शोध आलेख : उत्तर आधुनिकता ‘गायब होता देश’ के संदर्भ में / डॉ. चौधरी राजेन्द्र कुमार एस.


शोध आलेख : उत्तर आधुनिकता
गायब होता देश के संदर्भ में

- डॉ. चौधरी राजेन्द्र कुमार एस.

 

शोध सारः रणेन्द्र का गायब होता देश उपन्यास मुंडा आदिवासियों के जीवन पर केन्द्रित है। उपन्यास में आधुनिक विकास के कारण  मुडांओं के कई गाँव लूप्त रहे हैं। आज आधुनिक सभ्य समाज का विकास हो रहा है लेकिन कई आदिवासी जनजातियाँ लूप्त हो गई है और कई लूप्त होने के कागार पर है। आज शहरों का व्याप गाँव की बली पर, कृषि की बली पर हो रहा है, उससे विस्थापन की समस्याएँ बढ़ी है। आज दौर में रेल मार्ग, एक्सप्रेस हाईवे मार्ग, खनीज संसाधनों की खुदाई, बांध बनाने, औद्योगोकि स्थापना के लिए आदि अनेक विकासलक्षी कार्यों के लिए उपजाऊ जमीन बेफाम अधिग्रहित की जा रही है और उसी अधिग्रहण के बदोलत बहुत से लोगों अपने गाँव से विस्थापित हो रहे हैं और उस विस्थापन से उनके सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक दृष्टी से पतन हो रहा है उसी का चित्रण उपन्यासकार ने किया है। उपन्यास में आज जो प्राकृतिक संसाधनों की अंधाधुंध लूट करनेवाली उपभोगवादी, पूंजीवादी समाज की बात है। जिससे उपन्यास में उत्तर आधुनिक विचारधारा  का रूप भी प्रत्यक्ष नज़र आता है। गायब होता देश में आदिवासियों के सरना धर्म और मेंगालिथों प्रसंग की भी गहराई से चर्चा हुई है इससे यह उपन्यास मुंडाओं के विस्तुत जीवन को भी दर्शाता है।

 

बीज शब्दः उत्तर आधुनिकता, पूंजीवादी, आदिवासी, विकास, जमीन, बांध, संस्कृति, मुंडा, प्रकृति।

 

मूल लेखः उत्तर आधुनिकता की कल्पना और उसके उद्भव को लेकर विद्वानों में विभिन्न मत देखने को मिलते हैं। लेकिन अधिकतर विद्वान उत्तर आधुनिकता शब्द का प्रयोग ल्योतार से मानते हैं। वैसे उत्तर आधुनिकता एक विचार को लेकर स्थापित नहीं है। उसमें अनेक विचार जुड़े अनेक सिद्धांत शामिल है। कई विद्वानों ने उसे आधुनिकता के विरुद्ध खड़ा हुआ वाद माना है और कई विद्वानों ने आधुनिकता की अगली कड़ी के रूप में स्वीकार किया है। कई विद्वान उत्तर आधुनिकता उस पर विचार करते हुए कहते है कि आधुनिकता ने तार्किक सभ्यता व्यवस्था या विकास के नाम पर या तो समाप्त कर दिया था या विकृत कर दिया या फिर अप्रस्तुत योग्य घोषित कर दिया इस पर विचार प्रस्तुत करती है। इस विचारधारा में केन्द्रीकरण नष्ट हो जाता है और विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति उभरती है। जॉन मैंकवान ने लिखा है कि उत्तर आधुनिकता का लक्ष्य इसी पूजीवादी समग्रता को विखंडित करना है। इसके लिए वह समग्रतावाद के तले दबे- कुचले लोगों को सत्ता देती है। (भारत में दलित, पिछड़ों को सत्ता का आह्वान या स्त्री को सत्ता का आह्वान एक प्रकार के उत्तर आधुनिक प्रतिकार ही हैं जो अब तक के बुर्ज्र्वा समग्रता को, उसमें निहित ब्राह्मणवादी समग्रतावाद को चुनौती देते हैं।1 इस तरह देखे तो उत्तर आधुनिकता समाज में हो रहे शोषण का विरोध करता है। उस संबंध में डॉ. आशिष सिसोदिया लिखते है कि – तार्किकीकरण (Rationalization) का विरोध उत्तर आधुनिकता इसकी वर्चस्ववादी, शोषणकारी, सर्वसत्तावादी और जीवन रस को सोखने वाली प्रवृत्ति के कारण करती है।2 इस तरह भूमंडलीकरण के दौर में विकास के नाम पर अंधाधून लूट मची हुई है, उस उपभोगवादी संस्कृति का भी विरोधी है उत्तर आधुनिकतावादी विचारधारा।

 

हिन्दी उपन्यासों में उत्तर आधुनिकता की शुरूआत निश्चित नहीं है। लेकिन फिर भी कई विद्वान मानते है कि हिंदी उपन्यासों में उत्तर- आधुनिकता की शुरूआत बीसवीं सदी के अंतिम दशक से मानते है। हिन्दी उपन्यासों में उत्तर आधुनिकता की शुरूआत कई विद्वान कृष्ण बलदेव वैद कृत विमल उर्फ जाये तो जाये कहाँ से माना जाता है। जैसे- गोपीराम शर्मा लिखते है कि – हिन्दी उपन्यासों में 1974 . के कृष्ण बलदेव वैद कृत विमल उर्फ जाये तो जायें कहांमें पहले-पहल उत्तर आधुनिकत  चिह्नित होती है।3 कई विद्वान मनोहर श्याम जोशी के कुरू-कुरू स्वाह (सन् 1980) से मानते है। विदेश में भले ही सन् 1996 के बाद ही उत्तराधुनिकता पर चंतन और लेखन आरंभ हुआ हो लेकिन भारत में इसका श्रीगणेश मनोहर श्याम जोशी के कुरु-कुरु स्वाह (सन् 1980) से मानना पडेगा। अन्य लेखकों की तुलना में मनोहर श्याम जोशी के लेखन में अत्तराधुनिक चिंतन को सर्वाधिक स्थान मिला है।4 हम यहाँ पर गायब होता देश के अंतर्गत उत्तर आधुनिकता के बारे में विचार करेगें। रणेंद्र ने यह उपन्यास बाबा रामदयाल मुंडा की स्मृति एवं दीदी दयामनी बारला और इरोम शर्मिला चानू के संघर्ष के जज्बे को समर्पित किया है।5 उपन्यास मूलतः मूंडा लोगों के अस्तित्व के संकट को लेकर रचा गया है। उपन्यास के अंतर्गत उनकी संस्कृति, समाज, राजनिती और आर्थिक संसाधनों से जुड़ा सवाल रखते हैं।

 

 रणेन्द्र द्वारा रचित गायब होता देश उपन्यास का प्रकाशन पेग्विन प्रकाशन द्वारा 2014 में हुआ है। इस उपन्यास की पहचान आदिवासी उपन्यास के रूप में हुई है। वैसे रणेन्द्र पहला उपन्यास ग्लोबल गांव के देवता भी आदिवासी जनजाति यानी की असुर जन जाति की समस्याओं का चित्रण करता था। गायब होता देश आदिवासी समाज यानि कि झारखंड की मुंडा जनजाति को के केन्द्र में रखकर लिखा गया है। इस उपन्यास में किस तरह आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन पर जबरन अधिकार किया जाता है। यह दर्शाया गया है। यह उपन्यास मूलतः डायरी शैली में लिखा गया है। वैसे यह उपन्यास विकास विरोधी हलचलों को दिखाने का प्रयत्न करता है साथ ही किस तरीके से विकास हो रहा है और विकास की आड़ में आदिवासियों को बहलाया जाता है, फूसलाया जाता है उसका चित्रण है। 

 

पूंजीवादी विकास के विरोध में सोमेश्वर मुंडा, नीरज पाहन, अनुजा पाहन, सोनामनी आदि पात्र खड़े होते हैं। जो उत्तर आधुनिकता की ओर इशारा करते हैं। उसी प्रकार का चित्रण विनेंद्र जैन के डूब उपन्यास का पात्र माते भी विकास विरोधी है- वह एक मौलिक प्रश्न पूछता हैः उस विकास से क्या फायदा जो मनुष्यों को उखाड़ दे, बेघरबार कर दे, उन्हें गलत जगह रोप दे, उनकी सहजता इच्छाओं को रोंद दे? सरकार लबार है। उसे क्या हक है कि वह शांत ग्राम्य जीवन में उपद्रव करें, नदी की दिशा बदले। कितनी जनहानि, धनहानि है ! कहीं दूर बैठी सरकार फैसला करती है और कहीं दूर बैठे ग़रीब लोग उजड़ने लगते हैं। तो बांध क्यों बने? और यदि बांध बनाया जाना ही है तो क्या गाँव के भूमिपुत्रों के दिलों को भी वह बांध सकता है जो अपने उजड़ने से टुकड़े-टुकड़े हो रहे है? यह विकास लीला है या विनाश लीला।6 डूब का नायक माते शुरू से अंत तक बेचैन दिखाई देता है यही स्थिति गायब होता देश के इन पात्रों का भी है। यह सारे पात्र भी विकास विरोधी कार्य करते है। चाहे वह दुलमी बांध का विरोध हो या बिल्डर, कॉरपोरेट का विरोध हो या भू माफिया विरोध सब तरह के आदोंलनों में हिस्सा लेते है। इन विकास विरोधी लडाईयों में वे अपने परिवार के सदस्यों अपने समाज के सदस्यों को भी हाथ खो देते है लेकिन वह अपने आदोंलनों  से पिछे नहीं हटते है। इस उपन्यास में दुलमी बांध परियोजना का विरोध करने वाले भारतीय सेना के पूर्व हवालदार वीर चक्र प्राप्त परमेश्वर सिंह पाहन जिसने देश की सेवा को सर्वोपरि समझा उसी को अंत में पुलिस पूंजीवादी ताकतों के साथ मिल कर नक्सली संगठनों से सम्बन्ध दिखाकर पुलिस फायरिंग में हत्या करवा देती है। रिपोर्ट अमरेन्द्र मिश्रा भी उसका साथ देते हुए नज़र आते हैं। वे आदिवासी के बारे में कहते हैं कि तीन कोले ही मरे है। मनुष्य नहीं। इस में हम देख सकते है कि ये उच्च लोग आदिवासियों को इन्सान की नजर से भी नहीं देखते है। एक नीच जानवर की तरह ही मानते है। जिस बांध के कारण आदिवासियों का सबकुछ नष्ट होने वाला है, गाँव के गाँव तबाह होने वाले है, उनकी संस्कृति, समाज, परिवार सब नष्ट होने वाला है। उस दुलमी बांध की विशेषता के बारे में लिखा है कि – आप सोचिए सर कि दुलमी नदी पर दो सौ करोड़ का बांध। दो सौ करोड सर! यह तो अग्रवाल साहब की ग्रीन एनर्जी कंपनी की ही औकात थी सर! क्या नहीं है इस प्रोजेक्ट में? बिजली भी, नहर भी, फैक्ट्री और खेतों के लिए पानी भी। विकास ही विकास ये साले कोल्ह कहते हैं, जान देंगे जमीन नहीं देंगे।  दे दे जान। अभी तो तीने लोग मराया है।7 बांध बनने से क्या–क्या फायदा होगा बताया जाता है उसके गुणगान गाये जाते है लेकिन उसके बनने के बाद कौन सी विपदाएँ आएगी, क्या नुकसान होगा, वह नहीं बताया जाता है। उसके कई सालो बाद उसके दुष्प्रभाव देखने को मिलते हैं।

 

गायब होता देश में पत्रकारिता के बदलते रवैये या यों कहें पूंजीवादी सभ्यता के आगे लाचार और बेबस पत्रकारिता का भष्ट चेहरा भी देखने को मिलता है, उसके ऊपर भी सवाल उठाया गया जैसे – जिस व्यक्ति ने अपनी उम्र के बेशकीमती बीस साल पत्रकारिता में गुजारे, उनके प्रति अपनी पत्रकार बिरादरी का ही रुख कुछ अजीब सा था। अख़बारों के स्थानीय संस्करणों और इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोकल चैनल्स उनके प्रति, यहां तक कि उनकी मृत्यु के प्रति भी कतई उदार नहीं दिख रहे थे। दिवंगत किसान विद्रोही के ज्ञात-अज्ञात महिला मित्रों की खोज की जा रही थी। उनकी छवि एक ब्लैकमेलर, कामलोलुप और ड्रग सप्लायर की बनाई जा रही थी।8 यहाँ पर हम देख सकते है कि जिसके हाथों में ताकत है, सत्ता है, पूंजी है उसीकी ओर सारे लोग झुकते हुए नज़र आते है लेकिन जिसको निष्पक्ष रहकर अपना कर्तव्य निभाना चाहिए वह पत्रकार बिरादरी भी दोषी करार देकर सजा सुनाती दिखाई देते हुए नज़र आती हैं।

 

वैसे तो आदिवासियों की जमीन गैर आदिवासी खरीद नहीं सकता लेकिन आदिवासियों की खेती लायक ज़मीन को किस तरह गैर आदिवासियों ने कब्जा किया और किस तरह उनकी ज़मीन पर प्लॉट मनाकर बिल्डिंगों के जंगल बनाकर विकास किया जा रहा है, उसका विचित्र इस उपन्यास को में देखने को मिलता है जैसे- “अगर...मगर....लेकिन... परन्तु....पूर्व जमींदार ने 1947 के पहले हुकुमनामा जारी करके आदिवासी किसान से समर्पण सरेंडर का कागज प्राप्त कर लिया हो और उसे गैर-आदिवासी को ट्रांसफर किया हो....। यह था भयानक वायरस।9 इस तरह विकास के नाम पर आदिवासियों को जमींन से बेदखल किया जा रहा है। उनकी जमींन पर गैर कानुनी तरीके हत्थायी जा रही थी और आदिवासी जमीन के प्लॉट दिन दहाड़े गायब होते रहे थे।10 इस उपन्यास के अंतर्गत हम देख सकते है कि यह उपन्यास विकास के नाम पर जो आदिवासियों का जबरन विस्थापन किया जा रहा हो उस सच्चाई को भी उद्घाटित करता हुआ दिखाई देता है। भारत में आज नर्मदा बांध, टिहरी बांध, खनीज संपदा को लेकर खुदाई चाहे वह झारखंड, उडिसा, छतीसगढ़ में जो विकास के नाम पर आदिवासियों की जो जमींन से बेदखली हो रही है उसका पुख्ता दस्तवेज के रूप में उभरता है यह उपन्यास। उस संबंध में लिख है कि जबरिया जमीन हत्थायीने की बर्बरता को विकास के परदे से ढंकने का पाखंड अब और नहीं। चाहे गांव में बांध के लिए ज़मीन हत्थायी जा रही हो या शहर में घर के लिए।11 यह उपन्यास आज कोरपरेट घरानों के वर्चस्व जहाँ खेती लायक जमींन थी, जहाँ मक्का, सरसों, गेहूँ, धान  की फसल लह-लहाती थी। जहाँ पर गाँव के छोटे- छोटे घर थे और उन घरों में मुर्गी, गाय, भेंस, बकरी, सुवर आदि पाले जाते है वह सब विकास की वजह से गायब हो गया है और उस जगह पर सिमेंन्ट कोनक्रीट के ऊंचे-ऊंचें जंगल उग आये है उसका भी चित्रण करता है। अब तो वह केवल नाम के लिए मदुकम टोला रह गया था वहां एक नई-नकोरी चमचम करती कॉलोनी थी-ऐश्वर्या विहार। ऊंची चारदीवारी से घिरी, गगनचुंबी अपार्टमेंट से आंटी हुई। अपार्टमेंट्स की ऊंचाइयां, आकृर्तियां, डिज़ाइन कुछ ऐसी थीं कि लगता था, अश्लीलता के साथ तने हों धरती-आकाश, सबसे बलात्कार करने को उद्यत।12 इन विकास के कार्यों का विरोध परमेश्वर पाहन की पत्नी सोनामनी विरोध करती पूरे राज्य में जहाँ कहीं भी जन जातीय लोगों का विकास के नाम पर लूट होती है वहाँ वह पहूँच जाती है। जैसे- “‘एको दिन स्थिर नहीं देखिएगा इस जनाना को आज रामपुर तो कल श्यामपर। पूरे राज्य में कहीं भी ज़मीन बेदखली, विस्थापन का मामला हो अपना सिंग अड़ाने ज़रूर पहुंच जाएगी।13 ये विकास विरोधी लोगों में हम उत्तर आधुनिकता के विचारों के बिज देख सकते है। क्योंकि यह विरोध आधुनिक विकास के मार्ग में अवरोध रूप बनता हुआ नज़र आता है।  विकासशील और पूंजीवादी सत्ता की विकास उसकी सोच-विचार को उजागर करता है। पिछले दस सालों से यही सब देखते बड़े हो रहे थे। इन लोगों की नज़र जिस जमीन, जिस टोला, जिस बस्ती पर पड़ गई, कोई न कोई उपाय लगा कर कब्ज़ा किया। धन से, छल से, नहीं तो बल से। चाहे टाइम जितना लगे। उलीहातु, हिसिर, होलोंग, हेसल, गोंदा कितना नाम गिनाएं। सबका हश्र तो यही हुआ।14 विकास के नाम पर ऐसे कितने ही गाँव खत्म कर दिए गए है।

 

विकास के नाम पर किस तरह लोगों को बरगलाया जाता है, झांसा दिया जाता है। किस तरह विकास की चमक-दमक दिखाकर लोन देकर किसी गाँव और क्षेत्र को कंगाल बनाकर उसको पंगू बनाकर उसको विशेष आर्थिक क्षेत्र मे घोषित किया जाता है और गाँव के गाँव कैसे खाली करवायें जाते है उसका भी ताजा उदाहरण प्रस्तुत करता है यह उपन्यास। जैसे- शिव मंदिर के पास पोद्दार लोगों की कार का विशाल शो रूम खुला। मधुकम टोली के ही आठ-दस लड़के-लड़कियों को नौकरी दी गई। सब पढ़े-लिखे स्मार्ट लोग थे। अच्छी सैलरी, बैंक-लोन से बाइक एवं स्कूटी। धीरे-धीरे बस्ती की रंगत बदलने लगी। सब नॉर्मल लगने लगा। लोन का चस्का बढ़ा। हर घर में बाइक नज़र आने लगी और हर लड़के-लड़की के हाथ में मोबाइल। घरों में तो टीवी पहले ही से ही घुसा हुआ था। अब फ्रिज-वाशिंग मशीन भी नज़र आने लगीं। किसी को अपनी नई नौकरियों पर भरोसा था, तो किसी को अपने मुर्गी फार्म की मुर्गियों की बढ़ती कीमत पर। कोई रंगीन-सुगंधित मोमबत्तियों की डिमांड से ही गदगद था। लेकिन किसी को भी भयानक छलवे का एहसास न हो सका।15 किस तरह विकास के नाम पर उद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है और फिर उन बिन जरूरी वस्तुओं का सुविधाओं के नाम बाज़ार खड़ा किया जाता है और  जरूरतों उत्पन्न की जाती है। वह भी हम देख सकतें है।आदिवासियों को जमीन के बदले स्टेक होल्डर बनाने का सपना, हर अपरमेंट, स्काईस्क्रैपर में उन्हें फ्लैट दिलाने का सपना, आदिवासियों के लिए....यह करने...वह करने का सपना, काश्तकारी कानून को और मजबूत करने का सपना और ना जाने क्या....क्या ढेर सारे सपने। बस सपना ही सपना। अपने भी बुड़बक बनते रहे और हम सब को भी बुड़बक बनाते रहे।  केके अर्बन प्लानर्स के नियम बोडों की चमक में सारे सपने धीरे-धीरे खो गए।16 जिस बांध की नीव कई विशेषताएं बताकर की जाती है, बांध तैयार होने से पहले जो-जो सपने लोगों को दिखाएं गए थे और वह सारे सपने और विशेषताएं, बांध तैयार होने के बाद सिर्फ दस साल के भीतर ही वह सारे सपने धरे के धरे रह जाते हैं। पहले जो स्थिति इस क्षेत्र की थी उस स्थिति से भी बदतर स्थीति हो जाती है। कल तक जिस इलाके में सिंचाई के लिए, उसे धान का कटोरा बनाने के लिए आप दुलमी नदी बाँध परियोजना लाते हैं, दसे साल के बाद उसी सिंचित खेत, धान के कटोरा, धनहर इलाके में कहते कि विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाएंगे। काहे भाई? दसे साल में सीन कैसे बदल गया रे भइवा? अभी तो ढेग से नहर में पानी आना शुरूए हुआ है।17 बांध बनने से पहले जो इलाका सामान्य रूप से गुजर- बसर कर रहा था, वही इलाका बांध बनने के बाद पाई-पाई के लिए मोहताज हो जाता है, और उसको विशेष आर्थिक क्षेत्र घोषित करने की नौबत आ जाती है।

 

इस कोरोना के भयावह संकट के समय पूरा विश्व औक्सिजन के लिए संघर्ष कर रहा था कितने लोगों ने औक्सिजन की कमी के कारण अपनी जान गवाई कितने लोगों ने औक्सिजन की कालाबाजारी करके लाखों लूटे तो हम निश्चित रूप से हमने आधुनिक विकास और आधुनिक सुख सुविधाएं तो हासिल कर ली एसो आराम हासिल  किया लेकिन हम यह भूल गये कि इन आधुनिक सुविधाओं कि लालच में हम अपनी प्रथमिक जरूरते जो है उसको खोते जा रहे है। उसकी तरफ हमने ध्यान ही नहीं दिया और आज हमे पानी, हवा खरीदना पड़ रहा है। जो हमें प्रकृति से मुक्त में मिल जाता था वह प्रकृति का दोहन करके मल्टानेशनल कंपनियों से खरीदने पर मजबूर होते जा रहे है आदि होते जा रहे है। उसका वर्णन भी यह उपन्यास करता है। जंगल नष्ट करते जाओं और हवा बेच कर मुनाफा कमाते जाओं। इससे हम कह सकते हैं कि आज के दौर में किसी भी वस्तु को सिर्फ और सिर्फ मुनाफे से ही मतलब रह गया है, किसी भी वस्तु में कहां फायदा हो रहा है, कैसे लोगों को बेवकूफ बनाया जाएँ, कैसे ललचाया जाएँ वही सिर्फ देखा जा रहा है। आज के दौर में किसी भी वस्तु को भोग के रूप में देखा जा रहा है। जीवन का लक्ष्य सिर्फ इन्जोय हो गया है।  किसी भी प्राकृतिक स्त्रोत को भविष्य के लिए बचाने की बात नहीं हो रही है, उसका भी चित्रण हुआ है। उस सोलर थर्मो इलेक्ट्रिकल वेव से भरे चिप के परीक्षण से इमोर्टलिटी यूनिवर्सिटी (अमर्त्य विश्वविद्यालय), सिलिकन वैली के माइक्रो बायोलॉजिस्ट, न्यूरोसाइंटिस्ट्रस काफी खुश थे। दरअसल पश्चिम पिछले दशकों से बुढ़ापा, मृत्यु और अमरता (इमोर्टलिटी) पर बहुत गंभीरता से काम कर रहा है। वहां भोग और बस भोग के लिए कभी न खत्म होने वाले यौवन की चाह अपने चरम पर है।18  इस तरह यह उपन्यास भोग की उत्तर आधुनिक शैली पर भी बात रखता है।

 

निष्कर्ष : आज के दौर में विकासशील दौर में जहां पर में हर वस्तु विकास के साथ भोग, मुनाफ़ा पूंजी की वृद्धि, उत्पादन की वृद्धि पर जोर दिया जा रहा है। वो विकास, वो पूंजी, वो मुनाफा हमारे जीवन की वास्तविक जीवन-जरूरियातों से हटकर, हमारे सांस्कृतिक जीवन से हटकर, हमें भौतिक बनाता जा रहा है, किस तरह हमारे जीवन को भौतिक बनाकर मशीनीजीवन जीने के लिए बाध्य कर रहा है। किस तरह हम भौतिक सुख-सुविधाओं के लालत में उसके आदि हो रहे हैं, उसकी तरफ यह उपन्यास इशारा करता है। साथ ही भौतिक सुख-सुविधा को पूर्ण करने के लिए, मानवीयता के गूणों को खोकर मनुष्य किस हद तक नीच हो सकता है उस ओर भी इशारा करता है। इस उपन्यास के बहाने यह भी कहा जा सकता है कि आज जो विकास के लिए रेलमार्ग, हवाई अड्डे, सड़कों का निर्माण हो रहा है, उसके लिए जो जमीन अधिग्रहित की जा रही है, उसके लिए बहुत सारे जंगलों, पेड़-पौधों उजाड़ा जा रहा है। उससे भी बहुत गहरा असर दिखाई पर्यावरण पर होगा और हो रहा है। उसी के ताज़ा उदाहरण है कि कैसे कोरोना के समय में  हम औक्सीजन की किल्त महसूस कर रहें थे, हवा की कालाबारी होने लगी थी । इस उपन्यास के अन्तर्गत लेखक ने मुंडा जनजाति  का उल्लेख किया है। साथ ही उसके बहाने भारत की अन्य आदिवासी जातियों का विकास में नाम पर पूंजीवाद बिल्डर कॉरपोरेट बनकर अपने फ़ायदे के लिए, किस तरह जमीन की लूट चल रही है वह देख सकते है। गायब होता देश के इस लूट अभियान में सिर्फ़ मुंडा समाज या आदिवासी समाज की सिर्फ जल, जंगल और ज़मीन की ही नहीं बल्कि उनके व्यवसाय, उनकी संस्कृति, समाज, परिवार, सब कुछ नष्ट होता रहा है उसको चित्रित करते हुए, उसका विरोध इस उपन्यास के अंतर्गत देखने को मिलता है। मूलतः यह उपन्यास विकास विरोधी गतिविधियों में शामिल है। हाशिए के लोगों के हित के बारे में बात करता है, जो विचार हमें उत्तर आधुनिकता में भी देखने को मिलते हैं।

 

संदर्भ :

1.    सुधीश पचौरी: उत्तर आधुनिकता साहित्यक विमर्श, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1996, 2000, आ. 2010, पृ.-15

  1. आशीष सिसोदियाः उत्तर आधुनिकता, मूक आवाज, ई-पत्रिका,(अंक-6) अगस्त, 2014
  2. गोपीराम शर्माः समकालीन हिन्दी उपन्यासों में उत्तर आधुनिकता'अपनी माटी', ई-पत्रिका,(अंक-17), जनवरी-मार्च2015
  3. अर्जुन चव्हाणः विमर्श के विवध आयाम, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2008, पृ. 21
  4. भानु प्रताप प्रजापति: ‘पुस्तक समीक्षा:भूमंडलीकरण के दौर में गायब होता देश’’, 'अपनी माटी', ई-पत्रिका, (अंक-23), नवम्बर, 2016
  5. सुधीश पचौरी: उत्तर आधुनिकता साहित्यक विमर्श, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1996, 2000, आ. 2010, पृ.- 151
  6. रणेन्द्र : गायब होता देश, पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया, गुड़गांव, 2014, पृ.– 41,
  7. वही, पृ.- 04
  8. वही, पृ.- 78
  9. वही, पृ.- 78
  10. वही, पृ.- 81
  11. वही, पृ.- 86
  12. वही, पृ.- 87
  13. वही, पृ.- 100
  14. वही, पृ.- 102
  15. वही, पृ.- 153
  16. वही, पृ.- 226
  17. वही, पृ.- 305

 

डॉ. चौधरी राजेन्द्र कुमार एस., सहायक अध्यापक (अस्थायी),

तुलनात्मक साहित्य विभाग (हिन्दी केन्द्र, वीर नर्मद दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय, सुरत

rchaudhiry@gmail.com, 9825482920


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) 

अंक-39, जनवरी-मार्च  2022 UGC Care Listed Issue चित्रांकन : संत कुमार (श्री गंगानगर )

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