बार आक्रोश और विरोध व्यक्त हुआ है जिससे उनके भीतर का देशप्रेम दिखाई पड़ता है। वह बार-बार अपने देश के प्रति अपने लगाव को अलग-अलग शब्दों में अभिव्यक्ति प्रदान करते दिखाई पड़ते हैं। आधा गाँवउपन्यास के पात्र का संवाद पुनः राही मासूम रज़ा के देशप्रेम का प्रमाण प्रस्तुत करता है- ‘‘अच्छा हम कह दे रहे हैं कि हमरे सामने तू पाकिस्तान का नाम मत ली हो। तू है बहुत शौक चर्राया है तो जाओ बाकी हम अपनी लड़कियन को लेके इहहँ रहिहै।’’9   विभाजन के पश्चात् प्रभावित मुस्लिम समाज का उल्लेख नासिरा शर्मा, राही मासूम रज़ा, बदीउज़्जमाँ आदि बहुत सारे उपन्यासकारों ने किया है। विवेच्य संवादों में व्यक्त मानसिकता से स्पष्ट है कि अधिकांश मुसलमान न ही पाकिस्तान के निर्माण के पक्ष में थे और न ही पाकिस्तान के प्रति उनमें रुचि थी, यदि कुछ लोगों में पाकिस्तान से जुड़ी अपेक्षायें थी भी तो उसका कारण अपने ही देश में मिलने वाली उपेक्षा और असुरक्षा की आशंका थी।

           

विभाजन के पश्चात् अर्थ की समस्या सामने आ गई थी। बदलते समाज और बदलते जीवन मूल्यों के साथ जीने का तौर-तरीका बदलता जा रहा हैं। माँ-बाप द्वारा दिये जाने वाले सुख में खोयी सन्तान उनके त्याग, बलिदान से पूरी तरह अनभिज्ञ है। उसे आभास कराने के लिये माँ-बाप समय-समय पर सचेत करते हैं। अपने जीवन के संघर्षों की घटना सुनाकर नयी पीढ़ी में विश्वास, शक्ति तथा त्याग पैदा करना चाहते हैं। छाको की वापसीमें अब्बा के माध्यम से बदीउज़्जमाँ ने ऐसे ही तथ्यों पर प्रकाश डाला है। उपन्यास के पात्र अपने जीवन के अनुभवों एवं संघर्षों के सम्बन्ध में कहते हैं कि- ‘‘तुम लोगों को क्या पता कितनी मुसीबतें झेलकर पढ़ा है। ट्यूशन कर करके पढ़ाई और खाने पीने का खर्च निकाला है। अक्सर फीस के लिए मेरे पास पैसे नहीं होते थे।’’10 शानी ने काला जलउपन्यास में युवा पीढ़ी के दायित्वों से विमुख होने का ऐसा ही चित्रण प्रस्तुत किया है। उपन्यास का बुजुर्ग पात्र फूफा कहते हैं कि- ‘‘वह मर-मर कर कमाते हैं, सब सालों का पेट पालते हैं लेकिन कोई उनके जरा से खाने-पीने का ख़्याल नहीं रखता।’’11

           

आर्थिक विषमताओं से प्रभावित मनुष्य की विषाक्ताओं को संवेदनशील कथाकारों ने गहराई से महसूस किया है। आर्थिक विषमताओं से प्रभावित जन्म लेने वाली परिस्थिति एवं विचारों का उल्लेख, जीवन को व्याख्यायित करने वाली उपन्यास विधा में देखने को मिलता है। अलग-अलग रचनाकरों का अर्थ सम्बन्धी व्यक्त विचार आर्थिक अनिवार्यता की ओर संकेत करता हैं।असगर वजाहत के उपन्यास सात आसमानका पात्र आर्थिक संकट के क्षणों से निरन्तर संघर्ष करने के साथ जीवन में मिली असफलताओं और स्वजनों की अपेक्षाओं से खीझकर कहता है कि - ‘‘अब्बा आपको हर वक्त पैसे की लगी रहती है। ये मेरा ही दिल जानता है कि जिस तरह खर्च पूरा कर रहा हूँ। ... जब होगा तो मैं आपको ...मुझे शर्म भी आती है जब आप मुझसे पैसे माँगते हैं।’’12

           

अर्थ पूरे जीवन को संचालित करने वाली महत्त्वपूर्ण धुरी है जिससे परिवार, समाज, देश कुछ भी अछूता नहीं है। अर्थाभाव केवल मनुष्य विशेष को ही नहीं, अपितु उससे जुड़े समस्त सम्बन्धों को भी प्रभावित करता है। भविष्य की असुरक्षा दायित्व का निर्वाह और मनुष्य की अपनी असफलतायें उसे बड़ी पीड़ा देती है। अर्थ के अभाव सम्बन्धी ऐसे ही भावों को असगर वजाहत की भाँति मेहरून्निसा परवेज़ ने भी अनुभव किया हैं। तद्सम्बन्धी विचार उनके उपन्यास कोरजामें व्यक्त हुआ है- ‘‘नई-नई नौकरी है, वह भी परमानेंटनहीं। जाने कब छंटनी कर दिया जाऊँ ...ऊपर से परिवार का इतना बोझ। दो बहनें शादी के लिए बैठी है, उनकी शादी के लिए अम्मा अलग छाती छोल रही है। अब्बा को मरे पाँच साल हो गए। छोटे-छोटे भाई बहनों को पैसे की तंगी की वजह से स्कूल से निकाल दिया गया।’’13

           

सामाजिक सम्बन्धों में बंधा हुआ मनुष्य समय एवं परिस्थितियों से प्रभावित होकर परस्पर  सम्बन्धों में भाँति-भाँति के व्यवहार करता है। कभी-कभी उसके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार अत्यधिक निन्दनीय होता है। कभी पाशविक और कभी अत्यन्त प्रेमपूर्ण, भावनापूर्ण। मनुष्य अपने द्वारा किये व्यवहार पर पश्चाताप करता है उसके अन्र्तात्मा उसे अपने दुव्र्यवहार का प्रायश्चित करने के लिये प्रेरित करती है। उपन्यासों में व्यक्त परिवार, समाज और उनसे जुड़े सम्बन्धों के साथ किये गये व्यवहार से ग्लानि ग्रस्त विचारों का उल्लेख उपन्यासकारों ने बार-बार अलग-अलग रूप में किया है। अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास समरशेषकी पात्र भाभी अपने देवर से किये अपने दुव्र्यवहार से लज्जित है। वह कहती है कि- ‘‘आप हमें माफ कर दीजिये।  हमने आपके साथ बहुत बुरा बर्ताव किया है और हमारा दिल हमको धिक्कार रहा है, हम अल्लामियाँ के सामने क्या मुँह दिखायेंगे? हम आपसे माफी माँगने के लिए इस वक्त यहाँ आए हैं। यक़ीन मानिए हमारा रोआ-रोआ तड़प रहा है। इस वक्त। भैय्या! हमें माफ कर दीजिये।’’14

           

 जीवन में मिलने वाले सुखों में डूबा मनुष्य बहुत कुछ भूल जाता है। उसे बहुत देर बाद होश आता है। ऐसे ही पछतावे का उल्लेख नासिरा शर्मा ने जि़न्दा मुहावरेउपन्यास में किया है। उपन्यास के पात्र निज़ाम का सब कुछ पाकर भी कुछ खो देने की पीड़ा का अनुभव बड़ा ही यथार्थपरक है। वे कहते हैं कि- ‘‘पछतावा...बहुत पछतावा हो रहा है बेटे। तुम से क्या छिपाना। कुछ मज़ा नहीं आया जि़न्दगी में सब कुछ पाकर भी क्या खोया यह आज समझ में आया।’’15 पाश्चाताप का यही क्रम उन्हीं का उपन्यास सात नदियाँ एक समुन्दरमें दिखाई पड़ता है। यहाँ भी भ्रम का परदा आँखों पर होने के कारण सत्य से साक्षात्कार होने परहोने वाले पछतावे का उल्लेख नासिरा शर्मा ने किया है। इस उपन्यास की पात्र सूसन कहती है कि- ‘‘हमने कभी सोचा ही न था एक परदा था जो आँखों के सामने पड़ा था। सुख के अतिरिक्त हमने देखा ही क्या था।’’16

           

अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने उपन्यास झीनी-झीनी बीनी चदरियामें बुनकर की पीड़ा को व्यक्त किया है। इस उपन्यास के पात्र को पछतावा है कि दुनिया के लिये महँगी बनारसी साड़ी बुनने वाले कीमाँ को सस्ती साड़ी पहननी पड़ती है। यह श्रमिक वर्ग की अजीब-सी नियति है। अनाज उगाने वाले कृषक के पास ही भर पेट खाने को नहीं होता, जूते सिलने वालों के पास पहनने को जूता नहीं होता। इसी सत्य को बिस्मिल्लाह की जागरूक चेतना ने न केवल अनुभव किया, अपितु अत्यन्त मर्मस्पर्शी ढंग से भी चित्रित भी किया है- ‘‘वह पछता रहा था उसने गलती की। साड़ी उसे नहीं बेचनी थी। अपनी माँ को दे देनी थी। ...छिः दुनिया भर के लिये साड़ी बिनकर देने वाले घर की औरतों को एक सस्ते दाम वाली बनारसी साड़ी भी नसीब नहीं होती। पूरी उम्र कट गयी सूती धोतियाँ और छींट की सलवार-कमीज पर। अरे जैसे इतना कर्जहै वैसे ही कुछ कर्ज और चढ़ जाता, और क्या। आज कैसी तो चमक थी, अम्मा की आँखों में। साड़ी पर किस तरह उसकी उंगलियाँ फिर रही थी, जैसे कोई भूखा बच्चा रोटी पर अपना हाथ फेरे।’’17

           

कहीं परिस्थितिजन्य पछतावा तो कहीं अपने कर्मों का पछतावा प्रायश्चित की अलग-अलग मानसिकता की परिस्थितियों से प्रभावित होती हुई ओस की बूँदउपन्यास में राही मासूम रज़ा ने अशिक्षा के कारण अनुभव की जाने वाली विवशता और प्रायश्चित का उल्लेख किया है- ‘‘ससुराल से हमें खत लिखियों तो मोहल्ले भर में डौडियाएंगे कि ए भाई हमारी शहलिया का खत आया है कोई पढ़ के सुनाव हमारी पोती हमें का लिक्खिस है।’’18 पश्चाताप से जुड़ी मानसिकता को व्यवहार के आधार पर और परिस्थितिजन्य विवशता के आधार पर अब्दुल बिस्मिल्लाहतथा राही मासूम रज़ा ने अलग-अलग ढंग से अनुभव कर उसे अभिव्यक्ति प्रदान की है। इन सभी उपन्यासकारों का आधार परिस्थितियाँ भले ही भिन्न-भिन्न है पर इनके मूल में मानवीय प्रवृत्ति अनुरूप मूल चेतना पश्चाताप समान है।

           

जीवन और उससे जुड़ी समस्त परिस्थितियों से जन्मी मानवीय प्रवृत्तियों को आधार बनाकर ही उपन्यासकारों ने उपन्यास में व्यक्त किया है। मनुष्य जीवन को जीता तो हैं क्योंकि जीना उसकी नियति है। परन्तु वह पल-पल जीवन में होने वाली घटनाओं से स्तम्भित रहता है वह जीवन के गूढ़ रहस्यों को खोल पाने में कहीं न कहीं असमर्थ है। सात नदियाँ एक समुन्दरकी पात्र महनाज मनुष्य की रागात्मिक प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हुए कहती है कि- ‘‘इन्सान भी कितना अजीब है जहाँ रहता है वहीं जुड़ जाता है।’’19 एक तरह मनुष्य का स्थान और परिवार समाज आदि के प्रति लगाव रचनाकार के मस्तिष्क को प्रभावित करता है, दूसरी ओर एक ही मनुष्य के विषय में लोगों की अलग-अलग राय भी हैरान करने वाली होती है। इस रहस्यमयी वास्तविकता को अब्दुल बिस्मिल्लाह ने मुखड़ा क्या देखेउपन्यास में व्यक्त किया है। उपन्यास के पात्र बुद्धू के माध्यम से अनुभवगत सत्य को उद्घाटित करते हुए बिस्मिल्लाह ने लिखा है कि- ‘‘हर आदमी अच्छा भी है और बुरा भी। दुख में शायद हम उसकी अच्छाइयों को याद करते हैं। सोचने पर भी बुराई सामने नहीं आती। ...फिर एक ही परिवार में कोई बुरा है तो कोई अच्छा भी।’’20

           

मनुष्य को दुनिया को ही नहीं अपने को भी समझ पाना बड़ा कठिन है। पूरी जि़न्दगी बीत जाती है पर वह कुछ नहीं समझ पाता। नासिरा शर्मा ने जि़न्दा मुहावरेउपन्यास में लिखा है कि ‘‘इन्सान की यह जि़न्दगी कितनी कम होती है अपने को और इस दुनिया को समझने के लिये।’’21नासिरा शर्मा की भाँति ही मेहरून्निसा परवेज भी जीवन के विविध रंगों को देखकर हैरान है। वह अपने उपन्यास कोरजामें नसीमा को आधार बनाकर लिखती है कि - ‘‘जि़न्दगी के इस नये-नये रूपों को देखकर दंग थी, हैरान थी। आदमी का जन्म कितना दुखदायी है। मरकर भी शान्ति नहीं मिलती। फिर भी कहते हैं कि आदमी का जन्म सबसे ऊँचा है और सबसे अच्छा है।’’22

           

मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण अपनी आवश्यकता एवं परिस्थितिवश एक दूसरे के सामीप्य में आता है और इस बीच उसमें मैत्रीपूर्ण, पे्रमपूर्ण, सहानुभूतिपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं। नारी मन सदैव से भावुक, कोमल और संवेदनशील है। उसने समाजगत सम्बन्धों का अनुभव किया है। उसकी पीड़ा को भी भोगा है। नासिरा शर्मा और मेहरून्निसा दोनों ही महिला लेखिका है और दोनों ने ही सामाजिक सम्बन्धों से जुड़े अनुभव को नारी पात्र के माध्यम से शब्दबद्ध किया है। सात नदियाँ एक समुन्दरउपन्यास की पात्र स्वार्थ हीन समर्पित प्रेम सम्बन्धों की बात करती है। वह कहती है कि कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिनका कोई नियम नहीं, बनने से पहले ही टूट जाते है। क्षणिक होते हैं। इतने कम समय का क्या नियम बनाया जा सकता है। हर रिश्ते से कुछ मिलने की तमन्ना करना केवल स्वार्थ है।’’23 उपन्यास कोरजाकी पात्र कम्मो ऐसे ही सम्बन्ध के टूटने की पीड़ा सह रही है। वह कहती है कि- ‘‘दुख इस बात का नहीं मुझे धोखा दिया गया बस अपने से ही शिकायत है कि जब उम्र के इतने साल अकेले बिना साथी के काट दिये थे। तो फिर क्यों सहारे के लिये इधर-उधर देखा। उम्र का बड़ा हिस्सा अपने समेटने में अपने को दूसरे की बराबरी में खड़ा करने में बीत गया, थोड़ी फुरसत हुई तो किसी की ओर सहारे के लिए हाथ बढ़ाया, पर वह सहारा बनना छोड़ बैसाखियों की ओर लौट गया। अब सारी उम्र मन इस दर्द को इस वीरानी को ढोता फिरेगा।’’24

           

मनुष्य की रागात्मक वृत्ति संवेदना के धरातल पर प्रेम सम्बन्धों को स्थापित करती है। प्रेम का भाव प्रत्येक प्राणी में पाया जाता है। यह एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है जो अन्तर्मन से सम्बद्ध है। प्रेम से जुड़े अनुभव को मेहरून्निसा परवेज़ व्यक्त करते हुए उपन्यास कोरजामें लिखती है कि- ‘‘प्यार बड़े विचित्रढंग से सामने आता है, तब बुद्धि काम नहीं करती, आदमी भी सोचने पर मजबूर हो जाता है, क्या ऐसा भी हो सकता है।’’25 स्पष्ट है कि मेहरून्निसा परवेज प्रेमअचेतन मन द्वारा घटित होने वाली प्रक्रिया मानती है। वह लिखती है कि- ‘‘प्यार को शायद किसी सहारे या बहाने की जरूरत नहीं होती, वह खुद अपने आप अपने लिये बहाने तलाश कर लेता है, रास्ता निकाल लेता है।’’26 प्यार स्वतः प्रवाहित होने वाली स्वाभाविक प्रक्रिया है। यही बात नासिरा शर्मा भी मानती है। उन्होंने अपने उपन्यास सात नदियां एक समुन्दरके पात्रों के माध्यम से प्रेम की स्वाभाविकता, सहजता एवं स्वच्छन्दता को व्यक्त किया है-‘‘इतनी परेशानी और कहर में भी हम इश्क करना नहीं भूले, जबकि ईरान की धरती से बरकत तक उड़ गयी। हम जि़न्दा है मरे नहीं है, इसका अहसास आज हुआ है। हम नार्मल है और इश्क का सोता हमारे दिलों में सूखा नहीं है।’’27मेहरून्निसा परवेज़ प्रेम को स्वाभाविक ढंग से घटने वाली एक घटना के रूप में स्वीकार करती हैं। उन्होंने कोरजाउपन्यास में लिखा है कि- ‘‘हम जहाँ से समझते हैं कि प्रेम समाप्त हुआ, वहीं से वह असल शुरू होता है। बासमती के पौधे कैसे धरती फोड़कर महकते हैं। उनकी कच्ची निराली महक अजीब लगती है। बस ऐसे ही प्रेम की महक होती हैं। अनजाने में बीज़ पड़ जाता है और ...? जब प्रेम का अन्त हो जाता है तब यह कच्ची धरती फोड़कर निकली गन्ध मन को मापने लगती है।’’28

           

जीवन में मनुष्य आशाएं और सपने सजाता है।कभी-कभी उसे ही सत्य मान कर सुख का अनुभव करता है, परन्तु सहज यथार्थ से टकराकर उसके सपने उसकी आशायें और कल्पनायें चकनाचूर हो जाती हैं। कल्पनात्मक सुख और जीवन के यथार्थ के मध्य संघर्षरत मानव जीवन का चित्रण उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में किया है। कोरजाउपन्यास में मेहरून्निसा परवेज लिखती हैं कि- ‘‘कितने अरमानों से तिनके-तिनके कर सपनों का महल खड़ा किया था पर दुष्ट हवा ने आकर सब कुछ छीन लिया।’’29 अतीत हमेशा मनुष्य का पीछा करता है। जि़न्दा मुहावरे उपन्यास में इस यथार्थपरक सत्य को नासिरा शर्मा ने उद्घाटित किया है वह लिखती है कि- ‘‘गुजरा कल हर इन्सान पर भारी होता है। उससे जान छुड़ाना बहुत मुश्किल है और इस मौजूदा हकीकत से इन्कार भी गद्दारी है।’’30 भारतीय मुसलमान अनुभूति के धरातल पर विभाजन के जिम्मेदार होने के बोझ को निरन्तर ढोता हुआ असुरक्षा, अविश्वास और संशय से ग्रस्त है।इस्लाम त्याग, बलिदान, तपस्या, मेल-मिलाप एवं भाईचारे का संदेश देने वाला धर्म है जिसे हर मुसलमान स्वीकार करता है। ये अलग बात है कि अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु इसे अपने ढंग से परिभाषित एवं व्याख्यायित करने का प्रयास कुछ अवसरवादियों द्वारा समय-समय पर किया जाता रहा है। जिसका परिणाम भोले-भाले आस्थावादी मुसलमानों को भोगना पड़ा है।

 

निष्कर्ष :

 

मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के कारण अपनी आवश्यकता एवं परिस्थितिवश एक दूसरे के सामीप्य में आता है और इस बीच उसमें मैत्रीपूर्ण, पे्रमपूर्ण, सहानुभूतिपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं। नारी मन सदैव से भावुक, कोमल और संवेदनशील है। उसने समाजगत सम्बन्धों का अनुभव किया है। उसकी पीड़ा को भी भोगा है। नासिरा शर्मा और मेहरून्निसा दोनों ही महिला लेखिका है।दोनों ने ही सामाजिक सम्बन्धों से जुड़े अनुभव को नारी पात्र के माध्यम से शब्दबद्ध किया है।उपन्यास, कहानी, निबंध एवं नाटक आदि कथाकार की अनुभूतिगत कलात्मक अभिव्यक्ति है। वह घटनाएं एवं परिस्थितियाँ जिससे कथाकार प्रभावित हुआ तथा उसे अभिव्यक्ति देने हेतु प्रेरित हुआ जो कि रचना के सृजन हेतु यह तथ्य विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। कथाकार की सफलता उसकी समसामयिक संदर्भों से जुड़ी सशक्त अभिव्यक्ति में निहित है। सामाजिक सम्बन्धों में बंधा हुआ मनुष्य समय एवं परिस्थितियों से प्रभावित होकर परस्पर  सम्बन्धों में भाँति-भाँति के व्यवहार करता है। कभी-कभी उसके द्वारा किया जाने वाला व्यवहार अत्यधिक निन्दनीय होता है। कभी पाशविक और कभी अत्यन्त प्रेमपूर्ण, भावनापूर्ण।विभाजन के पश्चात् प्रभावित मुस्लिम समाज का उल्लेख नासिरा शर्मा, राही मासूम रज़ा, बदीउज़्जमाँ आदि बहुत सारे उपन्यासकारों ने किया है। विवेच्य संवादों में व्यक्त मानसिकता से स्पष्ट है कि अधिकांश मुसलमान न ही पाकिस्तान के निर्माण के पक्ष में थे और न ही पाकिस्तान के प्रति उनमें रुचि थी, यदि कुछ लोगों में पाकिस्तान से जुड़ी अपेक्षायें थी भी तो उसका कारण अपने ही देश में मिलने वाली उपेक्षा और असुरक्षा की आशंका थी।

 

संदर्भ :

 

1.         राही मासूम रज़ा, आधा गाँव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सातवीं आवृत्ति 2010, पृ. 336

2.         नासिरा शर्मा, जि़न्दा मुहावरे, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2001, पृ. 101

3.         बदीउज़्जमाँ, छाको की वापसी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं. 1985, पृ. 17

4.         आधा गाँव, पृ. 256

5.         छाको की वापसी, पृ. 17

6.         जि़न्दा मुहावरे, पृ. 11

7.         आधा गाँव, पृ. 218

8.         राही मासूम रज़ा, ओस की बूँद, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरी आवृत्ति 2004, पृ. 19

9.         आधा गाँव, पृ. 315

10.       छाको की वापसी, पृ. 12

11.       शानी, काला जल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1991, पृ. 94

12.       असगर वज़ाहत, सात आसमान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 92

13.       मेहरून्निसा परवेज़, कोरजा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2007, पृ. 179

14.       अब्दुल बिस्मिल्लाह, समरशेष, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 114

15.       जि़न्दा मुहावरे, पृ. 127

16.       नासिरा शर्मा, सात नदियाँ एक समुन्दर, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 1995, पृ. 66

17.       अब्दुल बिस्मिल्लाह, झीनी-झीनी बीनी चदरिया, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1986, पृ. 190

18.       ओस की बूँद, पृ. 31

19.       सात नदियाँ एक समुन्दर, पृ. 167

20.       झीनी-झीनी बीनी चदरिया, पृ. 178

21.       जि़न्दा मुहावरे, पृ. 127

22.       कोरजा, पृ. 222

23.       सात नदियाँ एक समुन्दर, पृ. 56

24.       कोरजा, पृ. 214

25.       वही, पृ. 205

26.       वही, पृ. 65

27.       सात नदियाँ एक समुन्दर, पृ. 198

28.       कोरजा, पृ. 208

29.       वही, पृ. 195

30.       जि़न्दा मुहावरे, पृ. 156

 

सहायक ग्रंथ-

 

1. सं. डा. एम. फ़ीरोज़ खान, हिंदी के मुस्लिम कथाकार: शानी, वाड्.मय बुक्स, अलीगढ़ 202002, संस्करण 2012

2. डा. गौरव तिवारी, मुस्लिम उपन्यासकार परिवेश और उपन्यास, वाड्.मय बुक्स, अलीगढ़ 202002, संस्करण 2016

3. डा. एम. फ़ीरोज़ खान, हिंदी के मुस्लिम उपन्यासकार: एक अध्ययन, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद-201102, संस्करण 2011

4. डा. मेराज अहमद, विभाजन की हकीकत: कथा संदर्भ, वाड्.मय बुक्स, अलीगढ़ 202002, संस्करण 2016

5. डा. एम. फ़ीरोज़ खान, मुस्लिम विमर्श: साहित्य के आईने में, वाड्.मय प्रकाशन, अलीगढ़ 202002, संस्करण 2012

 

डॉ. मोहम्मद फ़ीरोज़ खान

सम्पादक, वाङ्मय पत्रिका, 205, फेज-1, ओहद रेजीडेंसी, दोदपुर रोडअलीगढ़-202002

7007606806, vangmaya@gmail.com


                        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

                            चित्रांकन : प्रकाश सालवी, Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR           

       UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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