शरतचंद्र चट्टोपाध्याय कृत ‘देवदास’ का उत्तर पाठ बरास्ते फिल्म ‘देव-डी
- मुन्ना कुमार पाण्डेय
शोध सार : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘देवदास(1917)’ ने लोकप्रियता का शिखर छुआ था और उसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उस पर अलग-अलग भाषाओं में तकरीबन दर्जन भर फिल्में निर्मित हुईं । कमोबेश इस उपन्यास पर बनी सभी फिल्में अच्छी चलीं परंतु यह केवल एक साहित्य के सिनेमाई रूपांतरण से संबंधित कथन नहीं है, बल्कि साहित्य और संस्कृति के केंद्र में आधुनिक विमर्शों ने जिस तरह से स्थान बनाया है, उसमें इस उपन्यास ही नहीं बल्कि इससे संबंधित फिल्मों के भी आधुनिक व्याख्याओं की आवश्यकता है। विशेषत: नारीवादी दृष्टि से इस उपन्यास और फिल्म की मीमांसा की जाए तो निश्चित ही नए अर्थ खुलेंगे। इस सरणी में शरत बाबू के उपन्यास और फिल्मकार अनुराग कश्यप की इसी उपन्यास पर बनी फिल्म ‘देव डी(2019)’ का अध्ययन इस कथा में निहित अधुनातन विमर्शों के साथ दोनों माध्यमों के भीतरी प्रस्तुत अर्थ-ध्वनियों को सामने लाती है।
बीज शब्द : साहित्य और सिनेमा, नाटक और सिनेमा, विजुअल टेक्स्ट, विमर्श, आधुनिक व्याख्या, सामाजिक संरचना, पाठ-पुनर्पाठ, सामयिक साहित्य, सामयिक व्याख्या
मूल आलेख : साहित्यिक गलियारों में जब कृतियों को आज के सन्दर्भ में व्याख्यायित/पुनर्पाठ किया जा रहा है वैसे में सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा है। आखिर यह हमारे समय का विजुअल टेक्स्ट है तो नए विमर्शों के दौर में इन फिल्मों को भी एक नए नजरिये के साथ देखना जरूरी हो जाता है, जो विशेषतः साहित्य केंद्रित रही हैं। सिनेमा मेकिंग में मल्टीप्लेक्स कल्चर का यह दौर उर्वर फिल्मकारों का है और जिनका नजरिया पिछली पीढ़ी के चश्मे से अपने अनुभव नहीं लेना बल्कि उस कथा-कहन को नए सन्दर्भों में देखने और दिखाने वाला भी है। हालांकि यह भी सत्य है कि ऐसी कोशिशों में कई बार ऐसे प्रयास मुँह के बल गिरते हैं पर कई बार बदलते विमर्शों और सामाजिक संरचनाओं में ये बड़े मानीखेज बनकर सामने आते हैं। यहाँ कथा का मूल पुराना जरूर होता है पर उससे जो सर्जन होता है, वह नया होता है। ऐसे साहित्यिक कृतियों का आधार लेकर भी खूब फिल्में बन रही हैं। आज के दौर में हिन्दी सिनेमा में जब शेक्सपीरियन नाटकों की मौलिक, सर्जनात्मक और आधुनिक व्याख्या की जब बात होती है तो विशाल भारद्वाज (मैकबेथ-मकबूल, ऑथेलो-ओमकारा, हेमलेट-हैदर आदि) की फिल्में सामने आ खड़ी होती हैं। विशाल भारद्वाज की साहित्य केंद्रित फिल्मों का पाठ नितांत नया और सर्जना मौलिक है। यानी कहानी पुरानी पर कहन की शैली नई है, उसका लैंडस्केप अपनी। नयी शैली अपनाते ही यह किस्से अपना अधुनातन पाठ रच लेते हैं। अनुराग कश्यप इसी पीढ़ी के सबसे ऊर्जावान, उर्वर, मौलिक, दूरदर्शी फिल्मकार हैं। फिल्ममेकर अनुराग कश्यप, जो ‘सत्या’ फिल्म से चर्चा में आए। अनुराग कश्यप ने एक फिल्म ‘देव-डी’ फिल्म बनाई, जिसके कथा के मूल में बंगाली कथाशिल्पी शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की कालजयी कृति ’देवदास’ है। देवदास अपने समय के मशहूर उपन्यासों में से है, जिसके पाठकों की आज भी एक बड़ी तादाद है और जिसका अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ तथा इस कथानक पर अनेक फिल्में भी विभिन्न भाषाओं में बनीं और यह आज भी सर्वाधिक बिकने वाली श्रेणी के उपन्यासों में से है।
‘देव-डी’, ‘देवदास’ पर बनी पिछली तमाम फिल्मों का उत्तर पाठ है। सच कहें तो यह देवदास का स्त्री पक्ष है, जिसमें पुरुष प्रेमी का पूर्णतया नकार नहीं बल्कि यह उसे भी जीवन जीने का एक नया अर्थ देता हुआ उसके स्त्री पात्रों के पक्ष की रचनात्मक प्रस्तुति है। ऐसा कहने के पीछे तर्क यह है कि देवदास देखते या पढ़ते पाठक अथवा दर्शक को हमेशा कुछ मलाल या कचोट दिल में रह जाते थे और जिनका उत्तर अभी तक नहीं मिल पाया था। ना साहित्य रसिकों ने, ना ही आलोचकों ने और ना ही फिल्म जगत के निर्माताओं (मेकर्स) और समीक्षकों ने इस ओर ध्यान दिया कि देवदास के महाकाव्यात्मक (एपिकल) किरदार के आगे उसकी स्त्रियों के अनुत्तरित प्रश्न अब तक किसी ने देखे ही नहीं। ‘देव-डी इस मायने में इन सवालों से दो-चार होने की कोशिश करती है। हालांकि शरत बाबू का यह उपन्यास और इस पर बनी बरुआ, रॉय या भंसाली की फिल्में अपने समय की हिट फिल्में रही हैं, इसलिए इसके चरित्रों के ‘एक्शन’ और उनकी जीवन स्थितियों के साथ एक पाठकीय-दर्शकीय जुड़ाव स्वाभाविक है और जब आपका जुड़ाव किसी कृति से इस तरह का हो तब उसमें से उठने वाले प्रश्नों की कुलबुलाहट से जूझना और उनके उत्तरों की तलाश वाजिब है । देव-डी इस मायने में देवदास का उत्तर पाठ रचती हुई सामने आती है, वह भी नितांत इक्कीसवीं शताब्दी का पाठ, जो कहीं अधिक तार्किक, स्पष्ट और निष्पक्ष है। देव-डी और देवदास के चरित्रों के इसी पक्ष को आज के सन्दर्भ में देखने की जरुरत भी है और तब शायद हमें उन अनुत्तरित सवालों के जवाब मिल जाएं और तब शायद उन नायिकाओं/स्त्रियों के पक्ष में खड़े मानस को निराशा नहीं होगी।
इस उपन्यास और फिल्म के तीन महत्वपूर्ण किरदार हैं- पारो/पार्वती, देवदास उर्फ देव और चंद्रमुखी/चंदा। पूरी कहानी का वितान इन्हीं तीनों के आसपास बनता है। पिछली तमाम पारो को देवदास नहीं मिलता और न देव को उसकी पारो लेकिन चंद्रमुखी के किरदार के हिस्से भी वियोग और पीड़ा के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। पारो प्रेम और स्वाभिमान की मूर्ति है, जिसने टूटकर प्रेम किया, अपने देवदास के लिए अंत तक आह भरती रही पर उसे प्रेम का प्रतिदान क्या मिला। यह पाठकों और दर्शकों को मालूम है। लेखक शरत बाबू ने लिख दिया है “अब इतने दिनों में पार्वती का क्या हाल हुआ, कैसी है वह, नहीं जानता। खोज-पूछ को जी नहीं चाहता। सिर्फ देवदास के लिए बड़ा अफ़सोस होता है।” मजेदार बात यह है कि प्रेम में तीन कोनों पर तीन किरदार अपने हिस्से का दर्द लेकर खड़े हैं, देवदास अलबत्ता आत्मघाती रास्ते पर भले है लेकिन सवाल लाजिमी है कि देवदास के प्रति ही उसके रचयिता की संवेदना क्यों? उस प्रेमी के लिए इतनी करूणा क्यों, जिसने प्रेम को ठीक से या तो समझा ही नहीं, या निर्णय लेने के समय में अनिर्णय की अवस्था में रहा? यह प्रश्न उठाने की कई वजहें हैं, जो कथानायक को कठघरे में खड़ा करती हैं। इसका एक बड़ा उदाहरण वह दृश्य है, जब पारो अपने प्रेम को एक सामाजिक अंजाम तक पहुँचाना चाहती है, अपने प्रेम का प्रतिदान मांगती है और आधी रात को देवदास की देहरी पर पहुँचती है। यह दृश्य इस मायने में भी बेहद प्रगतिशील है कि भारतीय साहित्य में नायिका का इस तरह नायक का स्टैन्ड जानने की संभवतः यह पहली कोशिश है, जिसे शरत बाबू ने उपस्थित किया है पर यह दृश्य एक स्त्रीमन के आगे पुरुष-पक्ष को खोलकर रख देता है:
“देवदास- इतनी रात को? छि: छि:! कल शक्ल कैसे दिखाओगी?
पारो- वह हिम्मत मुझे है।
...
देव. - कल शर्म के मारे सिर नहीं झुक जायेगा तुम्हारा?
पारो- बेशक झुक ही जाता, बशर्ते कि मैं निश्चित रूप से यह न जानती कि तुम मेरी सारी लाज-शर्म को ढँक लोगे।
देव. - मैं! मगर मैं ही क्या अपना मुँह दिखा सकूँगा?
पारो- तुम पुरुष हो आज नहीं तो कल लोग तुम्हारे कलंक की बात भूल जायेंगे। दो दिन के बाद कोई याद नहीं रखेगा कि कब किस रात को अभागिन पार्वती अपने कुल की परवाह न करके तुम्हारे पैरों में माथा टेकने आई थी।”
बहरहाल, देवदास पारो को वापिस चले जाने को कहता है। जिस पारो को तब जवाब नहीं मिला, वह लगभग पिछली सभी फिल्मों और तमाम लेखों, बहसों में नहीं मिला, वह जवाब अनुराग कश्यप की फिल्म देव डी की नायिका पारो देती है, तब जब वह विवाह-पश्चात उससे मिलने आये और पुराने प्रेम की वापिस चाहना करने वाले उस प्रेमी को उसके अपने ही तरीके से जवाब देती है कि “तुम्हारी औकात बता रही हूँ” या “तुम कभी कुछ नहीं कर सकते देव।” देव-डी की पारो चमत्कृत करती है। वह नई सदी की नायिका है। प्रेम का प्रतिदान लेने और अपने प्रेम के बारे में उल्टा-सीधा कहने वालों को सबक सिखाने में भी यह अधिक क्रांतिकारी और सकारात्मक रूप से ढीठ है। इतना ही नहीं यह पारो न तो अपने कमिटमेंट को लेकर कही गयी तीखी बातों को भूलती है, ना ही फिल्म में अपने प्यार के टूट जाने का अधिक मातम मनाती है| यहाँ तक कि जब उसे मौका मिलता है, उसे सूद समेत वसूलती भी है| आखिर क्यों वही, एक स्त्री ही हमेशा यह प्रतिदान पाए, यह अंजाम भुगते। वह अपने पुरुष (प्रेमी) से ठेठ बराबरी वाला हिसाब-किताब करती है। सिमोन द बाउवार अपनी पुस्तक ‘स्त्री उपेक्षिता’ में एक जगह लिखती हैं ‘पुरुष के बनाए सत्यों पर स्त्री भरोसा नहीं करती’, फिर देव डी की पारो तो एकदम खालिस इक्कीसवीं सदी की नारी है, जो अपनी शर्तों पर, बराबरी के हक से प्रेम करती है, फिर चाहे वह चयन या सामाजिकता के स्तर पर हो अथवा यौनिकता के स्तर पर। यह पारो बरबस मुस्कुराने पर मजबूर करती है और यह उसके क़िरदार (कैरेक्टर) को खास बनाती है कि वह नायक से ठुकराए जाने के बाद भी प्रेम दीपक सरीखी तिल-तिल नहीं जलती, ना ही कोने में बैठ टेसुए बहाती है बल्कि इसके उलट वह देव द्वारा ठुकराए जाने के बाद अपनी ही शादी में खुलकर नाचती है। संभव है यह उस तरह के साथी से मुक्ति का नृत्य हो, जिसके लिए प्रेम में सामाजिक रूढियाँ अपनी प्रेयसी से अधिक प्रिय है और जो हमेशा सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाता। ऐसे प्रेमियों की परिणिति वही होनी चाहिये जो देवदास का हुआ।
इस फिल्म से पहले की लगभग पिछली सारी देवदास सीरीज की फिल्मों में शरत बाबू के उपन्यास का कथानक लगभग ज्यों-का-त्यों रखा गया और कहना न होगा कि यह हमेशा सफल भी रहा पर अनुराग कश्यप ‘देव-डी’में इस कथा के बीहड़ अँधेरों में उतर, उन सवालों से लिपटते हैं जो अब तक सायास अथवा अनायास बाहर रखे गए थे। वह इसका अपना आधुनिक पाठ रचते हैं परंतु इस ट्रेजेडी कथा की जिस नायिका के हिस्से सबसे अधिक सहानुभूति जाती है वह है ‘चंद्रमुखी’। लेखक इसके प्रेम को भी ‘ऐरी मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद ना जाने कोय’ और ‘वह हमें चाहे न चाहे’ यानी दगादार से यारी का भाव! मीरा के प्रेम-पीर सरीखा औदात्य उपस्थित कर देते हैं। यह नायिका अपने प्रेम की खातिर अपना सब कुछ त्याग कर एक खास किस्म की आध्यात्मिक ऊँचाई पा लेती है जबकि एक नायिका को गँवा चुका, निर्णय पर ना पहुंचा हमारा नायक उसके प्रेम और सेवा-सुश्रुषा को यह पूछने पर कि “फिर कब भेंट होगी” यह दार्शनिक जवाब देते हुए चल देता है कि “यह तो नहीं कह सकता मगर जीते जी तुमको भूलूँगा नहीं, तुम्हें देखने की प्यास मिटेगी नहीं।” और यह भी कि- “पाप-पुण्य का विचार करने वाले जाने तुम्हारा क्या फैसला करेंगे, लेकिन मौत के बाद फिर कहीं मिलना हुआ तो मैं तुमसे दूर हरगिज़ न रह सकूँगा।” प्रेम की दार्शनिक व्याख्या करने वाले इस संवाद की चाहे जो व्याख्या करें लेकिन आधुनिक फिल्मकार या पाठक अपने इस पाठ/कृति की एक तार्किक परिणिति चाहता है, जिसमें किसी चरित्र को निराश न होना पड़े, उसके साथ अन्याय न हो। आखिर देवदास के पिछले तमाम संस्करणों में चंद्रमुखी का यह चरित्र बिना शोर मचाए पाठक और दर्शक से अधिक सहानुभूति और पक्षधरता की माँग करता दिखाई देता है। प्रेम में आकंठ डूबने पर भी आसमानी दिलासा कुछ और ही मांग (डिमांड) करती है। हालांकि यह भी सत्य है कि प्रेम प्रतिदान नहीं माँगता पर क्या वाकई आज ऐसा है, समय के साथ परिभाषाएँ भी नई गढ़ी जाती हैं। ऐसे में जब पुरानी कहानी का नया पाठ गढ़ा जायेगा, तब इस तरह की जरुरत महसूस की जायेगी कि आखिर क्यों एक स्त्री अपना सर्वस्व एक पुरुष पर न्योछावर करे और बदले में उसे मिले एक पानी में खींची लकीर सरीखी दिलासा। अनुराग कश्यप देवदास के अपने पाठ में यह हूक नहीं पैदा होने देते और न ही उस हूक को सीन से गायब करते हैं, जो अब तक दर्शकों/पाठकों के हृदय में इस पात्र की स्थिति के लिए उठती रही है। अनुराग उत्तर आधुनिक समय में मुख्यधारा (मेनस्ट्रीम) के समाज से लगभग दुत्कार दिए गए चरित्रों को मिलाकर ख़ुद अपना एक सुखद संसार रचते दिखाते हैं। यहाँ देव-डी कोई आसमानी दिलासा नहीं बल्कि ‘भर ले जिंदगी रौशनी से भर ले’ गीत के साथ आशावादी संसार को चुनते हैं बजाय नैराश्य और अन्धकारमय जीवन के, जो अब तक दिखता रहा था। अनुराग की प्रेम की परिभाषा ‘विरह को जीवन और मिलन को अंत’ साबित करने से अलग है, जैसा कि आमतौर पर माना जाता रहा है और जहाँ दुबारा प्रेम होने जैसी स्थिति की कल्पना ही बेमानी है, इतना वायवीय या कहें कि ‘प्लेटोनिक’ संसार ‘देव-डी’ की परिकल्पना से कोसों दूर है| जबकि देवदास चंद्रमुखी को लिखे अपने पत्र में कहता है “सोचा था, अब कभी प्यार न करूँगा। एक तो प्यार करके नाकामयाबी ही सबसे बड़ी यातना है, उसके बाद फिर से प्यार करने जैसी विडंबना दुनिया में दूसरी नहीं।” प्रेम मनुष्य की स्वाभाविक वृति है फिर इसके दुबारा न पनपने की गारंटी कौन देगा? यह एक निराश और अपनी ही गलतियों से पछता रहे असफल प्रेमी का बयान है, जो उसे दया का पात्र बनाती है न कि कोई उदात्त नायक जबकि प्रेम में पद मनुष्य उदात्तता की प्रतिमूर्ति बना होता है। प्रेम में पड़ी स्त्रियाँ कवियों, साहित्यकारों को दुनिया की सबसे सुंदर स्त्रियाँ लगती हैं। इस मामले में ‘देव-डी’ का नायक को देखें तो वह दुविधा का मारा हुआ है और यह ‘देवदासों’ से एक कदम और आगे बढ़ा हुआ है यानि वह कान का कच्चा भी है, तभी तो यह अपनी बेवकूफी में किसी और के कहे में आकार अपने प्रेम को ही गाली दे बैठता है। पर इसके चरित्र की एक खास बात भी है, जो इसे पिछलों से अलग खड़ा करती है| वह अन्ततः आत्मनिर्वासन से बाहर निकलकर अपने किए की कड़वी सच्चाई को अंत में स्वीकारता है और चंदा (चंद्रमुखी) को यह झूठा दिलासा नहीं देता कि भविष्य में ‘पाप-पुण्य का विचार...लेकिन मौत के बाद फिर कहीं मिलना हुआ तो मैं तुमसे दूर हरगिज़ न रह सकूँगा।’ – जैसाकि शरत बाबू के देवदास ने कहा था। यहाँ देव चन्दा के साथ प्रेम में एक नए संसार की ओर चल पड़ता है, जीवन की तमाम पिछली गलतियों निराशाओं को तजकर नवजीवन के उज्ज्वल दुनिया की ओर जाता है। यानी उसके यहाँ जीवन का अर्थ उसे पूरी तरह सकारात्मकता के साथ जीने में मिलता है, न कि नैराश्य के गहरे अंधकूप में डूबने से। अंततोगत्वा यह नायक अपनी गलतियों से/नादानियों से सबक लेता दिखता है। अनुराग शायद भागमभाग संस्कृति (कल्चर) वाली पीढ़ी के इस डिमांड को समझ गए थे कि मरना समस्या का अंत नहीं, समस्या से जूझना ही समस्या का अंत होना है और आखिर हर बार अपनी गलती के लिए देवदास क्यों मरण को ही वरे, उसे भी अपनी गलती सुधारने का एक मौका मिलना चाहिए | शायद ‘देव-डी’ यही मौका उसे देती है, जो लगभग नौ दशकों (इस मूल कृति के प्रकाशन वर्ष 1917 से) से उसे (देवदास को) नहीं मिला था। इतने लंबे समय के दुःख का अंत भी तो होना ही चाहिए था। ‘देव-डी’ वही अंत उसे देती है जो प्रत्येक पात्र के लिए वाजिब है और सर्वथा उचित भी ।
अनुराग कश्यप के हिसाब से यह शरतबाबू या उनके पात्रों के साथ अन्याय नहीं है बल्कि ऐसा सोचना भी कोरी भावुकता है। यह उस कृति का एक फिल्मकार की उसके अपने समय के अनुसार व्याख्या है, जहाँ उसने अपने समय के हिसाब से ही मैटेरियल लिया है। इतना ही नहीं, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अनुराग कश्यप की यह संकल्पना 21वीं सदी के देवदास की है। फिल्म देखते वक्त आपके सामने यह साफ़ हो जाता है कि यह पारंपरिक देवदास नहीं है, यह ऐसा प्रेमी युवक है जो जीवन की तमाम दुश्वारियों और झंझावातों के बावजूद जिंदगी की जीत में यकीन करता है, उसके लिए समाज के उन तथाकथित बंधनों के कोई मायने नहीं, इसके उलट वह उन्हें अपने ठेंगे पर रखता है और उस औरत को जीवनसंगिनी स्वीकारता है, जिसको यह समाज हाशिए पर धकेल चुका है और तो और चन्दा का यह किरदार समाज में जिस जगह पर उपस्थित है वहाँ से आकर वह कम-से-कम आज भी इस तथाकथित मुख्य और प्रगतिशील कहे जाने वाले समाज में सहज स्वीकार्य नहीं। गलतियों से सबक लेना और गलतियों के स्वीकार्य का यह साहस नया ‘देव’ ही दिखा सकता था। यह कहीं से भी शरत बाबू के देवदास को नीचा नहीं दिखता बल्कि उसको एक सार्थक ऊँचाई ही देता है। बीसवीं सदी के शुरुआत के प्रश्नों का परिमार्जन एक लंबे अंतराल के बाद इक्कीसवीं सदी में आकर होता है। आखिर कृति चाहे लिखित पाठ हो या विजुअल, समय के साथ अपने नए पाठ रचेगी ही और उसमें पाठक/दर्शक की अपनी रीडिंग भी तो अपने ही समय तथा संभावनाओं के साथ होगी। अनुराग कश्यप की फिल्म ‘देव-डी’ ‘देवदास’ का नया और वाजिब अवतार है, जो कई प्रश्नों के सार्थक और सकारात्मक उत्तर लेकर सामने आती है। साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाते वक़्त साहित्य की सामयिक व्याख्या ही उसको कालजयी बनाएगी और देव डी देवदास का उत्कृष्ट स्वरूप बनकर सामने आती है।
संदर्भ :
- शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, देवदास, देवदास, डायमंड बुक्स प्रा. लि. नई दिल्ली, संस्करण 2002, पृ. 106.
- वही, पृ.35
- देखें - देव-डी फिल्म के पारो-देव के होटल के संवाद दृश्य, देव-डी फिल्म
- सिमोन द बोउवार, स्त्री उपेक्षिता, अनु. प्रभा खेतान, हिन्द पॉकेट बुक्स, दिल्ली, संस्करण 1990, पृ. 321.
- देवदास, पृ. 97
- वही, पृ. 96-97
- वही, पृ. 106
मुन्ना कुमार पाण्डेय
एसोसिएट प्रोफेसर हिन्दी-विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
makpandeydu@gmail.com, 9013729887
सिनेमा विशेषांक
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका
UGC CARE Approved & Peer Reviewed / Refereed Journal
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-58, दिसम्बर, 2024
सम्पादन : जितेन्द्र यादव एवं माणिक सहयोग : विनोद कुमार
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