कहानी : डोनी पोलो / डॉ. शमा खान

डोनी पोलो
डॉशमा खान

जिस धरा पर सूर्य की किरणें सबसे पहले बिखर उसे अरुणाचल बना दें, उसकी हरीतिमा में, आबोहवा में एक ओर जादुई धुन सुनाई देती है तो दूसरी ओर शांत, इतनी शांति कि किसी पक्षी की आवाज़ भी जैसे उस शांति के सरोवर में पत्थर फेंक तरंगें उठा देती हो। पत्तों की खूबसूरती ऐसी कि किसी सख़्त चट्टान पर पसर फूलों से महक गये हों। पहाड़ों की पत्थरों से ही बनने की भ्रांति तोड़ मिट्टी के बने ये पहाड़ बाहरी रूप में सख़्त से दिखते और भीतर से नरम मिट्टी को समाये, अपनी खूबी को भीतर छुपाये जैसे जीवन की आपाधापी से दूर शांत तपस्वी से आ बैठे हों।

लंबे देवदार के वृक्षों के पाँवों में जैसे अलग अलग क़द काठी की लताएँ और उनके बीच में कहीं खिलते ख़ूबसूरत लाल फूल। सब की घटाघोट देख लगता जैसे सारी वनस्पति ही यहीं बसने को आतुर हो। किसी मुग्ध चित्रकार का मन विधाता की इस चित्रकारी में ख़ुद को ढूँढ़ने लगा हो। कहीं वॉटर कलर, कहीं ऑयल पेंटिंग तो कहीं स्कैचेज के रूप को देख बलिहारी हुआ जाता हो और परिकल्पना में खो जाता हो वॉटर कलर में चित्रकारी करना जिस तरह मुश्किल होता है वैसे ही किसी -किसी का जीवन मुश्किलों से भरा होता है। वहीं ऑयल कलर अपनी ग़लतियों को दूरस्त करने का एक मौक़ा देता सा होता है जैसे ऑयल में हम ओवरलैप कर ठीक कर सकते है वही स्कैचज मनमौजी सा फ़क़ीराना मिज़ाज सा, जो जैसा है वही ढाल दो बस।

ये धरा, सूर्य और चन्द्र को अपने देव बना जैसे इन पर अपना अधिकार ही जमा, अपने राज्य कोडोनी पोलोकहने लगे यानी सूरज और चाँद। लगभग दो ढाई घंटे यहाँ सूरज पहले उगते हुए दिखता है। उगता क्या है जैसे कोई देव शिशु का पृथ्वी पर अवतरण हो रहा हो। पूरी घाटी, जिसे शायद ज़ीरो इसीलिए कहा गया हो कि जैसे यहीं से प्रकृति की सचेतनता का प्रारंभ होता हो। पूरी घाटी किसी ख़्वाबी खूबसूरत धूऐं से ढक जाती है। किन्ही जादुई करिश्माई पलों में पहाड़ों के पीछे से देवशिशु अपने आगमन से पहले कुछ किरणों को स्वागत के लिए भेजता हो और फिर धीरे धीरे पहले अपना भाल चमत्कृत करता और धीरे धीरे अपनी शीतलता में ऊर्जा को समेटे मुस्कुराता सा प्रकट होता है। प्रकृति का यह दिव्य पल अविस्मरणीय होता है। जो भी इसे देखता है निश्चित रूप से इतना अपलक, ठिठका सा रह जाता है जैसे इसी पल के लिए उसका जन्म हुआ हो जैसे साक्षात देव ने इन पलों में दर्शन दिये हों। सूफ़ियों का कहना भी तो है किख़ुदा कहता है मुझे देखना हो तो फ़िज़ाओं में देखो। भले महसूस तुम्हें घर बैठे तुम्हारे दिल में हो सकता हूँ।

जेपांग की कुछ छोटी छोटी दुकानों से दिखते बाज़ार में ही तोरुक्मणीमिली थी। चपटा सा नाक, छोटी छोटी मिचमिचियाती आँखें, गौर वर्ण पर खिला लाल- लाल गुलाब सा चेहरा, छोटे क़द की दुबली पतली ग़ज़ब की फुर्तीली थी। टूटी-फूटी सी हिंदी और अपनी बात आसामी में पूरी करती सी, मुझसे कब हिलमिल गई की शाम होते ही मेरी राह देखती मिलती। मैं वहाँ कोई सात महीने रहा। प्रोजेक्ट पूरा होते ही लौटना था। मेरी शाम उन्हीं दुकानों में ब्रेड कॉफ़ी की दुकान पर ही बीतती थी। लाओ उस दुकान को चलाता था और रुक्मणी उसमें छोटे-मोटे काम करती थी। अँधेरा हालाँकि चार बजे से होने लगता। मैं जब पाँच तक वहाँ पहुँचता लाओ मेरे लिए ख़ास ऑमलेट और कॉफ़ी तैयार रखता और साथ में मिलते रुक्मणी के हँसते खिलखिलाते संवाद। सोलह -सत्रह साल की रुक्मणी मुझे मेरी छोटी बहन सी लगती, जिसकी शरारत पर चोटी पकड़ खींचने का भी मन करता पर उसके चोटी थी ही कहाँ! बिलकुल सीधे चमकते बाल जिनमें सजी रहती चमचमाती क्लिपें।

तुम्हारा नाम रुक्मणी किसने रखा?”

मेरी माँ नेहँसते हुए कहती और क्यों के जबाब में लंबी कथा कह जाती।

कृष्ण की वाइफ़ थी रुक्मणी ! वो यही अरुणाचल से ही थी , उसी के साथ रहे थे कृष्ण।

तो?” मैंने उसके भोले से चेहरे को देखते से पूछा

तो क्या फेमली तो रुक्मणी के साथ ही मनाया !’ कहते हुए उसका गला रूँध सा गया, आँखों में कई रंग जैसे लहर से उतरे और चले गए

तो? उससे क्या, प्रेम तो राधा जी के साथ ही रहा ? ‘मैंने बात आगे बढ़ाते हुए उसे जैसे उकसाया हो।

उसने तुनकते हुए कहा

उससे क्या? फ़ेमली, बच्चा लोग तो रुक्मणी से ही हुआ न। यहाँ सब लड़की लोग रुक्मणी नाम रखना चाहती, राधा नहीं।कहते हुए उसने जैसे अपनी बात को विराम देते हुए कप उठाया और भीतर चली गई।

मैं सोच में पड़ गया। प्रेम का प्रतिरूप, कृष्ण की प्रतिच्छाया है राधा। भारत के अन्य क्षेत्रों में तोराधा कृष्णमय हो जाती है। जिस भी लड़की का नाम राधा हो, वही कृष्ण सखी बन इठलाती है। भारत की संस्कृति -रंगों की ख़ुशबू अद्वितीय, अलौकिक ही है। कहीं रावण को जलाया जाता है तो कहीं पूजा जाता है। कहीं राधारानी का इतना सरूर कि पुरुष भक्त ही राधारानी का वेश धर कृष्णमय हो जाते हैं।

तो तुम्हें तुम्हारा कृष्ण मिला कि नहीं?’ मुस्कुराते से मैंने पूछा। हँसने का असफल प्रयास करती बात टाल गरम-गरम कॉफ़ी मेरी टेबिल पर रख चली गई। मेरी नज़र उसकी आँखों के कोरों पर पड़ी जो डबडबा रही थी। भीतर से कुछ चुभन भी लगी जैसे किसी पतली सी लकड़ी की फाँस उँगली में अटक गई हो। कई देर तक उँगली सहलाता रहा। कारण खोजता सा उसे देखता रहा। बाहर भीतर चक्कर घिन्नी सी घूमती रुक्मणी को बस जैसे मुस्कुराते ही रहना आता था।

बजते बजते उसे घर जाने की बेचैनी होती दिखती। पर काम को पूरा करने का दायित्व भी झलकता। कश्मकश में बँधी हर आने वाले अतिथि का स्वागत करती रुक्मणी इस धरा-सी निश् गुड़िया सी थी।

पिछले दो-तीन दिन से दुकान पर रुक्मणी नहीं आई। मैंने लाओ से हल्के से उसके बारे में पूछा।

हाँ, नहीं आई।कह उसने जैसे बात पर फ़ुलस्टॉप लगा दिया।

शायद बाहरी लोगों से वो अपनी औरतों, लड़कियों के बारे में ज्यादा बात करना, किसी परदेसी की रुचि लेना पसंद नहीं करते। कॉफ़ी ख़त्म कर पैसे देते हुएँ मैंने जोर देकर पूछा

रुक्मणी ठीक तो है ?

उसने कुछ उदास होते से कहा-

उसका बच्चा बीमार है इसीलिए छुट्टी लिया।

बच्चा? रुक्मणी का?” मैंने आँखें फाड़ अचरज से पूछा।

हाँउसने बात वहीं बंद करने के अन्दाज़ में कहा।

उसकी शादी हो गई थी क्या?’ ढीठाई से मैंने पूछा। मेरी जिज्ञासा थम ही नहीं रही थी।

हाँ, पर उसका हेसबेंड छोड़ गया, अब वो अपनी माँ के साथ रहती है।

‘‘क्या?’’ मेरे सवाल को अनसुना सा करता लाओ भीतर चला गया। शायद वो भी सब से दुखी था।

अगले दिन जैसे-तैसे लाओ से रुक्मणी के घर का पता पूछ ढूँढते हुए उसके घर पहुँचा। जाने क्यों इस लड़की के प्रति एक ममत्व भाव पैदा हो गया था जो मुझे यहाँ खींच लाया। उसका भी मेरे प्रति स्नेह, खीझ अपनत्व की ख़ुशबू देता था। शायद मुझमें वो पिता या भाई की ऊष्मा महसूस करती हो। दरवाज़े पर मुझे खड़ा देख पहले तो वह हड़बड़ा गई फिर अपनी माँ को बुला मुझ से मिलाया और भीतर एक बाँस से बनी पिड्डी को साफ़ करते हुए बैठाया। लकड़ी के बांसों से बना घर इतना पुराना हो गया था कि उसकी बांस पर भूरी, हरी-हरी काई सी दिख रही थी। एक कमरे में रसोई, बाथरूम, छोटा स्टोर सब समाया था। बाहर दरवाज़े से ही गली दिख पड़ रही थी। जिसमें से कई घरों के बाहर लटकते सितारे हवा के झोंकों संग झूम रहे थे। समय की गर्दिश झेलते इन परिवारों को आस दिखाता सा वह सितारा और साथ में कुछ घरों पर टंगा सफ़ेद झंडा जिसमें सूरज बना था, जो इनकी पहचान का सूचक था इनकी आदिवासी जातिआदिका। आदि जाति में भी पाँच उपजाति [सबट्राइब] होती हैं मिनियों, पासी, पादम, बोरीप बोरप। इसके अतिरिक्त और भी मुख्य कई जातियाँ हैं, पर मुख्यआदिही ट्राइब है।

रुक्मणी की माँ कि गोद में सात -आठ महीने का बच्चा चिपका था, शायद मुझे देख सहम गया। कुछ उधड़ी सी शर्ट पजामे में बच्चे की आँखों में सौम्यता झलक रही थी। रुक्मणी की देखकर मैंने पूछ ही लियातुम्हारे फादर?”

दो साल पहले डेथ हो गयारुक्मणी के बोलने से पहले ही उसकी माँ बोल पड़ी। मैं हैरान था इन सबके बावजूद दोनों के चेहरे पर मुस्कान क़ायम थी। रुक्मणी के हाथ से पानी का गिलास ले बस सब जैसे जज्ब कर लेना चाह रहा था। वो रसोई में रखे संतरे ले मेरे पास रख उन्हें छीलने लगी। उसकी माँ की उम्र ज़्यादा नहीं लग रही थी पर सूखते शरीर, कपड़ों से आर्थिक स्थिति का पता लग रहा था। अपने साथ लाये मिठाई के बैग को उसे थमाते हुए मैं जल्दी ही चला आया।

उस दिन शाम को कॉफ़ी पीने पहुँचा तो रुक्मणी अपने परम्परागत परिधान से अलग जींस टॉप में थी। क़रीने से सजे बाल, कानों में बालियाँ डाले खूबसूरत लग रही थी।

क्या बात है रुक्मणी? आज तो बड़ी खुश हो भई।कॉफ़ी कप को थामते हुए मैंने पूछा।

जी! मैं कल से यहाँ काम पर नहीं आऊँगी। दिल्ली जा रही हूँउसने हँसते हुए अपनी बात ख़त्म की।

अरे! कैसे? अचानक!” मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि लाओ पास खड़ा हो गया और कुछ नाराज़गी के साथ बोला,

अब रुक्मणीएंजिलाहै। यह अब क्रिश्चन बन गया है। वही इसकी पढ़ाई के वास्ते दिल्ली भेज रहा है। अब ये लोगआदिनहीं होगा। मिनियों से अब ये दूर हो गया।कहते कहते जैसे उसका गला रुँ गया।

और तुम्हारा बच्चा?” मैंने रुक्मणी की आँखों में झाँकते हुए पूछा।

वो मेरी माँ के पास रहेगा। उसी के लिए मुझे कुछ करना है। अच्छा पढ़ कर कुछ बनना है। इसको बहुत प्यार देना है। पादरी लोग मेरी माँ को मिशनरी में काम दे रहा है। मेरी माँ की हैल्थ ठीक नहीं रहती थी उसके लिये पादरी सर ने बहुत प्रेयर किया। अब वो ठीक हो गई है। इसी के वास्ते माँ का इन पर विश्वास हो गया और अब हम सब इनसे जुड़ गया है। मुझे बहुत पढ़ना था। अब मैं पढ़ूँगी। मेरा क़ज़न दिल्ली में है। मैं भी वहीं पढ़ेगा।

अख़बारों में पढ़ी हेडलाइन याद आई किन -किन परिस्थितियों में इस राज्य से लोग अपनी विरासत से समझौता कर रहे हैं। अपनी धरा से निश्छलता का वरदान लि 'आदि' बस मुस्कुराना जानते हैं।

इस समझ से बेख़बर कि कुछ स्वार्थ से भरे दिमाग़ कैसे इनकी मासूमियत को ठग रहे हैं।

 

जाति रे जाति तेरे कितने रंग
कहीं तो नात छुड़ावत
कहीं इंसान भूलावत
कहीं ईमान गलावत
जाति रे जाति तेरे है अजब ढंग।

डॉ. शमा खान
अजमेर

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-51, जनवरी-मार्च, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव छायाकार : डॉ. दीपक चंदवानी

1 टिप्पणियाँ

  1. आपके लेख के शीर्षक ने काफी प्रभावित किया, तीन बार पढ़ा तब जाकर इस अनुशीलन पर पहुंचा कि मिट्टी के कण कण में ढेरों कथाएं हैं, जो जीवन दर्शन की व्याख्या करती है, पर अफसोस आजकल के विद्यार्थी का अध्ययन सीमित होता जा रहा है वे संस्कृति और जीवन दर्शन से दूर हो रहे हैं।। आदरणीय डॉ शमा खान जी आपको सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए आभार।

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