शोध आलेख :- ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यासों में धार्मिक व्यंग्य का स्वरूप / बजरंग लाल मीणा

ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यासों में धार्मिक  व्यंग्य का स्वरूप
- बजरंग लाल मीणा

शोध सार : धार्मिक आडम्बर एवं विसंगतियाँ हमारे देश की सनातन समस्याओं में से एक है। ईश्वर एवं धर्म के नाम पर यहाँ सृष्टि के आरम्भ से ही कुकृत्य एवं अनाचार का बोलबाला रहा है। वैदिक कर्मकांड आधुनिक भारत में भी प्रचलित हैं। ज्ञान-विज्ञान के प्रचार-प्रसार के बावजूद धर्मान्धता की जड़ें यहाँ गहरे जमी हैं। पुरातनपन्थियों का भ्रामक जाल सारी वैज्ञानिकता को ताक पर रखवा देता है। बुद्धि, विवेक, तर्क, ज्ञान - सभी इनके हवाले हो रहे हैं। समाजवाद की प्रगतिशीलता को पूँजीवादी कर्मकांड मात दे जाते हैं। समाज का यह अन्तर्विरोध सदियों से चला आ रहा है। मध्ययुगीन कर्मकांड साधु-संतों को धर्मोपदेश देने का बीड़ा सौपतें थे, जबकि आधुनिकयुगीन कर्मकांड छल, कपट एवं पाखंड आध्यात्म को शंका का पात्र बनाते हैं। ऐसे में व्यंग्यकार पाखंडी साधुओं, ढोंगी सन्तों की कलई खोलते हैं। जन-जागरण का कार्य करते हैं। कानून, गीता, गंगाजल अथवा जनता की निगाहों से बची विकृतियों को आहत करते हैं। व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने धर्म, धार्मिक स्थलों और धर्म के संरक्षकों आदि पर व्यंग्य कर, उनका यथार्थ रूप हमारे सामने रखा है। उन्होंने अपने व्यंग्य उपन्यासों में केवल संरक्षकों की करतूतों पर ही प्रहार नहीं किया है, अपितु उनके आराध्यों को भी अपने व्यंग्य का विषय बनाया है। धर्म पर व्यंग्य प्रहार का ही प्रभाव है कि सामूहिक तौर पर व्याप्त धार्मिक जड़ता तार-तार हुई है।

बीज शब्द : ज्ञान चतुर्वेदी, व्यंग्य, इंसान, ईश्वरीय सत्ता और धर्म, साधु-संतों, मंदिर-मस्जिद, धार्मिक आडंबर, ढ़ोंग-पाखंड, साम्प्रदायिकता, शोषण ।

मूल आलेख : जन्म से मृत्यु तक समान इंसानी क्रिया-कलाप करने वाले एक-दूसरे के सुख-दुख के सहभागी इंसान भी मन्दिर-मस्जिद के द्वार पर पहुँच कर अलग हो जाते हैं। सृष्टि के प्रारम्भ से ही धार्मिक ठेकेदार, पण्डे, पुजारी, महन्त, मठाधीश पूजा-स्थलों का प्रयोग अपनी कदर्थताओं के लिए करते रहे हैं। मन्दिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-गिरजाघर यहाँ इंसानों को जोड़ने के बजाय उनमें फूट पैदा करते हैं। मूल में एक होते हुए भी अनेक रूपधारी ईश्वर आज इंसानों को बाँटने का और उनमें वैमनस्य का कारण बन गया है।

धर्मभीरू जनता को अपने निहित स्वार्थियों ने धर्म की अफीम खिला-खिलाकर भटकाया है, बहलाया है, फुसलाया है। धार्मिक भावना के शोषण द्वारा नेता बनना आज के राजनेताओं का चरित्र है, तो जनता लोभ और भय की दुहरी रस्सी से कसी हुई है। सम्पूर्ण लोकतन्त्र कर्मकाण्ड का पर्याय बना हुआ है। राजनीतिक लाभ के लिए गौ-भक्त ब्राह्मण गौ माता का ही मांस मन्दिर में डाल हिन्दु-मुस्लिम दंगे करवा देते हैं। सुबह नियम से चिड़िया चुगाते हैं, रात को मांस भक्षण द्वारा आत्म-तृप्ति प्राप्त करते हैं। जनता की श्रद्धा भक्ति को अपने स्वार्थ के लिए भुनाते हैं। पाखंड का अध्यात्म इस कदर पनपा है इस देश में कि हर पवित्र चीज झगड़े की जड़ है। समाजवाद एवं धर्मनिरपेक्षता की डोर साम्प्रदायिक लोगों के हाथ में है। राजनीतिक झूठ का बोलबाला धर्म के क्षेत्र में भी खूब पनप रहा है। भीतर भक्ति, ईमान, श्रद्धा हो न हो बाहर जुलूस, नारे एवं धरने होते रहते हैं। धार्मिक ढोंग एवं पाखंड में भारत विश्व का गुरू रहा है। श्रद्धा-माता आज भी मार्केट में बिक रही है। साधु-संन्यासियों का मार्केट देर तक चलता रहता है। इस मार्केट की पवित्रताऐं बदल गई हैं। फूलचंद्र शास्त्री धर्म को परिभाषित करते हुए लिखते हैं - "धर्म वह कर्तव्य है जो प्राणी मात्र के ऐहिक और पारलौकिक जीवन पर नियंत्रण स्थापित कर सबको सुपथ पर ले चलने में सहायक होता है। "1

भ्रष्टाचार वह सर्वव्यापी पवित्रता है, जिसको लेकर लड़ाइयाँ होती हैं, दंगे-फसाद होते हैं। तुलसी को सिर्फ एक राम को रिझाना था, जबकि आज के भक्तों के समक्ष अनेक देवता, हैं, जिनके दरवाजे पर माथा टेके बिना भक्तों का कल्याण सम्भव नहीं होता। ये प्रभु दिन रात इस प्रयास में रहते हैं कि जनता जाग्रत न हो सके, वह वैज्ञानिक न होने पाए, न ही स्वावलम्बी अथवा आत्मविश्वासी। उसे अन्धविश्वासी और दकियानूस बनाये रखना ही इन प्रभुओं का कार्य है। इनके प्रभाव के कारण इक्कीसवीं सदीं की आत्मनिर्भरता के बावजूद देश पर भाग्यवाद की पकड़ उतनी ही दृढ़ है। आज भी लोग अयथार्थता के आगे माथा टेकते हैं। यह एक देशव्यापी षड्यंत्र है, जिसे जनता भी समझ नहीं पाती। चाहकर भी उनसे उबर नहीं पाती।

  1. धार्मिक स्थलों पर व्यंग्य -

भारत में धार्मिक स्थलों का विशेष महत्त्व है। ज्ञान चतुर्वेदी ने धार्मिक स्थलों एवं उसकी मान्यताओं को अपने व्यंग्य का विषय बनाया है। जिसके माध्यम से वह धार्मिक स्थलों की तथाकथित महत्ता का वर्णन करते हैं- "मंदिर इस अर्थ में मदिरा समान होता है कि जितना प्राचीन कहा जाये, उसका उतना ही मूल्य बढ़ जाता है।"2 मंदिर की तुलना मदिरा से करते हुए व्यंग्यकार समाज के उस पक्ष को व्यक्त करते हैं, जहाँ मात्र पौराणिकता के आधार पर धार्मिक स्थलों का महत्त्व एवं उसके लिए लोगों की श्रद्धा बढ़ जाती है। व्यंग्यकार इन धार्मिक स्थलों के उस रूप को भी चित्रित करते हैं, जहाँ श्रद्धा की आड़ में उनके कर्ता-धर्ताओं द्वारा किए जाने वाले कार्यों को देखा जा सकता है- "मठ में बैठकर गाँजा पियो तो वह एक धार्मिक गतिविधि बन जाती है। नशा करने के लिए एक नैतिक आधार मिल जाता है सब को।"3 धर्म के ठेकेदार धर्म के नाम पर अपने ऐशो-आराम को बड़ी ही समझदारी के साथ वर्षों से अंजाम देते आ रहे हैं। यह वर्षों की मानसिकता का ही परिणाम है कि समाज में ईश्वर के अस्तित्व को लेकर बहुत सारी मान्यताएँ देखने को मिलती हैं।\

विभिन्न धर्मों ने अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार अपने ईश्वर, धार्मिक स्थल और धर्म गुरु आदि इज़ाद कर रखे हैं। ईश्वर के माध्यम से वह समाज को हमेशा विभिन्न प्रकार से गुमराह करते रहे हैं। उसके अस्तित्व को कई बार नकारा तो कभी स्वीकारा भी जाता है। ज्ञान चतुर्वेदी ने भी अपने व्यंग्य के माध्यम से ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल खड़े किए हैं - "रामजी चौबे इसी गाँव में पिट भी चुके हैं। हनुमानजी की मूर्ति पर पेशाब कर रहे थे। लोगों ने पीट दिया। पिटते रहे पर यही कहते रहे कि हम बस यही सिद्ध करने की लिए मूर्ति पर पेशाब कर रहे थे कि मूर्ति बस पत्थर होती है। मूर्ति में भगवान होता तो खुद प्रकट होकर हमारी पेशाब बंद न कर देता? या हमारी नली न उखाड़ फेंकता?... पिट जाने के बावजूद उन्होंने नास्तिकता के ऐसे प्रयोग नहीं त्यागे।"4  उक्त कथन धार्मिक स्थलों में व्याप्त ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाता है कि वास्तव में उसका अस्तित्व है भी या नहीं। धार्मिक स्थल का प्रसंग मरीचिका उपन्यास में भी देखा जा सकता है- "देर रात्रि को अयोध्या में, देवी के इस मंदिर में भूमि पर बिराजकर कोई चिंतन कर रहा है- यह गुप्तचरों तक को ज्ञात नहीं। सो रही है अयोध्या। जग रहे हैं चिंता करने वाले। जाग रहे हैं देवी से चमत्कार की आशा करनेवाले। जाग रहे हैं वे कि जिनके मन में इतने प्रश्न हैं कि जिनके कहीं उत्तर ही नहीं। जाग रहे हैं वे कि जो मंदिर-मंदिर भटकते हैं; उनको ज्ञात ही नहीं कि उनका ईश्वर भी सो रहा है।"5  कथन जनता की ईश्वरीय आस्था पर व्यंग्य करता है। जिसके भरोसे बैठकर वह किसी चमत्कार की आस लगाए बैठे हैं। परंतु उनका दुर्भाग्य यह है कि उनका ईश्वर भी सोया हुआ है। ज्ञान चतुर्वेदी अपने व्यंग्य-उपन्यासों के माध्यम से धार्मिक स्थलों में व्याप्त ईश्वरीय सत्ता को व्यापक रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जिसके माध्यम से धार्मिक स्थलों के यथार्थ की वास्तविकता को समझा जा सकता है।

धार्मिक स्थल, धर्म तथा आस्था के नाम पर समाज के विकास में अवरोध उत्पन्न करते हैं, इसे व्यंग्यकार ने धार्मिक स्थलों की वास्तविकता के माध्यम से उठाया है। समाज में धार्मिक स्थलों के इस प्रारूप को देखा जा सकता है। व्यंग्यकार ने धार्मिक स्थलों की पौराणिकता के साथ-साथ उसमें व्याप्त चमत्कार की धारणा पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया है। यह प्रश्नचिन्ह ही इन धार्मिक स्थलों में बैठे धर्म के कर्ता-धर्ताओं एवं ईश्वर के अस्तित्व को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करते हैं।

  1. मठाधीशों एवं धर्म गुरुओं पर व्यंग्य -

भारत में अनेकों धार्मिक स्थलों पर तथाकथित मठाधीशों एवं धर्म गुरुओं ने अपना वर्चस्व बना रखा है। यह साधु एवं बाबा जनता का मार्गदर्शन करने की जगह उन्हें गुमराह करने के काम में लगे हुए हैं। धर्म के नाम पर सामान्य जनता को छलना एवं उनके भीतर अंधविश्वास कायम करना ही इनका प्रमुख कार्य हो गया है। इस संदर्भ में पुष्पपाल सिंह लिखते हैं- "समाज में आ रही अपार समृद्धि आदमी के भीतर की शांति को लील कर कहीं न कहीं उसे ऐसी बेचैनी दे रही है जिसके शमन के लिए वह आध्यात्मिकता की ओर उन्मुक्त हो बाबाओं, संतों, महंतों की शरण में जाता है। पंच सितारा हाईटेक बाबाओं की बढ़ती जनसंख्या का कारण एक यह भी है।"6 ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने व्यंग्य-उपन्यासों के माध्यम से इन धर्म के ठेकेदारों पर व्यंग्य किए हैं- "बाबा वहीं जमीन पर लेटे हुए थे और गुच्चन श्रद्धापूर्वक उनके पाँव दबा रहे थे। बाबा लेटे हुए गाँजे की चिलम खींच रहे थे। गाँजे की गमक मठ के उस कमरे में उड़ रही थी। गाँजे के नशे में डूबी हुई लाल अर्धनिमीलित आँखें और चेहरे पर अद्भुत प्रसन्नता का भाव, जो या तो पागलों के चेहरे पर आता है या संतों के।"7 समाज में बाबाओं के स्वरूप को यहाँ देखा जा सकता है। जिसमें उनकी दिनचर्या के साथ-साथ उनकी नशाखोरी भी शामिल है। जिन्हें वह धार्मिकता की आड़ में वर्षों से बड़ी ही सरलता से अंजाम देते आ रहे हैं। बाबाओं के चरित्र का उद्घाटन व्यंग्यकार इस प्रकार करता है- "महाराज, आश्रम में सर्वत्र कुशल मंगल तो है?" एक सैनिक ने पूछा। सर्वत्र कुशल है, वत्स...' एक साधु ने उत्तर दिया है। साधु के कर में ज्वलंत चिलम। कर में चिलम हो, चिलम में गाँजा हो, गाँजे पर अंगारा हो- तब समस्त जगत शुभ एवं मंगलमय ही दृष्टिगोचर होता है।"8 ज्ञान चतुर्वेदी समाज में इन बाबाओं एवं साधुओं को लेकर व्याप्त सामाजिक मानसिकता पर भी व्यंग्य करते हैं- "जो साधु जितना अधिक रहस्यमय होगा वह उतना ही महान साधु होगा।"9 आमजन बाबाओं के काल्पनिक होने पर इनको अधिक ज्ञानी एवं चमत्कारी समझती है। इस रहस्यमयता की आड़ में इन बाबाओं के चरित्र को देखा जा सकता है- "अब मात्र लंगोट नीचे है। पर्याप्त है। यहाँ वन में कौन देख रहा है।... कहते हैं कि वन-सुंदरियाॅं हुआ करती हैं?... मित्र, यदि वे होती हैं, तो इस समय क्षमा करें। अब उनको लंगोट में ही इन पर मोहित होना होगा।... पुनः साधुओं को नंग-धड़ंग होने की सामाजिक तथा धार्मिक छूट भी है |"10  समाज में साधु एवं बाबाओं को मिली इस स्वतंत्रता का आधार क्या है? इस पर ज्ञान चतुर्वेदी उक्त कथन के माध्यम से प्रश्न चिन्ह लगाते हैं जिसे इन साधु एवं बाबाओं की उपस्थिति के रूप में देखा जा सकता है।

धार्मिक स्थलों की आड़ में ढोंग का बाजार मठाधीशों एवं धर्म गुरुओं द्वारा चलाया जा रहा है। व्यंग्यकार ने इसे धार्मिक स्थलों पर श्रद्धा के नाम पर किए जाने वाले व्यभिचार के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। जिसमें व्यंग्यकार ने धर्मगुरुओं की दिनचर्या एवं कार्य व्यापार भी शामिल हैं। इन धर्म गुरुओं के भीतर व्याप्त नशे की प्रवृत्ति को भी दिखाया गया है। व्यंग्यकार ने उन लोगों पर भी व्यंग्य किया है, जो इन धर्म के कर्ता-धर्ताओं की वास्तविकता को जाने बिना इन पर भरोसा करने लगते हैं। यही भरोसा समाज में इन मठाधीशों एवं बाबाओं द्वारा किए जाने वाले शोषण का कारण भी माना जा सकता है।

  1. ईश्वरीय सत्ता पर व्यंग्य -

भारतीय संस्कृति में ईश्वरीय सत्ता की परिकल्पना बहुत पहले से चली आ रही है। जिसके परिणामस्वरूप आम जन के भीतर श्रद्धा स्वरूप ईश्वर की अवधारणा व्याप्त हो चुकी है। समाज में ईश्वरीय सत्ता के नाम पर सामान्य जन कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है। ज्ञान चतुर्वेदी ने समाज में व्याप्त ईश्वरीय परिकल्पना की अवधारणा पर व्यंग्य किया है - "पर माँ, बिन्नू का क्या होगा?" गुच्चन ने कातर स्वर में पूछा। इस प्रश्न का उत्तर दुर्गा मां के पास भी नहीं था। वे शेर पर चुपचाप बैठी उसकी पीठ की खाल को सहलाती रही, गुच्चन का हृदय चीत्कार उठा। क्या ऐसे प्रश्नों के समाधान देवी-देवताओं के पास भी नहीं?"11 यह प्रश्न बिन्नू के माध्यम से देवी माँ के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है, जो अम्मा और गुच्चन की ईश्वरीय श्रद्धा का प्रमुख आधार है। बिन्नू का विवाह देवी माँ की इतनी आराधना के बाद भी नहीं हो पाना, ईश्वरीय अस्तित्वहीनता को बयान करता है, क्योंकि बिन्नू का विवाह कब, कितने समय बाद होगा। कोई लड़का उसे पसंद करेगा भी या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर देवी माँ के पास भी नहीं है। ईश्वरीय सत्ता की वास्तविकता का यह रूप हम 'मरीचिका' उपन्यास में भी देख सकते हैं- "समय काटने हेतु ईश्वर से बड़ा और क्या सबल हो सकता है।"12  ज्ञान चतुर्वेदी ईश्वर को समय काटने के संबल के रूप में देखते हैं। जिस ईश्वर के अस्तित्व को मानकर समाज अपने कर्म से हटता जा रहा है, वह मात्र कल्पना है। जिसके अस्तित्व की तलाश करना मात्र अपने समय की बर्बादी करने जैसा है।

भारतीय संस्कृति में व्याप्त ईश्वरीय श्रद्धा पर व्यंग्य करते हुए ज्ञान चतुर्वेदी कहते हैं - "ये देवता पुष्प ही क्यों बरसाते हैं... रोटी क्यों नहीं?"13 ऐसे ईश्वर के होने से भी क्या फायदा है जो मात्र पुष्प बरसाते हैं? आम जनता को पुष्प नहीं रोटी की आवश्यकता है। ज्ञान चतुर्वेदी भक्तों पर भी व्यंग्य करते हैं- "हमारे ईश्वर की यही तो कठिनाई है। भक्तगण यज्ञ, पूजादि द्वारा कब उसे किस कीचड़ में घसीट ले जायेंगे, यह स्वयं ईश्वर भी नहीं जानता।"14 ईश्वर की जो धार्मिक कल्पना है, उसको देने वाला वर्ग विशेष ही है। उसने ही समय के अनुरूप ईश्वर के अस्तित्व में बदलाव किए हैं। भारतीय समाज में शोषण ईश्वरीय सत्ता के नाम पर हुआ है। जिसका फायदा उठाते हुए ईश्वरीय सत्ता के नाम पर किए जाने वाले शोषण का रूप उभरकर सामने आया है। व्यंग्यकार ने किसी धर्म या धर्म के अराध्य को अपनी आलोचना का लक्ष्य नहीं बनाया है, बल्कि ईश्वर के नाम पर किए जाने वाले धार्मिक अंधविश्वास, अनैतिकता, अनाचार और पाखंड आदि को अपने व्यंग्य के केंद्र में रखा है।

समाज में ईश्वरीय सत्ता की कल्पना मिथकीय रूप में शुरू से ही विद्यमान रही है। व्यंग्यकार ने इस सत्ता पर व्यंग्य करते हुए उसकी वास्तविकता को व्यक्त किया है। वह ईश्वर को भ्रामक मानते हुए उसकी प्रमाणिकता पर संदेह प्रकट करता है। जिसके पुष्टिकरण के लिए वह मत रखते हैं। यदि ईश्वर होता तो समाज में इस प्रकार दुख, दर्द या हताशा का माहौल नहीं रहता। व्यंग्यकार ने आसमान से उनके द्वारा पुष्प बरसाने की अपेक्षा रोटी देने का कर्म न किए जाने पर कटाक्ष किया है। जिससे ईश्वरीय सत्ता की परिकल्पना को वास्तविक रूप में समझा जा सकता है।

  1. स्वर्ग-नरक की परिकल्पना पर व्यंग्य -

भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान संस्कृति रही है। यहाँ कर्म को विशेष महत्त्व दिया गया है। यही कारण है कि कर्मों के आधार पर ही स्वर्ग एवं नरक की काल्पनिक मान्यता भी भारतीय संस्कृति में देखने को मिलती है। जिसके आधार पर अच्छे कर्म करने वाले को स्वर्ग एवं बुरे कर्म करने वाले व्यक्ति को नरक मिलने की मान्यता भारतीय संस्कृति में विद्यमान है। व्यंग्यकार ने इस स्वर्ग-नरक की भारतीय मान्यता को अपने व्यंग्य के माध्यम से चित्रित करने का प्रयास किया है- "यदि चौर्य कर्म या कुकर्मों के कारण ही स्वर्ग से निष्कासन का नियम बने, तो आधे देवता स्वर्ग से निकल जायेंगे..."15   यहाँ देवताओं को केंद्र में रखकर स्वर्ग एवं नरक में स्थान पाने की कर्म प्रधान मान्यता पर व्यंग्यकार द्वारा उपहास किया गया है। भारतीय संस्कृति में यह पौराणिक मान्यता है कि देवता स्वर्ग में रहते हैं। ज्ञान चतुर्वेदी कर्म की प्रधानता के आधार पर यह स्पष्ट करते हैं कि कर्म की प्रधानता के आधार पर अगर स्वर्ग प्राप्त होता है तो देवताओं को उनके कर्मों के आधार पर स्वर्ग में स्थान नहीं मिलता।

स्वर्ग को लेकर भारतीय जन मानस में व्याप्त पौराणिक मान्यता का खंडन भी वह करते हैं- "सर्दी की गुनगुनी धूप हो, आत्मीयजनों का ऐसा जमावड़ा हो, चाय चले, मठरियाँ हों, नमकीन हो, गप्पें हों, बच्चे हों, किलकारियाँ हो, धमाचौकड़ीयाँ हों और इस उत्सव के बीच एक नन्हीं-सी जान को छत ने अपनी हथेली पर यूँ संभाल कर रखा हो, स्वर्ग कदाचित् ऐसा ही होता होगा! बब्बा मर के स्वर्ग पहुँचेंगे कि नहीं, बताना कठिन है परंतु यहाँ उनकी ही हवेली की छत पर फिलहाल वक्त स्वर्ग बना हुआ है।"16  भारतीय संस्कृति में व्याप्त स्वर्ग की मान्यता कथन में देखी जा सकती है। मृत्यु के बाद स्वर्ग से कहीं अधिक सुंदर, जीवन रूपी स्वर्ग है जो बब्बा की छत पर निकल आया है। स्वर्ग की पारलौकिक मान्यता से हटकर ज्ञान चतुर्वेदी ने लोक को ही मान्यता दी है, क्योंकि परलौकिक स्वर्ग जैसी कोई चीज इस संसार में नहीं है। मृत्यु के बाद स्वर्ग की तलाश से कहीं बेहतर इस संसार रूपी स्वर्ग से जुड़ना है। समाज में व्याप्त स्वर्ग-नरक की अलौकिक परिकल्पना को लौकिक जगत से जोड़ते हुए व्यंग्यकार ने इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया है। ईश्वर के चारित्रिक विघटन होने पर भी स्वर्ग में उनके रहने का प्रसंग इस परिकल्पना पर व्यंग्य करता है। व्यंग्यकार ने अलौकिक स्वर्ग की अपेक्षा लौकिक स्वर्ग को अधिक महत्त्व दिया है। वह बब्बा के घर के माध्यम से भारतीय धर्म ग्रंथों में व्याप्त इस धारणा पर व्यंग्य करते हैं।

निष्कर्ष: ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने धार्मिक व्यंग्यों के माध्यम से धार्मिकता के विभिन्न पक्षों को चित्रित किया है। धार्मिक स्थल धर्म तथा आस्था के नाम पर समाज के विकास में अवरोध उत्पन्न कर रहे हैं, इसे व्यंग्यकार ने धार्मिक स्थलों में व्याप्त विसंगतियों के माध्यम से दर्शाया है। धार्मिक स्थलों की पौराणिकता के माध्यम से धार्मिक स्थलों में व्याप्त ईश्वरीय अस्तित्व यथार्थ रूप में सामने आया है। धार्मिक स्थलों पर आस्था के नाम पर जनता का शोषण किया जाता है। जिसमें धार्मिक स्थलों की आड़ में होने वाला नशा प्रमुख है। व्यंग्यकार ने उन लोगों पर भी व्यंग्य किया है, जो इन बाबाओं एवं धर्म गुरुओं की वास्तविकता पर भरोसा करते हैं। यही भरोसा समाज में इन मठाधीशों एवं बाबाओं के पनपने एवं ईश्वरीय सत्ता की परिकल्पना द्वारा स्वर्ग प्राप्ति की लालसा को जन्म दे शोषण का कारण बनता है। जिसे नकारते हुए व्यंग्यकार ने उसकी कटु आलोचना की है।

संदर्भ:
  1. फूलचंद्र शास्त्री, वर्ण जाति और धर्म, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2007. पृ. सं.-15
  2. ज्ञान चतुर्वेदी, मरीचिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. सं.-291
  3. ज्ञान चतुर्वेदी, हम न मरब, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,2017, पृ. सं. -294
  4. वही, पृष्ठ संख्या -264
  5. ज्ञान चतुर्वेदी, मरीचिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. सं.- 267
  6. पुष्पपाल सिंह, 'वैश्विक गाँव: आम आदमी' भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली,2012. पृ. सं. -192
  7. ज्ञान चतुर्वेदी, बारामासी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ. सं.-124
  8. ज्ञान चतुर्वेदी, मरीचिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. सं.- 138
  9. वही, पृष्ठ संख्या -250
  10. वही, पृष्ठ संख्या -102
  11. ज्ञान चतुर्वेदी, बारामासी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ. सं. -37
  12. ज्ञान चतुर्वेदी, मरीचिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. सं.- 292
  13. वही, पृष्ठ संख्या - 187
  14. वही, पृष्ठ संख्या -141
  15. वही, पृष्ठ संख्या - 113
  16. ज्ञान चतुर्वेदी, हम न मरब, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,2017, पृ. सं. – 200
 
बजरंग लाल मीणा, शोधार्थी
हिन्दी विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
jephbaju@gmail.com, 9782121172

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-41, अप्रैल-जून 2022 UGC Care Listed Issue

सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादव, चित्रांकन : सत्या कुमारी (पटना)

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