द फ्लाय रूम
- नीरज श्रीमाली
इस दुनिया में करीब 8 अरब इंसान है। कोई काला, कोई गोरा, कोई लंबा, कोई ठिगना, कोई मोटा, कोई दुबला, किसी के घुंघराले बाल, किसी के रेशमी, किसी की आँखें काली तो किसी की झील जैसी नीली, कोई बेसुरा तो कोई कव्वाल, कोई मासूम तो कोई बवाल। आखिर हम सब अलग क्यों हैं? हम न तो बिलकुल अपनी माँ जैसे हैं, न ही पिता जैसे, लेकिन कुछ मामलों में हूबहू। आखिर कौन तय करता है ये सब? इसके पीछे क्या राज है? 19वीं शताब्दी तक इसका जवाब किसी के पास नहीं था, लेकिन 20वीं शताब्दी के आरंभ में हमने वह राज जान लिया। वो राज है- जींस, पहनने वाली नहीं, बल्कि कुछ अणुओं की एक श्रृंखला जो गुणसूत्र पर पायी जाती है। अब मुद्दा यह है कि हमें कैसे पता चला कि यह सारी करामात जींस की है? अब आपसे क्या छुपाना, हमें पता चला एक लाल आँखों वाली परी और उसके चार आशिकों से। आशिक ही कहूँगा, क्योंकि उन चारों ने दस सालों तक उस लाल आँखों वाली परी का पीछा नहीं छोड़ा, मानो वह उससे कह रहे हो, बता, क्या राज है जो तुम हमसे छुपा रही हो?
न्यूयॉर्क शहर की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में एक लैब की तीसरी मंजिल के कमरा नंबर 613 के पास से जब भी कोई गुज़रता, अपनी नाक सिकोड़ लेता। 16 × 23 के इस छोटे से कमरे में केलों के कुछ गुच्छे लटके रहते थे जिनके इर्द-गिर्द उड़ने वाली सैकड़ों मक्खियों की भिनभिनाहट को बाहर से ही सुना जा सकता था। बड़ी-बड़ी रेकों में मक्खियों के लार्वा से भरी हजारों शीशियाँ एक कतार में जमी पड़ी थी। कमरे में कुछ डेस्क थे, जिन पर कुछ हेंड लेंस, कॉटन के प्लग और कुछ नक्शे इधर-उधर पड़े रहते थे। कहते हैं, महान क्रांतियाँ बड़े मैदानों में नहीं, बल्कि छोटे कमरों में जन्म लेती हैं। ठीक ऐसा ही हुआ था 20वीं सदी की शुरुआत में कोलंबिया यूनिवर्सिटी के इस छोटे से कमरे में, जिसका आगे चलकर नाम पड़ा “द फ्लाय रूम” यानी मक्खियों वाला कमरा।
मटर वाले मेंडल महाशय को तो आप जानते ही होंगे जिन्हें आनुवांशिकी का जनक जाता है। जब सारी दुनिया मटर को खाने में व्यस्त थी तब ये महाशय मटर के साथ कुछ और ही गुल खिला रहे थे। इधर का उधर और उधर का इधर करते हुए उन्होंने पहली बार लक्षणों के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होने के पैटर्न को समझाया, लेकिन मेंडल इस बात को समझाने में असफल रहे की लक्षणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाने वाला डाकिया आखिर है कौन? वो रहता कहाँ है? तो बंधु, अब जान लीजिए कि थॉमस हंट मॉर्गन ही वो पहले शख्स थे जिन्होंने उस डाकिए को न केवल पहचाना बल्कि उसका ठिकाना भी बताया। वह डाकिया था- जीन, और ठिकाना था हमारी कोशिकाओं में पाए जाने वाले गुणसूत्र।
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The fly room Courtesy: American Philosophical Society Library |
25 सितंबर, 1866 में केंटकी (अमेरिका) में जन्मे मॉर्गन की बचपन से ही जीवविज्ञान में गहरी रुचि थी। अपने शुरुआती दिनों में उन्होंने समुद्री जीवों पर काम किया। पीएचडी पूरी करने के बाद सन् 1904 में वे कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बन गए। मॉर्गन को डार्विन के विकासवाद पर संदेह था, साथ ही वे मेंडल के निष्कर्षों से भी असहमत थे। उनका मानना था कि मेंडल के निष्कर्षों का कोई भौतिक आधार नहीं है। आनुवांशिकी के इसी भौतिक आधार अर्थात गुणसूत्र एवं जीन की खोज में उन्होंने 1906 में अपनी प्रयोगशाला स्थापित की। दरअसल वे मेंडल के प्रयोगों को किसी और जीव पर आज़माना चाहते थे। इस काम के लिए उन्होंने फलमक्खी को चुना जिसे वैज्ञानिक भाषा में ड्रोसोफिला मेलेनोगोस्टर कहा जाता है। लाल आँखों वाली इन मक्खियों को पालना आसान था। ये आक्रामक भी नहीं थी ओर मात्र 10 से 12 दिनों में तो इनके अंडे भी निकल आते थे लेकिन इन मक्खियों के साथ एक समस्या थी, इनमें मटर के पौधों की तरह कुछ खास विविधता नहीं थी, सब की सब एक जैसी। इन मक्खियों में बदलाव (उत्परिवर्तन) पैदा करने के लिए मॉर्गन ने 1908 से 1910 तक लगातार दो वर्षो तक बहुत सी तरकीबे आज़मायी, लेकिन उन्हें मायूसी के सिवा कुछ न मिला। शायद उन मक्खियों को किसी और का ही इंतज़ार था।
अल्फ्रेड स्टर्टीवेंट, मॉर्गन के ही शिष्य थे जो स्नातक की पढ़ाई पूरी कर चुके थे। उनकी असाधारण प्रतिभा को परख कर मॉर्गन ने उन्हें अपनी लैब में काम करने का न्यौता दिया। केल्विन ब्रिजेस से मॉर्गन की मुलाकात 1909 में हुई थी जब ब्रिजेस, मॉर्गन से भ्रूणविज्ञान के किसी एसाइनमेंट के सिलसिले में मिले थे। मॉर्गन ने उन्हें भी अपनी लैब में जगह दे दी। तीन तिगाड़ा, काम बिगाड़ा, किसी चौथे का आना तो लाज़मी था। कहानी के चौथे किरदार हरमन जोसेफ मुलरकी ‘फ्लाय रूम’ में एंट्री होती है 1912 में, जो अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद न्यूयार्क के ही एक हाई स्कूल में पढ़ा रहे थे। शायद नियति में आनुवांशिकी के प्रथम अध्याय को लिखने के लिए अलग-अलग मिजाज़ के इन चार किरदारों का एक कमरे में जमा होना ज़रूरी था।
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The fly boys Courtesy: American Philosophical Society Library and CALTECH. |
‘फ्लाय रूम’ की असल कहानी यहीं से शुरू होती है जिसमें वो सब कुछ शामिल होता है जो कि इश्क और ज़ंग में सब कुछ जायज़ है; मसलन स्पर्धा, ईर्ष्या, धोखा और चालबाजियाँ। लेकिन फिर भी ये चौकड़ी लगातार आठ वर्षो तक एक ही कमरे में बनी रही जिसकी वजह से न केवल इस कमरे से दो नोबेल पुरस्कार निकलने वाले थे बल्कि आनुवांशिकी की सबसे बड़ी गुत्थी भी सुलझने वाली थी। शायद ये जादू लाल आँखों वाली उस परी का ही था जिसने इन चारों आशिकों को खुद से दूर होने नहीं दिया।
‘फ्लाय रूम’ के सबसे अलहदा किरदार थे- कैल्विन ब्रिजेस जिन्हें आप “गली बॉय” कह सकते हैं। बचपन में ही माँ की मौत हो गई और पिता ने भी साथ छोड़ दिया। माली हालत इतनी खराब थी कि हाई स्कूल के बाद कॉलेज जा ही नहीं पाए। गुजारे के लिए वे सफाई कर्मचारी, प्रूफरीडर और लैब असिस्टेंट जैसे छोटे-मोटे काम किया करते थे। ब्रिजेस एक यायावर और फक्कड़ किस्म के इंसान थे। अपनी आवारगी के लिए उन्होंने बीवी और बच्चों तक को छोड़ दिया था। शराब, शबाब और सिगरेट, यही उनकी खासियत थी जो कमोबेश लैब में भी जारी रही। उनकी आशिकमिज़ाजी के चर्चे पूरी यूनिवर्सिटी में थे। लैब के अन्दर और बाहर कोई भी महिलाकर्मी इस माहिर शिकारी को नज़रंदाज़ नहीं कर सकती थी। उनका जादू ही कुछ ऐसा था। वैसे लैब की एक सहकर्मी पर स्टर्टीवेंट भी डोरे डाले हुए थे लेकिन उन्होंने उसी के साथ शादी कर ली। ब्रिजेस को शादी जैसे बंधनों से सख्त नफरत थी। अपनी यौन स्वच्छंदता के चलते ब्रिजेस ने नसबंदी तक करवा ली थी ताकि उन्हें कोई ब्लैकमेल ना कर सके। एक बार तो एक औरत उनके पीछे इस कदर पड़ गई कि उन्हें कुछ दिनों तक लैब से गायब होना पड़ा। उस महिला को मॉर्गन ने पुलिस केस करने की धमकी दी, तब कहीं जाकर पीछा छूटा। उनके इसी गैर-ज़िम्मेदार रवैये से पूरी लैब, खासकर मॉर्गन काफी परेशान रहते थे, लेकिन फिर भी वो लैब का एक अनिवार्य हिस्सा थे। मक्खियों के कल्चर के साथ उनमे होने वाले बदलावों (उत्परिवर्तन) की पहचान में उन्हें महारत हासिल थी। इस काम के लिए उन्होंने खुद का माइक्रोस्कोप भी बना दिया था। स्टर्टीवेंट उनको जरा भी पसंद नहीं करते थे लेकिन हां, वे काम के मामले में उनके मुरीद थे।
कहानी के दूसरे किरदार अल्फ्रेड स्टर्टीवेंट स्वयं को “हॉट डॉग” (तेज़ तर्रार) कहलाना पसंद करते थे। वे एक प्रतिभाशाली एवं जुनून से भरे विद्यार्थी थे। उन्होंने मात्र 19 वर्ष की आयु में ही गुणसूत्रों का पहला नक्शा तैयार कर लिया था जिसकी बदौलत आनुवांशिकी के क्षेत्र में जीन मेपिंग जैसी उन्नत तकनीकी का विकास हुआ। वे मॉर्गन के बेहद करीब थे लेकिन नाखुश भी। स्टर्टीवेंट को लगता था कि मॉर्गन ने कभी भी उनके काम को उचित श्रेय नहीं दिया। मॉर्गन उन्हें कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वासी और घमंडी समझते थे। मॉर्गन उन पर पूरा नियंत्रण रखना चाहते थे। जब स्टर्टीवेंट केल्टेक में मॉर्गन के साथ पूर्णकालिक प्रोफेसर बन गए, तब भी उन्होंने अपने विभाग में स्टर्टीवेंट को स्वतंत्र रूप से काम करने की सहूलियत नहीं दी। स्टर्टीवेंट को कुछ मामलों में ब्रिजेस से आपत्ति थी, खासकर तब, जब वो किसी बेहद अहम विषय पर बात कर रहे होते और ब्रिजेस उनकी बातों को सिगरेट के धुंए के छल्लों में उड़ाकर कहीं ओर ही टकटकी लगाए अपने शिकार को काबू में करने की कोशिश में लगे रहते।
वैसे हरमन जोसेफ मुलर, स्टर्टीवेंट एवं ब्रिजेस से काफी सीनियर थे लेकिन चूँकि लैब में उनकी एंट्री बाद में होती है, अतः ‘फ्लाय रूम’ के सभी सदस्य उनके साथ जूनियर जैसा व्यवहार करते थे। मॉर्गन, मुलर के प्रति विशेष इर्ष्या रखते थे, संभवतः उनकी मौलिक सोच और प्रतिभा के कारण। मुलर और ब्रिजेस की बिलकुल नहीं बनती थी। मुलर, मॉर्गन से कई बार शिकायत कर चुके थे कि इस लैब में या तो वो रहेगा या मैं। मुलर एक वैज्ञानिक होने के साथ-साथ क्रांतिकारी चिंतक भी थे जिनमें समाजवाद कूट-कूट कर भरा था और उनकी ये शख्सियत मॉर्गन को ज़रा भी गवारा नहीं थीं। वे अक्सर अपनी डेस्क पर बैठे-बैठे समाजवाद, साम्यवाद और क्रांति की बातें किया करते जिसमें किसी की भी रूचि नहीं थी। ‘फ्लाय रूम’ को छोड़ने वाले पहले शख्स मुलर ही थे जो 1920 में टेक्सास चले गए।
मुलर के स्टर्टीवेंट के साथ भी काफी गहरे मतभेद थे। उनका आरोप था कि स्टर्टीवेंट ने उनके विचारों को चुराकर शोधपत्र छाप दिया। इस सारी खींचातान के बीच मॉर्गन हमेशा शांत रहते। वे अपनी डेस्क से ही सब पर नज़र रखते ।कभी-कभार चिल्लाने और काँच की शीशियों के टूटने की आवाजों को भी वे नज़रंदाज़ कर देते। एक कैप्टन की तरह उनकी भूमिका थी, शाम होते ही दिनभर के परिणामों की समीक्षा करना और अगले दिन की प्लानिंग करना। कभी-कभार तो माहौल ऐसा होता की आँख से आँख न मिलती पर पूरी इमानदारी से संवाद करना ज़रूरी होता था। शायद यही वो खासियत थी इस कमरे कि जो इसे ऐतिहासिक बना गई।
लैब में सबकी रुचियाँ अलग थी। स्टर्टीवेंट की रुचि गुणसूत्रों के नक़्शे तैयार करने में थी, वही ब्रिजेस असामान्य गुणसूत्रों और उनके प्रभावों तथा लिंग निर्धारण की प्रक्रिया में रुचि रखते थे। मुलर विभिन्न उपायों से उत्परिवर्तन की दर को बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। रुचियाँ सबकी अलग थी लेकिन सबका काम एक ही था, बॉस के एक्सपेरिमेंट को पूरा करना। सैंकड़ों मक्खियों को कल्चर करना, उनमे आपस में ब्रीडिंग करवाना, नयी पीढ़ी को बारीकी से माइक्रोस्कोप द्वारा जाँचना, प्राप्त आँकड़ों का दस्तावेज़ीकरण करना आदि; यह ‘फ्लाय रूम’ की डेली रुटीन थी। मक्खियों के पंख, उनका पेटर्न, आँखें, रंग, एंटीना, उदर, टाँगें, सब कुछ बारीकी से जाँचा परखा जाता। शायद सोते समय भी उन चारों के सपनों में वही बड़ी-बड़ी लाल आँखों वाली परी ही आती होगी और कहती होगी, थोड़ा सब्र करो! मैं तुम्हें सारे राज बताउंगी।
डायलॉग तो आपने सुना ही होगा “अगर किसी चीज़ को शिद्दत से पाना चाहो, तो पूरी कायनात तुम्हें उससे मिलाने से जुट जाती है”, मॉर्गन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 1910 के मई महीने का वह दिन यादगार था जब मॉर्गन को माइक्रोस्कोप के नीचे लाल आँखों की जगह एक सफेद आँख वाली मक्खी दिखाई दी। उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा। वे ख़ुशी से उछल पड़े। माइक्रोस्कोप से बारी-बारी सबने देखा, बार बार देखा। उस दिन जब मॉर्गन अपनी नवजात पुत्री और पत्नी को मिलने अस्पताल में गए तो उनका हालचाल जानने के बजाय अपनी सफेद आँखों वाली मक्खी की गाथा गाने लगे। इस घटना से ही आप अंदाज़ा लगा सकते है कि मॉर्गन कितने उत्साहित थे। उस दिन लैब में कुछ जलने की बू आ रही थी, सफ़ेद आखों वाली नयी सौतन जो आ गई थी।
मॉर्गन हमेशा उस सफेद आँखों वाली मक्खी के जार को अपने पास रखकर सोते और घंटों उसे निहारते रहते जैसे कि वो उनकी माशूका हो। खैर, मॉर्गन को खजाने की चाबी मिल चुकी थी। दरअसल मॉर्गन की योजना थी कि इस सफेद आँख वाली मक्खी को लाल आँखों वाली मक्खियों से क्रॉस करवा कर पीढ़ी दर पीढ़ी इस लक्षण की वंशागति का अध्ययन करना। अपनी इसी योजना पर काम करते हुए मॉर्गन तथा उनके शीष्यों ने एक दशक तक कार्य करते हुए “वंशागति का गुणसूत्रीय सिद्धांत” प्रस्तुत किया, जिसने पहली बार इस बात को सिद्ध किया की गुणसूत्रों पर उपस्थित जीनों द्वारा ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक लक्षणों की वंशागति होती है।
1928 में यह ऐतिहासिक ‘फ्लाय रूम’ बंद हुआ। फिर उन चारों का क्या हुआ? उसी साल मॉर्गन कोलंबिया यूनिवर्सिटी से कैलटेक (California Institute of Technology)चले गए और अपने साथ अपने सबसे प्रतिभाशाली शिष्यों स्टर्टीवेंट और केल्विन ब्रिजेस को भी साथ ले गए।
मॉर्गन को अपने इस सिद्धांत के लिए 1933 में नोबेल पुरस्कार मिला। उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि इस पुरस्कार का श्रेय केवल उन्हें नहीं बल्कि उनके शिष्यों को भी जाता है। मॉर्गन ने नोबेल पुरस्कार में मिली राशि का भी तीन हिस्सों में बंटवारा किया, जिसमें से एक हिस्सा स्टर्टीवेंट के बच्चों के लिए तथा दूसरा हिस्सा केल्विन ब्रिजेस के बच्चों के लिए छोड़ा था। लेकिन उन्होंने कहीं भी मुलर का नाम नहीं लिया।
केल्टेक में स्टर्टीवेंट ने स्वयं की लैब स्थापित करते हुए लगभग चार दशकों तक काम किया। उन्होंने आनुवंशिकी के क्षेत्र में जीन मेपिंग तकनिकी का विकास किया जिसके द्वारा यह पता लगाया जा सकता है कि किसी गुणसूत्र पर जीन किस क्रम में व्यवस्थित होते है तथा उनके बीच में दूरी कितनी है। अल्फ्रेड ब्रिजेस ने स्वतन्त्र रूप से शोध करते हुए असामान्य गुणसूत्र (पॉलिटीन क्रोमोसोम) की खोज की लेकिन अपने निजी जीवन में तनाव एवं अनियमित जीवन शैली के चलते मात्र 50 वर्ष की आयु में (1938) ही उनका निधन हो गया।
अपने क्रांतिवीर महाशय को तो मैं भूल ही गया।1920 में ही मुलर, मॉर्गन से अलग होकर टेक्सास चले गए थे। साम्यवादी झुकाव के चलते वे 1930 में रूस चले गए, लेकिन स्टालिन के शासन से परेशान होकर वे पुनः 1937 में अमेरिका लौट आए। यहाँ रहकर उन्होंने एक्सरे द्वारा उत्परिवर्तन संबंधी अपने प्रयोग जारी रखे। मुलर को एक्सरे द्वारा कृत्रिम उत्परिवर्तन की खोज के लिए 1946 में नोबेल पुरस्कार (Medicine) मिला।
आधुनिक विज्ञान ने जीनों के बारे में सब कुछ जान लिया है। अब तो वैज्ञानिक इन जीनों के साथ छेड़खानी कर इंसानों में मनचाहा बदलाव लाकर “अहम् ब्रह्मास्मि” कथन को सही साबित करने पर तुले हुए हैं। खैर, जब भी आनुवांशिकी का इतिहास लिखा जाएगा, “द फ्लाय रूम” का नाम स्वर्ण अक्षरों से अंकित होगा। ‘फ्लाय रूम’ सिर्फ एक कमरे का नाम नहीं था, वह एक ज्वालामुखी था जहाँ चार वैज्ञानिकों की प्रतिभा, ईर्ष्या, जुनून और समर्पण के विस्फोट ने 'आनुवांशिकी' को जन्म दिया। आज भी बाज़ार में फलों की किसी दूकान पर जब में उस लाल आँखों वाली परी को देखता हूँ तो मुझे कोलंबिया यूनिवर्सिटी की लैब का वो कमरा सहसा ही याद आ जाता है जहाँ पर केले के कुछ गुच्छे लटके रहते थे, जिसके चारों ओर भिनभिनाती सैंकड़ों मक्खियाँ और अपनी-अपनी डेस्क पर बैठे हुए चार अफ़लातून।
(डॉ. नीरज श्रीमाली, श्री गोविंद गुरु राजकीय महाविद्यालय बाँसवाड़ा में वनस्पति विज्ञान के सहायक आचार्य हैं। आप फेसबुक पर ‘किस्सागोई’ नामक पेज पर विज्ञान के विषयों को लेकर बहुत ललित शैली में निबंध लिखते हैं। वैज्ञानिक विषयों पर सामान्य विद्यार्थियों और आमजन को समझ आ सकने योग्य सरसता से लिखने वाले लोग हिंदी में कम हैं। हमारे अनुरोध पर आपने ‘अपनी माटी’ के 60 वें अंक में आनुवंशिकी की एक खोज को बहुत रोचक अन्दाज़ में लिखा है। आशा है आगे भी लिखते रहेंगे (विकुश))
नीरज श्रीमाली
सहायक आचार्य, वनस्पति विज्ञान
श्री गोविंद गुरु राजकीय महाविद्यालय बाँसवाड़ा
अपनी माटी
( साहित्य और समाज का दस्तावेज़ीकरण )
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका
Peer Reviewed & Refereed Journal , (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-60, अप्रैल-जून, 2025
सम्पादक माणिक एवं जितेन्द्र यादव कथेतर-सम्पादक विष्णु कुमार शर्मा छायाचित्र दीपक चंदवानी
विज्ञान और साहित्य का अद्भुत मेल,आनंद आया प्रोफेसर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक ढंग से आनुवांशिकी को जानने और समझने का अवसर मिला।।रामचंद्र शुक्ल के ‘riddles of universe’ (विश्व प्रपंच) का स्मरण हो आया।
जवाब देंहटाएंनीरज जी को बधाई।
It's amazing experience to read this description... Really Niraj sir salute to you not only for contents but also for presentation......as a bio lecture I am greatful to you ,thank you to boost my knowledge...
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा लेख👌👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा आलेख 👌🏻
जवाब देंहटाएंNeeraj sir is great man of india.
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