शोध आलेख : कृषि में महिलाओं की भूमिका और हिन्दी फिल्म ‘मदर इंडिया’ / चौधरी राजेन्द्र कुमार एस.

कृषि में महिलाओं की भूमिका और हिन्दी फिल्म ‘मदर इंडिया’
- चौधरी राजेन्द्र कुमार एस.

भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण भारतीय समाज और संस्कृति भी पूर्ण रूप से कृषि से जुड़ी हुए है। इस संबंध में अमर्त्य सेन का मानना है कि– “भूधारी कृषक संस्कृतियों में पितृवंशानुगामिता तथा लड़कियों के लिए विवाहोपरान्त पतिगृहवास के साथ-साथ संयुक्त परिवार व्यवस्था और लिंग पर आधारित श्रम विभाजन आदि का बहुत दृढ़ता से पालन होता रहा है।”1 यह सत्य है कि भारतीय समाज पुरूषसत्ता प्रधान देश है। इसलिए जब भारत के किसानों की बात होती है तो सिर्फ पुरुष किसानों के साथ ही जोड़कर देखा जाता है। लेकिन सदियों से कृषि में महिलाओं ने महती भूमिका निभाई है क्योंकि महिलाएँ कृषि क्षेत्र में खेत की बुआई से लेकर फसल की कटाई तक के सारे कार्यों में सम्मिलित होती है। जैसे - “परंपरागत रूप से, महिलाओं ने हमेशा कृषि जगत में महती और विविध भूमिकाएं निभाई है, चाहे वो किसान के रूप में हो या सह-किसान, परिवारिक मजदूर, दिहाड़ी मजदूर या फिर प्रबंधक के तौर पर, यही नहीं बीजों का चुनाव, उनका रख-रखाव, भंडारण, विकास और बीजों का आदान-प्रदान हमेशा से ही महिलाओं के हाथ में रहा है। महिला केवल फ़सल उगाने में ही नहीं बल्कि इससे संबंधित दूसरे क्षेत्रों मसलन बागवानी, पशुपालन और मछली पालन में भी सक्रिय भूमिका निभाती रही हैं।”2 इतना ही नहीं कई विद्वान यह भी मानते है कि कृषि की शुरूआत ही स्त्रियों द्वारा हुई है। विल टुरन्ट लिखते है कि “यद्यपि आरम्भिक समाज में अधिकाशतः आर्थिक विकास पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों द्वारा हुआ, पुरूष तो सदियों तक आखेट और पशुपालन के प्राचीन तरीकों से ही चिपका रहा लेकिन स्त्री ने अपने खेमें के पास कृषि का विकास किया, घर की अन्य कई उन कलाओं का विकास किया, जो बाद में महत्वपूर्ण धन्धों के रूप में विकसित हुई।”3 भारतीय कृषि सामाजिक परंपरा एवं संस्कृति के बारे में सुभाष शर्मा लिखते हैं कि- “सामाजिक कुरीतियों एवं परंपराओं ने श्रम-विभाजन में भी लिंगभेद लागू किया है–यानी कुछ कार्य जैसे खेत में हल जोतना, छप्पर छाना पुरूषों के लिए घोषित हैं और महिलाएं ये कार्य नहीं कर सकतीं।”4 भारत में आज भी कृषि का सारा कार्य महिलाएं संभालती नज़र आती है।

आज भारत के गाँवों में बडे किसानों की संख्या बहुत कम बची है और छोटे किसान अधिक है जिससे उनका गुजारा करना मुश्किल हो जाता है। इन परिस्थितियों के कारण गाँव से शहर की ओर पुरूष किसानों का पलायन बहुत बड़ी मात्रा में हो रहा है जिससे गाँव में महिलाएँ ही ज्यादा रह जाती है और घर-गृहस्थी के साथ खेती-किसानी का भी सारा कार्य संभालती हुई नज़र आती है। 2017-18 में किये गये आर्थिक सर्वेक्षण में भी पाया गया था कि पुरूषों के बढ़ते ग्रामिण से शहरी विस्थापन से कृषि का ‘नारीकरण’ हुआ है। फेमिनाइजेशन ऑफ एग्रीकल्चर के अनुसार भारत में यह आकड़ा सबसे ज्यादा बिहार में है, जहां पर 50 प्रतिशत महिलाएँ कृषि से जुड़ी हुई है और उनमें 70 प्रतिशत ऐसे परिवार है, जिनमें से पुरूष गाँव से शहर की तरफ पलायन हुए हैं। इसके साथ ही खेती के अंतर्गत काम करनेवाली महिला मजदूरों की संख्या भी बहुत ज्यादा है। युनाइटेड नेशन के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के मुताबिक भारत की कृषि में महिलाओं का योगदान लगभग 32 प्रतिशत है। भारत के अंतर्गत कृषि में महिलाओं की महती भूमिका को देखते हुए ही कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने 15 अक्टूबर को महिला किसान दिवस के रूप में घोषित किया है। साथ ही विश्वभर में करीब 43 फ़ीसदी महिलाएँ कृषि श्रमिक के रूप में कार्य करती हैं। उसको देखते हुए संयुक्त राष्ट्र द्वारा 15 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस के रूप में घोषित किया गया है।

हिन्दी फिल्मों में किसानों का चित्रण शुरू से ही होता रहा है, किसान संबंधी फिल्मों में महिलाओं की भूमिका भी रही है, लेकिन बहुत कम। वैसे जिस देश की अधिकत्तर जनता के व्यवसाय और अर्थ का आधार ही कृषि हो, जिस देश की गणना कृषि प्रधान देशों के अंतर्गत की जाती हो उस देश का सिनेमा जैसा माध्यम कैसे कृषि से अछूता रह सकता है। क्योंकि सिनेमा को भी साहित्य की तरह समाज का आईना माना जाता है। हिन्दी की पहली रंगीन फिल्म का नाम ही कृषि और महिला के साथ जुड़कर बनता है- ‘किसान कन्या’ (1936) उसके बाद 1940 में महबूबख़ान के निर्देशन में ‘औरत’ नाम से फिल्म बनी उसी फिल्म को दोबारा 1957 में ‘मदर इंडिया’ के नाम से बनाया गया उसमें भी नारी और कृषि को साथ में दिखाया गया। इस फिल्म में अभिनय की प्रमुख भूमिका नर्गिस (राधा), सुनिल दत्त (बिरजू), राजेन्द्र कुमार (रामू), राज कुमार (शामू) आदि ने निभायी थी। 1954 में ‘दो बीघा जमीन’ में शंभू के शहर चले जाने के बाद घर का सारा कार्य, बीमार ससुर की देखभाल एवं खेती का काम शंभू की पत्नी पार्वती के कंधों पर आ जाता है, वह गर्भवती होने के बावजूद भी कर्ज की मुक्ति के लिए घर में न बैठकर ठेके पर काम करने के लिए जाती है, बुखार होने के बावजूद शिगाड़े लेने तालाब में जाती है। उस तरह एक कृषक नारी की संघर्ष की बात ‘मदर इंडिया’, ‘दिशा’, ‘धरती कहे पुकार के’, ‘गंगा तेरा पानी अमृत’, ‘उपकार’ ‘करंट’, ‘अंकुर’ आदि फिल्में करती हैं।

‘मदर इंडिया’, ‘करंट’ और ‘गोदान’ की स्त्रियों की छवि अलग–अलग रूपों में उभरती है। ‘मदर इंडिया’ फिल्म में राधा की छवि जो हमारे सामने उभरकर आती है वह छवि सच्ची भारतीय स्त्री किसान की छवि है जो यथार्थ के साथ जुड़ती नज़र आती है। वास्तविक स्त्री किसान की स्थिति, मेहनत, मुसीबत, यातनाओं आदि के साथ न्याय कर पाने में काफ़ी हद तक सफल रही है। इस फिल्म में कमजोर मानी जानेवाली महिला का आत्मबल, शरीर से मजबूत चित्रण किया है। इसके संबंध में ‘सिनेमा में नारी’ नामक किताब में शमीम खान ने लिखा है कि – “कमजोर समझी जाने वाली औरत अपने आत्मबल और दृढ़ निश्चय के कारण कितनी मजबूत हो सकती है, फिल्म की नायिका राधा इसकी मिसाल है।”5

राधा जब शादी करके आती है तो घर के बाहर के सब लोगों की नज़र और आकांक्षा उन पर टीकी है, वह दिखने में तो अच्छी है लेकिन बाकी काम कैसे करेगी। अक्सर ऐसा गाँवों में होता है जब नयी नवेली दुल्हन घर में आती है तो घरवालों से ज्यादा आस-पड़ोस के लोगों को रूचि रहती है कि घर का और बाहर काम करती है या नहीं। अगर करती है तो सराहना होती है और नहीं करती तो गाँव भर में आलोचना होती है। शादी के बाद जब उसे पता चलता है कि उसकी शादी कर्ज लेकर की गई है तो वह अपने पति को गहने उतार कर दे देती है जिससे कर्ज कम हो सके यह उसका निःस्वार्थ और समर्पण भाव है। क्योंकि अक्सर हमें लगता है कि औरत को सबसे प्यारी कोई चीजे हो तो वह गहने, साड़ी, सजने संवरने में आगे रहती है लेकिन यहाँ राधा अपने पति को कर्ज अदा करने के लिए वह भी उतार कर दे देती है। यह राधा का अपनी जमीन के प्रति लगाव ही है वह चाहती हैं कि कर्ज से जल्दी से जल्दी मुक्ति मिले।

‘मदर इंडिया’ की राधा एक ऐसी महिला है जो अपने पति पर निर्भर नहीं बल्कि पति की पूर्णरूप से सहभागिनी है। वह घर का सारा कार्य तो संभालती है। जैसे- खाना बनाना, बच्चों का लालन-पालन करना आदि। लेकिन यह सब कार्य करते हुए भी पति शामू के साथ खेत के कार्य में पूर्ण रूप से सहभागी रहती है। घर और खेती दोनों का कार्य मिलाकर शामू के दिनभर के कार्य साथ तुलना की जाएँ तो राधा का कार्य शामू से अधिक होता है। राधा शामू के साथ खेत से लेकर खलिहान तक का हर कार्य करते हुए नज़र आती है और हर कार्य बखूबी करती है। जैसे– ज्वार की फ़सल काटती हुए, कपास बीनते हुए, खलिहान में काम करते हुए, कुदाल से जमीन को तोड़ते हुए आदि, शामू जो भी कार्य करता है वह करती है और शामू का हाथ बटाती है।

राधा खेत और घर का कार्य ही नहीं करती वह परिवारिक एवं बाहरी मसलों के निर्णयों में भी समझ बूझ की भी धनी है और वह पारिवारिक निर्णय लेने में मदद करती है। शामू की बीस बीघे जमीन लाला के कर्ज के तले दबी है लेकिन जिस जमीन पर लाला का हक नहीं है उस पाँच बीघे जमीन को जोतने की सलाह भी वही देती है। जैसे- “राधाः- मैंने एक उपाय सोचा है अपनी वो जमीन है ना पाँच बीघा जमीन वो तो बेकार पड़ी है, उसमें खाली घास होती है उसे हम लोग तोड़े उसमें अनाज़ बोये उसपे लाला का कोई हक नहीं। / पति (शामू में हिम्मत नहीं है वह कहता है कि)- आधी जमीन में पत्थर और आधी जमीन में मोटी-मोटी जड़े हैं, मेरे बैल दो दिन में मर जायेंगे। / राधा (पति का ऐसा निराशा भरा उत्तर सुनकर भी वह उदास नहीं होती और नहीं हिम्मत हारती है वह अपना फैसला पति को सुनाते हुए कहती है) – मैं तो कल से ही शुरू करती हूँ जमीन तोड़ने का काम।”6

यहाँ राधा की कुशलता का या स्त्री बुद्धि चित्रण है, शामू जो सोचने में असमर्थ है वह राधा सोचती है, कर्ज मुक्त और सफल जिन्दगी का रास्ता दिखाती है। राधा की बातों में अद्भूत हिम्मत, साहस दिखाई देता है वहाँ शामू में उसकी कमी नज़र आती है। लेकिन पत्नी के हिम्मत को देखकर वह भी उसका साथ देता है और दोनों उस बंजर जमीन को तोड़ने का कार्य आरंभ कर देते हैं। लेकिन बदकिस्मती से एक बड़ा-सा पत्थर निकालते समय शामू का हाथ उस पत्थर के नीचे आ जाता है और हाथ कट जाते हैं। इन हाथों के कटने साथ ही शामू के अंदर जो रही सही हिम्मत है वह भी टूट जाती है। उसका मनोबल टूट जाता है और शामू घर से कहीं चला जाता है। उसके बाद तो घर की सारी जिम्मेदारी राधा के कंधों पर आ जाती है। राधा को घर संभालना बच्चों का ख्याल रखना है लेकिन घर में अनाज का दाना नहीं है। राधा को खेती संभालनी है, खेत जोतने हैं लेकिन उसके पास बैल नहीं हैं, नहीं पैसे है, नहीं घर में कोई सामान बचा है जो बंधक रखके पैसे मिले और ऊपर से लाला का कर्ज। ऐसे कठिन संकट के समय में भी राधा का साहस और हिम्मत नहीं टूटता वह बैल की जगह खुद लेती है और अपने बेटे रामू से हल चलवाती है। यह छवि जिस तरीके से भारतीय समाज में उभरी है या इस छवि ने भारतीय किसान की वास्तविकता से रूबरू करवाया। उससे भारतीय सिनेमा में ‘मदर इंडिया’ फिल्म की एक अलग छवि बनकर उभरी है। आज किसानों के द्वारा खेती को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में जाने और आत्महत्या करने से महिला किसानों की संख्या में बहुत अधिक मात्रा में इजाफ़ा हुआ है। इस तरह पुरूषों का गाँव से “पालायन के परिणाम स्वरूप ये ग्रामीण महिलाएँ दोहरे शोषण का शिकार होती हैं। परिवार में दोहरे कामों का बोझ, परिजनों की हिंसा का शिकार वहीं बाहरी लोगों द्वारा कार्यस्थलों पर तरह-तरह के शोषण को झेलती हैं।”7 क्योंकि परिवार के मुखिया के शहर में या मृत्यु हो जाने से महिला के कंधों पर ही कृषि को संभालने का दायित्व आ जाता है। जिससे दिन-ब-दिन महिला किसानों की संख्या में वृद्धि हो रही है। वही स्थिति ‘मदर इंडिया’ की राधा की भी है। पति के कहीं चले जाने के बाद वह भी लाला के शोषण का शिकार होती है।

राधा कई सारी कठिनाईयों का सामना करते हुए फ़सल तो खड़ी करती है लेकिन एक बार फिर बदकिस्मती उसका पीछा नहीं छोड़ती और इस बार प्रकृति ऐसा कहर ढ़ाती है कि सारी लहलहती फसले बारिश के पानी के साथ बह जाती है और खेत चोपट्ट हो जाते हैं। घर बाहर सब जगह पानी ही पानी हो गया है। जमीन को अब उपजाऊ बनाने में चार-पाँच साल लग जाऐंगे, यही सोचकर गाँव के लोगों की हिम्मत टूट गई है। लोग गाँव छोड़ने के लिए मजबूर हो गये हैं। लेकिन राधा में अभी भी हिम्मत बची हुई है, अभी भी इस गाँव की धरती पर राधा का विश्वास है। वह अकेली ऐसी है जो गाँव में रुकना चाहती है। इतना ही नहीं वह गाँववालों को रोकती है, हिम्मत बांधती है, आशा के बीज बोने का कार्य करती है। उसे भरोसा है कि फिर यह धरती हरीभरी होगी और उसे हरीभरी बनाएगी किसान की मेहनत।

शामू और सास के मृत्यु के बाद लाला राध की इज्जत का सौदा करने आता है तब राधा दृढ़ निश्चय और अपनी मेहनत के बल पर लाला को कहती है। जैसे – “राधा के दाम न लगावों लाला, मरते दम तक भी इज्जत का सौदा नहीं करेगी, राधा के दाम उसके बच्चे है, फ़सल पर पैसे ले जाना चले जाओ यहाँ से।”8 राधा की हिम्मत, मनोबल, विश्वास और आशा के किरन पति के हाथ कट जाने, घर से कहीं चले जाने, सासु माँ के मर जाने और गाँव में आयी बाढ़ से नहीं टूटती बल्कि बेटे के प्रति ममत्व भाव के आगे हार जाती है और लाला के पास पहुँच जाती है। वहाँ वह लक्ष्मी माता की मूर्ति के सामने एक सवाल करते हुए कहती है – “संसार का भार उठा लोगे देवी, ममता का बोज न उठाया जायेगा, माँ बनकर देखों, तुम्हारे पाँव भी डगमगा जायेंगे।”9 लेकिन फिर एक बार राधा के अंदर नई आशा का संचार होता है और लाल से अपनी इज्जत की रक्षा करते हुए भाग निकलती है। राधा को अपने पति शामू का प्यार और इन्तजार हमेशा रहता है, जब बिरजू उसके लिए सोने के कंगन लेकर आता है और एक महाराज की बात करता है जो सब जानता है तो वह सच समझती है और वह बिरजू से कहती है- “अरे पर तूने सोने के कंगन क्यों माँगे, तूने अपने बापू का पता क्यों नहीं पूछा, ये क्यों नहीं कहा कि वो कब आयेंगे। चल बेटा चल, चल मुझे अभी ले चल साधु महाराज के पास।”10 अपने छोटे बेटे के मृत्यु के बाद भी वह अपने मार्ग से विचलित नहीं होती।

राधा एक किसान के रूप में खरी उतरती है साथ ही परिवार को भी एकरूप और खुशहाली में रखने की कोशिश करती है। वह अपने दोनों बेटों को स्कूल भेजती है। अच्छे संस्कार देने का प्रयास करती है। रामू की शादी भी करवा देती है। बिरजू का ब्याह भी करवाना चाहती है। बिरजू को गलत काम करने पर सजा भी देती और गलत रास्ते पर जाने से रोकती भी है लेकिन बेटा बिरजू बचपन से ही लाला के अत्याचार एवं शोषण देखते आया है जिसके परिणामस्वरूप उसके मन में लाल के प्रति विद्रोह की भावना पनप चुकी है और गलत रास्ते पर चला जाता है। लेकिन जब राधा के सामने गाँव की इज्जत का सवाल खड़ा होता है, तब जब एक औरत के दुख, दर्द, अस्तित्व, इज्जत, मान-सम्मान की बात आती है और राधा का ममत्व भाव को पीछे छूट जाता है, उसी समय राधा के सामने एक औरत की इज्जत, आबरू मान– सम्मान सर्वोपरी हो जाता है और बिरजु- अपने बेटे के खून से होली खेलती है। जैसे- “राधाः- बिरजू रुपा को छोड़ दे, मैं तुझे जान से मार डालुंगी। बिरजूः- (ममता का वास्ता देते हुए) तू मुझे नहीं मार सकती, तू मेरी माँ है। उसके जवाब में राधाः – मैं एक औरत हूँ। बिरजुः- मैं तेरा बेटा हूँ। राधाः - रुपा सारे गाँव की बेटी है। वो मेरी लाज है। बिरजू मैं बेटा दे सकती हूँ लाज नहीं दे सकती। बिरजुः- तू मार सकती है तो मार, मैं भी अपनी कसम नहीं तोड़ूँगा।” 11

ममता और स्त्रीत्व की लडाई में स्त्रीत्व की विजय होती है जिस ममता भाव से अपनी इज्जत की बलि चढ़ने गई थी उसी ममता भाव के आगे एक औरत की लाज को बचाने के लिए राधा अपने बेटे को अपने ही हाथों से बंदूक की गोली दाग देती है और बिरजू को वहीं ढ़ेर कर देती है। लेकिन जैसे ही बिरजू को गोली लग जाती है, तब उसमें ममता का भाव जाग्रत हो जाता है।

‘मदर इंडिया’ एक ऐसी स्त्री की छवि को उजागर करती है जो वास्तविक कृषक स्त्री को रूपायित करने में काफ़ी हद तक कामयाब नज़र आती है। किसान महिला आज कृषि, हर तरह की भूमिका निभा रही है अपना योगदान दे रही हैं यह सब इस फिल्म में देखने को मिलता है। उसके साथ ही एक स्त्री में पुरुष और परिवार के प्रति जो कर्तव्य है वह भी पूर्ण रूप से निर्वाह करती हुई नज़र आती है। इस संबंध में शमीम खान लिखते हैं कि – “ ‘मदर इंडिया’ की राधा एक ऐसी पत्नी है, जिसकी चाहत हर पुरुष को होती है। एक ऐसी ममतामयी और संस्कारवान माँ है, जिसकी गोद में भावी पीढ़ी ही नहीं, संस्कृति पलती है।”12 इस फिल्म के बारे में यह भी कहा गया हैं कि – “महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ (1957) में स्त्री की उदारता को उसके महत्त्व में नहीं बल्कि यथार्थ के धरातल पर उसके जीवन संघर्ष में स्थापित किया गया है।”13 फिल्म के यथार्थ के बारे में रामशरण जोशी लिखते हैं कि- “यह अकारण नहीं था कि महबूब खाँ ने ‘औरत’ बाद में ‘मदर इंडिया’ के नाम से बनी फिल्मों में कृषि समाज की महाजनी अर्थव्यवस्था और तदजनित अंतर्विरोधों को प्रस्तुत किया। इसके साथ ही भारतीय कृषि समाज में औरत की क्या हैसियत है, इसे भी सामने रखा। यह कहना होगा कि जहाँ पौराणिक भारतीय नारियों (‘सीता’, ‘सावित्री’, ‘तरावती’, ‘दुर्गा’, आदि) की फिल्मों में भरमार थी, वहीं महबूब खाँ ने भारतीय स्त्री की यथार्थवादी स्थिति को चित्रित किया।”14 फिल्म के बारे में जवरीमल्ल पारख लिखते हैं कि – “ ‘मदर इंडिया’ एक राष्ट्रीय रूपक के रूप में सामने आती है। यहां फिल्म की नायिका राधा (नरगिस) सिर्फ किसान औरत नहीं है बल्कि भारत माता का प्रतीक भी है।”15 किसान जीवन की गाथा कहा जानेवाला उपन्यास ‘गोदान’ में भी होरी की पत्नी का चित्रण शक्तिशाली नारी एवं पुरुष के सुख-दुख की साथी के रूप में देखने को मिलता है। धनिया होरी के साथ खेती में भी हाथ बटाती है और किसान से मजदूर हो जाने के बाद मजदूरी भी दोनों साथ में करते हैं। इस तरह धनिया भी होरी के हर काम में भागीदारी निभाती है। धनिया का स्वभाव थोड़ा गुस्सेवाला भी है लेकिन स्त्री सहज दया और ममता भी है। धनिया झुनिया को अपने घर पर रखने पर सारे गाँव के विरोध करने और बिरादरी से बाहर हो जाने से भी नहीं डरती और पंचों के फैसलों का भी विरोध करती है। इतना ही नहीं भोला (झुनिया का चाचा) झुनिया को घर के बाहर करने के लिए कहता है ऐसा नहीं करने पर वह दोनों बैल खोल के ले जाने की धमकी देता है। लेकिन धनिया भी साफ-साफ कह देती है कि बैल खोल के ले जाना हो तो ले जाओ लेकिन झुनिया मेरे घर में रहेगी। धनिया की छवि एक निडर और साहसी नारी के रूप में सामने आती है। उसमें पुलिस, पंचों और गाँववालों के सामने लड़ने का भी साहस है। राधा और धनियाँ दोनों ही नारी पात्रों में एक स्त्री के लिए मान-सम्मान है जो स्त्री में होना चाहिए। उसके लिए एक अपने बेटे को कुर्बान कर देती है तो दूसरी गाँव और पंच के सामने विद्रोह कर देती है।

निष्कर्षतः आज कृषि क्षेत्र में महिलाएँ अपनी उपस्थिति न सिर्फ दर्ज करवा रही हैं बल्कि मजबूती के साथ अपने अस्तित्व का भी आभास करवा रही हैं। आज पुरुषों के विस्थापन से या आत्महत्या से जो हाल महिला किसानों का होता है वही हाल इस फिल्म की नायिका राधा का भी है। पुरुष किसान आत्महत्या के कारण जिन्दगी से, जिम्मेदारी से छूटकारा पा लेता है लेकिन महिला आत्महत्या नहीं करती और वह उसकी अपनी जिम्मेदारियों को अच्छी तरह से निभाती है। उसका उदाहरण ‘मदर इंडिया’ की राधा है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर भारतीय महिलाएँ खेती में अपनी भूमिका किसान या सह किसान के रूप में निभाती आयी हैं। भारत पुरुष प्रधान देश होने के कारण यहाँ अन्य क्षेत्रों की तरह ज्यादात्तर पुरुष ही किसान होते हैं। महिला किसानों की संख्या बहुत कम मात्रा में है यानी कि जिनके नाम भूमि है।

संदर्भ :
  1. अमर्त्य सेन, ज्यां द्रीज़ अनुवाद - भवानीशंकर बागला, भारतीय राज्यों का विकास (कुछ प्रादेशिक अध्ययन), राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली-11000, सं.- 2008 , पृ. सं-99
  2. मैत्रेयी कृष्णराज और अरुणा - भारतीय महिला किसान, नेशनल बूक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली-110070, प्र.सं.2012, पृ.सं.-1
  3. विलडूरेन्ट, हिन्दी अनुवादक- श्री कान्त व्यास - सभ्यता की कहानी, किताब महल प्राइवेट लिमिटेड जीरो रोड इलाहाबाद, अध्याय-2, पृ. 26
  4. सुभाष शर्मा - भारतीय महिलाओं की दशा, आधार प्रकाशन, पंचकुला हरियाणा, प्र. सं. 2006, पृ. सं.-160
  5. शमीम खान - सिनेमा में नारी, प्रभात प्रकाशन, सं. 2014, पृ. सं. 47
  6. (‘मदर इंडिया’ फिल्म से)
  7. कुरूक्षेत्र (पत्रिका), प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, सितंबर-2014, पृ.सं.-36
  8. (‘मदर इंडिया’ फिल्म से)
  9. (‘मदर इंडिया’ फिल्म से)
  10. (‘मदर इंडिया’ फिल्म से)
  11. (‘मदर इंडिया’ फिल्म से)
  12. शमीम खान - सिनेमा में नारी, प्रभात प्रकाशन, सं. 2014, पृ. सं. 47
  13. समसामायिक सृजन (पत्रिका), हंस प्रकाशन दिल्ली, अक्टूबर-मार्च-2012-2013/ पृ. सं.-74
  14. बहुवचन (पत्रिका), प्रकाशन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा-442005 39/ अक्टूबर-दिसंबर-2013, पृ. सं.-210
  15. जवरीमल्ल पारख - हिंदी सिनेमा का समाजशास्त्र, ग्रंथ शिल्पी, नई दिल्ली,110092, प्र. सं. 2006, पृ.सं.-163

चौधरी राजेन्द्र कुमार एस.
अध्यापक सहायक, गुरूकुल महिला आर्टस एवं कोमर्स कॉलेज, पोरबंदर- 360579
  
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved  & Peer Reviewed / Refereed Journal 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन  : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग  : विनोद कुमार

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