बतकही : प्रसिद्ध दलित लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता भँवर मेघवंशी से माणिक की बातचीत

बदला लेने के लिए नहीं बल्कि बदलाव के लिए काम कर रहे हैं।” - भँवर मेघवंशी

( प्रसिद्ध दलित लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता भँवर मेघवंशी से माणिक की बातचीत )

 


नमस्ते, भँवर जी। आपसे कई बार बात हुई है। सोशल मीडिया के जरिये आपके काम को भी देखा है। चाहे वह मजदूर किसान शक्ति संगठनहो या शून्यकाल। देश-विदेश की कई सारी पत्र-पत्रिकाओं में आप लगातार छपे हैं, लेकिन हाल ही में जो आपकी आत्मकथा मैं एक कारसेवक था आई जो बहुत चर्चा में है। इस यात्रा में सवाल यह है कि दलित साहित्य की जो वैचारकी है उसका प्रेरणास्रोत कौन है?

 

मुझे लगता है कि दलित साहित्य की वैचारिकी के जो प्रेरणास्रोत है या प्रेरणा के तत्त्व है वो भारतीय संदर्भों में प्रतिरोध की पूरी संस्कृति या आंदोलन है, आप उसे प्रेरणा का मूल तत्त्व कह सकते हैं। वह चाहे वैदिक काल होजिन्होंने वेदों को भी नकार दिया, ईश्वर को नकार दिया, यज्ञों का विरोध किया तथा वर्ण व्यवस्था के खिलाफ खड़े हुए। वहाँ से आप उसको शुरू कर सकते हैं। बुद्ध हैं। बाद के समय में फुले हैं। उस से पहले कबीर, रविदास और उस तरह के जो भी भक्ति आंदोलन के दरमियाँ जो संत हैं। उसमे तुकाराम भी हैं और भी बहुत से लोग थे। वो सब भी इसी परंपरा को आगे बढ़ाते रहे और फिर पेरियार, फुले, अम्बेडकर से प्रेरित होती हुई आती है।

 

आप जीवन में किसके विचारों से सबसे ज्यादा प्रेरित हुए? 

मुझे लगता है मैंने जो ज्यादातर पढ़ा है, वह डॉ. अम्बेडकर को पढ़ा है। बाद के दिनों में मैंने फुले, पेरियार और बुद्ध को भी पढ़ा है। तो सबसे ज्यादा की बात कहें तो मैं यह कहूँगा कि डॉ. अम्बेडकर ही मेरी प्रेरणा के स्रोत थे और अभी भी हैं।

 

अंबेडकर का पूरा देश बनाने में बहुत बड़ा योगदान है और खासकर संविधान की जब चर्चा होती है तो सबसे ज्यादा श्रेय उन्हीं को जाता है। तो संविधान में वर्णित जितने भी मूल्य हैं चाहे समानता, स्वतन्त्रता, न्याय हो ऐसे मूल्यों को बचाने के लिए दलितों को संघर्ष की ज्यादा जरूरत क्यों?

 

अगर समता की बात या समानता की बात है तो सबसे गैरबराबर पीड़ित समुदाय है। उनको ही बराबर का मूल्य प्रिय भी लगेगा और वह उनको स्थापित करने की कोशिश भी करेंगे क्योंकि जो लोग असमानता से लाभान्वित हो रहे हैं या जिनको ऊँच-नीच से फायदा पहुँचता है या जो अपने आपको श्रेष्ठ मानते हैं। इस गैरबराबरी का पूरा दर्शन है, उससे जो लाभान्वित हो रहे हैं वो यथास्थिति रखेंगे। वो कभी नहीं चाहेंगे कि स्थिति बदले। चाहे बराबरी की बात हो, या आजादी की बात हो, चाहे न्याय की बात हो उन सारे ही संवैधानिक मूल्यों से वंचित जो तबका है वो दलित है। इसलिए वो इन चीजों के लिए उत्सुक भी है। चूंकि मैं यह मानता हूँ कि दोनों ही तरह की परिस्थितियाँ हैं।

           

पहले के मुकाबले अगर समाज को देखेंगे तो थोड़ा बदला भी है। ऐसा भी नहीं कि बिल्कुल भी नहीं बदला। मैं इसको एक उदाहरण के रूप में आपको बताऊँ कि हम एक किसी गाँव में कुछ बात करने के लिए गए थे। कई वर्ष पहले जब आजादी को 70 वर्ष हुए थे। कई सारे लोंगों ने कहा कि अपने भाषणों में कि सत्तर वर्ष हो गये कुछ भी नहीं बदला, कुछ भी नहीं बदला।तो एक बुजुर्ग महिला कार्यकर्ता हमारे बीच में थी। और जब वह खड़ी हुई तो उसने कहा कि आपके लिए लिए कुछ नहीं बदला। सत्तर वर्ष में हो सकता है नहीं बदला होगा। मेरे लिए बहुत कुछ बदला है क्योंकि मेरे बचपन में हम दलित महिलाएँ या हमारी जो माँ या जो पिताजी थे, वो गाँव में निकल भी नहीं पाते थे। औरतें हाथ में चप्पल लेकर निकलती थी। उनको गहनें पहनने की इजाजत नहीं थी। आज तो हम मोटर साईकिल पर बैठकर निकलते हैं। वह महिला अब उस गाँव की सरपंच बन गयी थी। तो उसने कहा कि आज मैं उस गाँव की सरपंच हूँ जहाँ एक समय हम चप्पल पहन कर नहीं निकल सकते थे। आज मैं मर्ज़ी से कुछ भी कर सकती हूँ। मैं लोकतन्त्र से चुनी हुई राजा हूँ अपने गाँव की।मैं अपने ही उदाहरण से देखता हूँ हमारे बचपन में क्या चीजें थी? और आज आज हमारे बच्चों के बचपन में क्या चीजें है? हमारे यहाँ किताबें नहीं हुआ करती थी। हमने तो बचपन में पढ़ने के लिए किताबें नहीं देखीं या किताबें आई तो कोर्स की किताबें आयीं। आज विभिन प्रकार के विचार पढ़े जा रहे हैं। तमाम प्रकार की पत्र-पत्रिकाएँ आ रही हैं। टीवी देखी जा रही है और मूल्यों पर चर्चा हो रही है। भाषा बदल गयी है।

           

आज लगभग हिन्दी में बात करते हैं और जो नए बच्चे हैं, अँग्रेजी में बात करते हैं। देवी-देवताओं से भरी जो हमारी दीवारें थी, बदल गयी। वहाँ पर बुद्ध, कबीर, फुले, अम्बेडकर आ गए। रविदास आ गये हैं। सावित्री बाई फुले आ गई हैं। लेकिन एक विमर्श की प्रतिक्रिया में भी बहुत सारी चीजें हो रही हैं जो इन संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ भी काम कर रही है। वो नहीं चाहते कि समता, स्वतन्त्रता, बंधुता और न्याय जैसे मूल्य लोगों तक जाएँ। उन्हें खंडित करके चोट पहुँचाने का काम भी निरंतर चल रहा है।

 

खासकर दलित साहित्य के विमर्श में एक शब्द बहुत उपयोग किया जाता है वो है ब्राह्मणवाद। तो कई सारे लोग यह आपत्ति करते हैं इसे सीधे ब्राह्मण जाति से जोड़ते हैं। रमेश उपाध्याय ने एक बार फेसबुक पर लिखा था कि क्यों न हम ब्राह्मणवाद की जगह सवर्णवाद शब्द का उपयोग करें ताकि किसी के दिल को चोट भी नहीं पहुँचें और बात भी वही की वही रहे। इस बारे में आपका क्या कहना है?

           

मुझे लगता है कि अगर चोट न पहुँचें और भावनाएँ आहत न हो जायेंइसके साथ परिवर्तन का साहित्य रचे तो वह परिवर्तन का साहित्य होगा या समन्वय का साहित्य होगा। इसके बारे में जरूर सोचना होगा। यह बात जरूर है कि ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद को फर्क करके देखने की जरूरत है क्योंकि ब्राह्मण एक जाति है। मेरा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि ब्राह्मणों में भी ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो ब्राह्मणवादी नहीं हैं। प्रगतिशील लोग हैं जिन्होंने इस देश में बदलाव के लिए बहुत कुछ किया है। दलितों में भी बहुत सारे ब्राह्मणवादी लोग हैं जो जन्मजात ब्राह्मणों से ज्यादा कर्मकांड करते हैं और उनके भीतर छुआछूत, ऊँच-नीच की भावनाएँ और सवर्णवाद है जो कि होना नहीं चाहिए। अब यह सवर्णवादजैसे शब्दों से बदलेगा कि नहीं? मुझे इसमें कोई उम्मीद नजर नहीं आती। शब्दों के अपने खेल हैं। कितने ही शब्द बदल गए।

 

सामान्यतः मैं यह सोचता हूँ कि जो जन्म से किसी को श्रेष्ठ माने और किसी को कमतर माने, किसी को ऊँचा माने किसी को नीचा माने। यह जो भाव है, वह ब्राह्मणवाद है। ब्राह्मणवाद कई तबकों में पाया जाता है। वह ओबीसी में हो सकता है, वह एस.टी. और एस.सी. में हो सकता है, ब्राह्मणों में हो सकता है, वह राजपूतों में हो सकता है। ये जो चोट करने वाला शब्द है, बना रहे। मुझे लगता है कि लोगों की समझ इस लेवल पर जाए कि कोई ब्राह्मण अगर ब्राह्मणवादी नहीं है तो उसे चोट क्यों पहुँचनी चाहिए? क्या हम इसे पुरोहितवाद कह देंगे तो उससे काम चल जाएगा? या सवर्णवाद कह देंगे तो उससे काम चल जाएगा क्या? क्योंकि ब्राह्मणवाद कहते ही शायद ब्राह्मण को यह लगता है कि सिर्फ हमें टार्गेट किया जा रहा है। जबकि अत्याचार तो सामंत भी कर रहा है, अत्याचार तो ओबीसी भी कर रहा है। अत्याचार तो मार्केट की जातियाँ है, वह भी कर रही हैं। तो हम अकेले ही क्यों इसके भुक्तभोगी बने? मैंने कई लोगों को देखा है जिनकी सवर्ण की समझ गोल्ड है। वह कहते हैं गोल्डन जातियाँ। उनको समझ ही नहीं है कि यह वर्णोंसहित और वर्णोंरहित वाला मामला है। तो यह गलतफहमियाँ सदैव बनी रहेंगी।

 

कई बार सुनने को मिलता है कि दलित विमर्श एक फैशन हो गया है। शोध हो रहे हैं। आयोजन हो रहे हैं। दलित एक्टिविस्ट होना आसान है लेकिन जमीन पर काम करना मुश्किल है। लोग जमीन पर काम नहीं कर रहे हैं और केवल राजनीति कर रहे हैं। आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

           

मैं यह सोचता हूँ कि फैशन भी हो गया तो क्या बुरा है? और दलितों के नाम पर राजनीति भी कर रहे हैं तो क्या हो गया? कई प्रकार के विमर्श समाज में चलते रहे हैं। अलग-अलग तरह के वाद चले हैं। साहित्य में ही कभी छायावाद चला और कभी नयी कविता आई। लेकिन दलित विमर्श को फैशन कौन कह रहा है? ऐसी परिभाषाएँ कौन निर्धारित कर रहा है? क्या यह बातें दलितों के भीतर से आ रही हैंजहाँ से विमर्श शुरू हुआ है। या कहीं और से? यहाँ जिन समुदायों में पढ़ने लिखने की आजादी नहीं थी। साहित्य नहीं था। लिखने की आदत नहीं थी। जहाँ पूरी परंपरा वाचिक परंपरा रही है। लेखन बहुत नयी चीज है दलितों में। उसको फैशन कहना बहुत जल्दबाजी है क्योंकि आप क्या मानेगे जो दलित साहित्य आज चर्चा में है वह 60 के बाद की दशक की देन है। नहीं। आप यह मानिए कि दलित साहित्य की उम्र जो है वह अभी 50 वर्ष भी नहीं हुई है। दलित साहित्य जो महाराष्ट्र से उठकर दलित पेंथर से होता हुआ 1980 तक और 90 के बाद का जो दलित साहित्य है। या 80 के बाद का जो दलित साहित्य है जिसमें मान्यवर काशीराम जैसी राजनीतिक परिघटना उभरती है। जिसमें बीएसपी, बामसेफ और बहुत सारी चीजें। उसके बाद का एक दलित साहित्य आता है। फिर 90 के भूमंडलीकरण के दौर के बाद दलित साहित्य। फिल्म सोसायटी ग्रुप्स और ह्युमन राइट्स ग्रुप बने इन सारी चीजों की उम्र अभी 50 वर्ष भी नहीं हुई है। इसलिए ऐसी टिप्पणी करना जो एकदम निर्णायक टिप्पणी हो, मुझे लगता है कि वह बहुत जल्दबाजी का कदम है। कुछ लोग दिल्ली में बैठकर साहित्यिक बात करेंगे या विमर्श की बात करेंगे तो वह एक फैशन की तरह ही लगेगा। अगर दलित साहित्य किसी गाँव या मोहल्ले में बिल्कुल नीचे के स्तर तक पहुँच रहा है और वह अपने समाज को जगाने की बात कर रहा है तो वहाँ वो दलित साहित्य फैशन नहीं है। वह जरूरत की चीज है।

 

मेरी नजर में मैं एक कारसेवक था बाकी दलित आत्मकथाओं से जरा हटकर है। अगर है तो फिर कैसे?

           

मैं बाकी दलित आत्मकथाओं पर कुछ भी टिप्पणी नहीं करना चाहता हूँ लेकिन मेरा यह मानना है कि दलित साहित्य की शुरुआत की आत्मकथाएँ, बाद की आत्मकथाएँ और अभी की आत्मकथाओं में आपको थोड़ी भिन्नता तो महसूस होगी क्योंकि एक उत्पीड़ित दलित की जो व्यथा है। पहले के दौर की आत्मकथाएँ हैं उनमें आत्मव्यथाएँ ज्यादा रही हैं। जब दलितों की अभिव्यक्ति में उनकी पीड़ा को दबे हुए, डरे हुए, पीड़ित, रोते हुए, विलाप करते हुए लिखा गया। हर एक से यह कहते हुए कि हमारे साथ बहुत-बहुत बुरा हुआ। यहाँ हो गया, घर में हो गया, परिवार में हो गया, पत्नी ने कर दिया, ऑफिस गए तो ऑफिस के सहकर्मियों ने कर दिया, समाज ने कर दिया, तो सब तरफ जो एक शिकायत, वेदना और विलाप का जो स्वर है, मुझे लगता है कि वह स्वर अब बदल रहा है।

           

देखिए मैं यह बिल्कुल ही नहीं कहता कि यह जो आत्मकथा है उसका रूप बिल्कुल ही भिन्न है। लेकिन जब आप मैं एक कारसेवक था पढ़ेंगे तो आपको पीड़ा के साथ प्रतिरोध भी मिलेगा। पलटकर जवाब देने की जो बात है वो आपको इस किताब में पूरी नजर आएगी। अगर आरएसएस में रहते हुए मेरे साथ उन्होने जो कुछ किया तो मैं उसको घर बैठकर के सहन या शिकायत नहीं कर रहा हूँ। ये मेरा दुःख है, पीड़ा है, मेरे आँसू हैं। इसको मैं गा रहा हूँ या लिख रहा हूँ ऐसा नहीं है। वह प्रतिदिन के संघर्षों में, आमने-सामने के संघर्षों में मिलेगा। यह जो प्रतिरोध है और एकदम मुखर तरीके से जवाब है। यह इस आत्मकथा को बाकी आत्मकथाओं और आत्मव्यथाओं से अलग कर सकती है।

 

बाकी आत्मकथाओं को पढ़ने के बाद जब आपकी आत्मकथा पढ़ी तो मुझे लगा कि जो स्कूली शिक्षा के दौरान या बचपन में जो भेदभाव सामान्यत: दलित वर्ग से आने वाले को झेलना पड़ता है, आपकी रचना में नहीं मिला। क्या समय बदल गया है? क्या आपको भी इस तरह का भेदभाव झेलना पड़ा? अगर आपको झेलना पड़ा तो क्या आपके बच्चों अपनी स्कूली लाइफ में या कॉलेज लाइफ में इस तरह का कोई भेदभाव झेलना पड़ रहा है?

           

चूँकि इस आत्मकथा की एक कालावधि है जो 1987 से 2012 तक चलती है। इसमें बचपन की कुछ चीजें नहीं हैं जो हमारे गाँव में हमने भुगती। जो जाति के अनुभव हैं या स्कूल के अनुभव हैं वो यह आत्मकथा में नहीं आए क्योंकि आत्मकथा वो समय कवर नहीं करती है। इस रूप में यह सम्पूर्ण नहीं है। एक तरह से आरएसएस में जाने से लगाकर के आरएसएस से बाहर आने और उससे संघर्ष की कथा को यह कहती है। निश्चित रूप से बचपन में गाँव में जो परिस्थितियाँ थी, आज वह बहुत कुछ बदल गई है। मैं यह मानता हूँ कि जो स्कूलों में हमारे साथ होता था वैसा हमारे बच्चों के साथ भेदभाव नहीं हुआ। भेदभाव पानी पीने में भी था और बैठने में भी था। उस समय मिड डे मील नहीं था लेकिन स्कूल के शिक्षकों का व्यवहार था। मुझे अब लगता है कि इसमें बहुत बदलाव आया है। वैसी परिस्थितियाँ अब नहीं है। बावजूद इसके भी शिक्षक रहते हुए जो मैंने भुगता, वह भी एक समय था। लेकिन उसी गाँव में अब जो दूसरे शिक्षक पढ़ाते है। मैं उनसे पूछता हूँ। वहाँ भी उन लोगों में बदलाव हुआ है। समाज तो तेजी से बदल रहा है। हम बचपन में कल्पना नहीं कर सकते थे कि हमारे गाँव का ठाकुर हमारे घर आकर चाय पी सकता है? पहली बात तो वो ठाकुर अपने रावले से निकलकर हमारे घर तक आए यह भी कल्पना से बाहर था। हम ही जाते थे उनके घर। हमारे माता-पिता जाते थे। आज उनकी तीसरी पीढ़ी के लोग हैं वह हमारे घर पर आकर आराम से पब्लिकली खाना भी खा सकते हैं। चाय भी पीते हैं। पहले हमें उनके यहाँ पानी भी ओक से पीना पड़ता था। ऊपर से वह पानी पिलाते थे उसे पीकर हम अच्छा मानते थे। उनके यहाँ खाना होता था तो हमारे लोगों को बुलावा आता था। आज परिस्थितियाँ बदल गयी है। आज हमारे बच्चों के जन्मदिन या शादी विवाह में इन सारे कार्यकर्मों में गाँव के भी लोग आ रहे हैं। मैंने दो तीन वर्ष पहले अम्बेडकर जयंती का एक बड़ा आयोजन अपने गाँव में किया तो उसमें गाँव के सवर्ण लोग भी बड़ी संख्या में आये और उन्होने सब के साथ बैठकर खाना खाया। उसमें तमाम जाति के लोग थे। तो चीजें बदली है।

 

मैंने पढ़ने के दौरान यह अनुभव किया कि महाराष्ट्र के दलित वर्ग में जो सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता है और इधर हिन्दी पट्टी में राजस्थान, बिहार और उत्तरप्रदेश में जो राजनीतिक या समाजिक दलित आंदोलन हैं। इन दोनों में बड़ा फर्क नजर आता है। क्या आप भी यह फर्क देखते हैं? और फर्क है तो किस तरह का है?

           

मैं राजस्थान के संदर्भ में तो कह सकता हूँ कि फर्क है। उत्तरप्रदेश और बिहार की मैं नहीं बात करूंगा क्योंकि वहाँ के समाज को लेकर मेरी ज्यादा समझ नहीं है। लेकिन मुझे साफ नजर आता है कि जिस तेजी से महाराष्ट्र के लोगों ने डॉ. अम्बेडकर के एक बार कहने पर वे तमाम गंदे काम छोड़ दिए जिनकी वजह से समाज उन्हें गलत नजर से देखता है। वहाँ के महार समुदाय ने जो वहाँ मरे हुए जानवर फैंकने का काम भी करता था, एक झटके से उस काम को त्याग दिया। डॉ. अम्बेडकर के पूरे आंदोलन में साथ हो गए। कारण यह है कि वहाँ जो भक्ति आन्दोलन की परंपरा है। वर्ण, जाति, वेद, यज्ञ और इस तरह के जितने भी कर्मकांड थे उनके खिलाफ वह अपने साहित्य लिखते हैं और बात करते हैं। ऐसा कोई भी भक्तिकालीन आन्दोलन कवि आपको राजस्थान में नजर नहीं आएगा जो इस तरह की चीजों के खिलाफ बात कर रहा हो। उत्तरप्रदेश में तो चलो मान लेते है कबीर और रविदास जैसे नाम भी हैं। यहाँ दास्य भाव इतना ज्यादा रहा है। राजस्थान में पिछले सात-आठ सौ सालों में कभी प्रतिरोध रचा हो ऐसा मुझे तो कहीं नजर नहीं आता। उससे पहले भी हुआ होगा तो मेरी जानकारी में नहीं है लेकिन जो महाराष्ट्र में आपको दिखता है। संत तुकाराम भी है, चोखा मेला भी है। वहाँ साहूजी महाराज जैसे लोग है जो शासक बने और जिन्होंने सबसे पहले वर्ष 1918 में आरक्षण दिया है। वहाँ पर ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले जैसे लोग भी मौजूद हैं। फिर डॉ. अम्बेडकर जैसे लोग भी आते हैं जिनके साथ समाज मुखरता से खड़ा हो जाता है। राजस्थान में आप देखेंगे कि न भक्ति आंदोलन में प्रतिरोध का स्वर है और न बाद में जब आजादी का आंदोलन या अम्बेडकर का उद्भव और उनका आंदोलन चलता है तब भी डॉ. अम्बेडकर एक बार भी राजस्थान नहीं आते हैं।

           

चूंकि यहाँ का दलित मुख्यत बाबू जगजीवन राम के साथ जुड़ा या कॉंग्रेस के साथ जुड़ा। असल अम्बेडकरी आन्दोलन यहाँ राजस्थान में बाबा साहब के परिनिर्वाण के भी बाद पहुँचा। बीकानेर में 1965 के आसपास पहली अम्बेडकर की एक मूर्ति लगायी गयी थी। उसके बाद थोड़ी चेतना वर्ष 1975 के बाद बढ़ती है जब मान्यवर काशीराम आते हैं। राजस्थान में कोई धार्मिक क्रांति नहीं हुई। सांस्कृतिक रूप से भी ऐसा कोई प्रतिरोध नहीं रहा और बाद में जब राजनीतिक चेतना आई तब भी लोग डॉ अम्बेडकर के साथ नहीं खड़े थे। तो राजस्थान का जो स्वर है वह आपको महाराष्ट्र के दलितों के मुकाबले में बहुत क्षीण और कमजोर नजर आएगा। यह स्वर साहित्य में भी साथ-साथ परिलक्षित होता है। महाराष्ट्र की दलित आत्मकथाओं को देखेंगे और राजस्थान की जो थोड़ी गिनी चुनी दलित आत्मकथाएँ आयी है, उनमें बहुत फर्क लगेगा। लिखने पढ़ने में भी फर्क दिखेगा।

 

अंबेडकर ने हिन्दू धर्म का विशद रूप से अध्ययन करने के बाद इसकी खामियों को उजागर किया। हिन्दू धर्म में तमाम मतभेदों के बावजूद आपको इसमें कौनसी अच्छाइयाँ महसूस होती है?

 

मैं आमतौर पर एक चीज कहता हूँ कि हमें धर्मग्रन्थों के पुन:पाठ को बंद कर देना चाहिए, जो मैं मंचों पर अक्सर कहता हूँ लोगों को कि धर्म को गरियाये या कोसें नहीं । उसने हमारे साथ यह कर दिया या वो कर दिया, इससे हमारी बहुत एनर्जी चली जाती है। जिनकों हम आदर्श मानते हैं वह सभी एक नतीजे पर पहुँच गए हैं। धर्म को लेकर कि वो एक ऐसा चार मंजिला मकान है जिस पर सीढ़िया ही नहीं है, जो जहाँ पैदा होता है, वहीं मर जाता है। न ऊपर जा सकता है न नीचे आ सकता है। इस धर्म का आधार ही दिक्कत से भरा है क्योंकि वहाँ असमानता है। अब तो मुझे कई बार लगता है कि जैसे नफरत ही बेसिक है उनका। एक-दूसरे के प्रति द्वेष और घृणा, एक जाति दूसरी जाति के साथ एक घृणित भाव रखेगी। यह जो स्थिति है इसमें कोई बदलाव नहीं किया जाएगा तो आपमें बहुत सारी अच्छाइयाँ हो सकती हैं। बहुत सारी चीजें हो सकती हैं। यहाँ बहुदेववाद है। आप कह सकते है कि आपका यह धार्मिक लोकतंत्र है। यहाँ किसी को नहीं कह रहे हैं कि इसी एक वार को आपको पूजा करनी होगी या मंदिर में ही जाकर करनी होगी। आप नास्तिक भी हो सकते हैं, आप आस्तिक भी हो सकते हैं। आप शैव हो सकते हैं, वैष्णव हो सकते हैं। आप कुछ भी हो सकते हैं। किसी देवता को मान सकते हैं, पत्थर को मान सकते हैं, आप नदी को मान सकते हैं । वो सब चीजें होंगी। आप ये भी कहेंगे कि वसुधैव कुटुम्बकम आपका बहुत उदार चरित्र है। लेकिन ये सब चीजें होने के बावजूद भी आपकी सहिष्णुता स्त्री और शूद्रों के प्रति नहीं रही है और आज भी द्वेष प्रमुख भाव है। बुराइयाँ जिस ढंग से हैं कि पहले उनको बाहर निकाला जाए तो मुझे लगता है कि अच्छाइयाँ स्वत: ही सामने आ जाएँगी। फिर किसी को कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

 

आपकी जो आत्मकथा है, क्या आपको लगता है कि इसका अगला भाग लिखना जरूरी है? और अगर लिखना जरूरी है तो वे कौनसे अछूते पक्ष हैं जिनको आप एक और दलित आत्मकथा के जरिए समाज को बताना चाहते हैं?

 

मुझे लगता है कि उसमें बहुत सारी चीजें हैं। एक तो बचपन, गाँव और उस ग्राम्य जीवन में जो दलितों के साथ होने वाले तमाम तरह के विषम कटु अनुभव हैं, एक तो वो पूरा अध्याय रह गया है। एक तरीके से तेरह वर्ष की उम्र के पहले की चीजें थीं सब रह गयीं। स्कूली जीवन के अनुभव रह गए जो बचपन के और विद्यार्थी जीवन के, वो भी आने है जो आए नहीं। उसके बाद एक लंबा समय मैंने सिविल सोसायटी के लिए जिया, वह आना बाकी है। हमारे देश की सिविल सोसाइटी है उसमें भी एक किस्म का जातिवाद काम करता है। वहाँ दोनों तरह की चीजें दिखती हैं। वहाँ जाति के खिलाफ लड़ाई की भी बात दिखती है तो वहाँ छुपा हुआ जातिवाद भी दिखता है, कभी सामने आता हुआ भी दिखता है। तो जो अनुभव मेरे सिविल सोसाइटी के साथ रहे वह भी बचे हुए हैं, जल्द ही कुछ लिखूँगा।

 

आपकी आत्मकथा में आपने बताया कि सिविल सोसाइटी में भी एक तरह का जातिवाद आप महसूस करते हैं, कुछ विस्तार से बताएँ और यह भी कि आपने एक लंबा समय समाज में गुजारा है तो दलित वर्ग में जो स्त्री चेतना का सवाल है, उस पर कितना काम करने की जरूरत महसूस होती है?

 

ये तो है ही, देखिए दलितों के भीतर में अभी जो एक आवाज दलित मूवमेंट में भी बहुत तेजी से उभरी है और वो समाज में भी है क्योंकि दलित पुरुष अगर जातिवाद के दर्द को झेल रहा है तो दलित स्त्री, जाति और जेंडर, दोनों दर्द को जेल रही है। परिवार की जो व्यवस्था है उसमें तो वह पीड़ित है ही और बाहर वह जाति से भी पीड़ित है क्योंकि वह केवल महिला ही नहीं है, वह दलित महिला है। तो कई बार लगता है जैसे उसके दोनों गाल पर थप्पड़ है। दलित पुरुषों के एक गाल पर थप्पड़ है और दलित महिलाओं के दोनों गाल पर। अभी भी पूरी लीडरशिप में जो लोग आ रहे हैं; दलित एक्टिविज्म में हो, दलित राजनीति में हो, सब तरफ अभी दलित पुरुषों का ही बोलबाला है। दलितों की जो सिविल सोसाइटी उभर कर आ रही है उसमें दलित महिलाओं की भागीदारी नगण्य सी है। दलित साहित्य में भी आप देखेंगे तो उसमें स्त्रियों का जो लेखन है, कितना नजर आता है?, बहुत कम। दलित स्त्रियों की आत्मकथाएँ बहुत ही कम आई है। राजस्थान में आप अगर देख लें तो कुसुम मेघवाल की आत्मकथा आई है या एकाध और होगी। वैसे तो दलित आत्मकथा ही कम आई है लेकिन जितनी भी आई है उसमें दलित स्त्रियों की तो राजस्थान में है ही नहीं या नगण्य है। तो ये भागीदारी का सवाल तेजी से उठ रहा है और जैसे कि राजस्थान में ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच वगैरह ने काम शुरू किया है तो वहाँ यह तेजी से बात उठती रहती है कि कहाँ हैदलित एडवोकेट्स?

 

आज भी दलित स्त्रियों पर होने वाले जुर्म के लिए अगर फैक्ट फाइंडिंग टीम जाती है तो उसमें मुश्किल हो जाता है किसी दलित सामाजिक कार्यकर्ताओं को साथ लेकर जाना क्योंकि समाज की तो धारणाएँ वही पितृसत्तात्मक हैं। लडकियाँ घर से नहीं निकलेंगी, घूँघट में रहेंगी, बालविवाह होंगे, कई प्रकार की चीजें हैं। मुझे लगता है कि दलित स्त्री की मुक्ति का जो आंदोलन है वो राजस्थान में तो अभी बनना है, अभी तो आगे बढ़ना है और अब जो पीढ़ी आ रही है बच्चों की, पढ़-लिख रही है कॉलेज तक गयी है। इनके जरिए पूरा होगा। मुझे नहीं लगता है कि हमारी पीढ़ी इसको कर पाई। हमारी पीढ़ी इसी में पूरी हो गयी कि हम दलितों की मुक्ति की बात करें लेकिन दलित मुक्ति में दलित पुरुषों की मुक्ति का ही मूवमेंट बन पाया। दलित स्त्रियों की मुक्ति की जो बात है वो कहीं न कहीं हाशिए से गायब है लेकिन अब वो चर्चा शुरू हुई है। इन सालों में यह चर्चा आती है, बार-बार आती है। हमने अपने मूवमेंट में निरंतर इस कमी को महसूस किया है। स्त्रियाँ आयोजनों में आ जाती हैं, अम्बेडकर जयंती में आ जाती हैं, आंदोलनों में आ जाती हैं लेकिन केवल आंदोलनों में आ जाने भर से काम नहीं होता है क्योंकि तब भी वह घूँघट में सिमटी हुई बैठी रहती हैं। मंचों से गायब रहती हैं। मुखर नहीं हैं, बोल नहीं पाती हैं। तो अभी लंबी दूरी तय करनी है।

 

हमने देखा है कि आप दलित वर्ग में व्याप्त कर्मकांडों में और अंधानुकरण पर पूरा कटाक्ष करते हैं, तो यह सब कितना मुश्किल काम हैं?

 

मुझे लगता है कि जब हम आलोचना की बात करते हैं तो वो आलोचना दोधारी होनी चाहिए क्योंकि डॉ. अम्बेडकर नायक-पूजा के खिलाफ थे और हम अम्बेडकर की मूर्तियों की संख्या बढ़ाते ही जा रहे हैं। अंधानुकरण इस लेवल पर है कि मूर्ति किस जगह पर लगेगी? कैसी लगेगी? उसका चेहरा-मोहरा अम्बेडकर से मिलता होगा या किसी लालाजी से मिलता होगा? ऐसी जो प्रवृत्तियाँ हैं उन पर सवाल नहीं उठेंगे तो यह डॉ. अम्बेडकर के विचारों की हत्या है। मैंने लंबे समय से इस काम को जारी रखा है। यह अपने आप में बहुत खतरनाक काम है क्योंकि सबसे पहले मुझे याद पड़ता है मैंने 2002 में एक आर्टिकल लिखा बहुजन नेतृत्व की बेलगाम होती भाषाऔर तब मैंने बामसेफ के राष्ट्रीय अध्यक्ष वामन जी की भाषा को लेकर के सवाल उठाए। मायावती जी अकेली ऊपर बैठती हैं और उनके चरणों में लोग बैठते हैं, उसको लेकर भी सवाल उठाए कि ये किस किस्म का समाज बना रहे हैं। जिसमें कोई एक बैठेगा और बाकी सब उसके जूते की नोक पर बैठेंगे या चरणों में बैठेंगे। फिर इसमें और उस पुरोहितवादी व्यवस्था में क्या फर्क । वो तो पहले से ही चला आ रहा है।

 

हम क्या नया बना रहे हैं और दूसरा यह कि अगर हम ऐसे समाज की कल्पना कर रहे हैं जहाँ पर एक दिन हम ऊपर हो जाएँगे और आज वाले नीचे हो जाएँगे तब तो यह समानता वाला समाज नहीं है। थोड़ी विषमता वाला ही समाज है। तब यह केवल प्रतिक्रिया है, परिवर्तन नहीं। मैं अक्सर कहता रहा हूँ कि हम बदला लेने के लिए काम नहीं कर रहे हैं बल्कि बदलाव के लिए काम कर रहे हैं। अगर अम्बेडकर की मूर्ति को दुग्धाभिषेक किया जा रहा है तो बेहतर है कि हम शिवलिंग का दुग्धाभिषेक जारी रखें। हमें क्या फर्क पड़ता है क्योंकि वह भी संगमरमर का बना हुआ है और यह भी। श्रद्धा दोनों में ही है और श्रद्धा के आधार पर ही हमको काम करना हैं। अगर अम्बेडकर को भी अगरबत्ती लगानी है, उनकी चालीसा पढ़नी है और उनके माथे पर तिलक लगाकर चावल चिपकाना है और थोड़ा-सा गुड़ लगा देना है, तब तो फिर क्या बदल रहे हैं हम। जो है चल रहा है, वह ठीक ही है। फिर ये बदलाव क्यों? अगर कोई व्यक्ति शादी करके भैरुजी धोकने जा रहा है, उसके बजाए उसने सोच लिया कि मैं वैसे ही घर-जोड़ा बाँधकर अपनी पत्नी को घूँघट में रखकर अम्बेडकर की मूर्ति पर पूजा कर दूँ, धोक लगाने जाऊँगा तो मुझे लगता है अम्बेडकर की मूर्ति पर धोक लगाने की जरूरत नहीं है, घूँघट से स्त्री को बाहर निकाल दो, यह ज्यादा बेहतर होगा। तो उन प्रवृत्तियों की ओर मैं निरंतर इशारा करते रहा हूँ। उस भाषा की तरफ इशारा करता रहा हूँ।

 

हम किस तरह का समाज निर्मित कर रहे हैंजिसकी अपनी भाषा संयमित नहीं है। जो पूरे दिन सुबह से शाम तक ब्राह्मणवाद के नाम पर केवल एक कम्यूनिटी को कोस रहा है। उससे हमारा क्या हो जाना है। मैं निरंतर यह आलोचना का काम करता रहता हूँ और मैं बहुत अलोकप्रिय हूँ। मैं एक दीर्घ खतरे की तरफ लोगों को इशारा कर रहा हूँ कि लंबे समय में यह जो छोटी-छोटी प्रवृत्तियाँ हैं रूढ़िबद्ध हो जाएँगी तो फिर क्या होगा? कल अम्बेडकर के यदि मंदिर बनेंगे, उन में घंटा बजाया जाएगा और भक्ति भाव से उसका पूजन होगा तो हमारा समाज कहाँ पहुँच जाएगा? हम निकले तो किसी ओर चीज के लिए थे, एक तरीके से खाई से निकले और कुएँ में जा पड़े। वह स्थिति आ जाएगी तो बहुत बुरा होगा। अब कई लोग इन चीजों को स्वीकार भी कर रहे हैं और दलित आंदोलन या दलित समाज के भीतर या दलित राजनीति में जो आलोचना के लिए जगह नहीं थी, स्वालोचना के लिए, आत्मालोचना के लिए, वो जगह शायद थोड़ी निर्मित हो रही है। अब इन दिनों में मैं देखता हूँ, कि जो खतरनाक प्रवृत्तियाँ उभर रही हैं या जो भटकाव है दलित आंदोलन में, उसकी दिशा में आजकल बोलने लगे हैं और मैं ये मानता हूँ कि यह अच्छी बात है। हमें बोलना चाहिए।

 

आपने अपनी आत्मकथा में विभिन्न धर्मों के संगठनों के साथ और धर्म से जुड़े हुए कई अनुभव आपने साझा किए। अम्बेडकर ने खुद ने आखिर बौद्ध धर्म अपना लिया और हम देखते हैं कि कई सारे दलित आज बौद्ध धर्म के प्रभाव में हैं। दलितों में बौद्ध धर्म का यह आकर्षण क्यों है?

 

एक तो डॉ. अम्बेडकर का जुड़ाव और उनका बुद्ध की शरण में जाना कई वर्ष के अध्ययन के बाद बुद्धिज्म को लेकर वह एक सहज आकर्षण है। दूसरा यह है कि डॉ. अम्बेडकर ने अपने साहित्य में इस तरफ भी इशारा किया है कि जो आज के अछूत लोग है, उनकी जड़ें बौद्ध धम्म से मिलती हैं। यह जो श्रमण संस्कृति है वह बाद में निर्गुण की संस्कृति तक आ जाती है। निराकार में आ जाती है। आप अगर ग्रन्थों में देखेंगे, सत्संगों में जाएँगे; आज भी छोटे-छोटे गाँवों में, हमारे अपने इलाके मेवाड़ की मैं बात करूँ, वहाँ निर्गुण भजन गए जाते हैं, कितना उसमें चेतन्य है, जाग्रत अवस्था में लोग गा रहे हैं लेकिन आज भी वो कबीर और रविदास को गाते-गाते मूर्तियों पर, मंदिरों पर, उनके देवरों पर सवाल उठाने लगते हैं। यह जो श्रमण की परंपरा है; ब्राह्मण और श्रमण दोनों परंपराओं में श्रमण की जो परंपरा है वही परंपरा बाद में निर्गुण की परंपरा तक आती है और वो दलितों में आज भी सर्वाधिक विद्यमान है। बुद्ध के विचार उनकी जड़ों में हैं। हमने इस पर काफी काम भी किया। कई सारी चीजें आज भी है। चाहे वह पीपल पूजन की बात हो या जिस तरह कलश स्थापना की जाती है, जिस तरह पाट-उपासना की जाती है, ऐसी पंद्रह-सोलह तरह की चीजें दलितो में आज भी विद्यमान है जो कि बुद्ध के काल में और बुद्धिष्ट लोगों में पाई जाती हैं। यहाँ तक कि जो पगल्या पूजन है जिसको कई सारे लोग मानते हैं कि वे रामदेवजी के पगल्ये पूजते हैं। जबकि आप देखेंगे कि रामदेवजी का तो पूरा समय छह सौ वर्ष पुराना ही है। यह पगल्या पूजन की परंपरा तो उससे डेढ़ हजार वर्ष पहले भी मिलती है। दरअसल यह बुद्ध के चरण हैं। बुद्ध जब ज्ञान प्राप्ति के बाद सात कदम चले यह वही कदम हैं। आप अगर बौद्ध गया के मंदिर में जाएँगे तो वहाँ आप देखेंगे कि सातों कदम जहाँ वो चले उन सात जगहों पर सात पैर बनाए हुए हैं। वही पगल्ये हैं जो दलितों के गाँवों में आपको छोटे-छोटे चबूतरों पर मिलते रहे।

 

दलितों में पिछले बीसेक वर्ष में मूर्तियाँ बहुत नया फिनोमिना है। इससे पहले कि दलित गाँव में आप जाते हैं तो एक छोटी सी जगह होती थी, चबूतरा होता था और उस पर पगल्ये होते थे। वहीं वे पूजा करते थे। उस पर एक पंचरंगी झण्डा होता था। ये पंचरंगी जो झण्डा है ये पंचशील के झंडे से आता है। तो कई चीजें है जो यह तय करती हैं कि दलितों की जो जड़ें हैं वो बुद्ध और धम्म से मिलती हैं। इसीलिए एक सहज आकर्षण में और ब्राह्मणीकल जो ढाँचा है उसमें वो फिट भी नहीं है। उनकी स्थिति तो वहाँ अछूतों जैसी है। बुद्ध के धम्म में तो सुनीत जैसा झाड़ू लागाने वाला व्यक्ति भी उनका भिक्षु बना। उपालि नाई को भी शामिल किया तो किसी चुंद कम्मार को भी शामिल किया। मेरा यह मानना है कि बुद्ध ने अपने धम्म और संघ में इन समुदायों के लिए दरवाजे खोले थे। वो एक समानता का भाव जो वहाँ है यहाँ मंदिरों वाली व्यवस्था में नहीं है। दूसरा यह कि कहीं न कहीं बाकी धर्मों के साथ यह दिक्कत है कि साइंटिफिक टेम्परामेंट जो बाकी धर्मों का है वो श्रद्धा में बहुत ज्यादा है। यहाँ बुद्ध कार्य कारण के पूरे सिद्धांत के साथ हैं। कहीं न कहीं यह एक वैज्ञानिक सोच, तर्क और प्रगतिशील बात है। डॉ अम्बेडकर इशारा कर रहे थे कि दलितों को किसी एक ऐसे धर्म की जरूरत है और अगर बिना धर्म के नहीं रह सकते हैं तो उनके लिए सबसे श्रेयकर धर्म होगा, वह है बौद्ध।

 

इतना लिखने, बोलने और लोगों के बीच काम करने की ऊर्जा और प्रेरणा आपको कहाँ से मिलती है?

 

लोगों के बीच काम करने की प्रेरणा तो लोगों से ही मिलती है क्योंकि निरंतर जब हम देखते हैं कि आज भी इतना कुछ होने के बावजूद संविधान लागू नहीं हो रहा है। लोग घोड़ी से उतारे जा रहे हैं, लोग पीटे जा रहे हैं, पानी पीने में भेदभाव है, मिड डे मिल में भेदभाव है, स्कूलों में भेदभाव है, अस्पतालों में छुआछूत है, आज भी लोगों के पास ठीक से खाने को नहीं है, जमीनें नहीं है, अपने नाम की जमीनें उनको नहीं मिल रही है तो यह जो समाज की जरूरत है, वह एक्टिव बनाए रखती है। बाबा साहब अम्बेडकर की जीवनी पढ़ते हैं तो बार-बार प्रेरणा मिलती है कि एक व्यक्ति ने कितनी कठिनाई के साथ यह सब कुछ किया। जैसे मैं जब महार तालाब का आंदोलन पढ़ता हूँ तो मुझे कई बार किसी तालाब से गुजरते वक्त याद आ जाता है कि ऐसे ही किसी तालाब में पानी पीने के लिए डॉ. अम्बेडकर ने सिर पर लाठी खाई थी। चालीस वर्ष की उम्र में उनकी पत्नी चल बसी, बच्चों की मृत्यु हो गयी, केवल एक बच्चा बचा। इतना संकट, इतना संघर्ष, इतनी गरीबी और एक तरीके से आर्थिक विपन्नता सहन करने के बावजूद भी वह व्यक्ति टस से मस नहीं हुआ। ज़िंदगीभर लगा रहा। जिन्दगी के आखिरी दौर में जब दो ही महीने बचे होंगे तब उन्होंने लाखों लोगों के साथ दीक्षा ली और जिन्दगी की आखिरी रात में जब दूसरे दिन सुबह उनका शव मिला, उस रात में उन्होंने बुद्धा एंड हिज धम्मा उनकी जो बहुप्रतिष्ठित किताब थी, उसकी भूमिका लिखी। तो अंत तक जो व्यक्ति लगा रहा। आज तो समाज भी बदल गया और बहुत सारे अवसर भी हैं। साधन भी हैं। उनके जमाने में कुछ भी नहीं था। तब उस व्यक्ति ने अकेले कर दिखाया। फिर हम क्यों नहीं कर सकते हैं? बस यही प्रेरणा है जो निरंतर सक्रिय बनाये रखती है

 

बहुत-बहुत धन्यवाद

 

भँवर मेघवंशी, ख्यात दलित एक्टिविस्ट, भीलवाड़ा(राजस्थान), सम्पर्क :95710 47777, bhanwarmeghwanshi1975@gmail.com

माणिक, संस्कृतिकर्मी, कंचन-मोहन हाऊस,1, उदय विहार, महेशपुरम रोड़,चित्तौड़गढ़-312001,राजस्थान, सम्पर्क : 9460711896, manik@spicmacay.com

                                  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-38, अक्टूबर-दिसंबर 2021

चित्रांकन : All Students of MA Fine Arts, MLSU UDAIPUR
UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL)

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