अध्यापकी के अनुभव : 'बदलाव की सनक' / डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर

अध्यापकी के अनुभव : 'बदलाव की सनक'
- डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर


सरकारी बनाम प्राइवेट स्कूलों की गुणवत्ता का विवाद काफी पुाना हैं। सरकारी स्कूलों के भवन और उसके कैंपस के उजाड़पन पर कई बार अधिकारी, मीडिया, और नागरिक स्कूल प्रशासन को भजन सुनाते रहते हैं। पर विद्यालय भवन को सुधारने के नाम पर दी जाने वाली ग्रांट ऊँट के मुँह में जीरे सी होती है। बाकी की सारी जरूरतों को पूरा करने के लिए भामाशाह योजना ज़िंदाबाद। यह योजना अच्छी है, पर वंचित समुदायों के सरकारी स्कूल भामाशाह के लिए तरसते रहते हैं तो संपन्न क्षेत्र में वारेन्यारे। सरकारी स्कूलों में वंचित समुदाय का प्रतिनिधित्व ज्यादा होता है। जिन लोगों के पास जिंदगी जीने के लिए संसाधन पूरे नहीं है और अपना जीवन निर्वाह करने के लिए सरकारी योजनाओं पर निर्भर है, वह भला सरकारी विद्यालय में दान देने की हिम्मत कैसे कर सकते हैं। दूसरी ओर प्राइवेट स्कूल का कैंपस साफ सुथरा और लोगों को आकर्षित करने वाला होता है। पर इसके पीछे का काला पक्ष यह है कि यह सारी चमक-दमक पेरेंट्स की गाढी कमाई से वसूल की जाती है। आर्थिक जरूरतों के लिए तरह –तरह के हंटर निजी स्कूलों के पास होते हैं। पर फिर भी कुछ सनकी लोग सरकारी विद्यालयों बदलाव करने की अपनी सनक छोड़ना नहीं चाहते। यह संस्मरण ऐसे ही सनकी लोगों को समर्पित है।

पने इंसान को अक्सर सनकी बना देते हैं जैसे-जैसे सपनों के बीच रोड़े पैदा होते जाते हैं, उसी के साथ-साथ सनक का दायरा भी बढ़ता जाता है। इस बार कुछ इसी तरह की सनक से परिचय करवाने जा रहा हूँ जिसकी शुरुआत तो मुझसे हुई, पर जल्द ही इसने पूरे स्टाफ और मनोहरगढ़ वासियों को अपनी जद में ले लिया।

मनोहरगढ़ प्रयोगशाला की पुरानी बिल्डिंग में कई पेड़ थे, पर कैंपस बहुत छोटा था। जुलाई, 2019 में नया विद्यालय भवन बनकर तैयार हो गया था। यह और बात है कि अध्यापन के लिए केवल आठ कमरे ही उपलब्ध थें फिर भी स्कूल का कैंपस बहुत विशाल हाथ लगा। यह विशालता और भव्यता बिना हरियाली के मनहूस थी। दस बीघे के कैंपस में एक भी पेड़ नहीं था। कटीली झाड़ियों एवं जंगली खरपतवार ने माहौल को उजाड़ बना रखा था। गुलमोहर के केवल दो पौधे इस उजाड़पन से संघर्ष करते हुए दिख रहे थे जिन्हें मैंने अपने स्टाफ साथियों के साथ 21 जून, 2019 को लगाया था। आने वाली गर्मी कितनी सख्त होगी इसका आभास ‘आसोज के मल्डोजे दे रहे थे। इसी बीच 13 अक्टूबर को मेरा 35 वां जन्मदिन था। नाश्ता-पार्टी विरोधी छवि को यहाँ भुनाने का सुनहरा अवसर था। तय किया कि जितने वर्ष का हूँ, उतने पौधे लगाऊँगा। इस सनक में सबसे पहले साथ दिया साथी दिनेश जी पंचोली ने। उन्होंने अपनी तरफ से लोहे के ट्री गार्ड के लिए ₹5000 देने की घोषणा हुई। बाकी पौधों के लिए बाँस के ट्री गार्ड की व्यवस्था साथी बाबूलाल जी मीणा और शिवराज सिंह जी ने की। बेटे के 9वें जन्मदिवस की पार्टी भी इसी की भेंट चढ़ी। नौ गुलाबों के लिए तैयार की गई क्यारी यशोवर्धन जी के चारदीवारी नुमा ट्रीगार्ड से सुरक्षित हो पाई। अच्छी बरसात ने जमीन में इतनी नमी पैदा कर दी कि गर्मियों तक पानी की कोई विशेष जरूरत नहीं पड़ी। जरूरत पड़ती तो पास के गड्ढे और एक फर्लांग की दूरी पर मौजूद हैंड पंप से इसकी पूर्ति कर दी जाती। डोरी, कलर के पुराने डिब्बे और एक छकड़ा गाड़ी के साथ पूरी टीम हमेशा तैयार रहती थीं।

मार्च, 2020 के दरमियान लगी तालाबंदी के बीच जरूरतमंदों को राशन पहुँचाने, उनको वाहन उपलब्ध करवाने और उनके आँसू से अपनी आँखें भी गीली करने हेतु क्षेत्र का भ्रमण करता रहा। स्कूल नहीं गया हो, ऐसा कोई दिन याद नहीं आता। मई महीने की एक दोपहर मेराशन बाँट कर घर लौट रहा था कि अचानक स्कूल के पौधों को पानी पिलाते तीन नरेगा श्रमिकों पर नज़र पड़ी गाड़ी रोककर पूछताछ शुरू की तो जवाब मिला, सचिव साहब ने हमें यहाँ पौधों को पानी पिलाने लगाया है।” मेरी आँखें चमक उठी। महेश जी शर्मा कैसे सचिव साहब है, इसका परिचय आपको पिछले संस्करणों में मिल गया होगा। मजदूरों के लिए लार टपकाता हुआ पहुँच गया उनके पास। मुझे अपनी ओर आते हुए देखकर और आने का कारण भाँपते आगे होकर बोले, सरकार की तरफ से खेल ग्राउंड और विद्यालय विकास हेतु 30-40 नरेगा श्रमिक लगाने का आदेश आया है मैं सुबह से ही उन्हें आपके हवाले कर दूँगा।

तो फिर क्या था। लेक्चरार साहब सुबह नरेगा मेट बनकर स्कूल आ पहुँचे। गाँव के जागरूक लोगों के सहयोग से श्रमिकों को समझाया कि खेल ग्राउंड और विद्यालय गार्डन बच्चों के विकास के लिए कितना जरूरी है, प्राइवेट स्कूलें हमारा खून चूस कर ही हम पर इतराती है। अब हमें हमारी स्कूल चमकाने का मौका मिला है। आपके साथ मै भी अपना पसीना बहाने के लिए तैयार हूँ। लग जाइए इसे सुंदर बनाने में। मेरी इस अपील ने काम किया। योजना बनी कि ग्राउंड के चारों तरफ रनिंग ट्रेक बनेगा और उसके दोनों तरफ पौधों के लिए गड्ढे खोदे जाएँगे। बीच में फुटबॉल, वॉलीबॉल, कबड्डी और खो खो के ट्रैक भी बनेंगे। इन सबका विकास चरणबद्ध तरीके से करना था। एक टीम ट्रेक को तैयार करने और गड्ढा खोदने में लग गई। दूसरी टीम झाडियाँ साफ करके स्कूल का मुख्य मैदान तैयार करने में लग गई। तीसरी टीम पानी के बहाव के रास्ते को सही करने के लिए उसकी खुदाई में जुट गई। चौथी टीम गार्डन बनाने के लिए मशक्कत करने लगी। स्कूल की मैन बिल्डिंग के सहारे-सहारे लगभग 126 फीट लंबा और 30 फीट चौड़ा गार्डन बनाना तय हुआ। अब यह सनक सिर्फ मेरी नहीं थी, बल्कि इसमें ग्राम सचिव, विद्यालय स्टाफ, गाँव के नरेगा श्रमिक भी शामिल हो चुके थे। टीमें अपने काम में मुस्तैदी से लगी हुई थी।

स्कूल में इतना बड़ा उधम मच जाएगा, इसकी जानकारी संस्था प्रधान को नहीं थी। बड़े पैमाने पर होने वाले इस बदलाव के लिए उन्हें भारी आर्थिक संसाधन की आवश्यकता साफ दिख रही थी जबकि विद्यालय के पास संसाधनों के नाम पर आश्वासन ही आश्वासन। भामाशाह का अकाल अलग से। इस परिस्थिति को भाँपकर तीसरे दिन प्रिंसिपल साहब ने कमरे में बुलाकर मुझे कहा, डायर साहब! आप इतना काम तो करवा रहे हो, पर याद रखिएगा कि स्कूल के पास इस काम के लिए एक भी रुपया नहीं है। कल अगर आपने पैसे मांगें तो मैं आपको एक भी रुपया नहीं दूँगा। मैंने सिर्फ इतना कहा, सर! मैं आपसे मांगूंगा भी नहीं। कमरे से निकलते वक्त मुझे एहसास हो गया था कि कितनी बड़ी आपदा मोल ले ली है। बिना बाउंड्री के स्कूल में गार्डन लगाना उल्टे घड़े में पानी भरने के समान था। पर विपरीत परिस्थितियों में काम अंजाम तक पहुँचाने की पुरानी सनक थी। स्टाप साथियों का साथ अलग से था। सभी सनकी स्टाफ साथियों और ग्रामीणों द्वारा योजना का ताना-बाना बुना जाने लगा। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी बनाबन स्थानीय आदिवासी समाज।

एक छोटी सी बाडी जुगाड़ करके हमने स्कूल में पहले से ही बना रखी थी। अब इसे बड़े स्तर पर करना था। अतः समाजवादी फार्मूला अपनाया।  आदिवासी समाज के पास पैसे नहीं है, पर बहुमूल्य संसाधनों का खजाना भरा पड़ा है। राहत सामग्री बाँटने एवं सर्वे के दौरान टोह ले ली कि कहाँ-कहाँ पर क्या-क्या पड़ा है। पहली जरूरत बाँस की थीं जो यहाँ पर्याप्त मात्रा में है। मनोहर गढ़ पंचायत के झापा में थोरी समाज के कुछ लोग रहते हैं जो बाँस के सामान बनाने में निपुण हैं। वहाँ रहने वाले मुख बधिर भँवर भाई इतने बड़े कलाकार हैं कि अच्छे-अच्छों को पानी पिला दे। जमीन पर लकड़ी से लाइने खींचकर बाँस की दीवार बनाने की अपनी योजना उन्हें समझाई। अचानक वे पूरा मुँह खोल कर जोर जोर से हँसने लगे। एक पल तो मुझे लगा कि वे मेरी योजना पर अठ्ठाहस कर रहे हैं, फिर उन्होंने सीने पर हाथ ठोककर इशारों से समझाया कि कर लेंगे। जिस आत्मविश्वास के साथ उन्होंने यह बात कही, उससे आधी चिंता दूर हो गई।

फिर क्या था, अब हम एक और एक मिलकर ग्यारह हो गए। यह कुशल कारीगर नरेगा श्रमिक के तौर पर रोज सुबह 6:00 बजे से दोपहर 1:00 बजे तक बाँस के टाटे (दीवार) बनाता। उसके बाद हम दोनों बाँस की खोज में निकल जाते। हम मनोहर गढ़ पंचायत के एक-एक घर की दहलीज पर हाथ जोड़कर बैठ जाते और हते, “हम याचक बनकर के आए हैं और दो बाँस लिए बगैर नहीं उठेंगे” हमारे मांगतेपन’ ने असर दिखाया। अधिक्तर आदिवासी ने हमें मना नहीं किया। दिल खोलकर हमारी मदद की। जिस घर या खेत में बाँस की बाड़ दिखती, हम बेसब्रे होकर पहुँच जाते और वहाँ अधिक से अधिक हाथ मारने की कोशिश करतेजंगल में बिखरे हुए बाँस लाने के लिए हमारे पास में कोई ट्रैक्टर नहीं था। चार कोस के एरिये से बाँस घसीट कर लाने के लिए मजदूर लगाने की ताकत भी नहीं थी। अतः इस सनकी ने अपनी मोटरसाइकिल को ट्रैक्टर बना लिया। भँवर भाई बाँस काटकर मोटरसाइकिल के पीछे डंडा लगाकर बांधकर खुद मेरे पीछे बाइक पर उल्टा बैठ जाता। बाँस सड़क पर घसीटते हुए चलते।

खर्र, खर्र, खर्र, खर्र की आवाज से रास्ते में चलते राहगीर, चौपाल पर बैठे गप्पोड़ी, धान कूट की औरतें, गलियों में खेलते बच्चे, भों-भों करते कुत्ते, जुगाली करते मवेशी और कुर्सी पर ऊँगते साहब लोग समझ जाते कि ‘वाड़ा वाला मारसाब की रेल जा रही है।’  वाड़ा वाला मारसाब नाम मेरी पहचान बन गया। आज भी जब मनोहर गढ़ जाता हूँ तो कई ग्रामीण इसी नाम से मुझे संबोधित करते हैं। लंबे-लंबे बाँस कच्ची सड़कों से गुजरते वक्त अपने साथ धूल का एक बड़ा बवंडर लेकर के चलते। गाँव में हमारी एंट्री साउथ की फिल्मों के किसी हीरो से कम नहीं दिखाती थीं। कई बार पथरीले रास्तों, हके (जुते) खेतों, ऊँचे पहाड़ी ढलानों,  बहते पानी से होकर गुजरना पड़ता। जहरीले जानवरों का खतरा अलग से। ऐसे खतरनाक रास्तों से हम दोनों किस तरह से सही सलामत आ गए, इसकी जानकारी आज तक नहीं लगी। चिलचिलाती धूप में भँवर भाई बाँस को इतनी सफाई से काटता कि जैसे बर्थडे केक हो। जब काम की उलझन और लोगों के ताने परेशान करते तो उलझे हुए बाँस के झुंड से बाँस को सुलझाते वक्त सुलझा लेता। स्कूल के एक हॉल में इन बाँसों को रखकर भँवर भाई बाँस के टाटे (दीवार) बुनने लग जाता। महीने भर तक डॉ. साहब का यह भिक्षाटन  चलता रहा। लगभग 232 बाँस से हमारा काम हो गया।

पर क्या हर द्वार पर हमारा आदर सत्कार हुआ? स्वाभाविक है कि इसका उत्तर नहीं में मिलेगा। अक्सर बड़े सेठों के यहाँ से खाली हाथ लौटा। मकनपुर के आगे बाँस का एक पूरा खेत सा है जिसमें हजारों बाँस होंगे। खेत मालिक के यहाँ पर कई बार गया, पर खाली हाथ लौटा अंत में तो दुत्कार मिली। कुछ इसी तरह की दुत्कार प्रतापगढ़ के बड़े भामाशाह से भी मिली। आमली खेड़ा के एक घर में तो अजीब स्थिति का सामना करना पड़ा। घरवाला देने के लिए तैयार था, पर घरवाली विरोध में। घरवाली की बात को नजरअंदाज करके घर वाले ने हमें बाँस काटने की इजाजत दे दी। उसकी गुस्सैल घरवाली लगातार हमें गालियाँ बक रही थी। भँवर भाई को इससे फर्क नहीं पड़ रहा था क्योंकि वह गालियाँ सुन ही नहीं सकता था। और मैं भी कुछ समय के लिए भँवर भाई बन गया। जैसे ही बाँस कटे, घरवाले ने तुरंत गाड़ी पर बंधवा कर हमें रवाना कर दिया। अगले ही क्षण बाँस लेकर हम छूमंतर हो गए। उस औरत की गाली की आवाज काफी देर तक आती रही। इस घटनाक्रम से जीवन विद्या मिली, “ढीठ बनकर रहने में फायदा ही फायदा है।”

पानड़िया और आमली खेड़ा गाँव के बीच एक गाँव है। पूरा गाँव बाँस से भरा हुआ है। कटोरा लेकर वहाँ कई बार गया,  लोगों के सामने गाँव की खूब तारीफ़ की, जान-पहचान भी निकाली, पर सारे पैतरे धराशाही हो गए। खाली कटोरे आना पड़ा। इस जंगल में शिकार करने के लिए अलग आखरी दाव लगाया। गाँव में चल रहे नरेगा कार्य की साइड पर जाकर नरेगाकर्मियों से स्कूल में हो रहे कार्य की महानता समझाते हुए बहुत मार्मिक भाषण दिया। इसका असर होते हुए दिखा। लोग भावनाओं में बहकर दो-दो बाँस की बजाए दस-दस लाने का वादा कर बैठे। अगले दिन जब निर्धारित जगह पर बाँस लेने के लिए पहुँचा तो अकबर-बीरबल की वह कहानी यहाँ चरितार्थ हो गई जिसमें अकबर ने गाँव वालों से तालाब को दूध से भरने के लिए एक लोटा दूध दान में मांगा था।

पानी निकासी और मैदान का समतलीकरण करने वाली टीमों के पास एक नई चुनौती आई तेज बहाव के कारण स्कूल की बिल्डिंग को नुकसान पहुँच सकता है, इसलिए पत्थरों की सख्त जरूरत है। इस समस्या से जब एक अधिकारी को रूबरू करवाया तो उसने कहा कि यह काम सरकार का है। आप तो अपनी तनख्वाह की तारीख़ और उसके मैसेज का ध्यान रखों। उनका कहना अपनी जगह ठीक था। पर मैं निकल गया विकल्प की तलाश में। अगले दिन उतरे हुए मुँह से जब भँवर भाई को झापा लेने गया तो कक्षा 11 के विद्यार्थी सुनील के पिता लक्ष्मण जी मिल गए। उतरे थोबड़े कारण पूँछा तो अपने आँगन में पड़े पत्थर स्कूल के लिए तत्काल दान कर दिए। यह कोई मामूली दान नहीं था, बल्कि पूरी 16 ट्रॉली पत्थर थे। लेबर के तौर पर नरेगा श्रमिक आगे आए जबकि पत्थरों को ढोने का किराया भूगोल व्याख्याता बाबूलाल जी मीणा और वरिष्ठ शिक्षक शिवराज सिंह जी ने दिया।


मनोहरगढ़ प्रयोगशाला में हो रहे इन बदलावों की खबर सोशल मीडिया के माध्यम से मित्रों के पास पहुँच रही थी। एक दिन इसी कार्य से जुड़े वीडियो को अमलावद स्कूल की प्रधानाध्यापिका नीलम कटलाना ने प्रोत्साहन भरी पोस्ट लिखकर वायरल कर दी जिसका परिणाम यह हुआ कि यह कार्य कई अधिकारियों की नजर तक पहुँचता हुआ तत्कालीन जिला कलेक्टर अनुपमा जोरवाल तक गया। इस घटना के दो दिन बाद ही कलेक्टर साहिबा अपने पूरे लाव लश्कर के साथ नरेगा कर्मियों के द्वारा किए जा रहे इस रचनात्मक परिवर्तन को देखने के लिए आ पहुँची। सचिव
साहब महेश जी शर्मा को शाबाशी देने के साथ-साथ विद्यालय ग्राउंड की भावी रूपरेखा से संबंधित जानकारियाँ मांगी।

तो लगभग 3 महीनों की कड़ी मेहनत के बाद हमारा काम खत्म हुआ। वन विभाग वालों ने हर तरह के पौधे रियायती दर में उपलब्ध करवाए। लगभग 180 पौधों के लिए ट्रीगार्ड की व्यवस्था के लिए पीईईओ मनोहरगढ़ के कार्मिकों एवं -एच.डी. साथियों के सामने झोली फैला दी।न्होंने खुले मन से सहायता की। यह राशि करीब 35 हज़ार रूपए रही होगी। पीले बाँस की दीवारों से बना गार्डन पूरे क्षेत्र में अपनी खूबसूरती बिखेर रहा था। बरसात के साथ जब पूरा क्षेत्र हरा भरा हो उठा तब तो उसकी खूबसूरती देखने लायक थी। 6 जनवरी, 2021 को मेरे ट्रांसफर हो गया। साथी कर्मचारी मेरे ट्रांसफर से जुड़ी कागजी कार्रवाई को अंजाम दे रहे थे जबकि मैं गार्डन के चारों ओर तारबंदी करने में लगा था। साथियों ने इसकी रक्षा करने का वचन भी दिया।

पर यह खूबसूरती सदा के लिए रहने वाली नहीं थी। इस सनक के चलते कई बड़ी गलतियाँ मुझसे हो गई जिसके कारण यह प्रयोग पूरा सफल नहीं हो सका। इन सभी चुनौतियों के बारे में डॉ. मनीष रंजन ने पहले ही इशारा कर दिया था। पर मैं तो अपनी ही धुन में था। पहली गलती तो यही थी कि पौधे काफी ज्यादा मात्रा में लगा दिए थे जिनको पालना एक गंभीर चुनौती बन गई। दूसरी गलती विद्यालय बाउंड्री के आसपास हमने ज्यादा पौधे लगाए थे, उनकी देखभाल के लिए समर्पित और कड़ी मेहनत वाली टीम आवश्यकता थी जो हर वक्त उपलब्ध नहीं हो पाई। तीसरी गलती स्कूल की बाउंड्री के बिना बाहरी लोगों की घुसपैठ लगातार बनी रही जो आवारा पशुओं को लाकर विद्यालय गार्डन और मैदान को नुकसान पहुँचाते रहे। चौथी और सबसे भारी गलती हमसे यह हुई कि बिना सिंचाई की व्यवस्था किए हमने गार्डन लगा दिया। पानी के अभाव में पौधे सूखने लगे। पानी पिलाने के लिए समर्पित विद्यार्थियों की एक टीम हमेशा तैयार रखनी पड़ती थी। 10 बीघा क्षेत्र में फैले इन पौधों तक पानी पिलाने के कई तरह के जुगाड़ किए। दिसंबर, 2020 में जाकर बोरवेल लग पाया। पर उसमें भी पानी की कमी और कई तकनीकी खराबी के चलते काम सुचारू ढंग से नहीं हो पाया। पांचवी गलती यह हुई कि बाँस के जो टाटे हमने बनवाए थे, उन पर कलर नहीं करवाया जिसके कारण एक मौसम की बरसात ने ही उन्हें खराब कर दिया। रही सही कसर आवारा भेड़-बकरियों ने जगह-जगह तोड़फोड़ करके पूरी कर दी।


इन सभी परेशानियों के बावजूद विद्यालय प्रभारी बाबूलाल जी मीणा
, मोहनलाल जी मीणा, शिवराज सिंह जी, दिनेश जी पंचोली, सत्यपाल जी और यशोवर्धन जी शर्मा इस गार्डन को बचाने का असफल प्रयास करते रहे। मनोहरगढ़ प्रयोगशाला में मेरे ट्रांसफर से पूर्व 4 पदों की कमी थी जो शीघ्र ही 9 तक पहुँच गई। 700 विद्यार्थियों और 12 कक्षाओं के स्कूल में कुल 10 अध्यापक आखिर किस तरह से मेरी सनक को बरकरार रख पाते? वर्क लोड इतना हो गया कि इतने बड़े वृक्षारोपण और उद्यान की तरफ आप पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाए। रही सही कसर तथाकथित विकास ने पूरी कर दी। सीमेंट के ब्लॉक से पूरे विद्यालय उद्यान को दबा दिया गया।

इन सबके बीच साथियों ने मेरे विद्यालय उद्यान के सपने को जिंदा रखने के लिए एक नई जगह पर नया उद्यान बनाया और उसी के पास सरपंच साहब गोमाराम जी ने बोरवेल लगवा कर सोलर प्लांट भी वहाँ पर बनवा दिया। जिसका परिणाम हुआ कि अब नया गार्डन आकार ले रहा है। विद्यालय बिल्डिंग के पास जो पौधे लगाए थे, उनकी अच्छी सार संभाल की बदौलत आज पेड़ का आकार ले रहे हैं।

र्यावरण विषय पढ़ने पढ़ाने की प्रक्रिया में नहीं के बराबर शामिल है। वैसे भी पर्यावरण के मुद्दे पर हमारे देश में बहस बंद कमरों तक सीमित है। देश और दुनिया को केवल विकास चाहिए। उनके लिए विकास का मतलब हजारों पेड़ों को काटकर वहाँ पर कंक्रीट का जंगल बनाना। फॉर्मेलिटी के तौर पर लगाए जाने वाले पौधों की सुरक्षा हेतु करोड़ों का बजट बेहतर मॉनिटरिंग के अभाव मेंन जाने कहाँ चला जाता है इसका पता आज तक नहीं लगा। पर्यावरण के लिए आवंटित समय अक्सर गणित, अंग्रेजी, विज्ञान के दौहरान में खप जाता है। यही स्थिति स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा विषय और पुस्तकालय के लिए आवंटित समय के संदर्भ में कही जा सकती है। तब विद्यार्थी विद्यालय के प्रति प्रेम और सह शैक्षणिक गतिविधियों में अपनी भूमिका निभा पाएँगे? पर्यावरण संरक्षण का हवाला देकर नारे लगाने वाले, फोटो खिंचवाने वाले, बड़े-बड़े इनाम पाने वाले और सरकारी ग्रांट पाने वाले कईअसली पर्यावरण प्रेमी मिल जाएँगे, पर इन सब से दूर कुछ ऐसे सनकी भी होते हैं जो अपने काम में लगे हैं, चुपचाप।

डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर
व्याख्याता, हिंदी साहित्य, रा. . मा. वि. आलमास, ब्लॉक मांडल, जिला भीलवाड़ा
dayerkgn@gmail,com, 9887843273

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-45, अक्टूबर-दिसम्बर 2022 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : कमल कुमार मीणा (अलवर)

8 टिप्पणियाँ

  1. विकट परिस्थितियों में भी आपने असंभव को संभव कर विद्यालय में हरियाली आच्छादित की जो काबिले तारीफ है।

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    1. कोरोना महामारी संकट के दौरान वंचित वर्ग का आपने जो सहयोग किया है काबिले तारीफ है।

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  2. विद्यालय में किए गए प्रयोग काबिले तारीफ है और वर्तमान में आप जिस विद्यालय में कार्यरत है वहां पर भी आप इसी तरह प्रयोगशाला का प्रयोग कर उस विद्यालय को भी हरियाली पूर्वक /हरा भरा करेंगे ऐसी मुझे उम्मीद है और जहां तक आपके द्वारा जो आर्टिकल लिखा गया है तो मेरी यह टिप्पणी है कि आप इसे सरल भाषा में आम आदमी की समझ में आए ऐसा लिखने का प्रयास करें

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  3. शुक्रिया आपका जो इतने बढ़िया अनुभव से रूबरू करवाया। ऐसे नए-नए काम समाज को तरक्की की ओर ले जाते हैं। आदिवासी दूरदराज के एरिया में ऐसा काम करना आपका इनसे दिली रिश्ता स्पष्ट करता है।

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  4. Aise teacher bhi Hote Hain yah Aaj Pata Chala. Baki to hamesha Yahi sunane Ko Milta Hai Ki Adhyapak kamchor Hote Hain. Aapke prayog Jari Rahe Aisi Prathna Karte Hain.

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  5. आपने बड़े ही सरल ,सहज,सुलझी भाषा में और वो भी बड़े मज़े मज़े में बहुत ही गंभीर बिफर पर अपना संस्मरण प्रस्तुत किया। दरअसल सरकारी हो या गैरसरकारी किसी मानव हित के काम को करने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आपके प्रयासों को कोटी कोटी प्रणाम।

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  6. आपको सलाम🙏 सच मे पूरा पढ़ने के बाद आपकी मेहनत को भी सलाम🙏और इतनी मेहनत करने के बावजूद बगीचे के उजड़ जाने का इतिहास बहुत मार्मिक हैं। उजड़ने के कारण पशुओं को तो आपने आवारा कह दिया परन्तु उनको क्या कहेंगे ? जो सभ्य होने का चौला ओढ़े विकास के वशीभूत होकर ब्लॉक लगाने की सनक ने पौधों को धूल धूसरित कर दिया। हालांकि आपने बगीचे के उजड़ने भिन्न -भिन्न कारण बताए हैं और वे भी कारण तो है ही।

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  7. हौंसला और हुनर दोनों ही हमने हुसैन सर से सीखे हैं।
    बदलाव के बाशिदों में हुसैन सर शीर्ष-ए-काबिल हैं ।
    डॉ.के आर मेघवाल (उदयपुर-राजस्थान)

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