शोध आलेख : हिन्दी उपन्यासों और आत्मकथा में तृतीयलिंगी विमर्श / महेन्द्र कुमार वर्मा

              शोध आलेख : हिन्दी उपन्यासों और आत्मकथा में तृतीयलिंगी विमर्श / महेन्द्र कुमार वर्मा 

शोध सार :

समकालीन हिन्दी उपन्यासों में विमर्शों का एक गम्भीर चिंतन दिखाई देता हैI जिनमें स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, बाल विमर्श, आदिवासी विमर्श, मुस्लिम विमर्श, किन्नर विमर्श इत्यादि का जिक्र किया जा सकता हैI इनमें से किन्नर विमर्श एक ऐसा विषय है जिसे नवीनतम विमर्श की संज्ञा दी जा सकती हैI किन्नर, जिन्हें हम कई नामों से पुकारते हैं जैसे हिजडे, छक्का, खोजा, तृतीयलिंगी, नपुंसक इत्यादिI समाज की रुढिगत मानसिकता के चलते हमारे समाज का यह तृतीयलिंगी समुदाय हेय दृष्टि का शिकार है और साथ ही हिन्दी साहित्य भी तृतीयलिंगी समुदाय के मामले में अभी भी अपरिपक्व अवस्था में है किंतु हिन्दी उपन्यासों मेंयमदीपके माध्यम सेतृतीयलिंगीसमुदाय को लेकर विधिवत लेखन के कार्य की शुरूआत हुई जोकि नीरजा माधव द्वारा किन्नर जीवन पर रचित प्रथम उपन्यास है और 2009 में प्रकाशित हुआI तदुपरांत हिन्दी साहित्य में तृतीयलिंगी समुदाय को लेकर कई उपन्यासों की रचना की गयीI जैसे किन्नर कथा’,‘तीसरी ताली’,‘पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा’,‘जिन्दगी 50-50’ इत्यादि महत्त्वपूर्ण उपन्यासों का नाम लिया जाता हैI इनके अलावा एक किन्नर आत्मकथा भी है जिसे स्वयं लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी द्वारा लिखा गया हैI लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी बहुत प्रसिद्ध किन्नर है और साथ ही किन्नर अखाडा के प्रमुख भीI इन लेखकों ने अपने उपन्यासों के माध्यम से तृतीयलिंगी समुदाय के जीवन को बहुत ही बारीकी से आम लोगों तक पहुंचाने का कार्य किया हैI इन उपन्यासों के अध्ययन से यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि तृतीयलिंगी समुदाय हमारे समाज की दोहरी मानसिकता के चलते परित्यक्त जीवन जीने को मजबूर हैI तो ये शिक्षित हैं और ही इनके पास रोजगार हैI पेट भरने के लिये इन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पडती हैंI कहीं बस, ट्रेनों में या फिर कहीं सडक के नुक्कड या चौराहे पर ताली पीटते हुए अपने जीवनयापन के लिए संघर्ष करते हुए मिल जाते हैंI ज्यादातर तो इसी मजबूरी के चलते या तो शारीरिक शोषण का शिकार होते हैं या फिर मजबूरन यौन संबंध बनाने कोI अपने परिवार और समाज से त्यागे हुए तृतीयलिंगी समुदाय की एक दारुण कथा हैं ये हिन्दी उपन्यासI

बीज शब्द : हिजडे, खोजा, नपुंसक, घूर, गुरु परंपरा, जोगता, शिवशक्ति, सफेदपोशी, चेली, श्मशान, तीसरी योनि, समाज का रवैया, रहन-सहन, अपरिपक्व, दोहरी मानसिकता, बलात्कार I

मूल आलेख :

यमदीप उपन्यास का नामकरण प्रतीकात्मक रखा गया हैI जिस प्रकार दीपावली की पूर्व संध्या घर से बाहर घूर पर एक दिया जलाकर उसे वहीं छोड दिया जाता है और जलाने वाला उसे पलट कर नहीं देखता भले ही वह प्रकाश देता है किंतु उसे नाम यमदीप दिया जाता हैI यह दीप यम के लिये जलाया जाता हैI दीप होते हुए भी यह अभिशप्त हैI कैसी त्रासदी है यह कि घर का ही एक दीप जोकि दीपावली की पूर्व संध्या को जलाये जाने के उपरांत भी तो पटाखे और ही फुलझडियां और ही उसकी पूजा अर्चना की जातीI वह जलते-जलते कब बुझ गया कोई नहीं जानता या कोई जानना ही नहीं चाहताI ठीक ऐसे ही तृतीयलिंग में जन्मे मनुष्य को घर के सदस्यों के द्वारा ही घर से निर्वासित होने के लिये विवश किया जाता है और अंतत: वह मजबूर हो जाता है एक नारकीय जीवन जीने के लिएI नीरजा माधव ने अपने उपन्यास यमदीप के तृतीयलिंगी पात्रों के माध्यम से समाज में रह रहे लोगों की इंसानियत पर एक तमाचा मारा हैI उपन्यास की शुरुआत एक घटना से होती है जिसमें एक पगली, जोकि गर्भवती थी और रेलवे लाईन के पास खून से लथपथ पडी हुई थी, उसकी प्रसव की पीडा आस-पास के लोगों को महसूस नहीं हो रही थीI इतना ही नहीं वहाँ खडे लोग उसे देख तो रहे थे किंतु कोई उसकी मदद नही कर रहा थाI इतने में ही नाजबीबी और उसकी टोली के सदस्य वहाँ पहुंचते हैं और लोगों से मदद की गुहार करते हैं किंतु सभी अपना-अपना मुहँ घुमा कर वहाँ से चले जाते हैंI आखिरकार नाजबीबी के मुख से यह शब्द निकल पडते हैं-इस पगली के लिए तुम्हारी अम्मा बाहर नहीं सकती और तुम्हारे ही बाप-दादों ने रात-रात में आकर मुहँ काला किया होगा हाय, हाय रे! मर्दों का जमानाI”

हमने पहले भी उपर्युक्त पृष्ठ पर इस बात की चर्चा की है कि तृतीयलिंगी व्यक्ति को आज हम कई नामों से जानते हैं, जैसे हिजडा, किन्नर, जोगप्पा, जोगता, शिवशक्ति, छक्का, खोजा इत्यादिI इसके अलावा मीडिया और प्रशासन में इनके लिएथर्डजेंडर’ (तृतीयलिंग) पद का भी इस्तेमाल होने लगा हैI वैसे तो अमूमन आम जनता इन्हें हिजडा ही कहती है किंतु सभ्य समाज और हमारा साहित्य जगत् इन्हेंकिन्नरनाम से संबोधित करती हैI किंतु क्या इनके संबोधन के बदलाव से इनके हिजडे होने के निहितार्थ को बदला जा सकता है? जोकि एक गाली के अलावा कुछ और नहींI इस बात का जिक्रचित्रा मुद्गलके उपन्यासपोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारामें किया गया हैI जिसमें उपन्यास का पात्र बिन्नी उर्फ विनोद पत्र के माध्यम से अपनी बा को यह बात बताता हैI

सुनने में किन्नर शब्द भले ही गाली लगे मगर अपने निहितार्थ में वह उतना ही क्रूर और मर्मांतक है, जितना हिजडाI किन्नर की सफेदपोशी में लिपटा चला आता है, उसकी ध्वन्यात्मकता में रचा-बसाI कोई भूले तो कैसे भूलेI”2

            तृतीयलिंगी समुदाय के लोगों से आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए विवाह और जन्म आदि शुभ अवसरों पर इनका थोडा बहुत सम्मान भले ही किया जाता हो, किंतु जन्म और शादी-विवाह आदि जैसे शुभ मौकों को छोडा दिया जाए तो आम जीवन में इन तृतीयलिंगी समुदाय के लोगों की उपस्थिति असह्य और निंदनीय समझी जाती हैI ‘निर्मला भुराडियाके उपन्यासगुलाम मंडीमें इस बात का जिक्र बहुत ही सहज रूप से किया गया है और इन तृतीयलिंगी समुदाय की तुलना लेखिका ने कौवों से की है जिन्हें हिंदू धर्म के अनुसार समाज में विशेष आयोजनों जैसे श्राद्ध के दिनों में तो खीर-पूरी खिलायी जाती है किंतु सामान्य दिनों में उन्हीं कौवों को अपशगुन माना जाता हैI जिसकी चर्चा उपन्यास की पात्र वृन्दा गुरु की चेली अपने घर आई कल्याणी के समक्ष इस प्रकार करती हैI “श्राद्ध के दिनों में ही ! स्वारथ रहता है तुम्हाराI आडे दिन में जो कहीं कव्वा आकर बैठ जाए तुम पर, तो नहाओगी-धोओगी, अपशगुन मनाओगीI जैसे हम ना तुम्हारे जो शादी-ब्याह हों तो नाचेंगी-गायेंगी, शगुन पायेंगी मगर यूं जो रास्ते में पडी हम, तो हिजडा कहकर धिक्कारोगीI”3

             तृतीयलिंगी शिशु का परिवार के साथ सामान्य अवस्था में बने रहना किसी चमत्कार से कम नहीं हो सकता क्योंकि समाज में मिलने वाले तिरस्कार और अपमान के भय से माता-पिता और घरवाले अपनी तमाम ममता और स्नेह का गला घोंटकर ऐसे शिशु को मार देते हैं या उसका परित्याग कर देते हैंI इस विषय पर किन्नर कथा उपन्यास के लेखक महेन्द्र भीष्म ने निम्नलिखित बात कही है-संतान कैसी भी हो, उसमें कैसी भी शारीरिक, मानसिक कमी क्यों हो, माता-पिता को अपनी संतान हर हाल में भली लगती है, प्यारी होती है, फिर भले ही वह संतान हिजडा ही क्यों होI फिर भी सामाजिक परिस्थितियों, खानदान की इज्जत-मर्यादा, झूठी शान के सामने अपने हिजडे बच्चे से उसके जन्मदाता हर हाल में छुटकारा पा लेना चाहते हैंI”4

            ऐसा ही एक उल्लेख निर्मला भुराडिया ने अपने उपन्यासगुलाम मंडीमें भी किया हैI जिसमें उपन्यास की पात्र वृन्दा गुरु की चेली अनारकली को तो उसकी अपनी माँ ही सुअर-कुत्तों का प्रसाद बनने के लिये घूरे पर फेंक गयी थीI कहते हैं माँ तो अपनी ममता के लिए ही जानी जाती हैI किंतु यहाँ ऐसा करके एक माँ ने ममता के इस प्यारे रिश्ते को इसलिए तार-तार कर दिया क्योंकि उसकी बच्ची नर या मादा से अलग तृतीयलिंगी समुदाय की थी और उसने अपनी इस फूल सी बच्ची का गुप्तांग देख लिया थाI अनारकली ने यह बात स्वयं अंगूरी से गुरु चुनने की परंपरा के दौरान कही थी जिसका उल्लेख इस प्रकार हैI “अब क्या बार-बार मेरे मुहँ से सुनेगी हरामजादी कि मेरे को मेरी माँ ही फेंक गयी होगी घूरे पर, जब मूतने की जगह कोरा छेद देखा होगा तोI”5

            एक तृतीयलिंगी व्यक्ति आजीवन अपने अस्तित्व की तलाश में इस समाज से उपेक्षा और अपमान ही झेलता है किंतु अपने अंतिम समय में भी उसे चैन से आंखे बंद करने की नियति नसीब नहीं होतीI उसका अंत दर्दनाक या भयावह कुंठा और यंत्रणा के बीच होता हैI मृत्यु तो व्यक्ति को सभी दर्द और अपमानों से मुक्त कराती है किंतु इन तृतीयलिंगियों को त्रासदी ही नसीब होती हैI मृत्यु के बाद भी इनसे जुडा सामाजिक कलंक इनका पीछा नहीं छोडताI यही कारण है कि मृत तृतीयलिंगी व्यक्ति की देह को तो मिट्टी में सुपुर्द होने के लिए जमीन का एक टुकडा प्राप्त होता और ही एक सम्मान पूर्वक अंतिम संस्कार का अवसर प्राप्त हो पाताI इसी वजह से साथी तृतीयलिंगी इनकी मृत देह को रात के अंधेरे में जब सभी सो जाते हैं तब आम जनता और समाज से छिपाकर इनकी शवयात्रा निकालते हैं और मृत तृतीयलिंगी व्यक्ति के शव को डंडों से मारते हैं, उस पर जूते और चप्पलों की बारिश करते हुए और सडक पर खींचते हुए श्मशान घाट तक ले जाते हैंI इस कृत्य के पीछे तृतीयलिंगी समुदाय का मानना है कि ऐसा करने से वह दोबारा तीसरी योनि में जन्म नहीं लेगाI इस बात का विस्तृत ब्यौरा प्रदीप सौरभ के उपन्यासतीसरी तालीमें इस प्रकार दिया गया हैI “दिल्ली में आमतौर पर हिजडे के शव को रात को डंडों से मारते, उस पर चप्पल-जूते बरसाते और सडक पर खींचते हुए श्मशान घाट ले जाते हैंI इस तरह शव को श्मशान ले जाने के पीछे मान्यता यह है कि मरने वाला दोबारा तीसरी योनि में जन्म नहीं लेगाI”6

            तृतीयलिंगी समुदाय को विधिपूर्वक चलाने के लिये इनके बीच एक गुरु होता है जोकि वरिष्ठ तृतीयलिंगी व्यक्ति को बनाया जाता हैI सभी तृतीयलिंगी व्यक्ति समुदाय के गुरु का सम्मान करते हुए अपनी दिन भर की कमाई का कुछ हिस्सा खुशीपूर्वक सौंप देते हैंI इसके बदले में गुरु अपने समुदाय के अनुशासन और व्यवस्था की जिम्मेदारी रखता हैI इस समुदाय का हर नया व्यक्ति अपनी जगह समुदाय में बनाने के लिए समुदाय के गुरु का चेला बन जाता हैI साथ ही स्वयं को सुरक्षित महसूस करने लगता हैI इसके साथ ही तृतीयलिंगी व्यक्ति को एक परिवार मिल जाता है जिसके साथ वह अपनी हर बात साझा करता है और समाज से मिली घृणा और तिरस्कार से कुछ पल के लिए मुक्ति पा लेता हैI किंतु कहीं-कहीं इसका भयावह रूप भी देखने को मिल जाता है अर्थात् सभी गुरुओं का व्यवहार एक जैसा नहीं होता, वो विलासी प्रवृत्ति के होते हैं और इस वजह से ये गुरु अन्य तृतीयलिंगी व्यक्ति को जबरन अपने समुदाय में सम्मिलित कर उन्हें नाच-गाना इत्यादि के लिए विवश करते हैं ताकि गुरु अपनी विलासिता पूर्ण जिंदगी जी सकेI इतना ही नहीं अगर किसी तृतीयलिंगी व्यक्ति ने ऐसा करने से से इंकार किया तो उसे मारा-पीटा भी जाता हैI पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा उपन्यास का किन्नर गुरु तुलसी बाई जिसे सरदार के नाम से पुकारा जाता है, ऐसा ही हैI उपन्यास में विनोद ने यह बात बतायी है कि एक बार वह गुरु के चंगुल से भाग जाता है लेकिन वह उसे पकड लेता है और ठिकाने पर ले जाकर इतना पीटता है कि उसका जबडा तक टूट जाता हैI साथ ही उपन्यास में यह भी बताया गया है कि गुरु तुलसीबाई के संबंध सुपारी लेने और देनेवाले बिचौलिए कासिम दादा से भी थेI इतना ही नहीं वह ड्र्ग्स के कारोबार से जुडे होने की वजह से पुलिस के हाथ भी लग जाता हैI कई बार तृतीयलिंगी व्यक्ति ऐसे गुरुओं के घर स्वयं को महफूज नहीं पाते क्योंकि गुरु पैसे लेकर उन्हें ग्राहक पुरुषों के साथ जबरन यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करता हैI इसी वजह से विनोद के अंदर आक्रोश दिखता है जिसका उल्लेख इस प्रकार हैI “असामाजिक तत्त्वों के हाथ की कठपुतली बनने में जितनी भूमिका किन्नरों के संदर्भ में सामाजिक बहिष्कार-तिरष्कार की रही है, उससे कम उनके पथभ्रष्ट निरंकुश सरदारों और गुरुओं की नहींI ऊपर से विकल्पहीनता की कुंठा ने उन्हें आंधी का तिनका बना दियाI” 7

             तृतीयलिंगी समाज की एक मुख्य समस्या नकली किन्नरों की भी हैI दरअसल असली किन्नर तो वो होते हैं जो पैदाइशी होते हैंI जिन्हेंबुचराकहा जाता हैI इसके अलावाकिन्नर कथामें लेखक ने तीन अन्य प्रकार के किन्नरों की भी चर्चा की हैI ‘नीलिमा’(स्वयं बने),‘मनसा’(स्वेच्छा से शामिल) औरहंसा’(शारीरिक कमी के कारण बने) I लिंगोच्छेदन करके बनाये गये किन्नरों कोछिबरातथा नकली किन्नर बने स्त्रैण मर्दों कोअबुआकहा जाता हैI ये छिबरा और अबुआ किन्नर दरअसल पुरुष होते हैं जो किन्नरों के नाम पर लूट-खसोट और दादागिरी करते देखे जा सकते हैंI नेग और बधाई की आड में लोगों से जबरन पैसे वसूलने वाले इन नकली किन्नरों के कारण असली किन्नर भी बदनाम होते हैंI किन्नर कथा में किन्नरों की गुरु माई तारा और उसके साथ रहने वाले अन्य किन्नर इन नकली किन्नरों से परेशान दिखाये गये हैंI लंबू और उसके साथी अन्य नकली किन्नरों ने कुछ समय से तारा और उसके अन्य असली किन्नरों के रोजगार पर बट्टा लगा रखा हैI ये नकली किन्नर असली किन्नरों के आय का एकमात्र साधन बधाईगिरी और नेग पर अपना रौब जताने लगे हैंI इन नकली किन्नरों से अपने धंधे को बचाने के लिये किन्नर कथा के ये असली किन्नर जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक दोनो से लिखित शिकायत भी करते हैंI जिलाधिकारी के पूछने पर असली और नकली किन्नरों के भेद को किन्नर कथा की नीलम पात्र कुछ इस तरह से स्पष्ट करती हैI “असली हिजडा कभी दो-चार रुपयों के लिए मेले-ठेले में भीख सी मांगते नहीं घूमतेI पैसा मिलने पर किसी को कोसते नहीं और ही लडाई-झगडा करते हैं जिसने जो प्रेम से दिया, ले लियाI ये नहीं कि गुस्से में घाघरा उठाकर दिखा दियाI ये सब काम नकली हिजडे करते हैं, हम लोग कभी नहींI असली हिजडा मन और आत्मा से स्त्री होता हैI शरीर उसका पुरुष की तरह हो सकता है, पर मन से वह एक पुरुष का साथ चाहता है स्त्री की तरह उसकी चाहत पुरुष से जुडने की होती है जबकि नकली हिजडे पुरुष होते हैं और सेक्स के लिए स्त्री को चाहते हैंI”8

शिक्षा किसी भी व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिये एक महत्त्वपूर्ण हथियार साबित होती हैI जिसके माधयम से वह विपरीत परिस्थितियों में भी अपने आपको एक सुदृढ स्थिति में पहुँचाने का प्रयास करता हैI अर्थात् यदि आप शिक्षित है तो जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता के द्वार सदैव किसी किसी रूप में आपके सामने होंगेI किंतु अशिक्षित होना एक अभिशाप के समान है और अशिक्षित होने की वजह से समाज में आपको स्वयं के वजूद के लिए कठिन संघर्ष करना पडेगाI यह संघर्ष कुछ ऐसा होगा जैसे कि बिना हथियार के किसी युद्ध में खुद को झोंक देनाI ऐसी ही परिस्थितियाँ तृतीयलिंगी समुदाय के समक्ष होती हैंI अधिकांश तृतीयलिंगी लोग अशिक्षा के चलते बेहद कष्टपूर्ण जीवन जीने के लिए मजबूर हैंI जिसकी मुख्य वजह यह है कि इनका लिंग निर्धारित होने के कारण इन्हें स्कूलों में दाखिला नहीं मिल पाताI सामान्य लोगों का मानना है कि तृतीयलिंगियों को स्कूल में दाखिला देने से उनके स्कूल की साख खतरे में जाएगी और स्कूल का माहौल भी खराब हो जायेगाI सामान्य लोगों की इसी घटिया सोच के चलते किन्नर अशिक्षित रह जाते हैं और एक अंधकारमय जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाते हैंI स्कूल में दाखिला मिलने का एक जीवंत उदाहरण तीसरी ताली उपन्यास में देखने को मिलता हैI जिसमें आनंदी आण्टी की बेटी निकिता को जेण्डर स्पष्ट होने के कारण स्कूल में दाखिला नहीं मिलताI जोकि इस प्रकार है-उन्हें दोनों जगह से एक ही जवाब मिला कि जेण्डर स्पष्ट होने के कारण हम दाखिला नहीं दे सकते....यह स्कूल सामान्य बच्चों के लिए है, बीच वाले बच्चों को दाखिला देने से स्कूल का माहौल खराब हो जाता हैI आनंदी आण्टी ने हर संभव कोशिश की, लेकिन निकिता को दाखिला नहीं मिलाI” 9

तृतीयलिंगी समुदाय के लोगों के सामने एक मुख्य समस्या यह भी है कि किशोरावस्था में ही इन्हें यौन शोषण का शिकार होना पडता हैI हमारे ही समाज के तथाकथित इज्जतदार लोग इस कृत्य को अंजाम देते हैंI कभी स्कूल में तो कभी रास्ते में या फिर कभी किसी मजबूरी का फायदा उठाते हुए लोग इन तथाकथित तृतीयलिंगी बच्चों को अपनी हवस का शिकार बनाने से नहीं चूकतेI भगवंत अनमोल के उपन्यास जिंदगी 50-50 में ऐसी घटना का उल्लेख मिलता है जिसे पढकर किसी की भी आत्मा व्यथित हो जायेI उपन्यास की किन्नर पात्र हर्षा को अमन नाम के लडके से प्यार हो जाता हैI इस बात का फायदा उठाते हुए एक व्यक्ति हर्षा का रास्ते में उस समय बलात्कार कर देता है जब उसे स्कूल से आने में देर हो जाती है और उसे धमकी देता है कि अगर उसने अपना मुहँ खोला तो उसकी और अमन की कहानी सबको बता दूंगाI इस बात को हर्षा ने अपनी डायरी में इस प्रकार लिखा हैI “अब मेरी आंखों से सिर्फ दर्द के आँसू निकल रहे और वह हैवान मेरे शरीर से मजे लेता रहा मैं पेट I के बल लेटी रही, मेरा हाथ सीने के नीचे दबा था I मैं चीख रही थी I और उस पर ककड पत्थर चुभ रहे थे, वह इस चीख का आनंद ले रहा था कुछ देर बाद उसने मुझे झिडक कर फेंक दिया, जैसे कोई संडास में इस्तेमाल के बाद टिश्यू पेपर फेंक देता है, कपडे पहन कर चुपचाप घर चले जाना और सुन! अगर कौनो से बताया तो तेरी और अमन की कहानी जगजाहिर कर दूंगाI”10

कुछ परिवार हैं समाज में जिन्होंने किन्नर बच्चों को आम बच्चों की तरह ही पाला है और वे शायद उनकी मनोदशा को भली-भांति समझते हैंI किंतु अब समाज में हर उस व्यक्ति को यह समझना होगा कि वह जो बच्चा किन्नर है जिसने उसके परिवार में जन्म लिया है वह उसी के परिवार का हिस्सा हैI उसे उस बच्चे को अपनाना ही होगा और इसके लिए व्यक्ति को कुछ अपेक्षाओं को त्यागना ही होगाI जैसे अक्सर ऐसा होता है कि अगर घर में किन्नर बच्चे का जन्म होता है और वह धीरे-धीरे समयानुसार उम्र की दहलीज को पार करता जाता है तब एक अवस्था ऐसी आती है कि उसका व्यवहार अन्य बच्चों से अलग होता जाता हैI किंतु घर के अन्य सदस्य उसके इस बर्ताव को अनदेखा कर ऐसा समझ लेते हैं कि बडे होने पर उसकी यह आदत छूट जाएगीI क्योंकि घर वालों को उसके इस बर्ताव का कारण मालूम नहीं होताI इसके बदले परिवार के सदस्यों को बच्चे को किसी मानसिक स्वास्थ्य या जेंडर से संबंधित प्रश्नों पर काम करने वाले व्यक्ति से संपर्क करना चाहिएI इस विषय पर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी ने अपनी आत्मकथा मैं हिजडा…..मैं लक्ष्मी! में इस बात का उल्लेख किया हैI “इन सबके साथ मानसिक स्वास्थ्य, जेंडर से संबंधित प्रश्नों पर काम करने वाले वैद्यकीय और बाकी व्यवसायिकों से संपर्क करना चाहिए और उनकी मदद लेनी चाहिएI‘ट्रांसजेंडर बिहेवियरवाले लडकों सेलडके जैसा ही बर्ताव करोया लडकियों से लडकियों जैसा ही बर्ताव करोजबरदस्ती ऐसी अपेक्षा करने से कुछ भी हासिल नहीं होताI”11 

उपर्युक्त विश्लेषण से यह बात तो साफ हो जाती है कि भले ही अभी हिन्दी साहित्य में तृतीयलिंगियों पर पर्याप्त कार्य किया गया हो किंतु जितना भी है उससे इनके बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो जाती हैI, इनका -सहन इनकी समस्याएं इत्यादि हिन्दी उपन्यासों इतना ही नहीं शिक्षा और रोजगार के साथ-साथ इनकी संकृति पर भी काफी प्रकाश डाला गया हैI किंतु अब समाज बदल रहा है और इन तृतीयलिंगी समुदाय के लोगों ने भी स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास शुरू कर दिया है, परिवर्तन समय मांगता हैजल्द ही ये लोग भी समाज की मुख्य धारा में अपना योगदान देते हुए नजर आएंगेI साथ ही समाज की दृष्टि भी इनके प्रति सम्मानजनक होगीI 

संदर्भ :

  1. तमिलनाडु साहित्य बुलेटिन , वर्ष-4, अंक-2 , मई- 2016
  2. तमिलनाडु साहित्य बुलेटिन , वर्ष-4, अंक-3,अगस्त- 2016
  3. पी वी वैष्णव : थर्ड जेंडर विमर्श, अनुसंधान पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2018
  4. नीरजा माधव : यमदीप, 2009, सुनील साहित्य सदन, पृ. 10
  5. चित्रा मुद्गल : पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा , 2017, सामयिक प्रकाशन,पृ.12-13
  6. निर्मला भुराडिया : गुलाम मंडी, सामयिक प्रकाशन, 2016,पृ. 12
  7. महेन्द्र भीष्म :किन्नर कथा-, सामयिक बुक्स, 2011, पृ. 45
  8. निर्मला भुराडिया :गुलाम मंडी, सामयिक प्रकाशन, 2016, पृ. 68
  9. प्रदीप सौरभ : तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, 2011, पृ. 147
  10. चित्रा मुद्गल : पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा-, 2017, सामयिक प्रकाशन, पृ. 86
  11. महेन्द्र भीष्म :किन्नर कथा, सामयिक बुक्स, 2011, पृ. 91
  12. प्रदीप सौरभ : तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, 2011, पृ. 42
  13. भगवंत अनमोल : जिंदगी 50 50, राजपाल एण्ड संस , 2018, पृ. 159
  14. लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी : मैं हिजडा.......मैं लक्ष्मी!, वाणी प्रकाशन , 2015, पृ. 175
  15. अनुसंधान, त्रैमासिक शोध पत्रिका, जुलाई-दिसम्बर, 2018 

महेन्द्र कुमार वर्मा, शोधार्थी, हिन्दी विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय, चेन्नै- 05

Mahendrav998@gmail.com, 7985536942

        अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-37, जुलाई-सितम्बर 2021, चित्रांकन : डॉ. कुसुमलता शर्मा           UGC Care Listed Issue  'समकक्ष व्यक्ति समीक्षित जर्नल' ( PEER REVIEWED/REFEREED JOURNAL) 

1 टिप्पणियाँ

  1. सर, यमदीप का प्रकाशन वर्ष 2009 नहीं अपितु 2002 है। लेखक के भले ही 2009 में प्रकाशित अंक उपलब्ध है लेकिन उपन्यास का प्रकाशन 2002 में हुआ था।

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