संस्मरण : भायो / मोहम्मद हुसैन डायर

भायो
- मोहम्मद हुसैन डायर



               बाहरवीं कक्षा में कुल पाँच लाइनें थीं। चार लाइनें दाहिनी तरफ और चार लाइनें बाईं तरफ। पाँचवीं लाइन पूरी दीवार को कवर करते हुए फैली हुई थी। कुल अड़तालीस विद्यार्थी हुआ करते थे। शब्बीर पांचवीं लाइन में बैठा करता था और मैं चौथी लाइन में। कक्षा 11 में तो उससे सलाम दुआ तक नहीं हुई। पर बारहवीं कक्षा के दर्मियान जब राजनीतिक विज्ञान विषय के नंबर बताए जा रहे थे, तब अचानक उसने ध्यान खींचा। इस विषय में सबसे ज्यादा अंक उसी के आए थे। मुझे उससे जलन हुई। 'लोग दिखावण' के खातिर उससे सलाम दुआ करनी पड़ी। बाहरवीं कक्षा में इसके बाद कभी भी उससे वापस बात नहीं की। बात करूँ भी क्यों, मेरी टोळी में भी नहीं था और एक छोटे से गाँव से आता था जिसका बेहद उटपटांग नाम है, कटार। अब जब भी हाजिरी रजिस्टर में उसका नंबर आता, तब वह जलन फिर परेशान करती। स्कूल जीवन के 2 साल के साथ के बावजूद उससे बस इतना सा संपर्क रखा। बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे जब आए, तब देखा कि जितने अंक मेरे आए, उससे दो अंक वह ज्यादा ले आया। राजनीति विज्ञान में तो सबसे ज्यादा। इसके बाद निकल गए हम अपनी अपनी दिशाओं में।

        पिताजी का अनुभव ये मानता था कि सरकारी नौकरियाँ मिलना मुश्किल है, इसीलिए 'हाथ का हुनर जिंदाबाद।' भाई सेल्फ डायनेमो का काम अच्छे से जानता है, इसीलिए यह भी इसकी मदद करते हुए काम सीख जाएगा और अपना खा पी लेगा। यह सोचकर उन्होंने सेल्फ डाइनेमो रिपेयरिंग की दुकान लगवा दी। पर आर्मी में जाने की मेरी इच्छा लगातार ज़ोर मार रही थी। एनसीसी के लालच ने कॉलेज पढ़ने का रास्ता दिखाया। पिताजी ने मेरी इस इच्छा को पूरा करते हुए इसी कॉलेज में पढ़ाने के लिए फार्म भरवा दिया। जुलाई, 2000 में एमएलवी गवर्नमेंट कॉलेज भीलवाड़ा में दाखिला ले लिया। वह दौर हो या आज का दौर, किराये पर कमरा मिलना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। एक तो बैचलर, दूसरा कंजूस और तीसरा मेरा नाम। इन कमियों के चलते कॉलेज के आस-पास की कॉलोनियों में मकान नहीं मिल पाया। इन कॉलोनियों के लगभग हर घर की दहलीज पर माथा टेका होगा, पर कहीं पर भी कमरा नहीं मिला। अकेला रहने का इच्छुक था, इसीलिए बजट भी एक कारण रहा। लगभग पूरा महीना ‘कमरा खोजो अभियान' में बीता।

            बरसती बरसात की एक दोपहर में मकान की खोज करते हुए निराश होकर रेलवे फाटक के बाहर गुजर रहा था। आसींद की बस पकड़नी थी सो अपनी आदत के अनुसार तेज कदमों से जा ही रहा था कि डांगी फैक्ट्री के सामने बरसात से लथपथ शब्बीर मिल गया। उसने कहा, “भाया मैं भी कमरा तलाश रहा हूँ। जो समस्याएँ तुम्हारे सामने आ रही हैं, वही मेरे सामने भी आ रही हैं। अगर तुम चाहो तो हम दोनों साथ में कमरा तलाशते हैं।” भोला चेहरा और निश्चिंत आँखें, उस पर भारी डील-डौल वाला उसका शरीर ईमानदार छवि का परिचय दे रहा था। ठंडे मन से ही सही, मैंने हाँ कर दी और उसी बरसती बरसात में घर जाना कैंसल कर कमरा तलाशने लगे। आजाद नगर, काशीपुरी, शास्त्री नगर जैसे इलाको में कमरे तलाशे, लेकिन बात नहीं बनी। अफसरों और संभ्रांत लोगों की अच्छी सोसाइटी के बीच रहकर पढ़ने का ख्वाब धुंधला होता चला गया। अगले दिन कॉलेज में पहुँचे ही थे कि साइकिल स्टैंड के पास ही महिपाल सिंह चुंडावत जो दसवीं तक मेरा क्लास मैट हुआ करता था, वह मिला। जब हमने अपनी समस्या उसके सामने रखी तो उसने कहा कि भाया, हमारे एक कमरा खाली है। अगर तुम दोनों चाहो तो वहाँ रह सकते हो। किराया ₹350 रहेगा। हम दोनों का बजट ₹250 तक ही था, लेकिन क्या करते? महीने भर का अनुभव हमारे सामने था। हमने हाँ कर दी और उसी वक्त तीनों महिपाल की साइकिल पर बैठकर उसके घर गए। घर चपरासी कॉलोनी के आखिरी बिंदु पर था। अफसर कॉलोनी का ख्वाब देखा था चलो कोई बात नहीं, चपरासी कॉलोनी से ही काम चला लेंगे।

            यहाँ से कॉलेज चार किलोमीटर दूर पड़ता है। सामान जमाने के बाद काम का बंटवारा हुआ। आटा गूंदने और बर्तन धोने का काम भाया ने सम्भाला। रोटी सेकना और तरकारी बनाना मेरे हवाले। झाड़ू लगाने की फॉर्मेलिटी वह करेगा जबकि पोछा लगाने का काम मेरे हिस्से में आया। मैंने कमरे में कभी पोछा लगाया ही नहीं। रोटेशन के साथ 15 दिन में एक बार घर जाना होता था। जिस सप्ताह वह घर जाता उस समय वह मेरा राशन भी लेकर आता, ठीक इसी तरह से जब मैं जाता तो घर पर उसके दादाजी राशन रख जाते थे और मैं उसे ले आता था। हर एक चीज़ का हिसाब बराबर था, केरोसीन, आटा, दाल, नमक, मिर्च, तेल। हमारी दोस्ती पक्की थी, पर खर्चे के मामले में एक दम बनिए थे। एनसीसी में भर्ती हो जाने के कारण मेरी दिनचर्या बिलकुल कायदे से चलती थी, जबकि शब्बीर के लिए ऐसी कोई बंदिश नहीं थी। पर मेरी जरूरतों के चलते उसे भी समय का पाबंद होना पड़ा।

            कुछ दिनों बाद मुझे एहसास हुआ की शब्बीर मुझसे डरता है। इसका मुख्य कारण मेरा कठोर अनुशासित होना हो सकता है। इसके अलावा मैं एक सरकारी कर्मचारी का अकडू लड़का था जबकि वह एक साइकिल की दुकान चलाने वाले मजदूर का बेटा। टेबल कुर्सी पर बैठकर पढ़ना मेरी आदत में था और वह अक्सर कोने में दुबका बिस्तर में बैठकर पढ़ता था। सुई गिरे जितनी आवाज़ भी मुझे बहुत परेशान करती थी, इस कारण भी वह बेचारा किताब के पन्ने भी इतने ध्यान से पलटता था कि कहीं उसकी आवाज़ मेरे कानों तक न पहुँच जाए।

        ताश खेलने का बहुत शौक था उसे। ‘दसला पकड़' खेलने के लिए चार आदमी की जरूरत पड़ती है। महिपाल, मैं और उसके अलावा एक साथी की और तलाश थी। इस कमी को एमएलवी कॉलेज के लाइब्रेरियन के लड़के ज्योति ने पूरी की जो पास ही रहते थे। इस तरह से हम चारों 'भाया' जब आस-पास की बस्ती सो जाया करती थी, हम एक घंटा नियमित ताश खेलते। महिपाल की माँ को यह खबर चली तो उन्होंने हम लोगों को डाँटा और कहा कि घर में ताश खेलने से घर की लक्ष्मी चली जाती है। ताश खेलने का चस्का इस कदर लगा कि हमें कोई न कोई रास्ता निकालना ही था, इसीलिए हम अब रात के 10:00 बजे के बाद बाहर सड़क पर बैठकर ताश खेलने लगे। अक्सर 8:00 बजे उठते। सुबह लैट्रिन करने के लिए चारों साथ में जाते थे। रेल की पटरियाँ नजदीक थी सो आती जाती रेलगाड़ियों को देखते हुए गाजर घास में मोर्चा संभाले रहते। तब तक सारा मोहल्ला उठकर निवृत्त हो चुका होता था। शर्म और हया के मामले में हमारी यह राय थी, ‘नीची किदी नाड़, माथा आणी बाड़।' कई दिनों तक एक गड्ढे को भरने की हम चारों ने प्रतियोगिता लगाई। रोज़ बारी बारी से उसी गड्ढे में हम बैठते रहे, पर महीने भर बाद भी वह गड्ढा नहीं भरा। दुर्भाग्य यह था कि आसपास के सूअरों को हमारे खजाने का पता चल जाता था।

            एक बार ज्योति के घर का लैट्रिन होद लीक कर गया। सफाई कर्मचारियों ने केवल ऊपर का पानी खाली कर दिया। मल खाली करने के बारे में उन्होंने कहा कि यह काम हमारा नहीं है। परेशान ज्योति ने जब हमारे सामने ये बात रखी। अब हमारी चौकड़ी ने मिलकर योजना बनाई थी इस माल रूपी मल को हम ही ठिकाने लगाएँगे। पर समय क्या होगा? लोग क्या कहेंगे, इसका डर कहीं ना कहीं थोड़ा मन में जरूर था। शब्बीर का प्लान था कि रात को 11:00 बजे इस काम को अंजाम देना शुरू करेंगे। तो रात के 11:00 बजे हमारी चौकड़ी पहुँच गई ज्योति के घर। टीम का नेतृत्व मैंने किया। लेट्रिंग के हौद में उतरकर एक एक बाल्टी कर मल की बाल्टियों को ऊपर दोस्तों तक पहुँचाता रहा। लगभग 4 घंटे की कड़ी मेहनत के बाद होद हम दोस्तों ने खाली कर, बिल्कुल साफ कर दिया। उसी वक्त लक्स साबुन से खूब रगड़ रगड़ के हम नहाएँ। पर हाथ से भरे गए मल की बदबू भला आसानी से कैसे जाने वाली? लगभग चार दिनों तक मेरे हाथ बदबू मारते रहे। उस दिन ज्योति के पिता ने नाश्ते के द्वार खोल दिए और हमने तीन अलग अलग होटलों पर जमकर मिठाई पर हाथ साफ किए।

            पौष महीने की मावट वाली ठिठुरा देने वाली एक रात हम दोनों एक ही गुदड़ी में सो रहे थे। शायद 11:00 बजे होंगे। यकायक एक कु कु की आवाज ने मेरी नींद खोली। मैं समझ गया कि जरूर बाहर कोई कुत्ते का पिल्ला ठिठुर रहा है। पर नजरंदाज करके करवट बदल ली,  गर्म रजाई छोड़ने का खतरा कौन ले।  शब्बीर जाग रहा था। डरते डरते मुझसे पूछा, 

            “भाया, इ हुच्चा न कमरा म ले आवा?”

            उसके बोलने का अंदाज इतना मासूम था कि मना नहीं कर पाया। हम दोनों गुदड़ी से निकले। बरसती हुई उस बरसात में वह पिल्ला हमारे गेट के पास ही बैठा था जो काफी भीग चुका था। शब्बीर ने उसे उठाया और कमरे में लाकर उसे सुखाने का जतन करने लगा। थोड़ी ही देर में उस अकड़े पिल्लै में हलचल शुरू हो गई। शब्बीर ने आधी बोरी बिछा कर उस पर बिठा दिया और बाकी उसे ओढा दी। शब्बीर के चेहरे पर बहुत खुशी झलक रही थी, वह आकर गुदड़ी में बैठ गया। अभी आधा घंटा भी नहीं बीता होगा कि मैंने उस  पिल्लै को यह कहते हुए वापस बाहर निकाल दिया कि इसे प्रकृति के कठोर वातावरण को झेलने  का आदि होना पड़ेगा। हम हमेशा इसकी मदद नहीं कर सकते इसलिए इसे ठंड के माहौल को बर्दाश्त करना होगा।  वह मेरे आगे कुछ बोल न सका। मायूस होकर चुपचाप गुदड़ी में मुँह पटककर सो गया। अगले दिन मेरी  नींद शब्बीर के खुशी से चिल्लाने  की आवाज से खुली,

               “भाया देख रे! हुच्यो तो ऊ खेल रयो।”

            मकान किराया सहित महीने में मेरा खर्च ₹250 मात्र था, जब शब्बीर से पूछा कि भाया, तुम्हारा खर्चा कितना हो जाता है तो उसने बताया कि ₹350। मैं शक में डूबा सोचने लगा, ये ₹100 ज्यादा कहाँ खर्च करता है? एक दिन जब मैं पढ़ रहा था, तभी बड़ड़-बड़ड़ की आवाज ने मेरा ध्यान भंग किया। मुड़ कर देखा तो पता चला कि शब्बीर का मुँह चल रहा है। जब उससे पूछा तो उसने कहा कुछ नहीं, ऐसे ही कर रहा हूँ। जब पास में जाकर उसका मुह सूंघा तो गुटखे की बदबू ने मुझे परेशान कर दिया।। सख्ती से पूछने पर उसने कहा कि मैं विमल खाता हूँ। मैं गुटखे खाने वाले के साथ कभी नहीं रहूँगा, यह बात उसको पहले ही बता दी थी, पर उसने मुझसे यह बात छुपाई सो मुझे गुस्सा आ गया। मैंने उसी दिन अपना सामान लेकर निकल गया और पांच किलोमीटर दूर जूनावास जाकर रहने लग गया। परीक्षा से ठीक पहले लगभग आठ महीने का साथ मैंने छोड़ दिया। महिपाल और शब्बीर ने मुझसे बहुत विनती की, पर मैं नहीं रुका।

            अगले साल जब कॉलेज वापस खुले तो एक शाम भाया मेरे कमरे पर आया। उस वक्त मैं पढ़ रहा था। पूछा कि क्या हुआ? कैसे आना हुआ? उसने कहा, कुछ नहीं। ऐसे ही आ गया। मैंने उसकी चाय पानी की मनुहार भी नहीं की। बस अपनी पढ़ाई में लगा रहा। लगभग एक घंटा उसकी उपेक्षा में गुजर गया और वह चुपचाप बैठा रहा। जब पानी पीने के लिए उठा तो उसने डरते हुए मुझसे धीरे से कहा, “ भाया, चा ल न।”

“कठ्य?”

“पुराणा घर, महीपाल का नक।”

“नहीं, म न चाल सकू। तुने मुझसे झूठ बोला और विश्वासघात किया।”

“अब न करूँ। थु हण्डे रेई तो माकी भी पढाई हो जाई। अब गुटखा न खऊ।”

“नहीं, मैं फैसला नहीं बदलूँगा।“ उसकी मीठी राजस्थानी मेरी कड़वी हिंदी के आगे वह चुप हो गयी। वह निराश होकर वापस लौट गया।

            अगले दिन मैं जल्दी ही एनसीसी क्लास में चला गया। दोपहर को कॉलेज में मुझे एक दोस्त ने जानकारी दी कि महीपाल और शब्बीर ने तुम्हारा सामान अपने कमरे पर शिफ्ट कर दिया है। दोस्तों की इस दादागिरी पर मैं गुस्सा भी नहीं हो पाया। पता नहीं क्यों मैंने भी उनकी दादागिरी को स्वीकार कर लिया। शब्बीर उस रात महिपाल के साथ ही सोया, मेरे पास आने की हिम्मत नहीं कर पाया। सुबह जब लेट्रिन के लिए बोतल भरने के लिए चबूतरे पर रखी तो शब्बीर चुपके से निकल कर आया और बोतल भरते हुए मुझे कहा,

“भाया, थू महान है।”

           मैंने उसे चप्पल दे मारी। खुद को बचाते हुए वह अपनी बोतल ले पटरियों के पार भाग गया। इस हँसी के ठहाके में सारा गुस्सा और डर न जाने कहाँ गायब हो गया।

            वापस उसी तरह की चौकड़ी जमने लगी, उसी गड्ढे को भरने का टास्क, गाजर घास में मोर्चा संभाल कर बैठना, आती जाती ट्रेनों को देखना और घर का दौलत बाहर न चली जाए, इसलिए सड़क पर बैठ कर दसला पकड़ खेलना। इन सबके बीच एक नई हरकत और हमने शुरू कर दी, वह यह कि पड़ोस के प्लॉट के लग रहे पपीते चोरी कर खाना और उनके छिलकों को अलग-अलग पड़ोसियों के यहाँ पोस्ट ऑफिस के द्वारा पार्सल करना। पर हाँ, पढ़ाई के समय में हम कोई समझौता नहीं करते थे।

           एक बार सुभाष नगर एक्सटेंशन कॉलोनी की होली दहन के दौरान होली का डांडा पूरी कॉलोनी में से कोई भी उखाड़ने की हिम्मत नहीं कर पाया। आखिर इसी  गंगा-जमुनी चौकड़ी ने जलती हुई होली में से डांडे  को लाने में सफलता पायी। सुभाष नगर एक्सटेंशन वालों को चिढ़ाने के लिए हमने ‘चपरासी कॉलोनी जिंदाबाद' के खूब नारे लगाए।

            जनवरी, 2002 में शब्बीर को ऐन्यूअल फंक्शन में कॉलेज टॉपर के रूप में सम्मानित किया गया, उसका यह सम्मान मेरे कलेजे में चुभने लगा। पर फिर भी मन मार कर उसके साथ पढ़ता रहा। शब्बीर भी अब मुझे कम भाव देता था, वह अक्सर ज्योति और महिपाल के साथ गलियाँ ताड़ने लगा। मैं बार बार उस पर हावी होने का प्रयास करता और ईर्ष्या के चलते उससे कटा कटा भी रहता। सेकंड ईयर की परीक्षा पूरी होने के बाद मैंने फिर शब्बीर का साथ छोड़ दिया। इस बार लगभग पूरे साल शब्बीर से कॉलेज में ही मुलाकात होती और औपचारिकता निभाकर आगे बढ़ जाता। मैं घरेलू परेशानियों, कंप्यूटर क्लास, एनसीसी तथा कॉलेज की पढ़ाई में ऐसा उलझा कि लगभग दोस्तों का साथ छूट ही गया था।

            इसी बीच कुछ दिनों के लिए मुझे घर जाना पड़ा। एक दिन घर के नंबरों पर महीपाल का फोन आया, उसने कहा है कि हम ने वापस तुम्हारे सारे सामान को हमारे घर के कमरे पर शिफ्ट कर दिया है। तुम लाख चाहों पर हम तुझे अपने से दूर नहीं होने देंगे। इन नालायक दोस्तों की हरकतों के आगे मैं लाख कोशिश कर के भी हार ही जाता था। भीलवाड़ा पहुँचा तो शब्बीर मुझे देखते ही भाग गया। मेरे सामने आने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। दूसरे दोस्तों के द्वारा उसने फिर वही संदेश पहुँचाया कि तुम्हारे रहते हुए हम पढ़ लेंगे, वरना हमसे पढ़ाई नहीं होती है। अब इस नालायक का मैं क्या करूँ?

            बी.ए. पूरी हो गई। अब क्या करे? परसाई के ‘टॉर्च बेचने वाला' व्यंग्य में दो दोस्तों के सामने 'पैसे कैसे पैदा करें’ वाला जो प्रश्न खड़ा हुआ, वह प्रश्न हमारे सामने भी पैर जमाकर खड़ा हो गया। हम दोनों ने साल भर तक इधर-उधर हाथ पैर मार मारे। जब सफल नहीं हुए तो अलग-अलग ट्रेन पकड़ी। मैं पहुँचा मुंबई और वह पहुँचा हिम्मतनगर। मुंबई में मात्र चार महीने के बाद ही मुझे नौकरी से निकाल दिया गया और मैं लौटकर अपने घर आ गया जबकि शब्बीर हिम्मतनगर में अपने सेठ का विश्वास जीतने में सफल रहा। अब हम दोनों में मुलाकात वर्षों तक नहीं हुई। मैं कभी बेरोजगार कभी रोजगार वाली ट्रेन की यात्रा करते जिंदगी के धक्के खा रहा था कि अचानक लगभग सात आठ साल बाद मेरी मोबाइल की दुकान पर वह कस्टमर बनकर आया। उसने मुझसे खूब गर्मजोशी से मुलाकात की। उस समय उसके हावभाव और रुतबा देखकर फिर मेरे दिल में जलन शुरू हो गई। वह अब बड़ा रोड कॉन्ट्रेक्टर बन चुका था। मेगा हाइवे जैसे रोड़ बनाने के ठेके लेता था। मैंने उसके मोबाइल की खराबी को दूर की। वह मुझे मजदूरी देखकर वापस निकल गया और फिर सालों तक हमारी कोई मुलाकात नहीं हुई।

            मैं फिर रोजगार बनाम बेरोजगार की लड़ाई में उलझा पढ़ने में लग गया। पढ़ते-पढ़ते आखिरकार मास्टर बन ही गया। इसकी खबर उसे फेसबुक पोस्ट से मिल चुकी थी। लगभग छ: सालों के बाद में वह ईद पर मिला। देखते ही उसने मुझे बाहों में भर कर हवा में घूमाने लगा। खुश होकर काफी देर तक मेरी पीठ ठोकता रहा। उसके इस व्यवहार ने मुझे बहुत बड़ी सीख दी। मुझ जैसा दोस्त, दोस्त की तरक्की से हम भले ही जल जाए, लेकिन शब्बीर जैसा दोस्त ऐसे भी होते हैं जो दोस्त की तरक्की से रोम रोम खुश हो जाते हैं। सरकारी नौकरी की आपाधापी के बीच वापस हमारा मिलना नहीं हो पाया। कभी-कभी ईद पर वह जरूर झलक दिखला जाता। पर कभी बैठकर दिल की बात कहने का मौका नहीं मिला।

जनवरी, 2021 में उसका फ़ोन आया,

“भाया, मैं एक माइनिंग एक्स्प्लोसिव कंपनी का मैनेजर हूँ, 26 जनवरी को मुझे कंपनी के प्रोग्राम में भाषण देना है। एक भाषण लिख कर भेजो।”

            आपको यह बता दूँ कि इससे पहले शब्बीर के लिए मैंने कॉलेज लाइफ में भी भाषण लिखे थे। इन भाषणों को अलग-अलग प्रोग्राम में वह दिया करता था। तो इस बार भी मैंने हाँ कर दी। इस तरह अब हर 15 अगस्त, 26 जनवरी और उसकी कंपनी की स्थापना की एनिवर्सरी के दिन मुझसे भाषण लिखवाता रहा। मोबाइल पर ही सारा मेटर लिखकर उसे भेज दिया करता था।

            18 मार्च, 2024 को उसका वॉट्सऐप मैसेज आया। उसे कुछ रुपयों की जरूरत थी। वह किसी नए प्रोजेक्ट के लिए हाथ-पैर मार रहा था। मुझसे जो हो पाया, वह दिया। महीने भर बाद वापस लौटाने का वादा किया। महीने भर बाद पूंजी वापस नहीं आई तो उसे याद दिलाने के लिए व्हाट्सअप मैसेज किया। उसने जवाब दिया कि वह बीमार चल रहा है। कॉल लगाने पर मालूम हुआ कि उसे आंत का कैंसर है। शुरू-शुरू में तो विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि मुझे लगा कि शायद उसे भी बाहर की हवा लग गई है और मुझे टोपी पहनाना चाहता है। खैर! क्या कर सकता था इंतजार के अलावा। ईद पर मिले उसके भाई से शब्बीर के हालचाल पूछे तो पता चला कि वास्तव में उसे कैन्सर है और उसका इलाज चल रहा है। अगस्त महीने में शब्बीर ने जब मेरे खाते में मेरी दो तिहाई पूंजी लौटाते हुए क्षमा याचना की, तब फ़ोन लगा कर विस्तार से जानकारी ली और उसने बताया कि ऑपरेशन हो चुका है और अब थेरेपी चल रही है। ऑफिस भी जाने लग गया है। उसकी कंपनी की अक्टूबर महीने में एनिवर्सरी थी। भाषण लिखने के लिए उसने मुझे कहा जो मैंने लिखकर भेज दिया। बातों ही बातों में उसने जानकारी दी कि अब वह बिल्कुल ठीक हो चुका है और कंपनी के डायरेक्टर के पद पर प्रमोशन हो गया है। हर बार की तरह इस बार मुझे किसी प्रकार की जलन नहीं हुई, बल्कि बहुत खुशी हुई। पता नहीं क्यों? इसके बाद बाद फिर कभी उससे बात नहीं हुई।

            कैंसर से लड़ने और जीतकर अपना काम जारी रखने की उसकी हिम्मत से मैं काफी प्रभावित था। अब मैं चाहता था कि आने वाले 26 जनवरी के लिए भाषण वह खुद लिखें। इससे वह अपने संघर्ष को अपने शब्दों में अच्छे से बयान कर पाएगा, ऐसा मैं सोचता था। इस संबंध में 26, दिसम्बर को जो व्हाट्सएप मैसेज किया था, वह इस प्रकार था,

“शब्बीर,

तबीयत कैसी है तुम्हारी,

मैं चाहता हूँ कि इस बार की स्पीच तुम खुद लिखो। मेरे पर निर्भरता छोड़ो। हमारे द्वारा लिखे गए शब्द ज्यादा प्रभावी होते हैं। अब तक जो भाषण मैंने लिख करके तुम्हें भेजे हैं, उनको पढ़ करके अपनी समझ बनाकर लिखने का प्रयास करो। मेरा मानना है कि इस प्रक्रिया के द्वारा तुम बेहतर स्पीच दे सकते हो।”

कई दिनों तक उसने मेरा मैसेज नहीं देखा तो मैंने बीच में कॉल भी लगाया, लेकिन कॉल रिसीव नहीं हुआ। मैंने सोचा हो सकता है कि थेरपी के चलते वह कुछ ज्यादा परेशान होगा, सो उसे डिस्टर्ब करना उचित नहीं होगा।

लगभग महीने भर बाद नौकरी पर जाते वक्त जब मैं हरिपुरा चौराहा पर बस से उतरा तो बस में बैठे महिपाल ने मुझे आवाज़ लगाई। मुझे पता नहीं था कि वह भी बस में बैठा है। जब पास में गया तो उसने बताया,

“भाया, भायो तो फरो ग्यो।”

“कुण फरो ग्यो? कस्यो भायो?”

“शब्बीर”

“कब”

“निंग कोने यार। काल ही खबर सुणी।”

            दिमाग सुन्न हो गया। पास के खंभे का सहारा लेकर काफी देर तक वहीं खड़ा रहा। न जाने क्या सोचता रहा। वाहन आते-जाते रहे, पर पता ही नहीं था कि आसपास में क्या हो रहा? कुछ देर बाद स्टाफ साथी ने आकर ढांढस बंधाया।

           संडे को कटार गया, शब्बीर के घर। कुर्सी पर बैठे उसके पिता सत्तार जी की गर्दन झुकी हुई थी। औपचारिक अभिवादन होने के बाद धीरे-धीरे खुलते हुए उन्होंने बताया कि 17 दिसंबर को ही उसका इंतकाल हो गया था। ऑपरेशन के बाद कई दिनों तक वह ऑफिस भी जाता रहा, पर जब तबियत बिगड़ने लगी तो बिगड़ती ही गई। डॉक्टरों ने तो एक महीने पहले ही जवाब दे दिया था कि अब शब्बीर केवल 15 दिन का मेहमान है। इसीलिए अब इसे घर ले जाओ। शब्बीर का यह अंतिम समय है इसकी जानकारी उसकी बीवी और भाई ने किसी को नहीं दी। यहाँ तक कि शब्बीर को भी नहीं बताया। मौत के एक दिन पहले जब उसके बोतल लगाने का केनोला नहीं लग पाया, तब भाई शौकत ने शब्बीर सहित सब को हकीकत बताई। उसके पिताजी बता रहे थे कि उस दिन शब्बीर खूब रोया, खूब रोया। अगले दिन अलविदा कह गया।

            शब्बीर को गाँव के ही कब्रिस्तान में दफनाया गया। कब्रिस्तान की ओर बढ़ते वक्त मैं अपने आँसू रोक नहीं पाया। जिस दोस्त से अक्सर में जला करता था, उस दोस्त की याद में आँखों से तड़- तड़ आँसू क्यों बहा रहे हैं? ये मैं समझ नहीं पाया। कब्रिस्तान में केवल दो कब्रें थी, एक शब्बीर की और दूसरी उसी की दादी की जो उसे बबलू कहा करती थी। शब्बीर की कब्र पर फातिहा पढ़ते हुए कुरान की आयतें ज़बान पर आ ही नहीं रही थी। नज़रों के आगे रह-रहकर शब्बीर का चेहरा आ जाता और वह मुझसे कहता है कि “अब मैं भाषण लिखवाने के लिए तुझे परेशान नहीं करूँगा। भाया, म थारे भरोसे न रू अब।”

            मुझे इसका रह-रहकर अपराध बोध हो रहा है कि यह मैसेज क्यों लिखा? काश, मैं नहीं लिखता तो शायद वह आज हमारे बीच होता। वह नाराज होकर मुझसे दूर चला गया


मोहम्मद हुसैन डायर
व्याख्याता (हिंदी), राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय आलमास (मांडल) जिला भीलवाड़ा
dayerkgn@gmail.com, 9887843273
  
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-57, अक्टूबर-दिसम्बर, 2024 UGC CARE Approved Journal
इस अंक का सम्पादन  : माणिक एवं विष्णु कुमार शर्मा छायांकन  कुंतल भारद्वाज(जयपुर)

5 टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही उम्दा लेख और हृदय विदारक

    जीवन में ऐसे मित्र विरले ही होते हैं

    जवाब देंहटाएं
  2. कभी हमे अपनी दोस्ती पर अभिमान हुआ करता था,
    कभी तुमसे मिलना हमारी शान हुआ करता था,
    हर लम्हा तेरी दोस्ती का समेट कर रखते है,
    कभी उन लम्हो पर तेरा एहसान हुआ करता था
    बहुत शानदार 👌 लेख

    जवाब देंहटाएं
  3. भाया को श्रद्धांजलि ,और हमारा परम सौभाग्य है ।की डायर साब जैसे दार्शनिक लोगो के साथ नौकरी करने का मोका मिला ।बहुत अच्छा लिखा गया की दोस्त एक दूसरे से जलन होने के बाद भी प्रेम और लगाव का भाव था वो कम नहीं हुआ।लेकिन इस संस्मरण में लिखा की नाम के कारण जो रूम तक नहीं मिला यह एक इस देश की विडंबना मानव मानव में फ़र्क़ होता।अपनी लड़ाई ख़ुद को लड़नी पड़ेगी किसी पार्टी या संस्था के भरोसे

    जवाब देंहटाएं
  4. निःशब्द! श्रद्धांजलि! आंखों के आगे जीवंत दृश्य! भाव और शब्द का अद्भुद संयोग।

    जवाब देंहटाएं
  5. यह संस्मरण मन की सूखी मिट्टी को भिगोने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए। जिन्हें भीतर संवेदना का सोता सूखता महसूस होता है वे यह संस्मरण पढ़ें। ईर्ष्या को इश्क़ में तबदील होते देखना, दोस्ताना तकरार का भाषणों की बाँह थाम कर फिर से भेंटना और अंत में गहरी करुणा में विलीन हो जाना देर तक मथता है। डॉ. डायर के इस संस्मरण का एक अंश दलित आत्मकथाओं के प्रसंग की तरह विचलित करता है। अमानुष होते मानव समाज के लिए मानवता की बूटी की तरह लिखा गया यह 'स्मरण' अपनी तरह का इकलौता है।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने