शोध आलेख : 'अल्मा कबूतरी' उपन्यास में स्त्री की स्थिति और मुक्ति का संघर्ष / डॉ. राजेश शर्मा एवं अभिषेक सिंह

'अल्मा कबूतरी' उपन्यास में स्त्री की स्थिति और मुक्ति का संघर्ष
- डॉ. राजेश शर्मा एवं अभिषेक सिंह

शोध सार :  प्रस्तुत शोध पत्र में मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास 'अल्मा कबूतरी' के आधार पर उपेक्षित समझी जाने वालीजनजाति 'कबूतरा जनजाति' की स्त्रियों की स्थिति एवं उनके संघर्ष का अध्ययन किया गया है। शोधार्थी ने प्रस्तुत उपन्यास की मुख्य स्त्री पात्रों जैसे कदमबाई, भूरी और अल्मा को अध्ययन का आधार बनाया है। शोध पत्र में 'अंतर्वस्तु विश्लेषण' पद्धति का इस्तेमाल किया गया है। विश्लेषण की इकाइयाँ 'सामाजिक पृष्ठभूमि', 'अपशब्दों का प्रयोग', 'शारीरिक शोषण एवं पशुवत व्यवहार', 'जीवन संघर्ष और परिणाम' हैं। महिलाओं के लिए जिस सामाजिक बराबरी की माँग महिला सशक्तिकरण के तहत होती रही है और कितनी इस माँग की पूर्ति हुई है, विशेषकर कथित निम्न मानी जाने वाली जाति की महिलाओं के लिए, इस अंतर को इस शोध पत्र में चिन्हित किया गया है। 

बीज शब्द : स्त्री, कबूतरा, कबूतरी, जनजाति, औरत, जाति, भूरी, अल्मा, स्थिति, संघर्ष  

मूल आलेख : मैत्रेयी पुष्पा द्वारा रचित उपन्यास 'अल्मा कबूतरी' कबूतरा जनजाति की यथार्थ स्थिति को दर्शाता है। आज़ादी के पहले अंग्रेजों ने इसे 'आपराधिक जनजाति' घोषित कर दिया था जिसे आज़ादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आपराधिक श्रेणी से हटाकर संवैधानिक रूप से सभी अधिकार दिलाए लेकिन 'अल्मा कबूतरी' इस विषय पर बात करता है कि संवैधानिक रूप से मिले अधिकार केवल सरकारी कागजों तक सीमित हैं। जिसके चलते प्रस्तुत उपन्यास में मुख्यतः भूरी, कदमबाई और अल्मा की स्थिति दयनीय है। यह उपन्यास इन स्त्रियों के माध्यम से आज़ादी के बाद के भारत में सभी कथित निम् जाति की स्त्रियों के संघर्ष को शब्द देता है।

रानी पद्मिनी  की कथा जो सुनने में आती है कि युद्ध में  राजा रत्नसेन के मारे जाने की ख़बर पाते ही अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए चल दिया। उसका रानी को प्राप्त करना यानी  कि 'रानी को हरना', जिसमें रानी  सहमति या असहमति का ध्यान नहीं दिया जाना था। यह राजतन्त्र में आम बात थी। पृथ्वीराज रासो में चन्दवरदाई ने लिखा है - ''जाकी बिटिया सुन्दर देखी, तापर जाय धरी तलवार।'' और इस तरह से स्त्री का हरण शान की बात मानी जाती थी। फ़िलहाल अलाउद्दीन जब तक पद्मावती के पास पहुँचा, रानी ने जौहर कर लिया था। उसे सिर्फ रानी की राख ही मिली। मैत्रेयी पुष्पा द्वारा लिखित उपन्यास इससे थोड़ी- सी इतर कथा बताता है कि रानी पद्मिनी जलकर राख नहीं हुई थी बल्कि अपनी बाँदी सखियों और रानी रक्कासाओं को लेकर सैनिकों के साथ भाग छूटी लेकिन सुल्तान को शक हो गया। रानी अपने साथियों के साथ भागती रहीं। यही कहानी उपन्यास  की मुख्य पात्र 'अल्मा' को उसके पिता राम सिंह सुनाया करते हैं। सुल्तान के सैनिकों ने रानी का पीछा किया। भागते-भागते रानी का दल धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगा। ''रानी ने मुरझाते सैनिकों को हुक्म दिया -बल नहीं तो छल। फौजें हमें खा जाएँगी। सुल्तान के लिए जाने वाली रसद लूट लो।.... सखियों, सुल्तान के सिपाहियों को हँसकर रिझाओ और लहँगों में छिपी कटार चलाकर खसिया कर दो।''[1] इस तरीक़े से अपने को जीवित रखने के संघर्ष के चलते बदनामी बढ़ती गयी। अपने सैनिकों से दल की स्त्रियाँ गर्भवती हुईं और वे जहाँ तहाँ  फैलते गए। आगे चल कर कुछ बुंदेलखंड पहुँचे। ''कहतें हैं कि रानी झाँसी के संग लड़नेवालों को उनके शहीद होने के बाद जब अंगरेजों ने खदेड़ना शुरू किया तो वे जहाँ-तहाँ ऐसे फैल गए, जैसे पानी फैल जाता है।''[2] उनमें से दस-ग्यारह लोग मरोड़ा खुर्द के सिवान में आए। मंसाराम के पुरखों ने दो बीघे ज़मींन इन्हें दे दी और देखते ही देखते पूरी बस्ती बस गयी। यही लोग 'कबूतरा' कहलाए। जीवन जीने के लिए रहने का ठिकाना ही पर्याप्त नहीं होत, अर्थ(धन) की भी ज़रूरत होती है। इसके लिए कबूतरा पुरुषों ने वही शुरू किया जो इनके पुरखे अल्लाउद्दीन खिलज़ी की सेना के साथ करते थे-लूट और हत्या। स्त्रियाँ शराब बनातीं और बेचती साथ ही उन्हें अपने शरीर का सौदा भी करना पड़ता था। जिसके चलते कबूतरा समाज की स्त्रियों को लेकर यह आम सोच कज्जा (तथाकथित सभ्य समाज) में हो गयी की कबूतरा औरतें उपभोग के लिए हैं। अपनी गरीबी और सामाजिक स्थिति के चलते कबूतरा स्त्रियाँ शोषण का शिकार होती रहीं।  इसी बस्ती में रहने वाली कदमबाई कबूतरी से मंसाराम का सम्बन्ध बना।

 भूरी भी मुक्ति की कामना रखती है कबूतरा जनजाति की तमाम स्त्रियों शोषण ने अपनी नियति मान ली थी लेकिन कुछ भूरी जैसी स्त्रियाँ थीं जो अपनी दशा से संतुष्ट थीं।वह अपने बेटे राम सिंह को पढ़ाना-लिखना चाहती थी। ऐसे सामाजिक परिवेश में जहाँ जीवित रहना ही सबसे लक्ष्य है, वहाँ भूरी ने शिक्षा के अर्थ को समझा। वह और उसका पति वीरसिंह  यह समझ गये थे कि आज़ादी के बाद देश के राजा (प्रधानमंत्री) ने कबूतरा जनजाति को 'आपराधिक जनजाति ' नहीं समझा जाएगा, वे भी अब आज़ाद हैं लेकिन उनके समुदाय के लोगों ने उनकी बात नई मानी। भूरी अपने पति की हत्या पर भी रोई नहीं। भूरी के संघर्षों के चलते रामसिंह पढ़-लिखकर शिक्षक बन ही गया। भूरी का हठ, सकारात्मक रूप में 'स्त्री हठ' था जिसने रामसिंह के जीवन को बदल दिया। भूरी के इस के दूरगामी परिणाम होने थे जोकि अल्मा के रूप में सामने आता है।

'अल्मा' रामसिंह की बेटी है। रामसिंह ने उसकी शिक्षा का पूरा ध्यान रखा। रामसिंह शिक्षक होने के बाद भी अपने जाति पर लगे दोष से मुक्त नहीं हो पाता है। जिसके चलते साजिश के तहत उसे मार दिया जाता है। जीवन के संघर्षों से अल्मा ने भी हार नहीं मानी। तमाम बाधाओं को पर कर आखिर में राजनीतिक शक्ति एवं प्रतिनिधित्व प्राप्त कर लेती है।

शोध प्रविधि - मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास 'अल्मा कबूतरी' में महिला चरित्रों की स्थिति एवं संघर्ष का अध्ययन करने के लिए 'अंतर्वस्तु विश्लेषण' पद्धति का उपयोग किया गया है। इस विश्लेषण के लिए निम्नलिखित इकाइयों का निर्धारण किया गया है -

विश्लेषण की इकाइयाँ

1. सामाजिक पृष्ठभूमि

2. अपशब्दों का प्रयोग

3. शारीरिक शोषण एवं पशुवत व्यवहार

4. जीवन संघर्ष और परिणाम

विश्लेषण-

मैत्रेयी पुष्पा हिंदी साहित्य में एक जाना-माना नाम हैं। विशेषकर स्त्री विमर्श के क्षेत्र में उन्होंने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है। इन्होंने उपन्यास, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण एवं कविता तथा अन्य हिंदी की विधाओं में रचनाएँ की हैं लेकिन मुख्यतः हम इन्हें उपन्यास लेखिका के तौर पर जानते हैं। लेखिका के उपन्यासों की मुख्य पात्र अधिकतर स्त्री ही होती है और उसमें भी ग्रामीण स्त्री। उत्तर भारत की ग्रामीण स्त्रियों के संघर्ष लेखिका का मुख्य विषय रहा है। जैसे 'झूलानट' उपन्यास में गाँव  की एक सामान्य स्त्री 'शीलो' की कहानी है जो अपने अपमान और उपेक्षा के बाद भी हार नहीं मानती है बल्कि अडिग होकर जीवन की चुनौतियों का सामना करती है। ऐसे ही 'चाक' उपन्यास है जैसा कि  शीर्षक है वैसा ही स्त्री का जीवन है। चाक की तरह चलता उसका जीवन उसे नए-नए रूपों में ढाला करता है। लेखिका एक अन्य उपन्यास 'इदन्नमम' तीन पीढ़ियों की स्त्रियों का अध्ययन है। जो अक्सर एक-दूसरे  के विरुद्ध खड़ी हो जातीं हैं। स्त्री के इन्हीं संघषों की बात करता उपन्यास 'अल्मा कबूतरी' है जोकि बुंदेलखंड की जनजातीय स्त्रियों के उत्पीड़न एवं शोषण तथा संघर्ष की कथा कहता है। प्रस्तुत शोध पत्र उपन्यास में मौजूद स्त्रियों की स्थित एवं संघर्ष का अध्ययन करता है। प्रस्तुत उपन्यास पर अन्य शोध भी हो चुके हैं जैसे -

       उर्मिला भगत के  लेख "Social Institutions Depicted in Alma Kabutari: Form and Functionality" (अल्मा कबूतरी में प्रदर्शित सामाजिक संस्थाएँ : स्वरूप  एवं कार्यशीलता) के अन्तर्गत महिलाओं के विकास अथवा  शोषण में सामाजिक संस्थाओं की भूमिका की चर्चा की गयी। इस शोध के अन्तर्गतअल्मा कबूतरी' उपन्यास के माध्यम से सामाजिक संस्थाओं, पारिवारिक संस्थाओं, धार्मिक संस्थाओं के साथ-साथ सामुदायिक संस्थाओं के स्वरूप को समझने का प्रयास किया गया है। लेखिका द्वारा  विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती महिलाओं के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। लेख के अनुसार  'अल्मा कबूतरी' स्त्री और पुरुष की वास्तविक स्थिति के  साथ-साथ सामाजिक संस्थाओं के भीतर महिलाओं के प्रति भेदभाव को व्यक्त करता है।  समाज में हमेशा से महिलाओं का शोषण करने और उन्हें  दण्डित करने की व्यवस्था रही है, यह व्यवस्था आज भी चली रही है। आज भी कई स्थानों पर महिलाओं को ख़रीदा एवं बेचा जाता है। आज भी महिलाओं यह सिखाया जाता है कि वे पुरुषों की अधीनस्थ है की उनकी समकक्ष। पुरुषों को प्रसन्न रखना उनके जीवन का  एकमात्र कर्तव्य माना जाता है। अल्मा कबूतरी के महिला किरदारों कदम, भूरी तथा अल्मा ने इस  सोच का विरोध किया। अंततः लेखिका मानती हैं कि एक स्वस्थ्य राष्ट्र की कल्पना सिर्फ तभी की जा सकती है जब राष्ट्र के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार प्राप्त हो।

डॉ. सोना अग्रवाल अपने शोध पत्र ''Centre vs Periphery:The Flux of Identity and the Tribal World''(केंद्र बनाम परिधि: पहचान का प्रवाह और जनजातीय दुनिया) के अंतर्गत कबूतरा जनजाति की हाशिये की स्थिति विशेषकर कबूतरा स्त्रियों की अतिविचारणीय स्थिति पर अध्ययन किया है, जहाँ उन्हें इंसान की तरह नहीं अपितु मात्र शरीर समझ कर व्यवहार किया जाता है। मुख्य समाज, हाशिए पर होने के बाद भी उन्हें अपनी जगह छोड़ने के लिए कहता रहता है, पुलिस द्वारा जब कभी भी रेड कर के डराया-धमकाया जाता है। लेखिका मानती है कि कानून की पहुँच उन तक नहीं है जिससे उनके अधिकार सुरक्षित किये जा सकें।

        प्रस्तुत शोध पत्र 'अल्मा कबूतरी उपन्यास में स्त्री की स्थिति और मुक्ति का संघर्ष' कबूतरा जनजाति की महिलाओं की स्थिति और संघर्ष का विश्लेषण करता है तथा उन प्रश्नों का अध्ययन करने का प्रयास करता है जिसके अंतर्गत कबूतरा जनजाति की महिलाओं को किस प्रकार समाज में अपमान, भेदभाव एवं विषमताओं का सामना करना पड़ता है? यह अध्ययन निम्न आधार पर किया गया है-

1. सामाजिक पृष्ठभूमि - 'अल्मा कबूतरी' उपन्यास में रानी पद्मिनी की सामाजिक पृष्ठभूमि की शुरुआत तो रानी की तरह थी लेकिन राजा रत्नसेन की मृत्यु के बाद रानी अपनी बाँदी सखियों और रानी रक्कासाओं को लेकर सैनिकों के साथ भाग छूटी। यही से रानी का जीवन संघर्षमय हो गया। जीवन जीने के लिए प्रलोभन, लूटपात और हत्या का सहारा लेना पड़ा। यही आगे चलकर कबूतराओं के लिए जीवन जीने का तरीका हो गया।

        भूरी भी कबूतरा समाज में ही पैदा हुई थी। विवाह भी कबूतरा वीरसिंह से हुआ। भूरी और वीरसिंह दोनों में अपनी स्थिति को लेकर विरोधी भावना थी। अतः सास ने ''भूरी और वीरसिंह की भट्ठी चटपट अलग कर दी। ... बहू चाहे तो अपने मायके चली जाए, वहीं बाप को बरबाद करे। ...मगर भूरी को तो बरबाद किया था उसकी दादी ने। राजा-महाराजाओं के किस्से-कहानियाँ सुन-सुनकर बहादुरी उसकी देह में उतर गयी थी। खुद को पद्मिनी मान कर कबूतरी बनी रही।''[3] जैसा कि अज्ञेय 'शेखर एक जीवनी' में लिखते हैं -''विद्रोही बनते नहीं, उत्पन्न होते हैं।''[4] भूरी यही विद्रोह लेकर पैदा हुई थी। जिस समाज में शिक्षा का कोई महत्व नहीं था वहाँ भूरी ने अपने बेटे राम सिंह को पढ़ाने को ही अपने जीवन का साध्य मान लेती है और इस साध्य के लिए साधन वह अपने शरीर को बनती है। वह कहती है -''विद्या रतन के आगे देह का खजाना कुछ भी नहीं।''[5] अपने और अपने बेटे के जीवन-यापन तथा उसकी शिक्षा के लिए शरीर को ही दुनियावी पूँजी में बदल डाला। ''मुक्ति की पहली शर्त स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता है। यदि इस शर्त को कोई औरत पूरा कर लेती है तो वह अपने ज़िन्दगी की आधी लड़ाई जीत जाती है।''[6] अतः शरीर के साधन के आधार पर मिली आर्थिक स्वतंत्रता चलते भूरी अपने साध्य को लेकर अपनी  जाती है। हालाँकि सभ्य समाज इसे उचित नहीं मानाता।

        भूरी का बेटा रामसिंह और रामसिंह की बेटी अल्मा। अल्मा थी तो कबूतरी ही लेकिन उसके पिता शिक्षक थे। अल्मा की शिक्षा-दीक्षा पर रामसिंह ने खासा ध्यान दिया। ''...अल्मा भी नहा-धोकर धुले कपड़े पहनते हैं। बोरा बिछाकर धरती पर बैठ जाते हैं। अपनी-अपनी कापी और कलम साथ होती है। ...पढ़ाई शुरू होने से पहले प्रार्थना होती है। बैठकर ही आँखे बंद कर लेते हैं और गाते हैं- सरफरोसी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजु कातिल में है।''[7] इससे समझ आता है कि बाकी कबूतराओं से अल्मा की पृष्ठभूमि बेहतर थी। जहाँ चौदह की उम्र में अन्य कबूतरा लड़कियाँ बच्चों की माँ बन जाती हैं अल्मा को खेलने और पड़ने का भरपूर अवसर है। ''माँ के हिसाब से रूपसिंह की बहू चौदह साल की है, बच्चे की माँ होनेवाली है। घर का काम करके दारू की भट्टी चढ़ाती है और रामसिंह की बेटी अभी खेल....''[8] इस तरह अगर अल्मा को छोड़ दिए जाये तो कबूतरा समाज की लड़कियों का विवाह लगभग तेरह-चौदह वर्ष में हो जाता है और वे जीवन यापन के लिए शराब बनाना शुरू कर देतीं हैं।

2. भाषा शैली- भाषा की शब्दावलियाँ ये तय करतीं हैं कि आप किसी को सम्मान देते हैं या नहीं, जैसे आप जिसका सम्मान करते हैं उसके लिए अपशब्दों का इस्तेमाल नहीं करेंगे और जिसे अपने से कमतर समझतें हैं उसके लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग, हमारे समाज में सामान्य सी बात है। 'अल्मा कबूतरी' उपन्यास में कबूतरा जनजाति के लोग ऐसे ही हेय समझे जाते हैं। पुलिस की भाषा कबूतरा स्त्रियों के लिए दिखाती है कि कबूतरा समाज एवं उनकी स्त्रियों की स्थिति क्या है? –

''वो गयी! पकड़ो साली को।''
''पेटवाली है। मटके जैसा पेट। लाओ इधर। हम बच्चा पैदा करते हैं। अपनी पैंट खोलने लगा ....
''सालों बेचो दारू! पिलाओ मद रंडियों।''[9]

पढ़ी लिखी होने के बाद अल्मा के माथे से कबूतरा जाति को लेकर लोगों के अंदर भरी निम्न सोच नहीं बदली। बच्चा लाल 'उन्मेष' की कविता की पंक्ति है कि ''जाति है कि जाती नहीं।''[10] अल्मा की जाति नहीं गयी। सूरजभान जिसने अल्मा को जबरन अपने ठिकाने पर क़ैद करके रखा है। उसके साथ बलात्कार करता है और अन्य नेताओं और अफसरों को परोसने के लिए तैयार करना चाहता है। जब अल्मा उसके क़ैद से भाग जाती है तो वो कहता है -''दॉँव बचा रहे थे सो नटिनी नहीं, हरामिन मरते दम तक उड़ना भूली।''[11] उपन्यास में कबूतरा जनजाति, विशेषकर कबूतरा स्त्रियों के लिए कज्जा वर्ग द्वारा प्रयोग किये गए अपशब्द, उनकी हाशिये की स्थिति को दर्शातें हैं साथ ही यह स्थिति व्याख्यायित करती है कि न्याय की पहुँच उन तक नहीं है।

3. शारीरिक शोषण एवं पशुवत व्यवहार - कबूतरा महिला कदमबाई का शारीरिक शोषण मंसाराम धोखे से करता है। अपनी शारीरिक भूख शांत करने के बाद  मंसाराम स्वयं स्वीकारते हैं -''मैंने बलात्कार कर लिया !''[12] हालाँकि मंसाराम कज्जा (कथित सभ्य )होने के बाद भी तमाम पारिवारिक एवं सामाजिक अड़चनों के बाद भी जैसे तैसे अपना फर्ज निभाते हैं लेकिन सामान्यतः ऐसा कबूतरा स्त्रियों के साथ नहीं होता जैसे भूरी ने अपने बेटे रामसिंह को विद्या रतन दिलाना चाहती थी। ''आदमी की जिंदगी खोजने निकली थी, अरहर के खेतों में, खदानों में, थाने की कोठरियों में कैद होती रही।''[13] भूरी का बेटा रामसिंह पढ़-लिखकर शिक्षक बन गया। रामसिंह ने अपनी बेटी अल्मा को भी पढ़ाया-लिखाया लेकिन इसके बाद भी अल्मा की जाति ने उसका पीछा नई छोड़ा। अल्मा जोकि गर्भवती थी। ''गर्भ में राणा के अंश के गोले थे-चार महीने। दारू के नशे में लड़खड़ाते सूरजभान ने ऐसी ताकत से भोग-संभोग किया कि अल्मा खून की पोखर हो गई।''[14] सामान्यतः लोग पशु से भी ऐसा व्यवहार नहीं करते जैसा उपन्यास में कबूतरा स्त्रियों के साथ हो रहा है।'' मैत्रेयी पुष्पा की अल्मा कबूतरी महिलाओं के साथ भेदभाव की उस धारणा को चुनौती देती है तथा लोकप्रिय संस्कृति (Popular Culture) में जनजातियों विशेषकर कबूतरा जनजाति कि महिलाओं का चित्रण करती है जहाँ महिलाओं को इंसान की तरह नहीं अपितु शरीर की तरह प्रस्तुत किया जाता है।''[15]

4. जीवन संघर्ष और परिणाम -'अल्मा कबूतरी' उपन्यास की स्त्री पात्र रानी पद्मिनी का महल से भाग निकलने के बाद दर-दरभटकना पड़ा। रसद खत्म होने के बाद अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ''रानी ने मुरझाते सैनिकों को हुक्म दिया- बल नहीं तो छल। फौजें हमें खा जाएँगी। सुल्तान के लिए जाने वाला रसद लूट लो। छावनियों में घुसकर हथियार चुराओ। सखियों,सुल्तान के सिपाहियों को हँसकर रिझाओ और लहँगों में छिपी क़तर चलकर खसिया कर दो। बस इसी तरह रानी आगे बढ़ती रही।''[16] परिणाम यह हुआ कि जस नहीं था अपजस कमाती रही। आगे चलकर इन्ही से जो कबूतरा जनजाति निकली उन्होंने भी अपनी जीविका साधन यही लूटपाट एवं चाहे-अनचाहे वेश्यावृत्ति को अपना लिया। ''कबूतरा मुख्यधारा की दुनिया के हाशिये पर रह रहे हैं, फिर भी उन्हें कभी-कभी धमकी दी जाती है अपनी जगह खाली करने के लिए उनकी बस्तियों में अक्सर पुलिस की छापेमारी होती रहती है और वे पुलिस और अन्य अधिकारियों की धमकी से लगातार डरे-सहमे रहते हैं।''[17]

निष्कर्ष : उपरोक्त निर्धारित विश्लेषण की इकाईयों का अध्ययन करने पर  निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मैत्रैयी पुष्पा द्वारा लिखित उपन्यास 'अल्मा कबूतरी' में कबूतरा जनजाति की स्थिति पशु के स्तर से भी गिरी हुई है। उसमें  भी उस समाज की स्त्रियों की स्थिति तुलनात्मक रूप में अधिक त्रासद है। उपन्यास के शुरुआत में स्थिति ऐसी विकट है कि महिलाओं के पास पहनने को पर्याप्त वस्त्र तक नहीं हैं जिससे उनका पूरा शरीर ढक जाये। ऊपर से पुलिसिया  अत्याचार अलग। पुलिस आती है और कबूतरा पुरुषों के अपराधों का सहारा लेकर उनकी स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करती है। एक दृश्य में कदमबाई के साथ यही होता है - ''सिपाही के हाथ पड़ गई, जो घाघरा फाड़ने लगा। ओढ़नी चीर-चीर कर दी। नंगी होती हुई औरत को बेटे की जिंदगी और मौत भी नहीं सूझती''[18] यही हाल भूरी का है जिसको कथित सभ्य (कज्जा) समाज ने कभी स्त्री तो दूर की बात है इंसान भी नहीं समझा। उसे उपभोग की वस्तु के रूप में देखा गया। यही स्थिति अल्मा के साथ भी है। उपन्यास में कदमबाई, भूरी और अल्मा संपूर्ण कबूतरा महिलाओं का प्रतिनिधित्व के साथ ही ये तीनों आज़ादी के इतने वर्षों के बाद कथित निम्न जातियों की आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति को भी दर्शाती हैं। उपन्यास के माध्यम से लेखिका स्पष्ट करती है कि कथित निम्न जाति की कुछ स्त्रियों ने इस शोषण को अपनी सच्चाई मान ली है, भूरी के बताने पर भी कि सभी को बराबरी का अधिकार मिल गया है, ''लोग खूब हँसे। हँसते हुए बोले- भूरी और वीरसिंह पागल हैं।''[19] ऐसे समाज में भी भूरी और अल्मा जैसी स्त्रियाँ हैं जो परिस्थितियों से बगावत करती हैं। तमाम कठिनाइयों के बाद भी वे जीवन का और मुक्ति की इच्छा का साथ नहीं छोड़ती हैं। आख़िर में भूरी का संघर्ष रंग लाता है और उसकी तीसरी पीढ़ी अल्मा भी संघर्ष करते हुए अंततः मुक्त जीवन का अनुभव करती है, जब वह अपने क्षेत्र से विधायक की उम्मीदवार घोषित की जाती है। उपन्यास के अंत के सम्बन्ध में रामचरण जोशी के मतानुसार ''अल्मा उपन्यास का अंत बहुत चालू किस्म का हो गया है। 'फिल्मी तर्ज में कहूँ तो इसका दि एंड बिल्कुल वॉलीवुड फिल्म जैसा है और वह भी दूसरे किस्म की।''[20] उपन्यास का अंत फ़िल्मी हो सकता है लेकिन अल्मा कबूतरी का अंत यह प्रत्येक संघर्षरत प्राणी को उम्मीद देता है कि सतत संघर्ष का परिणाम सुखद होता है। स्त्री संघर्ष एवं मुक्ति के लिए यह उपन्यास प्रेरणाप्रद है|

सन्दर्भ :
[1] मैत्रेयी पुष्पा, अल्मा कबूतरी, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, सं. 2016, पृ.129
[2] वही, पृ.11
[3] वही, पृ. 72
[4] अज्ञेय, शेखर एक जीवनी, मयूर पेपरबैक्स, नोएडा, सं. 2017, पृ.15
[5] मैत्रेयी पुष्पा, अल्मा कबूतरी, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, सं. 2016, पृ.74
[6] प्रभा खेतान, छिन्नमस्ता , राजकमल प्रकाशन, सं.2016, पृ.145
[7] मैत्रेयी पुष्पा, अल्मा कबूतरी, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, सं. 2016, पृ.125
[8] वही, पृ.122
[9] वही, पृ.44
[10] बच्चा लाल 'उन्मेष', जाति है कि जाती नहीं, हिन्दवीhttps://www.hindwi.org/kavita/jaati-hai-ki-jaatii-nahi-bachcha-lal-unmesh-kavita,
[11] मैत्रेयी पुष्पा, अल्मा कबूतरी, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, सं. 2016, पृ.313
[12] वही, पृ.22
[13] वही, पृ.344
[14] वही
,[15] डॉ. सोना अग्रवाल, केंद्र बनाम परिधि: पहचान का प्रवाह और जनजातीय दुनिया, गैलेक्सी:इंटरनेशनल मल्टी डिस्पिलनरी रिसर्च जर्नल, वॉल्यूम 9, वर्ष 2018, पृ. 2
[16] मैत्रेयी पुष्पा, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, सं. 2016, पृ.129
[17] डॉ. सोना अग्रवाल, केंद्र बनाम परिधि: पहचान का प्रवाह और जनजातीय दुनिया, गैलेक्सी:इंटरनेशनल मल्टी डिस्पिलनरी रिसर्च जर्नल, वॉल्यूम 9, वर्ष 2018, पृ. 2
 
[18] मैत्रेयी पुष्पा, अल्मा कबूतरी, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, सं. 2016, पृ.45
[19] वही, पृ.73
[20] अल्मा कबूतरी गुस्ताख सवालों का खतरनाक जोशी, स्त्री होने की कथा, सं.विजय बहादुर सिंह पृ.-168

 

डॉ. राजेश शर्मा
एसोसिएट प्रोफेसर, हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
rajeshhrc@gmail.com, 9968730090
 
अभिषेक सिंह (corresponding author)
शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
abhisheksingh8a8a@gmail.com, 919454504236


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-51, जनवरी-मार्च, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव छायाकार : डॉ. दीपक कुमार

1 टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही सारगर्भित लेख👍👍👍
    बहुत-बहुत बधाई भाई जी💐💐

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