शोध आलेख - महात्मा गांधी की बुनियादी शिक्षा की संकल्पना: बुनियादी प्रश्नों की बुनियादी पड़ताल -डॉ. गोपाल गुर्जर

महात्मा गांधी की बुनियादी शिक्षा की संकल्पना : बुनियादी प्रश्नों की बुनियादी पड़ताल

डॉ. गोपाल गुर्जर 

 

शोध सार :


भारत में शिक्षा को आत्मज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया माना गया है। यह ज्ञान का व्यावहारिक तथा गतिशील स्वरूप है। शिक्षा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक ज्ञान के प्रवाह का माध्यम रही है। व्यक्ति के सामाजिक तथा व्यक्तिगत स्वरूप को शिक्षा द्वारा प्रकट किया जा सकता। आज की शिक्षा में नीति शास्त्र और मूल्यों का कोई सार्थक स्थान नहीं होने के कारण समाज में हिंसा को सामान्य घटना माना जा रहा है। आधुनिक शिक्षा केंद्र दुकान की भांति काम कर रहे हैं जिनका मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना है न कि छात्रों को देश का उत्तम नागरिक बनाना। शिक्षा विचारों के संचरण का माध्यम है तथा उन विचारों के अनुसार चरित्र तथा समाज का विकास करने का साधन है। शिक्षा एक व्यक्ति के जीवन दर्शन को उसके व्यक्तिगत आदर्शों तथा लक्ष्यों से ही नहीं जोड़ती है, बल्कि उसको समाज से भी जोड़ती है। गांधी जी के दर्शन तथा उनके विचारों के अनुसार यदि हमें समाज की वर्तमान समस्याओं से लड़ना है तो उनका हल हमें शैक्षिक प्रणाली में ढूंढना होगा। उनके शैक्षिक विचार मानव क्रिया के प्रत्येक क्षेत्र में प्रासंगिक है। गांधी जी ने सच्ची शिक्षा उसे माना है जो बालकों में सीखने की प्राकृतिक शक्ति को विकसित करें।  

 

मुख्य शब्द : नई तालीम, बुनियादी शिक्षा, महात्मा गांधी, शिक्षा दर्शन

 

मूल आलेख : भारत स्वेच्छा से एक लोकतांत्रिक गणराज्य है। बहुत बड़े जन आंदोलन के बाद इसकी वृहद् संविधान सभा ने लोकतंत्र और समान अधिकारवादी रास्ते पर जाने का निश्चय किया। यह वह रास्ता है जिस पर हमें चलने की जरूरत है और इसमें शैक्षिक संस्थाओं को मदद करनी है । लोकतंत्र नागरिकों की शासन में सहभागिता और समाज के आगे जाने के रास्ते को विकसित करने में जिम्मेदारी के साथ भागीदारी करने पर टीका होता है। सभी लोगों के सीखने के लिए समान जगह बनाने के लिए यह पहचान बनाना आवश्यक है कि सभी समुदाय जीवन के प्रति अपने विचारों और अपनी संस्कृति का सरंक्षण भी चाहते हैं और साथ ही उसमें बदलाव भी। मसला यह है कि कहाँ हमें उनकी इच्छाओं का सम्मान करने की जरूरत है और कहाँ उन्हें बदलाव के लिए राजी करने की। जिस तरह बुनियादी शिक्षा का रास्ता समुदाय व उसके ज्ञान के साथ जुड़ने की अपेक्षा करता है, उससे यह भी पता चलता है कि यह प्रक्रिया कैसी होनी चाहिए। यह मामला नए विचारों को लाने वाले और परंपराओं का संरक्षण करने वालों के बीच सार्थक अन्तःक्रिया का है। यह वार्ताएं और अंतःक्रिया किस रूप में होगी और संतुलन के आयामों का चुनाव कैसे होगा, इसी से इसकी प्रगति निर्धारित होगी । ऐसे परिवर्तन सामूहिक मंशा नहीं वरन वैयक्तिक रूप से जो जैसे चाहे वैसे चुनावों से संचालित होते हैं, और इनके परिणाम लोकतंत्र विरोधी, अनुदारवादी विचारों और हिंसा की उत्पत्ति होती है। कई बार परिवर्तन की गति गंभीर अलगावों को जन्म देती है। भारत में स्वतंत्रता से पहले की और बाद की बहस इस ओर भी इशारा करती है कि ज्ञान में पहले से ही प्राप्त विचारों के विकास और नए विचारों के आने में संतुलन की जरूरत है। 

 

शिक्षा के शासनतंत्र की संस्कृति भी इस चर्चा का बहुत महत्त्वपूर्ण घटक है, क्योंकि इससे ही सब को शामिल करने की भावना का वास्तविक रूप तय हो पाएगा। वर्तमान ढांचा जो कि केंद्रीकृत है और बड़ी तेजी से इसका और अधिक केंद्रीकरण होता जा रहा है, वह इस कार्य के लिए अनुपयुक्त है। बुनियादी शिक्षा, स्कूल के शिक्षकों व बच्चों के पालकों की सामूहिक जिम्मेदारी तो मानती है, साथ में उन्हें स्कूल संचालित करने का अधिकार भी देती है। इस ढांचे की जवाबदारी बच्चों की तरफ और वहां के समाज की जरूरतों की तरफ भी है। ऐसे में शिक्षा शासन तंत्र में जवाबदेही का मुहँ बच्चों की तरफ न होकर अधिकारियों व मंत्रियों की तरफ है, जो आम लोगों को और बच्चों को ढांचे से अलग करता है। 

 

धीरे-धीरे शिक्षा के केंद्रीकृत ढांचे की पहुँच विकेंद्रीकरण के नाम पर और गहरी हुई है तथा शिक्षक व स्कूल की स्वतः कार्य करने की जगह सिकुड़ती गई है। धीरे-धीरे यह नियंत्रण निर्धारण का आधार व स्वयं कुछ कर पाने की जगह राज्य की राजधानी से निकलकर केंद्र तक पहुंच रहा है। इस बढ़ते नियंत्रण का निहितार्थ तो लोगों की भागीदारी को बेमानी करना है, किंतु इसके बढ़ने का कारण लगभग गैर प्रजातांत्रिक है। यह दिशा, अविश्वास पर आधारित है और यह मानती है कि लोग सही रास्ते पर नहीं बढ़ सकते। पिछले कुछ सालों में इस केंद्रीकरण की प्रवृत्ति और बढ़ी है। 

 

 गवेर्नेंस का ढंग ऐसा होता जा रहा है, जिसमें यह माना जाने लगा है कि अधिकारी खास होते हैं वह उनमें अधिक समझ, क्षमता व जिम्मेदारी होती है। ऐसा ढाँचा ऐसे ही कुछ विश्वस्थ, समर्पित और शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा निर्देशित भी है और निर्धारित भी है और वे ही  उसे उचित ढंग से चला सकते है। यह विचार बुनियादी शिक्षा में उससे जुड़े राजनीतिक दर्शन के खिलाफ तो है ही, देश में लोकतांत्रिक नीति बनाने व लोकतंत्र की तरफ चलने के लिए भी सर्वथा अनुपयुक्त है। वर्तमान परिस्थिति में नियमों और कानूनी घोषणाओं के वास्तविक स्वरूप में लोकतंत्र के ये सारे तत्त्व दूसरे स्थान पर आते हैं। जिस तरह से परिवार और समुदाय सोचता है, वह जिसको महत्त्वपूर्ण समझता है, उसके लिए जगह नहीं है। नीति निर्धारकों द्वारा बड़े स्तर पर की गई घोषणाएं और उनका पालन हो गया, ऐसी रिपोर्ट सब जगह से निर्धारकों के ढांचे पर पहुंचाने में सब लोग लगे हैं। 

 

यहाँ यह कहना आवश्यक है कि ऐसा नहीं है कि ये सारे नियम हमेशा ही अनावश्यक व उल्टी दिशा में ले जाने वाले होते हैं। लेकिन यह भी सही है कि इनकी प्रकृति एक हद के बाद लाभकारी नहीं रह जाती। जब तक कि संचालन के तरीके, प्रत्येक स्तर के लोगों की आकांक्षाओं, इच्छाओं और ताकतों को शामिल करने के प्रति संवेदनशील न हों और उनके लिए जगह न हो, तब तक सभी बच्चे शिक्षा में शामिल नहीं हो सकते। शिक्षा के संदर्भ में स्वतंत्रता के पहले व स्वतंत्रता के बाद हुई बहसों में शिक्षित होने व साक्षर होने में भेद पर काफी प्रकाश डाला गया था। शिक्षा के समाज के साथ जुड़ाव व उसके विकास व संतुलन के साथ संबंध पर ध्यान देने के बाद ही आज के प्रयासों की तुलनात्मक उपादेयता पर विचार हो सकता है । इस तन्त्र को समझने की जरूरत है कि लोगों की इच्छाओं, प्रेरणाओ और आवश्यकताओं को नजरअंदाज कर कुछ और थोपना स्थाई नहीं है। मनुष्य स्वभाव से ही स्वतंत्र और स्वायत्त है। उन्हें कुछ नियमों और सिद्धांतों की जरूरत तो है, जिनका वे पालन कर सकें। पर ऐसा नहीं हो सकता कि वह पूरी तरह से परिस्थिति विहीन दृष्टि से बनाई प्रक्रियाओं और बनाए गए नियमों से संचालित हो सके। 

 

उन्हें संचालन में सार्थक भागीदारी चाहिए। बुनियादी शिक्षा में विकेंद्रीकरण की योजना, समुदाय की सहभागिता और निर्णय लेने में उनकी भूमिका केंद्र में है। यह सोचने लायक है कि हम पिछले 20 सालों में इससे और दूर होते जा रहे हैं। लोगों की अपेक्षा और मांग तो बढ़ रही है, किंतु उसकी दिशा के बारे में अपनी सोच व उसे प्रभावित करने की क्षमता घट रही है।  कागजों पर तो शिक्षा में समुदाय की सहभागिता को लेकर सहमति है। योजना के दस्तावेजों में भी ये देखा जा सकता है। ऐसे ढाँचे भी प्रस्तावित है, जो इसे सुनिश्चित कर सकें, किंतु व्यवहार में यह नहीं दिखता। शामिल करने का यह भाव समुदाय की भूमिका और वह तरीका जो यह ताकत उन्हें दे सके, जिससे वे स्कूलों की कार्यप्रणाली को एक सीमा तक प्रभावित कर सके, इन दस्तावेजों व क्रियान्वयन में नहीं दिखता। 

 

यहां हम बुनियादी शिक्षा की मूल बातों व उसके बारे में कुछ स्थाई भ्रम को देखते हैं -

मूल सिद्धांत -


बुनियादी शिक्षा के मूल सिद्धांतों में निम्न बातें शामिल है -

  1. एक ऐसी प्रक्रिया, जो समुदाय, उसके विचारों, सरोकारों और अनुभवों को शामिल करने पर आधारित हो।
  2. एक ऐसी प्रक्रिया हो जो बच्चे को उसके संदर्भ व अनुभवों के साथ शामिल करने पर आधारित हो।
  3. बच्चे की भाषा का उसे शिक्षित करने के लिए उपयोग हो।
  4. सभी बच्चे और समुदाय के सभी सदस्यों तक उनके काम का सम्मान करते हुए उनके अनुभवों को स्कूल में शामिल करते हुए पहुंचना। 
  5. ऐसे एकीकृत अनुभवों का इस्तेमाल करना तो नैतिकता और सरोकार (दिल), अवधारणाएं,  प्रक्रियाएँ और तार्किक क्षमता (दिमाग) और चीजों को उत्पन्न करने की क्षमता, सहनशक्ति, सृजनात्मकता और क्रियाशीलता (हाथ) विकसित करें। 

बच्चे व समाज में स्कूल को चलाने में, समुदाय में काम करने की अपनी भूमिका को खोजने और जिम्मेदारी ग्रहण करने के साथ आत्मविश्वास और सामाजिक प्रतिबद्धता का विकास करना। 

 

बुनियादी शिक्षा के बारे में कुछ भ्रम - 


  1. यह ग्रामीण और गरीब बच्चों के लिए है। इन बच्चों को ऐसी शिक्षा की जरूरत है। जिससे वह अपने हाथों से काम करके पैसे कमाना सीखें। 
  2. बच्चे की मातृभाषा के प्रयोग का मतलब है कि जो भाषा उसके वर्तमान परिवार विशेषकर बच्चों के प्राथमिक पालनकर्ताओं द्वारा बोली जाती है। 
  3. इसके पाठ्यक्रम में तकली घुमाना सीखना और ऐसे ही अन्य व्यवसाय शामिल होने चाहिए और नए विचारों को नई दिशा में सोचना निषिद्ध है। लगभग 90 वर्ष पूर्व, जब भारत में बुनियादी शिक्षा का विचार विकसित हो रहा था, उस समय स्कूल के लिए चुने गए या प्रचलित उद्योग या व्यवसाय बुनियादी शिक्षा के विचार की जड़ में है। वही इसका आधार है। 
  4. स्कूल को खुद द्वारा कमाई गई आय से ही चलाया जाना चाहिए। 
  5. स्कूल में जो कुछ भी हो वह एक दूसरे से आवश्यक रूप से जुड़ा होना चाहिए और सभी अवधारणाएँ विभिन्न व्यवसायों में काम करने के द्वारा ही सिखाई जानी चाहिए। 
  6. बुनियादी शिक्षा का मतलब है बच्चे को व्यवसाय के लिए तैयार करना और यह व्यावसायिक  शिक्षा की शुरुआत है। 

 

बुनियादी शिक्षा को आज के संदर्भ में समझना -

 

शिक्षा, समाज और उसमें चल रहे परिवर्तनों व विमर्शों का एक भाग है।  यह समाज की प्रगति और उसके क्रमिक विकास को प्रभावित करती है और उससे प्रभावित भी होती है। शिक्षा की, अर्थव्यवस्था, अवसरों और सामाजिक रुख के साथ जीवंत अन्तःक्रिया होती है। इसलिए किसी भी शिक्षा दर्शन के सिद्धांतों की व्याख्या उन सन्दर्भों में करनी जरूरी है, जिनमें वे स्थित होते हैं। बुनियादी शिक्षा के लिए इसका औचित्य विशेष रूप से है, क्योंकि आज इसके अनेक जीवंत सिद्धांत जो कि स्वतंत्रता पूर्व की प्रस्तावित रणनीतियों से जुड़े हुए हो गए हैं और उस समय के लिए ये रणनीतियां उपयुक्त थी किंतु आज नहीं। अभी भी इनमें जोर इसके आडम्बर व दिखावट पर है, इसके बजाय कि इसकी आज के सन्दर्भों में स्थापित हो पाने की किस तरह की संभावना है। वास्तव में यह बहुत बड़ी विडम्बना ही है, क्योंकि बुनियादी शिक्षा, इसके सिद्धांतों की व्याख्या और इसका उस समय का स्वरूप तात्कालिक स्वरूप के व्यावहारिक विकल्प के रूप में था। बुनियादी शिक्षा परिवर्तन की आवश्यकता व  उसकी संभावनाओं के प्रति व्यावहारिक नजरिया रखती है, इसे जड़ बनाना इसके सिद्धांतों के साथ अन्याय है। यह शिक्षा से लोगों के अलगाव को कम करने पर बल देती है। वह पहचानती थी कि शिक्षा एक दुधारी तलवार है और उसे समुदाय के ज्ञान का सम्मान करना और उन्हें अशिक्षित के रूप में न देखना सीखना होगा। यह श्रम की महता को मानव जीवन के अनिवार्य हिस्से के रूप में पहचानती है और यह भी मांग करती है कि सभी बच्चों को, चाहे वे किसी भी परिवेश के हो उन सभी उद्यमों में व सरोकारों में भाग लेना चाहिए जो कि उनके समुदाय का हिस्सा है।

 

यह तर्क दिया जा सकता है कि बुनियादी शिक्षा अवधारणात्मक विकास और बच्चों को किसी विशेष विषय में सक्षम बनाने पर बहुत कम ध्यान देती है। इसके अस्पष्ट व अनिर्धारित पूर्णता पर आग्रह और थीम्स में कार्य करने पर जोर का निहितार्थ है, विषय संबंधी अवधारणाओं के निर्माण की संभावना को कमतर आंकना।

हमारे सामने चुनौती यह है कि विभिन्न विषयों के अवधारणात्मक ढाँचों को नकारे बिना बुनियादी शिक्षा पर आधारित पूर्ण शिक्षा के विचार को प्रस्तुत करना। दूसरी चुनौती, यह है कि इसके सिद्धांतों का संबंध बच्चों के अमूर्तीकरण की क्षमता को विकसित करने से जुड़े और यह उसके आधार दे सकें। उन्हें हर तरह की परिस्थितियों के संदर्भ में औपचारिक तर्क करने में समर्थ होने की जरूरत है। यह कुछ हद तक स्कूलों में अभी भी करना संभव है, किंतु थोड़ा आगे बढ़ने पर ज्ञान क्या है और सीखने का क्या मतलब है, के बारे में एक भिन्न विचार की जरूरत होगी।

 

बुनियादी प्रश्न - 

हमारे सामने विचारणीय विषय यह है कि गांधीजी द्वारा परिकल्पित बुनियादी शिक्षा की मूल्यदृष्टि क्या है और आज उसे किस तरह से देखा परखा जाना चाहिए तथा आज की नूतन शिक्षा पद्धति के साथ इसे कैसे मिलाना चाहिए। पहली बात मातृभाषा की है। हम जानते हैं कि सरकारी विद्यालयों में मातृभाषा में पढ़ाई होती है। यह सही है। इसका एक विषम पक्ष भी है। ऐसी पाठशाला में हर साल विद्यार्थियों की संख्या घटती जा रही है और वहां के अध्यापक परेशानी में है। इससे जाहिर होता है कि सिद्धान्तः हमने सरकारी स्कूलों में मातृभाषा को स्थान दिया और उसी सरकार द्वारा अनुमोदित ऐसी पाठशाला भी है जहां मातृभाषा की पढ़ाई या तो नाम मात्र के लिए या नहीं के बराबर और बाकी सभी विषय अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाई जाते हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व के प्रति आज हमारे समाज में आकर्षण है और आज भी एक गलत धारणा है कि अंग्रेजी हमारे लिए ज्ञान के गवाक्ष खोल सकती है। भूमंडलीकरण ने इस धारणा को और पुख्ता कर दिया है। मातृभाषा वाली पाठशालाओं ने ऐसा कोई आदर्श हमारे सामने रखा नहीं कि मातृभाषा के माध्यम से पाठन पाठन मात्र एक इच्छित आदर्श नहीं है बल्कि वह एक नैतिक आदर्श है जिसके माध्यम से ही हम अपना आत्म गौरव, आत्मविश्वास और सहअस्तित्व वाली बात सुदृढ़ कर सकते हैं। गांधीजी ने इस आशय को बढ़ावा दिया था। आत्म सम्मान की भावना और गहन सामाजिक बोध से वंचित पठन-पाठन को उन्होंने कतई प्रोत्साहित नहीं किया था। वे अंग्रेजी के विरोधी नहीं थे। मातृभाषा के अलावा और उससे अपनी अस्मिता को जोड़कर देखने के पीछे मात्र कुछ विद्यार्थियों का मामला नहीं है। इसका संबंध विद्यार्थियों की समझ या नासमझ से भी नहीं है। इसकी बुनियादी शिक्षा परिकल्पना में मातृभाषा में पढ़ाई की संकल्पना की पृष्ठभूमि में एक सुदृढ़ देश के आत्मगौरव की बात ही सक्रिय थी। उसमें ऐसा एक समाज था कि जो सहअस्तित्व पर टिका हुआ था जिसके लिए अपनी भाषा की जरूरत थी। लेकिन गांधी के इस आशय को सरलतापूर्वक समझ लिया गया और मातृभाषा वाली बात मामूली लोगों के खाते में आसानी से डाल दी गई। गंभीरता का यह सरलीकरण उपनिवेशवादी दृष्टि का क्रियाकलाप ही था। भाषा के माध्यम से ही हम अस्मिता आत्मसम्मान से युक्त अस्मिता के तीन सवालों के जवाब ढूंढ सकते हैं- हम कौन हैं? हम क्या हैं? और हम किस लिए हैं? गांधीजी सचमुच एक आत्मसजग पीढ़ी भारत के लिए तैयार करना चाहते थे। इसलिए प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा को केंद्र में रखा। हमारी आत्महीन मानसिकता ने तथा उपनिवेशवादी व्यावहारिक दृष्टि ने बाजार हेतु शिक्षा के माध्यम को अंग्रेजी में परिवर्तित किया। आज यह बात रूढ हो गई है कि अंग्रेजी के बिना शिक्षा अधूरी है। सभी सरकारी संस्थाएं प्रत्यक्षतः यह बात कर रही है। हमारे ज्ञान आयोग ने भी अंग्रेजी को प्रथम कक्षा से शुरू करने की बात पर जोर दिया है। अर्थात हमारी राष्ट्रीय दृष्टि बुनियादी स्तर पर मातृभाषा से शिक्षा प्रदान करने के पक्ष में नहीं है। इसका नतीजा यह हो गया है कि एक खोखली उदारतावादी दृष्टि के तहत ग्रामीण पाठशालाओं  में मातृभाषा के जरिये शिक्षा प्रदान की जाती है और आगे भी जैसे माध्यमिक स्तर तथा महाविद्यालय के स्तर पर भी मातृभाषा में अन्य विषय पढ़ाए जाने की सुविधाएं हैं। इस स्थिति के रहते ही, जिसको सर्वाधिक वैज्ञानिक और सटीक बनाने की आवश्यकता है, राष्ट्रीय स्तर पर ज्ञान आयोग गठित किया गया जिसने मातृभाषा के स्थान पर अंग्रेजी को स्थापित किया है। इसने दरअसल दो तरह के नागरिक समाज का सृजन किया है। 


एक, मामूली समाज और दूसरा, विशिष्ट समाज। ऐसे अनेकानेक विरोधाभासों के रहते हमें गांधीजी की विशिष्ट परिकल्पना बुनियादी शिक्षा पर विचार करना पड़ रहा है। इसमें मातृभाषा वाली बात मात्र आस्थावादी या आदर्शवादी नहीं है।  वह शतशः यथार्थवादी है। लेकिन अब तो इसका कार्यान्वयन समस्यात्मक है। जब समाज की मानसिकता बंटी हुई हो। समाज ही दो तीन वर्गों में विभाजित हो बुनियादी शिक्षा के महत्त्वपूर्ण तत्व जो मातृभाषा में शिक्षा है, अव्यावहारिक ही लग सकते हैं। लेकिन जिसे कहा गया है कि समाज का शिक्षा पद्धतियों के नाम पर बंटवारा विषम स्थितियां पैदा कर रहा है। अब तो यह स्वीकृति तथ्य है कि प्राथमिक पाठशालाओं से लेकर उच्च शिक्षा तक के विभिन्न स्तरों पर भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा पद्धतियां स्वीकृत है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक के विभिन्न स्तरों पर निजीकरण ने इस स्थिति को अधिकाधिक जटिल बना दिया है। निजी संस्थाएं, अपने स्तर पर प्राथमिक स्तर पर भी ‘उच्चतम स्तर की शिक्षा’ विद्यार्थियों को प्रदान करने का दावा करती है। जो वैश्विक मानकों की पूर्ति करने में सक्षम है। सरकारी स्तर की प्राथमिक पाठशालाओं व माध्यमिक स्तर की पाठशालाओं में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। उच्च शिक्षा दी जाने वाली सरकारी स्तर की संस्थाओं में सुविधाएं उपलब्ध है, लेकिन बहुतायत बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। यह दोहरापन शिक्षा के लक्ष्य को अलक्षित करने वाला है। ऐसे में हमें यह सोचना चाहिए कि मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा, सभी तबको के विद्यार्थियों को समान सुविधाओं वाली पाठशालाओं की  परिकल्पना और उन्हें सुविधाएं उपलब्ध कराना, शिक्षा पद्धतियों को सामान बनाना, अध्यापक प्रशिक्षण को वैज्ञानिक बनाना, सुविधाओं से वंचित सामाजिक तबके के विद्यार्थियों को समकक्ष तक आने योग्य पद्धतियों व योजनाओं का अखिल भारतीय स्तर पर आविष्कार करना आदि समान दृष्टि से जब तक कार्यान्वित नहीं होगा तब तक बुनियादी शिक्षा की मातृभाषा में शिक्षण का सपना अतीत का अवैज्ञानिक सपना ही सिद्ध हो सकता है।

 

ज्ञान चाहे गणित का हो, विज्ञान का हो, प्रौद्योगिकी का हो या प्रबंधन का हो, उसकी समस्याओं को सुलझे हुए ढंग से विश्लेषित करने की क्षमता बचपन से विकसित की जानी चाहिए। इसके लिए सबसे बढ़िया माध्यम मातृभाषा ही है। लेकिन इस दृष्टि को संदेह की दृष्टि से देखें तो समस्या उत्पन्न होती है। वस्तुतः हमारे यहां शिक्षा को रोजगार के साथ जोड़कर देखा गया है। ज्ञान का अर्जन मुख्य नहीं है और उसके लिए जिस प्रकार की शिक्षा रीतियां आवश्यक है वह भी मुख्य नहीं है, मुख्य है रोजगार। भारत में गलत ढंग से यह भी माना गया है कि रोजगार अंग्रेजी ज्ञान के माध्यम से ही संभव है। इस दृष्टि से हमारे ज्ञानार्जन पर ऐसा एक मोटा आवरण डाल दिया गया है जिसने हमारी शिक्षा नीति को सूचना प्रदान बनाया है न कि वैज्ञानिक और ज्ञान प्रदान।  लगातार ‘ग्लोबल’ कहते रहने से कोई फायदा नहीं है बल्कि शिक्षा को यदि सचमुच ‘ग्लोबल’ बनाना है तो उसे प्रथमतः ‘लोक परक’ भी बनाना होगा। हम पहले पहल अपनी मिट्टी में पैर रखे तदुपरांत आसमान की ओर देखें। जब गांधी जी ने बुनियादी शिक्षा की बात की है तब संभव है ऐसी एक पीढ़ी की परिकल्पना उन्होंने की होगी जो हमारी मिट्टी की, आसमान की, अपनी तथा दूसरों की आत्मसजगता और आत्मसम्मान पर गौर कर सकें। उसके लिए  मातृभाषा यानी हमारी मिट्टी की भाषा ही सर्वोपरि उपयोगी है। मातृभाषा को माध्यम बनाने के पीछे उनकी आत्मसजगता की बात ही मुख्य है। यहां पर अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं को आमने सामने खड़ा करने तथा आपस में लड़ाने की बात नहीं है। लेकिन आज हमारे समाज ने, राष्ट्रीय नीतियों ने शिक्षा के माध्यम को इस गलत अर्थ में लिया। भूमंडलीकरण ने देशों को कुछ ज्यादा ही नजदीक लाने का कार्य किया है तो यह बद्धमूल धारणा रूढ़ और मूढ़ होती गई कि अब शिक्षा का एकमात्र माध्यम अंग्रेजी हो सकती है। दरअसल विकसित देशों के साथ यदि हमें अपनी समकक्षता दर्शानी है तो ज्ञान क्षमता के बल पर ही हम यह दिखा सकते हैं न की अंग्रेजी ज्ञान के बल। जिस देश को ज्ञानक्षम बनाना है उसे सदैव आत्म गौरव के साथ प्रस्तुत होना है। इस प्रकरण में ही गांधी जी की भाषा दृष्टि तथा बुनियादी शिक्षा को देखा जाना चाहिए।

 

गांधीजी की हस्तकला शिक्षण को भी हमारे समाज ने सरलीकृत ढंग से लिया। यद्यपि हस्त कला शिक्षण पूरे भारत में वर्ष 1962 तक प्रयोग में रहा जो धीरे-धीरे अवहेलित होता गया और आज ही बिल्कुल नहीं है। श्रम आधारित शिक्षण स्वावलंबन के लिए अनिवार्य है। गांधीजी वही चाहते थे ना कि बच्चों को कातना-बुनना  सिखाना।  इसका मतलब यह नहीं था कि सीमित अर्थ में हस्तकला सीखें। ज्ञान को उन्होंने मात्र पोथियों तक सीमित नहीं रखा। उसे मन, मस्तिष्क और हाथ से जोड़ना चाहा यानी श्रम से जोड़ा। उनका उद्देश्य स्पष्ट और पारदर्शी था। लेकिन उसी को यदि सरलीकृत करके देखें तो वह अवैज्ञानिक और विद्यार्थियों के लिए हानिकारक भी प्रतीत होगा। गांधी जी की इस महत्त्वपूर्ण परिकल्पना के सरलीकरण के पीछे दरअसल हमारी अपनी विभाजित मानसिकता केंद्र में है। हमारे बहुत से सेवा कार्यों को हमने निम्नतम तबकों के लिए बांटा और जाति केंद्रीकरण को मजबूत किया। उच्च वर्ग को हमने श्रम से अलग रखा और इस तरह श्रम विभाजन के जरिए जाति विभाजन मजबूत रहा। गांधीजी का बुनियादी शिक्षा के माध्यम से उसके हस्तकला कौशल से अभीष्ट यही था कि समाज में व्याप्त श्रम विभाजन और उससे जुड़ा जाति विभाजन खत्म हो जाए। इसका सरलीकरण स्वतन्त्रता के बाद के समाज में हुआ। अब भी हमारा समाज उन्नति नहीं कर रहा है और ‘व्हाइट कोलर जॉब’ के प्रति हमारा आकर्षण ही है। इसमें कोई श्रम नहीं है और उच्चता का एहसास होता है। ब्रिटिश शासन ने जो शिक्षा पद्धति लागू की उसमें श्रम के लिए कोई स्थान नहीं है। 


बाबू वर्ग का निर्माण ही उनका  उद्देश्य था। जिस पर एक प्रबुद्ध और अधिकारग्रस्त वर्ग शासन करेगा। नौकरशाही ने इस विचारधारा को सुदृढ़ किया और शिक्षा को उसके अनुरूप विकसित किया गया। यह ध्यातव्य है कि गांधीजी ने श्रम केंद्रित शिक्षा का प्रवर्तन अंग्रेजी शिक्षा के प्रचलन के समय किया था। उनका आशय यही था कि श्रम की उच्चता सामान्यता के आधार पर बंटे हुए समाज को समाप्त करना और समदर्शी समाज को विकशित करना। ब्रिटिश लोगों के आगमन के बहुत पहले ही हमारा समाज श्रम के आधार पर जातिमूलक हो गया था। ब्रिटिश शिक्षा पद्धति ने उसको सशक्त बनाया और सामान्य श्रमजीवी तथाकथित निम्न तबको को शिक्षा से दूर रखा। ऐसे एक रूढ़ समाज के सामने, गांधी जी की यह वैकल्पिक शिक्षा पद्धति आई थी और हमारे राष्ट्र निर्माण के कार्यकर्ताओं ने उसे खारिज तो नहीं किया बल्कि उसे सरलीकरण करके धीरे-धीरे निष्कासित किया। श्रम का महत्व है। लेकिन उसमें उच्च नीचत्व नहीं है। बच्चों को श्रम का महत्त्व सिखाया जाना चाहिए तथा स्वावलंबन का मार्ग दिखाया जाना चाहिए। गांधीजी एक नए समाज को स्थापित कर रहे थे जिसे हमारे नीति विशेषज्ञों ने हाशियीकृत किया।

 

निष्कर्ष :

बुनियादी शिक्षा का दर्शन ज्ञान सर्जन, ज्ञान व्यतीकरण तथा ज्ञान के सम्मिश्रण पर जोर देता है, और इसके पश्चात अपने आसपास के लोगों के बीच इसे बांटने के लिए प्रेरित करता है, जिससे कि सभी का जीवन बेहतर हो सके। अतः एक प्रकार से बुनियादी शिक्षा से जीवन का जो उद्देश्य उभरता है, वह है समुदाय के जीवन में सुधार और लोगों के संघर्ष में उन्हें आगे बढ़ाना। यह बात महत्त्वपूर्ण है कि इस संघर्ष में आगे बढ़ने के आयाम और संघर्ष के तरीके भी उन्हीं सिद्धांतों से निकलने चाहिए जो बुनियादी शिक्षा के हैं। इस प्रक्रिया और प्रयास में हमें यह आश्वस्त करना होगा कि समुदाय में सभी सुखी तथा संतुष्ट हो और किसी भी व्यक्ति के आत्मसम्मान का हनन नहीं हो। और यह सब करना एक कठिन उद्देश्य की पूर्ति करना है। जिन तथ्यों और उद्देश्यों की हम चर्चा कर रहे हैं, उनको संभव बनाने के प्रयास के लिए हमारे पास विद्यार्थी तथा विद्यालय है। यह कार्य केवल उनके बस का नहीं है। उनकी ताकत से इस प्रयास को बहुत दूर तक नहीं ले जाया जा सकता। स्कूल में ये हो पाए यह भी सरल नहीं है। यह ऐसे वातावरण के निर्माण की मांग करता है, जिसमें अध्यापकगण अपेक्षाकृत सुरक्षित व सहज महसूस कर सकें। वे कोई दबाव महसूस नहीं करें, उस सकारात्मक दबाव को छोड़कर जो नैतिकता व सदाचार से आते हैं। यह सब बड़ी कठिन मांगे हैं। हमें इन बातों को विद्यालयों के प्रबंधन के साथ बाँटकर विद्यालय में ऐसी प्रक्रिया आरंभ करने की आवश्यकता है, जिसमें अध्यापकों को भी इन मुद्दों पर चर्चा के लिए आमंत्रित किया जा सके।

 सन्दर्भ :

 

  1. गांधीजी: नयी तालीम की मूल संकल्पना, हिन्दुस्तानी तालीम मंच, सेवाग्राम, वर्धा, पृ. 2
  2. डॉ. जाकिर हुसैन: डॉ. जाकिर हुसैन समिति का विवरण, हिन्दुस्तानी तालीम मंच, सेवाग्राम, वर्धा
  3. भारतन कुमारप्पा: गांधी: टूवार्ड्स न्यू एजुकेशन, (संपा.), नवजीवन प्रकाशन अहमदाबाद, , 2007
  4. ए. अरविंदाक्षन: बुनियादी तालीम, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019
  5. शिवदत्त: समग्र नई तालीम, संपा., गांधी सेवा संघ, सेवाग्राम
  6. Gandhi, M. K.: Hind Swaaraj, Navaneet Prakashan, 1909
  7. Gandhi's Views On Education Buniyadi Shiksha [Basic Education]
  8. Gandhi M. K (Written by) Compiled by: H. M. Vyas. Village Swaraj.
  9. Jain Manish: Thoughts on Resurrecting Nai Talim
  10. Panse Ramesh (2007) Nai Talim: History of Gandhian Educational Experiments (in Marathi), Diamond Publications, Pune, India
  11. Sykes Marjorie. (1988): At Sevagrram India (1937-1987) The Story Of Nai Talim Fifty Years Of Education
  12. "The selected works of Gandhi", Vol. 6, The Voice of Truth (ref. http://www.mkgandhi.org/edugandhi/basic.htm retrieved on 20.7.17)

 

डॉ. गोपाल गुर्जर

व्याख्याता- राजनीति विज्ञान, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, पानमोड़ी, प्रतापगढ़ 

पीएचडी- शिक्षा (राजस्थान विश्वविद्यालय)


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021, चित्रांकन : गूगल
UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

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