कविताएं / दीपक ग़ाज़ीपुरी

कविताएं 

- दीपक ग़ाज़ीपुरी

 


एक


ढलेंगी पैकर--रानाईयाँ तो याद आयेंगे

बेसाख़्ता-बेसाख़्ता  हम  याद  आयेंगे

 

अभी तो मुब्तिला हैं हम तो क़ोई बात ही नहीं

जब  होगी  तुम  मुब्तिला  हम  याद  आयेंगे

 

तुम भूल जाओ सब अहद वो ख़्वाब हमारे

जब होगा अहद--ज़िक्र हम याद आयेंगे

 

यूँही आँख के कोरों से ढलक जायेगा आँसू

जब  तुम उसे  ढूँढोगीं  हम  याद  आयेंगे

 

तुमको जो है गिला की एक आईना कम है

जब  होगी  आइनों  में  हम  याद  आयेंगे.

 

दो


महफ़िल सज़ाकर क्या करें

नज़रें मिलाकर क्या करें

अफ़सुर्दगी की बज़्म में

वाह वाह मिली तो क्या करें

 

गर आईना क़ातिल है तो

चेहरा सज़ाकर क्या करें

जब डूब ही जानी है तो

पतवार दूज़ी क्या करें

 

क्या आयेंगे वे क़ब्र पर

नादां सी हसरत क्यूं करें

अब मातमों के जश्न में

साहिल की चाहत क्यूं करें !

 

महफ़िल सज़ाकर क्या करें

नज़रें मिलाकर क्या करें.

 

तीन


आश रीती जा रही है

उम्र बीती जा रही है

 

कल के दिन के फ़िक़्र में

ये रात बीती जा रही है

 

इक आईने के तलाश में

तस्वीर बीती जा रही है

 

तू तेज कर लव--बेरूख़ी

तन्हाई  बीती  जा  रही  है

 

जो छोङ कर तुम्हें चली गई

जो तोङ कर तुम्हें चली गई

 

दीपक  सुना है  तेरे दर्द में

वो भी तो बीती जा रही है.

 

चार


एक चाहत पर उम्र लुटा दी

तुम क्या जानों क्या-क्या गँवा दी

 

तुम तो बनोगी महल की रानी

मेरा शीशमहल क्यूँ गिरा दी

 

नाक़दरों ने दिल में समा कर

अहल--दिल की क़ीमत लगा दी

 

फिर तुमने कहानी बनने के ख़ातिर

मिरी रूह--बज़्म में आग लगा दी

 

क्यूँ मुझमें तेरी मुश्ताक़ी ने

मरहम पर नस्तर चलवा दी

 

माना हम क़ाबिल ना मेरी जाँ

क्या मेरी सभी तस्वीर मिटा दी.

 

पाँच


सताये   लोग   हैं   तेरे

ये महफ़िल से किधर जाते

ये महफ़िल से निकल कर

महफ़िल को चले आते

 

सितम की इंतेहा देखी

मगर ऐसा नहीं देखा

कि जिस दर ठोकरें लगतीं

उसी दर सर दिये जाते...

 

सताये   लोग   हैं   तेरे

ये महफ़िल से किधर जाते.

 

दीपक गाज़ीपुरी
हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय 

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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