अफ़लातून की डायरी (6) : जामिया में रिफ्रेशर कोर्स / विष्णु कुमार शर्मा

अफ़लातून की डायरी (6) : जामिया में रिफ्रेशर कोर्स
- विष्णु कुमार शर्मा


जामिया में पहला दिन
[03.10.2024]

जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली में रिफ्रेशर कोर्स का आज पहला दिन था। अफ़लातून को रिफ्रेशर कोर्स करना था, और वह भी केवल ऑफलाइन। ऑनलाइन के ढेर सारे विकल्प थे लेकिन हमने छोड़ दिए। हमने मल्लब अफ़लातून, बलदेव और दीपक जी। कोरोना के दौरान ऑनलाइन करना-कराना हमारी मज़बूरी थी। लेकिन अब लोगों ने इसे ही आदत बना लिया। बाहर हम जाएँगे नहीं, लोगों से मिलेंगे नहीं, पढ़ेंगे-गुनेंगे नहीं, तो तरोताज़ा (रिफ्रेश) कैसे होंगे? ऑनलाइन के फ़ायदे भी हैं लेकिन वह फेस टू फेस लर्निंग का विकल्प नहीं। और हिंदी वालों ने ‘रिफ्रेशर’ का कितना ख़राब हिंदी अनुवाद किया है- ‘पुनश्चर्या’; क्या ‘पुनर्नवा’ नहीं हो सकता था? या और कुछ भी? चलती जुबान वाली हिंदी में। हिंदी का सबसे ज्यादा कबाड़ा इन पारिभाषिक व तकनीकी शब्दावली गढ़ने वालों ने ही किया है। आमफ़हम वाली हिन्दुस्तानी जबान को कठिन तकनीकी शब्दों से लादकर, खराब अनुवाद करके। देस भाषा में भी बहुतेरे विकल्प मौजूद होते हैं लेकिन नहीं साहब, इन्हें तो कोई संस्कृतनिष्ठ जटिल शब्द ही लाना है। फिर चाहे जनता उसे बरते ही न; भले ही अंग्रेजी या अन्य भाषा के उस शब्द को ही उसी रूप में वापरने लगे।... सो, इस रिफ्रेशर कोर्स के लिए अफ़लातून सुबह पौने सात बजे डबल डेकर ट्रेन में सवार हो दौसा से चला; अलवर से दीपक जी साथ हो लिए। ट्रेन ने दस बजे दिल्ली कैंट स्टेशन उतारा। वहाँ से हमने ऑटो लिया, रास्ते में मिले जाम से जामिया तक पहुँचने में हमें तकरीबन डेढ़ घंटा लग गया। अफ़लातून को बड़े शहर इसीलिए पसंद नहीं, भारी-भरकम ट्रेफिक के कारण, घंटों लगने वाले जाम के कारण। हम पहुँचे तब तक उद्घाटन सत्र ख़त्म हो चुका था। फोटो सेशन हो रहा था। अब्दुल बिस्मिल्लाह उद्घाटन सत्र के मुख्य वक्ता थे। हम उन्हें सुनने से वंचित रह गए लेकिन फोटो सेशन में शामिल हो लिए। अब्दुल बिस्मिल्लाह जामिया में हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर थे। शायद अब सेवानिवृत्त हो गए हैं। उनके परिचय के लिए उनकी एक रचना ही पर्याप्त है- ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’।

जाते ही हम बलदेव से गले मिले। इस बार मुलाकात जल्दी हो गई। अभी मई में हम तीनों हिमाचल गए थे। हमने साल में कम से कम एक बार मिलना तय किया है। वह समय से पहुँच गया था। हम दोनों ने रजिस्ट्रेशन की औपचारिकता पूरी की। इसके बाद हमने चाय पी। चाय के साथ सबने अफ़लातून की संगिनी के हाथों बने आलू के पराठों का भोग लगाया। अगला सत्र बारह बजे से शुरू हुआ। इस सेशन में प्रो. अहमद महफ़ूज ने प्रतिभागियों को उर्दू शायरी की बुनियादी जानकारी से परिचय कराया। रिफ्रेशर कोर्स में हिंदी- उर्दू के अलावा अरबी, फ़ारसी, असमिया, मणिपुरी, मलयालम, स्पैनिश, फ्रैंच आदि भाषाओं के प्रतिभागी हैं। बहुभाषी कोर्स कराना अच्छी पहल है। प्रो. महफ़ूज ने बताया कि ग़ज़ल की दुनिया वास्तविक नहीं, कंवेंशनल या छद्म है। आशिक, माशूक और अन्य सभी पात्र टाइप्ड हैं। इसमें नई विषयवस्तु की कोई संभावना नहीं, न ही शायर का निजी अनुभव कोई मानी रखता है। बस कहन निराली होती है। नए-नए मजमून बाँधने में ही उसकी फनकारी है। प्रो. महफ़ूज के हवाले से शायर गुलाम हम्दानी मुसहफ़ी का एक शे’र पेश-ए-नज़र है-

“शबे हिज्र सहरा-ए-जुल्मात निकली
मैं जब आँख खोली बहुत रात निकली”

लंच में बढ़िया खाना था। दाल मखनी, शाही पनीर, मिक्स वेज, तवा चपाती, चावल, सलाद और मीठे में सेंवई की खीर। खीर अफ़लातून का प्रिय व्यंजन है। लंच के बाद दो बजे से अगला सेशन था। विषय था- ‘संचार और भाषा’ और वक्ता थे- ‘द हिन्दू बिजनेस’ के संपादक शिशिर सिन्हा। लेकिन हुआ ये कि सिन्हा साब का खुद का ही कम्युनिकेशन ख़राब निकला और वे क्लास छोड़कर चलते बने। भोजपुरी को छोटी बोली कहने पर एक प्रतिभागी ने आपत्ति की। सिन्हा साब ने एक लूज कमेन्ट किया। वे भिड़ गईं, फलतः सिन्हा साब का इगो हर्ट हो गया और वे क्लास छोड़कर चल दिए। हालाँकि गलती दोनों तरफ से थी। फिर भी ऐसा होना दुर्भाग्यपूर्ण था। नहीं होना चाहिए था। केरल, कश्मीर, असम, मणिपुर, महाराष्ट्र, राजस्थान... देश के कोने-कोने से हम लोग यहाँ आए हैं, कुछ सीखने-समझने। केवल सर्टिफिकेट हमें चाहिए होता तो घर बैठे ऑनलाइन कोर्स कर लेते। क्यों इतना किराया-भाड़ा लगाकर, घर-बार छोड़कर यहाँ आते? ग़र कोई रिसोर्स पर्सन कोई नाज़ायज बात कह भी रहा है तो सुन लेना चाहिए। ज्यादा करो तो नम्र स्वर में असहमति जता देनी चाहिए। उधर सिन्हा स्साब भी चूँकि मूलतः अध्यापक नहीं हैं तो उन्हें ऐसी सिचुएशन और ऐसे स्टूडेंट्स को डील करना नहीं आता। उपद्रवी बच्चे हमारी कक्षाओं में नहीं होते क्या? पर होनी को कौन टाल सकता है? और ‘होनी’ भी क्या होनी होती है, हमारे कर्म से ही होनी होती है। हमारा चयन, हमारे निर्णय और तदनुसार हमारे कर्म ही हमें फल रूप में प्राप्त होते हैं लेकिन हम नाम दे देते हैं भाग्य का, नियति का, ईश्वर की मर्जी का। हमारा चुनाव करना ही इस बात का सबूत है कि हम चेतना हैं, कॉन्शियसनेस। खैर... हम विशुद्ध चेतना हैं इस बात को भी कितने लोग जान पाते हैं?

चौथे सेशन में जामिया के अंग्रेजी विभाग की प्रोफ़ेसर सिम्मी मल्होत्रा वक्ता थीं। उन्होंने केन्या के लेखक न्गुगी वा थिओंग ओ पर व्याख्यान दिया। सिम्मी मैम की एक सौ बीस की स्पीड वाली धुंआधार अंग्रेजी, माशाल्लाह... फिर भी शानदार लेक्चर था। न्गुगी वि-औपनिवेशिकरण के पैरोकार हैं। नैरोबी विश्वविद्यालय में रहते हुए उन्होंने अंग्रेजी विभाग को समाप्त करने की वकालत की और तर्क दिया कि औपनिवेशिक भाषा और साहित्य के स्थान पर देश के लोगों को मूल अफ्रीकी भाषाओं का समृद्ध साहित्य और विशेष रूप से मौखिक साहित्य पढ़ाया जाना चाहिए। फलतः विश्वविद्यालय ने अंग्रेजी विभाग को समाप्त कर दिया। उन्होंने ख़ुद अंग्रेजी छोड़कर अपनी मूल भाषा ‘गिकुयू’ में लिखना शुरू किया। न्गुगी ने अपने जीवन का लंबा वक्त राजनैतिक कैदी के रूप में जेल में बिताया। वास्तव में न्गुगी हम भारतवासियों के लिए बहुत प्रेरक व्यक्तित्व हैं। भारत से भले अंग्रेज चले गए लेकिन अंग्रेजियत नहीं गई। वि-औपनिवेशिकरण की बयार पूरी दुनिया में चल रही है लेकिन भारत में यह मंद है। इस देश में न्याय किसी भारतीय भाषा में संभव नहीं। मेडिकल, इंजीनियरिंग की पढ़ाई भारतीय भाषाओं में संभव नहीं। वर्तमान केंद्र सरकार ने इस दिशा में कुछ प्रयास किए हैं। फलतः म.प्र., उ.प्र. व उत्तराखंड में मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में शुरू हो गई है। मुझे याद है म. प्र. में जब ऐसा शुरू हुआ तब सोशल मीडिया पर मीम बनाकर इसका खूब मजाक बनाया गया कि अब डॉक्टर की पर्ची हमें इस तरह मिलेगी, दवाएँ इस तरह लिखी जाएँगी... और हम बह जाते हैं इन चालाकियों के साथ। शेयर करने लगते हैं इस तरह के मैसेजेज। ये व्यवस्था पर काबिज़ वो एलीट लोग हैं जो नहीं चाहते कि मादरी जबां में पढ़े-लिखे ये ग़रीब-गुरबे हमारी बगल में आकर खड़े हों।

जामिया में दूसरा दिन
[04.10.2024]

पहले सेशन में मोहम्मद फैजुल्ला खान सर ने अनुवाद विषय पर विद्वतापूर्ण व्याख्यान दिया। अनुवाद के द्वारा ही दुनिया की एक भाषा और संस्कृति का ज्ञान दूसरी भाषा और संस्कृति में हमेशा से ट्रांसफर होता आया है। हालाँकि अच्छा अनुवाद करना मुश्किल काम है लेकिन नामुमकिन नहीं। औपनिवेशिक संस्कृतियों के वर्चस्व को तोड़ने के लिए आज पूरी दुनिया में अनुवाद पर विशेष काम हो रहा है। साथ ही अपनी मूल भाषा में लेखन पर बल दिया जा रहा है। भारत में नई शिक्षा नीति-2020 में भी इन दोनों बातों के साथ शोध पर विशेष बल की बात की जा रही है। चाय के बाद दूसरे सत्र में जेएनयू के भाषा, साहित्य और संस्कृति विभाग से देवीशंकर नवीन थे। कल से हम उर्दू और अंग्रेजी ही सुन रहे थे। अब अपनी भाषा में सुनने का सुख मिल रहा था, तो सब कुछ बिना प्रयास के भीतर उतरने लगा। विषय था- ‘भाषिक चेतना, अनुवाद और राष्ट्रबोध’। देवीशंकर नवीन स्वयं को नामवर सिंह और कबीर की परंपरा में मानते हैं। कबीर के कई पदों के माध्यम से उन्होंने अपनी बात कही। उन्होंने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के हवाले से कहा कि हमारा उठा हुआ अगला कदम प्रगति का सूचक है तो जमीं पर टिका हुआ कदम परंपरा का।

अगले सत्र के वक्ता थे- प्रो. मोहम्मद एहसानुअल हक़ उर्फ़ कौशर मजहरी। आप प्रोफ़ेसर होने के साथ बढ़िया शायर भी हैं। विषय था- ‘आधुनिक उर्दू शायरी की चुनौतियाँ और संभावनाएँ’। बीसवीं सदी में उर्दू कविता का विकास भी कमोबेश हिंदी कविता की विकास यात्रा के अनुरूप ही हुआ है। टी-ब्रेक के बाद दिन के आख़िरी सेशन के वक्ता थे- प्रो. नफ़ीस अहमद। आप जामिया के दंत विभाग में प्रोफ़ेसर हैं। युवा और सुदर्शन प्रोफ़ेसर। आपका विषय था- ‘हमारा स्वास्थ्य और जीवनचर्या’। थकान के बावजूद सबने इस सेशन को पूरे मनोयोग से सुना क्योंकि विषय हम सबकी ज़िन्दगी से सीधा जुड़ा था। प्रो. नफ़ीस अहमद ने बताया कि हमारे शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग हमारा कलेजा यानी लीवर है। फैटी लीवर होने से ही लीवर कैंसर, डायबिटीज, बी.पी. और हृदय संबंधी रोग होते हैं। सो, हमें लीवर का ख़ास ख्याल रखना चाहिए। सेचुरेटेड फैट यानी पशुओं की चर्बी, डेयरी उत्पाद, नारियल तेल, घी, पाम ऑइल, बटर आदि से बचना चाहिए। और ट्रांस फैट यानी वनस्पति घी व उससे बने उत्पादों से बचना चाहिए। डीप फ्राई चीजों का सेवन न्यूनतम करना चाहिए। स्नैक्स के रूप में आलू चिप्स, कुरकुरे, कुकीज, डोनट्स, फ्रेंच फ्राईज, बिस्कुट आदि की जगह फल लेने चाहिए। प्रो. अहमद ने स्वस्थ जीवन के लिए खानपान का सूत्र दिया कि चार सफेद चीजें यानी मैदा, चीनी, नमक और घी को कहें ‘बाय-बाय’। और फल, सब्जियाँ, सूखे मेवे, साबुत अनाज, सत्तू, अंकुरित अनाज को कहें- ‘वेलकम’। लाइफ में एक्सरसाइज़ को करें ‘इन’ और नशे को ‘आउट’। लब्बोलुआब यह था कि नशा कोई भी हो, सेहत का दुश्मन है और मोटापा सारी बीमारियों की जड़।

शाम में हम तीनों कुतुबमीनार देखने चले गए। पहुँचे तब तक अँधेरा हो गया था। लाइट्स जल उठी थीं। अद्भुत नजारा था। मध्यकालीन वास्तुकला का सुंदर नमूना है यह बहुमंजिला गुम्बद। वहीं चौथी शताब्दी में निर्मित महरौली का लौह स्तम्भ भी खड़ा है जो प्राचीन भारत के धातुकर्म-कौशल का अद्भुत नमूना है। मेट्रो से लौटती बेर सुखदेव विहार स्टेशन उतरे। पैदल चलकर एक जगह खाना खाया और जामिया के गेट नं. आठ स्थित ओल्ड एसआरके हॉस्टल लौट आए।

जामिया में तीसरा दिन
[05.10.2024]

पहला सेशन हल्का रहा। अरबी के कोई प्रोफ़ेसर थे। इसके बाद ठीक अगले सेशन का हमें इंतजार था ही। वक्ता थे हिंदी के ख्यातनाम लेखक, आलोचक, अनुवादक और शिक्षक- प्रभात रंजन। उनका कहना था कि “हिंदी व उर्दू का दायरा उन लोगों के बीच सिमट रहा है जो इनके प्राथमिक उपयोगकर्ता हैं”। यह हमारे लिए चिंता का विषय है। हिंदी पट्टी के छोटे से छोटे कस्बे में अंग्रेजी माध्यम स्कूल धड़ल्ले से खुल रहे हैं। मध्यमवर्गीय माता-पिता अंग्रेजी माध्यम स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ाकर गर्वित अनुभव करते हैं। अंग्रेजी इस देश में रोटी की गारंटी है। न्याय की गारंटी है, शिक्षा औए स्वास्थ्य की गारंटी है। प्रभात रंजन का कहना था कि ऐसा नहीं है कि हिंदी के यूजर्स बढ़ नहीं रहें, बल्कि तेजी से बढ़ रहे हैं। ऐसे लोग जो हिंदी के तीसरे या चौथे उपयोगकर्ता हैं मल्लब हिंदी वे तीसरी या चौथी भाषा के रूप में अपना रहे हैं, वे बढ़ रहे हैं। देश में ही हिंदी पट्टी के अलावा अन्य राज्यों के लोग तेजी से हिंदी सीख रहे हैं। वे संपर्क भाषा के रूप में हिंदी को अपना रहे हैं। हिंदी बोलचाल की भाषा के रूप में तेजी से बढ़ रही है। भारत चूँकि दुनिया के दूसरे मुल्कों के लिए बड़ा बाजार है इसलिए वे भी बोलचाल की हिंदी सीख रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि इन नए उपयोगकर्ताओं से क्या हिंदी का भला हो पाएगा? क्या तीसरी या चौथी भाषा के रूप में हिंदी का उपयोगकर्ता हिंदी में गंभीर लेखन कर पाएगा? हिंदी का कोर यूजर (हिंदी जिसकी प्रथम या द्वितीय भाषा है) हिंदी से दूर हो रहा है, यह चिंता का विषय है। दूसरी चिंता हिंदी की निजी चिंता है कि हिंदी में साहित्य लेखन तो भरपूर हुआ है और हो रहा है लेकिन ज्ञान के दूसरे अनुशासन जैसे इतिहास, दर्शन, राजनीति विज्ञान, भूगोल, विज्ञान आदि में पर्याप्त लेखन नहीं हो पाया है। हिंदी में यूनिकोड आने और सोशल मीडिया के आने से हिंदी की लोकप्रियता में तेजी से इजाफ़ा हुआ है। इससे पहले हिंदी फिल्मों के कारण भी भाषा का तेजी से दायरा बढ़ा। प्रभात रंजन का कहना था कि हिंदी के लिए एक खुशखबरी यह है कि “अंग्रेजी के तमाम बड़े लेखक यह चाहते हैं कि उनकी किताब अनुवाद के माध्यम से हिंदी में आए”। हिंदी का पाठक भी विश्व साहित्य पढ़ना चाहता है। अनुवाद की इसमें बड़ी भूमिका है और अनुवाद के क्षेत्र में रोजगार की बेहद संभावनाएँ हैं। मेरा मानना है कि अनुवाद को रचनात्मक लेखन से कहीं से भी दोयम नहीं माना जाना चाहिए। अनुवाद पुनर्रचना है।

लंच के बाद मंसफ़ आलम साहब ने आर्टिफिशयल इंटेलीजेंस पर बहुत ही ख़राब व्याख्यान दिया। प्रेजेंटेशन में कई बार दिक्कतें आईं। जो वे दिखाना चाह रहे थे वो दिखा नहीं पाए जबकि आते ही उन्होंने दावा ऐसा किया जैसे जादूगर पी. सी. सरकार अपने मैजिक शो में करते हैं- “तो देवियों-सज्जनों, दिल थाम के रखिए...” दीपक जी ने इस पर चुटकी ली कि इससे स्पष्ट है कि “ए.आई. से भारत को कोई ख़तरा नहीं है”। हहाहहा... इसके बाद टी-ब्रेक हुआ। चाय के साथ कुकीज थी। दीपक जी ने कुकीज खाने से मना कर दिया कि इसमें अंडा होता है और अंडे से उन्हें एलर्जी है। तबियत ख़राब हो जाती है। और हमारी तबियत बस ये सुनकर ख़राब हो गई कि इसमें अंडा है। सो, हमने बस चाय पी। आख़िरी सेशन लाज़वाब रहा। प्रो. सरोज महानंदा ने वि-औपनिवेशिकरण बल्कि बहु-औपनिवेशिकरण से हमें रूबरू कराया। औपनिवेशिकरण केवल राजनैतिक ही नहीं होता बल्कि लिंग, जाति, धर्म, समाज, अर्थव्यवस्था... आधारित भी होता है।

दिन में हमने जामिया में हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर मुकेश मिरोठा को फोन लगाया। आप हमारी पत्रिका ‘अपनी माटी’ संपादन-समूह से जुड़े हैं। शाम को मिलना तय हुआ। पाँच बजे क्लास ख़त्म कर हम उनसे मिलने पहुँचे। हमारा हॉस्टल जामिया के गेट नंबर आठ में घुसते ही दाहिनी ओर था। इसके ठीक सामने ही गेट नंबर सात में नया भवन है। मिरोठा जी ने वहीं मिलने बुलाया। मैं और बलदेव गए। दीपक जी को अलवर जाना था। उनके पिताजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। मिरोठा जी से पहली ही मुलाकात थी। अभी तक फोन पर ही बातचीत थी। परिचय हुआ, उन्होंने चाय पिलाई। छह बजे वहाँ से निकले तब वहाँ क्लासेज चल रही थीं। एक हमारे यहाँ बच्चा दो बजे बाद रुकना ही नहीं चाहता, आप चाहे कितना ही बढ़िया क्यूँ न पढ़ाओ। बाहर मुख्य द्वार से घुसते ही लॉन में ग़ालिब का आदमकद बुत खड़ा है। बागीचे को नाम दिया है- ‘गुलिस्तां-ए-ग़ालिब’। अपने पुरखे की पनाह में हमने एक अदद फोटो खिंचवाने की गुज़ारिश की। मिरोठा जी ने एक विद्यार्थी को बुलाकर फोटो खिंचवाया। इस तरह एक सुंदर याद हमने अपने साथ सँजो ली- जामिया की, ग़ालिब की और मिरोठा जी की। अब वे हमें अपने घर ले जा रहे हैं। सुखदेव विहार मेट्रो स्टेशन से आगे निकलते ही उन्होंने बताया कि “ये प्रियंका गाँधी का घर है”। मिरोठा जी का घर तीसरे तल्ले पर था। छोटा लेकिन सौन्दर्यबोध से परिपूर्ण। पत्नी-बच्चे दशहरे की छुट्टियों में ‘घर’ यानी सवाईमाधोपुर स्थित अपने गाँव गए हैं। शहर में घर लेने के बाद भी आदमी जब घर की बात आती है तो अपने गाँव के घर को ही ‘घर’ कहता है। ऐसा एक घर हम सबके पास होना चाहिए जहाँ हम जब-तब जा सकें और उसे अपना घर कह सकें। “साडा वतन तो लाहौर है जी !” मिरोठा जी भी बलदेव की तरह पक्के बैठकबाज हैं। खिलाने-पिलाने और बातों के शौक़ीन। हम दिनभर खूब खा चुके थे इसलिए हम उन्हें खिलाने का मौका नहीं दे रहे थे। उन्हें लग रहा था कि अपने देस से लोग आए हैं और मैं कोई मेहमाननवाजी नहीं कर पा रहा हूँ। हर दूसरी बात का सिरा वे राजस्थान से खोज निकालते। दिल्ली में रहते अठारह साल हो आए हों लेकिन “साडा वतन तो राजस्थान है जी”। ख़ूब चर्चा के बाद खाना बाहर से मँगवाया गया, खाया गया। इसके बाद काजूकतली और अंत में चाय पिलाकर उन्होंने विदा किया।

जामिया में चौथा दिन
[06.10.2024]

आज रविवार है। दीपक जी कल शाम में घर चले गए। हॉस्टल में अफ़लातून और बलदेव हैं। दीपक जी का आग्रह था कि आज दिन में हमें अक्षरधाम मंदिर जाना चाहिए। मेट्रो से अक्षरधाम पहुँचे। विशाल परिसर में फैले इस मंदिर की शिल्पकला आधुनिक काल के मंदिरों की तुलना में बेजोड़ है। पहले मोबाइल रखने के लिए लाइन में लगे। फिर प्रवेश हेतु लाइन। बेल्ट, पर्स आदि निकलवाकर जाँच हुई। शॉर्ट्स पहनी हुए महिलाओं कमर में लपेटने के लिए पीली धोती दी गई। टॉयलेट एकदम साफ़, एकदम बढ़िया और निःशुल्क पीने का पानी। मैं उस मंदिर, संस्थान या घर को बढ़िया मानता हूँ जहाँ ये दो बेसिक चीजें बढ़िया मिल जाए। पहले हमने मुख्य मंदिर में दर्शन किए। कैंटीन में खाना खाया। दीपक जी ने इसरार किया था कि अक्षर धाम मंदिर जरूर जाना और वहाँ नौका विहार शो देखना बिलकुल नहीं भूलना, वर्ना अफ़लातून और बलदेव दोनों ही मंदिर आदि की भीड़भाड़ से बचने वाले लोग हैं। मन-मंदिर में ही राम की झाँकी देखने वाले। सुबह बलदेव ने प्रकाश गाँधी की आवाज में कबीर का भजन यूट्यूब पर सुनाया था-

“म्हाने अबकै बचा ले म्हांरी माय, बटाऊ आयो लेवण नै-2
आठ कोठड़ी नौ दरवाज़ा इन मंदिर रे माय-2
लुकती छिपती मैं फिरु रे, लुकती ने छोड़े बैरी नाय
बटाऊ आयो लेवण नै
म्हाने अबकै बचा ले म्हांरी माय, बटाऊ आयो लेवण नै”

बटाऊ रूपी काल आ गया है। राम का भजन किया नहीं, सत्कर्म किए नहीं, काल सिर पर आकर सवार हो गया है और जीवात्मा बिलख रही है कि ‘अबकै बचा ले म्हांरी माय’। वेदांत दर्शन को लोक ने और विशेषकर संत कवियों ने बहुत सरल भाषा में व्यक्त किया है लेकिन हम न जाने किस मिट्टी के बने हैं कि हमें न लोक की बात समझ आती हैं और न शास्त्र की।

हमने टिकट लिया और शो की लाइन में लगे। शो में अक्षरधाम मंदिर के भगवान स्वामी नारायण की जीवनी दिखाई गई। दो शो देखने के बाद तीसरा हमने स्किप किया और सीधे नौका विहार में घुस गए। नौका विहार अद्भुत था। भारतीय वैदिक सभ्यता और मौर्य-गुप्त काल को बहुत सुंदर तरीके से दिखाया गया था। बाहर निकलते हम दोनों के मुँह से बेसाख्ता निकला कि “यार, बच्चों को जरूर दिखाना चाहिए”। बलदेव बोला- “हम पक्के गृहस्थ हैं, कोई चीज बढ़िया देखी नहीं कि मन में सबसे पहला भाव यही आता है कि ये चीज या जगह परिवार को दिखानी चाहिए”। वहाँ से मेट्रो पकड़ हम एनएसडी पहुँचे। अब तक एनएसडी यानी नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा का नाम भर सुना था या पढ़ा था। सुरेन्द्र वर्मा के उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ या पीयूष मिश्रा के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘तुम्हारी औकात क्या है’ या मनोज वाजपेयी, पंकज त्रिपाठी या ओमपुरी के इंटरव्यूज में, आज देख रहे थे। इस सांस्कृतिक तीर्थ को हमने प्रणाम किया। छह बजे नाटक शुरू हुआ- हैमलेट। एनएसडी के सेकेण्ड सेमेस्टर के छात्रों ने इसे खेला। शानदार अभिनय और अद्भुत प्रस्तुति थी।

जामिया में पाँचवाँ दिन
[07.10.2024]

दीपक जी को पहला सत्र मॉडरेट करना था लेकिन उन्होंने अफ़लातून को करने को कहा। बाद में अफ़लातून का सत्र वे कर लेंगे। जामिया के डिपार्टमेंट ऑफ़ एजुकेशनल स्टडीज से प्रो. अरशद इकराम अहमद वक्ता थे। अफ़लातून ने उनका परिचय दिया और सत्र शुरू हुआ। विषय था- ‘भाषा शिक्षण शास्त्र’। प्रो. अहमद ने इस बात पर बल दिया कि उच्च शिक्षा में शिक्षण शास्त्र की विधियों, प्रविधियों और तकनीकों पर कम ध्यान दिया जाता है। भाषा शिक्षण और विशेष रूप से द्वितीय भाषा के शिक्षण में। हम अभी भी व्याख्यान विधि से पढ़ाए जा रहे हैं। भाषा शिक्षण में उन्होंने एक सुंदर कौशल की बात की- मातृ कौशल की। माँ जिस तरह बच्चे को भाषा सिखाती है वह कौशल हम सब शिक्षकों के लिए बहुत उपयोगी है। स्कूल टीचर के पास तो बच्चा तब आता है जब वह ढाई-तीन साल का हो जाता है। भाषा की बुनियादी समझ उसमें विकसित हो गई होती है। लेकिन माँ बच्चे से तब वार्तालाप शुरू कर देती है जब वह बमुश्किल कुछ दिनों का होता है। यह आँखों की भाषा होती है, स्पर्श की भाषा होती है, लाड़ की भाषा होती है। वह तुतलाकर बच्चे से बात करती है, उसके लेवल पर जाकर। बच्चा समझता नहीं है तो वह उसे डाँटती नहीं। बार-बार सुधार कराती है। प्रोत्साहित करती है। भाषा शिक्षण की यही पद्धति श्रेष्ठ पद्धति है।

टी-ब्रेक के बाद अगले सत्र में वक्ता थीं- प्रो. निशत ज़ैदी। उन्होंने डी-कॉलोनाइजिंग और ट्रांसलेशन पर बात की। शानदार लेक्चर था। दो बातें मुझे याद रह गईं। एक, “Act of writing is act of translation. There is nothing original thing.” यानी कोई लेखन, मौलिक लेखन नहीं है। मौलिक लेखन भी एक तरह का अनुवाद है। इसलिए अनुवाद को दोयम दर्जे का नहीं माना जाना चाहिए। और देखा जाए तो अनुवाद भी एक तरह से पुनर्लेखन है। दूसरी बात प्रेमचंद के हवाले से उन्होंने कही कि भारत में साम्प्रदायिकता का एक कारण यह है कि “हिन्दू-मुस्लिम एक-दूसरे की संस्कृति व इतिहास के बारे में कम जानते हैं और न ही जानना चाहते हैं”। और इधर इन दिनों यह कूढ़मगजता ज्यादा बढ़ी है।

लंच में आज मटर-पनीर, पीली दाल, चावल, रोटी, सलाद और मीठा था। हम तीनों ही पहले प्लेट भरकर सलाद खाते हैं। तवा चपाती अच्छी नहीं बनती तो मैं केवल एक चपाती लेता हूँ, शेष उदर-पूर्ति चावल से करता हूँ। यूँ घर में मैं चावल कम खाता हूँ। आज जो दाल बनी है वो पीली मटर की है। असल में यह पीली मटर पशुओं के लिए प्रोटीन का बढ़िया स्रोत है। चूँकि यह सस्ती होती है तो होटल वाले यलो दाल या दाल तड़का या दाल फ्राई के नाम पर यह चला देते हैं। वैसे दिल्ली में दाल मखनी यानी काली उड़द की दाल ही ज्यादा चलती है। कहीं-कहीं इसमें राजमा भी डलता है। मैंने अब तक जो राजमा खाया है उसमें जम्मू वाला छोटी साइज़ का राजमा बेस्ट लगा। मीठे में क्या था समझ नहीं आया। शाजिया मैम से पूछा तो उन्होंने बताया कि फिरनी है। चावल को पीस कर दूध में उबालते हैं और ढेर सारे ड्राई-फ्रूट्स। खीर ही है एक तरह से, बस चावल पीसकर डाला जाता है तो अच्छे-से घुट जाती है।

दलित चिंतक, कहानीकार व प्रोफ़ेसर अजय नावरिया लंच के बाद के इस सत्र के वक्ता थे। ‘कथा-दृष्टि’ विषय पर आपने व्याख्यान दिया। नावरिया जी काफ़ी बच-बच कर बोले ताकि किसी विवाद में न पड़ें। हालाँकि वाद-विवाद की काफ़ी गुंजाईश थी लेकिन उन्होंने मध्यम-मार्ग अपनाया। जो मार्के की बात आपने कही वह यह थी कि प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा है। लेकिन व्यवहार में हम देखते हैं और पिछले सौ-दो सौ साल के इतिहास का हमारा अनुभव है कि साहित्य में बदलाव राजनैतिक-सामाजिक कारणों से ही आए हैं। फिर सवाल उठता है कि क्या राजनीति साहित्य के आगे चलने वाली मशाल तो नहीं बन गई है और साहित्य पिछलग्गू बन गया है?

आख़िरी सेशन ख़त्म होने के वक्त से पंद्रह मिनट पहले हम क्लास से निकल गए। दीपक जी के मित्र गौरव जैन के मित्र अफज़ल से मुलाकात तय थी। अफज़ल ने छह बजे से पहले हुमायूँ के मकबरे पर पहुँचने को कहा था। हम साढ़े पाँच पहुँच गए। अफज़ल को पहुँचने में थोड़ा वक्त लगा तब तक हमने आइसक्रीम खाई। छह बजे एंट्री बंद हो जानी थी। आख़िर अफज़ल आ गया और हमने पाँच बजकर पचपन मिनट पर एंट्री ले ली। छब्बीस एकड़ में फैले इस मकबरे में कई दरवाजे पार कर हम मुख्य भवन तक पहुँचे। यह चार बाग़ शैली का मकबरा है जो बहुत ऊँचाई पर बना है। लाल-सफ़ेद संगमरमर के अद्भुत संयोजन से बना यह अष्टकोणीय मकबरा ताजमहल का प्रेरणा-स्रोत माना जाता है। अफज़ल एक अच्छे गाइड की तरह हमें सब बताता चल रहा था। इस परिसर में आठ बादशाहों सहित एक सौ साठ से अधिक मुगल शाही परिवार के सदस्यों को दफ़नाया गया है। हुमायूँ के मकबरे की दक्षिण दिशा में अब्दुर्रहमान की पत्नी माह बानो का मकबरा है जो इस परिसर में किसी पहली महिला का मकबरा है। शाम घिर चली थी। अँधेरा हो आया था। वहाँ से पैदल ही हम सुंदर नर्सरी गए। नर्सरी या कहें गार्डन नाम के अनुरूप सुंदर है। अफज़ल ने कहा कि इसका सुंदरतम रूप देखना हो और इसका ही नहीं दिल्ली का सुंदरतम रूप देखना हो तो फरवरी के महीने में आना चाहिए। कुछ ऋतुराज बसंत की मेहरबानी और कुछ सरकारी प्रयास, दिल्ली को आपके सामने उसके बेस्ट रूप में प्रजेंट करते हैं। एक गार्डन में कुछ लड़कियाँ अच्छी-अच्छी ड्रेसेस में फोटो खिंचवा रही थी, रील्स बना रही थीं। आगे बढ़े तो एक गार्डन में तीन लड़कियाँ पिंक ड्रेसेस पहने, पिंक कलर का बड़ा-सा केक काट रही थी। उनमें से किसी एक का बर्थ-डे था। किसका था, पता नहीं चल पा रहा था। तीनों ऐसे ही सजीं थी जैसे हरेक का बर्थ-डे हो। परियाँ-सी या चर्च से निकली दुल्हन-सी। अफज़ल बोला- “जनाब, लड़कियाँ हैं ना, खुश रहती हैं। ज़िन्दगी को एन्जॉय करती हैं। और एक अपने लौंडे हैं, सब साले मनहूस! दिल में कोई उमंग ही नहीं। गम हो, ख़ुशी हो, बस एक ही तरीका है इनके सेलेब्रेशन का- आ यार, बैठते हैं”। हह्हहाह्हा....

दीपक जी ने कहा कि हमें लोटस टेम्पल भी देखना चाहिए। अफज़ल ने सम्मति दी। लोटस टेम्पल बहाई धर्म का उपासना स्थल है लेकिन अब वह बंद हो चुका था। बहाई धर्म में मान्यता है कि दुनिया के सभी धर्मों का मूल एक है। इसकी स्थापना ईरान में एक संत बहाउल्लाह ने की। दुनिया भर में इसके करीब पाँच मिलियन अनुयायी हैं। बहाई धर्म में नस्लवाद, धार्मिक पूर्वाग्रह, राष्ट्रवाद आदि को मान्यता नहीं दी जाती। यह लैंगिक समानता पर बल देता है। अफज़ल ने कहा कि मैं कुछ ऐसे ही धर्म में विश्वास रखता हूँ। अफज़ल यहाँ से अपनी कार द्वारा हमें दिल्ली हाईकोर्ट ले गया। हाईकोर्ट का नया भवन किसी फाइव स्टार होटल सरीखा है। सबकुछ सुंदर और बेहद व्यवस्थित। फिल्मों में देखे गए कठघरे वाले कोर्ट से बिलकुल अलग। सिक्योरिटी के इंतजामात भी एकदम दुरुस्त। यहाँ राजस्थान की आरएसी बटालियन, दिल्ली पुलिस और सीआरपीएफ की त्रि-स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था है। उस समय आठ बज रहे थे। जो जज अभी काम कर रहे थे, उनका स्टाफ अभी भी काम कर रहा था। अफज़ल ने बताया कि “काम बहुत है। सो, हम अपनी ड्यूटी नौ से नौ मानकर चलते हैं। कभी जल्दी फ्री हो जाएँ तो स्कूल से जल्दी छुट्टी वाली फीलिंग आती है। कोविड के बाद से सब ऑनलाइन हो गया है और बेहद सुविधाजनक भी। ज्यूडिशरी के लिए सरकार बजट में कभी कटौती नहीं करती”। और होना भी नहीं चाहिए। इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़िया हो तो एम्प्लोईज की वर्क एफ़िशिएन्सि बढ़ती है। इसके बाद अफज़ल भाई ने कार से चलते हुए राष्ट्रपति भवन, संसद, विभिन्न मंत्रालयों के भवन, विज्ञान भवन आदि दिखाए। और अंत में कांस्ट्युशनल क्लब ऑफ़ इंडिया के रेस्तरां में बढ़िया खाना खिलाया। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम पहली बार मिल रहे थे। मुहब्बत ज़िंदाबाद।

जामिया में छठा दिन
[08.10.2024]

पाँच दिन बीतने पर अब साथियों से परिचय में प्रगाढ़ता आने लगी है। मौसिम मोंडल पश्चिम बंगाल से है। अंग्रेजी साहित्य पढ़ाती है। बेहद शांत लेकिन खिल-खिल हँसने वाली प्यारी लड़की। उसकी रूममेट है बृष्टि कलिता। बृष्टि असम से है। उसका नाम वृष्टि (यानी बारिश) का अपभ्रंश है। वह गौहाटी में असमिया भाषा और साहित्य पढ़ाती है। बृष्टि को खूब सजने-सँवरने का शौक है तो मौसिम एकदम सादा। बृष्टि ने अपने घर से लाडू (नारियल के छोटे-छोटे लड्डू) मँगाकर हमें खिलाए तो अफ़लातून ने भी बृष्टि व मौसिम को संगिनी के हाथ के बने आटे व देसी घी से बने लड्डू खिलाए। रात में डिनर के बाद हम जामिया के कैम्पस के अक्सर चहलकदमी करते हैं। बृष्टि हिंदी बोलने का लहजा बहुत प्यारा है। हम उससे ख़ूब मजाक करते हैं। स्वागता मूलतः पश्चिम बंगाल से हैं लेकिन दिल्ली में पली-बढ़ी हैं। जेएनयू से एम.ए., पीएचडी किया और आजकल देहरादून में स्पैनिश पढ़ाती हैं। वह बता रही थी कि फ़ॉरेन लेंग्वेजेज में स्पैनिश का एक्सेंट और साउंड हिंदी के सबसे नजदीक है इसलिए स्पैनिश सीखना बहुत आसान है। हमने पूछा कि किस भाषा में आजकल रोजगार की संभावनाएँ ज्यादा हैं तो स्वागता ने बताया कि जर्मन, जापानी और मंडारिन का इन दिनों ज्यादा क्रेज है। भाषा में रोजगार का संबंध इकोनॉमी से होता है। जिस देश की इकोनॉमी मजबूत होती है उसी में पैकेज ज्यादा मिलता है। लेकिन फ्रेंच, स्पैनिश आल टाइम फेवरिट हैं। इनका संबंध इकोनॉमी से नहीं बल्कि अपनी आर्ट एंड कल्चर की समृद्ध परंपरा से है। बिंदु यादव और धर्मेन्द्र कुमार गढ़वाल विवि से हैं। श्वेता नंदा धर्मशाला में अंग्रेजी की सहायक प्रोफ़ेसर हैं। श्वेता सभी व्याख्यान के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं के नोट्स बनाती हैं। हमेशा मुस्कराती रहती हैं। रिसोर्स पर्सन का वेलकम और थैंक्स अंग्रेजी में ख़ूब सारे अलंकार लगाकर करती हैं। ढीले-ढाले कपड़े पहनती हैं, एकदम कूल-शूल। बिंदास। अल्लाउद्दीन खान और शाजिया ओमैर दोनों उर्दू से हैं। दोनों पति-पत्नी एक साथ रिफ्रेशर कर रहे हैं। शाजिया मैम दिल्ली विवि में हैं। वे हर सत्र में अपने सवाल रखती हैं। सीखने को उत्सुक रहती हैं।

आज के सत्रों में प्रो. बजरंग बिहारी तिवारी ने ‘भक्ति आन्दोलन का अंत’ विषय पर अपनी बात रखी लेकिन कोई सार्थक बात नहीं निकली। डॉ. आर. पी. बहुगुणा ने उत्तर-आधुनिकता और अंतिम सत्र में मूक्स कोर्स कैसे तैयार करें? पर बातचीत हुई।

जामिया में सातवाँ दिन
[09.10.2024]

कल रात देर से सोए और सुबह चार बजे के आसपास लाइट चली गई। मच्छरों ने जीना मुहाल कर दिया। पौने सात बजे उठे। होली फैमिली अस्पताल के सामने एक चाय वाला फुटपाथ पर ही चाय बनाता है। बहुत बढ़िया तो चाय नहीं बनाता लेकिन पी लेते हैं। चाय के बिना भाई लोगों का सुबह का मौसम नहीं बनता। हॉस्टल लौटे तो बलदेव ने कहा कि “यार, नींद ठीक से पूरी नहीं हुई। अनीस से आल आउट मोस्कीटो वेपोराइजर मंगवाओ। नहीं तो नींद हराम है”। अनीस अहमद हमारे हॉस्टल का अटेंडेंट है। सत्र के बीच रिसोर्स पर्सन्स के फोटो भी खींचता है। ऑफिस का काम भी देखता है। अनीस बाबु सदैव सेवा को तत्पर रहते हैं। यहाँ हमने पाया कि जामिया एच.आर.डी.सी का हर व्यक्ति बहुत भावपूर्ण है। यहाँ के सहायक लेखाधिकारी जितेन्द्र जी से भी बात हुई। वे भी भले आदमी हैं। कोर्स कोर्डिनेटर आसिफ़ उमर सर बहुत उम्दा इंसान है। सबके प्रति बहुत सहृदय। बहुत सम्मान से बात करते हैं। दूसरे कोर्डिनेटर जनाब इमरान अहमद तो फक्कड़ आदमी हैं। मौज में रहते हैं। बोलते हैं- “आप सब उस्ताद (गुरु) लोग हैं, आपसे क्या कहें?” आज के पहले सत्र में प्रो. हेमलता महिश्वर ने बताया कि संसार में स्त्री-विमर्श का प्राचीनतम साहित्य थेरी गाथा हैं। लेकिन औपनिवेशिक मानसिकता के चलते हम हर चीज के लिए पश्चिम का मुँह तकते हैं। हर चीज का उद्भव हमें पश्चिम में ही दिखलाई पड़ता है। टी-ब्रेक के बाद अगले सत्र में प्रो. मुकेश रंजन ने उत्तर-मानववाद पर चर्चा की। यह सैद्धांतिकी विज्ञान व तकनीक के गठजोड़ से ऐसा मानव तैयार करने की बात करती है जो अन्य जीव-जंतुओं और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व में विश्वास करता हो। उत्तर-मानववाद की भावना उचित है लेकिन यह तथ्य है कि तकनीक ऐसा कोई मानव तैयार न कर सकेगी। ये मानव ही इस बात को समझ ले तो सारी समस्या ही ख़त्म हो जाए कि सह-अस्तित्व से ही मानव का अस्तित्व है। प्रो. मोहम्मद काज़िम ने हिन्दुस्तानी नाटक की विकास यात्रा को बहुत खूबसूरत तरीके से बखान किया।

जामिया में आठवाँ दिन
[10.10.2024]

प्रो. सोनिया सुरभि गुप्ता ने कैरेबियाई और दुनिया के दूसरे मुल्कों में बसे अप्रवासी भारतीयों, गिरमिटिया मजदूरों के साहित्य पर चर्चा की। उन्होंने बताया कि किस तरह उस मुश्किल समय में उन्होंने मौखिक साहित्य (बाद में लिखित) के माध्यम से अपनी संस्कृति और उससे उपजे आत्मविश्वास को बनाए व बचाए रखा। उन्होंने बताया कि कैरेबियाई देशों से भारत के पुराने संबंध रहे हैं। मुग़ल भारत इन देशों से निकलने वाले सोने व चाँदी का बड़ा उपभोक्ता रहा है। आज के अन्य सत्र उल्लेखनीय नहीं हैं। आगे तीन दिन की दशहरे की छुट्टियाँ हैं। बाहर से आए साथी दिल्ली-आगरा-जयपुर-ऋषिकेश आदि जगह घूमने का प्लान कर रहे हैं। हम घर जाएँगे। चौदह को लौटेंगे।

जामिया में ग्यारहवाँ दिन
[14.10.2024]

‘भारतीय भाषाओं में शोध का मौलिक चिंतन’ विषय पर प्रोफ़ेसर हरीश अरोड़ा ने बातचीत की। उन्होंने कहा कि सस्यूर (कोर्स ऑफ़ लिंग्विस्टिक) की मूल सैद्धांतिकी संस्कृत से ली गई है। किताब के फुटनोट से भी ये स्पष्ट है। एनईपी-2020 मातृभाषा में शिक्षा, अनुवाद और अनुसंधान पर जोर देती है। बाद के सत्र उल्लेखनीय नहीं। आज शाम जेएनयू गए। ‘अपनी माटी’ के प्रूफ रीडर साथी और जेएनयू में रिसर्च स्कॉलर विकास शुक्ल से बात हो गई थी। अफ़लातून को जेएनयू हमेशा से आकर्षित करता रहा है। विकास कहीं फँसा हुआ था तो उसने हमें गंगा ढाबे पर इंतजार करने को कहा। जे. सुशील की किताब ‘जेएनयू अनंत जेएनयू कथा अनंता’ में गंगा ढाबा जेएनयू के एक सांस्कृतिक व शैक्षिक तीर्थ के रूप में चित्रित हुआ है। करीब आठ बजे वह आया और बढ़िया नैरेटर की तरह उसने जेएनयू की स्थापना से कहानी सुनानी शुरू की। हम कुछ आगे बढ़े ही थे कि नवीन बाबु (प्रो. देव शंकर नवीन) टकरा गए। वे अभी हमारे रिफ्रेशर कोर्स में आए थे। बातचीत हुई जिसका लब्बोलुआब यह था कि जेएनयू का शैक्षिक स्तर दिनोंदिन गिर रहा है। हमने उनसे विदा ली। पैदल चलते हुए विकास ने हमें कैम्पस घुमाया। लाइब्रेरी दिखाई। और अंत में हम होटल मुग़ल दरबार पर खाने के लिए गए। डॉ. गंगासहाय मीणा से भी बात हुई। उन्होंने हमें अपने घर चाय पर आमंत्रित किया लेकिन हमारे पास समय कम था। हमें वापस हॉस्टल लौटना था। हम तीनों ही किसी विवि से नहीं पढ़े। स्वयंपाठी विद्यार्थी के रूप में संजीव पास बुक पढ़कर एम.ए. कर लिया। नरेगा में मजदूरी, एसटीडी-पीसीओ, ट्यूशन पढ़ाते हुए हम तीनों राज. सरकार की स्कूल शिक्षा में शिक्षक ग्रेड-3/2 से ग्रेड-1 होते हुए कॉलेज शिक्षा में आ गए। असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने के बाद ही सुखाड़िया विवि, उदयपुर से पीएचडी की। इसलिए जामिया, जेएनयू, डीयू, बीएचयू जैसे नाम हमें फैसिनेट करते हैं। रिफ्रेशर कोर्स के बहाने यहाँ जामिया आ गए। जामिया और जेएनयू देखने का हमारा यह पहला मौका है। पिछले साल बनारस घूमने गए तब आशीष त्रिपाठी सर से मिलने के बहाने बीएचयू देखा। विकास ने कहा- “सर, कभी दिन में आइए तो जेएनयू ठीक से दिखाते हैं”। दस बज चुके थे। हमने विकास का शुक्रिया अदा किया और कैब से हॉस्टल लौट आए।

जामिया में बारहवाँ दिन
[15.10.2024]

आज नाश्ते में सेब-केला-कुकीज और चाय थी। फल के साथ चाय का क्या मेल? लेकिन साथी लोग खा रहे हैं। हमने बस केला खाया। सेब रख लिया, बाद में खाएँगे। चाय नहीं पीएँगे। हॉस्टल से हम बलदेव और दीपक जी के घर से बना नाश्ता कर आए हैं। बलदेव की पत्नी ने बहुत कम मिर्च की नमकीन और सुआळी बनाकर भेजी है। सुआळी गेहूँ के आटे व गुड़ की बनती है। इसमें थोड़े से तिल भी डाले जाते हैं। ठेकुआ की तरह होती है। दीपक जी की पत्नी ने आटे, गुड़ और सूखे मेवों से बनी बर्फी भेजी है। सिंधी परिवारों में इसे सर्दियों में ख़ूब खाया जाता है और इसे ‘खुराक’ नाम दिया जाता है। हमने हॉस्टल में मौसिम, बृष्टि और इकराम अंसारी को भी ये सब खिलाया। स्त्रियाँ चाहे माँ हो, बहन हो या हो पत्नी-प्रेमिका वे दिल्ली ही नहीं, दुनियां-जहान में आपका ख्याल रखती हैं। ‘प्रेम में डूबी स्त्री का चेहरा बुद्ध जैसा दिखता है।‘ (गीत चतुर्वेदी)

पहले सेशन में प्रो. राजकुमार ने भाषा, साहित्य और संस्कृति में हाशिए के स्वरों पर बात की। दूसरे सेशन में देशबंधु कॉलेज, डीयू के प्रो. संजीव कुमार ने एक नए विषय ‘आख्यानशास्त्र’ यानी नैरेटोलॉजी से परिचय कराया। नैरेटिव के विज्ञान को नैरेटोलॉजी कहा जाता है। हमारे यहाँ कथा-साहित्य में नैरेशन हैं लेकिन इसका वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है। नैरेटोलॉजी इसका वैज्ञानिक अध्ययन है। साहित्य के अलावा दूसरे अनुशासनों में भी इसका ख़ूब उपयोग किया जा रहा है। आज और आज ही नहीं हमेशा से ही सारी लड़ाइयाँ नैरेटिव से ही लड़ी गई हैं। युद्ध के लिए नैरेटिव गढ़े गए। युद्ध को जायज़ ठहराने के लिए नैरेटिव गढ़े गए। राजनीति में किसी को उठाना-गिराना हो, नैरेटिव गढ़े जाएँगे। धार्मिक उन्माद फैलाना हो, नैरेटिव गढ़े जाएँगे। प्रो. राजकुमार ने जो एक और महत्त्वपूर्ण बात नामवर सिंह की किताब ‘कहानी-नई कहानी’ से रेखांकित करते हुए कही, वह यह थी कि नई कहानी अपने से पूर्व की कहानी से इस अर्थ में भिन्न है कि उसमें संवेदना द्रवीभूत होकर कहानी के पूरे शरीर में फ़ैल गई है; वह कुछ हिस्सों में नहीं है और न कहानी के क्लाइमेक्स में। आप कहानी के जिस हिस्से को पढ़ेंगे वहीं से संवेदना चूं पड़ेगी। शक्कर की रोटी की मानिंद, जहाँ से टुकड़ा तोड़कर खाएँगे, मीठा लगेगा। लेकिन इसमें कोई निश्चित अंत आपको नहीं मिलेगा। पुरानी कहानियों के पाठक आज भी नई कहानी से निराश होते हैं कि अंत में कोई सार निकला ही नहीं और कहानी ख़त्म हो गई।

आज शाम में हम फिर से अफज़ल भाई के साथ थे। आर्ट गैलरी देखनी थी लेकिन पाँच मिनट लेट हो गए। अमर जवान ज्योति पर रिट्रीट सेरेमनी से भी पाँच मिनट के लिए चूक गए। “हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता।” सबकुछ हमारे प्लान के मुताबिक़ नहीं होता। यही ज़िंदगी की खूबसूरती है। इसका स्वीकार भाव ही आपको आनंद से भर देता है और अस्वीकार क्षोभ से। इंडिया गेट को जी-भर देखा। रात की रौशनी में यह और सुंदर दिख रहा था। आगे चलकर एक गार्डन में बैठे। बतियाए। बलदेव के किस्से और अफज़ल के फ़लसफ़े सुनते रहे। जिस आदमी ने ज़िंदगी को ठीक से समझा और जिया होता है वह उसे दर्शक की भाँति देखता है, साक्षी भाव से। अफज़ल में वह साक्षी भाव है। अब अफज़ल गौरव जैन का ही दोस्त नहीं, हम सबका दोस्त है। ऐसा आदमी सबका दोस्त होगा। मैत्री ही तो बुद्ध का संदेश है। दुनिया को इसी की ज़रूरत है। अफज़ल बता रहा था कि दसवीं कक्षा के एग्जाम देकर ही वह पूर्वोत्तर और नेपाल-बर्मा की यात्रा पर निकल गया था, अकेले। उनके माता-पिता ने उन पर कभी बंदिशें नहीं लगाई। आज वह जो कुछ है इन्हीं यात्राओं की वजह से है। यात्रा मोबाइल पाठशाला है।

बागीचे से उठकर हम आंध्रा-हाउस चले गए। अफज़ल ने आज का डिनर यहाँ प्लान किया था। सराय-जुलैना के वेज-रेस्टोरेंट्स का बकवास खाना खाकर हम बोर हो चुके थे। बढ़िया खाना जहाँ मिल रहा था वहाँ वेज-नॉनवेज दोनों मिल रहा था। हम ऐसी जगह से बचना चाह रहे थे। हालाँकि आज जामिया में भी लंच में नॉन-वेज था। कल उन्होंने फ़ूड प्रिफरेंस का एक फॉर्म बनवाया था; उनतालीस प्रतिभागियों में से बत्तीस-तैंतीस ने नॉन-वेज का विकल्प भरा था। यहाँ आंध्रा-हाउस में भी देखा तो मैन्यु में दोनों थे। थाली फिक्स थी, नॉन-वेज एक्स्ट्रा में ले सकते हैं आप। काउंटर पर गणपति की विशाल प्रतिमा और मैन्यु कार्ड में चिकन और फिश। ईश्वर कैसे प्रसन्न हो सकता है कि जब उसी की एक कृति अपनी आस्था और विश्वास के लिए दूसरी कृति की बलि दे? भोजन का संबंध स्थानीयता से है, ये मैं मानता हूँ। लेकिन अब जबकि ग्लोबलाइजेशन के दौर में सब चीजें सब जगह उपलब्ध हैं, ट्रांसपोर्ट की सुविधाएँ बेहतर स्थिति में हैं तो हम अनाज, दालें, सब्जियाँ उन क्षेत्रों में भी पहुँचा सकते हैं जहाँ इन्हें उपजाने के लिए परिवेश अनुकूल नहीं है। जब मैगी दुर्गम पहाड़ों में पहुँच सकती है तो दाल-चावल क्यों नहीं? बात हमारी या आपकी फूड हैबिट की नहीं है, बात किसी के भोजन के प्रति सम्मान-असम्मान की भी नहीं है, बात किसी के जीवन की है। आपका भोजन किसी का जीवन है। यह माँसाहार बनाम शाकाहार की बहस नहीं बल्कि जीवहिंसा बनाम जीवदया की बात है। दीपक जी ने इस अवसर पर भली बात कही- “माँसाहार अंतिम विकल्प होना चाहिए”। उन्होंने बताया कि वे बचपन में माँसाहार करते थे लेकिन जैसे ही समझ आई उन्होंने तुरंत इसे छोड़ दिया। खैर... हमने टोकन लिए और टेबल पर विराजमान हुए। अफ़जल बता रहा था कि यहाँ दिल्ली का बेस्ट साउथ-इंडियन खाना मिलता है। बड़ी-सी थाली आई, छोटी-छोटी कई कटोरियाँ। चावल, सांभर, रसम, चटनी, पापड़, अचार, रोटी, दाल, सब्जी, सेंवई का मीठा हलवा। इससे पहले मैंने ओमकारेश्वर की यात्रा के दौरान एक रेस्तरां में आंध्रा थाली लंच में खाई थी। तब वहाँ आंध्रा का कोई उत्सव चल रहा था और आंध्रप्रदेश के लोग बड़ी संख्या में आए हुए थे। रेस्तरां में उत्तर भारतीय भोजन के भी विकल्प थे लेकिन हमने आंध्रा थाली खाना चुना। साउथ-इंडियन खाना मुझे बहुत भाता है। कम तेल-मिर्च-मसाले का सुस्वादु भोजन। चाइनीज खाने की बजाय मैं फल खाकर गुजारा करना पसंद करूँगा। सचिवालय मेट्रो स्टेशन से ट्रेन पकड़कर हम चल पड़े। अफज़ल ने हमारी दिल्ली यात्रा को सुगम और अविस्मरणीय बना दिया था।

जामिया में तेरहवाँ दिन
[16.10.2024]

अब जाने के दिन नजदीक आने लगे हैं। साथियों से मन लग गया है। सब एक-दूसरे से अपने शहर में आने और मिलने की कह रहे हैं, तो कुछ अपने विषय वालों से कांटेक्ट में बने रहने की गुज़ारिश कर रहे है। केरल के लगभग साथी मितभाषी हैं लेकिन अब वे भी आगे बढ़कर मिल-भेंट रहे हैं। सितारा और विनीता ने हमारे साथ फोटो खिंचवाने का प्रस्ताव रखा। दोनों महिलाएँ शानदार व्यक्तित्व की धनी हैं। शांत, संयत और विदुषी। विनीता हँसती हैं तो दुहरी हो जाती हैं। सितारा की दंतुरित मुस्कान दीपक जी को मात देती हैं। कंठ में वाणी और नयनों में काजल ठहरा हुआ है। केरल से प्रेमजित हैं। अपने में मगन रहने वाले। सेशन्स के दौरान पूरा सुनते हैं और गंभीर सवाल करते हैं। रौशन भाई केंद्रीय विवि गुजरात में जर्मन पढ़ाते हैं, खुशदिल इंसान हैं। मिलिंद पांडिचेरी में फ्रेंच के अध्यापक हैं। सादी पैंट, ढीला शॉर्ट कुर्ता और पैरों में काली सैंडिल पहने खिचड़ी दाढ़ी व बाल वाले मिलिंद भाई में मुझे संतत्व दिखलाई पड़ता हैं। वे किसी पादरी की गरिमा से ओतप्रोत दिखाई पड़ते हैं। मराठी मानुष योगेश पाटिल का इक़बाल बुलंद रहे। मितभाषी सपना तलूजा से जब भी नज़रें मिलती हैं वे मुस्करा कर नेत्रों से ही अभिवादन करती हैं। वे बहुत हैल्थ कॉन्शियस हैं। अपने घर से टिफिन लाती हैं। खाने के बाद ख़ूब वाक करती हैं। शुभम दत्त शांतिनिकेतन से पढ़ा है। बता रहा था कि शांतिनिकेतन अब वैसा नहीं रहा जैसा गुरुदेव ने बनाया था। वहाँ का खुलापन जाता रहा है।

पहले सत्र में जो रिसोर्स पर्सन आने वाले थे वे किसी कारण से नहीं आ पाए। विकल्प के रूप में जामिया के शिक्षा विभाग से युवा और सुदर्शन सहायक प्रोफ़ेसर समीर बाबु को बुलाया गया। उन्होंने शोध और प्रकाशन के क्षेत्र में आने वाली समस्याओं पर बहुत व्यावहारिक बातचीत की। अगले सत्र में लॉ डिपार्टमेंट से प्रो• मोहम्मद आजाद मलिक आए। आपने संविधान में मौलिक अधिकारों, कर्तव्यों और मूल्यों पर आपने शानदार व्याख्यान दिया। संविधान की उद्देशिका की विशद व्याख्या की। उनका अंदाज काबिलेतारीफ़ था। शेरो-शायरी से अपने संवैधानिक सिद्धांतों को अलग अंदाज़ में समझाया। एक शे’र मुझे याद रह गया-

“जिनके आँगन में अमीरी का शज़र लगता है
उनका हर ऐब ज़माने को हुनर लगता है”

लंच के बाद के सत्र में डॉ. फुरकान क़मर ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के हवाले से उच्च शिक्षा में शिक्षक के कर्तव्यों पर बढ़िया बातचीत की। इन्होंने मोटे तौर पर शिक्षक के कर्तव्यों को तीन भागों में बाँटा- शिक्षण, शोध और समुदाय से संपर्क व उसके लिए उसकी उपादेयता। अंतिम सत्र शानदार था। प्रो.खालिद जावेद में फिक्शन और जादुई यथार्थवाद पर बातचीत की और कई महत्त्वपूर्ण सूत्र दिए। मसलन-

  • झूठ की बाँहों में छिपे सच का नाम फिक्शन है।
  • फिक्शन संभावनाओं को कल्पना द्वारा गढ़ता है जिनके भविष्य में सच साबित होने की पूरी गुंजाइश होती है।
  • आज का विज्ञान कल के फिक्शन का सच है।
  • लैटिन अमेरिका की लोक-कथाओं से साहित्य में जादुई यथार्थवाद आया।
  • भारत में भी मिथकीय रचनाओं में भी जादुई यथार्थवाद ख़ूब देखने को मिलेगा।
  • फिक्शन का मानव मस्तिष्क पर गहरा असर होता है।
  • फैंटेसी में सौ फ़ीसदी कल्पना होती है जबकि जादुई यथार्थवाद में कल्पना के साथ यथार्थ का पुट होता है। फैंटेसी में पॉलिटिकल सटायर नहीं होता जबकि जादुई यथार्थवाद में इसकी जगह होती है।

जामिया में चौदहवाँ दिन
[17.10.2024]

आज लंच से पहले व्याख्यान होंगे, उसके बाद से हमारे सेमिनार पेपर्स के प्रेंजेंटेशन होंगे। पहले सत्र में प्रो. फ़रहत नसरीन ने ‘भारतीय बौद्ध साहित्य’ की बात की। उपनिषदों के अलावा मुद्राराक्षस, पंचतंत्र की कहानियाँ, हितोपदेश, जातक-कथाएँ, सिंहासन बत्तीसी आदि के साथ उन्होंने गुलबदन बेगम के हुमायूँनामा के कुछ अंशों की चर्चा की। अलाउद्दीन खिलजी के समय ‘शुक सप्तति’ का फ़ारसी में ‘तूतीनामा’ के नाम से अनुवाद हुआ। बदायूंनी ने सिंहासन बत्तीसी’ को Book of Wisdom’ कहा। लंच के बाद अंग्रेजी के साथियों ने पेपर प्रस्तुत किए।

कल चला-चली की बेला है। मिलना-भेंटना नहीं हो पाएगा। स्वागता और श्वेता ने क्लास के बाद एक गेट-टूगेदर का प्रोग्राम तय किया। तेरह-चौदह साथी सम्मिलित हुए। जामिया के नवीन भवन (गेट नं. 7 से) में कैंटीन के आगे इकट्ठे हुए। चाय-समोसे के साथ हम अपनी-अपनी भाषाओं में गीत सुना रहे थे कि गार्ड ने आकर बरज दिया। गीत से हुक्काम डरता क्यूँ हैं? हम गुलिस्तां-ए-ग़ालिब के बगल वाले बागीचे में घेरा बनाकर आ बैठे। बोतल घुमाकर सवाल पूछने या कुछ एक्टिविटी करवाने वाला गेम खेला। ये सुहाने दिन, आशिकाने दिन... लौटकर नहीं आने वाले। हम इन यादों की पोटली बनाकर अपने-अपने घर ले जाना चाहते हैं। जब-तब इन यादों की हम जुगाली करेंगे। यहाँ से कुछ संबंध जीवन में स्थायी बन जाएँगे। बाकि सब विस्मृति में चला जाएगा। मैं इस याद को डायरी के द्वारा सुरक्षित कर लेना चाहता हूँ। इसीलिए हम इस कोर्स वर्क को ऑफलाइन करना चाह रहा था।

जामिया में पंद्रहवाँ दिन
[18.10.2024]

बारी-बारी सभी साथियों ने अपने पेपर प्रजेंट किए। मैंने ‘प्रियंवद के कथा-साहित्य में साम्प्रदायिकता के सवाल’ विषय पर पीपीटी के द्वारा अपना प्रजेंटेशन दिया। इसके बाद एक लिखित परीक्षा हुई। एक वीडियो लेक्चर और माइनर रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए प्रपोजल बनाकर हम अपलोड कर चुके थे। ये हमारे असाइंमेंट थे। अंत में फीडबैक और समापन समारोह हुआ। सभी प्रतिभागियों को प्रमाण-पत्र दिए गए। सेंटर की निदेशक वीरा गुप्ता ने अपनी बात कही। हमने यहाँ के सभी स्टाफ और विशेष रूप से कोर्स कोर्डिनेटर डॉ. आसिफ़ उमर और इमरान सर का आभार प्रकट किया इतने शानदार रिसोर्स पर्सन उपलब्ध कराने के लिए। हमने फोटो खिंचवाए, गले मिले और विदा ली ढेर सारी सुनहरी यादों के साथ।

दिल्ली हिंदुस्तान का दिल है। दिल्ली घूमना बाकी है। इसके लिए ख़ूब सारा वक्त चाहिए। मिलेगा या नहीं, पता नहीं। दिल्ली में अभी कई सारी जगहें देखनी है। अफज़ल ने भी फिर आने को कहा है। हम अगला कोर्सवर्क 18 अक्टूबर, 2025 के बाद ही कर सकेंगे वो भी हमने ऑफलाइन करना ही तय किया है। हिमाचल, कश्मीर या केरल से करने का मन है। जहाँ भीड़भाड़ न हो। बाकी समय बताएगा।

कोर्सवर्क की हमारी साथी बिंदु से हमने कहा है कि हम उसके यहाँ पौड़ी आएँगे। हम टूरिस्ट प्लेसेस पर नहीं जाना चाहते। हमारा मन है कि पहाड़ के किसी गाँव में कुछ दिन बिताएँ। जहाँ हमारा कोई शेड्यूल फिक्स न हो। जब मन हो उठें, जब मन हो सोएँ। जहाँ मन हो, जितनी देर मन हो टहलें। स्थानीय लोगों से बातचीत करें। स्थानीय भोजन करें-लेकिन किसी होटल या रेस्तरां में नहीं, किसी के घर। हम रेस्तरां का खाना नहीं खाना चाहते। रेस्तरां के मसालेदार खाने से पेट और मन दोनों ख़राब हो जाते हैं। हम अपना खाना खुद बनाकर खाना चाहते हैं। बलदेव के कारवाँ पर हम पुराने हिंदी गाने सुनते हुए झूमना चाहते हैं। हमारा मन है कि बलदेव और दीपक जी मिलकर गाना गाएँ और वीडियो बनाएँ। मैं कहीं एकांत में बैठकर डायरी लिख सकूँ या कोई किताब पढ़ सकूँ। दीपक जी हमारे सुंदर-सुंदर फोटो खींचें और हम सोशल मीडिया पर उन्हें पोस्ट कर इतराएँ। बस इतनी सी ख्वाहिश है।

  


विष्णु कुमार शर्मा
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, स्व. राजेश पायलट राजकीय महाविद्यालय बांदीकुई, जिला- दौसा, राजस्थान
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

2 टिप्पणियाँ

  1. हेमंत कुमारफ़रवरी 03, 2025 11:16 am

    यह डायरी है, रपट है, यात्रावृत्त है। यात्रावृत पढ़-पढ़कर जान पाया हूँ कि प्रवास की यात्राओं के विवरण प्रायः बौद्धिक विवरण बनकर रह जाते हैं। पर विष्णु संतुलन साधना जानते हैं। रिफ्रेशर 'पुनश्चर्या' की बजाय 'पुनर्नवा' हो सकता था या लोक भाषा से कोई बेहतर शब्द लिया जा सकता था। इस बात से सहमति है। सुविधा-शोधी प्रशिक्षुओं की घर-घस्सु वृत्ति भी आपने जाहिर की है। खाने, घूमने, ठहरने के सहज विवरणों के बीच-बीच में सुचिंतित और गंभीर बातें भी इस कुशलता से कह दी गई हैं कि कहीं भी जोड़ नज़र नहीं आता। लेखकीय दृष्टि का पैनापन वहाँ दिखता है जहाँ जरा से परिचय के बलबूते पर इतने सारे साथियों के व्यक्तित्व की अलग-अलग तस्वीरें खींच दी गई हैं। संबंधों की दुनिया के लिए एक बहुत सलौना सा शब्द मिलेगा इस डायरी में -'संगिनी।' वाइफ, मिसेज, श्रीमती, घरवाली जैसे बहु प्रचलित संज्ञा से पर 'संगिनी' पर संज्ञान लेना चाहिए पाठकों को।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने