शोध आलेख :- भारतीय संस्कृति एवं स्त्री शिक्षा / डॉ. हेमन्त शर्मा

भारतीय संस्कृति एवं स्त्री शिक्षा

- डॉ. हेमन्त शर्मा


शोध-सार : हमारी समस्या क्या है, कि हम केवल पुस्तकीय ज्ञान या अक्षरबोध को ही शिक्षा मान लेते हैं। शिक्षा के विषय में हम अपनी संकुचित मान्यता बना लेते हैं। इस संकुचित मान्यता के कारण जो विविध कलाओं में या विधाओं में पारंगत है वह शिक्षित की श्रेणी से बाहर चला जाता है। जबकि शिक्षा केवल शब्दबोध या पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित न होकर जीवन के प्रत्येक पहलू से जुड़ी हुई है। पुस्तकीय ज्ञान या अक्षरबोध तो उसका स्थूल स्वरूप है। इसी स्थूल परिभाषा के कारण समाज में भी पुस्तकीय ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति को ही शिक्षित कहा जाता है जबकि जिसे पुस्तकीय ज्ञान नहीं है उसे अशिक्षित समझा जाता है। वस्तुतः शिक्षा का प्रारम्भ तो जीव के गर्भ में प्रवेश करते ही हो जाता है। महाभारत में अभिमन्यु का प्रसंग इसका जीता-जागता उदाहरण है। यदि हम सूक्ष्मदृष्टि से देखें तो प्रत्येक जीव प्रतिक्षण कुछ न कुछ सीख रहा होता है। इसी को प्राकारान्तर से गीता में कहा गया-

न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्

 

भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही ऐसी अनेक विदुषियाँ हुई जिन्होंने अपनी प्रखर मेधा के द्वारा सम्पूर्ण जगत् का दिशानिर्देशन किया और वर्तमान में भी कर रही हैं। इस संस्कृति में ब्रह्मविद्या सम्पन्न विदुषियों के साथ-साथ विविध कलाओं में पारंगत अनेकानेक स्त्रियाँ हुई जिन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी बुद्धिमत्ता प्रमाणित की। गार्गी, मैत्रेयी, अपाला, घोषा, लोपामुद्रा आदि वैदिक विदुषियाँ ब्रह्मज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक एवं सामाजिक ज्ञान में भी प्रवीण थी। परवर्ती काव्यरचनाकारों ने भी विविध विद्या-कलादि में निष्णात स्त्रियों का उल्लेख अपने काव्यग्रन्थों में किया है। प्रस्तुत आलेख में भारतीय संस्कृति में विद्याकलादि समन्वित विविध मनीषी विदुषियों का उल्लेख किया गया है।

 

बीज शब्द : विद्या, कला, ब्रह्मविद्या, उपनिषद्, धर्म, शास्त्र, संस्कृति, राष्ट्र, बाह्याभ्यन्तर, जगन्मंगल, समरसता, विश्वबन्धुत्व, सभ्यता, अभ्युदय, जड़-चेतन आदि।

 

मूल आलेख :

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।[1]

 

भारतीय संस्कृति से तात्पर्य है भारत देश की संस्कृति एवं सभ्यता से। विश्वमानचित्र पर किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति से ही होती है। उदात्तसंस्कृति एवं सभ्यता के द्वारा ही कोई भी देश अपनी विशिष्ट पहचाना बनाता है। तत्तत् देश के जनमानस को समझने के लिये, उसकी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक संरचना को समझने के लिये, उसके बाह्याभ्यन्तर मौलिक स्वरूप के अवबोध के लिये उस राष्ट्र की संस्कृति ही मूलाधार होती है। प्रो. रामजी उपाध्याय के शब्दों में संस्कृति वह प्रक्रिया है, जिससे किसी देश के सर्वसाधारण का व्यक्तित्व निष्पन्न होता है। इस निष्पन्न व्यक्तित्व के द्वारा लोगों को जीवन और जगत् के प्रति एक अभिनव दृष्टिकोण मिलता है[2]प्राचीन भारतीय संहिता मनुस्मृति में भारतवर्ष की इसी उदात्त संस्कृति का दिग्दर्शन हमें प्राप्त होता है-

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।[3]

 

भारतीय संस्कृति विश्व की सर्वमान्य ऐसी संस्कृति है जिसके द्वारा सम्पूर्ण विश्व समरसता की, विश्वबन्धुत्व की, जगन्मंगल की शिक्षा प्राप्त कर सकता है। सम्पूर्ण विश्व के कल्याण की कामना से ओतप्रोत वेद का निम्न मन्त्र भारत के विश्वगुरुत्त्व की विश्वधरातल पर निश्चित ही सुदृढ़  स्थापना कर रहा है-

ऊँ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद्भद्रं तन्नsआसुव।।[4]

 

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः” [5] की पवित्र भावना का उद्घोष भी इसी संस्कृति की देन है। भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि वह जीव मात्र के कल्याण की कामना करती है। जड़-चेतन दोनों के श्रेय के लिये, दोनों के अभ्युदय के लिये भारतीय संस्कृति सदा ही अनुप्राणित रहती है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म और बड़े से बड़े तात्त्विक चिन्तन एवं दृष्टिकोण का दर्शन हमें भारतीय संस्कृति में मिलता है। इसीलिये कहा गया यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:” [6] इतना ही नहीं इस संस्कृति में तो प्राणिमात्र को महत्त्व दिया गया है।[7]समानता-समानाधिकार-समरसता-विश्वबन्धुता-तात्त्विकता-दार्शनिकता-मानवीयमूल्य आदि इसके अभिन्न अंग है और इन सब की प्राप्ति विना शिक्षा के सहज नहीं है। इसलिये भारतीय संस्कृति में ज्ञान को परम पथ प्रदर्शक माना गया है। भगवद्गीता में कहा गया है, कि ज्ञान के समान पवित्र कोई वस्तु नहीं[8] व्यवहारिक जगत् में ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख माध्यम शिक्षा को माना जाता है। समाज के व्यवस्थित संचालन के लिये शिक्षा को अनिवार्य माना गया है। किसी भी देश की शिक्षा ही उसके उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिये प्रत्येक क्षण का उपयोग सीखने में करने का कहा गया- क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थञ्च साधयेत्” [9]संस्कृत में विद्या एवं शिक्षा में यद्यपि तात्त्विक भेद है किन्तु व्यवहार में शिक्षा के पर्याय के रूप में ही विद्या का प्रयोग देखा जाता है। उपनिषदों में विद्या के द्वारा अमृतत्त्व की प्राप्ति बताई गई है-

अविद्ययामृत्युं तीर्त्वा विद्ययाsमृतमश्नुते” [10]

 

वेदादि सनातन ग्रन्थों में अन्य पौराणिक एवं लौकिक साहित्य में स्त्रीशिक्षा को प्रमुख रूप से वर्णित किया गया है। प्राचीन भारतीय साहित्य में ऐसे अनेक उद्धरण मिलते हैं जहाँ सभी को समान रूप से पढ़ाया जाता था फिर चाहे वह स्त्री हो, पुरुष हो, मूर्ख हो, विद्वान् हो या अन्य किसी भी वर्ण समुदाय का विद्यार्थी हो। महाकवि भवभूति ने अपने उत्तररामचरित में इसी बात को बताया है-

वितरति गुरुः प्राज्ञे विद्यां यथैव तथा जडे

न खलु तयोर्ज्ञाने शक्तिं करोत्यपहन्ति वा।

भवति च तयोर्भूयान्भेदः फलं प्रति तद्यथा

प्रभवति शुचिर्बिम्बग्राहे मणिर्न मृदादयः।।[11]

 

वैदिक काल में स्त्रियों की शिक्षा पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता था। ऋग्वेद में अपाला, घोषा, लोपामुद्रादि अनेक ऋषिकाओं की चर्चा की गई है। इतना ही नहीं विभिन्न ऋषिकाओं के द्वारा रचे हुये मन्त्र भी ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं[12] जिससे यह तो प्रमाणित होता ही है कि तत्कालीन स्त्रियाँ भी शिक्षित हुआ करती थी। स्त्रियाँ भी ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये विद्याध्ययन करती थी। स्त्रियों के ब्रह्मचर्य की उत्कृष्टता का प्रतिपादन अथर्ववेद में करते हुये कहा गया है, कि ब्रह्मचर्य के प्रभाव से कन्यायें युवा वर को प्राप्त करती थी-

ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्”[13]

 

उपनिषद् साहित्य में भी विभिन्न विदुषी नारियों का उल्लेख प्राप्त होता है। तत्कालीन स्त्रियाँ उच्चकोटि की विद्वान् एवं ब्रह्मविद्या में पारंगत होती थी। महर्षि याज्ञवल्क्य की धर्मपत्नी मैत्रेयी परमविदुषी थी। उनके विषय में प्राप्त होता है, कि वह ब्रह्मज्ञान के द्वारा अमरत्व का पद प्राप्त करने की इच्छुक थी।[14]बृहदारण्यकोपनिषद् में महर्षि याज्ञवल्क्य स्वयं मैत्रेयी को ब्रह्मज्ञान की शिक्षा प्रदान करते हैं।[15]

 

उपनिषद् काल में परम विदुषी स्त्रियों के रूप में गार्गी का भी नाम आता है। तत्कालीन समय में नारियाँ आचार्य पद पर भी प्रतिष्ठित थी। जनक की सभा में गार्गी ने याज्ञवल्क्य से अनेक दार्शनिक जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त किया था। आश्वलायन गृह्यसूत्र में गार्गी एवं मैत्रेयी को परम विदुषी स्त्रियों में माना गया है।[16]वैदिककाल में लोग पुत्री के रूप में विदुषी कन्या को प्राप्त करने के लिये विभिन्न योजना करते थे। जो दंपती चाहता है, कि उसकी कन्या विदुषी एवं दीर्घजीवी हो तो वे दोनों तिल-चावल पकाकर घी डालकर खाँये-

अथ या इच्छेत् दुहिता मे पण्डिता जायेत सर्वमायुरियादिति तिलौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै।[17]

 

भारतीय संस्कृति में जब विद्यालयों का विकास हुआ तब उनमें अध्यापन कराने के लिये स्त्रियों की भी नियुक्ति होती थी और ऐसी स्त्रियों को आचार्या या उपाध्याया कहा जाता था।[18] पतञ्जलिकृत महाभाष्य में  आचार्या के रूप में औदमेध्या के पढ़ाये हुये शिष्यों का उल्लेख प्राप्त होता है।[19]तत्कालीन स्त्रियाँ शास्त्रों के साथ-साथ शस्त्रादि ज्ञान में भी निष्णात थी।[20]आज की भाँति पूर्व में भी स्त्रियाँ विद्याध्ययन में संलग्न रहकर उच्चशिक्षाप्राप्त करती थी। वे भी बटुकों के समान ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करती थी। गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों में स्त्रियों के आचार्य पद धारण करने का एवं स्नातिका होने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। सामवेदीय केनोपनिषद् में इन्द्र हेमवती उमा से ब्रह्मज्ञान की शिक्षा प्राप्त करता है-

स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम।

बहुशोभमानां हेमवतीं तां होवाच किमेतद्यक्षमिति।।[21]

 

आश्वलायन गृह्यसूत्रमें विवाह के समय अग्नि उदक कुम्भ की परिक्रमा करते हुये वधू भी मन्त्र पाठ करती थी-प्रदक्षिणमग्निमुदककुम्भं च त्रिः परिणयञ्जपति। अमोहमस्मि सा त्वं त्वमस्यमोहं द्यौरहं पृथिवी त्वं सामाहमृक्त्वं ताबेह विवहावहै। प्रजां प्रजनयावहै संप्रियौ रोचिष्णु सुमनस्यमानौ जीवेव शरदः शतमिति।[22]

 

भारतीय मेधा में अनेक ऐसी विदुषियाँ रहीं जो विभिन्न शास्त्रों के साथ-साथ विभिन्न कलाओं में भी निष्णात थी। चाणक्य के अर्थशास्त्र सहित विभिन्न साहित्यिक ग्रन्थों में इस बात के प्रमाण उपलब्ध होते हैं।चाणक्य ने विभिन्न कलाओं से युक्त गुप्तचर दासियों का उल्लेख करते हुये लिखा है-

भिक्षुकी प्रतिषेधे द्वाःस्थपरम्परा मातापितृव्यञ्जनाः शिल्पकारिकाः कुशीलवो दास्यो वा गीतपाठ्यवाद्यभाण्डगूढलेख्यसंज्ञाभिर्वा चारं निर्हारयेयुः। दीर्घरोगोन्मादाग्निरसविसर्गेण वा गूढनिर्गमनम्।[23]

 

तत्कालीन समाज में भी महिलायें नृत्य, गीत, वाद्य, पाठ्य, नाट्य, चित्र, वीणा, गन्धमाला, संवाहन, वेशभूषा, हस्तकारीगरी आदि विभिन्न कलाओं में पारंगत थी। इनमें से कुछ कलायें विद्यालय आदि में सीखी जाती थी तथा कुछ तो परम्परागत रूप से। राजशेखर ने काव्यमीमांसा के दशम अध्याय में वर्णन किया है, कि पुरुषों के समान स्त्रियाँ भी कवि हो सकती हैं आगे वह लिखते हैं, कि राजपुत्रियाँ, मन्त्रीपुत्रियाँ, वेश्यायें, नटों की स्त्रियाँ भी शास्त्रज्ञ एवं कवयित्रियाँ देखी सुनी जाती थी-

पुरुषवत् योषितोsपि कवीभवेयुः। संस्कारो ह्यात्मनि समवैति, न स्त्रैणं पौरुषं वा विभागमवेक्षते।

श्रूयन्ते दृश्यन्ते च राजपुत्र्यो, महामात्रदुहितरो, गणिकाः, कौतुकिभार्याश्च शास्त्रप्रहतबुद्धयः कवयश्च।[24]

 

भारतीय संस्कृति में विद्या कि अधिष्ठात्री के रूप में माँ सरस्वती की पूजा की जाती है। दुर्गासप्तशती में शक्ति को ही सभी विद्याओं का अधिष्ठान बताया गया है।[25] इससे यह तो स्पष्ट ही है, कि सामाजिक के साथ-साथ धार्मिक आधार पर भी स्त्रियों के विद्या प्राप्ति की राह में कोई रुकावट नहीं थी। रामायण-महाभारतादि में भी ऐसी अनेक विदुषी स्त्रियों के विषय में चर्चा की गई है जो विभिन्न कलाओं एवं विद्याओं में पारंगत थी। तुलसीकृत रामचरितमानस में माँ अनसूया का सीताजी को पातिव्रतधर्म का जो दिव्य उपदेश दिया गया उससे स्पष्ट ही प्रमाणित हो जाता है, कि तत्कालीन समाज में महिलाओं को धर्मशास्त्रों का ज्ञान भी होता था-

कह रिषिवधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी।।[26]

 

भारतीय संस्कृति में स्त्रियों की यह शिक्षा केवल वैदिक संस्कृति तक ही सीमित नहीं रही अपितु जैन एवं बौद्ध संस्कृति में भी इसका प्रभाव रहा। आचार्य रामजी उपाध्याय लिखते हैं, कि बौद्ध संस्कृति में स्त्रियों के अध्ययन के लिये समुचित व्यवस्था प्रदान की गई। अनेक भिक्षुणियों ने संघ की शरण ली और वहाँ रहकर उच्च कोटि की विद्वत्ता प्राप्त करके उस संस्कति से सम्बद्ध साहित्य की अभिवृद्धि की[27]परवर्ती संस्कृत साहित्य में भी स्त्रियों के शिक्षित होने के, उनके विविध कलाओं –विद्याओं में निष्णात होने के ढेरों प्रमाण उपलब्ध होते हैं। भासकृत स्वप्नवासवदत्तम् में वासवदत्ता के धर्मशास्त्र सम्बन्धी ज्ञान का परिचय निम्न वाक्य के द्वारा देख सकते हैं-

चेटि- भर्तृदारिके ! यदि स राजा विरूपो भवेत् ?

वासवदत्ता- नहि नहि। दर्शनीय एव।

पद्मावती- आर्ये ! कथं त्वं जानासि ?

 

वासवदत्ता- (आत्मगतम्) आर्यपुत्रपक्षपातेन अतिक्रान्तः समुदाचारः। किमिदानीम् करिष्यामि। (प्रकाशम्) भवतु, दृष्टम्। हला ! एवमुज्जयिनीयो जनो मन्त्रयते।[28]

 

कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक में हंसपदिका के संगीतशास्त्र विषयक ज्ञान को देख सकते हैं-

विदूषकः- (कर्णं दत्त्वा) भो वयस्य, संगीतशालान्तरेsवधानं देहि। कलविशुद्धया गीतेः स्वरसंयोगः श्रूयते। जाने तत्र भवती हंसपदिका वर्णपरिचयं करोति।[29]

 

बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरितम् के अध्ययन से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि तत्कालीन समय में भी स्त्रियाँ विभिन्न कलाओं में निष्णात होती थी। हर्ष की बहन राज्यश्री एवं उसकी सखियों का नृत्य-गीतादि विभिन्न कलाओं में पारंगत होने का उल्लेख मिलता है-

अथ राज्यश्रीरपि नृत्तगीतादिषु विदग्धासु सखीषु सकलासु कलासु च प्रतिदिवससमुपचीयमानपरिचया शनैः शनैः अवर्धत।[30]

 

भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को न केवल पूजनीय माना गया अपितु उनके स्वाभाविक ज्ञान की भी भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। कहा गया है, कि पुरुषों को ज्ञान शास्त्र शिक्षण के द्वारा प्राप्त होता है किन्तु स्त्रियाँ तो नैसर्गिक रूप से ज्ञानवती एवं विदुषी होती हैं-

स्त्रियो नाम खल्वेता निसर्गादेव पण्डिताः।

पुरुषाणां तु पाण्डित्यं शास्त्रैरेवोपदिश्यते।।[31]

 

कालिदास भी स्त्रियों के इसी स्वाभाविक ज्ञान की प्रशंसा करते हुये कहते हैं, कि मानवेतर प्राणियों की स्त्रियों में भी नैसर्गिक चतुरता देखी जाती है फिर मानव जाति की स्त्रियों का कहना ही क्या-

स्त्रीणामशिक्षितपटुत्वममानुषीषु संदृश्यते किमुत याः प्रतिबोधवत्यः।

प्रागन्तरिक्षगमनात् स्वमपत्यजातमन्यैर्द्विजैः परभृताः खलु पोषयन्ति।।[32]

 

शूद्रक एवं कालिदास द्वारा वर्णित श्लोकों से स्पष्ट प्रमाणित होता है, कि प्राचीन भारत में इस प्रकार की महिलाओं की कमी नहीं थी। आज भी भारत के ग्रामीण एवं शहरी अंचलों में ऐसी अनेक स्त्रियाँ हैं, जो कभी विद्यालय नहीं गई फिर भी विभिन्न कलाओं में माहिर हैं। इतना ही नहीं प्राचीन समय में उच्चशिक्षा के अध्ययन के लिये स्त्रियाँ सुदूर आश्रमों में भी जाने से नहीं हिचकाती थी। भवभूति विरचित उत्तररामचरितम् में वेदान्तविद्या को जानने के लिये आत्रेयी विश्वामित्र के आश्रम से दण्डकारण्य के प्रदेश में आती है-

वनदेवता- आर्ये आत्रेयि ! कुतः पुनरिहागम्यते ? किम्प्रयोजनो वा दण्डकारण्योपवनप्रचारः ?

आत्रेयी-  अस्मिन्नगस्त्यप्रमुखाः प्रदेशे भूयांस उद्गीथविदो वसन्ति।

तेभ्योsधिगन्तुं निगमान्तविद्यां वाल्मीकिपार्श्वादिह पर्यटामि।।[33]

 

निष्कर्ष : इससे प्रमाणित होता है, कि प्राचीन समय में भी स्त्रियाँ न केवल सामान्य ज्ञान में अपितु विशिष्ट ज्ञान-विज्ञान में भी पारंगत होती थी। भारतीय संस्कृति में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं जिनके द्वारा महिलासशक्तीकरण के रूप में स्त्री शिक्षा को प्राथमिकता दी गई है। यहाँ की महिलाशक्ति ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन के साथ-साथ अध्यापन में भी कुशल रही हैं। वे विभिन्न कलाओं में माहिर थी। कुछ विषय तो ऐसे थे जिनमें वे पुरुषों से भी आगे थी। आचार्य मण्डन मिश्र की पत्नी की विद्वत्ता को कौन नहीं जानता जिन्होंने स्वयं शंकरावतार जगद्गुरु शंकराचार्य के साथ शास्त्रार्थ किया एवं उस शास्त्रार्थ की निर्णायिका के रूप में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्तमान में भी भारतीय महिलाशक्ति के ज्ञान-विज्ञान की चर्चा सम्पूर्ण विश्व में होती है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति आदि से ही अद्यावधि यावत् स्त्रीशिक्षा की परिपोषिका बनी हुई है। इसकी समत्व की भावना ही इसे विश्व की अन्य संस्कृतियों से महान् बनाती है।


सन्दर्भ:

 [1]सुभाषितम्- https://www.bhagwatkathanak.in/2020/09/ayam-nijah-paroveti-shlok-sanshkrit.html

[2] प्रो. रामजीउपाध्याय,प्राचीनभारतीय साहित्य की सांस्कृतिक भूमिका,देवभारती लोकभारती,इलाहाबाद,मार्च1966,पृष्ठ 1

[3]मनु,मनुस्मृतिचौखम्भा संस्कृत संस्थान,वारणसी,पृष्ठ 41, श्लोक2.20

[4] शास्त्री दुर्गाशंकर उमाशंकर ठाकर, ब्रह्मनित्यकर्मसमुच्चय, बालुकेस्वर संस्कृतपाठशाला, बाणगंगा मुम्बई, 1996, पृष्ठ 91, स्वस्तिप्रार्थनाध्याय 11वा मन्त्र

[5]सुभाषितम्- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A0

[6]व्यास, गीता, गीताप्रेस, गोरखपुर, 2010, पृष्ठ 33 श्लोक 3.21

[7]महर्षि शुक्राचार्य, शुक्रनीतिः, चौखम्भा संस्कृत ग्रन्थमाला, वाराणसी,1968, पृष्ठ 75, श्लोक 2.127

[9]सुभाषितम्- http://satsangati.blogspot.com/2017/07/blog-post_3.html

[10]हरिकृष्णदास गोयन्दका, ईशादि नौ उपनिषद्, गीताप्रेस, गोरखपुर, सं. 2064, पृष्ठ 10,मन्त्र क्रमांक 11

[11]भवभूति, उत्तररामचरितम्, चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, 1990, पृष्ठ 88, श्लोक 2.4

[12]ऋग्वेद, ब्रह्मवर्चस प्रकाशन, शान्तिकुञ्ज हरिद्वार, 2001,इन ऋषिकाओं द्वारा रचे हुये सूक्तों को ऋग्वेद 1.179, 5.28, 8.91, 10.39 आदि में देखा जा सकता है

[13]अथर्ववेद, ब्रह्मवर्चस प्रकाशन, शान्तिकुञ्ज हरिद्वार, 2002, सूक्तक्रमांक 9.51.8

[14]शांकरभाष्य, बृहदारण्यकोपनिषद्, गीताप्रेस, गोरखपुर, 1915, मन्त्रसंख्या2.4.3

[15]शांकरभाष्य, बृहदारण्यकोपनिषद्, गीताप्रेस, गोरखपुर, 1915, मन्त्रसंख्या 4.5.5-15

[16]विनायक गणेश आप्टे, आश्वलायन गृह्यसूत्र, आनन्दाश्रममुद्रणालय, 1936, पृष्ठ 16, मन्त्र 34.4

[17] शांकरभाष्य, बृहदारण्यकोपनिषद्, गीताप्रेस, गोरखपुर, 1915, मन्त्रसंख्या6.4.17

[18]जयादित्य वामन, काशिका, मेडीकल हॉल प्रेस, वनारस,द्वितीय संस्करण, पृष्ठ 204, पाणिनीय सूत्र- 3.3.21 (इङश्च) एवं 4.1.59 (दीर्घजिह्वी चच्छन्दसि) की व्याख्या

[19]पतञ्जलि, महाभाष्यम्, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली,1988, पृष्ठ 86, अणिञोरनार्षयोर्गुरूपोत्तमयोः ष्यङ् गोत्रे सूत्र की व्याख्या(4.1.78)

[20]पतञ्जलि, महाभाष्यम्, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली,1988, पृष्ठ 234, सूत्र 4.4.59 शक्तियष्टयोरीकक्

[21]हरिकृष्णदास गोयन्दका, ईशादि नौ उपनिषद्, गीताप्रेस, गोरखपुर, सं. 2064, पृष्ठ 40,मन्त्र क्रमांक 3.12

[22]विनायक गणेश आप्टे, आश्वलायन गृह्यसूत्र, आनन्दाश्रममुद्रणालय, 1936, पृष्ठ 16, मन्त्र 1.7.6

[23]कौटिल्य, अर्थशास्त्र, चौखम्भा विद्याभवन,वाराणसी, 2006, पृष्ठ 34, सूक्त क्रमांक 1.7.11

[24]राजशेखर, काव्यमीमांसा, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 2010, पृष्ठ 116

[25]रामनारायण दत्तजी, दुर्गासप्तशती, गीताप्रेस, गोरखपुर, पृष्ठ 160, श्लोक 11.6

[26]गोस्वामी तुलसीदास, रामचरितमानस, गीताप्रेस, गोरखपुर, पृष्ठ 572, अरण्यकाण्ड दोहा 5 के पूर्व की चौपाई

[27]प्रो. रामजी उपाध्याय,प्राचीनभारतीय साहित्य की सांस्कृतिक भूमिका,देवभारती लोकभारती,इलाहाबाद,मार्च1966, पृष्ठ 143

[28]भास, स्वप्नवासवदत्तम्, चौखम्भा सुरभारती, वाराणसी, 2012, पृष्ठ 57 पद्मावती-वासवदत्ता संवाद

[29]महाकवि कालिदास, अभिज्ञानशाकुन्तलम्,पंचशील प्रकाशन, जयपुर, 2002, पृष्ठ- 227  श्लोक 5.1 पूर्वं विदू. संवाद

[30]बाणभट्ट, हर्षचरितम्, चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी, 1994, पृष्ठ-285

[31]शूद्रक, मृच्छकटिकम्, साहित्य भण्डार, मेरठ, 1996, पृष्ठ 158, श्लोक 4.19

[32]महाकवि कालिदास, अभिज्ञानशाकुन्तलम्,पंचशील प्रकाशन, जयपुर, 2002, पृष्ठ- 272,  श्लोक 5.22

[33]भवभूति, उत्तररामचरितम्, चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, 1990, पृष्ठ-84

  

डॉ. हेमन्त शर्मा

सहायक प्राध्यापक

संस्कृत साहित्य शासकीय संस्कृत महाविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

dr.hemant2019@gmail.com, 9926586563


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue

सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)

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