शोध आलेख : जन नाट्य मंच के नुक्कड़ नाटकों में स्त्री जीवन का संघर्ष / अभिषेक कुमार

जन नाट्य मंच के नुक्कड़ नाटकों में स्त्री जीवन का संघर्ष
- अभिषेक कुमार

 

शोध सार : स्त्री-शोषण और स्त्री-संघर्ष की संस्कृति सदियों से अपने भिन्न-भिन्न रूप में चली रही है। स्त्रियों को संवैधानिक अधिकार मिलने के साथ उनकी राजनीतिक, शैक्षणिक और सामाजिक न्याय की स्थिति में सुधार तो हुआ लेकिन पुरुष सत्तात्मक संस्कृति आम जनजीवन के मूल्यबोध तथा सौन्दर्यबोध में यथास्थितिवाद का हमेशा समर्थन करता रहा है। फलस्वरूप स्त्री-शिशु हत्या, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, यौन प्रताड़ना, कार्य स्थल पर लैंगिक भेदभाव जैसी समस्याओं ने समाज में अपनी जगह बनाए रखा। स्वतंत्रता के बाद स्त्री शोषण पर विपुल मात्रा में नाट्य-साहित्य का सृजन एवं मंचन हुआ। इस कड़ी में स्त्री-शोषण की संस्कृति के बरक्स वैकल्पिक संस्कृति को आंदोलन के रूप में जनमानस तक ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका नुक्कड़ नाटकों का रहा है। इस सन्दर्भ में जनम के नुक्कड़ नाटक जैसे, ‘ये भी हिंसा है’, ‘औरत’, ‘आर्तनाद, वो बोल उठीआदि का श्रेय चिरस्मरणीय है। इन नाटकों ने स्त्री-शोषण एवं स्त्री-संघर्ष के विभिन्न पहलुओं को उजागर करने के साथ-साथ स्त्रियों के ऊपर हो रहे अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरणास्वर भी दिया।  

 

बीज शब्द : जनम, नुक्कड़ नाटक, स्त्री-शोषण, स्त्री-संघर्ष, पुरुष सत्तात्मक, संस्कृति, समाज, समस्या, लैंगिक-भेदभाव, जनजीवन।

मूल आलेख : स्त्रियों के शोषण की संस्कृति सदियों पुरानी है। शोषण के साथ-साथ स्त्री-संघर्ष की भी एक संस्कृति रही है। जीवन विकास के क्रम में समाज के मूल्यबोध और सौंदर्यबोध में क्रांतिकारी बदलाव हुआ, जिसमें सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं का स्वरूप भी बदल गया। मानव समाज का अर्जित-संचित चेतना में बदलाव हुआ। नूतन विचारों और आविष्कारों के कारण पुरातन व्यवस्था की जड़ता ज्यों-का-त्यों नहीं रही। जीवन के कई पूर्ववर्ती सामाजिक स्थितियों में बदलाव हुआ लेकिन इसके बावजूद खासतौर से स्त्रियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बदलाव पूर्ववर्ती स्थितियों के सापेक्ष में ज्यादा नहीं हुआ है। सदियों से सामाजिक चेतना पितृसत्तात्मक ही बनी हुई है, जहाँ समाज के नीति-निर्देशक पुरुष बने हुए हैं। हालांकि हमें आदिम समाज के इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है कि मातृसतात्मक अवस्थाएँ भी मौजूद थीं। जहाँ स्त्री, पुरुष से स्वतंत्र होकर अपना फैसला खुद लेती थी। स्त्री परंपरा से ही गोत्र तथा वंश का निर्धारण होता था। मानव जीवन की ऐसी विकसित अवस्थाओं के बाद मातृ-सत्ता हाशिए पर पहुंचा दी गई। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी किताबपरिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति में लिखा है किमातृ-सत्ता का विनाश नारी जाति की विश्व ऐतिहासिक महत्व की पराजय थी। घर के अंदर भी पुरुष ने अपना आधिपत्य जमा लिया, नारी पदच्युत कर दी गई। वह जकड़ दी गई। वह पुरुष की वासना की दासी, संतान उत्पन्न करने का एक यंत्र मात्र बनकर रह गई[i]

भारत में हमें वैदिक काल से ही पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था मौजूद होने के लक्षण मिलते हैं। इसी समय वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म की संस्कृति ने बहुतायत जनता के मूल्यबोध पर प्रभुता स्थापित की। यहीं से हमें स्त्रियों के शोषण की संस्कृति का व्यापक लिखित इतिहास मिलता है। इतिहास के इस मोड़ पर ज्यादातर परिवार तथा जनजीवन में पितृसत्तात्मक व्यवस्था क़ायम हो चुकी थी। समाज में स्त्रियों के सारे फ़ैसले पुरुष तय करने लगे थे। जीवन की नई स्थितियों ने धीरे-धीरे स्त्रियों को पुरुषों का ग़ुलाम बना दिया। वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म द्वारा निर्देशित पितृसत्तात्मक संस्कृति ने परिवार और समाज के मूल्यबोध को पुरुष प्रधान बना दिया। से० तोकारेव वैदिककालीन समय के बारे में अपनी किताबधर्म का इतिहास में लिखते हैं किपुरुष देवताओं की पूर्ण अभिभाविता और स्त्री देवताओं का लगभग अभाव समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की व्याप्ति के सूचक हैं[ii]

 पितृसत्तात्मक समाज स्त्री की श्रमशक्ति और उसकी यौनिकता पर अपना नियंत्रण रखता है। आतंरिक एवं बाह्यिक दोनों ही जगत में पुरुष स्त्री पर अपना आधिपत्य रखता रहा है। वंश तथा गोत्र पुरुष परंपरा से तय होने की परम्परा है। संपत्ति का उत्तराधिकारी भी पुरुष ही होता है। इसलिए पुत्र प्राप्ति को मोक्ष पाने के समतुल्य समझा जाता है। समाज में बड़े स्तर पर भ्रूण हत्या जैसे परिणाम देखने के लिए मिलते हैं। दहेज प्रथा का चलन आम हो जाता है। बाल विवाह को आदर्श विवाह का मान्यता मिल जाता है। पितृसतात्मक समाज में स्त्रियों की दशा का सूरत--हाल हमें मनुस्मृति में देखने के लिए मिलता है। जिसमें लिखा है किस्त्री, बालक, युवती या वृद्ध हो, पर उसको घर में कोई काम स्वतंत्रता से करना चाहिए। स्त्री बालकपन में पिता की आज्ञा में, जवानी में पति की आज्ञा में और पति के बाद पुत्रों की आज्ञा में रहे परंतु स्वतंत्रता का कभी भोग करे[iii]  

मनुस्मृति स्त्रियों की परतंत्रता का सांस्कृतिक दस्तावेज़ है। जो स्त्रियों के जीवन को हर तरफ़ से नियंत्रित करने का निर्देश देता है। मनुस्मृति से हमें पता चलता है कि कैसे आम जनजीवन में स्त्रियों को दोयम दर्जे में रखा गया। उनके विचार और व्यवहार को नियंत्रित किया गया। असल जीवन में स्त्री अपने स्वत्व के लिए संघर्ष भी नहीं कर सकती थी। घर के अंदर और बाहर के सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों से तय सामाजिक नियमों के अनुसार ही व्यवहार की अपेक्षा की जाती रही। संस्थागत धर्म तथा उपासना के क्षेत्र में भले स्त्रियों को थोड़ी-बहुत छूट दी गई लेकिन गृहस्थ जीवन में पुरुषों के सापेक्ष में स्त्रियों को बराबरी का हक़ नहीं दिया गया। प्रसिद्ध समाजशास्त्री थॉमस बर्टन बॉटमोर लिखते हैं किकिसी भी समाज में व्यक्तियों या समूहों के व्यवहार पर नियंत्रण दो तरह से किया जाता है: शक्ति के प्रयोग के जरिए और ऐसे मूल्यों तथा मानदंडों की स्थापना के जरिएजो आचरण के बंधनकारी नियमोंके बतौर समाज के सदस्यों द्वारा कमोबेश पूरी तरह स्वीकृत हों[iv] हमारे समाज में भी जोर-ज़बरदस्ती के साथ ही ऐसे मूल्यबोध विकसित किए गए, जो स्त्रियों को परतंत्रता की परकाष्ठा से बांधती है। बड़ी चालाकी से मनुवादियों ने जनजीवन में यह बात फैलाई कि मनुष्य और मनुष्य के बीच फैली असमानता तो ईश्वरीय देन है। हाथ की सभी उँगली एक-सी नहीं बनाई गई है, इसलिए असमानता दैवीय विधान है। ऐसे ब्राह्मणवादी-मनुवादी सामंती संस्कृति के बीच दलित और स्त्री सामाजिक न्याय और सम्मान के अधिकार से हजारों सालों से वंचित रहे।

सदियों तक भारतीय समाज की यही स्थिति बनी रही; ‘जबदी हुई स्तब्ध मनोवृति 19वीं तथा बीसवीं सदी में कई मानवतावादी समतावादी समाज सुधारकों ने स्त्रियों की दशा सुधारने पर जोर दिया। सामाजिक तथा धार्मिक संगठनों द्वारा सती-प्रथा जैसे अमानवीय रीति का उन्मूलन, विधवाओं के पुनर्विवाह को प्रोत्साहन देने, विधवाओं की दशा सुधारने, बाल विवाह को रोकने, स्त्रियों को पर्दे के बाहर लाने, एकपत्नी प्रथा प्रचलित करने और स्त्रियों को व्यवसाय या सरकारी रोज़गार दिलाने के लिए कई आंदोलन हुए। इसमें सबसे बड़ी भूमिका भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की रही है। राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान आज़ादी की लड़ाई में स्त्रियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। राष्ट्रीय आंदोलनों ने यह स्थापित किया कि स्त्रियों में अपार साहस और क्षमता है। राष्ट्रीय आंदोलन में स्त्रियों की जिन समस्याओं पर आंदोलन तेज़ हुआ; उनमें सती-प्रथा, दहेज प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह प्रमुख था। इन आंदोलनों के कारण कई कानून भी बनाए गए इन आंदोलनों से कोई आमूलचूल परिवर्तन तो नहीं हुआ लेकिन स्त्रियों की स्थितियों में सुधार ज़रूर हुआ। ऐसी आशा ज़रूर जगी कि भविष्य में आंदोलनों के माध्यम से स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में सुधार किया जा सकता है। बिपिन चंद्र अपनी किताबआधुनिक भारत का इतिहास में लिखते हैं किभारतीय स्त्रियों की जागृति तथा मुक्ति में सबसे महत्वपूर्ण योगदान राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भागीदारी का रहा। कारण यह है कि उन्होंने ब्रिटिश जेलों तथा गोलियों को झेला था, उन्हें ही भला कौन क्या कह सकता था। और उन्हें अब और कब तक घरों में कैद रखकरगुड़ियायादासीके जीवन से बहलाया जा सकता था? मनुष्य के रूप में अपने अधिकारों का दावा उन्हें करना ही था[v]

भारत की आज़ादी के बाद समानता के लिए स्त्रियों के संघर्ष में तेज़ी आई। भारतीय संविधान की धारा 14 और 15 में स्त्री पुरुष की पूर्ण समानता की गारंटी दी गई। भारत की आज़ादी के बाद महिलाओं की सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक और सामाजिक न्याय की स्थिति में सुधार हुआ। स्त्रियों को कई संवैधानिक अधिकार मिला। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की गई। आज़ादी के कठिन संघर्षों के नतीजों को मजबूती प्रदान करने के लिए महिलाओं को पुरुष के बराबर शिक्षा और संपत्ति में अधिकार मिला। सबसे बड़ी बात यह हुई कि बिना भेदभाव के वोट का अधिकार मिला।

देश की आज़ादी के बाद कुछ समस्याओं से तो पुरुष और स्त्री दोनों को जूझना पड़ा। ग़रीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, कमजोर स्वास्थ्य-व्यवस्था कुछ ऐसे ही समस्याएँ हैं, जिन्हें पुरुष और स्त्री दोनों को सहना पड़ा। लेकिन कुछ समस्याएँ ऐसी हैं, जो केवल स्त्रियों को उठाने पड़े, क्योंकि समाज में उन्हें लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ा और आज भी यह समस्या बरक़रार है। इन समस्याओं में भ्रूण हत्या, स्त्री-शिशु हत्या, घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, यौन प्रताड़ना इत्यादि प्रमुख हैं। श्रमिक वर्ग की महिलाओं का दोहरा शोषण जारी रहा। वर्गगत आधार पर उनका शोषण होने के साथ-साथ लैंगिक उत्पीड़न का भी उन्हें सामना करना पड़ता है। यदि कोई महिला दलित जातियों से संबंधित है, विशेष रूप से यदि वह अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों से संबंधित है; तो उसे वर्ग, लिंग और जाति के तिहरे बोझ के साथ शोषण का सामना करना पड़ता है। देश की आज़ादी के बाद भी जीवन के कई क्षेत्रों में स्त्रियों की स्थिति गुणात्मक रूप से परिवर्तित नहीं हुई। कोई वैकल्पिक संस्कृति का निर्माण नहीं हो पाया। यह आवश्यक हो गया था कि इस जड़ता का दृढ़ता से प्रतिरोध हो। स्त्रियों को वापस समाज में वह अधिकार मिले, जिसकी वह हक़दार हैं। महादेवी वर्मा ने ठीक ही लिखा है किहमें किसी पर जय चाहिए, किसी से पराजय; किसी पर प्रभुता चाहिए, किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान, वे स्वत्व चाहिए जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परंतु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकेंगी।[vi]

स्त्री मुक्ति के लिए संघर्ष का मार्ग समाज की प्रकृति और उस समाज की वर्ग शक्तियों के विशिष्ट सहसंबंध पर निर्भर करता है। प्रश्न यह है कि स्त्रियों की असमान समाजिक स्थिति, लैंगिक हिंसा, दैनिक अपमान और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में कौन-सी ताक़तें ज़िम्मेदार हैं? स्त्री मुक्ति संघर्ष के लिए इन ताक़तों के रणनीतियों की पहचान आवश्यक है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस बात की ज़रूरत महसूस की जा रही कि यथास्थितिवादी पितृसत्तात्मक संस्कृति की जगह समाज में वैकल्पिक संस्कृति की बात की जाए। देश की आज़ादी के बाद राजनीतिक पार्टियों तथा कई गैर-सरकारी संस्थाओं ने स्त्रियों के हक़ में कई आंदोलन किए। ये आंदोलन खासकर दहेज प्रथा, यौन हिंसा और घरेलू हिंसा इत्यादि पर आधारित थे। आजादी के बाद का भारत के लेखक लिखते हैं किइन प्रश्नों पर 70 के दशक से 90 के दशक के बीच कई प्रकार के आंदोलन से कुछ तो स्थानीय थे उस अधिक व्यापक और इसके कारण जनचेतना में विकास हुआ[vii]

आज़ादी के बाद स्त्री शोषण पर विपुल मात्रा में नाट्य साहित्य की रचना हुई। इसी क्रम में सैकड़ों नाटक भी खेले गए। स्त्रियों की शोषण की संस्कृति के बरक्स वैकल्पिक संस्कृति को आंदोलन के रूप में जन मानस तक ले जाने का श्रेय नुक्कड़ नाटक का भी है। जैसा कि जन नाट्य मंच (जनम) के संस्थापक और नाटककार सफदर हाशमी ने अपने लेखनुक्कड़ नाटक का महत्व और कार्यप्रणालीमें लिखा है किअपनी जीवंतता तथा सहज संप्रेक्षणीयता और व्यापक प्रभावशीलता की वजह से नाटक ही ऐसी विधा है जो जनता के व्यापक हिस्से के बीच जनवादी चेतना और स्वस्थ वैकल्पिक संस्कृति को फैलाने में कारगर भूमिका निभा सकती है[viii] जनम ने कई सारे नुक्कड़ नाटक लिखे, जिसकी हजारों प्रस्तुतियाँ हुईं। इन नाटकों की कथावस्तु स्त्री विरोधी धारणाओं, मिथकों तथा परंपराओं पर सीधे तौर पर प्रश्नचिह्न लगाती है। महिलाओं की आर्थिक और सांस्कृतिक आज़ादी की बात करती है। समाज में स्थापित मूल्यबोध पर कुठाराघात करती है। पौराणिक कथाओं में हमेशा पुरुषों को ऊँचा दिखाया गया है। स्त्रियों पर की गई हिंसा को या तो जायज़ ठहराया गया अथवाप्रस्थितियों की परिणतिसे नवाजा गया। रेणुका की गर्दन काटने की आज्ञा जन्मदग्नि ने सिर्फ इसलिए दे दिया कि नौका विहार करते समय उन्होंने पुरुष को देख लिया था। जबकि इन्द्र के दरबार में पुरुषों के सामने स्त्रियों से नृत्य करवाया जाता था। छल से अहल्या के साथ शारीरिक संबंध बनाने के बावजूद इन्द्र देवताओं के राजा थे। लेकिन अहल्या को पत्थर बनना पड़ा। इसके बावजूद कि देवी जैसे स्थानों पर स्त्रियों को पूजनीय बनाया गया। वेद और पुराणों से लेकर आम जनजीवन में स्त्रियों की स्थिति दोयम दर्जे की रही। पुरुषों की महानता को सिद्ध करने के लिए कई तरह के चमत्कारों और अवतारों को जोड़ा गया। आज भी समाज में यह धारणा प्रचलित है कि स्त्रियाँ शुरू से ऐसी ही थीं। आज के समय में सबसे ज्यादा ज़रूरी हो गया है कि स्त्रियों के शोषणकारी संस्कृति को पोषित करनेवाली संस्कृति को चुनौती दी जाए। जनम के नुक्कड़ नाटक सिर्फ चुनौती ही नहीं देते बल्कि एक वैकल्पिक संस्कृति के निर्माण की बात भी करते हैं। 2005 में प्रकाशित और प्रदर्शित नाटकये भी हिंसा है में औरत पात्र कहती है किएक पल को याद कीजिए सीता, अहल्या, रेणुका, द्रौपदी और शूर्पणखा जैसी औरतों को जो हिंसा का शिकार बनीं और हिंसा के लिए उन्हीं को जिम्मेदार ठहराया गया[ix]

भारत में अभी भी लैंगिक असमानता मौजूद है। घरेलू स्तर पर महिलाओं का महत्व गृह-कार्य, बच्चों की परवरिश और परिवार की देखभाल तक ही सीमित हैं, भले ही उनकी शिक्षा की डिग्री या जॉब प्रोफाइल कुछ भी हो। अपने कार्यस्थल पर महिलाओं के पास नौकरी के अवसरों तक सीमित पहुंच होती है और उन्हें उस कार्य के लिए पुरषों की तुलना में कम भुगतान किया जाता है। शिक्षा और सीखने के अवसर भारत में लिंग-वार साक्षरता दर पुरुषों और महिलाओं के बीच व्यापक अंतर को दर्शाता है। माता-पिता लड़कियों की शिक्षा पर ख़र्च करने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि उनके नज़र में स्त्री-शिक्षा का कोई मूल्य नहीं है। समाज की दृष्टिकोण में वे आदर्श स्त्री तभी हो सकती हैं जब वे अपने पति और ससुरालवालों की सेवा-शुश्रूषा में अपना जीवन न्योछावर कर दें। भारतीय संविधान पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समान अधिकार और विशेषाधिकार प्रदान करता है, लेकिन भारत में अधिकांश महिलाओं को इन अधिकारों और अवसरों का फायदा नहीं मिल पाता है। जन नाट्य मंच के नाटक में अभिनेत्री कोरस में कहती है कि:-

अभिनेत्री - मैं भी एक मज़दूर हूँ

मैं खुद भी एक किसान हूँ

 मेरा पूरा जिस्म दर्द की तस्वीर है

 मेरी रग-रग में नफ़रत की आग भरी है

और तुम कितनी बेशर्मी से कहते हो

कि मेरी भूख एक भ्रम है

और मेरा नंगापन एक ख़्वाब।

एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहूदा शब्दावली में

एक शब्द भी ऐसा नहीं

जो उसके महत्त्व को बयान कर सके[x]

यह पितृसत्तात्मक सोच भारतीय समाज में लैंगिक भेदभाव का मूल कारण है, क्योंकि पुरुषों पर स्त्रियों की  आर्थिक निर्भरता लैंगिक असमानता का एक प्रमुख कारण है। लैंगिक भेदभाव भारत में स्त्रियों के शैक्षिक पिछड़ेपन का मूल कारण रहा है। यह एक दुखद वास्तविकता है कि देश में शैक्षिक सुधारों के बावजूद, स्त्रियों को अभी भी सीखने के अवसरों से वंचित रखा गया है। दरअसल मानसिकता बदलने की ज़रूरत है और लोगों को स्त्री-शिक्षा के महत्व को समझने की ज़रूरत है। स्त्री-शिक्षा के पिछड़ेपन के कारण किसी भी समाज को इसका दूरगामी नुक़सान भुगतना पड़ता है।औरत नाटक के एक छोटे से संवाद में इस पितृसत्तात्मक मनोवृत्ति का सजीव चित्रण दिखाई देता है, यथा -  

बाप - क्यों री यह घर है या स्कूलघंटा-भर हो गया काम से आए। कब तक मैं यूं ही बैठा रहूँगा। मुन्नी. . .

औरत - बाबा मैं याद कर रही थी। मास्टर जी कहते है कि घर पर पढ़ा करो। समझ में नहीं आए तो अपने बाबा से पूछो।

बाप - बाबा से पूछो! बाबा से पूछो तो घर में बैठो और घर का कामकाज करो। क्या करेगी स्कूल जाके।

 तुझे कौन दफ़्तर दबाना है?”[xi]

हालांकि ऐसा नहीं है कि पढ़े-लिखे परिवार में शोषण का स्तर कम हो जाता है। भारत की आज़ादी के बाद के दशकों का इतिहास अनेक प्रक्रियाओं और परिवर्तनों से भरा है। इन प्रक्रियाओं और परिवर्तनों में स्त्रियों की समानता का प्रश्न सतही ही रहा है। संभ्रांत समझे जाने वाले घरों में स्त्रियों की दशा और भी बदतर होती गई। उसे हर उस हिंसा के लिए ज़िम्मेदार माना गया, जिसमें उसकी कोई गलती ही नहीं रहती है। जन नाट्य मंच का नाटकआर्तनाद में बच्ची का बलात्कार हो जाता है। बलात्कार वह पुरुष करता है जो उसे पढ़ाता है। लेकिन पुलिस और मुहल्ले वालों के रवैया से परिवार त्रस्त हो जाता है। गली-मुहल्ले की तो बात ही छोड़िए। घर में भी घटना को लेकर अलग-अलग राय बन जाती है। एक तरफ़ छोटी-सी बच्ची का बलात्कार होता है, तो दूसरी तरफ़ अपने ही घर में उसे हिक़ारत भरी नज़रों से देखा जाता है। इसी त्रासदी को अभिव्यक्त करता यह संवाद देखा जा सकता है:-     

बेला - आहिस्ता बोलिए बाबूजी। प्रीति सो रही है।

दादा - प्रीति सो रही है-प्रीति सो रही है। हम लोगों की नींद हराम करके प्रीति सो रही है।

बेला - आपकी नींद हराम करके प्रीति सो रही है। और वो कमीना पवन कुमार उसका कुछ नहीं! सारा कसूर मेरी बच्ची का ही है।

दादा - सारा कसूर तुम्हारा है। तुम दोनों का दोष है। कितनी बार समझाया, मत भेजो लड़के-लड़कियों को एक साथ स्कूल में! छोटी-छोटी स्कर्ट पहनाकर भेज देंगे स्कूल-अब भुगतो।

पूरन - पिताजी जो लड़कियां सूट सलवार पहनती हैं क्या उनके साथ बलात्कार नहीं होता?

दादा - बकवास बंद करो। मैं यह नहीं कह रहा हूं। तुमने अपने बच्चों को सही-गलत की तमीज़ नहीं सिखाई। सारा दोष तुम्हारा है।

पूरन - पिताजी आप तो यह कह रहे हैं कि जिसके घर चोरी हुई है गलती भी उसी की है।

दादा - हाँ, बेटे जिसकी घर चोरी होती है उसकी भी गलती होती है।[xii]

प्राचीन काल से ही बेटा-बेटी में भेदभाव करने की गलत परंपरा रही है। यह भेदभाव इतने चरम पर था कि इसके कारण जाने कितनी माँ की कोख उजाड़ी गई, कितनी ही महिलाओं ने अनगिनत आक्षेप और शारीरिक पीड़ा सहीं। कई बार तो बेटी पैदा होते ही या तो नदी में बहा दिया जाता था या फिर ज़िंदा ही ज़मीन में गाड़ दिया जाता था। बेटा-बेटी का फर्क मिटाने के बाद ही सही मायने में नारी सशक्तिकरण की अवधारणा चरितार्थ होगी। आज बेटियाँ हर क्षेत्र में बेटों से आगे हैं। फिर भी समाज में बेटों को अधिक महत्व मिलता है, लेकिन अगर बेटे की तरह बेटियों को भी समान अवसर दिया जाए, तो बेटियाँ अनेक क्षेत्रों में सफलता का परचम लहरा सकती हैं। समाज को स्त्रियों के प्रति रूढ़िवादी सोच से आगे बढ़कर प्रगतिशील सोच विकसित करने की आवश्यकता है। शिक्षित तथा सभ्य समाज का निर्माण तभी होगा, जब बेटियाँ हर क्षेत्र में बिना किसी भेदभाव के बराबरी का अधिकार प्राप्त करने लगेंगी। प्रत्येक माता-पिता को अपनी बेटी के लिए उचित शिक्षा का अवसर देना पड़ेगा। बेटियाँ आत्मनिर्भर बनेंगी, तो दहेज और बाल विवाह जैसी समस्या स्वयं समाप्त हो जाएगी। जन नाट्य मंच का नाटकवो बोल उठी का यह संवाद इन्हीं बातों को दर्शकों के सामने रखता है कि कैसे समाज में बेटों को अधिक महत्व दिया जाता है:-

रजनी - मेरे रिबन दे दे।

बबलू - नहीं दूंगा, नहीं दूंगा

माँ - शोर सुनकर इनके दादा गए (दादा का प्रवेश)

बबलू - दादाजी, दादाजी, देखो ये रिबन नहीं दे रही है।

रजनी - मैं नहीं दूँगी

बबलू - मैं अपनी पतंग में पूंछ लगाऊँगा।

रजनी - पतंग कट गई तो ?

बबलू - नहीं कटेगी। पूंछ वाली पतंग को कोई नहीं काट सकता।

दादा -   रजनी दे क्यूँ नहीं देती तू रिबन

रजनी - मेरे रिबन हैं, मैं क्यूँ दे दूँ ?

दादा - देती है या नहीं

रजनी - नहीं

बबलू - देख लो दादा जी।

दादा - नहीं देगी ?

रजनी - नहीं ( दादा जी रजनी को थप्पड़ मारता है)

दादा - ( बबलू से) जा बेटा जा शाबाश तू खेल ( दादा जाता है)”[xiii]

परिवारों में पुरुष बच्चे को प्राथमिकता दी जाती है और बेटी के प्रति अरुचि होती है। इसका कारण पितृसत्तात्मक व्यवस्था का संस्कार ही है। जहाँ बेटों को विशेष रूप से आर्थिक और राजनीतिक संपत्ति माना जाता रहा है, वहीं बेटियाँ देनदारी मानी जाती रही हैं।

भारत में इसकी जड़ें मध्ययुगीन काल से ही देखी जा सकती है। जब शादी के बाद अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए दुल्हन को उसके परिवार द्वारा नकद और अन्य भौतिक संपत्ति जैसे उपहार दिये जाते रहे हैं। औपनिवेशिक काल के दौरान यह शादी करने का एकमात्र कानूनी तरीक़ा बन गया, जिसमें अंग्रेजों ने दहेज की प्रथा को अनिवार्य कर दिया। भारत में दहेज को आमतौर पर महिलाओं की सुरक्षा से जोड़कर देखा जाता था और इसे स्त्री-धन माना जाता था। आज दहेज समाज की एक सामाजिक बुराई बन चुकी है, जिसने महिलाओं के प्रति अकल्पनीय यातनाएँ और अपराध को जन्म दिया है। भारतीय वैवाहिक व्यवस्था को प्रदूषित किया है। आज सरकार केवल दहेज प्रथा को मिटाने के लिए बल्कि कई योजनाओं को लाकर स्त्रियों की स्थिति को ऊपर उठाने के लिए कानून (दहेज निषेध अधिनियम 1961) बनाया है। कानून और सुधारों के बावजूद अपने मूल रूप में यह समस्या बहुत ताक़तवर तरीक़े से समाज में अपनी पैठ बनाए हुए है।

दहेज प्रथा के कारण कई बार यह देखा गया है कि लड़कियों को परिवारों में एक बोझ के रूप में देखा जाता है। यह बोझ दहेज की उस मोटी रक़म से जुड़ा हुआ है, जो स्त्री-जीवन के जन्म से लेकर युवावस्था तक के दौर को भेदभाव की भट्टी में झोंक देता है। जिसकी आँच में वह जलती रहती है। इस आँच की लपटें उसके जीवन की महत्वपूर्ण और मूलभूत पड़ावों को भी प्रभावित करती हैं, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे पड़ाव इसके गंभीर भेदभाव के उदाहरण हो सकते हैं। दहेज प्रथा महिलाओं की आजीविका को भी प्रभावित करता है, जिसका सबसे बड़ा कारण पहले अशिक्षित और अब अर्ध-शिक्षित करना कहा जा सकता है। यह उनके विकास और आर्थिक स्वायत्तता को प्रभावित करता है, जिसके कारण उनका परिवार में निरंतर शोषण किया जाता है। समाज के ग़रीब तबक़े जो अपनी बेटियों को दहेज देने में असमर्थ होते हैं वह दहेज के रक़म को जमा करने के लिए अपने बेटियों की भी मदद लेते हैं और उन्हें पैसे कमाने के लिए काम पर भेजते हैं। कई बार कुछ परिवार अपनी बेटियों को स्कूल तो भेजते हैं, लेकिन आजीविका के विकल्पों पर स्वतंत्रता नहीं देते हैं। दहेज प्रथा के कारण कई स्त्रियाँ अविवाहित रह जाती हैं। देश में ऐसी स्त्रियों की बेशुमार संख्या है, जो शिक्षित होने के बावजूद अविवाहित रहती हैं, क्योंकि उनके माता-पिता विवाह पूर्व दहेज की मांग को पूरा करने में असमर्थ हैं। कई मामलों में तो दहेज प्रथा के कारण स्त्रियों के खिलाफ गंभीर अपराध देखने के लिए मिलता है। जहाँ भावनात्मक शोषण, मारपीट और हत्या जैसी घृणित कार्य करने में भी लोगों को परहेज नहीं होता है। जन नाट्य मंच का नाटकये भी हिंसा है का यह संवाद इन्हीं बातों को दर्शकों के सामने रखता है :-

सेल्समैन - चटकीली, आपको चाहिए शर्मीली। आपको चाहिए रीमिक्स, राइट?

दूल्हा - राइट। ( औरत 2 का प्रवेश। दूल्हा और वो एक दूसरे को देखकर मुस्कराते हैं।)

सेल्समैन - तो पेश है औरत नंबर वन मेरा दावा है इसे देखकर आपको घर-घर की कहानी याद आएगी। तुलसी सी ये आपके आंगन में खिलखिलाएगी। कुसुम सी ये महकेगी। प्रेरणा सी उतरेगी जिंदगी की कसौटी पर पूरी जस्सी से होंगे इसके संस्कार, पूजा सी देगी अपनी लाइफ तुम पे वार बोलिए है स्वीकार? (दूल्हा और औरत एक दूसरे के पास आते हैं, हाथ पकड़कर कूदते हैं। गाना शुरू, बाकी मर्द पात्र दायरे के किनारे खड़े होकर गाने में शामिल होते हैं।) ये है औरत नंबर वन, ये है औरत नंबर वन कामकाज में नंबर वन, रूपरंग में नंबर वन, चालचलन में नंबर वन, सलीका ढंग में नंबर वन, घर में नंबर वन, बाज़ार में नंबर वन, सैक्स में नंबर वन, संस्कार में नंबर वन लव में नंबर वन, हेट में नंबर वन, चुप्पी में नंबर वन, डिबेट में नंबर वन, दबने में नंबर वन, डटने में नंबर वन, मर्द के इशारों पे मिटने में नंबर वन[xiv]

इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए लोगों की सामाजिक और नैतिक चेतना में सुधार के साथ-साथ स्त्री-शिक्षा और उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करने और दहेज प्रथा तथा स्त्री-उत्पीडन के ख़िलाफ़ कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने की आवश्यकता है। इन सबके बाद भी यदि कोई स्त्री दलित है, तो उसे जातिवाद और पितृसत्ता के दोहरे अभिशाप को झेलना पड़ता है। इसमें कोई शक नहीं कि जाति प्रथा एक सामाजिक कुरीति है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज़ादी के इतने साल बाद भी देश में जातिवाद कमज़ोर नहीं हुआ है। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव स्त्रियों पर पड़ता है। देश में आए दिन ऑनर किलिंग्स होते रहते हैं। अगर कोई स्त्री स्वतंत्रतापूर्वक अपनी जाति से बाहर विवाह कर ले तो उसे पूरे समाज का कोप सहना पड़ता है। जन नाट्य मंच का नाटक जब चले खाप का लठ इसी समस्या पर आधारित है। यह नाटक जातिवाद और पितृसत्ता के चलते देश भर में हो रही ऑनर किलिंग्स खाप पंचायत के विरोध में लिखा गया है। नाटक में जालिम सिंह जब अंतर्जातीय विवाह का विरोध करता है तो गाँव की ही रामवती उसको चुनौती देती है :-

जालिम सिंह - आजकल के लड़के-लड़कियों को साथ-साथ पढ़ाई करके दिमाग़ ख़राब हो गया है। अपनी संस्कृति भूल गए हैं। दूसरे गोत्र में शादी करने से नस्ल खराब होती है। दूसरी जात में शादी करके घर की इज़्ज़त मिट्टी में मिलाने देंगे। जो भी लड़का-लड़की पंचायत के मर्जी के बिना शादी करेंगे उन्हें ऐसी सजा देंगे कि आने वाली कई-कई पीढ़ियाँ याद रखेंगी।

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रामवती - बकवास बंदकर। चौधरी जालिम सिंह, तू झूठी इज़्ज़त, मान-मर्यादा, भाईचारा, परंपरा के नाम पर चौधराहट चमकाना चाहता है। शर्म आई तुझे ग़रीबों को यूं फ़तवे सुनाते।[xv]

उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जनता को अपने समाज एवं परिवेश के प्रति सजग करने में तथा प्रतिरोध की संस्कृति को एक ठोस रूप देने में जनम के नुक्कड़ नाटकों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। जनम ने अपने जनवादी नुक्कड़ नाटकों से समाज की विविध समस्याओं को जनता के समक्ष उभारने का तथा उनके प्रति जनता को जागरूक करने का यथेष्ट प्रयास किया है। इसी कड़ी में एक महत्वपूर्ण काम जनम के नुक्कड़ नाटकों ने यह किया कि स्त्री-जीवन संघर्ष के विभिन्न पहलुओं को अपने नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से समाज के सामने उठाया और समाज में स्त्री की स्थिति पर सोचने के लिए विवश भी किया। सिर्फ इतना ही नहीं इस पुरुषसत्तात्मक समाज के सामंती मूल्यों को जनम के नुक्कड़ नाटकों ने चुनौती भी दी। स्त्री के साथ हो रहे शारीरिक एवं मानसिक शोषण को तथा उन शोषण के विरुद्ध संघर्ष करती हुई स्त्रियों की अनंत शक्ति को इन नाटकों ने बख़ूबी प्रस्तुत किया, जिससे पुरुष वर्चस्ववादी इस समाज की पोल खुलकर रह गयी। अतः निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि जनम के नुक्कड़ नाटकों ने सिर्फ स्त्री जीवन के संघर्ष को ही नहीं प्रस्तुत किया अपितु उस संघर्ष की प्रस्तुति से शोषित हो रही स्त्रियों को अन्याय के विरूद्ध आवाज़ उठाने के लिए भी प्रेरित किया।

संदर्भ :
[i] ‘परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’, फ्रेडरिक एंगेल्स, अनुवाद- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन, नई दिल्ली, तृतीय संशोधित संस्करण-2008, पृष्ठ संख्या- 71
[ii] ‘धर्म का इतिहास’, से० तोकारेव, प्रगति प्रकाशन मास्को-1986, अनुवाद- बुद्धिप्रसाद भट्ट, पृष्ठ संख्या २१६-२१७ 
[iii] मनुस्मृति, अनुवाद- पंडित गिरिजा प्रसाद द्विवेदी, मुंशी नवलकिशोर सी.आई.ई के छापेखाने से-1917, श्लोक संख्या- 140, पृष्ठ संख्या- 186
[iv] थॉमस बर्टन बॉटमोर, अनुवाद- गोपाल प्रधान, समाजशास्त्र, ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन-2004, पृष्ठ संख्या 199 
[v] विपिन चंद्र, आधुनिक भारत का इतिहास, ओरियंट ब्लैकस्वान प्राइवेट लिमिटेड-2008, पृष्ठ संख्या- 234
[vi] महादेवी वर्मा, शृंखला की कड़ियाँ, तृतीय संस्करण, 1944, वारशनी प्रेस इलाहाबाद, पृष्ठ संख्या- 21
[vii] आजादी के बाद का भारत, 1947 2000,  विपिन चंद्र,मृदुला मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, प्रथम संस्करण 2002,  पृष्ठ संख्या 593
[viii] सफ़दर, नुक्कड़ नाटक का महत्व और कार्यप्रणाली, प्रथाम संस्करण-1989, नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 33
[ix] नुक्कड़ जनम संवाद, अक्टूबर 2007-मार्च 2008, पृष्ठ संख्या- 115 
[x] नुक्कड़ जनम संवाद, अक्टूबर 2007-मार्च 2008, पृष्ठ संख्या- 85
[xi] नुक्कड़ जनम संवाद, अक्टूबर 2007-मार्च 2008, पृष्ठ संख्या- 85
[xii] नुक्कड़ जनम संवाद, अक्टूबर 2007-मार्च 2008, पृष्ठ संख्या- 95 
[xiii] नुक्कड़ जनम संवाद, अक्टूबर 2007-मार्च 2008, पृष्ठ संख्या- 105-106
[xiv] नुक्कड़ जनम संवाद, अक्टूबर 2007-मार्च 2008, पृष्ठ संख्या- 118
[xv] नुक्कड़ जनम संवाद, अप्रैल-सितंबर 2009, पृष्ठ संख्या – 104
 
आधार ग्रंथ-
1.      औरत(1979)- सामूहिक रचना, जन नाट्य मंच
2.      आर्तनाद(1995)- सामूहिक रचना, जन नाट्य मंच
3.      वो बोल उठी(2000)- सामूहिक रचना, जन नाट्य मंच
4.      ये भी हिंसा है(2005)- सामूहिक रचना, जन नाट्य मंच
5.      जब चले खाप का लठ(2010)- सामूहिक रचना, जन नाट्य मंच

 

अभिषेक कुमार
हैदराबाद विश्वविद्यालय
abhiyaan.abhishek@gmail.com, 8500978942

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-43, जुलाई-सितम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक एवं जितेन्द्र यादवचित्रांकन : धर्मेन्द्र कुमार (इलाहाबाद)

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