शोध आलेख : शैलेंद्र : सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी / प्रियदर्शिनी

शैलेंद्र : सब कुछ सीखा हमने सीखी होशियारी
- प्रियदर्शिनी


शोध सार : मोहब्बत का फ़साना कहते कवि शैलेन्द्र के भीतर बहुत कुछ कह देने की आग थी। वह केवल गीतकार अथवा सिनेमाई गीतकार कहे जाए तो यह उनके प्रति अन्याय होगा। सिनेमा ने कई रूपों में अपने लिए दर्शकों का एक वर्ग खड़ा किया है। कामर्शियल फ़िल्मों से लेकर कलात्मक सिनेमा तक फ़िल्मों ने हर श्रेणी के दर्शक तैयार किए हैं। अपने शब्द-संवादों के माध्यम से हो या अभिनय की दृष्टि से या फिर गीतों के माध्यम से सिनेमा ने अपने समाज, ‘युगबोध, मूल्यों मान्यताओं के माध्यम से जन-मन के हर्ष, विषाद, सुखः-दुख, तीज-त्योंहार, ब्राइट एंड डार्क साइड तक की अत्यंत सुंदर व्याख्या की है। समाज की स्याह वास्तविकताएँ हो या सुंदर सपनीली आशाएँ हो सिनेमा ने हमेशा अपने सतरंगी लेंस से मानवीय जीवन के सुंदर भावनात्मक प्रिज़्म के हर रंग तक पहुँचने की कोशिश की है। गीतों ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई हैं। गीतों और जनसरोकारों वाले गीतकार शैलेन्द्र की बात किए बिना सिनेमाई गीतों की चर्चा को पूर्ण नहीं माना जा सकता।

बीज शब्द : स्याह, सिनेमा, मानवीय सरोकार, गीतकार, युगबोध, मूल्य, मूल्यदृष्टि, कामर्शियल, आर्ट सिनेमा, सेल्यूलाइड।

मूल आलेख : शैलेन्द्र के गीतों ने गंभीर विषयों से लेकर व्यक्ति के फक्कड़ाना और मस्त तबीयत पर भी बहुत अच्छे गीत लिखे हैं। ‘‘शैलेन्द्र के गीतों ने दर्शकों के अंर्तमन में हिंदी के अनेक महान फिल्मों को व्याख्यायित किया है। आवारा’, ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘श्री 420’, ‘मधुमती’, ‘जागते रहो’, ‘बूट पॉलिश’, ‘सीमा’, ‘गाइड’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘बंदिनी’, ‘अनाड़ीआदि-आदि। वे इन फिल्मों की आत्मा में इस तरह रच- बस जाते हैं कि उनके गीतों के बगैर इन फिल्मों की कल्पना तक नहीं की जा सकती। उनके गीत इन फिल्मों का भावनात्मक अनुवाद दर्शकों के दिलों में उतारते हैं।’’1 शैलेन्द्र के गीतों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है कि उनके गीतों का श्रोता हर आयु वर्ग काव्यक्ति है। उनके गीतों के बोल किसी पांडित्य प्रदर्शन का दावा नहीं करते वह जनमानस की आवाज़ बनकर ही जनमानस तक पहुँचते हैं। ‘‘उनके बहुतेरे गीतों ने फिल्मों की आत्मा की तरह रसज्ञों के दिलों में जगह बनाई। वे धुनों के माधुर्य और स्वर नाद सौंदर्य को बाँधकर शब्द की गरिमा को प्रतिष्ठित कर सके। शंकर जयकिशन जैसे विशाल आर्केस्ट्रा प्रेमी संगीतकार ने उनके अनेकानेक गीतों के शब्दों की गरिमा को धारदार सौंदर्य देने वाली अतिशालीन धुने बनाई।’’2 उन्होंने देश की समन्वयवादी संस्कृति को गीत के माध्यम से बहुत रोचक ढंग से व्याख्यायित किया। फिल्म श्री 420’ का प्रसिद्ध गीत देखिए -

‘‘मेरा जूता है जापानी

ये पतलून इंगिलिस्तानी

सर पे लाल टोपी रूसी

फिर भी दिल है हिंदुस्तानी

निकल पड़े हैं खुल सड़क पर

अपना सीना ताने

मंजिल कहाँ, कहाँ रूकना है

ऊपर वाला जाने

बढ़ते जाए हम सैलानी

जैसे इक दरिया तुफ़ानी

सर पे लाल टोपी रूपी,

फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’’3

दुनिया भर से घूम-घाम कर विश्व संस्कृति से परिचत होकर उनके आचार-विचार, खान-पान, वेशभूषा को अपनाकर भी भारतीय दिल से हिंदुस्तानी ही होते हैं। क्योंकि भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति सांस्कृतिक विविधता का समर्थक है। भिन्न विचारधाराएवं दृष्टि वैविध्य का सम्मान करते हुए भी वह अपने आत्म के प्रति अत्यंत सजग और प्रतिबद्ध भी हैं। इसीलिए जूता, पतलून कहीं का भी हो शैलेन्द्र ने महीन भावना को छुआ है कि फिर भी दिल है हिंदुस्तानी ‘‘शैलेन्द्र के गीत इसलिए अधिक से अधिक जनमानस के निकट पहुँच सके क्योंकि वे विमलराय, राजकपूर, विजय आनंद आदि महान फिल्मकारों की महान फ़िल्मों के माध्यम से जनता तक पहुँचे। यह मुमकिन हुआ क्योंकि शैलेन्द्र ने सिनेमा को समग्रता में एक कविता की तरह देखा। यह काम उनका अपना अकेला है। यही कारण था कि वे फिल्म निर्माण की ओर उन्मुख हुए। वे नवीनता के प्रबल आग्रही थे पर उस नवीनता को आतंक के एकाधिकार में नहीं ढकेलना चाहते थे। इसलिए उन्होंने स्वनिर्मित फ़िल्म में तरलता का गहन आधार चुना। जहाँ गीत लेखन के क्षेत्र में उन्होंने अपार सफलता प्राप्त की वहीं फ़िल्म निर्माण ने उन्हें आत्मनाश की ओर धकेल दिया। शैलेन्द्र के सिनेमा के लिए लिखे गए गीतों में जीवन की व्यावहारिक काव्यात्मकता छलकती है। रोजमर्रा के प्रसंग से गीतों के क्षितिज खुलते हैं। दैंनदिन जीवन की मामूली बातों के जरिए वे भावनाओं के विचारणीय इंद्रधनुष तैयार करते हैं।’’4 शैलेन्द्र ने अपने गीतों में आवारगीकी व्याख्या भी बहुत बेहतरीन की है। जहाँ आवाराशब्द ही समाज से बहिष्कृत किसी व्यक्ति के संबंध में एक स्थायी नकारात्मक धारणा हैं वही शैलेन्द्र ने आवारगी की उलट व्याख्या कर दुनिया की क्रूरता को सम्मुख वह योग्य, उत्तम, अधिकारी है और जो दुनिया से सवाल करे उसके फ़ार्मूलों पर चलने से मना कर दे निपट निकम्मा और आवारा है। शैलेन्द्र लिखते हैं-

‘‘आबाद नहीं बर्बाद सही

गाता हूँ खुशी के गीत मगर

जख्मों से भरा सीना है मेरा

हँसती है मगर ये मस्त ऩज़र

दुनिया....

दुनिया

मैं तेरे तीर या तक़दीर का मारा हूँ

आवारा हूँ।’’5

‘‘शैलेन्द्र की प्रगतिशील कविता जनता के साथ उनके सक्रिय जुड़ाव से संबद्ध है। यहाँ दुःख के साथ-साथ प्रेम की भी धारा प्रवाह मान है और मजदूर साथी के साथ-साथ अपनी पत्नी का भी सहचर्य संगीत सुनाई पड़ता है। यहाँ प्रताड़ना नहीं प्रवाह भी है, आज़ादी की तड़प ही नहीं आज़ादी के बाद का भारत और उसके तथाकथित नेता भी है। मजदूर-जीवन की त्रासदी ही नहीं उसकी जीत का यक़ीन भी है। उसके नारों के साथ-साथ उसकी व्यंग्यपूर्ण वक्रता  भी है। मजदूर के जीवन में उल्लास के ठहाके भी हैं जो उसकी जीवनी शक्ति हैं। इन दुःस्थितियों में वह गीतकार, जिसकी सहानुभूति-मजदूर-मजलूमों के साथ जुड़ी हुई हो, जो शोषक वर्ग के प्रति अपार घृणा से भरा हो, जो समझौता परस्ती के खिलाफ़ हो, जो चट्टान के समान आत्मविश्वास और आत्मसम्मान के साथ जी रहा हो, कैसे अपने को एडजस्टकरता है, इसकी पड़ताल दिलचस्प के साथ कारआमद भी होगी। यह आज के लिए और भी प्रासंगिक है।’’6

शैलेन्द्र की प्रगतिशीलता के केंद्र में आम आदमी का हित उसके सपने है और उसके अधिकारों की बात है। उनके गीतों में रोटी की चिंता फैलकर दर्शन तक और दर्शन केंद्रित होकर रोटी में भी सिमटता है। उनके दर्शन में जीवन की परिभाषा दूसरे के लिए जीवन जीने की कला है-

‘‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार

किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार

जीना इसी का नाम है।’’7

वहीं प्रार्थनाओं में भी शैलेन्द्र को गहरा विश्वास है। हिम्मत और ऊर्जा का अद्भुद सामंजस्य शैलेन्द्र के गीतों का प्राणतत्व है। अपने गीतों में जहाँ वह कहानी (फ़िल्म की) की माँग को ध्यान में रखते हैं वहीं कहानी के बाहर की विडम्बनाओं को भी बहुत सुंदरता से कहानियों में कुछ इस तरह से कह जाते हैं कि वह कहीं से भी कहानी के बाहर का हिस्सा नहीं मालूम पड़ता। शैलेन्द्र फिल्मसीमा में जहाँ प्रार्थना और प्रेम के माध्यम से ऊर्जा ग्रहण करते हैं, जैसे-

‘‘तू प्यार का सागर है

तेरी इक बूँद के प्यासे हम

लौटा जो दिया तूने, चले जाएँगे जहाँ से हम।’’8

तो वहीं शहरी निराशा, भूख और संताप से तपकर एक आम इंसान का गुस्सा, खीझ, स्वप्न और पेटभर भोजन की आवाज़ बनकर भी गीतों में बहते हैं -

‘‘सूरज जरा

पास

आज सपनों की रोटी पकाएँगे हम

आस्मा

तू बड़ा मेहर बाँ

आज तुझको भी दावत खिलाएँगे हम

चूल्हा ठंडा पड़ा

और पेट में आग है

गर्मागरम रोटियाँ

कितना हँसीं ख्वाब है

आलू टमाटर का साग

इमली की चटनी बने

रोटी करारी सिके

घी उसपे असली लगे।’’9

‘‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता में प्रतिष्ठित परंपरा में शैलेन्द्र कही नहीं अंटते। बहुत मुश्किल में तो भवानी प्रसाद मिश्र और केदारनाथ अग्रवाल प्रतिष्ठा मंच का स्वीकार अर्जित कर पाए। दर्शकों की उपेक्षा के बाद शैलेन्द्र हिंदी सिने संसार में पानी में तेल की बूँद की तरह अपनी शख्सियत बनाए रहे। तमाम सफलताओं के बीच यह कशमकशजारी रही- प्यासे-दिल बेजुबां, तुझको ले जाऊँ कहाँ, और इसी कशमकश ने उनसे- तीसरी कसमबनवाई और टिकिट खिड़की पर वह ढेर हुई तो इसीलिए कि यह प्यासा बेजुबां दिल कारोबारी मामले समझने में सिरे से नाकामयाब रहा और दिल की धड़कनों की कीमत पर तिजारत नहीं कर सका। उसके बर्बाद होना कुबूल किया, अपने सपनों को बर्बाद नहीं होने दिया। अलविदा भी कहा तो दर्द में आनंद घोलकर-

‘‘ना कोई इस पार हमारा, ना कोई उस पार

सजनवा बैरी हो गए हमार।’’10

मारे गए गुलफ़ाम उर्फ तीसरी कसमकहानी में व्याख्यायित अव्याख्यायित प्रेम की भाषा को कामर्शियल सिनेमा के दर्शकों का अटेंशननहीं मिल सका। यह शैलेन्द्र का जोखिक ही था कि मायानगरी और चकाचौंध से भरी सिनेमाई दुनिया में वे एक साहित्यिक कविता की तरह प्रवाहित होने वाली एक गहरे मंतव्य को रेखांकित करने वाली कहानी तीसरी कसमको अपनी कला का हिस्सा बनाया। ‘‘शैलेन्द्र की फ़िल्म (तीसरी कसम) की असफलता के कई कारण बताए जाते हैं। सबसे पहला तो ये कि इस कहानी का अंत असाधारण था जिसमें सामान्य फ़िल्मी कहानियों से हटकर हीरो और हिरोइन अंत में मिलने के बजाय बिछड़ जाते हैं। कहा जाता है कि शैलेन्द्र के सलाहकार और मित्र उन्हें आखिरी समय तक यही सलाह देते रहे कि फ़िल्म के क्लाईकेक्स में गाड़ीवान हीरामन और नौटंकी वाली हीराबाई को मिलवा दिया जाए। इसी मशवरे के अनुसार फ़िल्म के क्लाईमेक्स को इन दोनों के मिलन पर आधारित करके फ़िल्माया गया था परंतु शैलेन्द्र इस अंत पर संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने अपने सलाहकारों के परामर्श को अनदेखा करके यह मामला कहानी के लेखक फणीश्वरनाथ रेणुके फैसले पर छोड़ दिया। रेणु जी ने कहा कि गाड़ीवान हीरामन ने तीसरी कसम हीराबाई से बिछुड़ने के बाद ही खाई थी। उन्होंने प्रश्न किया कि यदि क्लाईमेक्स में आपने दोनों बिछुड़े हुओं को मिलवा दिये तो फिर कहानी और फ़िल्म के नाम तीसरी कसमका क्या अर्थ रह जाता है? अतः कहानी के नाम के महत्व को सार्थक करते हुए फ़िल्म का क्लाईमेक्स दोनों मुख्य पात्रों के बिछुड़ने पर ही आधारित रखा जाए। इस कारण पहले से फ़िल्माए गए अंत को रद्द करके इसे दोबारा से फिल्माया गया और कहानी के अनुसार इसे दोनों मुख्य किरदारों के वियोग पर ही रहने दिया गया।’’11

शैलेन्द्र इस फ़िल्म के निर्माण के बाद आर्थिक संकटों से घिर गए। हैपी एडिंगपर विश्वास करने वाली जनता को तीसरी कसमफ़िल्म की ट्रेजेड़ी समझ में नहीं आयी। इस फ़िल्म की सादगी और अंत को समझने के लिए रेणुऔर शैलेन्द्र की साहित्यिक और बारीक दृष्टि चाहिए। सिनेमा देखने आने वाले लोग पैसा वसूल कंटेंट देखना चाहते हैं। फिर चाहे वह कंटेट कितना ही काल्पनिक क्यों हो। मानवीय जीवन की बारीकियाँ को समझने वाले लेखक, निर्देशक जितने कम हैं; उससे कहीं अधिक कम ऐसे सिनेमा को देखने समझने वाले दर्शक भी कम हैं। ऐसी बहुत सी फ़िल्में फ्लाप/असफल करार दे दी गई जिनकी भाषा विषयवस्तु, कथानक, अभिनय बेहतरीन रहेलेकिन उनको समझने वाले दर्शक नहीं मिल सके।

शंकर शैलेन्द्र के फ़िल्मी गीतों से सर्वाधिक उभरकर विशिष्ट चरित्र सामने आता है वह एक भोले-भाले फक्कड़ दूसरों के दुख में दुख, सुख में सुखी मस्त मगन इंसान के बच्चे का है जिसकी सबसे बड़ी पहचान उसका हिंदुस्तानी होना है। ऐसे आदमी की प्रगतिशीलता की पहचान के लिए प्रगतिशीलता के ठेठ भारतीय पैमाने को समझना आवश्यक है। वह है एक महान देश की वासी, जिसे भारत कहते हैं, जहाँ गंगा बहती है। वह महान देश का एक नागरिक है मगर बेघर बार। चलती भाषा में कहे तो आवारा है। आवारासमाज के घृणा का पात्र होता है पर शंकर शैलेन्द्र उसे अपने गीत की दुनिया का पात्र बनाते हैं और कुछ इस प्रकार बनाते हैं कि वह असंख्य सहृदय श्रोताओं-दर्शकों की सहानुभूति का पात्र बन जाता है। वह दुखी हैं मगर ऐसा मस्त मौला है कि खुशी के गीत गाता है-

‘‘घर बार नहीं, संसार नहीं

मुझसे किसी को प्यार नहीं

आबाद नहीं, बरबाद सही

गाता हूँ खुशी के गीत मगर

जख्मों से भरा सीना है मेरा।’’12

शैलेन्द्र की कविताओं में विद्रोह की आग है तो विनम्रता की चाँदनी भी। एक ऐसा गीत गीतकार जिसे अपने समय की बारीक समझ है। जिसकी कविताएँ जिसके गीत एक अजब बेचैन शांति का विरोधाभास लिए हुए हैं। ‘‘तेलंगाना के जन विद्रोह पर लिखी गयी नागार्जुन और शंकर शैलेन्द्र की कविताएँ कांग्रेसी नेताओं की अंग्रेजी- परस्ती, अमेरिकापरस्ती की कहानी कहती है। नागार्जुन की लालभवानीऔर शंकर शैलेन्द्र की रात सोलह-सितंबर कीशीर्षक कविताएँ आज भी जनमानस को उतना ही उद्वेलित और उद्बोधित करती है-

गूँज रहा है दसों दिशा में भूखे खेतिहरों का स्वर

सुने प्रीमियर, सुनें मिनिस्टर, सुने असिमली के मेंबर

अंग्रेजी, अमेरिकी जोंके, देशी जोंके एक हुई,

नेताओं की नीयत बदली, भारत माता टके हुई।’’13

शैलेन्द्र हर मिजाज के कवि हैं। प्रेम, शांति, निर्वेद, विद्रोह, विरोध और व्यंग्य ये सभी मनोवृत्तियाँ बड़ी सटीक अभिव्यक्तियों के साथ शैलेन्द्र के गीतों में अपना स्थान घेरती हैं। ‘‘शैलेनद्र के व्यंग्य में एक प्रताड़ित की प्रति हिंसा है, वह अफसरी दृष्टि नहीं जो राग-दरबारीके लेखक की कलम से घर में शौचालय की सुविधा से वंचित स्त्रियों के दुख को ट्रक की आँखों से सड़क पर देखता है और मधुरमुस्कान रच देता है। शैलेन्द्र के यहाँ तो-

‘‘उठती देखी हैं अनेक बिलि्ंडगें जमीं से

किंतु सभी में पगड़ी वाले भूत बस चुके हैं

पहले से भूखी आँखों वाले मालिक ने माँगा

मुझसे नज़राना।’’

बिलि्ंडगें ज़मीन से ही उठती हैं, मगर बात आसमान से करती हैं, ज़मीन से नहीं। इन घरों में रहने के लिए पगड़ी चाहिए, पगड़ी गरीब के पास है नहीं मगर वह इन घर वालों को आदमी मानने से इंकार करने का अवसर क्यों चूके भला, दयानतदारी यह है कि वह पगड़ी भी इनमें रहने वाले भूतों के ही माथे। जिस घर में आप अपनी घरनीके साथ रह नहीं सकते वह भूतों का डेरा। ये घर-वाले मालिक हैं मगर हैं भुक्खड़ और ऐसे भुक्खड़ भूख आँत से निकलकर आँखों में उबल पड़ी है-

‘‘ब्याह बाद के वे दो दिन कुछ ऐसा जादू डाल गए हैं

अपने लगते हें बेगाने

मैका मुझको जरा नहीं भाता है

कब आओगे बोलो

कब आकर मुझको ले जाआगे?’’14

सरकारों ने देश का लोकतंत्र का माखौल बना दिया। अमीरों की तिजोरियाँ भरती गई लेकिन गरीब आदमी बुनियादी सुविधाओं से और दूर होता गया। नेता जी का कहीं आना, गरीबों के साथ खाना जैसे, टोटरम को बड़ी ही हिकारत की नज़र से देखते हैं। उनकी कविता नेता जी को न्यौताऐसी ही मनोदशा की कविता है; जब भोली जनता सोचती है कि नेता उनकी बस्ती में आएँगे उनकी समस्याएँ सुनेंगे, जनता के दिन फिरेंगे लेकिन नेता जी के आने का उल्लास बस्ती वालों पर ही भारी पड़ जाता है। ‘‘नेता आए-नेता आएका शोर है और फिर उस शोर में शामिल लोगों की पहचान कराई जाती है-

‘‘घिर आएगी तुम्हें देखने बस्ती सारी

टुकुर-टुकुर ताकेंगे तुमको बच्चे सारे-

शंकर, लीला, मधुकर, घोंडू, राम पगारे

जुम्मन की नाती क़रीम नज़्मा बुद्धन की

अस्सी बरसी मुस्सेवर बुढ़िया अच्छन की

वे सब बच्चे पहन चीथडे, मिट्टी साने

वे बूढ़े बुढ़िया जिनके लद चुके जमाने

और युवकगण जिनके रग में गरम खून है

रह-रह उफन पड़ता है नया खून है।’’

ये लोग ऊँच-नीच का भेद जानते, ज़रा मुँहफट हैं, कुछ कह वह दें तो बुरा मत मानना। इनकी गलती है, ये ढोल के पोल को कुछ-कुछ समझने लगे हैं, इन्हें पूँजीपतियों के साथ प्रशासन की मिली भगत का कुछ-कुछ पता चल गया है, ये उतने भोले नहीं रह गए हैं।’’15

जो बात और जो संघर्ष शैलेन्द्र की जिंदगी में था वहीं संघर्ष और स्वप्न उनके गीतों में ढला। उनके गीतों में केवल करूणा नहीं बल्कि सतत संघर्ष की की प्रक्रिया भी उपस्थित है। दाम्पत्य में प्रेम को शैलेन्द्र ने बहुत सुंदर चित्रित किया है। ‘‘हिंदी कविता में जितना प्रेम पर लिखा गया उसका अधिकांश प्रेमिकाओं-परकीयाओं को समर्पित है। पत्नी को उसका बहुत कम हिस्सा प्राप्त हो सका है। कविता में पत्नी पहले भी कम थी और आज भी इस दावे के सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि संपूर्ण प्रयोगवादी कविता में सिंदुर तिलकित भाल... की शुचिता के दर्शन नहीं हो सकते। शंकर शैलेन्द्र के फ़िल्मी गीतों में भी पत्नी है, बच्चे हैं, परिवार है और कविताओं में भी वे इनसे कटकर क्रांति या परिवर्तन की किसी महा दशा में नहीं जीते वे लिखते हैं कि-

सोचा था, ढूँढे़गा कहीं मकान नहीं

बस, एक कोठरी

एक कोठरी ही काफी है

दोनों सुख से साथ रहेंगे

जैसे किसी घोंसले में कपोल की जोड़ी

साथ रहेंगे तो जीवन की परेशानियाँ

आधी-आधी बँट जावेंगी

और अकेलेपन की हर मौसम की

यह दमघोंट धुएँ की काली बदली

उस दिन छँट जाएगी

जिस दिन प्यारी बीवी की मुस्कान

अंधेरा एवं उजाला एक करेगी।’’16

शैलेन्द्र अपने आप में एक विरले लेखक थे। वे कभी अतिवाद के शिकार नहीं हुए। सिनेमाई लक-दक रंग-ढंग में भी शैलेन्द्र ने अपनी प्रगतिशीलता, संघर्ष, गरीबी और जूझते रहने की जिजिविषा को स्वयं से दूर नहीं किया। वह उल्लास और चेतावनी दोनों को ही एक साथ साधने वाले गीतकार कवि थे। वे अपने गीतों में साहित्यिक सात्विकता के तत्व को हमेशा जीवित रखने वाले रचनाकार थे। शैलेन्द्र एक सिपाही की तरह अपनी कविता के साथ खड़े रहे जो गरीब, बदहाल, वंचित समाज के हक़ की बात करते हैं। शैलेन्द्र इस दुनिया की विषमताओं से आज़िज आकर एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते हैं जहाँ कोई दुख ही हो। दुनिया की तमाम रौनके बेअसर है यदि कोई दुखी हो, भूखा हो, बेघर-बेबस हो। यह सब देखकर शैलेन्द्र का मन कह उठता है-

‘‘ मेरे दिल कहीं और चल

ग़म की दुनिया से दिल भर गया

ढूँढ ले अब कोई नया घर

चल जहाँ ग़म के मारे हों

इन बहारों से क्या फ़ायदा

जिसमें दिल की कली जल गयी

जख्म फिर से हरा हो गया।’’17

शैलेन्द्र जन प्रतिबद्ध रचनाकार रहे। वह जीवन के मूल इंसानियतके हक़ में रचना करते रहे। वहीं उनके जीवन का सौंदर्यबोध रहा। यह कवि सब कुछ करना जानता है- प्रतिवाद करना, विरोध करना, समझना-समझाना; लेकिन स्वयं को मायानगरी में रखते हुए भी अपने के कवि दायित्व के प्रति सजग और ईमानदार बनाए रखा। तभी तो सीना ठोंककर कहा सका कि -

‘‘सब कुछ सीखा हमने

सीखी होशियारी।’’


संदर्भ
 :

1.
प्रहलाद अग्रवाल- कवि शैलेन्द्रराजकमल प्रकाशन, 2005, पृ.14
2. वही, पृ. 20
3. गीतकार शैलेन्द्र- फिल्म- श्री 420’ साल 1955
4. प्रहलाद अग्रवाल- कवि शैलेन्द्रराजकमल प्रकाशन, 2005, पृ.112
5. गीतकार शैलेन्द्र, फिल्म-आवार, 1951
6. ब्रजभूषण तिवारी- गीतों काजादुगर : शैलेन्द्र, वाणी प्रकाशन, वर्ष, 2023, पृ.117
7. शैलेन्द्र : फिल्म- अनाड़ी 1959
8. शैलेन्द्र : फिल्म- सीमा, 1955
9. शैलेन्द्र : फिल्म- उजाला, 1959
10. प्रहलाद अग्रवाल, कवि शैलेन्द्र, राजकमल प्रकाशन, 2005, पृ.37
11. जावेद हमीद, हिंदी सिनेमा के गीतकार, अतुल्य प्रकाशन, 2019, पृ.92
12. ब्रजभूषण तिवारी, गीतों का जादुगर, शैलेन्द्र, वाणी प्रकाशन, वर्ष, 2023, पृ.599
13. ब्रजभूषण तिवारी, गीतों का जादुगर, शैलेन्द्र, वाणी प्रकाशन, वर्ष, 2023, पृ.72
14. ब्रजभूषण तिवारी, गीतों का जादुगर, शैलेन्द्र, वाणी प्रकाशन, वर्ष, 2023, पृ.74
15. ब्रजभूषण तिवारी, गीतों का जादुगर, शैलेन्द्र, वाणी प्रकाशन, वर्ष, 2023, पृ.74
16. ब्रजभूषण तिवारी, गीतों का जादुगर, शैलेन्द्र, वाणी प्रकाशन, वर्ष, 2023, पृ.167
17. प्रहलाद अग्रवाल, कवि शैलेन्द्र, राजकमल प्रकाशन, 2005, पृ.113

प्रियदर्शिनी

एसोसिएट प्रोफेसर (हिंदी), अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, तेलंगाना, हैदराबाद - 500007
kashi.priyadarshini@gmail.com
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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