शोध आलेख : आत्मकथा बनाम आत्मगान का महाआख्यान – एक विश्लेषण / सूरज प्रकाश बडत्या

आत्मकथा बनाम आत्मगान का महाआख्यान एक विश्लेषण 

सूरज प्रकाश बडत्या


शोध-सार : शोधालेख में भारतीय समाज की जातिव्यवस्था का विश्लेषण है।  इसके अंतर्गत  हिंदी साहित्य और दलित साहित्य को जांचा परखा है। दलित आत्मकथा एवं  उसमें भी विशेषकर ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा `जूठन` का विश्लेषण है।  दलित साहित्य का विश्लेषण करते हुए  डॉ. आंबेडकर के विचारों को इस शोधालेख का आधार बनाया  है।  

बीज शब्दभारतीय समाज , जाति व्यवस्था , हिंदी साहित्य , दलित साहित्य , दलित आत्मकथा , जूठन , ओमप्रकाश वाल्मीकि  , आंबेडकर , इतिहास - दर्शन।  

मूल आलेखआत्मकथा इंसानी जीवन का समाज के साथ भोगा हुआ एक वास्तविक दस्तावेज़ है। जिसमें अतीत भी है, वर्तमान भी है और उसमें कुछेक  भविष्य के सपने भी अंतर्गुथित  होते हैं। अतीत की स्मृतियां  हर इंसान में  ज़िंदा होती हैं जो गर्म रक्त  से शब्दों के साथ में अभिव्यक्त होती हैं।  कहीं सुकूनदायक तो कहीं पीड़ा –दुखः  के दरिया की तरह बहती  रहती हैं।  आत्मकथा में इंसान कुछ खुद के बोये काँटों और फलों का प्रदाता  होता है तो कुछ समाज द्वारा किये गए व्यवहार का भोक्ता। इसलिए आत्मकथा लेखन बेहद मुश्किल, तकलीफदेह  और गहरा संवेदनात्मक कार्य है। अपने अच्छे-बुरे, मानवीय-अमानवीय भोगे हुए यथार्थ को फिर से जीना और उसे जीते हुए शब्दों में उतारने  का दुस्साहस भरा कार्य करना सच में बेहद मुश्किल।  हांफते हुए तकलीफदेह स्मृतियों  को फिर से उघाड़ना , खुली आँखों से उनसे संवाद करना  बेहद  कष्टप्रद है। कितनी बार आत्मकथा लिखते हुए उस तड़फ, बेचैनी और अमानवीयता की बदरंगता से रूबरू होना पड़ता है जिससे हम हमेशा के लिए पिंड छुडाकर अपने वर्तमान में सुकून के समंदर में गोते लगा रहे होते हैं। कितनी बार उन रिश्तों और अपनों के बदरंग चेहरे को फिर से देखना होता है। आत्मीय दोस्त-रिश्तों  के चेहरे को जातिवादी कसाईयों के चेहरे में बदलते हुए देखते जाना।  कितने यातनाओं के समंदर से गुजरकर यह लिखना संभव  हो पाता होगा यह सोचना भी भयावह है।

आत्मकथा लिखने के लिए जिस 'साहस' 'तटस्थता' और 'बेबाक अभिव्यक्ति कौशल' की आवश्यकता होती है वह भारतीयों द्वारा लिखी गयी आत्मकथाओं में बहुत ही कम देखने को मिलती है।  भारतीयों द्वारा लिखी आत्मकथाओं में वास्तविकता या तो अतिरंजित रूप में आयी है या फिर लुकी-छिपी ढंग से प्रस्तुत हुई है। इस अर्थ में वे आत्मकथा कम व्यक्तिगत  ब्यौरों की गौरवमयी आत्मिक  प्रस्तुति अधिक मालूम पड़ती है। फिर भारतीय सन्दर्भ में देखें तो उनमें जातिगत शोषण और पितृसत्ता के नखदंतों का अमानवीय रूप किसी भी तथाकथित सवर्ण भारतीय लेखक द्वारा लिखी आत्मकथा में देखने को अब तक नहीं आया है। इसके विपरीत वहां ऐय्याश मर्दानगी की चीथड़े लपेटी संवेदना की गर्वोक्त अभिव्यक्ति है या फिर जाति दंभ में नहायी लिजलिजी शब्दों की तथाकथित प्रगतिवादी अभिव्यक्ति  प्रायः  दिखायी देती है। इस तरह अधिकांश  सवर्ण भारतीय आत्मकथाएं वास्तविकता के बदरंग आईने को अभिव्यक्त करने से मुंह चुराती रही हैं। आत्मकथा का मतलब स्मृतियों में अपने संग अपना और समाज का विश्लेषण भी होता है। अगर आत्मकथा लेखक विश्लेषण न भी करे लेकिन स्मृतियों को वास्तविक  रूप में लिख भी  दे तो वह भी समाज के बदरंग और हसीन चेहरे को सामने लाने में एक सार्थक भूमिका निभा सकता है। लेकिन सामान्यतः  भारतीय सवर्ण आत्मकथाओं में यह  देखने में अभी तक नहीं आ पाया। इसलिए इन आत्मकथाओं को आत्मगान या आत्मगान का महाआख्यान कहना अधिक समीचीन जान पड़ता है।  

दलित-आदिवासी समुदाय द्वारा लिखी आत्मकथाएं ही सही मायनों में आत्मकथा की कसौटी पर खरी उतरती दिखती हैं। दलित आत्मकथाओं ने ही भारतीय समाज के जातिवादी चरित्र का सांस्कृतिक- सामाजिक और ऐतिहासिक विश्लेषण कर के ना केवल भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की संभावनाओं को जीवित  रखा बल्कि भारतीय समाज के नए सामाजिक विमर्श की पूर्वपीठिका भी तैयार की।    दलित आत्मकथाओं ने भारतीय मनुष्य के मानसिक गठन की भीतरी तहों में  मौजूद जातिवादी मूल्यों का विश्लेषण किया जिसका विश्लेषण भारतीय मनोविश्लेषणवादी चिन्तक भी नहीं कर पाए थे।

दलित आत्मकथाओं ने भारतीय दर्शन की उन तथाकथित महान्  ब्राह्मणवादी परम्पराओं को कठघरे में खड़ा कर दिया जो यह मानते थे कि भारतीय संस्कृति दुनिया में सबसे प्राचीन एवं महान् संस्कृति है।  इन तथाकथित महान्संस्कृति के वारिसो ने खुद से ही खुद को विश्वगुरु का दर्जा भी दे दिया। दलित आत्मकथाओं ने भारतीय समाज की असलियतों को, इनके वारिसों की अन्याय भरी करतूतों को, जातिवादी महत्ताओं  को और धार्मिक शोषण की साजिशों को आत्मकथाओं द्वारा पूरी दुनिया के सामने बेनकाब  किया है। 

दलित आत्मकथाओं ने पूरी दुनिया को यह बताया कि भारतीय समाज में दलित की हैसियत किसी जानवर से भी बदतर है। कहने को भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन इसी लोकतंत्र के भीतरी पन्नो में गुलामयुग, सामंतयुग और पूंजीवादी  युग एक गठजोड़ कायम किये हुए है। जिनको जब सुविधा होती है वह दलित समुदायों पर अपने पसंददीदा  युग की बर्बरताओं द्वारा यातनाएं तय करता है। कभी उन्हें गुलाम समझकर उनके घरों में आग लगा देता है। कभी दलित महिलाओं से बलात्कार करता है तो कभी उदार अन्याय की अवधारणा को प्रस्तुत करता हुआ दलित बच्चों से स्कूल में झाडू लगवाता है। इस तरह भारतीय लोकतंत्र दलित समुदाय को न न्याय दिला पाया न आजादी दे पाया और ना ही मुक्ति का एहसास होने दिया। इंसानी वजूद के रूप में दलित की पहचान  तो बहुत दूर की कौडी मालूम होती है। अपनी आत्मकथा ‘मैं भंगी हूँ’ में भगवान दास कहते हैं  कि –

“मैं सुधार नहीं चाहता, क्रांति चाहता हूँ। सुधार से मेरी गुलामी ख़त्म नहीं हो सकती। मेरा कल्याण केवल सम्पूर्ण स्वतंत्रता,      स्वराज्य और क्रांति से ही हो सकता है – मेरा नाम सबकी सेवा करना, और अपने को मिट्टी  में मिलाना नहीं, अब मेरा नाम विद्रोह है, क्रांति है, स्वतंत्रता है, स्वराज्य है। मेरा उद्देश्य पुराने को तोड़कर नया बनाना है – मैं जीना चाहता हूँ और सम्मान से जीना चाहता हूँ, परन्तु नीच अछूत बनकर नहीं, महार और मांग  बनकर नहीं, धानुक या डोम बनकर नहीं, चूहड़ा और चमार बनकर नहीं बल्कि एक अच्छा इन्सान बनकर जीना चाहता हूँ।” 1

दलित आत्मकथाओं के संदर्भ में हरपाल सिंह अरुष कहते हैं  कि-

“जिनके सामने शिक्षा, स्वास्थ्य रोजगार और आर्थिक प्रगति के प्रश्नों से पहले मानवीय गरिमा के साथ जीने का प्रश्न प्रमुख है, जिनके सामने बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के दोहन स्वरूप जमीन, जंगल और मकान से उखड़ जाने का दुर्भाग्य राक्षस की तरह मुँह बायें  खड़ा है, जिनको अपने मूल स्थानों से विस्थापन झेलने की लाचारी से दो-चार होना पड़ रहा है, जिनको महानगरों की झुग्गी झोंपडियों में नारकीय जीवन जीने की तिक्तता झेलनी पड़ रही है, जिनको पर्यावरण-क्षरण और प्रदूषण की मार झेलती जिंदगी को जीवन मानने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, वे अपनी व्यथा-कथा को यदि व्यक्त करना चाहते हैं, तो उन्हें साहित्य की किसी ऐसी विधा की दरकार तो होगी ही जो उनके अनुभवों और सोचों को पूरी शिद्दत के साथ सामने ला सके। दलितों के जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्ति देने के लिए, सामाजिक आर्थिक विद्रूपताओं और असंगतियों झेलने वाले की भीतरी कशमकश को सामने लाने की आवश्यकता को जो विश्वसनीयता से वहां कर सके। किसी विधा की आवश्यकता दलित साहित्यकारों को महसूस की ही जानी चाहिए। व्यष्टिगत देखते, अनुभव करते केन्द्रीय पात्र के लिए आत्मकथा लिखने से बढ़कर और कोई उपाय नहीं हो सकता।” 2

दलित आत्मकथाएं कारुणिक और यातनामय दलितों के जीवनानुभवों का एक ज्वलंत दस्तावेज है, जिसमें यातनाओं का ऐसा उफनता हुआ समंदर है जो कि ज्वालामुखी बनकर फट पड़ा है और यह भारत की सभी भाषाओं के साहित्य में हुआ हैं। भारत के सभी प्रदेशों में यातना की प्रकृति, तथाकथित महान्संस्कृति के वारिसो की आततायी प्रवृत्ति,  धर्म की साजिशें, बलात्कार, बस्ती दहन और गांव शहरों से बेदखली सा अमानवीय व्यवहार सभी भारतीय प्रदेशों में दलितों द्वारा लिखी आत्मकथाओं एक जैसा ही है, और आज भी यह बदस्तूर ज़ारी है। इसीलिए दलित आत्मकथाओं में हमें बर्बर भारतीय समाज के जीवनानुभव दिखायी देते हैं तो सवर्ण आत्मकथाओं में जीवन की ऐय्याशियों का आत्मगौरवकारी  अभिमान। दोनों तरह के अनुभव इन आत्मकथाओं में  हमारे सामने मौजूद है। चयन हमें करना है। मूल्यांकन में हमारा न्यायविवेक हमारे साथ है या होना चाहिए। 

जूठन से निकलता एक आग का दरिया –

हिंदी की ही नहीं बल्कि भारत की  सभी भाषा में लिखी गई दलित आत्मकथाओं में भारतीय जातिवादी मानसिकता की ही अभिव्यक्ति हुई है। इस संबंध में हिंदी के प्रमुख कथाकार कमलेश्वर का कहना है कि –

“आज का लेखक भाषा को अपनी मज़बूरी मान सकता है, पर चिन्तन को अपनी भाषा तक सीमित रखने के लिए सहमत नहीं, इसीलिए कोई भी रचना, जो अपनी भाषा में लिखी जाती है, वैचारिक स्तर पर अपनी भाषा की नहीं रह जाती, बल्कि भारतीय सोच की विस्तृत दिशाएँ उजागर करती हैं। इसीलिए लेखकों के आत्मकथ्य भी किसी प्रदेश या भाषा की मानसिकता का नहीं, बल्कि भारतीय मानसिकता का रचनात्मक और संघर्षपूर्ण विवरण पेश करते हैं।” 3

हिंदी की आत्मकथाओं में हालांकि मोहनदास नैमिशराय कि आत्मकथा ‘अपने अपने पिंजरे’ ‘जूठन’ से पहले प्रकाशित हो गई थी लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा लिखित 'जूठन' आत्मकथा के कुछ हिस्से 'अपने अपने पिंजरे' से पहले प्रकाशित होकर खूब चर्चित हुए। इसलिए इसे ही हिंदी की प्रथम आत्मकथा विद्वान मान लेते हैं। हालांकि अभी इस पर अलग-अलग मत कायम हैं।  नए –नए शोध भी सामने आ रहे हैं। इस विवाद को हम  दरकिनार कर ‘जूठन’ आत्मकथा पर अपनी बात  केंद्रित  करते हैं।

ओमप्रकाश वाल्मीकि ने जूठन की भूमिका में लिखा है  – 

`‘कई मित्र हैरान थे, अभी से आत्मकथा लिख रहे हो? उनसे मेरा निवेदन है – उपलब्धियों  के तराजू पर अगर मेरी इस व्यथा-कथा  को रख कर तौलोगे  तो हाथ कुछ नहीं लगेगा। एक मित्र की यह भी सलाह थी कि मैं आत्मकथा लिखकर अपने अनुभवों का मूलधन खा रहा हूँ। कुछ का यह भी कहना था कि खुद को नंगा कर के आप अपने समाज की हीनता को ही बढाययेंगे। एक बेहद आत्मीय मित्र को भय सता रहा है उन्होंने लिखा – आत्मकथा लिखकर आप अपनी प्रतिष्ठिता ही ना खो दें `’ 4

हालांकि दलित आत्मकथा लेखन मराठी दलित साहित्यिक आन्दोलन की देन था। वहां जो विवाद था कि दलित रचनाकार अपनी आत्मकथाएं  क्यों लिख  रहे हैं  ? यह विवाद हिंदी में भी आ गया और इस  विवाद में दलित गैर-दलित बुद्धिजीवी अपना-अपना मत प्रगट करने लगे। हिंदी में समय - समय पर अपना विवादस्पद बयान देने वाले माननीय सोहनपाल सुमनाक्षर का कहना था कि-

“दया पवार कृत ‘बलूत’ की तर्ज पर बहुत लोग आत्मकथा लिखने की कोशिश कर रहे हैं। परन्तु उनमें वह वास्तविकता कहाँ है? ... हिंदी में जिस तरह से दलित लेखक आत्मकथा लिखने की होड़ मचा रहे हैं  वह नक़ल मारते हैं। अपने आप को उपहास बनाने की बात है। क्यों लोग हिंदी में मराठी की नक़ल पर दलित साहित्य का विकास करना चाह रहे हैं।” 5

सोहनपाल सुमनाक्षर एवं ओमप्रकाश वाल्मीकि के मित्रों द्वारा की गई टिप्पणियों से सहमत नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि दलित आत्मकथा केवल किसी एक दलित के निजी दुखः-सुख , संघर्ष-प्रतिरोध के  अनुभव को अभिव्यक्त नहीं करती। वह अपनी प्रकृति में कई तरह के सवालों को उठती है और इतिहास, धर्म, संस्कृति के अन्यायी पक्षों का विश्लेषण करती है जिनके साये  में दलित समुदाय अन्याय सहता रहा है। दलित आत्मकथा कोई व्यक्तिगत भोगे गए जीवन का ब्यौरा नहीं बल्कि वह दलित समाज द्वारा भोगे गए अभिशप्त जीवन और कारुणिक अनुभवों का शब्दबद्ध  सामुदायिक दस्तावेज है।

एक बात और है जिसे में यहाँ ज़ोर  देकर कहना चाहता हूँ कि  हिंदी की दलित आत्मकथाएँ मराठी दलित आत्मकथाओं की नक़ल मात्र नहीं है बल्कि यह उनसे भिन्न तरह के मानसिक गठन और परिवेशजन्य अनुभव से लिखी जिंदा अनुभवों की जीवंत कहानियाँ हैं। हिन्दी की ये आत्मकथाएं  दलित अनुभवों के बहुतेरे एवं सजीव बिंब  हमारे सामने प्रस्तुत करती  हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा में  ऐसे  बिंब देखें जाने चाहिए जो  दुर्लभ एवं कारुणिक हैं। क्या किसी सवर्ण आत्मकथा में ये बिंब आ सके ? -

“जोहड़ी के किनारे पर चूहड़ो के मकान थे, जिनके पीछे गांव भर की औरतें, जवान लड़कियां , बड़ी-बूढी यहां तक कि नई नवेली दुल्हनें भी इसी डब्बेवाली के किनारे खुले में टट्टी-फरागत के लिए बैठ जाती थीं। रात के अँधेरे में ही नहीं, दिन के उजाले में भी पर्दों में रहने वाली त्यागी महिलाएं, घूँघट काढ़े, दुशाले ओढ़े इस सार्वजनिक खुले शौचालय में निवृत्ति पाती थीं। तमाम शर्म-लिहाज छोड़कर वे ड़ब्बेवाली के किनारे गोपनीय जिस्म उघाड़ कर बैठे जाती थीं।... चारों तरफ गंदगी भरी होती थी। ऐसी दुर्गंध की मिनट भर में घूमते सूअर, नंग-धडंग बच्चे, कुत्ते, रोजमर्रा के झगड़े बस यह था वह वातावरण जिसमें बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण-व्यवस्था को आदर्श कहने वालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाएगी।” 6

सूरज बडत्या ने अपनी पुस्तक 'सत्ता संस्कृति एवं दलित सौंदर्यशास्त्र' में  इन आत्मकथाओं का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट रूप से ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन  एवं अन्य दलित-आदिवासी आत्मकथाओं में आए इन दृश्य बिंबों का  विश्लेषण  करते हुए लिखा है -

“यह एक प्रकार का इंसानों के रहने की जगह का  दृश्य बिंब है, जिसमें ओमप्रकाश वाल्मीकि और उनके जैसे अन्य दलित परिवार रहने को अभिशप्त हैं। दृश्य बिंब में आयी जीवन स्थिति का चुनाव उन्होंने या उनके पूर्वजों ने स्वयं नहीं किया बल्कि वह उन्हें सवर्ण समाज द्वारा मुहैय्या कराया गया है। इसी तरह का एक अन्य बिम्ब है आदिवासी लेखक लक्ष्मण गायकवाड द्वारा लिखित ‘उचक्का’ आत्मकथा का। यह एक मराठी आत्मकथा है। इस मराठी आत्मकथा में आयी जीवन स्थितियों को भी एक बार देख लिया जाए – 

‘हमारा घर बहुत ही छोटा था। एक ही छप्पर के नीचे बकरियां भी बांधी जाती और आदमी-औरतें भी सोते। मैं और हरचंदा बकरियों  के पास ही सोते। जाड़े के दिनों में तो बहुत परेशानी होती। बकरियां रात में पेशाब करतीं। बकरियों की वह गरम पेशाब जाड़े की उस ठण्ड में सुखद लगती। जाड़े से परेशान मैं सोचता कि बकरियां लगातार गरम पेशाब करती रहें, ताकि ठंड न लगे।’` 7

यह दूसरी तरह का दृश्य बिम्ब है जहां स्थिति पहले से थोड़ी भिन्न  है लेकिन लगभग वैसा ही दारुण जीवन परिवेश  है। भारतीय समाज में तथाकथित सवर्ण जाति के बच्चों को उंची तालीम दिलाकर डाक्टर-इंजीनियर बनाने की  'भविष्य तैयारी'  कराई जाती है। उसे बचपन से ही अनुकूल माहौल उपलब्ध कराया जाता है। लेकिन दलित बच्चों को सूअर-बकरा काटने की , उन्हें  पालने-पकड़ने की , मरे जानवरों की खाल उतारने की ट्रेनिंग दी जाती है। ऐसे होती है दलित बच्चों के 'भविष्य जीवन' की भविष्य तैयारी। गौरतलब यहाँ यह भी  है कि प्रगतिवादियों और प्रतिक्रियावादियों के लेखन में  भारतीय समाज का यह  सच अनदेखा-अनचिन्हा  कैसे रह गया ? इन सवालों पर विचार किया जाना चाहिए। 

दलित साहित्य का फलक हिंदी के साहित्यिक फलक से एकदम भिन्न प्रकार का है। ऐसे बिंब जो भारतीय साहित्य में ही नहीं बल्कि दुनिया के अन्य समाज में भी देखने को नहीं मिलेगा। वे बिंब  दलित साहित्य का आधार बने हैं। दलित आत्मकथाओं में आए दृश्य बिंब न केवल रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं बल्कि उस जीवन स्थिति से साहित्य संसार के लोगों को  रूबरू  भी कराते हैं। ऐसे लोग  जो मानते हैं कि  साहित्य का कार्य केवल मनुष्य को संस्कारित करना ही  है। पढ़ने में भले ही यह वीभस्त लगे लेकिन किया क्या जा सकता है भारतीय समाज का यह भी  वास्तविक क्रूर चेहरा है। दलित इसी परिवेश में पला बढ़ा है। यह उसकी वास्तविकता है। उसके भोगे हुए जीवन का सच है।

आगे देखने पर जूठन आत्मकथा में ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा भोगे गए अमानवीय जुल्म की दास्तानों के गहरे बिंब मौजूद है। इन्हें साहित्यिक दृष्टि से आप केवल बिम्ब समझने की गलती मत कीजिये। इन्हें  पढ़कर आप निकल जाइए भारत की किसी भी दलित बस्ती की तरफ। वहां आपको हज़ारों जूठन सी दास्तानें मिलेंगी जो आपकी कलम के इंतज़ार में होंगी कि कोई आये और ज़ुल्मों की इन दास्तानों को दर्ज करे। एक अन्य  बिम्ब है जिसमें  ओमप्रकाश वाल्मीकि स्कूल में पढ़ने जाते  हैं  तो मास्टर कलीराम उनसे  पूछता है –

“’क्या नाम है बे तेरा?’ ‘ओमप्रकाश’ मैंने डरते डरते धीमे स्वर में अपना नाम बताया। हेडमास्टर को देखते ही बच्चे सहम जाते थे। पूरे स्कूल में उनकी दहशत थी। ‘चूहड़े का है?’ हेडमास्टर का दूसरा सवाल उछला। ‘जी’, ‘ठीक है ... यह जो सामने शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा और टहनियाँ तोड़के झाड़ू बना ले। पत्तों वाली झाड़ू बनाना  और पूरे स्कूल को ऐसा चमका दे जैसा सीसा। तेरा तो ये खानदानी काम है। जा... फ़टाफ़ट लग जा काम पे।’ (दो दिन बिना कक्षा में बैठे, झाड़ू लगाने के बाद) तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, ‘अबे, ओ चूहड़े के, ....... कहाँ घुस गया... अपनी ........।’ उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर कांपने लगा था। एक त्यागी लड़के ने चिल्लाकर कहा, ‘मास्साब, वो बैठा है कोने में।’ हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उँगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, ‘जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू... नहीं तो ....... में मिर्ची डालके स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूँगा।”8

इन पंक्तियों को पढ़ते हुए क्या ऐसा नहीं लगता कि दलित बच्चो को बचपन से ही शिक्षण संस्थानों से बाहर रखने का महाआख्यान  रच दिया गया हो।  क्या मनुस्मृति का लेखन महज इत्तेफाक माना जाएगा जिससे भारतीय समाज संचालित होता रहा है ? क्या हमारे महान्दर्शन-ग्रंथ यूं ही रचे गए हैं ? विचार किया जाना चाहिए।  

दलितों को  कभी सब के सामने ज़लील किया जाता है तो कभी उन्हें पढ़ाने के बजाय झाड़ू लगवाई जाती है। शिक्षण संस्थान जहां बच्चों में आत्मविश्वास की नींव डाली जाती है। भविष्य के स्वप्न को पलकों में आकार लेना सिखाया जाता है।  मनुष्य होने का पाठ पढ़ाते हुए जिम्मेदार नागरिक बनाने की ट्रेनिंग दी  जाती है। लेकिन वहाँ  होता ठीक इसके विपरीत है।  दलित बच्चों को सार्वजनिक रूप  से अपमानित करके उनके आत्मविश्वास को लहुलुहान किया जाता है। आज हमारे सामने ऐसे बहुत से शोध आ चुके हैं  जिनसे पता चलता है कि लगभग अस्सी प्रतिशत से भी ज्यादा दलित समुदाय के बच्चे 8वी क्लास तक पढ़ाई छोड़ देते हैं  और पारंपरिक - पुश्तैनी धंधे में रम जाते हैं या उन्हें ऐसा करने के लिए विवश किया जाता है। इसका क्या कारण है ? शोध बताते  हैं  कि दलित बच्चों के साथ अन्य जातियों के बच्चों द्वारा जाति आधारित दुर्व्यवहार होता है। पढाई कराने वाले मास्टर भी दलित बच्चों को पढ़ाने  के बजाय उनसे सफाई का या कोई अन्य काम कराते  हैं। फिर दलित बच्चों के लिए स्कूल में ऐसा माहौल बनाया जाता है कि वह स्कूल आना बंद कर दें। ऐसी कुछ  भयावह जीवंत तस्वीरें  ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा जूठन में दर्ज  है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के पिता हेडमास्टर के जातिवादी व्यवहार की बात गाँव के अन्य लोगों को बताते  हैं  तो तथाकथित सवर्ण जाति के लोगों  की प्रतिक्रिया को यहाँ  देखिए-समझिए और हो सके तो इन पर  विचार कीजिए - 

“पिताजी को विश्वास था, गाँव के त्यागी, मास्टर कलीराम की इस हरकत पर उसे शर्मिंदा करेंगे। लेकिन हुआ ठीक उल्टा। जिसका दरवाजा खटखटाया, यही उत्तर मिला, ‘क्या करोगे स्कूल भेज के’ या ‘कौवा बी कबी हँस बण सके’, ‘तुम अनपढ़ गँवार लोग क्या जाणों, विद्या ऐसे हासिल ना होती।’ या फिर ‘झाड़ू ही तो लगवाई है, द्रौणाचार्य की तरियों गुरु दक्षिणा में अँगूठा तो नहीं माँगा’ आदि।” 9

भारतीय समाज में दलित समुदाय के बच्चे पढ़ते समय बातों  को अपने ढंग से समझने की कोशिश करते हैं, तो स्कूल के मास्टरों का रवैया उनके लिए बेहद खराब होता है। इसे जूठन  आत्मकथा में आए एक किस्से  के माध्यम से  समझा जा सकता है-

“एक बार स्कूल में मास्टर साहब द्रोणाचार्य का पाठ पढ़ा रहे थे। मास्टर साहब ने लगभग रुआँसा होकर बताया कि द्रौणाचार्य ने भूख से तड़फते हुए अश्वत्थामा को आटा पानी में घोलकर पिलाया था, दूध की जगह। द्रोण की गरीबी का दारुण किस्सा  सुनकर पूरी कक्षा हाय-हाय कर उठी थी। यह प्रसंग द्रोण की गरीबी को दर्शाने के लिए महाभारतकार व्यास ने रचा था।

मैंने खड़े  होकर मास्टर साहब से एक सवाल पूछ लेने की धृष्टता की थी। अश्वत्थामा को तो दूध की जगह आटे का घोल पिलाया गया और हमें चावल का माँड। फिर किसी भी महाकाव्य में हमारा जिक्र क्यों नहीं आया?’ किसी भी महाकवि ने हमारे जीवन पर एक भी शब्द क्यों नहीं लिखा ? समूची कक्षा मेरा मुँह देखने लगी थी। जैसे मैंने कोई निरर्थक प्रश्न उठा दिया हो। मास्टर साहब चीख उठे थे, ‘घोर कलियुग आ गया है ... जो एक अछूत जबान-जोरी कर रहा है।’ उस मास्टर ने मुझे मुर्गा बना दिया था। पढ़ाना छोड़कर बार-बार मेरे चूहड़ा होने का उल्लेख कर रहा था। उसने शीशम की एक लम्बी सी छड़ी किसी लड़के को लाने का आदेश दिया था।’

       ‘चूहड़े के, तू द्रौणाचार्य से अपनी बराबरी करे है... ले तेरे ऊपर मैं महाकाव्य लिखूँगा....’ उसने मेरी पीठ पर सटाक-सटाक छड़ी से     महाकाव्य रच दिया था। वह महाकाव्य आज भी मेरी पीठ पर अंकित है। भूख और असहाय जीवन के घृणित क्षणों में सामन्ती सोच यह महाकाव्य मेरी पीठ पर ही नहीं, मेरे मस्तिष्क के रेशे-रेशे पर अंकित है।”10

भारतीय समाज का ढांचा पूरी तरह से एक जातिवादी, पितृसत्तात्मक  और धार्मिक ग्रंथो से संचालित हैं। बिना जातिव्यवस्था को निभाये यहाँ पर न तो किसी कार्य का प्रारंभ होता है और न ही अंत। भारत के सभी उत्सवों में भी जाति व्यवस्था की गहरी पैठ बनी हुई है। दलित समाज के भीतर भी अब जाति व्यवस्था का क्रूर चेहरा दिखाई देता है। यह 'अनटचेबल विद इन अनटचेबल' वाला मसला है। एक अछूत अपने भीतर भी अपने से छोटे अछूत को बना लेने की चाहत पाले रहता है यह बेहद खराब स्थिति है। एक बीमार समाज अपनी भविष्य पीढ़ी को भी बीमार कर रहा है जिसका उसे एहसास तक नहीं है।  कहाँ तो बाबा साहेब अम्बेडकर ने समस्त दलित-वंचित जातियों-जमातों के बीच एकता की बात की थी और कहाँ ये वंचित जातियां आपस में भेदभाव कर रहीं हैं। एक अन्य उदाहरण के माध्यम से दलित-वंचित  समुदाय में पनपती जा रही इस बीमारी को देख सकते हैं -  

“खाकी वर्दी को मैंने रगड़-रगड़ कर धोया था। समस्या थी इस्तरी करने की। मेरी कक्षा कक्षा में धोबी का एक लड़का था। मैंने उससे कहा। उसने शाम को घर आने के लिए कहा। शाम को वर्दी लेकर उसके घर गया। मुझे देखते ही उसका बाप चिल्लाया, ‘अबे! चूहड़े के किंघे घुसा आ रहा है?’ उसका बेटा उसके पास खड़ा था। मैंने कहा ‘वर्दी पर इस्तरी करानी है ?’ हम चूहड़े चमारों के कपड़े नहीं धोते, न ही इस्तरी करते हैं। जो तेरे कपड़े पर इस्तरी कर देंगे, तो तागा कपड़े न धुलवाएँगे, म्हारी तो रोजी रोट्टी चली जा गी...’ उसने साफ़-साफ़ जवाब दे दिया था।”11

भारतीय समाज में जातिव्यवस्था की उत्पत्ति का आधार कुछ विद्वान  सिर्फ काम के आधार पर बंटवारे से बने वर्ग को मान लेने की समझ बनाये  हुए हैं। उनका मानना है कि -जातिव्यवस्था का आधार श्रम का बंटवारा भर है। इसका जवाब देते हुए बाबा साहेब डॉ अंबेडकर   ने कहा था कि -जातिव्यवस्था श्रम का नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन है। इस जाति व्यवस्था को ठोस रूप देने का कार्य भारतीय शास्त्र और धर्मग्रन्थ करते हैं। इसलिए जातिव्यवस्था एक वर्चस्वशाली  सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ वर्चस्ववादी धार्मिक व्यवस्था भी है। एक और उदाहरण देखिये और जाति दंश की गहराई को महसूस कीजिए। हालांकि रोज-बरोज हमारे आसपास ऐसी घटनाएं घटती ही रहती हैं जिन्हें हम सामान्य घटनाएं मानकर कभी भी उनका नोटिस नहीं लेते  -

“देखने सुनने में बहुत साधारण सी बात लग सकती है, लेकिन दूल्हा हो या दुल्हन, शादी के पहले ही दिन उसमें हीनता बोध भर दिया जाता है ... सदियों से चली आ रही इस प्रथा के पार्श्व में जातीय अहम् की पराकाष्ठा है। समाज में जो गहरी खाई है, उसे और गहरा बनाती है। एक साजिश है, हीनता के भंवर में फंसा देने की। कितनी ही बार दूल्हों  को ही नहीं, दुल्हनों को भी बेइंतहा अपमान सहना पड़ता है।”12

कितना  सोच समझकर इस जातिवादी सिस्टम को बनाया गया होगा। दलित समाज के हर कार्य को चाहें वह उत्सवधर्मी हो या कि शोकसंतप्त वाला। हर जगह ऐसी जातिवादी परंपरा एवं मूल्यों  को सृजित कर दिया गया कि दलित-वंचित समुदाय इस ब्राह्मणवादी सिस्टम से बाहर निकल ही न पाए। विवाह तो दुनिया के सभी समाजों के बीच दुनिया को आगे बढाने की एक अनिवार्य प्रक्रिया और उत्सवधर्मी कार्य है। लेकिन दलितों के जीवन में उत्सव कहाँ। उनके तो कदम कदम पर जाति के राक्षस रास्ता रोके हुए खड़े हैं। ज़लील करने के खूब सारे तरीके परम्परा के नाम से बनाये हुए हैं। जूठन में ही सब हैं  देखिए। जूठन में ही यह सब है ऐसा कहने की बजाय अगर मैं ये कहूँ की भारतीय समाज में ही यह सब है इसीलिए यह दलित आत्मकथाओं का विषय बना है। ताज्जुब है कि किसी सवर्ण आत्मकथा का हिस्सा यह अब तक क्यूँ नहीं बन पाया -

“यह सलाम के लिए जाना क्या ठीक है?’ पिताजी ने मेरी और ऐसा घूरा जैसे मुझे पहली बार देख रहे हों। उन्हें चुपचाप देखकर मेरे मन की उथल-पुथल बाहर आने लगी, ‘अपनी ही शादी में दूल्हा घर-घर घूमे... बुरी बात है... बड़ी जाति वालों के दूल्हे तो ऐसा कहीं नहीं जाते... ये दुल्हन बरला जाकर ऐसे ही घर जाएगी सलाम करने ...’ पिताजी खामोशी से मेरी बात सुन रहे थे, ‘मुंशी जी, बस तुझे स्कूल भेजना सफल हो गिया है ... म्हारी समझ में बी आ गिया है... ईब इस रीत को तोड़ेंगे।’ पिताजी ने सचमुच इस रीत को अपने ही घर से तोडा था। मेरे भाई जनेसर की बारात लक्सर के पास राजोपुरी गयी थी। पिताजी ने साफ़ मना कर दिया – ‘मेरा बेटा सलाम करने नहीं जाएगा।’ बहन की शादी में भी हमने अपने बहनोई को ‘सलाम’ पर नहीं जाने दिया था।”13

बाबा साहेब ने बहुत पहले कह दिया था कि वे हिन्दू धर्म में जन्में हैं पर वे हिन्दू के रूप में मरेंगे नहीं। उनके ऐसा सोचने और कहने के पीछे आखिर क्या कारण थे? क्यूंकि हिन्दू धर्मशास्त्र और ग्रन्थ ही जातिव्यवस्था को मजबूती देते हैं और उसे सही ठहराते हैं। इसीलिए आज का पढा- लिखा दलित अपने को हिन्दू नहीं कहना चाहता। वह बाबा साहेब डॉ आंबेडकर को मानता है और हिन्दू धर्म की जातिवादी साजिशों को समझते हुए उनको बेनकाब करने लगता है -

“लेकिन मन में एक उबाल-सा उठता था, जो कहना चाहता था, मैं हिन्दू भी तो नहीं हूँ। यदि हिन्दू होता, तो हिन्दू मुझसे इतनी घृणा, इतना भेदभाव क्यों करते? बात-बात पर जातीय बोध की हीनता से मुझे क्यों भरते, मन में यह भी आता था की अच्छा इन्सान बनने के लिए जरुरी क्यों है कि वह हिन्दू ही हो ... हिन्दू की क्रूरता बचपन से देखी है, सहन की है। जातीय श्रेष्ठता का भाव अभिमान बनकर सदा कमजोर को ही क्यों मारता है। क्यों दलित के प्रति हिन्दू इतना निर्मम और क्रूर है।”14

दलित समुदाय के लिए आज भी भारतीय समाज में जीवन व्यापन करना बेहद मुश्किल है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने जो जूठन में लिख दिया वह आज भी समाज में उसी रूप में मौजूद है। सभी स्थानों पर जाति की साजिशें ,नियम और समझ के रूप में कार्य कर रहीं हैं। ' क्या चुडे-चमार वाले  कलर के कपड़े  ले लिये ', 'छोटी जात का है तो समझ भी वैसी ही होगी', 'चमार-चुडे भी अब पढ़ाने का काम करेंगे'... इत्यादि इत्यादि। ये सब जुमले आपको कभी भी कहीं भी सुनने को मिल जायेंगे। इसलिए इस भारतीय समाज को एक बीमार समाज के रूप में ही पहचाना जाना चाहिए। इस बीमार समाज का इलाज ही दलित साहित्य कर रहा है। आत्मकथाएं कर रही हैं।  इनमें भारतीय समाज की जो हकीकत है उससे समाज रूबरू हो रहा है। समाज की बीमारियाँ सबके सामने आ रहीं हैं। और जब बीमारियाँ सामने आती हैं तो इलाज भी सकारात्मक रूप से संभव हो पाता है। आत्मगौरव का आत्मगान गाती सवर्ण आत्मकथाओं से यह उम्मीद करना फिजूल होगा कि वे भारतीय समाज के वास्तविक चेहरे को सामने लेकर आएंगी। 

जूठन आत्मकथा की शुरुआत उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के बरला गांव की जोहड़ी के किनारे पर भंगी परिवार के मकान से होती है यह ओमप्रकाश वाल्मीकि का परिवार है – 

''यहाँ एक ओर सवर्ण जाति, त्यागियों के घर है दूसरे किनारे दलितों के घर और मकानों के पीछे गांव भर की जवान-बूढी औरतों का खुला शौचालय है जहाँ वे गोलमेज कोंफ्रेंस की शक्ल में बैठकर गाँव-गली के लड़ाई-झगड़ों की चर्चा करती है। इस तरह चारों तरफ गन्दगी भरी होती है। ऐसी दुर्गंध उठती है कि मिनट भर में सांस घुट जाय। उनकी तंग गलियों में सुअर और कुत्तों के साथ नंग-धडंग बच्चे घूमते है। वर्णव्यवस्था को आदर्श व्यवस्था कहने वाले सवर्णों को यदि ‘दो-चार दिन रहना पड़ जाय तो उनकी राय बदल जाए।'.......... गाँव में कुछ मुसलमान त्यागी परिवारों को छोड़कर बाकी हिन्दू तगा ही रहते थे। मुसलमान-हिन्दू तगाओं का दलितों के प्रति एक जैसा व्यवहार था। क्योंकि उन्हें दो जून की  रोटी के लिए तागाओ के घरों में साफ़-सफाई से लेकर खेती-बाड़ी और मेहनत के सभी काम करने पड़ते। ऊपर से रात-बेरात बेगार करनी पड़ती थी जिस के बदले में ‘कोई पैसा या अनाज नहीं मिलता था। अगर बेगार करने से इंकार किया तो फिर गाली-गलौच के साथ-साथ प्रताड़ना भी सहनी पड़ती। नाम लेकर पुकारने की किसी भी सवर्ण को आदत नहीं थी इसलिए उनके लिए ‘उम्र में बड़ा हो तो ‘ओ चूहड़े’, बराबर या उम्र में छोटा है तो ‘अबे चूहड़े के’ यही तरीका या संबोधन था।’15

जातिव्यवस्था अब केवल हिन्दू धर्म का ही अंग नहीं रह गयी है बल्कि भारत में जितने भी धर्म हैं, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख बौद्ध सभी में जातिव्यवस्था घुलमिल गयी है। सभी धर्मों ने अपने यहाँ अछूत जातियों को बना लिया है। इसलिए जातिव्यवस्था एक ऐसी बीमारी है जो अपने संपर्क में आने वाले  सभी को रोगग्रस्त कर देती है। एक इंसान इस व्यवस्था में अछूत बन जाता है लेकिन वहीं जानवर प्रिय बना रह सकता है। कैसा समाज है कि एक इंसान दूसरे इंसान को नीच कहे। इंसानों से बदतर व्यवहार करे -

“यह जाति व्यवस्था के कारण उत्पन्न ‘अस्पृश्यता का ऐसा माहौल की कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था।‘अबे चूहड़े के... आजा... दो अच्छर क्या पढ़ लिए, सोहरे का दिमाग चढ़ गिया है... अबे, औकात मत भूल।’ जबकि पिता  यही समझाते थे कि पढ़-लिखकर, अपनी ‘जाति’ सुधारों। लेकिन क्या पता कि ‘पढ़-लिखकर जातियां नहीं सुधरतीं। वे सुधरती है जन्म से।’ 16

भारतीय समाज में यह समझ कायम है कि जन्म के आधार पर ही कोई ऊँचा-नीचा  और साफ़-सुथरा , सफाई पसंद हो सकता है। जाति ही तय करती है भारतीय समाज में रहने वाले के लिए इज्ज़त और अपमान का भाव। इस भारतीय समाज में जीव-जंतु, गाय-बैल, चूहा-बन्दर, हाथी-शेर, सांप- मछली पूज्यनीय हो सकते हैं लेकिन एक इंसान नहीं। इसीलिए भारतीय समाज में ये व्यवस्था किन्हीं बीमार लोगों द्वारा ही बनायी होगी।

जूठन आत्मकथा भारतीय समाज के उस क्रूर सच को साहित्यिक दुनिया में अभिव्यक्त करती है जिससे साहित्य की दुनिया हमेशा मुंह चुराती रही है। हिंदी की साहित्यिक दुनिया तो वैसे भी क्रांति की तनी मुट्ठियों में जनेऊ धारण किये रही है। हमारे यहाँ भी कार्ल मार्क्स सरीखे क्रांतिचेता तो पैदा हुए पर उनके माथे पर चुटिया उगी रही और दिमाग में वैदिक मन्त्रों के साथ ब्राह्मणवाद की सहिंताए भी साथ-साथ क्रान्ति को गाती रही। भारत की समस्त प्रगतिशीलता अंततः  ब्राह्मणवाद से गठजोड़ करके ही आगे बढती रही है और आज भी बढ़ रही है।  इसीलिए यहाँ अभी तक कोई क्रान्ति संभव नहीं हो पायी। इसका एक बड़ा कारण था जाति का विशेषाधिकार और श्रेष्टताबोध। जिसके खिलाफ बाबा साहेब आंबेडकर ने एक बड़ा आन्दोलन चलाया था। उसी आन्दोलन का ही परिणाम है दलित या वंचित समुदाय के साहित्य का आज बड़े पैमाने पर लिखा जाना।

जूठन आत्मकथा ने निश्चित तौर पर हिंदी क्षेत्र में दलित साहित्य को समृद्ध ही नहीं किया बल्कि भारतीय समाज को मानवीय बनाया है | साथ ही दलित समुदाय या वंचित समुदाय के अन्य लोगों को साहित्य के माध्यम से अपने दर्द और अन्याय को दर्ज करने को प्रेरित किया है। यही  जूठन आत्मकथा और दलित साहित्य की एक बहुत बड़ी ताकत है। 

सन्दर्भ : 
1. ‘मैं भंगी हूँ’, भगवान दास, गौतम बुक सेंटर, नयी दिल्ली ,संस्करण 2019 , पृ. संख्या -121.123
2.  ‘दलित साहित्य आंदोलन’, कमलेश्वर, रचना प्रकाशन, जयपुर, संस्करण -2019 , संख्या पृ. 122 
3.  ‘जूठन’ की भूमिका से, ओमप्रकाश वाल्मीकि , राधाकृष्ण प्रकाशन , नयी दिल्ली , संस्करण 2000 , 
4 . ‘राष्ट्रीय सहारा’, हिंदी दैनिक, नयी  दिल्ली, हस्तक्षेप ट्रस्ट, 18 जनवरी, 1997  
5. ‘जूठन’, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधा कृष्ण प्रकाशन , नयी दिल्ली , संस्करण -2000 , पृ. 11 
6. ‘सत्ता संस्कृति और दलित सौंदर्यशास्त्र’, सूरज बडत्या , अनामिका प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2009 , पृ. 175
7. ‘दलित साहित्य की भूमिका’, हरपाल सिंह अरुष, जवाहर पुस्तकालय, मथुरा, संस्करण 2004 , पृ. 86
8. ‘जूठन’, ओमप्रकाश वाल्मीकि, , राधा कृष्ण प्रकाशन , नयी दिल्ली , संस्करण -2000  पृ. 15  
9.   वही, पृ. 49 
10. वही, पृ. 34-35
11. वही,पृ. 28
12. वही,पृ. 12
13.वही,पृ 23 
14. वही,पृ 11 
15. वही,पृ 34 
16. ‘आज का दलित साहित्य’, डॉ. तेज सिंह, आतिश प्रकाशन नयी  दिल्ली संस्करण,2000 , पृ. 87
 
 
सूरज प्रकाश बडत्या
विजिटिंग एसोसिएट प्रोफ़ेसर, तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ फारेन स्टडीज, तोक्यो, जापान
badtiya.suraj@gmail.com, +91-9891438166

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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