म्हारा वै दिन-रतियां जाता रह्या.... / कैलाश गहलोत

म्हारा वै दिन-रतियां जाता रह्या....
- कैलाश गहलोत

खुशबूएँ, कितनी महीन, साँसों में गहराई तक समाई हुई। साँसें बीत जाती हैं, मगर खुशबू बसी रहती है। दौर बीतजाते हैं, जमाने बदलते हैं, समय तो वही है; मगर उसके लिए भी कहते हैं कि बदल गया है। साँसें भी बदल जाती हैं, खुशबू रह जाती है रचने-बसने को, साँसों को तलाशती, गाती, म्हारा वै दिन-रतियां जाता रह्या, जाता रह्या.....

बाई (नानी माँ) बताती थी, मई (नानी माँ की बहिन, माँ की मौसी और शब्दाग्रह इस सीमा तक कि मौसी के अपने बच्चे भी उन्हें मई कहकर ही पुकारते रहे हमेशा) आती थी गाँव से यहाँ अपने शहर तक कैसे सिर पर पाँच किलो घी की बंडी (एक पात्र विशेष) लिए, एक हाथ में कुलकी (काले रंग का एक मिट्टी का पात्र) में दही लिए, अपने खारको (जूती) की मचर-मचर की आवाज के साथ, कोस भर की दूरी तय करके। कितना सस्ता हुआ करता था, उन दिनों बिना मिलावट का असली घी मगर खरीददार कहाँ, जब बहुत दिनों बाद तक भी कोई खरीददार नहीं मिलता, तो बाई खुद ही रख लेती घी और उसका दाम मई को पहुँचवा देती गाँव। बाई बताती थी, कैसा वह घी हुआ करता था, तुमने देखा है कभी लीली झांई (हरा रंग) वाला घी, सर्दियों में चम्मच मुड़ जाए, टूट जाए मगर घी बंडी से ना निकले

जब तक मई का राज रहा, मैं और बाई उनके यहाँ रहने गए। बाई तो जाती रहती थी, अपना इतिहास तो तीन-चार बार का ही है। गाँव छोटा था, चौपाल बहुत बड़ी। बाई बताती थी कैसे पहले तेरी माँ, मामा और मैं तांगे में बैठकर मई से मिलने आया करते थे, तब मैं ऑटो रिक्शा में बैठे-बैठे तांगे की कल्पना करने लगता, रास्ता कट जाता। बड़ी सड़क पर उतरकर गाँव में जाने के लिए कच्ची सड़क जाती, साथ-साथ में नहर चलती, नहर छोटी थी मगर उसके बहने की आवाज़ बड़ी गहरी, लगता पानी का संग भी क्या चीज है सुनने भर को इतना मधुर, पीने भर को अमृत, इतनी बलखाती मानो घर तक छोड़ने आएगी मगर आगे चल कर उसका साथ छोड़ हमें मुड़ना पड़ता। कच्ची सड़क को पार करते ही सबसे पहले भेंट होती गाँव के सोपे (गाय-भैसों का झुंड) से, बच-बचा के निकलना पड़ता, बाई कहतीसोरा, हावर भै पो उलाड़ी’(बच्चे ध्यान से, भैंस मार देगी) आखिर मई का घर आता, बहुत बड़े दिल वाली थी मई, घर भी उतना ही बड़ा और परिवार भी।

बाई बताती थी मई फूल बढ़िया गूँथती थी। सुंदर मालाएँ बनाती, पास ही के मंदिर में फूल-माला पहुँचाने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई थी। मैं जाता गलियों के कच्चे घरों की गोबर-गार (मिट्टी) से लिपी दीवारों पर हाथ फेरते हुए। एक हाथ में फूल-माला रहती, साथ में भय रहता भगवान को चढ़ेंगे कहीं इधर-उधर छू जाए, एक हाथ दीवार पर टिका रहता। दीवारें बोलती कुछ थी मगर महकती जरूर थी, कितनी सौंधी, साँसों में उतरती महीन खुशबू, फूलों की नहीं, उन कच्ची दीवारों की। धीरे-धीरे चलते पर फिर भी मंदिर ही जाता था, फिर दीवार से हाथ हट जाता। मंदिर पक्का बना हुआ था मजबूत और बड़ा। मंदिर में दयालु देव विराजते, आरती की वेला होती तो नगाड़े बजाने का बड़ा चाव रहता, बजाते क्या थे, कूटते थे, कभी नगाड़े बजाने वाला कोई जानकार जाता तो टंकोर-झालर के साथ प्रयोग किये जाते, आरती लेने और प्रसाद पाने की होड़ रहती, मामरा-मखाने की सादी प्रसाद होती मगर प्रिय लगती थी, आरती की वेला ना होती तो हाथ जोड़कर शीघ्र प्रस्थान फिर से गारे की उसी महक में खो जाने को। मई कहतीफूलड़ा दीदा रे सोरा’ (फूल पहुँचा दिये लड़के) ‘हाँ, पहुँचा दिए।बाई बताती जब तक मई के शरीर में शक्ति रही मालाएँ गूँथती रही, क्षीणता आई तो फूल गुँथे गए, खुशबुएँ खो गई, आरतियों की वेला मौन हुई फिर बहुत बाद में कच्चे घरों की दीवारें भी पक्की हो गई।

गर्मी की तपती दोपहर में अपना अड्डा होता सामने वाली गली के नुक्कड़ पर बना चबूतरा, छोटा था, पर लटकने को बहुत, दो-चार अस्थाई मित्रों के साथ। उनसे अपनी कोई पहचान नहीं, मगर सभी जाने पहचाने-से, ‘सुन! ऊँट गाड़ी आएगी अभी, पीछे भागने को तैयार रहना, उछलकर जो तू गाड़ी पर बैठ गया तो तुझे चबूतरे का राजा कहेंगेइसी के साथ राजा बनने का क्रम शुरू हुआ यद्यपि बहुत जल्दी थम भी गया। गाड़ी आई, सुंदर-पुष्ठ ऊँट, वैसा ही गाड़ीवान, निकली चबूतरे के आगे से, हम भागे, उछले, गाड़ी पर चढ़ने ही वाले थे कि गाड़ीवान की कोबड़ी(गीली लकड़ी) पड़ी हाथों पर, एक जोर की चीख के साथ धराशायी नीचे मिट्टी में, पराजय का गुलाल उड़ा और चबूतरे के राजा का पद खाली रहा।

दोपहर में ही गलियों में टायर दौड़ाने की प्रतियोगिताएँ आयोजित होती। ऊँची-नीची कच्ची सड़कें, धूल भरी, आड़ी-टेढ़ी पानी निकासी की नालियों से अटी हुई, हम भी दौड़े, टायर उधार माँग कर, अच्छे दौड़े और हमसे भी अच्छा हमारा टायर दौड़ पड़ा बहुत आगे चला गया, नालियों की ऊँचाई के साथ-साथ और उछल जाता, थोड़ी देर बाद तो हम अपने ही टायर को पकड़ने के लिए दौड़ रहे, रुक जा रे! दौड़ना तो हमें था तुझे साथ में लेकर, तू अकेला काहे इतना दौड़े जा रहा है और पैर गिर पड़ा नाली में, हुए धूलि-धूसर, घुटने फोड़े, मुँह का शृंगार करवाया, टायर कहाँ पाया गया पता नहीं, हम धुल-गोबर से लथपथ पाए गए मई के घर के चौक में, बाई के हाथों साफ़ होते, ‘वटे पसे कोई सीरो ठारयों तो’ (वहाँ फिर क्या हलवा खाने गया था) इन उल्लेखनीय परिणामों के बाद हमने इस तरह की प्रतियोगिताओं में शिरकत नहीं की, नहीं, हार-जीत के डर से नहीं, हार-जीत भला कौन-सी अच्छी-बुरी, उसकी तो समझ ही कहाँ थी, जीत का दंभ भला कि हार का दुख बुरा, मन तो बहुत था फिर-फिर टायर के साथ गगन तक दौड़ जाने को मगर घुटने फूट गए थे बहुत और बाई की डांट का भय भी था, भय भी उसकी बोली का नहीं उन आँखों का जो बोलते-बोलते कैसे भर आती थी, उसका भी कारण केवल यही नहीं और भी तो कितने दुःख रहे होंगे इतना भी आसान कहाँ था जीवन।

बाई बताती थी पहले शीतला सप्तमी का मेला ठेठ गाँव की नाड़ी (छोटा तालाब) की छोर तक चला जाता था। बहुत लोग आते थे। गेर(पुरुषों का एक पारंपरिक नृत्य) का घेरा इतना बड़ा हो जाता था कि मेले में इधर का फँसा उधर ना जा सके। कैसे ढोल बजा करते थे गेर के उस घेरे के अंदर, जो देखने आता उसके भी पैर थिरकने लगतेमेला लगने के सात दिनों पहले तक हम भी जाते सवेरे-सवेरे ठंडे पानी से देवी को शीतल करने, फाल्गुन की सुबह कितनी सुहावनी लगती थी तब। मेला दोपहर बाद जमता, हम सुबह से ही भटकने लग जाते यहाँ-वहाँ। पूरे मेले का सर्वाधिक आकर्षक स्थान अपने लिए वह टमाटर की दुकान। लाल-लाल, बड़े-बड़े कटे हुए टमाटर, ऊपर से मिर्च-मसाला लगाए हुए, क्या स्वाद, चटकारे उंडेल्ता। पूरे मेले में खर्च करने को दिया हुआ एक रुपया टमाटर प्यारे को समर्पित हो जाता, पचास-पचास पैसे की टमाटर की दो प्लेट पेट के अंदर, उसके बाद मसालेदार टमाटर घूरने भर को बस, घूरते-घूरते मन ही मन कहता बहुत बड़ा आदमी बनूँगा, बहुत सारे टमाटरों की दुकान लगाऊँगा लेकिन बेचूँगा नहीं, खुद खाऊँगा सारे के सारे। बाद में जब गन्ने के रस का स्वाद चढ़ा तो टमाटर के व्यापार का इरादा छोड़ दिया गया। शाम को बाई कुल्फी जरूर दिलवा देती दुनिया भर की जिद और रोने-धोने के बाद। मेला समाप्त हो जाता, सबसे अंत में मिट्टी के खिलौने बेचने वालों की दुकानें उठती, बाई मिट्टी की गणगौर खरीद लाती घर की बैठक के आले में उसे सजा कर रखती, हम देखते रोज, अगला मेला जल्दी लाना, तेरी मूरत की तरह बड़ा सुहावना है तेरा मेला भी।

शाम को खेतों में रजगा(हरी घास) लेने जाने का क्रम रहता।सोरा रेवा दे पो वडीजी’ (लड़के रहने दे, कट जाएगा) बाई कहती, जब मैं दत्तली लेकर घास पर टूट पड़ता, ऐसी दृष्टि से घास को देखता मानो अभी देखते-देखते धरती को घास विहीन कर दूँगा, शौर्य प्रदर्शन का वह मैं सबसे उपयुक्त स्थान मानता था, मगर स्वयं को कुशल कृषक साबित करने की होड़ में उँगलियाँ मारी जाती, कुछ देर घास के साथ युद्ध लड़ने के बाद संधि, फिर पराजय और अंत में आत्म समर्पण। जब रजगा कट जाता उसके भारे(बण्डल) बनाए जाते। कुछ भारों को मारोजी (मई के पति) अपने ठेले (बैलगाड़ी) में भर लेते, कुछ काटने वालों के सिर पर आसन पाते, दत्तली हाथों पर निशान दे जाती, मगर चेहरों पर श्रम की चमक रहती, रहे भी क्यूँ ना, धरती अपने असली योद्धाओं को पहचानती है। बाई बताती थी कैसे खेत में एक बार मई की मंझली लड़की को पल(सर्प की एक प्रजाति) ने काट लिया था। घनी झाड़ी में छिपकर बैठा था, हलचल हुई तो अचानक उड़ कर आया और पेट पर काटा, कुछ ही देर में काटने वाली जगह पर सुजन गई थी, उसे तुरंत देवी के मंदिर ले जाया गया था, देवी के उपासक ने मंदिर के धूणे की राख उस जगह पर मलने को कहा, जहाँ सर्प ने काटा था। राख ने क्या चमत्कार किया इसका अनुमान तो नहीं मगर इतना जरूर हुआ कि उसके बाद दूर अस्पताल तक पहुँचते-पहुँचते भी वह चेतन रही थी बाद में बिल्कुल ठीक भी हो गई थी, तब से देवी को दुहरा झुक कर प्रणाम होता, जब भी मंदिर के मार्ग से गुजरना होता।

मई के घर पशुओं के लिए ठेले से खाखला (सूखी घास) आता। बड़ा आकर्षण होता, कितनी ऊँचाई तक उसे ठूँस-ठूँस कर ठेले में भरा जाता था। खाखले को घर के बाहर से अंदर ओरे(भीतर का कमरा) तक ले जाने में एक काम बढ़ाने वाले मजदूर हम भी होते थे। कभी टकरा जाते, कभी तगारी हाथों से छूट जाती थी, कभी जल्दी वापस ठेले तक जाने के चक्कर में तगारी बीच में ही खाली कर देते, रास्ते भर खाखला ही खाखला। ओरा पूरा भर जाता, हम चोरी-छिपे उसके भीतर उछलते, खेलते, घास सूखी होती, चुभती, मगर चुभन लगती थी। रात को गुआले(खुला बरामदा) में सोते-सोते मारे खुजली के कसमसाते, ओरे की तरफ देखते, कहते, अभी तो मैं हूँ यहाँ सात-आठ दिनों तक, उछलता रहूँगा और खुजाता रहूँगा। मई के घर पाँच भैंसे और एक गाय थी, सारी की सारी रोज सवेरे चौपाल पहुँच जाती, वहाँ से आगे चरने को दूर तक चरवाहा ले जाता हाँक कर। इतना पशु धन पता नहीं वो अकेले कैसे संभाल पाता, वो पशुओं का ख्याल रखता या पशु उसका, ये रहस्य हमेशा बना रहा, इसी के साथ एक और महत्त्वपूर्ण रहस्य भी बना रहा कि शाम को लौट कर आये पशु अपना घर भूलते क्यूँ नहीं है, सभी अपने-अपने घरों को पहचानते थे, बिना भ्रमित हुए सीधे अपने घर में प्रवेश पाते। मैं सोचता यह कैसे संभव है कि ये अपने घरों को भूलते नहीं। इसी चक्कर में अपना जमावड़ा गली के बाहर लग जाता यह भ्रम सिद्ध करने को कि पशु कभी तो अपना घर जरूर भूलेंगे पर मजाल कि पास के घर में भी चले जाए, आखिर पशु है आएँगे तो अपने घर ही। मई की सारी भैंसे निस्संकोच घर में प्रवेश करती, इतराती, पूँछ उछालती, गाय रुक जाती दरवाजे पर, फिर भीतर से मई की आवाज आतीमेखी आवरी’(अंदर आजा) मेखी गाय का नाम धरा गया था, क्या मनवार है, बुलाया ना जाए तो अंदर ना आए, मुझे उसकी आँखें बहुत प्यारी लगती थी। बुला लो तो नेह उमड़े, ना बुलाओ तो भी आना तो है ही। बाई बताती थी मेखी को नजर लग गई थी, बहुत बीमार पड़ी, बड़े जतन किए मई ने, बड़ी सेवा की, मगर मेखी को बचा ना सकी। मार खाए जीवन में दुधारू गाय का खो जाना क्या होता है यह तो मई के मन ने ही जाना होगा, मगर तन का क्या, मोह कैसे छुड़ाना। पशु की विदाई भी कोई विदाई होती है भला, जैसे मई के बुलावे पर मेखी उमड़ पड़ती थी उसकी विदाई पर घर उमड़ पड़ा। फिर कोई पशु दरवाजे पर ना रुका, नेह तो बहुत रहा, उमड़ ना सका।

फिर बहुत बाद मई की तबीयत खराब रहने लगी। बाई बताती थी पता नहीं कहाँ से पैर में ऐसी तकलीफ आई, कुछ पता ही नहीं चला, ईलाज भी बहुत करवाया इधर-उधर, मगर असर ना हुआ तो ना हुआ। समय भी कितना बेरहम होता है, प्यारी से प्यारी चीज को ले जाते भी उसका मन नहीं पसीजता। अरे! बेदर्दी गुआले की चीखों का कोई तो मान रखा होता! मई चली गई। सावन की रिमझिम भी कैसे दुख भरी बूंदा-बांदी बन जाती है। फूलों, इत्र की तीक्ष्ण महक में कैसे दम घुटने लग जाता है और असमय गाए जाने वाले विदा गीत कैसे कलेजा चीर के रख देते हैं। मन कोमल कहाँ है, बड़ा कठोर है, सब झेल जाता है, दौर अवसान को समर्पित हो जाते हैं। चहक, खुशी कम समझ के सखा है, समझदारी के बाद तो मन में दुख बसता है, स्थाई भाव बनकर।

वीवा कदी रो है रे’ (शादी कब की है), मामा (मई के बेटे) ने पूछा, ‘अगले महीने की नौ तारीख को है’, ‘पानी पी ले, कब से लोटा पकड़े बैठा है’, ‘हाँ बस पीता हूँ।गुआला तो पूरा ढका जा चुका था, पॉल(बाहर की बैठक) में मई की तस्वीर लगी है, वैसी ही मुस्कुराती मूरत... न्यौता देने आया हूँ। मई को गुजरे बहुत साल बीत गए, बाद बाई भी चली गई, बहुत कुछ बता गई थी वह, कितना कुछ बाकी ही रह गया। समय बड़ा निष्ठुरताप्रिय है और इंसान को हर समाप्त होने वाली चीज प्रिय है। माँ ने बताया था बिल्कुल तस्वीर के सामने रखना और हाथ जोड़ना, वैसा ही किया, शगुन के कपड़े दिए गए हैं मई के लिए, यही न्यौता है।चाय पी लेमामा ने कहाहाँ पीता हूँ।मंदिर में दयालु देवता विराजे हुए हैं... फूल नहीं है आज देने के लिए... चबूतरे ध्वस्त है... ना चौपाल, सोपा, गाय-भैंस सब कहाँ, कोई भी तो नहीं है...ब्याह में जरूर आएँगेमामा ने कहा, मैंने मई की तस्वीर की तरफ देखा, लीली झांई वाला घी कैसे बनता है... वह बस मुस्कुरा रही थी। देवी के मंदिर से गुजरते वक्त बाई हमेशा कहा करती थीभूल-चूक क्षमा करजों, लाज राख्जों।वहाँ से गुजरते वक़्त मन खुद ही दोहराने लग गयाभूल-चूक क्षमा करना, लाज रखना।नहर से होते हुए सड़क पर पहुँचा। कितना जल्दी बीत जाता है सब कुछ, दिन-रात कुछ भी तो नहीं रुकता, बस खुशबूएँ रहती हैं, साँसों में बसी हुई। फिर उसी बात पर मन उमड़ आता है, गाता है, म्हारा वै दिन-रतियां जाता रह्या, जाता रह्या, म्हारा लाड अर खुशियाँ, जाता रह्या, जाता रह्या....

 

कैलाश गहलोत
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, राजकीय महाविद्यालय, सिरोही, राजस्थान
dr.kailashgehlot@gmail.com, 9252181813
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

2 टिप्पणियाँ

  1. मई और बाई जैसे चरित्र धीरे-धीरे विकसते हैं। देहात की दहलीज पर ठिठका पाठक आहिस्ता-आहिस्ता गोबर -गार की दीवार के सहारे-सहारे सरकता मंदिर, माला, ममता, फूल, खुशबू, और गाय की आँखों से परचता हुआ मई के आँचल की छाँव में लौट आता है, लेकिन मई ही फोटोफ्रेम के अबूझ ताले में बंद होकर अबोली बैठ जाती है। पाठक के हाथ लगती है तो देहात की वह खुशबू जो मन महाकाती हुई हवा की साँसों में घुल जाती है। अद्भुत संस्मरण कैलाश जी!

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  2. अद्भुत एवं जीवंत संस्मरण, कैलाश जी।

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