शोध आलेख : कविता की खबर रघुवीर सहाय की कविता और पत्रकारिता / अवधेश त्रिपाठी

कविता की खबर रघुवीर सहाय की कविता और पत्रकारिता

- अवधेश त्रिपाठी


शोध सार : समाचार माध्‍यमों की तात्‍कालिकता और साहित्‍य के स्‍थायीपन की प्रकृति के बीच हिंदी कविता में कुछ पुल भी बनाने के प्रयत्‍न हुए हैं। रघुवीर सहाय पेशे से पत्रकार थे लेकिन समकालीन हिंदी कविता के बड़े हस्‍ताक्षर भी थे। यों तो उनसे पहले और उनके बाद भी कई पत्रकार-कवि हिंदी में हुए लेकिन आमतौर पर उनकी कविता में पत्रकारिता के पेशे के दबाव या कहिए पत्रकारिता की प्रकृति के दबाव उतने बृहद रूप में मौजूद नहीं हैं,जितना कि रघुवीर सहाय की कविता में। रघुवीर सहाय ने स्‍वयं ही स्‍वीकार किया है कि उन्‍हें इस बात में संतुलन बनाने की कोशिश करती पड़ती रही कि वे 'खबरों में कविता या कविता में खबर न लिखने लगें'। इस तरह की कविता हमें यह अवसर देती है कि हम इन नितांत दो भिन्‍न प्रकृति की विधाओं के अंतर्संबंधों की पड़ताल करें, उनके एक-दूसरे पर असर को परखने की कोशिश करें। यह शोध आलेख इसी दिशा में किया गया विनम्र प्रयास है।

 

बीज शब्‍द : गद्यात्‍मकता, सपाटबयानी, संचार माध्‍यम, तात्‍कालिकता, शाश्‍वतता, जनपक्षधरता, समकालीन कविता, आत्‍महत्‍या के विरुद्ध, सामाजिक यथार्थ, अखबारी भाषा, काव्‍यभाषा, लोकतंत्र, जन-इतिहास।

 

मूल आलेख : साहित्‍य और पत्रकारिता के बीच चरित्रगत अंतर्विरोध की बात की जाती है। साहित्‍य स्‍थायी मूल्‍यों का पोषक है जबकि पत्रकारिता तात्‍कालिक जरूरत से पैदा होती है। साहित्‍यकार कुछ ऐसे मूल्‍यों को अपनी रचना में कलात्‍मक ढंग से संजोता है जो तात्‍कालिक जरूरतों के पार जायें। क्‍या इस कलात्‍मक संयोजन और पारगमन के प्रयत्‍न के बीच वर्तमान यानी रचनाकार और रचना का समय गायब हो सकता है? क्‍या तात्‍कालिकता और स्‍थायी मूल्‍यों के बीच सच में इतनी बड़ी दीवार है? यदि हम इन प्रश्‍नों पर विचार करें तो पाते हैं कि समकालीन हुए बिना सर्वकालीन होना संभव नहीं है। रघुवीर सहाय की कविता समकालीनता और सर्वकालीनता के इस द्वंद्व को विफल करती है। वे पत्रकारिता को अपनी कविता के लिए उर्वरभूमि की तरह इस्तेमाल करते हैं। उन पर कविता को अखबार के सतहीपन से भर देने के आरोप भी लगे। आलोचकों ने कविता की भाषा के रूप में जिसे ‘सपाटबयानी’ कहा उसी कविता और काव्यभाषा के बारे में यह भी कहा गया कि उन्होंने कविता को खबरों के बोझ से लाद दिया है। साहित्य की तथाकथित उच्च भूमि से कविता को अखबारों की भाषा के इर्द-गिर्द लाने के पीछे कवि की क्या मंशा थी यह देखना आवश्यक है। यह भी समझना चाहिए कि कविता किन परिस्थितियों में बिंबों और अमूर्तन की भाषा छोड़कर ‘वाक्यों’ यानी गद्यात्मक भाषा की ओर उन्मुख हुई।

 

रघुवीर सहाय ने खबरोंके आधार पर कविताएँ लगभग नहीं लिखी हैं, संचार माध्यमों के चरित्र, उनकी पतनशीलता और सत्ता के साथ उनके संबंधों पर कविताएँ हैं। लेकिन इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अखबारों के अनुभव को उन्होंने कविता में ढाला है। इसलिए ऐसी बहुत-सी कविताएँ हैं जिनमें अखबारों की सी तटस्थता है। यह तटस्थता अर्जित की हुई है जो कविता के परिवेश को संघनित करती है। इसलिए मैनेजर पाण्डेय का मानना उचित ही है कि खबर उनकी कविता के रचाव में है, ‘‘पत्रकारिता रघुवीर सहाय की कविता का विषय ही नहीं है, वह उनकी कविता के रचाव में भी है। उनके काव्य-कौशल की कई विशेषताएँ पत्रकारिता से आई हैं और उनकी काव्यानुभूति में ढलकर नया रूप पा गई हैं। तात्कालिकता अखबार की खबर की विशेषता है, लेकिन रघुवीर सहाय की कविता में वह मानवीय अनुभव की विशेषता बन गई है। वे जब कभी तात्कालिक अनुभवों पर कविता लिखते हैं, तब उनके स्थायी अभिप्रायों की खोज करते हैं, इसलिए कविता अखबारी तात्कालिकता से मुक्त होती है। लेकिन जब वे प्रेम और मृत्यु जैसे स्थायी विषयों पर कविता लिखते हैं, तब समकालीन समय और समाज में प्रेम और मृत्यु के अनुभवों की तात्कालिकता की अभिव्यक्ति करते हैं। रघुवीर सहाय अपनी कविता में नकली शाश्वतता की बेदीपर जीवन के अनुभवों की तात्कालिकता की बलि नहीं चढ़ाते। उनकी कविता में अनुभवों की तात्कालिकता होती है, अखबारी सूचनाओं की नहीं; इसीलिए एक पाठ के बाद उसकी ताजगी मरती नहीं, हर पाठ के दौरान वह नये रूप में जी उठती है।’’[1]

 

रघुवीर सहाय अखबारों ही नहीं दूसरे कला माध्यमों, मसलन चित्रकला, संगीत आदि की भाषा के साथ कविता के संवाद को जरूर मानते थे। विभिन्न अखबारों में नौकरी के दौरान उन्होंने हिंदी कविता के क्षितिज के विस्तार की गंभीर कोशिश की, बगैर गंभीरता का लबादा ओढ़े। संगीत समारोहों और चित्रकला प्रदर्शनियों पर उनकी महत्त्वपूर्ण समीक्षाएँ व लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे जिसके जरिए उन्होंने हिंदी कविता के साथ इन कलारूपों का संवाद संभव बनाया। खैर, रघुवीर सहाय उन थोड़े-से कवियों में हैं जो अपनी कविता और रचना प्रक्रिया के बारे में, अपने अंतर्द्वन्द्वों के बारे में बेझिझक और बिना आत्ममुग्धता के विश्लेषण करते हैं, ‘‘मैंने छत्तीस वर्ष तक कविता भी लिखी और अखबार में भी काम किया, इसकी तारीफ नहीं चाहता, मगर जरा यह तो सोचिए, कि ये छत्तीस वर्ष मुझे कितने संघर्ष में बिताने पड़े। संघर्ष यही था कि कहीं मैं कविता में खबर या लेख न लिख डालूँ। इतना ही होता तो गनीमत थी। संघर्ष यह भी था कि कहीं लेख या खबर में मैं कविता न लिख डालूँ। ऐसा न करके मैंने कविता और पत्रकारिता के संबंध के बारे में ही लिखकर संतोष किया। साहित्य और राजनीति के संबंध के बारे में भी अक्सर लोग लिखते रहते हैं। .......सुसंस्कृत अखबार वह है जिसे पढ़ने के बाद मालूम हो कि मैंने एक कविता पढ़ी- यथार्थ की कविता, जिसमें वर्तमान की खबरें हो सकता है कल बासी हो जाएँ, लेकिन मैं आज भविष्य की ओर बढ़ चुका हूँ, क्योंकि आज इस अखबार ने मुझे जो वर्तमान बताया है वह भविष्य की ओर जाने का मन बना रहा है। यही तो कविता है, और अगर है तो वह सारे अखबार में ही हो सकती है, हेडलाइन में नहीं। कवि का काम और खबरनवीस का काम अलग-अलग नहीं है।1967 में ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ नामक मेरा संग्रह छपने पर जबरदस्त आलोचना की गई थी कि यह अखबारी कविता है। शायद इन कविताओं में बहुत-सी घटनाओंका जिक्र था और घटनाएँ अखबार में छपती हैं, इसलिए आलोचकों ने इन कविताओं को अखबारी कह दिया। पर वे घटनाएँ कहाँ और कब घटी थीं, किसी को नहीं मालूम। बात यह थी कि कवि ने इनका देश और काल सब अपने मन से बदल कर एक नया विश्वसनीय देश और काल बना दिया था। असल में घटना एकदम से घटकर एकदम से खत्म नहीं हो जाती। वह लंबे समय तक एक से अधिक जगहों पर और एक से अधिक वक्तों में घटित रहती है। और घटना तब बनती है जब असलियत इतनी बदल चुकी होती है कि हम एकाएक किसी एक समय उसे किसी एक स्थान पर देखने लगते हैं और एक असाधारण असलियत मान लेते हैं। उसका एकाएक असाधारण लक्ष्य कर लिया जाना कविता नहीं है, वह खबर है। कविता, उसका घटते रहना है, जिसके दौरान वह एकाएक खबर बन जाती है। इस तरह देखें तो कवि और पत्रकार दोनों एक ही काम कर रहे होते हैं। यानी कवि खबर के घटने को बता रहा होता है, पत्रकार खबर को। ...खबर वही नहीं है जो लोगों को घटना बताकर चौंकाती है। खबर वह है जो लोगों को भरोसा देती है, हिम्मत बँधाती है और समाज को अपनी बदलती हुई शक्ल की परछाईं देखने को देती है। कविता भी यही करती है दो अलग-अलग तरीकों से।’’[2] खबर और कविता के इस रासायनिक मिश्रण की प्रक्रिया को इतने प्रामाणिक तौर पर वही बता सकता है जिसने इस संघर्ष से अपने को गुजरने दिया हो।

 

रघुवीर सहाय की नजर में संचार माध्यमों का सिर्फ वह पक्ष नहीं है जो एक कवि को खबर और कविता के बीच फर्क करने के लिए बाध्य करता है। उनके सामने इन माध्यमों के जनपक्षधरता के दावों के बावजूद उनका जनविरोधी चेहरा स्पष्ट था। अखबार आदर्श पत्रकारिता के नहीं बल्कि बडे़सेठों के काले धन को सफेद करने से लेकर तमाम सामाजिक अनाचार के केंद्र हैं, यह उन्हें हमेशा महसूस होता रहा। ‘‘वे पत्रकारिता के अपने अनुभवों की मदद सेसमकालीन हिंदी कविता के परिचित रूप-रंग और प्रचलित प्रभाव-पद्धति को तोड़ते हुए ऐसी कविता लिखते हैं, जिसका स्वभाव और प्रभाव दूसरे समकालीन कवियोंकी कविता से अलग है।’’[3] जनता के सामने जो अखबार होता है उसे उन तकपहुँचाने के लिए हॉकर होते हैं, जो अखबार की उत्पादन-प्रक्रिया की अंतिम औरसबसे बदहाल कड़ी होते हैं। रघुवीर सहाय ने अखबार विक्रेता रामू के जरिए इसस्थिति की विडंबना को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया-

''धधकती धूप में रामू खड़ा है

खड़ा भुलभुल में बदलता पाँव रह-रह

बेचता अखबार जिसमें बड़े सौदे हो रहे हैं

..............

वहाँ जब छाँह में रामू दुआएँ दे रहा होगा

खबर वातानुकूलित कक्ष में तय कर रही होगी

करेगा कौन रामू के तले की भूमि पर कब्जा''[4]

 

बड़े सौदे करने वाले अखबारों को चिलचिलाती धूप में जलते हुए पैरों कोबदल-बदलकर बेचता रामू और वातानुकूलित कक्ष में रामू के पाँवों के तले की जमीनतक पर कब्जा करने की साजिश यही वह मंजर है जहाँ रघुवीर सहाय समाचारमाध्यमों की समाजिक भूमिका के यथार्थ को देख रहे हैं। जो समाचार माध्यम रामूके पैरों के तले जमीन तक पर कब्जे की साजिश रच रहे हैं उन्हें ही कवि देख रहाहै कि किस तरह वे मानव-विरोधी होने की हद तक असंवेदनशील होते हैं।खुशीराम’ की हत्या का कारण यह है कि वह जानता है कि संपादक कहाँ पर दुमहिला रहा है और कहाँ ‘गुरगुरा’ रहा है। लेकिन खबर हत्या की नहीं बदचलनी कीबनती है-

''दिन-रात साँस लेता है ट्रांजिस्टर लिये हुए खुशनसीब खुशीराम

फुरसत में अन्याय सहने में मस्त

स्मृतियाँ खखोलता हकलाता बतलाता सवेरे

अखबार में उसके लिए खास करके एक पृष्ठ पर दुम

हिलता संपादक एक पर गुरगुराता

एक दिन आखिरकार दुपहर में छुरे से मारा गया खुशीराम

........

खुशीराम बन नहीं

सका कत्ल का मसला, बदचलनी का बना, उसन

जैसा किया वैसा भरा''[5]

 

ज्यादातर ऐसा होता है कि हम घटनाओं से इतनी दूर होते हैं कि उनके बारेमें हमारी जानकारी का एकमात्र स्रोत अखबार या अन्य समाचार माध्यम ही होतेहैं। जब अखबार अपने स्वार्थों और सत्ता-संबंधों के चलते खबरों को अपने रंग में रंगकर प्रस्तुत करते हैं तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि इसमें सत्य का कोईअंश है भी या नहीं। खबर की वस्तुनिष्ठता और विश्वसनीयता संदेह के दायरे मेंहोती है। लेकिन समाज के ज्यादातर हिस्से तो अखबारों में लिखी हुई बातों को बिनाकिसी संदेह के ज्यों-के-त्यों स्वीकार कर लेते हैं। भारत जैसे देश में साक्षरता की जोस्थिति है उसको इसी बात से समझा जा सकता है कि अभी भी तमाम ऐसे लोगमिली जाएँगे जो चाहे सच लिखा हो चाहे झूठ लेकिन यदि कुछ छपा हुआ है तोउसे ही सच मानेंगे और उसके लिए यह मिटने की तैयारी हो जाएँगे। मैनेजर पाण्डेयने ठीक ही लिखा है कि ‘‘आज यह समझना जरूरी हो गया है कि अखबार औरजनसंचार के दूसरे माध्यम समाज की वास्तविकताओं और सच्चाइयों को विशेषरूप-रंग में ढालकर पेश करते हैं और सामाजिक चेतना को मनचाही दिशा में मोड़तेहैं। इस तरह जन-संचार माध्यम हमारे सामाजिक बोध को ही नहीं, बोध की प्रक्रियाको भी प्रभावित कर रहे हैं।’’[6]

 

संचार माध्यमों के द्वारा निर्मित किया गया नये किस्म का भावबोध किस हदतक कटा-छँटा और करीनेदार होता है। उसके उदाहरण भी रघुवीर सहाय की कवितामें देखे जा सकते हैं। उनके द्वारा सामान्यबोध में जिस तरह के परिवर्तन किए जातेहैं ‘टेलिविजन’ कविता उसका एक बेहतरीन उदाहरण है। लोगों को दिल्ली औरबंबई दोनों के फैशन दिखलाने वाला ‘टेलिविजन’ कभी-कभी लोकनर्तकों की तस्वीरभी दिखाता है लेकिन यह समझना संभव नहीं रह जाता कि वे लोकनर्तक जो दिखाएजा रहे हैं उनका लोगों के साथ क्या रिश्ता है। हम सिर्फ दूरदर्शन पर ही नहीं स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस की परेडों से लेकर विभिन्न सरकारी आयोजनों तक यह भी देखते हैं कि लोककलाकार मनोरंजन के उपादान की तरह इस्तेमाल किएजाते हैं-

''मैं संपन्न आदमी हूँ है मेरे घर में टेलिविजन

दिल्ली और बंबई दोनों के दिखलाता है फैशन

कभी-कभी वह लोकनर्तकों की तस्वीर दिखाता है

पर यह नहीं बताता कि उनसे मेरा क्या नाता है

............

कभी-कभी वह दिखला देता है भूख-नंगा इंसान

उसके ऊपर बजा दिया करता है सारंगी की तान

...............

तब से मैंने समझ लिया है आकाशवाणी में बनठन

बैठे हैं जो खबरों वाले वे सब हैं जन के दुश्मन''[7]

 

भूखा-नंगा इंसान’ दिखा देने के बाद ‘सारंगी की तान’ बजा देना मतलब कि जख्मों पर करुणा का छिड़काव है। इसीलिए आखिरी पंक्तियों में एकदम सीधावक्तव्य, एक निर्णयात्मक स्वर में आता है। रघुवीर सहाय के लिए संचार माध्यमइतनी अहमियत सिर्फ इस वजह से रखते थे कि वे इनकी वास्तविक शक्ति को पहचानते थे। जब उन्होंने यह समझ लिया कि ये माध्यम हमारे बोध को ही नहीं बोध की प्रक्रिया को भी प्रभावित कर रहे हैं और इन माध्यमों का इस्तेमाल शोषणकारी सत्ता और यथास्थितिवाद को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है तो उन्होंने अपनीकविता को संचार माध्यमों की आलोचना की तरफ मोड़ा। प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दावा करने वाली सत्ता ने किस तरह से अपने विरोध की आवाजों का गला घोंटा आपातकाल उसका जीता-जागता उदाहरण है। जिन लोगों ने भी सत्ता की तानाशाही के खिलाफ चूँ तक करने की कोशिश की उन्हें दमन कासामना करना पड़ा। इस तरह की राजनीति एक तरफ तो ‘चौखम्भा राज’ (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस) का गुणगान करती है तो दूसरी तरफ लोगों का दमन करती है, अपने प्रिय लोगों को छोड़कर। रघुवीर सहाय ने इस बात कोलक्षित करते हुए लिखा कि ‘‘बोलने की आजादी उन लोगों को हमेशा हर तंत्र मेंरहती है जो सोचते नहीं। ...उनकी वाणी को सत्ता पसंद करती है। सरकारी प्रचार माध्यमों में उन्हें हिस्सा दिया जाता है। आजकल तो इतना दिया जा रहा है किसार्वजनिक जीवन में ऐसे लोगों की पूरी जमात बन गई है जो पूर्ण सहमति केवातावरण में जीते और पनपते हैं।’’[8] पूर्ण सहमति के आत्ममुग्ध वातावरण में यदिकोई ‘हठ इनकार का सिर तान’ खड़ा हो जाए तो! यह पहले जैसा निजाम नहीं है। यह ज्यादा शातिर लोगों का शासन है। वह वास्तविक विरोध को पीछे धकेल देनेके लिए ‘पालतू विरोध’ खड़ा कर लेता है। अपने ही लोगों के द्वारा अपना विरोध,ताकि सब कुछ अपने नियंत्रण में हों। रघुवीर सहाय ने देखा कि किस तरह प्रायोजितविरोध के द्वारा वास्तविक विरोध की जगह को ही समाप्त किया जा रहा है। उन्होंने उसके अर्थ पक्ष को भी ध्यान में रखते हुए भी लिखा कि ‘‘अखबार, दूरदर्शन और राजनीति आज ऐसे ही पाखण्डों को विरोध का बिल्ला लगाकर बेच रहे हैं क्योंकि विरोध नामक सच्ची चीज की नकल करना मुनाफाखोर सभ्यता को सस्ता पड़ता है। वह नकली विरोध की अलग-अलग छाप बाजार में लाती और बदलती रहती हैं।’’[9]

 

अखबारों की अमानवीयता की हद तक असंवेदनशीलता के बारे में आज के समय में अलग से कुछ कहा जाए यह जरूरी नहीं रह जाता। किस तरह से अखबार हमें मृत्यु को भुला देने और सिर्फ लाश को कुछ समय तक याद रखने के लिए तैयार करते हैं, किस तरह खबरें बनाई जाती हैं; सनसनी पैदा करने के लिए, किस तरह वध किए जाते हुए मनुष्य की चीख गुम हो जाती है, जीवन के जटिल संघर्ष और उनमें पिसता हुआ आदमी खबरों के दायरे से बाहर धकेल दिया जाता है-

''लाश वह चीज है जो संघर्ष के बाद बच रहती है

उसमें सहेजी हुई रहती है-एक पिचकी थाली

एक चीकट कंघी और देह के अंदर की टूट

सिर्फ एक चीख बाहर आती है जो कि दरअसल

एक अंदरूनी मामला है और अभी शोध का विषय है

तब वह चीख नहीं-लाश भेज दी जाती है छपाई के लिए''[10]

 

चीकट कँघी और देह के अंदर की टूट के ब्यौरे, पिचकी हुई थाली की उपस्थितिमें नये संदर्भ ग्रहण कर लेते हैं। ‘रघुवीर सहाय जानते हैं कि हमारी रोज-रोज की जिंदगी में ब्योरों का बहुत महत्त्व होता है, बल्कि ब्योरों के बीच से ही जिंदगी कारूप उभरता है। वे पत्रकारिता के अनुभव से यह भी जानते हैं कि ब्योरों से बचने वाली  भाषा हवाई होती है। इसीलिए उनकी कविता ब्योरों से बचने की कोशिश नहींकरती। उनकी कविता की भाषा ब्योरों के बीच से गुजरती हुई जिंदगी के यथार्थ और अनुभवों को मूर्त रूप में सामने लाती है। वह ब्यौरों में छिपी विडंबनाओं, संरचनाओंमें खोई संवेदनाओं और तथ्यों के बीच मौजूद सच्चाइयों की खोज के लिए बेचैन भाषा है। लेकिन ब्योरों के बावजूद अपने विशेष रचाव के कारण वह अखबार की भाषा की तरह अर्थ की दृष्टि से इकहरी और सतह पर जीने वाली नहीं होती।’’[11]

 

ब्यौरे कविता को प्रामाणिक बनाते हैं लेकिन सिर्फ ब्यौरे नहीं। क्योंकि कालांतर में ऐसीकविताएँ भी हिंदी में लिखी गई जिन्होंने ब्यौरों और आँकड़ों को कविता के लिएआदर्श माना लेकिन कविता का प्राणहरण करके। ऐसी कविताओं को पढ़कर किसी सतही समाजशास्त्रीय लेख को पढ़ने की अनुभूति हो सकती है, कविता पढ़ने की नहीं। ब्यौरे तो हमारे जीवन में ऐसे ही बहुत हैं। सवाल आवश्यक तफसील का सहीसंदर्भों में इस्तेमाल का है और संवेदनशील कवि-दृष्टि का भी।शासकों ने अखबार का विविध रूपों में जनता के खिलाफ इस्तेमाल किया।अखबार कभी डराता है तो कभी पुचकारता है। अखबार सत्ता का ‘शस्त्र भी है औरशास्त्र भी’। अखबार की विविध आयामी भूमिका को कवि ने इस तरह रेखांकित किया है-

''मरते मनुष्यों के मध्य खड़ा मक्कार मंत्री

कहता है सविश्वास

सरकार सिंचाई करे

सुनते हैं लड़के, अधेड़ पढ़ते हैं, याद करते हैं बूढ़े

यह विचार, अखबार सीने पर धर जाता है लोहे के

अक्षरों में एक धौंस, कोई छटपटाता नहीं।''[12]

 

कवि की मुख्य चिंता खबरों और पूँजी के खेल के बीच ‘चाँप’ दिए गए मनुष्यकी है। इसीलिए जब मरते हुए आदमी की चीख के बारे में अखबार लिखते हैं किवह आखिरी वक्त में चिल्लाया था ‘आजादी’ तो रघुवीर सहाय जानते हैं कि वहआदमी चिल्लाया था ‘बचाओ’। यह खुद प्रेत का बयान है। एक ही चीख कोअलग-अलग कैसे सुना जाता है इसकी कथा भी सबको ज्ञात ही है। ‘‘नागार्जुन के बाद संभवतः उन्हीं (रघुवीर सहाय) की कविता में समकालीन भारतीय समाज कीसबसे अधिक सूचनाएँ दर्ज हैं। लेकिन वे कविता में सूचनाएँ देकर संतुष्ट नहीं होजाते। उनकी कविताएँ अपने समय और समाज की खबर देती हुई बार-बार सवालपूछती हैं और पाठकों को नये सवाल करने के लिए उकसाती भी हैं। ये सवाल पाठकको सजग भी बनाते हैं, उसकी चेतना नयी संभावनाओं की तलाश में सक्रिय होतीहै। इस तरह कविता परिवर्तन प्रक्रिया तेज करती है।’’[13] प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने ठीकही लक्ष्य किया है कि रघुवीर सहाय की कविताएँ परिवर्तन की प्रक्रिया के साथ कहाँपर जुड़ती हैं। खबरों के झूठ को उजागर करती हुई कविता नयी खबर रचने कीप्रक्रिया का हिस्सा बन जाती है-

''देखो जिनको मारा है उनके चेहरों को

उन पर कोई रंग नहीं है

पर सौदागर जरा देर में उन पर कोई रंग डालकर

उनको कपड़े पहना देंगे चिकनाए आवरण पृष्ठ''[14]

 

‘‘उनकी कविता में समकालीन समाज की खबरें हैं, लेकिन वे मानवीयअनुभवों की खबरें हैं। उन खबरों में टूटते-बिखरते मानवीय रिश्तों की पहचान हैऔर एक नये मानवीय रिश्ते की खोज भी। वहाँ अनुभवों की तात्कालिकता है,लेकिन उसके साथ ही संघर्ष की चेतना का अभिज्ञान भी है। ऐसी ही कविताओं केबारे में एजरा पाउण्ड का यह कथन सार्थक लगता है कि कविता ऐसी खबर है जोहमेशा खबर बनी रहती है।’’[15] झूठ के इन हजार रंगों के बीच से सच तक पहुँचनेकी कोशिश रघुवीर सहाय की कविताओं की अन्यतम विशेषता है। मरने के पहलेके हालात नहीं अखबारों को मरने के बाद की सनसनी चाहिए होती है। मृत्यु केकारण नहीं मृत्यु की खबर, मृत्यु का व्यवसाय, मृत्यु का महोत्सव। इन माँगों के बीच झुर्रियों और आँखों की उदासी को देख पाना अपने भीतर के मनुष्य के जीवित होने

का प्रमाण है-

''मुझसे कहा है कि मृत्यु की खबर लिखो

मुर्दे के घर नहीं जाओ, मरघट जाओ

लाश को भुगताने के नियम, खर्च और कुप्रबंध

-खोज-खबर लिख लाओ-

यह तुमने क्या लिखा-‘‘झुर्रियाँ, उनके भीतर छिपे

उनके प्रकट होने के आसार,

-आ!खों में उदासी-सी एक चीज दिखती है...’’

यह तुमने मरने के पहले का वृत्तांत क्यों लिखा?''[16]

अखबार सत्ता के संकेतों के आधार पर कैसे काम करते हैं और सत्ता के साथकैसे गठजोड़ कायम करते हैं यह कविता उसका अप्रतिम उदाहरण है-

''बीस बड़े अखबारों के प्रतिनिधि पूछे पचीस बार

क्या हुआ समाजवाद

कहें महासंघपति पचीस बार हम करेंगे विचार

आँख मारकर पचीस बार वह, हँसे वह, पचीस बार

हँसे बीस अखबार''[17]

 

रघुवीर सहाय की काव्य-भाषा के बारे में भी यह बहस की गई कि उनकी भाषासतही या अखबारी है। दरअसल यह बात समझना जरा कठिन है कि अखबारी भाषाका अर्थ सामान्य बोलचाल की भाषा की जगह सतही भाषा क्यों लिया जाता है। पंकज चतुर्वेदी ने काव्‍य-भाषा के संदर्भ में रघुवीर सहाय के मंतव्‍य को रेखांकित करते हुए लिखा कि ''रघुवीर सहाय का मंतव्‍य था कि समाजभाषा और पत्रकारिता की भाषा दोनों में बदलाव काव्‍यभाषा में बदलाव के साथ आता है और काव्‍यभाषा का निर्माण अलंकारों पर नहीं, समय के साथ संवेदनाओं के बदलने और विकसित होने की वास्‍तविकता पर निर्भर है।''[18]पत्रकारिता की भाषा और कविता की भाषा के इस अंतर्संबंध और कविता में उसके व्‍यावहारिक निर्वहन के कारण दोनों के बीच अंतर मानकर चलने का तरीका प्रश्‍नांकित हो गया। प्रो.मैनेजर पाण्डेय ने रघुवीर सहाय की काव्य-भाषा के बारे में उचित ही टिप्पणी की है कि- ‘‘ऊपर से अखबार जैसी सहज-सरल दिखने वाली रघुवीर सहाय की काव्य-भाषा की सरलता से ऐसी दक्षता होती है जो एक ओर सतह पर सब कुछ पा जाने वालेपाठकों को धोखे में डाल देती है तो दूसरी ओर जटिलता में ही कविता की खोज करनेवालों के लिए गूढ़ बन जाती है।’’[19] रघुवीर सहाय अपनी कविता की विषय-वस्तु,उसकी संरचना और भाषा तक में भारतीय लोकतंत्र की विविध विडंबनाओं औरखबरों को सहेजते चलते हैं, जिनके आधार पर एक नये किस्म के जन-इतिहासका बोध पाठकों को होता है।

 

विष्‍णु नागर ने रघुवीर सहाय की जीवनी में पत्रकारिता के संदर्भ में उनके विचारों को सूत्रबद्ध करते हुए कुछ बिन्‍दु प्रस्‍तुत किये हैं, जो कि रघुवीर सहाय के पत्रकारिता के संदर्भ में दृष्टिकोण को प्रस्‍तुत करते हैं। वे पत्रकार और कवि के 'यथार्थ' की भिन्‍नता को रेखांकित करते हुए कहते हैंकि ''पत्रकार के लिए यथार्थ वही होता है जो तर्कसिद्ध हो, जिसके संभव होने या हो चुकने का प्रमाण हो। इसके विपरीत साहित्‍यकार के लिए यथार्थ वह है, जो संभव हो सकता है या जिसे संभव होना चाहिए या जो संभव होगा कभी।''[20]

 

निष्‍कर्ष : इस तरह हम देखते हैं कि रघुवीर सहाय अपने कवि कर्म और पत्रकारिता के जरिये इन दोनों के बीच खड़ी की गई शाश्‍वत उलझन को सुलझाने की कोशिश करते हैं। साधारण जन के सुख-दु:ख और उनकी रोजमर्रा की जद्दोजहद को ही वे अपनी कविता में भी दर्ज करते हैं और पत्रकारिता में भी। शायद यही उस उलझन को सुलझाने का सूत्र भी है।

 

संदर्भ :



[1]मैनेजर पाण्डेय, कविता खबर भी है, संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 2008, पृ. 179

[2]रघुवीर सहाय, रघुवीर सहाय रचनावली, भाग 5, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ. 344

[3]मैनेजर पाण्डेय, कविता खबर भी है, संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 2008, पृ. 178

[4]रघुवीर सहाय, अखबार वाला, कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ, रघुवीर सहाय रचनाली भाग 1, राजकमल

प्रकाशन, दिल्ली, 2000 पृ. 360

[5]वही, कोई एक और मतदाता, पृ. 135

[6]मैनेजर पाण्डेय, कविता खबर भी है, संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 2008, पृ. 173

[7]रघुवीर सहाय, टेलीविजन, हँसो हँसो जल्दी हँसो, रघुवीर सहाय रचनावली भाग 1, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ. 135

[8]रघुवीर सहाय, रघुवीर सहाय रचनावली, भाग 5, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ. 377

[9]वही, पृ. 380

[10]रघुवीर सहाय, आज का पाठ है, हँसो हँसो जल्दी हँसो, रघुवीर सहाय रचनावली भाग 1, राजकमल

प्रकाशन, दिल्ली, 2000, पृ. 159

[11]मैनेजर पाण्डेय, कविता खबर भी है, संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 2008, पृ. 181

[12]रघुवीर सहाय, भीड़ में मैकू और मैं, आत्महत्या के विरुद्ध, रघुवीर सहाय रचनावली भाग 1, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, 2000, पृ. 111-12

[13]मैनेजर पाण्डेय, कविता खबर भी है, संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 2008, पृ. 179-80

[14]रघुवीर सहाय, रंगों का हमला, लोग भूल गए हैं, रघुवीर सहाय रचनावली भाग 1, राजकमल प्रकाशन

दिल्ली, 2000, पृ. 211

[15]मैनेजर पाण्डेय, कविता खबर भी है, संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 2008, पृ. 180

[16]रघुवीर सहाय, खोज खबर, कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ, रघुवीर सहाय रचनावली, भाग 1, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, 2000, पृ. 300-301

[17]रघुवीर सहाय, नयी हँसी, आत्महत्या के विरुद्ध, रघुवीर सहाय रचनावली, भाग 1, राजकमल प्रकाशन

दिल्ली, 2000, पृ. 133

[18]पंकज चतुर्वेदी, अधिनायकत्‍व का प्रतिकार, भारतीय साहित्‍य के निर्माता: रघुवीर सहाय, साहित्‍य अकादमी, दिल्‍ली, 2014, पृ. 111

[19]मैनेजर पाण्डेय, कविता खबर भी है, संकलित निबंध, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 2008, पृ. 181

[20]विष्‍णु नागर, असहमति में उठा हाथ: रघुवीर सहाय की जीवनी, राजकमल प्रकाशन, दिल्‍ली, 2020, पृ. 326

 

 अवधेश कुमार त्रिपाठी

असिस्‍टेंट प्रोफेसर, अंबेडकर विश्‍वविद्यालय दिल्‍ली

awadheshkrt@gmail.com, 9868666839 


अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) मीडिया-विशेषांक, अंक-40, मार्च  2022 UGC Care Listed Issue

अतिथि सम्पादक-द्वय : डॉ. नीलम राठी एवं डॉ. राज कुमार व्यास, चित्रांकन : सुमन जोशी ( बाँसवाड़ा )

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