शोध आलेख : बदलते दौर में मीडिया के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती: नैतिकता / डॉ.ऐश्वर्या झा

 बदलते दौर में मीडिया के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती: नैतिकता

- डॉ.ऐश्वर्या झा


शोध-सार : पुराने ज़माने में एक कहावत थी जब तोप से मुकाबला हो तो अखबार निकालो, मीडिया और पत्रकारिता की शक्ति का भान इस से लगाया जा सकता है किन्तु आज की मीडिया समाज के लिए एक मजबूत प्रहरी की जगह व्यापार एवं राजनीति का औजार बन चुकी है। अन्य कारोबार की तरह मीडिया भी अब एक 'कारोबार 'है और उसके पत्रकार और संपादक एक 'कारोबारी'। जिनका मात्र उद्देश्य अपने अख़बारों या चैनलों के लिए विज्ञापन और धन जुटाना है। मीडिया अब कौन,कहाँ, कब, क्यों और कैसे के सिद्धांतों को नहीं मानता बल्कि ख़बरों को बनाने के नए हथकंडे अपनाता है। समाचारों की विश्‍वसनीयता 'ब्रेकिंग न्यूज़ 'की भेंट चढ़ चुकी है। आवश्यकता है कि इस बदलते दौर में मीडिया अपनी विश्‍वसनीयता पुनः कायम करे और उस गौरव को प्राप्त करे जहाँ पत्रकार और पत्रकारिता समाज में सम्मान के अधिकारी थे। मीडिया को अपने  नैतिक मूल्यों  को दुबारा तलाश कर अंगीकृत करने की आवश्कता है।

 

बीज शब्द : मीडिया,नैतिकता, इक्‍कीसवीं सदी में पत्रकारिता, डिजिटल मीडिया एथिक्स, पीत पत्रकारिता, पेड -न्यूज़, आचार संहिता, भूमंडलीकरण, नीति, वायरल खबरें।

 

मूल आलेख : वर्तमान मीडिया परिदृश्य अत्यंत परिवर्तनशील एवं जटिल है। इक्‍कीसवीं सदी में मीडिया मानव समाज का अभिन्न अंग बन चुका है। इस ऊँचाई को प्राप्त करने के लिए मीडिया ने एक लम्बी यात्रा तय की है। आज़ादी से पहले, पत्रकारिता के समक्ष जन- जन में स्वातंत्र्य चेतना का संचार करना प्रमुख लक्ष्य था। जिसे तत्कालीन अख़बारों ने शिद्दत से निभाया। उस समय पत्रकारिता एक 'मिशन' थी लेकिन समय के साथ- साथ  मिशन  "मुनाफे" में तब्दील हो गया। ….जैसे जैसे सामाजिक -राजनीतिक मूल्यों में परिवर्तन आता गया,पत्रकारिता भी उससे प्रभावित होती गयी। अखबार अब सिर्फ खबरों को जाने का साधन ही नहीं रहे बल्कि खबरें "गढ़ने" भी लगे, "खोजने"भी लगे।

 

बीसवीं सदी के आखिरी दो दशकों में चैनल क्रांति, विज्ञापन ने मीडिया को पूरी तरह बदल कर रख दिया। "अधिक खुला समाज, अधिक से अधिक जनतंत्र, एक वचनता की जगह बहुवचनता, सूचना का अधिकार और उसका उपयोग, सूचना -जगत की आज़ादियाँ, मुक्त बाजार, विज्ञापन और ब्रांड, जनहितकारी दबाव, सत्ताओं के दबाव आदि ऐसे अनेक नीति अनुभव हैं; जिनकी व्याख्या पुरानी पत्रकारिता की पदावली से संभव नहीं है। मीडिया ने भूमंडलीकरण के दौर में अपनी प्रस्थापनाओं (पैराडाइम ) को  बदल दिया है। वह पल -पल परिवर्तनशील हो उठा है। उससे उसके तेज़ बदलाव में देखना, उसके चिह्नों के बदलाव को उसके कारकों को समझना, मीडिया अध्ययन का एक बड़ा विषय है।1

 

इंटरनेट के रूप में आधुनिक मीडिया का एक ऐसा चौंकाता हुआ असीम शक्ति संपन्‍न  एक ऐसा माध्यम हमारे सामने है जिसने पूरे विश्व के सूचना -तंत्र को अपने गिरफ्त में ले लिया है। इलेक्ट्रॉनिक संचार युग का तेज़ सूचना संवाहक पूरे समाज को बदलने में पूर्णतया सक्षम है और बदल भी रहा है। आज मीडिया केवल समाचारपत्र, समाचार चैनल तक ही सीमित नहीं रहा है बल्कि आज हर व्यक्ति एक पत्रकार है, वह अपना समाचार स्वयं चैनल बना कर डाल भी सकता है। एक सेकंड में खबरें 'वायरल 'हो जाती हैं जबकि उसकी विश्‍वसनीयता संदिग्ध होती है।

 

व्यावसायिकता और टी. आर. पी.की अंधी दौड़ ने मीडिया के मूल्यों को बदल के रख दिया है। पहले जनता के लिए खबरें प्रकाशित की जाती थीं, जनता को सूचना देना नैतिक दायित्व था। आज चैनलों की स्पर्धा ने नैतिकता को ताक पर रख कर जनता को उपभोक्ता बना दिया है। जनहितकारी प्रसारण चैनलों पर समाप्त ही हो गए हैं। जनता को निष्पक्ष खबरें, जन मानस के विकास, समाज को शिक्षित करना जैसे उद्देश्य से मीडिया अब दूर जा चुके है। नए तकनीक के उपयोग से समाचार को तेज़ गति तो मिल गयी है किन्तु नैतिकता का भाव समाप्तप्राय है।  "इस प्रकार इक्‍कीसवीं सदी में पत्रकारिता तेज़ी से नई शक्ल अख्तियार कर रही है। उसके नए प्रतिमान स्थापित हो रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति की चकाचौंध, अख़बारों में बढ़ती व्यावसायिकता और विभिन्न टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता ने एक ओर जहाँ संवाददाताओं की ज़िम्मेदारी बढ़ा दी है वहीं उनके कारण पत्रकारिता का चारित्रिक स्खलन हो रहा है, पत्रकारों का नैतिक पतन हो रहा है।"2

 

समय के साथ साथ मीडिया के क्षेत्र में पूँजी, पूंजीपतियों और व्यवसाय-बुद्धि का महत्व निरंतर बढ़ता गया है और उसी के क्रम में पत्रकार और पत्रकारिता की महत्ता और प्रतिष्ठा भी कम होती गयी। समाचार पत्र -पत्रिकाओं का प्रकाशन और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का संचालन अब कारोबार का रूप ले चुका है। मीडिया अब एक 'इंडस्ट्री 'है। इसे भी वित्त, उत्पादन, श्रम, बिक्री जैसी प्रक्रियाओं से गुजरना होता है। "महत्त्वपूर्ण अब केवल यह है कि आप कितने साधन जुटा पाते हैं और उन्हें कितनी चतुराई से काम में लाते हैं। यदि आप अपने संवाददाताओं को घटनास्थल पर भेजकर दूसरों से पहले जानकारी जुटा लेते हैं और आधुनिकतम तकनीक से उससे आकर्षक ढंग से पाठक या दर्शक के सामने औरों से पहले प्रस्तुत कर देते हैं तो आपका पत्र या चैनल चमकता है। उसकी बिक्री बढ़ती है। बिक्री बढ़ती है तो विज्ञापन अधिक मिलते हैं। विज्ञापनों की आय आपको दूसरों से होड़ करने, उनसे आगे बढ़ने,अन्य पत्र -पत्रिकाओं या चैनलों से प्रतिभा-सम्पन्न पत्रकारों और कुशल प्रबंधकों को अधिक पैसा देकर खींचने में सहायता देती है। यही कारण है कि व्यक्तिगत प्रेरणा और प्रयत्‍न से चलने वाले अकेले पत्रों के पांव उखड़ने लगे हैं और पत्र -श्रृंखलाओं का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है। समाचार पत्र उद्योग का यही प्रत्यक्ष यथार्थ ,उसका व्यावसायिक दायरा है। "3

 

प्राचीन काल से ही संचार साधनों की उपस्थिति रही है। राजा अपने राजकार्य हेतु गुप्‍तचरों से मीडिया का कार्य करवाते थे और प्रजा के लिए अपनी नीतियों को उत्तम बनाते थे। तोता, कबूतर जैसे पक्षियों ने भी संदेशवाहक का काम किया है। मध्यकाल में संदेशवाहकों द्वारा संदेश भेजने की विकसित प्रणाली का प्रमाण मिलता है। अंग्रेज़ों ने भी संचार व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए कई काम किए लेकिन प्रतिबंध भी लगाए। विज्ञान के उत्तरोत्तर विकास के साथ साथ मीडिया के स्वरूप में एक विकास क्रम दिखता है। पक्षियों से आरंभ  हुआ  समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, पोस्टरों, पम्पलेटों, रेडियो, टी.वी., मोबाइल,सोशल मीडिया तक आ पहुँचा है। आप विश्‍व के किसी भी कोने में हों 'मीडिया कवरेज' से दूर नहीं हैं। इंटरनेट के माध्यम  से सुदूर गाँव की घटना को विश्‍व के कोने-कोने में पहुँचाया जा सकता है। सारी दुनिया एक वैश्विक गाँव में बदल चुकी है। भारत के गाँव का एक व्यक्ति अमेरिका के व्यक्ति से फेसबुक के ज़रिये दोस्ती कर रहा है। सोशल मीडिया के प्रभाव का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री से लेकर बड़े-बड़े नेता भी ट्विटर जैसे माध्यमों से जनता से जुड़े हुए हैं। मीडिया आज के समाज का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। मीडिया का साम्राज्य इतना बड़ा हो चुका है कि उसे नए सिरे से समझने की ज़रूरत है। पत्रकारिता और मीडिया की भूमिका को नए सिरे से समझने की ज़रूरत है। उसकी नयी परिभाषा तलाशने की ज़रूरत है। ये न केवल संकट को रोकने और शांति के प्रचार के लिए महत्त्वपूर्ण है बल्कि नागरिक समाज, सरकारों, मानवाधिकारों और नैतिक मूल्यों के प्रचार, शिक्षा और विकास के लिए भी ज़रूरी है।4 मुख्यतः मीडिया और पत्रकारों को अपनी भूमिकाओं के प्रति जागरूक होना बेहद ज़रूरी है। "आज मुख्यधारा का मीडिया ही नहीं बल्कि सभी प्रकार का मीडिया विज्ञापन पोषित हो चुका है। मीडिया को चलाने के लिए विज्ञापनों पर यह निर्भरता अनेक बार सैद्धांतिक मुद्दों पर भी समझौता करने के लिए मज़बूर कर देती है। यही नहीं, सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर जहाँ पर नागरिक समाज की राय प्रशासन या फिर सत्ता प्रतिष्ठानों के राय से अलग होती है तो मुख्यधारा का मीडिया कभी-कभी उन विचारों को दिखाने के लिए तैयार नहीं होता है। यदि कुछ विषयों को दिखाने के लिए मीडिया तैयार भी हो जाता है तो मीडिया का आंतरिक तंत्र उसमें इस प्रकार का फेरबदल करने के लिए बाध्य करता है कि जिससे सामाजिक-राजनीतिक विषय पर उभरने वाली निष्पक्ष राय कुछ न कुछ धुंधली हो जाती है।  ...... विज्ञापन और उपभोक्ता संस्कृति न केवल समाज की नैतिक सोच को प्रभावित करते हैं अपितु वे सामाजिक-राजनीतिक और पर्यावरणीय दृष्टि से भी समाज के लिए अनेक बार घातक सिद्ध हुए हैं।" 5

 

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मशहूर वक्तव्य है कि पत्रकारिता का मूल उद्देश्य सेवा भाव होना चाहिये। समाचार-पत्रों में महान शक्ति होती है, लेकिन जिस तरह जल की एक मुक्त धारा देश के पूरे तटीय क्षेत्र को जलमग्न कर देती है और फसलों को बर्बाद कर देती है, उसी प्रकार एक अनियंत्रित कलम भी नष्ट करने का कार्य करती है। बापू ने 18 अगस्त, 1946 के 'हरिजन' में लिखा कि "पत्रकारिता मेरा 'प्रोफेशन' नहीं है और वे अपने विचारों को प्रचारित करने के लिए लिखते हैं।" 6  दो तीन दशक से अनियंत्रित कलम को एक नीति संहिता में बांधने की आवश्कता सब को महसूस होने लगी है।

 

भारत में  मीडिया का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है। सिंधु घाटी की सभ्यता हो या लिपि  का विकास प्राचीन संचार तंत्र  ही आज के युग का मीडिया बाजार है।  आज़ादी के संघर्ष में वकील समुदाय के बाद किसी  भी वर्ग  की अधिक भागीदारी थी तो वो था पत्रकार समूह।  गणेश शंकर विधार्थी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, प्रताप नारायण मिश्र, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खाँ, राम प्रसार बिस्मिल  जैसे लोगों ने लेखन से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला के रख दी थी।

 

भारत में इस समय एक लाख से भी अधिक समाचार पत्र, और पत्रिकाएँ, जिसमें हज़ारों  दैनिक अखबार निकलते हैं। इतने महत्त्वपूर्ण क्षेत्र रेगुलशन के नाम पर कुछ सफ़ेद शेर (वाइट टाइगर) तरह की संस्था है, जिनके पास अधिकार के नाम पर एडवाइजरी जारी करने का अधिकार मात्र है।  मैरी मीकर की इंटरनेट प्रवृत्ति की रिपोर्ट के अनुसार  विश्‍व में इंटरनेट यूजर की संख्या में भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर है, दुनिया में इंटरनेट के कुल यूजर्स में भारत की हिस्सेदारी 12-15 फीसदी है। 7  आज देश के अधिकांश लोगों तक मीडिया की पहुँच प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में है।  पत्रकारिता (मीडिया) का प्रभाव समाज पर लगातार बढ़ रहा है। मीडिया की चकाचौंध युवा के लिए ये आकर्षक करियर भी है । मीडिया टी.आर.पी. और विज्ञापन  के चक्‍कर में नैतिकता और आदर्श से दूर भागती जा रही है। भारतीय मीडिया आज के दौर की मजबूरी है। सोशल मीडिया के युग में इनफार्मेशन और मिसइन्फोर्मशन के कारण मीडिया समूह की विश्‍वसनीयता पर बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा है। भारत में नैतिक मूल्य और सिद्धांतों के उल्लंघन के साथ साथ पेड न्यूज़, फेक न्यूज़, राजनितिक फायदे के लिए सुर्खियाँ, तथ्यों का विरूपण आदि  चिंता का  विषय  है।  मीडिया का नाम सुन  कर अब आम जन के जेहन  में एक ही बात सामने आती है, वो है उच्‍च पद या ओहदे पर बैठे लोगों के लिए काम  करने वाली संस्था। आज मीडिया या तो सत्ता के साथ है या खिलाफ। इन संस्थाओं की गिरती साख कोई बचा सकता है तो वो केवल नीति  या नीति संहिता।

 

बीसवीं सदी की शुरुआत में विकसित देश जैसे अमेरिका, ब्रिटेन आदि में मीडिया और पत्रकारों के लिये आचार संहिता एवं नीतिशास्त्र एवं सिद्धांतों की वकालत करने वाले को बल मिलने लगा। वर्ष 1922 में 'अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूज़पेपर एडिटर्सद्वारा 'कैनन ऑफ जर्नलिज्म' नामक नैतिक सिद्धांतों  अपनाया गया, जिसे समय-समय पर संशोधित किया गया ।

 

मीडिया के नियामक संस्थाओं में एनबीडीएसए, प्रेस कौंसिल (सरकारी), एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया आदि प्रमुख है। 1978 में स्थापित एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया प्रेस की स्वतंत्रता के लिए बनाया गया था। समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के संपादकीय नेतृत्व के मानकों को बढ़ाने के उद्देश्य से बनाया गया था। भारत के सभी प्रमुख राजनितिक दल सत्ता में रहते समय प्रेस के रेगुलेशन की कोशिश करते हैं, जब वही पार्टी सत्ता से बाहर हो जाती है तो प्रेस को आज़ाद देखना चाहती हैं।

 

"भारत सरकार ने आइटी एक्ट 2000 के तहत इनफार्मेशन टेकनोलॉजी (गाइडलाइंस फॉर इंटरमीडिएटीएस एंड डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड) रूल्स 2021 जारी कर मीडिया ख़ास कर सोशल मीडिया पर नकेल कसने की कोशिश की।"8  ओटीटी  और डिजिटल प्लेटफॉर्मों  के लिए बनाई गई डिजिटल मीडिया आचार संहिता में  एक त्रिस्तरीय शिकायत निवारण सिस्टम  बनाने का प्रयास  करने की बात की गयी थी। नए नियमों के अनुसार हर मीडिया समूह  को एक अनुपालन अधिकारी (कम्पलायंस ऑफ़िसर) की नियुक्ति करनी होगी समूह में ख़बर पर आने वाले शिकायत को दो हफ्ते में जबाब देगा। प्रस्तावित नियम में मीडिया संगठन मिलकर एक स्व-नियामक समिति या सेल्फ़ रेगुलेटरी बॉडी की स्थापना करने का प्रावधान था, जो शिकायत पर कार्रवाई करेगी। इस प्रस्ताव का देश विदेश से चौतरफा विरोध हुआ, संपादकों की शीर्ष संस्था आदि ने भी इनफार्मेशन टेक्‍नोलॉजी रूल्स 2021 का कड़ा विरोध किया। मद्रास तथा बाम्बे हाई कोर्ट ने आईटी नियम 2021 के कुछ उप-खंडों के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी है। नियम-9 के (1)  और (3) उप-खंडों में आचार संहिता के पालन की बात कही गई थी जिसे आई टी के नियमों से जोड़ा गया था। कोर्ट ने यह कहते हुए आई टी नियमों के कुछ उप-खंडों पर रोक लगाई कि इससे सरकार को प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया को नियंत्रित लगाने का मौका मिल जाएगा। जो मीडिया को उसकी स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक सिद्धांतों से वंचित कर सकता है।

 

भारत में ये मुद्दा बहुत ही संवेदनशील है। मीडिया देश के नागरिक के नज़रिया (परसेप्शन) में सब से अधिक रोल अदा करती है तो इस पर राजनीति भी होती है।  नवंबर 2021  में टीवी समाचार प्रसारकों के निजी संघ एनबीडीएसए ने कई आदेश जारी किए हैं।  सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एके सीकरी की अध्यक्षता में एनबीडीएसए ने हाल में दो निजी टीवी चैनलों को दोषी पाया और सुधारात्मक कदम उठाने के लिए कहा। प्रसारक द्वारा दिए गए जवाब के संदर्भ में एनबीडीएसए ने कहा कि उन्हें आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है और एंकर्स के खिलाफ सुधारात्मक कार्रवाई करनी चाहिए जो प्रसारण के दौरान तटस्थ और निष्पक्ष रहने में असफल रहे।‘’9

 

इन सब कारण के केंद्र में ये बात है कि भारत के सभी प्रमुख मीडिया समूह किसी ना किसी कॉर्पोरेट हाउस के स्वामित्व में हैं।  स्वतंत्र पब्लिक फंडेड मीडिया आज लोकतंत्र की ज़रूरत है। आज जिस तरह के कॉर्पोरेट और सरकारी दबाव में मीडिया काम कर रहा है उसका हल पब्लिक फंडेड मीडिया ही है। प्रश्‍न यह है कि क्या कानून बनाने से मीडिया में नैतिकता समाहित हो जाएगी या वो वापस अपने पुराने स्वरूप में लौट पायेगी? इस प्रश्न का उत्तर मीडिया से जुड़े लोगों को तलाशना है कि क्या मीडिया और मीडियाकर्मी धनलिप्सा की वेदी पर नैतिकता और आदर्श की बलि चढ़ा देंगे ?

 

प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने व उसे बनाए रखने, जन अभिरूचि का उच्‍च मानक सुनिश्‍चित करने और नागरिकों के अधिकारों व दायित्वों के प्रति उचित भावना उत्पन्न करने के उद्देश्व से एक संवैधानिक स्वायत्तशासी संगठन का गठन भारतीय प्रेस परिषद (Press Council of India) के नाम से 4 जुलाई 1966 को किया गया। भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति चंद्रमौली कुमार प्रसाद ने  मीडिया के  मार्गदर्शन के लिए आदर्श आचार संहिता " पत्रकारिता के  आचरण के मानक" जारी किया ।   न्यायमूर्ति प्रसाद ने प्रस्तावना में लिखा कि  "पत्रकार  को अपनी व्यक्तिगत  भावनाओं को रिपोर्टिंग से अलग रखना चाहिए, उन्हें वही लिखना चाहिए जिनकी उन्हें जानकारी है न कि जो वे जो सोचते हों तथा सभी पक्षों को सुने जाने का उन्हें अवसर देना चाहिए। पांच प्रश्न कौन, क्या,कब, कहाँ और क्यों उनके मार्गदर्शक होने चाहिए।"10  सम्भवतः समय के साथ पत्रकारिता के मानदंड बदल गए हैं। सत्य की खोज, निष्पक्षता, शिक्षा आदि मानदंड का स्वरूप बदल गया है क्योंकि चैनल और अख़बारों के संपादकों के लिए यह क्षेत्र अब एक पेशा अथवा नौकरी का भी है। नौकरी की अपनी मज़बूरियां होती हैं किन्तु सिर्फ इस कारण से वे अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकते। मीडिया के लिए बनाये गए नैतिक आचार संहिता का उद्देश्य पत्रकारों और सम्पादकों को समाज सेवा के महान लक्ष्य को अपनाने और उन पर चलने को प्रेरित करता है। 24 घंटे लगातार चलने वाले समाचार चैनलों का संतुलन बनाए रखना अति आवश्यक है क्योंकि इनके पास जनता के विचारों को प्रभावित करने की शक्ति है। भारतीय प्रेस परिषद् एवं स्वशासित न्यूज़ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन द्वारा तैयार किये  गए नैतिक संहिता में सम्पादकों को 'आत्मनियंत्रण 'के सिद्धांत का सूत्र दिया है जिसमें पक्षपातपूर्ण,गलत खबरें ,भ्रम फ़ैलाने वाली ,आपत्तिजनक ख़बरों को प्रसारित करने से रोकना है।

 

मीडिया आज किसी को भी फर्श से अर्श पर ला सकता है,राजा को रंक और रंक को राजा बनाने में सक्षम है। कहने का तात्पर्य है कि मीडिया शक्तिशाली है, 'पावरफुल' है किसी को भी कठघरे में खड़ा कर सकती है, फैसला सुना सकती है। किन्तु प्रश्‍न’‍ है कि क्या मीडिया खुद से सवाल पूछ रही है। दूसरों को कर्तव्य का पाठ देने वाली क्या अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर रही है।  मूल्य, आदर्श, सिद्धांत, दायित्व -बोध, प्रतिबद्धता, जन -सरोकार जैसे महान मूल्यों और आदर्शों परआधारित पत्रकारिता (मीडिया ) का 'मिशन 'मात्र 'प्रोफेशन' में कैसे परिवर्तित हो गया। टीआरपी की अंधी रेस से मीडिया भी अछूता नहीं रहा। मीडिया के इस अतिवादी दृष्टिकोण ने नैतिकता के प्रश्‍न को और भी अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है कि मीडिया अपनी विश्‍वसनीयता को पुनः प्रमाणित करे।

 

निष्कर्ष : प्रारंभिक पत्रकारिता औरपत्रकार आर्थिक रूप से विपन्‍न थे किन्तु नैतिकता में सम्पन्‍न थे। भारत के जाने माने  पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने प्रभात खबर से बातचीत में एक बार कहा था, "हमारा वह समय अभी पूरी तरह से विस्मृत नहीं हुआ है जब पत्रकार सचमुच ईमानदारी में काम करते थे। तब पैसे की इतनी चकाचौंध नहीं थी। उन दिनों पाठकों ने कभी ये शिकवा नहीं किया कि हम पत्रकारों ने उनके विश्‍वास को तोडा है। आज मुझे लगता है हमारे देश में प्रतिबद्धता की कमी है। मूल्यों के प्रति दृढ़ता नहीं रही। आदर्शवादिता और राष्ट्रीय सामाजिक बोध का असर नहीं रहा। कई अख़बारों के संपादक और पत्रकार दोनों देखते हैं कि जब हमारों के लिए 'पीआरओशिप' का काम करते हैं, तो अपने लिए क्यों न करें। और फिर वे भी पैसा कमाने लग जाते हैं। यानी जो वातावरण है वह अच्छी और स्वस्थ पत्रकारिता के प्रतिकूल है। लेकिन सोचिये, क्या हम भी इस रंग में रंग जायें? यदि हम भी इस बहाव में बह गए तो देश का क्या होगा ?"11  कुलदीप नैय्यर की यह टिप्पणी मीडिया के आज के व्यवहार और नैतिकता से उसके सरोकार पर सटीक बैठती है।  शक्ति का सही और नैतिकतापूर्ण  इस्तेमाल उसकी सार्थकता व्यक्त करता है किन्तु मीडिया यह सिद्धांत भूलती जा रही है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने तीस वर्ष पूर्व पत्रकार और पत्रकारिता के लिए एक निर्देशिका बनाई थी "जिनमें पत्रकारों को सात महापापों से दूर रखने हेतु व्याधियों से दूर रहकर स्वस्थ पत्रकारिता करने हेतु निम्‍नलिखित महापापों का उल्लेख किया था। वे महापाप हैं -पीत पत्रकारिता, सनसनीखेज प्रस्तुति, तथ्य में टिप्पणी का मिश्रण, जब तक व्यापक जनहित के लिए आवश्यक न हो किसी के निजी जीवन में ताक -झांक करते हुए किसी की निजता में दखल देना, अपनी ओर से किसी का ट्रायल करना और फैसला भी सुना देना, अपना पक्ष रखने के अधिकार से किसी को वंचित रखना तथा द्वेषमूलक पूर्वग्रह अपनाना12 वास्तविकता यह है कि आज की मीडिया इन महापापों से दूर तो क्या बल्कि पूरी तरह  निमग्‍न है। यदि यह कहा जाए कि ये महापाप आज के मीडिया का असली चेहरा है तो असत्य नहीं होगा। नीति के साथ दायित्व बोध ही मीडिया को पुनर्जीवित कर सकता है। मीडिया की नैतिकता का प्रश्न उसके अस्तित्व से संबंधित है। उसका उत्थान राष्ट्र के उत्थान को प्रभावित करता है। इसलिए मीडिया को पुनः मूल्य (दाम ) से ज़्यादा नैतिक मूल्यों को सँभालने की ज़रूरत है तभी उसकी सार्थकता, प्रसंगिकता प्रमाणित होगी जो भावी पीढ़ी के लिए आदर्श स्थापित करेगी।

 

सन्दर्भ :

[1] सुधीश पचौरी,भूमंडलीय समय और मीडिया,वाणी प्रकाशन,दिल्ली,1996,भूमिका से

[2] निशांत सिंह,बदलती पत्रकारिता,गिरते मूल्य,पुष्प प्रकाशन,2018,,भूमिका से

[3]उमेश कुमार राय, रेखा अजवाणी, मीडिया,अतीत,वर्तमान और भविष्य, श्री नटराज प्रकाशन,2018,पृ -27

[4] पुष्कर पुष्प,मीडिया मन्त्र ,2008,पृ 8

[5] राकेश कुमार,हमारा समय,संस्कृति और नया मीडिया,अनामिका प्रकाशन ,2018 [6] 'हरिजन'-8 अगस्त, 1946 के अंक

[7] https://www.bondcap.com/report/it19/ (Accessed on 28-11-2021)

[8] https://www.bbc.com/hindi/india-57267830 (Accessed on 28-11-2021)

[9] http://www.nbanewdelhi.com/recent-press-releases (Accessed on 28-11-21)

[10] "पत्रकारिता के आचरण के मानक"  2019,पृ प्रस्तावना

[11] मीना शर्मा,इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इनोवेटिव रिसर्च स्टडीज,वॉल्यूम 4,2016,पृ 42 वही,पृ 43

[12] मीना शर्मा,इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इनोवेटिव रिसर्च स्टडीज,वॉल्यूम 4, 2016,पृ 42 वही,पृ 43

 

डॉ.ऐश्वर्या झा,सहायक आचार्य,

स्वामी श्रद्धानन्द महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

aishwarya@ss.du.ac.in, 9810407023



 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च  2022 UGC Care Listed Issue

अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )

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