शोध आलेख : राजस्थानी एवं भोजपुरी लोकगीतों में नारी दशा की समान भावभूमि - सुशीला शर्मा, प्रो. गीता कपिल

राजस्थानी एवं भोजपुरी लोकगीतों में नारी दशा की समान भावभूमि

सुशीला शर्मा, प्रो. गीता कपिल 


शोध
सार 

लोक साहित्य के अन्तर्गत लोकगीतों के अध्ययन से नारी जीवन पर जितना प्रकाश पड़ता है, उतना अन्य किसी विधा से नहीं। नारी ने लोकगीतों में अपने जीवन की दुःखमय गाथा को बहुत मुखर होकर अभिव्यक्त किया है। लोकगीतों की दृष्टि से राजस्थान एवं भोजपुरी क्षेत्र प्रमुख स्थान रखते हैं। दोनों ही क्षेत्रों के लोकगीतों में नारी ने जो भावात्मक उद्गार अभिव्यक्त किये हैं, उनमें काफी समानता दृष्टिगोचर होती है। नारी की दशा सदैव सोचनीय रही है। वह सदैव पराश्रित रही है। उसका समाज में अस्तित्व पुरूष सापेक्ष रहा है। नारी ने अपना हृदय जितना विस्तृत रखा, उसके प्रति पुरूष प्रधान समाज का हृदय उतना ही संकुचित होता गया। नारी ने सभी को सम्मान दिया, किन्तु बदले में उसे सिर्फ अपमान ही मिला। सास के अत्याचार, पुत्री को जन्म देने के कारण उसका निरादर, असीमित अत्याचार, नारी के प्रति निम्न स्तरीय सोच, अनमेल विवाह, बहुविवाह, पुरूष की बर्बरता तथा दहेज रूपी अभिशाप ने नारी की दशा को और भी दयनीय बना दिया, जिसका प्रकाशन राजस्थानी एवं भोजपुरी लोकगीतों में नारी ने स्वयं किया है।

बीज-शब्द  : लोकगीत, राजस्थानी, भोजपुरी, नारी, दशा, भावना, समानता, अमानवीयता, सौत, अनमेल विवाह, क्रय -विक्रय, पराश्रिता, अत्याचार, परिवार, समाज, सास, पति, पुरूष, सती साध्वी।

मूल आलेख :

 नारी और पुरूष, समाज के दो ऐसे आधार स्तम्भ हैं,जिन पर परिवार, समाज तथा देश की उन्नति और विकास निर्भर है। दोनों में से किसी एक की उपेक्षा की गयी तो, इनका समुचित विकास असम्भव है, किन्तु इस शाश्वत सत्य से परिचित होने के बाद भी नारी की सदैव उपेक्षा की गयी है। नारी को पुत्र उत्पन्न करने का उपकरण, पति और परिवारजनों को खुश रखने का साधन मात्र माना जाता रहा है। नारी ने जिस कार्य को स्वेच्छा से स्वीकार किया, उसे पुरूष प्रधान समाज ने उसकी मजबूरी उसके जीवन का नासूर बना दिया। नारी ने पति को परमेश्वर माना तो पति सचमुच अपने को परमेश्वर समझ बैठा। वह नारी के जीवन का फैसला करने का अधिकारी बन गया। उसने,  उसका शारीरिक, मानसिक शोषण किया, उसे मारा -पीटा, रुलाया और उसे सामान की भाँति बेचा खरीदा। यों तो वेदों में नारी के लिएयत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ’’ कहकर सम्मानित किया गया है और नारी को महिमामण्डित उसका गुणगान किया गया है किन्तु जब हम लोकगीतों की तरफ जाते हैं तो यह यथार्थ के धरातल से कोसों दूर प्रतीत होता है। यह पंक्ति पत्थर की देवियों पर ही उपयुक्त बैठती है। समाज में नारी की दयनीय दशा है जिसका प्रमाण और प्रकाशन लोकगीतों में नारी ने समय-समय पर स्वयं किया है।

लोकगीत गेय तथा भावावेग से सम्पन्न होते हैं। अतः इनमें हृदय को प्रभावित करने की क्षमता सर्वाधिक होती है। जीवन का हर पहलू लोकगीत रूपी दर्पण में साफ - साफ देखा जा सकता है। लोकगीतों का अधिकांश भाग नारी हृदय की सम्पत्ति है। पुरूषों की अपेक्षा गीतों का सृजन स्त्रियों ने अधिक किया है। अतः इन गीतों में नारी मन के विविध पक्षों का उद्घाटन हुआ है। विभिन्न अवसरों, तीज त्योहारों, श्रमगीतों, विवाह आदि पर गाये जाने वाले गीतों में नारी हृदय की संवेदनाओं ने अभिव्यक्ति पायी है। एक-एक गीत नारी जीवन के यातनामय पन्नों को हमारे समक्ष खोलता जाता है। नारी ने लोकगीतों को अपनी आवाज से जितना मधुर बनाया उतना ही लोकगीतों में नारी की मनोव्यथा, पीड़ा, अभिलाषा, मनोकामना, वेदना आदि को स्वर मिला। नारी, सारी प्रताड़नाओं, अत्याचारों, यातनाओं को आज तक मौन हो सहती आई है और जब नहीं सहन हुआ तो उसकी पीड़ा, वेदना लोकगीतों में अनायास ही प्रकट होने लगी।

भारतवर्ष का प्रत्येक प्रांत लोकगीतों के लिए प्रसिद्ध है, किन्तु राजस्थानी एवं भोजपुरी क्षेत्र लोकगीतों की दृष्टि से काफी सम्पन्न एवं समृद्ध है। दोनों क्षेत्रों के लोकगीतों में नारी दशा के चित्रण में भावों एवं संवेदनाओं की समानता मिलती है समूचा भारतवर्ष लोकगीतों की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न है किन्तु राजस्थान इस दृष्टि से और भी धनी प्रान्त है।....यों लोकगीतों में सामान्य प्रकृति है जिसमें एकसूत्रता और समरूपता होती है।......भोजपुरी लोकगीतों में वे कल्पनाएँ और अभिव्यंजनाएँ मौजूद हैं जो राजस्थानी लोकगीतों में है l’1

राजस्थानी एवं भोजपुरी लोकगीतों में सन्तानहीन नारी की दशा का बहुत ही हृदय विदारक चित्र मिलता है। समाज और परिवार में सन्तानहीन नारी को विभिन्न प्रकार के व्यंग्य बाणों को सहन करना पड़ता है। समाज में सन्तानहीन नारी के लिए बाँझ शब्द एक घृणित गाली के रूप में प्रचलित है। प्रातःकाल सन्तानहीन का मुख देखना बड़ा अशुभ माना जाता है। वह वंश परम्परा को आगे नहीं बढ़ा सकती, इसलिए उसका मनुष्य रूप में जन्म लेना व्यर्थ समझा जाता है। नारी की पूर्णता उसकी मातृशक्ति पर निर्भर है। भरे पूरे परिवार में उसकी मनोवेदना को समझने वाला कोई नहीं होता, वह स्वयं को अकेला अनुभव करती है। जब तक सन्तान नहीं होती नारी अपने जीवन को सफल नहीं मानती। सन्तान को लेकर नारी की अनेक अभिलाषाएँ हैं, जिसका आनन्द ना उठा पाने के कारण वह सदैव कुढ़ती रहती है। सन्तान सुख के लिए वह अनेक मनौतियाँ करती है। देवी देवताओं की पूजा करती है। तंत्र मंत्र, टोने-टोटके का सहारा लेती है तथा देवता को बलि चढ़ाने तक को तैयार हो जाती है। राजस्थानी लोकगीत में सन्तानहीन स्त्री की मानसिक वेदना का बड़ा ही मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है,-


सासू तौ कैवे म्हारी बहूवड़ बाँझड़ी, परणियौ लावै ल्योडी सौक।

कासी रा बासी अमर बधादौ नी जग पालणौ।

देराणी जेठाणी बोले अबला बोल।2


भावार्थ : सन्तानहीन होने के कारण मेरी सास मुझे बाँझ कह कर पुकारती है। पति, दूसरा विवाह कर सौत लाने की धमकी देता है। हे काशी में निवास करने वाले भैरो बाबा मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि मझे पुत्रवती होने का अमर वरदान दें। देवरानी और जेठानी हृदय विदारक बोल बोलती हैं।

वहीं भोजपुरी लोकगीतों में भी नारी अपने ऊपर लगे बाँझपन के आरोपों को सहन नहीं कर पाती। अतः वह गोद भरने के लिए शीतला माता से बड़े ही दीन भाव में पुकार करती है,-


सासू मारे हुदुका ननदिया पारे गारी हो मइया

गोतिनी  बँझिनिया धइली नांव,

मोर गोद भरनी मइया, गोतिनि  बँझिनिया धइली नांव।3


भावार्थ : एक पुत्रहीन नारी, परिवार द्वारा किये गये अत्याचार व्यंग्य वानों से दुःखी होकर शीतला माता से अपनी गोद भरने की बिनती करती है, वह कहती है कि हे निःसन्तानता को दूर करने वाली माँ सास मुझे मुक्के से मारती है, ननद सदैव गाली देती है तथा मेरी जेठानी मुझे बाँझ नाम से सम्बोधित करती हैl

समाज में कन्या की अपेक्षा पुत्र को अधिक महत्त्व दिया जाता है। लोकगीतों में कन्या का जन्म लेना एक जघन्य अपराध की तरह वर्णित हुआ है, जिसके भार को पृथ्वी भी सहन नहीं कर पाती। राजस्थान में भी पुत्र को ही विशेष सम्मान दिया जाता है। पुत्र जन्म पर उत्साह एवं कन्या के जन्म पर मातम सा वातावरण होता है। जिस परिवार में कन्या का जन्म होता है, समाज में उस परिवार का मान सम्मान कम हो जाता है। जिस समाज में पुरूषों की संख्या अधिक होती है, वह समाज शक्तिशाली भी अधिक माना जाता है। रामनरेश त्रिपाठी लिखते हैं  शूरता के लिए प्रशंसित जातियों में कन्या के जन्म से खुशी का मनाया जाना बिलकुल स्वाभाविक है। उनको अपने समाज के लिए वीर मर्द चाहिए। इससे नवागन्तुक मर्द का स्वागत समाज के लोग जी खोलकर करते हैं।4 कन्या को जन्म देने वाली माता पर अनेकों अत्याचार किए जाते हैं। कन्या को जन्म देने के कारण उसे खुश रहने, अच्छे कपड़े पहनने, अच्छा भोजन करने का कोई अधिकार नहीं है। जिसके सहारे वह विवाह करके आयी वह भी उससे सीधे मुँह बात नहीं करता और उसे छोड़कर परदेश जाने की बात करता है। इस भावना की अभिव्यक्ति प्रस्तुत राजस्थानी लोकगीत में देखी जा सकती है,-

गोरी जे थारे जनमैला धीव, तो खाट पिछोकडै धलावसाजी।

लाडू खारे लूणरा जी, तौ पडदौ ताणा काली कामली रौ जी।

कदैई मुखडै बोलसा जी, म्है तौ सिधालावा चाकरी जी।5


भावार्थ : प्रसव से पीड़ित स्त्री को पुत्री जन्म की आशंका से आशंकित उसका पति उसे चेतावनी देते हुए कहता है कि यदि तुमने पुत्री को जन्म दिया तो तुम्हारा बिस्तर घर के पिछले भाग में बिछवाउँगा और खाने में नमक का लड्डू दूँगा ओढ़ने तथा बिछाने के लिये मैला काला वस्त्र दूँगा। तुमसे कभी बात नहीं करूँगा और तुम्हें छोड़कर हमेशा के लिये नौकरी पर चला जाउँगा।

भोजपुरी लोकगीतों की नारी भी इन्हीं मनोभावों की अभिव्यक्ति करती है कि कन्या को जन्म देने पर उसे अनेक कष्टों को सहन करना पड़ेगा। कन्या जन्म की आशंका मात्र से ही उसका पति काँप जाता है,-  

कुस ओढ़न कुस डासन बन फल भोजन रे।

ललना सुखुड़ी के जरेला पँसगिया निनरियौ ना आवेला रे।6 


भावार्थ : पुत्री के जन्म लेने पर जच्चा को घास फूंस ओढ़ने तथा बिछाने को दिया जायेगा और भोजन में वन के फल-फूल। वहीं प्रसूता गृह में चंदन की लकड़ी के स्थान पर भूसी (धान का छिलका अथवा कोई भी ऐसा पदार्थ जिससे धुआँ अधिक होता है ) जलाया जायेगा और इस कारण जच्चा को पूरी रात नींद नहीं आयेगी।

कन्या के जन्म से ही परिवारजनों को उसके विवाह की चिन्ता सताने लगती है। वह एक - एक रूपया बचाने में जुट जाते हैं। कन्या ज्यों-ज्यों बड़ी होती है परिवार से अधिक समाज के लोगों को उसके विवाह की चिन्ता हो जाती है। सात वर्ष की अवस्था में ही कन्या हेतु योग्य वर की खोज शुरू हो जाती है। कन्या पक्ष कितना ही समर्थ अथवा धनी क्यों ना हो उसे वर पक्ष के समक्ष झुकना ही पड़ता है लज्जा और अपमान को भी सहन करना पड़ता है। एक राजस्थानी लोकगीत में इस भावना की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है, जहाँ दादा, बाबा, पिता, भाई को इसलिए झुकना पड़ता है क्योंकि उनके घर कन्या ने जन्म लिया है,-

कोट नवै परवत नव, और नवै यन कोई।

बाई को दादाजी यू नवै, घर पोती अे जायी।7


भावार्थ : किले, पर्वत और संसार में कोई भी नहीं झुकता, पुत्री के दादा इसलिए झुकते हैं क्योंकि घर में पोती ने जन्म लिया है।

भोजपुरी लोकगीतों में वर पक्ष को उनकी माँग के अनुसार दहेज ना दे पाने के कारण माता-पिता को बुरी तरह अपमानित लज्जित किया जाता है। वर पक्ष की दहेज की भूख को शांत करते करते कन्या पक्ष कंगाल हो जाता है। अतः इस दुःख और अपमान से बचने के लिए ही कोई भी माता पिता यह नहीं चाहता कि उनके घर कन्या का जन्म हो। कन्या के कारण परिवार की अपमानजनक स्थिति को देखकर नारी हृदय की व्यथा विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों में मुखरित हुई है जहाँ कन्या को शत्रु माना गया है शत्रु के भी कन्या ना होने की कामना की गयी है,-

नव लाख दहेज थोर रे,

भीतरी के गेड़ुआ बाहर दे मरली, सतरू के धीया जनि होय हो।

समधी जे छाँटें लमी लमी बतिया रे, आप प्रभु सीस नवाई रे।8


भावार्थ : कन्या पक्ष, वर पक्ष को नव लाख दहेज देता है उस पर भी वर पक्ष दहेज कम देने का आरोप लगाते हैं, जिससे दुःखी और अपमानित हो, कन्या की माँ घर में बचा एक मात्र लोटा वर पक्ष के समक्ष लाकर पटक देती है और कहती है कि शत्रु के घर भी कन्या का जन्म हो। वह आगे कहती है कि मेरे स्वामी सिर झुका कर बैठे हैं और समधी डींगे हाँक रहे हैं।

दहेज के करण जाने कितनी बेटियों का जीवन बर्बाद हो जाता है। लोकगीतों में वर्णित है कि गरीब पिता ने दहेज ना दे पाने के कारण कन्या को विवशतावश बूढ़े, अन्धे, काने, लूले किसी भी अयोग्य वर के साथ बाँध दिया है और जिससे उसका जीवन नारकीय बन गया है। विवाह से सम्बन्धित इन गीतों में वैवाहिक जीवन के कष्टों का वर्णन कर इन प्रथाओं की बुराइयों की ओर भी संकेत किया गया है। जहाँ भी इस प्रकार के अनमेल विवाह हुए है, ऐसे परिवार में अशान्ति और कलह के साथ-साथ वर-वधू का जीवन यातनापूर्ण हो गया है। इसमें भी सर्वाधिक दुःख नारी को ही उठाने पड़े हैं। जिसकी अभिव्यक्ति हमें राजस्थानी तथा भोजपुरी दोनों ही लोकगीतों में देखने को मिलती है। जहाँ कन्या, पिता से अपने दुःखों को शिकायत भरे शब्दों व्यक्त करती है,-

एक दुखड़ो जी म्हारा बाप को

म्हाने बूढ़ा ने परणाई रे डाबड़ा।9


भावार्थ : मुझे पिता की तरफ से एक दुःख है कि उन्होंने मुझ बच्ची का विवाह एक बूढ़े से कर दिया।


बाबा सादी कइलअ, बरबादी कइल अ।

ओहि बुढ़वा भतार संगे, सादी कइलअ।10


भावार्थ : हे पिताजी,आपने मेरा विवाह नहीं किया अपितु एक बूढ़े से विवाह कर मेरी जिन्दगी बर्बाद कर दी।

विवाहोपरान्त नारी, आँखों में नये सपने, हृदय में उमंग और उत्साह के साथ अपने जीवन के नये पड़ाव में कदम रखती है। पीहर को भुलाकर वह सास-ससुर में माता-पिता, देवर-ननद में भाई बहन की छवि देखती है, किन्तु जब उसका यथार्थ से सामना होता है, तब उसके सारे सपने बिखर जाते हैं। उसे पता चलता है कि अब उसके सुख के दिन समाप्त हो गये। उसके लिए पीहर आराम भूमि थी और ससुराल कर्मभूमि है। जहाँ उसे अच्छे कर्म का फल मार, गाली और तानों के अलावा कुछ भी नहीं मिलने वाला। सास, उससे रात दिन काम करवाती है। इस सम्बन्ध में रामनरेश त्रिपाठी का कथन है  गाँवों में कितने ही घरों में ऐसी ही दशा है। कितने ही घरों में वर्णातीत दुःख हैं। खाने का कष्ट, पहनने का कष्ट, व्यंग्य और ताने का कष्ट, मारपीट का कष्ट, कहाँ तक गिनाये जायें, बहुएँ बेचारी मूक पशु की भाँति सब कुछ सहती रहती हैं। पुरूष इतने कष्ट कभी नहीं सह सकता।11 नारी किसी को अपने कष्टों के विषय में नहीं बताती, बताए भी तो उसके दुःखों को दूर करने वाला कौन है। माता-पिता, भाई उसके दुःखों को जानकर भी, उसे यातनापूर्ण जीवन से मुक्ति दिलाने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं क्योंकि विवाह के पश्चात् कन्या पर पिता का कोई अधिकार नहीं रह जाता। यह रीति सदियों से चली रही है। इससे ससुराल पक्ष को नारी पर मनचाहे अत्याचार करने की पूरी छूट मिल जाती है। गीतों में सास के अत्याचार तो कभी खत्म ही नहीं होते। वह घर में छोटे बड़े सभी सदस्यों की आज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य है। सास के द्वारा बहू पर किए गए अत्याचार से राजस्थानी एवं भोजपुरी लोकगीत भरे पड़े हैं जिसमें से बहू की विवशता, दीनता, क्रंदन, तड़प और यातना से युक्त करूण स्वरों को सुना जा सकता है। पूरे दिन कोल्हू के बैल की भाँति कार्य में जुटे रहने पर भी उसे अपमान का ही घूंट पीना पड़ता है। नारी की इस वेदना का स्वर चक्की के एक गीत में फूट पड़ा है,-


कै मन कूटों भैया कै मन पीसौ रे ना। भैया कै मन सिझवउ रसोइया रे ना।

सासू तो भइया बुढि़या डोकरिया रेना। भइया मुँहवा से जहर के गठिया रे ना।12


भावार्थ : बहन से मिलने आये भाई से बहन ससुराल में भोग रहे कष्टों का वर्णन करते हुए कहती है  अनेको मन कूटती हूँ, अनेको मन पीसती हूँ और अनेकों मन खाना बनाती हूँ। उस पर भी बूढ़ी सास जहर के समान बोल बोलती है।


राजस्थानी गीत में भी सास द्वारा बहू पर किये गये अत्याचार की अभिव्यक्ति समान रूप से देखी जा सकती है,-

बाअी नै दीनो सासू धानड़ सोवणो, फटक्यो फटक्यो, मा, डाल दो डाल

अध मण फटक्यो वाजरो। बाअी नै दीनो सासू पीसणो

पीस्यो पीस्यो, अे मा, डाल दो डाल, अध मण पीस्यो बाजरो।13


भावार्थ : एक कन्या ससुराल में अपनी माँ को सम्बोधित करते हुए कहती है कि तुम्हारी पुत्री को सास ने धान साफ करने को दिया। मैंने दो डाल धान फटक कर साफ किया और आधा मन बाजरा साफ किया। फिर सास ने पीसने के लिए दिया, मैंने दो डाल पीसा और आधा मन बाजरा पीसा।

पत्नी अपने पति पर पूर्ण विश्वास करती है। उसका सम्मान करना उसके जीवन की प्रमुखता होती है। वह सदैव अपने पति का भला चाहती है और उससे प्रेम करती है। वह कभी स्वप्न में भी अपने पति का अहित नहीं सोच सकती। वह आजीवन पति की सेवा करती है किन्तु उसे केवल प्रताड़ना ही मिलती है,-

गोरा सा गालां पर दी दी थापकी, पतली सी कमर में दी दी लात की।‘’14


भावार्थ : परदेश जा रहे पति से पत्नी ने वीणा मांगा इस पर पति ने गाल पर जोर से थप्पड़ मारा और पतली कमर पर लात मारी।

पति की दृष्टि में नारी के समर्पण का कोई मूल्य नहीं है। पुरूष प्रधान समाज में नारी का कोई अस्तित्व नहीं है। उसकी पहचान उसके पति से है। वह शारीरिक, आर्थिक सुरक्षा के कारण पुरूष पर निर्भर है। नारी की इस पराश्रिता का मनोनुकूल लाभ पुरूष उठाता है। वह पत्नी को बुरी तरह प्रताड़ित  करता है। मानसिक पीड़ा देता है। छोटी छोटी बात पर उसे पीटता है,-

बबूर डण्टा तानि तानि, सइयां मारे रे।‘’15


भावार्थ : मेरा पति मुझे बबूल के डण्डे से जोर जोर से मारता है।


वह पत्नी को पशु के समान समझता है उसे बेचने की धमकी देता है, 

आरे तोहि के बेचिए धनि भँइसी लेअइबों, बछरू चरइबों सारी राति ए।‘’16


भावार्थ: पति अपनी पत्नी से कहता है कि तुम्हें बेचकर भैंस खरीद कर लाऊँगा और उसके बच्चे (बछड़े) को सारी रात चराऊँगा।

 

इतना ही नहीं पुरूष की मानसिकता नारी के प्रति अत्यन्त ही निम्न कोटि की है। वह इतना अहंकारी है कि अनाज के बदले, पैसों के बदले में किसी भी स्त्री को खरीद सकता है। पुरूष समाज की इस मानसिकता का प्रकाशन राजस्थानी लोकगीतों में हुआ है,-

हर मोठा रे साटै रूड़ी धण घणी जी।

हर दमड़ा कै साटै रूड़ी धण घणी जी।17


भावार्थ : पति, पत्नी से कहता है कि मोठों के बदले सुन्दर औरत बहुत मिल जायेंगी, यदि मोठो के बदले सुन्दर औरत नहीं मिली तो पैसों के बदले मिल जायेगी।

समाज में पुरूष पर किसी प्रकार का कोई भी बन्धन नहीं है। समाज के समस्त बन्धन नियम सिर्फ नारी पर ही लागू होते है। संस्कार, परम्परा, मर्यादा के नाम पर उसके सपनों को बुरी तरह कुचला जाता है। नारी कम उम्र में विधवा होने पर भी दूसरा विवाह नहीं कर सकती किन्तु पुरूष एक के स्थान पर अनेक पत्नियाँ रख सकता है। ऐसे कामी पुरूषों के लिए नारी का सौन्दर्य, गुण कोई मूल्य नही रखते। पत्नी के सर्वगुण सम्पन्न होने पर भी वह अपने शौक को पूरा करने के लिए दूसरा विवाह करते राजस्थानी एवं भोजपुरी दोनों ही लोकगीतों में वर्णित है। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय का कहना है  जहाँ स्त्री के हृदय में पुरूष के प्रति अगाध प्रेम है वहाँ पुरूष के मानस में प्रेम का एक बिन्दु भी दिखाई नहीं पड़ता। इस प्रकार के व्यवहार के चित्रण समाज में स्त्री के गिरे हुए स्थान के द्योतक हैं।18 लोकगीतों में नारी स्वयं यह स्वीकार करती है कि यदि मुझमें कोई अवगुण होता या मैं बाँझ होती तो सौत आती। नारी की यह महानता है कि वह पति के सुख के लिए, वंश की वृद्धि के लिए सौत के दुःख को भी सहन करने के लिए तैयार हो जाती है, किन्तु नारी के इस त्याग का पुरूषों ने सदैव लाभ उठाया है,-


ओगण थोड़ा, अे गोरी धण, गुण घणा

लोड़ी अे लाड़ी को म्हाँने चाव।1 


भावार्थ : पत्नी के पूछने पर कि सौत क्यों लाये तो पति कहता है कि तुममें गुण अधिक है और अवगुण कम हैं किन्तु मुझे छोटी पत्नी लाने का शौक है।

 

मैं तो तोरे गले का हार राजावा, काहे को लायो सवतिया।

जहु हम रहतीं बाँझ बँझिनिया, तब आइति सवतिनिया।20


भावार्थ : पत्नी, पति से प्रश्न करती है कि हे राजा, मैं तुम्हारे गले का हार थी, मुझ पर सौत क्यों लेकर आये, यदि मैं बाँझ होती तो सौत लेकर आते।

 

नारी को परिवारजनों द्वारा अनेकों कष्ट दिये जाते है तथा उसके चरित्र पर संदेह किया जाता है। इस संदेह के चलते कितनी ही बहुओं को मौत के घाट उतार दिया गया है। पत्नी, पति के वियोग में तरह तरह की मानसिक वेदना झेलती है। उसके संयोग की इच्छा में उँगलियों पर दिन गिनती रहती है, अनगिनत तानों, दुःखों को सहन करती है किन्तु जब पति वापस लौटता है तो पत्नी के चरित्र पर संदेह करता है। भले ही उसका खुद का चरित्र कलंकित क्यों हो। वह पुरूष है और यह अधिकार समाज ने उसे दे रखा है। नारी इस बात को भली भाँति जानती है कि पुरूष के बिना समाज में उसका जीना मुश्किल है। घर से बाहर कदम-कदम पर अपनी काम वासना को तृप्त करने वाले दुष्ट पुरूष मौजूद है। अतः वह अनेक अत्याचारों को सहकर घर में पड़ी रहती है। इन अभावों एवं अत्याचारों, लांछनों को सहन करने के बाद भी नारी अपने कर्तव्य से कभी विमुख नहीं हुई। उसने कभी भी अपने सतीत्व एवं प्रतिव्रत धर्म से समझौता नहीं किया। उसका सतीत्व चरित्र उज्ज्वल है। नारी ने अपने पवित्र निर्मल चरित्र के बल पर समाज में अपना स्थान गरिमामय बना रखा है, जिसकी उज्ज्वल ज्योति के आगे पुरूष कहीं भी नहीं टिकता। गीतों में अनेक ऐसे प्रसंग आये हैं जहाँ नारी ने पति प्रेम के सामने समस्त ऐश्वर्य को ठोकर मार दिया है। डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय लिखते है,-  “इन लोकगीतों में स्त्रियों का चरित्र बड़ा ही उदात्त, शुद्ध तथा पवित्र दिखलाया गया है। स्त्री एक पतिव्रता, सती, साध्वी के रूप में चित्रित की गई है।21 राजस्थानी लोकगीत में एक गरीब भील जाति की पतिव्रता नारी राजा द्वारा दिये गये बहुमूल्य प्रलोभनों को अस्वीकर कर देती है,-

 

सुरता भीलणी हे भीलणी, रावजी बुलावै, महलाँ आव,

चड़ो नै पहरावूँ हसती दांतरो।

मोटा रावजी हो रावजी, नहीं नै महलाँ रो म्हाँने कोड।

झूपड़ी भली हो म्हाँरा भीलरी, बिलिया नै भला हो म्हाँरे भीलरा।22


भावार्थ : हे सुरता भीलनी, तुझे राजाजी बुलाते हैं, तू महलों में आ। मैं तुझे हाथी दाँत का चूड़ा पहनाऊँगा। हे बड़े राजाजी, मुझे महलों का प्रेम नहीं है, मेरे भील की झोपड़ी अच्छी है, तुम्हारे चूड़ी दाँत से अच्छी मेरे भीलकी चूडि़या हैं।

समान भावना का वर्णन एक भोजपुरी लोकगीत में भी हुआ है। जहाँ एक राजा किसी गरीब स्त्री के रूप पर मोहित होकर उसे अपने साथ चलने के लिए कहता है किन्तु वह पतिव्रता नारी उस राजा को अपमानित करती है और अपने पति को उस राजा से सुन्दर बताती है,-

 

जो हम चली राजा तोहरे गोइनवा रे ना।

राजा तोरे ले सुन्दर मोर बिअहुवा रे ना।23


    भावार्थ : हे राजा, मैं आपके साथ चलती, किन्तु आप से सुन्दर तो मेरा पति है।

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि मौन रहकर सभी प्रकार की यातना सहन करने वाली नारी की वेदना, कष्ट, मानसिक संताप, भावात्मक संवेदना, विभिन्न अभिलाषाओं की अभिव्यक्ति अनेक अवसरों, वैवाहिक गीतों, त्योहारों परिश्रम करते समय गाये जाने वाले गीतों में हो सकी है। राजस्थानी एवं भोजपुरी दोनों ही लोकगीतों में नारी की दशा का चित्रण समान भावभूमि पर हुआ है। सन्तानहीन और पुत्रहीन नारी के प्रति परिवारजनों का व्यवहार बहुत ही अमानवीय वर्णित है। सास पति से वह मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताडि़त होती है। नारी पूर्ण रूप से पुरूष पर निर्भर है। नारी जीवन की सबसे बड़ी पीड़ा सौत है। अत्याचार, पीड़ा, मानसिक वेदना में जीवन व्यतीत करने वाली उस पतिव्रता नारी का चरित्र आरसी के समान स्वच्छ, निर्मल वर्णित है। वर्तमान समय में नारी के जीवन में शोषण के तरीके भिन्न हैं। वह आज भी पूर्णतः स्वतंत्र नहीं है। उसे पुरूष के अनुकूल ही चलना होता है। निश्चय ही आज नारी की दशा में सुधार आया है किन्तु यह सुधार कुछ स्त्रियों के जीवन में आया है। ग्रामीण नारी का जीवन आज भी यातना और दुःखों से भरा हुआ है।

 

सन्दर्भ 

1-  राम प्रसाद दाधीच : राजस्थानी लोक साहित्य: अध्ययन के आयाम, जैनसन्स रातानाड़ा, जोधपुर, संस्करण 2017, पृ.सं. 19

2-  सोहनदान चारण : राजस्थानी लोक साहित्य का सैद्धान्तिक विवेचन, राजस्थान साहित्य मन्दिर, सोजती दरवाजा, जोधपुर, संस्करण 1980, पृ.सं. 31

3-  कृष्णदेव उपाध्याय: भोजपुरी लोकगीत, भाग 1, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, द्वितीय संस्करण 2011, पृ.सं. 347

4-  रामनरेश त्रिपाठी : हमारा ग्राम साहित्य (सोहर), हिन्दी मन्दिर, प्रयाग, संस्करण 1951, पृ.सं. 2

5-  सोहनदान चारण : राजस्थानी लोक साहित्य का सैद्धान्तिक विवेचन, पृ.सं.-31

6-  कृष्णदेव उपाध्याय : भोजपुरी लोकगीत, भाग 1, पृ.सं. 125

7-  नरोत्तमदास स्वामी : राजस्थानी गौरव ग्रन्थमाला,(राजस्थानी लोकगीत विहार, प्रथम भाग),  मेहरा आफ सेट प्रेस आगरा, संस्करण 1997, पृ.सं. 24

8-  रामनरेश त्रिपाठी : हमारा ग्राम साहित्य, पृ.सं. 100

9-  जगमलसिंह : राजस्थानी एवं गुजराती लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन, पंकज पब्लिकेशन, गढ़मुक्तेश्वर, संस्करण 1986, पृ.सं. 39

10-            संकलित

11-            रामनरेश त्रिपाठी : हमारा ग्राम साहित्य, पृ.सं. 121

12-            वही, पृ.सं. 113

13-            रामसिंह, सूर्यकरण पारीक, नरोत्तमदास स्वामी : राजस्थान के लोकगीत, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, संस्करण 2019, पृ.सं. 80

14-            जगमलसिंह : राजस्थानी एवं गुजराती लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ.सं. 40

15-            कृष्णदेव उपाध्याय : भोजपुरी लोकगीत, भाग 1, पृ.सं. 395

16-            व्ही, पृ.सं. 190

17-            गोविन्द अग्रवाल : राजस्थान के लोकगीत, लोक संस्कृति शोध संस्थान, संस्करण 2013, पृ.सं. 20

18-            कृष्णदेव उपाध्याय : भोजपुरी लोक साहित्य का अध्ययन, हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय वाराणसी, संस्करण 1960, पृ. सं. 236

19-            रामसिंह, सूर्यकरण पारीक, नरोत्तमदास स्वामी : राजस्थान के लोकगीत, पृ.सं. 286

20-            कृष्णदेव उपाध्याय : भोजपुरी लोकगीत, भाग 1, पृ.सं. 389

21-            वही, पृ.सं. 20

22-            रामसिंह, सूर्यकरण पारीक, नरोत्तमदास स्वामी : राजस्थान के लोकगीत, पृ.सं. 352

23-            कृष्णदेव उपाध्याय :  भोजपुरी लोक साहित्य का अध्ययन,  पृ.सं. 248

 

सुशीला शर्मा

शोधार्थी, हिन्दी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान

9799623550, basanti1781@gmail.com         


प्रो. गीता कपिल 

विभागाध्यक्ष,हिन्दी 

  वनस्थली विद्यापीठराजस्थान

ईमेल -geetakapil14@gmail.com

               

                        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

                            चित्रांकन : दीपशिखा चौधरी, Student of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR           

        UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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